tag:blogger.com,1999:blog-44972692645312813452024-03-25T05:02:32.279+05:30हँसते रहोहास्य और व्यंग्य की दुनिया में आपका स्वागत हैराजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.comBlogger503125tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-45270174020322605112024-01-03T17:47:00.001+05:302024-01-03T17:47:25.327+05:30मैमराज़ी - जयंती रंगनाथन<p dir="ltr">1970-80 के दशक में जहाँ एक तरफ़ मारधाड़ वाली फिल्मों का ज़माना था तो वहीं दूसरी तरफ़ आर्ट फिल्में कहलाने वाला समांतर सिनेमा भी अपनी पैठ बनाना शुरू कर चुका था। इसी बीच व्यावसायिक सिनेमा और तथाकथित आर्ट सिनेमा की बीच एक नया रास्ता निकालते हुए हलकी-फुल्की कॉमेडी फिल्मों का निर्माण भी होने लगा जिनमें फ़ारुख शेख, दीप्ति नवल और अमोल पालेकर जैसे साधारण चेहरे-मोहरे वाले कलाकारों का उदय हुआ। इसी दौर की एक मज़ेदार हास्यप्रधान कहानी 'मैमराज़ी' को उपन्यास की शक्ल में ले कर इस बार हमारे समक्ष हाज़िर हुई हैं प्रसिद्ध लेखिका जयंती रंगनाथन। </p><br><p dir="ltr">मूलतः इस उपन्यास के मूल में कहानी है दिल्ली के उस युवा शशांक की जो दिल्ली में अपनी गर्लफ्रैंड 'सुंदरी' को छोड़ कर भिलाई के स्टील प्लांट में बतौर ट्रेनी इंजीनियर अपनी पहली सरकारी नौकरी करने के लिए आया है। भिलाई पहुँचते ही पहली रात उसके साथ कुछ ऐसा होता है कि वो भौचंक रह जाता है। </p><br><p dir="ltr">अगले दिन सुबह पड़ोसन के घर से नाश्ता कर के निकले शशांक के साथ कुछ ऐसा होता है कि आने वाले दिनों में वह अपने अफ़सर से ले कर कुलीग तक का इस हद तक चहेता बन बैठता है कि उनकी पत्नियाँ उसके साथ अपनी बेटी, बहन या रिश्तेदार की लड़की को ब्याहने के लिए उतावली हो उठती हैं। अब देखना ये है कि क्या शशांक ऐसे किसी मकड़जाल में फँस वहीं का हो कर रह जाएगा अथवा दिल्ली में बेसब्री से अपना इंतज़ार कर रही गर्लफ्रेंड सुंदरी के पास वापिस लौट जाएगा? उपन्यास को पढ़ते वक्त अमोल पालेकर की कॉमेडी फिल्म "दामाद" जैसा भी भान हुआ। मज़ेदार परिस्थितियों से गुज़रते इस तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास में पता ही नहीं चलता कि कब वह खत्म हो गया।</p><br><p dir="ltr">इस उपन्यास के पेज नम्बर 164 में एक पंजाबी भाषा के एक संवाद में लिखा दिखाई दिया कि..</p><br><p dir="ltr">'इडियट, सुंदरी की शादी किसी और से करवाएगा तू? बैन दे टके'</p><p dir="ltr">जो कि पंजाबी उच्चारण के हिसाब से सही नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..</p><br><p dir="ltr">यहाँ 'बैन दे टके' की जगह 'भैंण दे टके' या 'भैन दे टके' </p><br><p dir="ltr">184 पृष्ठीय इस दिलचस्प उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द युग्म और YELLOW ROOTS India मिल कर और इसका मूल्य रखा गया है 249/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhMK3NMx-cZucTVSewmNkCfsoWY0JxJ3j1qasly2CNN-VtMjgLaqajLfwzap6IwgfkVjWYj2reZqIM6n9hNVoLlRWnAeHKEBsEEZePpnIUyFJeqjQkX1UQUeZ-3e40YrpSxmyXi0V22Me5kdq3y1ab9rnPhVDyGlaymDAJCYzU2ONyXG_7fjksKlGchY50" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div><br></div><div><br><p dir="ltr">"आउट - नॉट आउट"</p><p dir="ltr"> राजीव तनेजा</p><p dir="ltr">शोर-शराबे के तनाव भरे माहौल के बीच माथे पर चिंता के गहन भावों के साथ दर्शक दीर्घा में बेहद डर और उत्सुकता का मिलाजुला माहौल। हार या जीत का सारा दारोमदार मैदान में खेल रहे खिलाड़ियों के दम-खम पर। अब देखना ये है कि शातिर गेंदबाजों की तिकड़मी गेंदें हावी होती हैं या फ़िर बल्लेबाज की हिम्मत और धैर्य के साथ खेले गए शॉट।</p><p dir="ltr">लंबे रनअप के बाद निशाना साधे गेंदबाज़ की एक तेज़ बाउंसर बिना संभलने का मौका दिए सीधा बल्लेबाज की तरफ़ हावी होती हुई। हड़बड़ा कर बल्लेबाज ने तेज़ आक्रमण से बचने का भरपूर प्रयास किया मगर इससे पहले कि वो कामयाब हो, गेंद सीधा उसके हेलमेट से जा टकराई। बल्लेबाज ने लड़खड़ा कर गिरते हुए संभलने का प्रयास किया। पसीना पोंछते गेंदबाज के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान। </p><p dir="ltr">बल्लेबाज के चेहरे पर थकान मगर सधे अंदाज़ में गेंदबाज़ पर नज़रें गड़ाए सावधानी से अगली गेंद खेलने के लिए तैयार। लंबे रनरअप के बाद ये एक और तेज़ गति से स्विंग होती हुई गेंद। पहले से तैयार खड़े मुस्तैद बल्लेबाज ने ज़ोर से हवा में बल्ला घुमाया और इसके साथ ही गेंद हवा में उड़ती हुई बाउंड्री पार चार रनों के लिए। तालियों की गड़गड़ाहट और करतल ध्वनि के बीच तेज़ गति से दौड़ते गेंदबाज की अगली गेंद थोड़ी धीमी गति के साथ बल्लेबाज की तरफ़ लपकी। सावधानी से खड़े बल्लेबाज से बल्ला घुमाया मगर ये क्या, बल्लेबाज को छकाती हुई गेंद ने अचानक टर्न लिया और सीधा मिडल विकेट की गिल्ली उड़ाती हुई पीछे विकेटकीपर द्वारा रोक ली गयी। अंपायर का 'आउट' का इशारा और थके कदमों से बल्लेबाज वापिस पवैलियन की तरफ़। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</a>
</div><br><p dir="ltr">"लो.. इतनी जल्दी इसकी विकेट भी उड़ गयी। अब देखते हैं कि अगला कब तक टिकता है।" नर्स ने मुस्कुराते हुए पास खड़े वार्ड ब्वाय से कहा और संजीदा चेहरे के साथ अगले पेशेंट की तरफ़ बढ़ गयी।</p><p dir="ltr">इसके साथ ही C.C.U (क्रिटिकल केयर यूनिट) के बाहर रिश्तेदारों के रोना-बिलखना शुरू हो चुका था। </p></div><div class="blogger-post-footer"><script type="text/javascript"><!--
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-13047551071104402272023-10-04T23:23:00.001+05:302023-10-04T23:23:55.267+05:30द डार्केस्ट डेस्टिनी - डॉ. राजकुमारी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgh37VOq5s_-zwJLzfNGe4ohi-GrxW-8JJs5pq9F4LpOwhGncZfrEwOtL4zfvuMFZrmcze44ozmf5Jmk6Ym_UDEcqjNMZ1ILdVhT-Fs3omVCllkAs-itw0NIFEWRLhMS7AA6X96bkmRUoyYZ4E_jbMb_PVOVOglhZbsQEDJ5uG3LO0tX6xMqxh4iXQZCMM" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br><p dir="ltr">आमतौर पर जब भी कभी किसी के परिवार में कोई खुशी या पर्व का अवसर होता है, तो हम देखते हैं कि हमारे घरों में हिजड़े (किन्नर) आ कर नाचते-गाते हुए बधाइयाँ दे कर इनाम वगैरह ले जाते हैं। किन्नर या हिजड़ों से अभिप्राय उन लोगों से है, जिनके किसी ना किसी कमी की वजह से जननांग पूरी तरह विकसित न हो पाए हों अथवा पुरुष होकर भी जिनका स्वभाव स्त्री जैसा हो या जिन्हें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के बीच रहने में सहजता महसूस हो।</p><br><p dir="ltr">दोस्तों..आज मैं इसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे 'द डार्केस्ट डेस्टिनी' के नाम से लिखा है डॉ. राजकुमारी ने। दलित लेखक संघ की अध्यक्ष, डॉ. राजकुमारी की रचनाएँ कई साझा संकलनों के अतिरिक्त अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार रामदरश मिश्र जी के लेखन पर स्वतंत्र किताबों के अतिरिक्त इनका एक शायरी तथा एक कविता संग्रह भी आ चुका है। </p><br><p dir="ltr">किन्नर विमर्श को केंद्र में रख आत्मकथ्य के रूप में लिखे गए इस उपन्यास के मूल में कहानी है लैंगिक विकृति के साथ पैदा हुई एक आदिवासी लड़की अमृता की। उस अमृता की जिसे अपने बचपन से ले कर जवानी तक घृणा और तिरस्कार भरे जीवन से दो चार होना पड़ा। इस उपन्यास में कहीं अमृता के घर-परिवार से ले कर गाँव-समाज तक में कभी दैहिक तो कभी मानसिक रूप से प्रताड़ित..शोषित होने की बातें नज़र आती हैं तो कहीं किन्नर परंपराओं से जुड़ी बातें भी पढ़ने को मिलती हैं। </p><br><p dir="ltr">इसी उपन्यास में कहीं शारीरिक रूप से एकदम ठीक होते हुए कुछ लड़कों के स्वेच्छा से किन्नर वेश अपना पैसे कमाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं किसी को जबरन किन्नर बनाए जाने की बात भी होती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं हालात से समझौता कर घुटने टेकने की बात होती नज़र आती है तो कहीं अधिकारों के लिए संघर्ष करने की बात भी पूरे दमख़म के साथ उभर कर सामने आती दिखाई देती है।</p><br><p dir="ltr">इसी उपन्यास में भीमराव अंबेडकर जी की विचारधारा से प्रेरणा लेते किन्नर नज़र आते हैं तो कहीं किन्नरों द्वारा अरावल राक्षस की मूर्ति से पूर्ण श्रंगार कर मंगलसूत्र इत्यादि पहन सामूहिक विवाह करने की बात और उसके मरने पर मंगलसूत्र तोड़ सामूहिक रूप से विलाप करने की परंपरा की बात होती नज़र आती है। </p><br><p dir="ltr">पूरा उपन्यास अंततः एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाता दिखाई देता है कि जब कुछ व्यक्तियों को मात्र सैक्स का आनंद उठा पाने में सक्षम ना होने की वजह से किन्नर मान लिया जाता है तो जो पुरुष या स्त्री बच्चे पैदा करने में किसी भी वजह से सक्षम नहीं हो पाते, उन्हें भी किन्नर श्रेणी में डाल, उनका किन्नरों की ही भांति बहिष्कार क्यों नहीं किया जाता? जब उन्हें सामान्य श्रेणी में डाल, समाज का ही एक अटूट हिस्सा माना जा सकता है तो किन्नरों को क्यों नहीं? </p><br><p dir="ltr">बतौर सजग पाठक होने के नाते मुझे इस उपन्यास के शुरुआती 30 पृष्ठ खामख्वाह में उपन्यास की लंबाई बढ़ाने के लिए लिखे गए दिखाई दिए जिनके होने या ना होने से कहानी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ना था। साथ ही इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ लेखिका 'कि' और 'की' अन्तर को भी नहीं समझ पायी हैं तो वहीं दूसरी तरफ इस उपन्यास में हद से ज़्यादा वर्तनी की त्रुटियाँ दिखाई दीं। इसके अतिरिक्त प्रूफ़रीडिंग की कमियाँ भी ग़लतियों के मामले में वर्तनी की त्रुटियों से इस हद तक कड़ा मुकाबला करती दिखाई दीं कि 'किस में कितना है दम? उपन्यास को पढ़ते वक्त ऐसा प्रतीत हुआ कि लेखिका ने बिना प्रूफ़रीडिंग को चैक किए जल्दबाज़ी में किताब जस की तस छपवा ली है। </p><br><p dir="ltr">पेज नंबर 43 में लिखा दिखाई दिया कि..</p><br><p dir="ltr">'रंगीन दीवारें बीच-बीच में पंखे और बाहरी हवा के झोंकों से झूलती हुई नन्हे बल्बों की लाइनें और सुहागसेज के इर्द-गिर्द लगी पीले गेंदे की फूलों की लड़ियाँ अठखेलियाँ कर रही थी। कमरे में बिजली के बल्बों के अलावा भी बड़ी-बड़ी खूबसूरत और भिन्न-भिन्न रंगों की मामबत्तियां जल रही थी, जो उस कमरे के वातावरण को बहुत रोमांचक बना रही थी'</p><br><p dir="ltr">इस पैराग्राफ़ में परस्पर विरोधी बातें लिखी दिखाई दीं कि कमरे में पँखे की हवा के साथ-साथ बाहरी हवा भी आ रही थी और कमरे में बड़ी-बड़ी मोमबत्तियाँ भी जल रही थी। जबकि पँखे की या बाहरी हवा के आगे जलती मोमबत्तियों के लिए अपने वजूद को बचा पाना संभव ही नहीं है। </p><br><p dir="ltr"> साथ ही सुहागरात के इस दृश्य में लेखिका ने यहाँ 'रोमांचक' शब्द का इस्तेमाल किया है जिसे मौके के हिसाब से बिल्कुल भी सही नहीं ठहराया जा सकता। इस मौके के लिए 'रोमांचक' की जगह सही शब्द 'रोमांटिक' होगा।</p><br><p dir="ltr">इसी पेज पर एक और कमी दिखाई दी कि इस पेज का काफ़ी बड़ा हिसा पेज नंबर 179-178 में रिपीट होता दिखा। हालांकि उसी पहले वाले दृश्य की पुनरावृत्ति हो रही थी लेकिन फिर भी शब्दों में अगर थोड़ा हेरफेर किया जाता तो बेहतर था। </p><br><p dir="ltr">पेज नंबर 88 में लिखा दिखाई दिया कि..</p><br><p dir="ltr">'सर्दियों के होली डेज़ में तो आमतौर पर यही होता था' </p><br><p dir="ltr">यहाँ लेखिका का 'होली डेज़' यानी कि हॉलीडेज़ से तात्पर्य सर्दियों की छुट्टियों से है जबकि शब्द में 'होली-डेज़' ग़लत जगह पर विच्छेद या स्पेस आने से इस शब्द के मायना ही बदल कर 'पवित्र दिन' हो गया है।</p><br><p dir="ltr">■ पेज नंबर 144 के दूसरे पैराग्राफ में लेखिका एक तरफ उपन्यास की नायिका अमृता बन किन्नर समाज की पैरवी करते-करते अचानक बीच पैराग्राफ के ही आम समाज की पैरवी करती दिखाई दी।</p><br><p dir="ltr">उदाहरण के तौर पर इसी पैराग्राफ में पहले लिखा दिखाई दिया कि..</p><br><p dir="ltr">'इन्हें मोरी में रहने वाला कीड़ा कहते हुए हमारी जुबान जरा भी नहीं लड़खड़ाती, ना ही लज्जा आती है। उनके चरित्र पर कीचड़ उछालकर उनकी छवि बिगाड़ने में हम तगड़ी मेहनत करते हैं'</p><br><p dir="ltr">■ पेज नंबर 148 से शुरू हुए एक ट्रेन यात्रा के दौरान छेड़खानी के दृश्य में किन्नरों द्वारा एक युवक को किसी लड़की के साथ छेड़खानी करने से रोका जाता है। इस प्रसंग के दौरान गुस्से में एक किन्नर उस युवक को झापड़ जड़ देता है जिससे उस युवक का मुँह लाल हो जाता है। उसके बाद तमाशा देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हो जाती है। </p><br><p dir="ltr">इसी दृश्य से संबंधित पेज नम्बर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..</p><br><p dir="ltr">'उसने उसके गाल पर एक झापड़ जड़ दिया। उसका मुँह लाल पड़ गया। सभी लोग इकट्ठे हो गए। लड़का हाथों की पकड़ ढीली होते ही मौका का भाग खड़ा हुआ। </p><br><p dir="ltr">अब यहाँ ये सवाल उठता है कि चलती ट्रेन में किन्नरों समेत अन्य लोगों की भीड़ में फँसा युवक भाग कैसे सकता है? और मान भी लिया जाए कि किस तरह भाग गया तो आख़िर वो भाग कर भला जा कहाँ सकता है? </p><br><p dir="ltr">■ किसी भी किरदार को जीवंत करने के लिए लेखक को परकाया में प्रवेश कर उसी किरदार की भांति सोचना, समझना एवं बोलना पड़ता है मगर उपन्यास में लेखिका साफ़ तौर पर इस मुद्दे पर पिछड़ती दिखाई देती हैं कि किरदार के बजाय वे स्वयं लेखिका के रूप में अपने किरदार पर हावी हो </p><p dir="ltr">किरदार के मुख से अपनी भाषा..अपने विचार बोलती दिखाई देती हैं। </p><br><p dir="ltr">उदाहरण के लिए पेज नंबर 150 में लिखा दिखाई दिया कि...</p><br><p dir="ltr">ऐ लड़की तुम। हाँ, तुम! कपड़े तो मॉडर्न पहन लिए थोड़ी हिम्मत भी जुटा ले। तुम इन इंसानों की खाल में लैंगिकता का दंभ भरने वाले भेड़ियों से खुद को बचाने की कोशिश ना कर के हिम्मत बढ़ाती हो।</p><br><p dir="ltr">■ बाइंडर की ग़लती से जो किताब मुझे मिली उसमें पेज नंबर 109-110 उलटे चिपके हुए अर्थात पेज नंबर 110 पहले और पेज नंबर 109 बाद में था। </p><p dir="ltr">इसके बाद पुनः यही ग़लती मुझे पेज नंबर 153-154 में दिखाई दी जिसमें पेज नंबर 154 पहले और 153 बाद में था। </p><br><p dir="ltr">बतौर पाठक, लेखक एवं एक समीक्षक होने के नाते मेरा मानना है कि आधे-अधूरे मन से लिखी गयी रचना कभी सफ़ल नहीं हो सकती। दमदार लिखने के लिए आप में सजगता के साथ संयम का होना बेहद ज़रूरी है। दरअसल होता क्या है कि ज़्यादातर लेखक अपने लिखे के मोह में पड़ उसे ऐसा ब्रह्म वाक्य समझ लेते हैं कि उसके साथ कोई छेड़छाड़ या काट-छाँट संभव ही नहीं। इसका नतीजा अंतत रचना को ही भुगतना पड़ता है जिसका भविष्य लेखक की थोड़ी सी समझदारी और धैर्य से उज्ज्वल हो सकता था मगर उसकी हठधर्मिता की वजह से जिसका बेड़ागर्क हो गया। आप मान कर चलिए कि आधे-अधूरे मन से किया गया कोई भी काम अँधों में काना राजा तो हो सकता है मगर कभी पूर्णतः सफ़ल नहीं हो सकता। एक अच्छी और सफ़ल किताब या रचना के लिए स्वयं लेखक का एक ऐसा निर्दयी संपादक का होना निहायत ही ज़रूरी है जो स्वयं ही अपनी रचना के भले के लिए उसमें धड़ल्ले से काट-छाँट कर सके। </p><br><p dir="ltr">■ पूरा उपन्यास पढ़ने के बाद स्वाभाविक रूप से मन में एक प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता दिखाई देता है कि क्या बिना पढ़े, साहित्यजगत की प्रसिद्ध एवं नामचीन हस्तियों द्वारा, किसी किताब की भूमिका या प्रस्तावना के लिए अपना नाम एवं शब्द देना उचित है? </p><br><p dir="ltr">उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब में हुई ग़लतियों से संज्ञान लेते हुए लेखिका एवं प्रकाशक अपनी आने वाली किताबों में इस तरह की कमियों से बचने का प्रयास करेंगे कि इससे लेखक/प्रकाशक की साख पर बट्टा तो लगता ही है। </p><br><p dir="ltr">यूँ तो लेखिका से यह उपन्यास मुझे उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस किताब के 192 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है देवसाक्षी पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgoOlbBfYdccuTKdxUmVh2B-BklwZHXp7nSQUhx9gxqysXQMJczj-kcFiNssf_TFXdvNK62INLCo6eiOSEvcIAYGNwDF9sazo5769yZAHU9CvV7uQBtQm2c4LVxAr__OetrsSxm_jPL0IuJjtdeWpC-LSnze4BenYQUWSA-b5LuILwg0GFNKTbyjMY4p64" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-78454132455908521692023-09-15T09:26:00.003+05:302023-09-15T09:26:50.867+05:30सितारों में सूराख़ - अनिलप्रभा कुमार <div>अभी हाल-फिलहाल में ही एक ख़बर सुनने..पढ़ने एवं टीवी के ज़रिए जानने को मिली कि हमारे यहाँ किसी उन्मादी सिपाही ने चलती ट्रेन में अपनी सरकारी बंदूक से एक ख़ास तबके के निरपराध यात्रियों पर गोलियाँ बरसा, मानवता को तार-तार करते हुए उनकी हत्या कर दी। इसी तरह की कुछ ख़बरें भारत के पूर्वोत्तर में स्थित मणिपुर से भी लगातार आ रही हैं जहाँ, वहाँ के दो समुदायों, बहुसंख्यक मैतेई और अल्पसंख्यक कुकी के बीच हिंसक झड़पों में सैंकड़ों लोग रोज़ाना मारे जा रहे हैं। इस तरह की ख़बरों को देख या सुन कर हम सभी चौंके तो सही मगर ऐसा नहीं हुआ कि इससे एकदम से हाय तौबा मच गई हो या सत्ता के गलियारों की बुलंद इमारत और बुनियाद वगैरह हिल गयी हो। दरअसल इस तरह की ख़बरों की जानकारी होने के बावजूद भी हम सब चुप रहते हैं कि ये सब हम पर थोड़े ही ना बीत रहा है। मगर हम सब यह नहीं जानते कि जो आग हमारे घरों के बाहर अभी फ़िलहाल जल रही है, एक न एक दिन हमारे घरों एवं परिवारों को भी अपनी चपेट में ले लेगी। कमोबेश इसी तरह की मनोस्थिति या विचारधारा को समर्थन करते लोग केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व भर में फैले हुए हैं।</div><div><br></div><div>दोस्तों..आज इस तरह की त्रासदी से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी गंभीर विषय से जुड़े एक प्रभावी उपन्यास 'सितारों में सूराख' की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है लेखिका अनिलप्रभा कुमार ने।</div><div><br></div><div> इस उपन्यास के मूल में कहानी है अमेरिका के एक टीवी चैनल में अपनी आजीविका के लिए नौकरी कर रहे जय, उसकी पत्नी जैस्सी उर्फ़ जसलीन और उसकी नौवीं में पढ़ रही बेटी चिन्नी की। देर रात ओवर टाइम कर के घर लौट रहे जय, किसी अज्ञात नकाबपोश द्वारा बन्दूक की नोक पर लूट लिया जाने से चिंतित हो अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए अपने एक दोस्त की मदद से एक पिस्टल खरीद तो लेता है मगर...</div><div><br></div><div>इस उपन्यास में कहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ियों द्वारा गैस चैम्बर में बंद कर 60 लाख से ज़्यादा यहूदियों के संहार किए जाने की बात होती नजर आती है। तो कहीं भारत विभाजन की त्रासदी से जुड़ी बातें होती नज़र आती हैं। इस उपन्यास में कहीं किसी दृश्य की भयावहता और विभीस्तता के ज़रिए उसके बिकाऊ होना या ना होना तय किया जाता दिखाई देता है। कहीं टीवी पत्रकारिता के लिए सच को तोड़ा मरोड़ा जाता दिखाई देता है तो कहीं किसी नाईट क्लब में बेगुनाह लोगों पर सरेआम गोलियां बरसा उनका क़त्ल कर देने की बात को भी महज़ एक सनसनीखेज ख़बर के नज़रिए से देखा जाता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं बतौर संदर्भ भारत-पाक विभाजन के दर्द से उपजी सोच की वजह से हिन्दू-मुस्लिम के बीच की संकीर्णता उभर कर मुखर होती दिखाई देती है। तो कहीं नफ़रत भूल आगे बढ़ने की बात सकारात्मक ढंग से होती दिखाई देती है। कहीं कोई भारत-पाक़ विभाजन के 70 वर्षों बाद भी उस वक्त के भयावह मंज़र को गले लगाए बैठा नज़र आता है। तो कहीं कोई खुद ही अपनी बेटी को इस वजह से कुँए में धकेलता दिखाई देता है कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो उसकी मासूम बेटी दंगाइयों की भेंट चढ़ अपनी जान और आबरू दोनों ही खो बैठेगी। इसी उपन्यास में कहीं घर के दामाद के मुस्लिम होने की वजह से पूरा हिन्दू परिवार दंगाइयों के कहर से बचता दिखाई देता है कि इस घर के सभी सदस्य मुसलमान हैं।</div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं सुरक्षा के मद्देनज़र तो कहीं फैशन..दिखावे या स्टेटस सिंबल के तौर पर दिन-रात पनपते गन कल्चर की बात होती दिखाई देती है। तो कहीं अपने वैलेट में हमेशा कुछ न कुछ डॉलर ले कर चलने की सलाह महज़ इस वजह से दी जाती दिखाई देती है कि किसी उठाइगीरे या लुटेरे से मुठभेड़ के दौरान नकद रकम मिलने की वजह से आप कम से कम जान से मारे नहीं जाएँगे। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं कोई असाध्य कैंसर से पीड़ित अपनी बेटी को असहनीय पीड़ा से मुक्ति दिलाने के नाम पर एक-एक कर के बंदूकों का अंबार खरीदता नज़र आता है। तो कहीं व्यस्क होने के मतलब को अपने निर्णय स्वयं लेने के अधिकार और सही-ग़लत के लिए खुद ज़िम्मेदार होने की बात से परिभाषित किया जाता दिखाई देता है। कहीं हाई स्कूल प्राॉम की पार्टी के लिए बेटी की ख़ुशी और उल्लास को देख कर उसकी माँ भी मन ही मन उत्साहित नज़र आती है कि उसके अपने समय में इस सब की छूट नहीं थी। बेहद ज़रूरी मुद्दे को उठाते इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास में कहीं भारत-पाकिस्तान के लोगों के एक जैसे खान-पान, बोली, रहन-सहन और परिधानों की बात कर इस बात पर प्रश्न मंडराता दिखाई देता है कि जब सब कुछ हम में एक जैसा है, तो फ़िर ये दुश्मनी..ये नफरत क्यों? </div><div> </div><div>इसी उपन्यास में कहीं पुलिस कर्मियों द्वारा सरेआम किसी अश्वेत के साथ मानवाधिकारों के हनन का स्पष्ट मामला उजागर होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अज्ञात बंदूकधारी आवेश में आ किसी स्कूल में इस तरह अंधाधुंध गोलियाँ बरसाता दिखाई देता है कि उसकी चपेट में आ कई मासूम बच्चे मारे जाते हैं। इसी उपन्यास में कहीं कोई पत्नी अपने घर में पति के द्वारा हथियार रखने से आहत दिखाई देती है। </div><div><br></div><div> तो कहीं यह उपन्यास इस बात की तस्दीक करता दिखाई देता है कि दुख ना धर्म, ना जाति, ना देश और ना ही त्वचा के रंग के हिसाब से किसी के साथ कोई भेदभाव करता दिखाई देता है। </div><div> </div><div>इसी उपन्यास में कहीं किसी दफ़्तर में मोटी रकम ले नौकरी छोड़ने की गरिमामयी बर्खास्तगी को बाय आउट का नाम दिया जाता दिखाई देता है। तो कहीं नयी जानकारी के रूप में पता चलता है कि अमेरिका में हथियार खरीदने की अपेक्षा कोई कुत्ता गोद लेना ज़्यादा मुश्किल काम है।</div><div><br></div><div>कहीं कोई स्कूल तो कहीं कोई शॉपिंग मॉल या कैसीनो अंधाधुंध गोलाबारी का शिकार होते कभी ब्राज़ील से अमेरिका में अवैध तरीके से घुस आए लोग दिखाई देते हैं तो कभी उनके अपने ही लोग इस सब से हताहत होते नज़र आते हैं। तो कहीं दिन-रात परिपक्व होती इस गन कल्चर के खिलाफ़ व्यथित हो महिलाएँ स्वयं ही एकजुट हो इस मुहिम को आगे बढ़ाती नज़र आती हैं कि घर में हथियार होने से सबसे ज़्यादा वे सब ही घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। इसी उपन्यास में कहीं जगह-जगह होती इस गोलाबारी से आहट के बीच एक बेटी व्यथित हो अपने माता-पिता को अपनी वसीयत के रूप में एक पत्र लिखती दिखाई देती है कि वह उन दोनों से कितना प्यार करती है। </div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं स्कूल-कॉलेज..सिटी एवं स्टेट काउन्सिल से ले कर सत्ता तक के गलियारों में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ता दिखाई देता है।</div><div><br></div><div>कहीं कोई पुलिस वाला स्वयं ही पुलिस स्टेशन में हथियार सौंपने आए जय को अवैध तरीके से हथियार बेचने के लिए उकसाता दिखाई देता है। तो कहीं दुनिया की मात्र 4 प्रतिशत अमेरीकी आबादी के पास दुनिया के 42 प्रतिशत हथियार होने का आंकड़ा दिया जाता दिखाई देता है।</div><div><br></div><div>धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस उपन्यास में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफ़रीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। इसके अतिरिक्त उपन्यास की कहानी के हिसाब से जय विदेश में अपनी पत्नी के साथ रह कर वहाँ के टेलिविज़न चैनल के लिए काम कर रहा है। किसी भी ख़बर के नियत समय पर होने वाले टेलीकॉस्ट को ले कर शुरू हुई गहमागहमी और आपाधापी का दर्शाता दृश्य पेज नंबर 12 के दूसरे पैराग्राफ़ में आता है। इस पैराग्राफ़ की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'यही है दूरदर्शन की दुनिया'</div><div><br></div><div>आम धारणा एवं मान्यता के अनुसार भारत के सरकारी टीवी चैनल का नाम 'दूरदर्शन' है जबकि जय तो विदेश में रह कर वहाँ के किसी टीवी चैनल के लिए काम कर रहा है। ऐसे में यहाँ 'दूरदर्शन' का नाम लिया जाना सही नहीं है। </div><div><br></div><div>बढ़िया क्वालिटी में छपे इस दमदार उपन्यास के 152 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 195/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEj1GbiwcJIyBAoj_10klQBi2_X1-sBbSP3WUfHJFgeIPQhYem1XeJv43TBAnXUzEy_5gquPBZmHATTipanWZqzWdG0egSMEnjo5000S3wgEq92zXDBSiuWcxfih6jmHvNeE8ESBJDY3SBOR46jkBPrawSggzDQl7Lxn4ujTuhFxF-rr9AQiY55Id_cZKEk" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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लिखा है इंदु सिंह। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाली उस अन्नु की जो पढ़-लिख कर डॉक्टर बनना चाहती थी मगर उसकी माँ ने अपनी ज़िद के चलते, अन्नु की और उसके पिता की इच्छा को दरकिनार कर मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही उसका ऐसी जगह ब्याह कर दिया जहाँ तमाम तरह की बंदिशों और दबावों को झेलते हुए दिन-रात घर के कामों में खट कर उसने अपना जीवन इस हद तक होम कर दिया कि अंततः वह अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठी। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं कोई माँ बड़े चाव से अपनी बेटी के सुखी भावी जीवन के मद्देनज़र उसे दहेज में वे सब चीज़ें देना चाहती है जिनसे कि उसे नए परिवार में जाने पर कोई दिक्कत या परेशानी ना हो। तो कहीं वह अपनी बेटी को ससुराल में हर दुःख.. हर कष्ट सह कर भी मायके का नाम खराब न करने की सलाह देती नज़र आती है। जिसकी वजह से अन्नु बिना किसी विरोध के ससुराल में धीमे बोलने, हर समय घूँघट में रहने और रेडियो ना सुनने तक के निर्देशों का पालन करती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं घर की स्त्रियों के ज़ोर से हँसने पर रोक लगी होने की बात होती दिखाई देती है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं दस-दस कमरों के घर में आराम से रहने वाली अन्नू अपनी माँ की ज़िद के चलते जल्दी विवाह करने के बाद महज़ एक कोठरी जितने बड़े कमरे में रहने के साथ-साथ दिशा मैदान के लिए भी लौटा ले बाहर खेतों में जाने को मजबूर कर दी जाती है। जहाँ मात्र इस वजह से उसे सुबह शौच जाने से जबरन रोका जाता दिखाई देता है कि वह सो कर देर से उठी है। तो कहीं उसे सुबह का बचा खाना रात को महज इस वजह से खाने के मजबूर किया जाता दिखाई देता है कि आज उसने दाल ज़्यादा बना दी थी। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं अन्नू को दहेज में उसके लिए मिली साड़ियों, कपड़ों, चप्पलों इत्यादि पर बड़ी ननद अपना हक़ जमाए दिखती है तो कहीं उसके दहेज के सामान को छोटी ननद अपने ब्याह में पूरी शानोशौकत और ठसक के साथ ले जाती नज़र आती है। कहीं महीनों से घर में टिकी ननद अपनी भाभी को महज इस वजह से प्रताड़ित करती नज़र आती है कि उसे, उसकी ससुराल में उसकी ननद द्वारा तंग किया जाता रहा है। तो कहीं अन्नु को उसके मायके लिवाने के लिए आए उसके भाई या पिता को वही ननद यह कह कर इनकार कर देती है कि हमारे यहाँ बहुएँ बार-बार मायके नहीं जाती है। </div><div><br></div><div>कहीं सही पढ़ाई के अभाव में गाँवों के बच्चे पान, बीड़ी और गुटखे इत्यादि की शरण में जाते दिखाई देता है तो कहीं किसी को अपने जीवन में पढ़ने के अनुकूल मौके ना पा कर मलाल होता दिखाई देता है। कहीं कानपुर में फैले चमड़ा उद्योग की वजह से वहाँ फैले प्रदूषण और गन्दगी की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं लखनऊ की साफ़ सफ़ाई और तहज़ीब की बात की जाती दिखाई देती है।कहीं हड़ताल के बाद महीनों तक तनख्वाह रुकने की परेशानी झेलता परिवार घर के राशन तक को तरसता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>कहीं अन्नू की कर्मठता और कर्तव्यपरायणता देख घर की देवरानी भी आलसी हो अपने सारे काम अन्नु को सौंप निठल्ली बैठी दिखाई देती है। </div><div>इसी उपन्यास में कहीं कोई सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त पिता जानबूझ कर घर के खर्चों के प्रति शुरू से अनभिज्ञ होने का दिखावा करता प्रतीत होता नज़र आता है। कहीं गाँव की नाउन सास और बहुओं में अँग्रेज़ों की तर्ज़ पर फूट डाल शासन करने यानी कि फ़ायदा उठाने के मंसूबे बाँध, दोनों हाथों से लड्डू बटोरती दिखाई देती है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं पुराने तौर-तरीकों के रूप में अरहर की दाल को कल्हारने जैसी बात होती दिखाई देती है तो कहीं पुरानी हो चुकी परंपराओं के बेटियों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने की बात होती नज़र आती है। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में क्षेत्रीय भाषा अथवा हिंदी के अपभ्रंश शब्द भी काफ़ी जगहों पर पढ़ने को मिले। पृष्ठ के अंत में उनके हिंदी अर्थ भी साथ में दिए जाते तो बेहतर होता। साथ ही पूरे उपन्यास में संवादों के इनवर्टेड कॉमा में ना होने की वजह से भी कई जगहों पर कंफ्यूज़न क्रिएट होता दिखा कि संवाद कौन बोल रहा है। कुछ एक जगहों पर थोड़ी-बहुत वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की भी कुछ कमियाँ दिखाई दीं। </div><div><br></div><div>■ आमतौर पर किसी भी कहानी को लिखते वक्त कहानी का हल्का सा प्लॉट ज़ेहन में होता है जो कहानी में भावों का प्रवाह बढ़ने के साथ-साथ डवैलप या परिपक्व होता जाता है। ऐसे में कई शब्दों , वाक्यों या दृश्यों को पीछे जा कर जोड़ना, घटाना, बदलना अथवा पूर्णरूप से हटाना पड़ता है। इस उपन्यास में इस चीज़ की हल्की से कमी दिखाई दी । </div><div><br></div><div>उपन्यास में कुछ एक जगहों पर पुरानी बातों का इस तरह जिक्र होता नजर आया मानों वह चीज़ या बात पहले से ही होती आ रही है जैसे कि पेज नम्बर 95 मैं लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'राघव भी बचपन से ही कैलाश की तरह गंभीर व्यक्तित्व का स्वामी था। राघव को अच्छी नौकरी मिल जाए इसके लिए अन्नु सालों से बृहस्पतिवार का व्रत रखती आ रही थी' </div><div><br></div><div>इसी तरह पेज नंबर 128 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'कैलाश खुद खेलकूद में बहुत अच्छे थे क्रिकेट और बैडमिंटन उनके प्रिय खेल थे। बैडमिंटन में तो पूरे जिले में कैलाश को कोई नहीं हरा सकता था। अनेक प्रतियोगिताओं में कैलाश ने भाग लिया था और हमेशा जीत उन्हीं की होती थी जबकि इन बातों का इससे पहले कहीं जिक्र होता नहीं दिखाई दिया। अगर इस तरह की कमियों से बचा जाए तो बेहतर है। </div><div><br></div><div>साथ ही घर-जायदाद के बंटवारे की बात को शुरू कर अधूरा छोड़ दिया गया। </div><div><br></div><div>■ पेज नम्बर 120 में राघव की बेटी यानी कि अन्नू की पोती अपनी दादी को रोबोट से संबंधित के कहानी सुना उसका अर्थ पूछती है। बच्ची की कम उम्र और समझ के हिसाब से कहानी की भाषा मुझे कुछ ज़्यादा ही परिपक्व लगी। स्कूल की किताब के हिसाब से कहानी की भाषा सरल होती तो ज़्यादा बेहतर होता।</div><div><br></div><div><br></div><div> ■ तथ्यात्मक ग़लती के रूप में पेज नम्बर 67 में लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'अन्नु की सास को हमेशा ही साँस लेने में दिक़्क़त रहती थी ख़ास कर तब जब मौसम बदल रहा हो तो उनकी तकलीफ़ बहुत बढ़ जाती थी। शहर में डॉक्टर से जाँच करवायी गयी तो पता चला कि उन्हें दमे की बीमारी थी। डॉक्टर ने उन्हें धूल और धुएँ से बचने के लिए कहा था साथ ही कुछ इनहेलर भी दिए थे कि यदि कभी अचानक ज़्यादा साँस उखड़े तो इससे आराम आ जाएगा। गाँव में तो धूल और धुएँ से बचना संभव ही नहीं है जिस कारण वह गाँव नहीं आ पा रही थी।'</div><div><br></div><div>आम डॉक्टरी मान्यता के अनुसार शहरों में गाँवों के अपेक्षाकृत प्रदूषण ज़्यादा होता है। इसलिए दमे इत्यादि के मरीजों को शहरों के बजाय गाँवों में जा कर रहने की सलाह दी जाती है लेकिन इस उपन्यास में इससे ठीक उलट बताया जा रहा है कि..'गाँव में तो धूल और धुएँ से बचना संभव नहीं था' जो कि सही नहीं है। </div><div><br></div><div>अंत में चलते-चलते एक महत्त्वपूर्ण बात कि किसी भी कहानी, उपन्यास या किताब में रुचि जगाने के लिए उसके शीर्षक का प्रभावी..तर्कसंगत एवं दमदार होना बेहद ज़रूरी होता है। कहानी के किसी महत्त्वपूर्ण हिस्से..सारांश या मूड को आधार बना कर ही अमूमन किसी कहानी, उपन्यास या किताब का शीर्षक तय किया जाता है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो इस उपन्यास का शीर्षक 'बेहटा कलां' मुझे प्रभावी तो लगा मगर तर्क संगत नहीं क्योंकि उपन्यास की मुख्य किरदार, अन्नु बेशक 'बेहटा कलां' में पैदा हुई मगर पूरे उपन्यास की कहानी नज़दीकी गाँव 'पनई खुर्द' के इर्दगिर्द ही घूमती है जहाँ वह मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही ब्याह कर चली गयी थी और जीवनपर्यंत वहीं रही। </div><div><br></div><div>बेहद ज़रूरी मुद्दे को उठाते इस बढ़िया क्वालिटी में छपे प्रभावी उपन्यास के 136 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम हिंदी पाठक तक इस ज़रूरी उपन्यास की पहुँच एवं पकड़ बनाने के लिए ज़रूरी है कि इसके दाम आम आदमी की जेब के अनुसार रखे जाएँ। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-34250513388703636332023-08-02T14:34:00.001+05:302023-08-02T14:34:31.560+05:30स्तुति - सौरभ कुदेशिया<div>ईसा पूर्व हज़ारों साल पहले कौरवों और पांडवों के मध्य हुए संघर्ष को आधार बना कर ऋषि वेद व्यास द्वारा उच्चारित एवं गणेश द्वारा लिखी गयी महाभारत अब भी हमें रोमांचित करती है। इस महागाथा में कृष्ण का चरित्र अपनी तमाम कूटनीतियों और छल-कपट के साथ अपने विराट स्वरूप में हमारे समक्ष आता है। तमाम उलट फेरों और रहस्यमयी साजिशों एवं चरित्रों से सुसज्जित इस कहानी के मोहपाश से नए पुराने रचनाकार भी बच नहीं पाए हैं। परिणामतः इस महान ग्रंथ की मूल कहानी पर आधारित कभी कोई फ़िल्म..नाटक..कहानी या उपन्यास समय समय पर हमारे सामने अपने वजूद में आता रहा है।</div><div><br></div><div>इसी रोमांचक कहानी के कुछ लुप्तप्राय तथ्यों को ले कर सौरभ कुदेशिया हमारे समक्ष अपना पाँच खंडों वाला थ्रिलर उपन्यास ले कर आए हैं। इस वृहद उपन्यास के प्रथम खंड 'आह्वान' की कहानी में एक रोड एक्सीडेंट में मारे गए व्यक्ति के लॉकर में रखी गयी उसकी वसीयत में एक अजीबोगरीब चित्र के अलावा और कुछ नहीं मिलता है। गूढ़ पहेली की तरह लिखी गयी वसीयत की गुत्थी सुलझाने की कोशिशों के तहत की जा रही तहकीकात के दौरान गुप्त संकेतों और अजीबोगरीब लाशों के मिलने से सिंपल मर्डर मिस्ट्री जैसी नज़र आने वाली यह कहानी हर बढ़ते पेज के साथ सुलझने के बजाय मकड़जाल की भांति तब और अधिक उलझती जाती है जब एक एक कर के और भी कई हत्याएँ तथा अनहोनी घटनाएँ सर उठा..सामने आने लगती हैं।</div><div><br></div><div>नए और पुराने के फ्यूज़न से रची इस हॉलीवुडीय स्टाइल की कहानी में एक तरफ़ महाभारत और गीता के गूढ़ रहस्य हैं तो दूसरी तरफ़ उन्हीं गूढ़ रहस्यों से परत दर परत निकलते गुप्त संकेतों को समझने..उन्हें डिकोड करने को दिमागी कसरत एवं कवायद करते कुछ लोग। </div><div><br></div><div>दोस्तों..अब बात कल्पना और मिथक के समावेश से लिखे गए इस वृहद उपन्यास के अगले यानी कि दूसरे खंड 'स्तुति' की। अनेक दबे या छिपे रह गए रहस्यों की परतें उधेड़ते इस उपन्यास में महाभारत युद्ध से पहले की परिस्थितियों को आधार बना कर कल्पना एवं तथ्यों के मिले जुले स्वरूप से एक ऐसी दिलचस्प कहानी को गढ़ा गया है जिसमें कृष्ण की सामान्य सी दिखने वाली चाल..हरकत या हल्की सी जुम्बिश के पीछे भी कोई न कोई गहरी सोच या ठोस योजना मूर्त रूप लेती दिखाई देती है। </div><div><br></div><div>इस दिलचस्प उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है उस वीर बाल शोण की जिसने आर्य होते हुए भी विसर्पियों के दुःख.. उनकी वेदना को अपना समझ उसका निराकरण करने का अपनी तरफ़ से भरसक प्रयास किया। विसर्पी वो, जो नागों और मनुष्यों के संगम से उत्पन्न हुए और अपने मूल ठिकाने खाण्डव वन के उजड़ने के बाद से नागों की शरणस्थली में मात्र इस वजह से उनके दास बने बैठे थे कि आर्य उन्हें अपना नहीं मान दुत्कार रहे थे और नागों ने अपने लोभ की वजह से उनका दोहन करने को उन्हें जैसे-तैसे स्वीकार कर लिया था। </div><div><br></div><div>दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है उस युवा शोण की जिसे नागलोक के निकटवर्ती राज्यों, चिरपुंज और अनंतपुर को आपसी दुश्मनी भूल कौरवों के पांडवों से होने वाले संभावित युद्ध में पांडव पक्ष का समर्थन देने के लिए मनाने के लिए कृष्ण ने अपने संदेश के साथ भेजा है। एक सीधे से दिख रहे पंथ के पीछे कृष्ण की मंशा अनेक काज निबटाने की है जिसमें नागवंश के नाश के साथ- साथ विसर्पियों की नागवंश से मुक्ति भी है। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है विसर्पियों के नागों के प्रति तमाम समर्पण..प्रतिबद्धता एवं एकनिष्ठा की तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में बात है उनके प्रति नागों की बर्बरता एवं क्रूरता से भरे पैशाचिक अत्याचार की। इसी उपन्यास में कहीं कृष्ण की हर क्रिया-प्रक्रिया और मंशा के पीछे ढकी-छिपी गहरी कूटनीतिक सोच दिखाई देती है जो समय आने पर पांडवों और स्वयं कृष्ण के पक्ष में अपने पूरे वजूद के साथ उजागर होती नज़र आती है। </div><div><br></div><div>इस बात के लिए लेखक की तारीफ़ करनी होगी कि कल्पना, गहन अध्ययन एवं गहरे शोध के बाद लिखे गए इस कदम-कदम पर चौंकाने वाले बेहद रोमांचक उपन्यास में लेखक ने अपने हुनर से रहस्य, गुप्तचरी और युद्ध कौशल का ऐसा बेहतरीन समां बाँधा है कि पाठक कहानी के साथ उसकी रौ में अंत तक बहता चला जाता है। दिलचस्प अंदाज़ में लिखे गए इस उपन्यास में लेखक ने अपनी बात को तथ्यात्मक रूप से सही एवं प्रमाणित साबित करने के लिए जगह-जगह पर विभिन्न ग्रंथों के दर्ज श्लोकों का उनकी पृष्ठ संख्या के साथ उदाहरण दिया है। </div><div><br></div><div>इसी तरह की शैली और विषय को ले कर अँग्रेज़ी में लिखे गए एक प्रसिद्ध उपन्यास के हिंदी अनुवाद की लचर भाषा की बनिस्बत इस उपन्यास की भाषा समय, काल एवं वातावरण के हिसाब से एकदम सही समय लगी। साथ ही उपन्यास में एक दो जगहों पर 'गपक लिया' जैसे शब्दों का प्रयोग 'निगलने' के लिए किया गया जो कि थोड़ा अजीब लगा।</div><div><br></div><div>उम्मीद की जानी चाहिए कि इस वृहद उपन्यास श्रृंखला पर जल्द की कोई बड़े बजट की हॉलीवुड या राजामौली टाइप की फ़िल्म या वेब सीरीज़ देखने को मिलेगी। </div><div><br></div><div>प्रूफरीडिंग की कमी के तौर पर पेज नंबर 35 के अंतिम पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'मर्मर ध्वनियां असहमति और असहमति विवाद में बदलने लगीं'</div><div><br></div><div>इस वाक्य में मेरे ख्याल से 'असहमति और असहमति विवाद में बदलने लगीं'की जगह 'सहमति और असहमति के विवाद में बलने लगीं' आना चाहिए। </div><div><br></div><div>रोमांचक सफ़र पर ले जाते इस दिलचस्प उपन्यास के 455 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द युग्म ने और इसका मूल्य रखा गया 250/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-32779976334417425542023-07-28T12:50:00.001+05:302023-07-28T12:50:50.661+05:30धनिका - मधु चतुर्वेदी<div>आज भी हमारे समाज में आम मान्यता के तहत लड़कियों की बनिस्बत लड़कों को इसलिए तरजीह दी जाती है कि लड़कियों ने तो मोटा दहेज ले शादी के बाद दूसरे घर चले जाना है जबकि लड़कों ने परिवार के साथ आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर साथ खड़े रह उनकी वंशबेल को और अधिक विस्तृत एवं व्यापक कर आगे बढ़ाना है। लड़की की शादी में मोटा दहेज देने जैसी कुप्रथा से तंग आ कर बहुत से परिवारों में लड़की के जन्मते ही या फिर उसके भ्रूण रूप में ही उसे खत्म कर देने का चलन चल निकला।</div><div><br></div><div>दोस्तों..आज इस सामाजिक मुद्दे से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी विषय से जुड़े एक ऐसे उपन्यास की यहाँ बात करने जा रहा हूँ जिसे 'धनिका' के नाम से लिखा है मधु चतुर्वेदी ने। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है एक ऐसी माँ की जिसे अपनी पूरी ज़िन्दगी इस बात का मलाल रहा कि उसका पूरा जीवन बच्चे पैदा करने और उनके लालन-पोषण में ही गुज़र गया। दूसरी तरफ इस उपन्यास में कहानी है घर के कामकाज में निपुण उस धनिका की जो अपने तमाम गुणों के बावजूद महज़ इस वजह से अपनी दादी की तारीफ़ को तरसती रही कि उसकी माँ ने बेटियाँ क्यों जनी हैं। </div><div><br></div><div>मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि की इर्दगिर्द बने गए इस उपन्यास में कहीं कोई अपनी पत्नी के जीवित होने के बावजूद उसी घर में उसी की छोटी बहन को उसकी सौतन के रूप में ब्याह के ले आता है कि बड़ी बहन बच्चे पैदा करने में सक्षम नहीं। तो कहीं कोई नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय जीव वाजिब दामों पर मौसमी फल व सब्ज़ियाँ पा कर अथवा किसी सरकारी काम के बिना रिश्वत दिए ही पूरे हो जाने पर या बॉस के मुँह से तारीफ़ के दो बोल सुन लेने पर ही परम संतोष अनुभव करता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div> इसी उपन्यास में कहीं कोई अपनी सास से इस वजह से नफ़रत करती दिखाई देती है कि उसने कोई बेटी नहीं बल्कि सब बेटे ही जने हैं। इसी उपन्यास में कहीं कोई किसी की बेवफ़ाई से आहत हो कर भी हर समय उसकी वापसी की बाट जोहता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं चार-चार बेटियों का ग़रीब पिता अपनी बेटियों के ब्याह के लिए होने वाले समधियों के आगे गिड़गिड़ाता..चिरौरी करता नज़र आता है। तो कहीं कोई दहेज लोलुप पिता अपने पढ़े-लिखे इंजीनियर बेटे को ऊँचे दामों में बेचने का प्रयास करता दिखाई देता है। इस उपन्यास में कहीं कॉलेज लाइफ को ले कर कोई लड़की रोमानी ख्वाबों में इस हद तक डूबी दिखाई देती है कि असलियत से रु-ब-रु ही नहीं होना चाहती। तो कहीं बेटियों की शिक्षा एवं स्वायत्ता की बात होती दिखाई देती है कि उनके लिए शिक्षित हो कर आत्मनिर्भर बनना कितना जरूरी है। </div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं शादी-ब्याह की तैयारियों और रीति-रिवाज़ों के बारीक चित्रण से पाठक दो चार होता नज़र आता है तो कहीं शादी में बारातियों और घरातियों के खाने में फ़र्क होता दिखाई देता है।</div><div><br></div><div> इसी उपन्यास में कहीं बारात के खाने में बफ़े की आइटम्स में मौजूद पनीर और आइसक्रीम को ज़्यादा से ज़्यादा हड़पने का दृश्य व्यंग्यात्मक हो मज़ेदार बनता नज़र आता है। तो कहीं शादी के दौरान होने वाली अफरातफरी का सजीव चित्रण पढ़ने को मिलता है। कहीं बचपन में देखे गए मेलों का सजीव वर्णन पढ़ने को मिलता है। तो कहीं होली की रंग-गुलाल भरी मस्ती और धमाचौकड़ी में बचपन पुनः मूर्त रूप लेता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस दमदार उपन्यास में एक प्रेमपत्र की भाषा को चमत्कृत बनाने के चक्कर में भाषा का प्रवाह मुझे टूटता हुआ प्रतीत हुआ। साथ ही कॉलेज की पिकनिक के एक दृश्य में ठठा कर हँसने का मौका मिला। कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियों के दिखाई देने के अतिरिक्त तथ्यात्मक ग़लती के रूप में इस उपन्यास में पेज नंबर 88 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'बाबा को लिफ़ाफ़े में रसीदी टिकट चिपकाता देख श्रद्धा भगवान से मनाती है कि कहीं भी शादी तय हो जाए।'</div><div><br></div><div>यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि रसीदी टिकट का इस्तेमाल विशेष तौर से लेनदेन के लिए किया जाता है। ये एक प्रकार से शासन को भुगतान किया जाने वाला टैक्स (राजस्व) है जबकि साधारण डाक को भेजने के लिए डाक टिकट का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..</div><div><br></div><div>'बाबा को लिफ़ाफ़े में डाक टिकट चिपकाता देख श्रद्धा भगवान से मनाती है कि कहीं भी शादी तय हो जाए।'</div><div><br></div><div>संग्रहणीय क्वालिटी के 159 पृष्ठीय इस दमदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से बिल्कुल जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-88402461776765845042023-07-03T10:47:00.001+05:302023-07-03T10:47:31.192+05:30बर्फ़खोर हवाएँ - हरप्रीत सेखा - अनुवाद (सुभाष नीरव)<div><br></div><div>साहित्य को किसी देश या भाषा के बंधनों में बाँधने के बजाय जब एक भाषा में अभिव्यक्त विचारों को किसी दूसरी भाषा में जस का तस प्रस्तुत किया जाता है तो वह अनुवाद कहलाता है। ऐसे में किसी एक भाषा में रचे गए साहित्य से रु-ब-रू हो उसका संपूर्ण आनंद लेने के ज़रूरी है कि उसका सही..सरल एवं सधे शब्दों में किए गए अनुवाद को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए। </div><div><br></div><div>अब रचना प्रक्रिया से जुड़ी बात कि आमतौर पर यथार्थ से जुड़ी रचनाओं के सृजन के लिए हम लेखक जो कुछ भी अपने आसपास घटते देखते..सुनते या महसूस करते हैं, उसे ही अपनी रचनाओं का आधार बना कर कल्पना के ज़रिए कुछ नया रचने या गढ़ने का प्रयास करते हैं। क्षेत्र, स्थानीयता.. परिवेश एवं भाषा का असर स्वतः ही हमारी रचनाओं में परिलक्षित होता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>दोस्तों आज अनुवाद और रचना प्रक्रिया से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं कनाडा की पृष्ठभूमि पर..वहीं के मुद्दों को ले कर रची गयी कहानियों के एक ऐसे संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे मूल रूप से लिखा है पंजाबी लेखक हरप्रीत सेखा ने और 'बर्फ़खोर हवाएँ" के नाम से इसका हिंदी अनुवाद किया है प्रसिद्ध लेखक एवं अनुवादक सुभाष नीरव जी ने। </div><div><br></div><div>इस संकलन की एक कहानी इस बात पर सवाल खड़ा करती नज़र आती है कि विवाह के बाद महिला के लिए पति का सरनेम ही ज़रूरी क्यों?</div><div>तो वहीं एक अन्य कहानी उस दुःखी पिता की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है जिसका, अपने साढ़ू की बेटी का विवाह की तैयारी करवाने के लिए भारत आया जवान बेटा, अपनी पत्नी और छोटे बच्चों को अकेला छोड़ रोड एक्सीडेंट में मारा जा चुका है मगर विडंबना ये कि एक्सीडेंट के कुछ दिनों के भीतर ही विवाह का होना तय हुआ है जिसमें उन सभी को शामिल होना है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ झूठी शान के चक्कर में फँसे ऐसे व्यक्ति की बात कहती नज़र आती है जो विदेश में अपनी लगी-लगाई नौकरी महज़ इस वजह से छोड़ कर घर बैठ जाता है कि उसकी सुपरवाइज़र से जिस हरिजन युवक से शादी की है, उसका पिता कभी उनके खेतों में काम किया करता था। तो वहीं एक अन्य कहानी कहानी जॉर्ज और वांडा के पड़ोस में बसने आए उद्दण्ड पड़ोसी के हश्र से इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि सेर को भी सवा सेर कभी ना कभी..कहीं ना कहीं ज़रूर मिलता है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की अन्य कहानी जहाँ घर से हफ़्तों दूर रहने वाले बिज़ी ट्रक ड्राइवर की पत्नी, रूप के एकाकीपन की बात करती है जो खुद को मसरूफ़ रखने के लिए लेखन के ज़रिए फेसबुक में सहारा ढूँढती है। उसकी देखादेखी पति भी अपना फेसबुक एकाउंट बना तो लेता है मगर..</div><div>तो वहीं एक अन्य कहानी में कैंसर की वजह से मृत्यु प्राप्त कर चुकी पत्नी, जगजीत के वियोग में तड़पता सुखचैन सिंह अंततः अपनी पत्नी की खुशियों में ही अपनी खुशी ढूँढ़ लेता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ सीमा के साथ हमेशा मारपीट करने वाले शक्की पति को जब एक्सीडेंट के बाद अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है तो ना चाहते हुए भी सीमा का झुकाव अस्पताल में अपनी बीमार माँ की देखभाल के लिए रुके एक अन्य युवक नवदीप की तरफ़ होने तो लगता है मगर ..</div><div>तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी एक ऐसे सैक्स एडिक्ट की बात करती दिखाई देती है जिसकी पत्नी, उसकी बुरी आदतों की वजह से उसे छोड़ कर चुकी है और इस सबसे बाहर निकलने की अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भी उसका भटकाव जारी है। </div><div><br></div><div> इसी संकलन की एक अन्य कहानी में कंजूस प्रवृति के जग्गा को ना चाहते हुए भी मन मार कर अपनी बेटी, रूबी का विवाह पूरी शानोशौकत के साथ करना तो पड़ जाता है मगर विवाह के कुछ दिनों बाद ही बेटी अपने मायके से फ़ोन कर के यह कह देती है कि वो अपनी हुक्म चलाने वाली सास के साथ ससुराल में नहीं रह सकती। तो वहीं एक अन्य कहानी खेलों के प्रति लोगों के जोश और उन्माद को ज़ाहिर करती नज़र आती है कि किस तरह अपनी चहेती टीम के हारने पर उनके फैन उन्मादी हो जहाँ-तहाँ उत्पात मचाने लगते हैं। </div><div> </div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी खोखले आदर्शों के साये तले जी रहे लोगों के दोगले रवैये पर चोट करती नज़र आती है। तो वहीं एक अन्य कहानी संकीर्ण सोच के उन लोगों की बात करती नज़र आती है जो वक्त एवं ज़रूरत के हिसाब से बदलने के बजाय अब भी पुराने संस्कारों और झूठी शान से जुड़े रहना चाहते हैं। </div><div><br></div><div>धाराप्रवाह शैली में लिखे इस दमदार कहानी संकलन में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफरीडिंग की छोटी-छोटी कमियाँ दिखाई दीं। </div><div><br></div><div>संग्रहणीय क्वालिटी के इस 176 पृष्ठीय उम्दा कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है राही प्रकाशन, दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। पाठकों पर ज़्यादा से ज़्यादा पकड़ बनाने के लिए ज़रूरी है कि इस प्रभावी कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को जल्द से जल्द उपलब्ध कराया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-7308979691946281862023-06-22T15:10:00.001+05:302023-06-22T15:10:24.178+05:30दरकते दायरे - विनीता अस्थाना <div>कहा जाता है कि हम सभी के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा अवश्य अवश्य होता है जिसे हम अपनी झिझक..हिचक..घबराहट या संकोच की वजह से औरों से सांझा नहीं कर पाते कि.. लोग हमारा सच जान कर हमारे बारे में क्या कहेंगे या सोचेंगे? सच को स्वीकार ना कर पाने की इस कशमकश और जद्दोजहद के बीच कई बार हम ज़िन्दगी के संकुचित दायरों में सिमट ऐसे समझौते कर बैठते हैं जिनका हमें जीवन भर मलाल रहता है कि..काश हमने हिम्मत से काम ले सच को स्वीकार कर लिया होता।</div><div><br></div><div> दोस्तों..आज मैं भीतरी कशमकश और आत्ममंथन के मोहपाश से बँधे कुछ दायरों के बनने और उनके दरकने की बातें इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं 'दरकते दायरे' नाम से रचे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है विनीता अस्थाना ने। </div><div><br></div><div>दूरदर्शन से ओटीटी की तरफ़ बढ़ते समय के बीच इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है कानपुर और लखनऊ के मोहल्लों में बसने वाले मध्यमवर्गीय परिवारों की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की आपाधापी भरी दौड़ की।</div><div><br></div><div>फ्लैशबैक और वर्तमान के बीच बार-बार विचरते इस उपन्यास में कहीं कोई चाहते हुए भी अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर पाता तो कहीं कोई इसी बात से कन्फ्यूज़ है कि आखिर..वो चाहता किसे है? कहीं कोई अपनी लैंगिकता को ही स्वीकार करने से बचता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं कोई बड़े बैनर के लिए लिखी कहानी के कंप्यूटर के क्रैश होने को वजह से नष्ट हो जाने की वजह से परेशान नज़र आता है। तो कहीं स्थानीयता के नाम पर फिल्मों में दो-चार जगह देसी शब्दों को घुसा के देसी टच दिए जाने की बात पर कटाक्ष होता दिखाई देता है। कहीं देसी टच के नाम पर फिल्मों में लोकल गालियों की भरमार भर देने मात्र से ही इस कार्य को पूर्ण समझा जाता दिखाई देता है। तो कहीं दूर से देखा-देखी वाली नई-पुरानी आशिक़ी को 'सिटियारी' के नाम से कहे जाने की बात का पता चलता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं लड़कियाँ आस-पड़ोस और घर वालों की अनावश्यक रोकटोक और समय-बेसमय मिलने वाले तानों से आहत दिखाई देती हैं कि लड़कों से मेलमिलाप बढ़ाएँ तो आवारा कहलाती हैं और लड़कियों से ज़्यादा बोलें-बतियाएँ तो गन्दी कहलाती हैं। तो कहीं भावी दामाद के रूप में देखे जा रहे लड़के के जब हिंदू के बजाय मुसलमान होने का पता चलता है तो बेटी को शह देती माँ भी एकदम से दकियानूसी हो उठती दिखाई देती है। कहीं हिंदूवादी सोच की वजह से गंगा-जमुनी तहज़ीब के ख़त्म होने की बात उठती दिखाई देती है। तो कहीं खुद की आस्था पर गर्व करने के साथ-साथ दूसरे की आस्था के सम्मान की बात भी की जाती दिखाई देती है। कहीं मीडिया द्वारा सेकुलरिज़्म की आड़ में लोगों को धर्म और जाति में बाँटने की बात नज़र आती है। तो कहीं कोई पति हिटलर माफ़िक अपनी तानाशाही से अपनी पत्नी को अपने बस में करता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं बॉलीवुड हस्तियों के पुराने वीडियोज़ को मिक्स कर के गॉसिप हैंडल्स के लाइक बटोरने की बात का पता चलता है। तो कहीं कोई प्यार में निराश हो, नींद की गोलियाँ खा, आत्महत्या करने का प्रयास करता दिखाई देता है। कहीं कोई तांत्रिक की मदद से वशीकरण के ज़रिए अपने खोए हुए प्यार को पाने के लिए प्रयासरत नज़र आता है। तो कहीं कोई मौलाना किसी को किसी की यादें भुलाने के मामले में मदद के नाम पर खुद उसके कुछ घँटों के लिए हमबिस्तर होने की मंशा जताता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>कहीं कोई एक साथ..एक ही वक्त में एक जैसे ही फॉर्म्युले से अनेक लड़कियों से फ़्लर्ट करता दिखाई देता है। तो कहीं ऑनलाइन निकाह करने के महीनों बाद बताया जाता दिखाई देता है कि वो निकाह जायज़ ही नहीं था। कहीं किसी की बेवफ़ाई के बारे में जान कर कोई ख़ुदकुशी को आमादा होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई किसी से प्यार होने के बावजूद प्यार ना होने का दिखावा करता नज़र आता है। कहीं कोई अपनी लैंगिकता के भेद को छुपाने के लिए किसी दूसरे के रिश्ते में दरार डालने का प्रयास करता नज़र आता है। तो कहीं कोई किसी को जबरन अपने रंग में रंगने का प्रयास करता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी पड़ेगी कि जहाँ एक तरफ़ बहुत से लेखक स्थानीय भाषा के शब्दों को अपनी रचनाओं में जस का तस लिख कर इसे पाठक पर छोड़ देते हैं कि वो अपने आप अंदाजा लगाता फायर। तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे स्थानीय एवं अँग्रेज़ी शब्दों के अर्थ को लेखिका ने पृष्ठ के अंत में दे कर पाठकों के लिए साहूलियत का काम किया है। </div><div><br></div><div>कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की ग़लतियाँ भी दिखाई दीं जैसे कि..</div><div><br></div><div>पेज नम्बर 72 के अंतिम पैराग्राफ में उर्दू का एक शब्द 'तफ़्सील' आया है। जिसका मतलब किसी चीज़ के बारे में विस्तार से बताना होता है लेकिन पेज के अंत में ग़लती से हिंदी में इसका अर्थ 'मापदंड' दे दिया है।</div><div><br></div><div>पेज नम्बर 155 में दिए गए अँग्रेज़ी शब्द 'जस्टिफाई' का हिंदी अर्थ 'उत्पन्न' दिया गया है जो कि सही नहीं है। 'जस्टिफाई' का सही अर्थ 'सफ़ाई देना' है। </div><div><br></div><div>धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस उपन्यास में ज़्यादा किरदारों के होने की वजह से उनके आपसी रिश्ते को ले कर पढ़ते वक्त कई बार कंफ्यूज़न हुआ। बेहतर होता कि उपन्यास के आरंभ या अंत में किरदारों के आपसी संबंध को दर्शाता एक फ्लो चार्ट भी दिया जाता कि पाठक दिक्कत के समय उसे देख कर अपनी दुविधा दूर कर सके।</div><div><br></div><div>हालांकि यह उम्दा उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 206 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है नोशन प्रेस की इकाई 'प्रतिबिम्ब' ने और इसका मूल्य रखा गया है 267/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए 200/- रुपए तक होता तो ज़्यादा बेहतर था। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-26780003455404775592023-06-17T14:13:00.001+05:302023-06-17T14:13:49.321+05:30शुद्धि - वन्दना यादव <div>कहते हैं कि सिर्फ़ आत्मा अजर..अमर है। इसके अलावा पेड़-पौधे,जीव-जंतु से ले कर हर चीज़ नश्वर है। सृष्टि इसी प्रकार चलती आयी है और चलती रहेगी। जिसने जन्म लिया है..वक्त आने पर उसने नष्ट अवश्य होना है। हम मनुष्य भी इसके अपवाद नहीं लेकिन जहाँ एक तरफ़ जीव-जंतुओं की मृत देह को कीड़े-मकोड़ों एवं बैक्टीरिया इत्यादि द्वारा आहिस्ता-आहिस्ता खा-पचा उनके वजूद को खत्म कर दिया जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ स्वयं के तथाकथित सभ्य होने का दावा करने वाले मनुष्य ने अपनी-अपनी मान्यता एवं तौर-तरीके के हिसाब से मृत देह को निबटाने के लिए ज़मीन में दफ़नाने, ताबूत में बंद कर मिट्टी में दबाने, मीनार जैसी ऊँची छत पर कीड़े-मकोड़ों और पक्षियों की ख़ुराक बनाने या जला कर सम्मानित तरीके से निबटाने के विभिन्न तरीके अपना लिए। </div><div><br></div><div>सनातन धर्म की मान्यता अनुसार आत्मा फ़िर से जन्म ले किसी नई योनि..किसी नए शरीर को प्राप्त करती है मगर इससे पहले वह तेरह दिनों तक उसी घर में विचरती रहती है। मृतक की आत्मा की शांति के लिए इन तेरह दिनों में घर में गरुड़ पूजा की जाती है। दोस्तों..आज मृत्यु और गरुड़ पूजा से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इन्हीं सब बातों से लैस एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे "शुद्धि" के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका वन्दना यादव ने। वन्दना यादव जी मोटिवेशनल स्पीकिंग एवं समाज सेवा के अतिरिक्त साहित्य के क्षेत्र में भी खासी सक्रिय हैं। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास के मूल में कहानी है राजस्थान के एक गाँव उदयरामसर में एक के बाद एक कर के हुई चार मौतों को झेल रहे एक ऐसे परिवार की जिसके दूरदराज से शोक मनाने आए रिश्तेदार भी इन एक के बाद एक हो रही मौतों की वजह से सभी रस्मों के पूरे होने तक एक साथ..एक ही छत के नीचे रहने को मजबूर हो जाते हैं। जिनमें से एक की पत्नी एवं लिव इन पार्टनर भी शामिल है। अपने-अपने व्यस्त जीवन से निकल कर सालों बाद मिल रहे इन रिश्तेदारों में एक तरफ़ मातम का दुःख है तो दूसरी तरफ़ आपस में मिलने जुलने का उल्लास भी। यही खुशी..यही उमंग..यही उल्लास तब खीज..क्रोध एवं हताशा में बदलता जाता है जब उनके वहाँ रहने का समय एक के बाद एक होने वाली मौतों की वजह से और आगे खिसकता चला जाता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं मृत्य प्राप्त कर चुके व्यक्ति के श्रद्धावश चरण छूने के लिए आयी महिलाएँ अपने हाथ में पकड़े चढ़ावे के बड़े नोट के ज़रिए अपनी संपन्नता का प्रदर्शन करती दिखाई देती हैं तो कहीं शवयात्रा के ऊबड़ खाबड़ रास्ते में महिलाओं के नंगे पैर जाने या फ़िर आधे रास्ते से ही वापिस लौट जाने की परंपरा की बात होती दिखाई देती है। साथ ही यह उपन्यास, शवयात्रा में पुरुषों के जूते-चप्पल पहन कर और महिलाओं के नंगे पैर जाने की कुप्रथा पर सवाल उठाने के साथ-साथ मृतक के शरीर पर सोना-चाँदी रख कर जलाने के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता नज़र आता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं लेखिका अपने मुख्य किरदार, शेर सिंह के माध्यम से पंडितों द्वारा कही गयी हर बात पर आँखें मूंद कर विश्वास कर लेनी वाली जमात पर भी कटाक्ष करती नज़र आती हैं तो कहीं वे स्त्री-पुरुष के एक समान होने की बात करती नज़र आती हैं। इसी उपन्यास में कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी तेरहवीं तक उसकी पसंद के खान-पान और उसी की तरह के जीवन को जीने वाले परिवार के पुरुष सदस्य को बीकानेर से सटे उदयरामसर गाँव के अहीर समाज द्वारा 'इकोळिया' कहे जाने की बात का पता चलता है। तो कहीं खामख्वाह के आडंबरों को चलती आयी रीतों के नाम पर ढोया जाता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं किसी से जाति के नाम पर भेदभाव करने की बात दिखाई देती है तो कहीं मृत्यु के बाद निकट संबंधियों के लेनदेन पर होने वाले खर्चों को ले कर चिंताग्रस्त बड़ी बहू और बेटे में विमर्श होता दिखाई देता कि इस सबका का खर्चा वही सब क्यों करें। कहीं मर चुके पिता द्वारा छोड़ी गई संपत्ति के बंटवारे को ले कर चिखचिख होती नज़र आती है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं समाप्त होने की कगार पर खड़े ऐसे रिश्तों की बात होती नजर आती है जिन्होंने वर्तमान बुजुर्ग पीढ़ी के नहीं रहने पर खुद-ब-ख़ुद समाप्त हो जाना है। तो कहीं चोरी से औरों की बातें सुनने की आदत पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी नज़दीकी के मृत्यु जैसे समय पर भी नहीं आने के बहाने बनाने की बात की जाती नज़र आती है तो कहीं कौन-कौन नहीं आया का सारा हिसाब-किताब दिमाग़ी बहीखाते में नोट किया जाता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं कोई महिला शमशान की तरफ़ जाते हुए कच्चे रास्ते को देख कर अपने मताधिकार की बात करती नज़र आती है कि इस बार मैं वोट उसी को दूँगी जो यहाँ तक की पक्की सड़क बनवा देगा। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई महिला वोट भी अपने-अपने पतियों की मर्ज़ी से देने की वकालत करती नज़र आती है। कहीं स्त्री-पुरुष के एक समान होने के बावजूद महिलाओं के शमशान तक जाने और अंतिम क्रियाकर्म में भाग लेने में मनाही की बात होती नज़र आती है। तो कहीं गर्मी के दिनों में मृतक के घर में तेरहवीं तक रिश्तेदारों के जमावड़ा, किसी की चिंता का इस वजह से बॉयस बनता दिखाई देता है कि दिन-रात कूलरों और पंखों के चलने से इस बार बिजली का बिल ज़्यादा आने वाला है।</div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं पिता की मूर्ति बनवाने के नाम पर तो कहीं तेरहवीं के भोज में खाने की आइटमों को ले कर तनातनी बढ़ती दिखाई देती है। तो कहीं किसी की मृत्य शैय्या पर एक के बाद एक कर के दो महिलाएँ अपनी चूड़ियाँ तोड़ती नज़र आती है। कहीं किसी की संपन्नता के आगे उसकी ग़लत बात को भी मान्यता मिलती नज़र आती है। तो कहीं किसी का बेटा अपने पिता को मुखाग्नि देने से पहले मुंडन कराने से साफ़ इनकार करता नज़र आता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके सगे-संबंधी इस वजह से पशोपेश में पड़े नज़र आते हैं कि जिसे उसने संपूर्ण समाज के सामने पूरे धार्मिक रीति रिवाजों से पत्नी स्वीकार किया था, उस स्त्री को पत्नी के रूप में उसने स्वयं मान्यता नहीं दी और जिसके साथ वह स्वयं भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ अपने प्राण त्याग देता है, उसे अब समाज उसकी पत्नी के रूप में मान्यता नहीं देन चाहता।</div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं संजीदा विचार विमर्श तो कहीं निंदा पुराण चलता दिखाई देता है। कहीं किसी के अवैध संबंधों पर गुपचुप मंत्रणा होती नज़र आती है। तो कहीं घर का बेटा ही घर के हिसाब-किताब में हेराफेरी करता नज़र आता है। कहीं ओढ़े मुखौटों से इतर लोगों के असली चेहरे सामने आते दिखाई देते हैं तो कहीं रिश्तों की सरेआम बखिया उधड़ती नज़र आती है।</div><div> </div><div>व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया यह प्रभावी उपन्यास थोड़ा खिंचा हुआ एवं कहीं-कहीं स्वयं को रिपीट करता हुआ लगा। साथ ही बहुत ज़्यादा किरदारों के जमावड़े को अपने में समेटे इस उपन्यास में उनके आपसी रिश्ते को ले कर कंफ्यूज़न हुआ। बेहतर होता कि कहानी के आरंभ या अंत में फ्लो चार्ट के ज़रिए सभी का आपसी रिश्ता स्पष्ट किया जाता। कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की छोटी छोटी कमियाँ दिखाई दीं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।</div><div><br></div><div>संग्रहणीय क्वालिटी के इस 200 पृष्ठीय विचारोतेजक उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारतीय ज्ञानपीठ (वाणी प्रकाशन) ने और इसका मूल्य रखा गया है 425/- रुपए जो कि मुझे आम हिंदी पाठक की जेब के हिसाब से काफ़ी ज़्यादा लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि जायज़ कीमत पर इस उपन्यास का पेपरबैक संस्करण भी उपलब्ध कराया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-22993638770757005082023-06-14T10:57:00.001+05:302023-06-14T10:57:22.403+05:30कैलेण्डर पर लटकी तारीखें - दिव्या शर्मा <div>आमतौर पर किसी भी रचना को पढ़ने पर चाहत यही होती है कि उससे कुछ न कुछ ग्रहण करने को मिले। भले ही उसमें कुछ रुमानियत या फ़िर बचपन की यादों से भरे नॉस्टेल्जिया के ख़ुशनुमा पल हों या फ़िर हास्य से लबरेज़ ठहाके अथवा खुल कर मुस्कुराने के लम्हे उससे प्राप्त हों। अगर ऐसा नहीं हो तो कम से कम कुछ ऐसा मजबूत कंटैंट हो जो हमें सोचने..समझने या फ़िर आत्ममंथन कर स्वयं खुद के गिरेबान में झाँकने को मजबूर कर दे। </div><div>दोस्तों आज मैं आत्ममंथन करने को मजबूर करते एक ऐसे लघुकथा संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'कैलेण्डर पर लटकी तारीखें' के नाम से लिखा है दिव्या शर्मा ने। </div><div>इस संकलन की रचनाओं में कहीं हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कुछ अन्य रचनाओं में देह व्यापार से जुड़ी युवतियों की व्यथा व्यक्त कही जाती दिखाई देती है। कुछ अन्य रचनाओं में लेखिका अपने साहित्यिक संसार से प्रेरित हो रचनाएँ रचती नज़र आती है तो कहीं कुछ अन्य रचनाओं में बिंब एवं प्रतीकों के ज़रिए वे मन के उद्गार व्यक्त करती नज़र आती हैं। साथ ही साथ इस संकलन की कुछ रचनाओं में लेखिका विज्ञान को आधार बना कर अपने मन की बात कहती नज़र आती है। </div><div>इस संकलन की किसी रचना में जहाँ कोई इस बात से परेशान है कि हर बार उसके गर्भवती होंने की उम्मीद जब नाउम्मीदी में बदल जाती है तो उसके श्वसुर का चहकता चेहरा बुझ जाता है। तो वहीं एक अन्य रचना जन्नत की चाह में काफ़िरों का कत्ल-ए-आम कर रही कौम को आईना दिखाती नज़र आती है। एक अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ समाज की बर्बरता के ख़िलाफ़ मानवता के धर्म से मदद माँगने पर वह भी अपनी असमर्थता में अपने हाथ खड़े करता दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना, बाप हो या बेटा, दोनों की एक जैसी पुरुषवादी सोच की तरफ़ इशारा करती नज़र आती है। </div><div>एक संकलन की एक अन्य रचना में कोई युवती इस बात के बिल्कुल उलट कि 'सैक्सुअल हैरेसमेंट सिर्फ़ लड़कियों का ही होता है' किसी युवक का शोषण करती नज़र आती है। तो वहीं एक अन्य रचना एक तरफ़ नाबालिग़ द्वारा अपनी मर्ज़ी से बनाए गए सेक्स संबंध तो दूसरी तरफ़ विवाह के बाद जबरन बनाए गए दैहिक संबंधों की बात करती नज़र आती है। एक अन्य रचना जहाँ एक तरफ़ किसी वेश्या की व्यथा व्यक्ति करती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य रचना में एक वेश्या अपने विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा कर आत्महत्या कर लेती है कि अपने प्रेमी से विवाह कर वो उसका भविष्य खराब नहीं करना चाहती थी। </div><div>इसी संकलन की एक अन्य रचना में जहाँ चित्रकार के लिए बतौर मॉडल कार्य करने वाली युवती, खुद को दुत्कारे जाने पर चित्रकार को ही आईना दिखाती नज़र आती है। तो वहीं एक अन्य रचना में उस अर्धविक्षिप्त लड़की की बात करती नज़र आती है जो खुद के जैसे ही बलात्कार का शिकार होती बच्ची को अपनी दिलेरी की वजह से बचा लेती है। एक अन्य रचना में एक बलात्कार पीड़िता अदालत में जज के सामने इस बात के लिए सरेंडर करती दिखाई देती है कि उसने देश की कानून व्यवस्था पर विश्वास कर के बहुत बड़ा गुनाह किया । तो वहीं एक अन्य रचना विक्रम बेताल के बहाने हम सब में संवेदनाओं के मर जाने की बात की तस्दीक करती नज़र आती है।</div><div>इसी संकलन की एक अन्य रचना नदी में निर्वस्त्र नहाते हुए योगी के उदाहरण के माध्यम से पुरुष मानसिकता का परिचय देती प्रतीत होती है कि पुरुष वस्त्र उतार कर योगी बन जाता है और स्त्री वस्त्र उतारने पर भोग्या। इसी संकलन में कहीं कोई दृढ़ निश्चयी माँ, अपनी सास के दबाव के बावजूद, कम उम्र में अपनी बेटी का ब्याह नहीं करने की के फ़ैसले पर डट के खड़ी दिखाई देती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में घर की प्रॉपर्टी में भाई-बहन, दोनों का बराबर का हिस्सा बताया जाता दिखाई देता है। </div><div>इसी संकलन की किसी अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ ऑफिस में कार्यरत किसी युवती का शोषण करने का प्रयास होता दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना में जहाँ इंडवा (सर पर रखे पानी भरे मटके को सहारा देने रखा जाने वाला गोल कपड़ा) के बहाने पुराने दिनों को याद किया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना में बूढ़ी सास, अपनी बहू का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करने के लिए बीमारी का बहाना करती नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में साड़ी बाँधने के सही तरीके के ज़रिए रिश्तों को संभालने की बात की जाती दिखाई देती है। कहीं किसी रचना में माँ की मृत्यु के बाद घर में सौतेली माँ के आ जाने से नाराज़ हो घर छोड़ चुकी काव्या का मन अपनी नई माँ की व्यथा देख, पिघल जाता है। तो कहीं जीवन की आपाधापी में व्यस्त जोड़ा जब 35 साल बाद, 60 की उम्र में पहली बार पहाड़ों पर घूमने के लिए जाता है। तो बाहर बर्फ़ गिरती देख पत्नी, बरसों पुरानी अपनी ख्वाहिश के पूरा होने से खुश होती नज़र आती है। </div><div> कहीं किसी लघुकथा में बूढ़े होने पर पिता, बेटे की भूमिका में और बेटा, पिता की भूमिका निभाता नज़र आता है। तो कहीं किसी दूसरी रचना में लिव-इन और विवाह के बीच के फ़र्क को समझाया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य जहाँ एक तरफ़ लघुकथा विधवा विवाह का समर्थन करती नज़र आती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना मोहब्बत और इश्क की अलग-अलग परिभाषा पर बात करती नज़र आती है। कहीं किसी लघुकथा में भारत-पाकिस्तान के बीच बँटवारे के दर्द को घर-परिवार के बीच बँटवारे के दर्द के ज़रिए समझने का प्रयास किया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना हवा-पानी के माध्यम से आपसी भाईचारे का संदेश देती दिखाई देती है कि उन पर किसी एक कौम का हक़ नहीं होता। तो एक अन्य रचना भगवान राम द्वारा सीता का त्याग किए जाने को नए नज़रिए से सोचने को मजबूर करती दिखाई देती है। </div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी आरक्षण की साहूलियतों का फ़ायदा उन तक पहुँचने की वकालत करती नज़र आती है, जिन्हें सच में इसकी जरूरत है। तो वहीं एक अन्य रचना लोगों की कथनी और करनी में फ़र्क की बात करती दिखाई देती है। कहीं किसी रचना में कोई किसान सूखे की आशंका से आने वाली दिक्कतों की बात करता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अन्य लघुकथा पुरुषों की बनिस्बत स्त्रियों की केयरिंग नेचर की बात करती दिखाई देती है। कहीं किसी अन्य रचना में शहरों के विकास के साथ-साथ गाँवों के सिकुड़ने की बात की जाती दिखाई देती है तो कहीं किसी अन्य रचना में कोई पुरुष लेखक किसी लेखिका को उसके लेखन की सीमाएँ निर्धारित करने के लिए कहता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य लघुकथा में बाहर साहित्यजगत में औरों को प्रेरित करने वाली मज़बूत इमेज की लेखिका भीतर से बेहद कमज़ोर निकलती नज़र आती है। </div><div>इसी संकलन की एक रचना में पानी को व्यर्थ बहाने वालों पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। तो कहीं किस अन्य रचना में आने वाले भयावह समय को ले कर चिंता जताई जाती दिखाई देती है कि लड़कियों को उनके लड़की होने की वजह से पेट में ही मार दिए जाने की वजह से ऐसी स्थिति आ पहुँची है कि लड़कियाँ अब विलुप्तप्राय होती जा रही हैं। </div><div><br></div><div>इस संकलन की कुछ लघुकथाएँ मुझे बेहद प्रभावी लगीं। उनके नाम इस प्रकार हैं : </div><div>1. कैलेण्डर पर लटकी तारीखें</div><div>2. आमाल</div><div>3. भूखा</div><div>4. बेड़ियाँ</div><div>5. छिपा हुआ सच</div><div>6. रेशमा</div><div>7. अर्धविक्षिप्त</div><div>8. अंतर</div><div>9. रसूलन बी</div><div>10. सिसकी</div><div>11. वक्त</div><div>12. मिलन</div><div>13. कुलटा</div><div>14. प्यास</div><div>15. तिलिस्म</div><div>16. इंसानी करामात</div><div>17. एक जोड़ी चप्पल</div><div>18. विवादित लेखन</div><div>19. प्रसिद्धि</div><div>20. परदा</div><div>21. चमकता आसमान</div><div>22. चीख</div><div>23. दो बूँद पानी</div><div>24. दुर्लभ प्रजाति</div><div>हालांकि धाराप्रवाह शैली में लिखा गया यह उम्दा लघुकथा संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा बढ़िया लघुकथाओं से सुसज्जित इस किताब के 177 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है साहित्य विमर्श ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-77160788491392028772023-06-07T20:38:00.001+05:302023-06-07T20:38:33.874+05:30ढाई चाल - नवीन चौधरी <div><br></div><div>देखा जाए तो सत्ता का संघर्ष आदि काल से चला आ रहा है। कभी कबीलों में अपने वर्चस्व की स्थापना के लिए साजिशें रची गयी तो कभी अपनी प्रभुसत्ता सिद्ध करने के लिए कत्लेआम तक किए गए। समय अपनी चाल चलता हुआ आगे बढ़ा तो इसी सत्ता के संघर्ष ने अपना जामा बदल राजाओं-महाराजाओं का इस हद तक दामन संभाल लिया कि भाई, भाई का और पुत्र, पिता तक का दुश्मन बन बैठा। और आगे बढ़ने पर जब लोकतंत्र के नाम पर इनसे सत्ता छिन कर आम आदमी के हाथ में आने की नौटकी हुई तो इन तथाकथित आम आदमियों में भी कमोबेश उसी तरह की उठापठक जारी रही। </div><div><br></div><div>अब जबकि राजनीति हमारे नख से ले कर शिखर तक में इस हद तक समा चुकी है कि यहाँ कॉलोनी के RWA जैसे छोटे चुनावों से ले कर कारपोरेशन और ग्राम पंचायतों से होती हुई छोटी-बड़ी ट्रेड यूनियनों तक हर जगह घुसपैठ कर व्याप्त हो चुकी है। और जो अब दिन प्रतिदिन अपने निकृष्टतम स्तर को पाने के लिए निरंतर झूझती हुई दिखाई दे रही है। </div><div><br></div><div>दोस्तों..आज राजनीति और सत्ता संघर्ष से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी विषय से जुड़े जिस बहुचर्चित उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'ढाई चाल' के नाम से लिखा है लेखक नवीन चौधरी ने। नवीन चौधरी इस उपन्यास से पहले कॉलेज की राजनीति पर एक अन्य सफ़ल उपन्यास 'जनता स्टोर' के नाम से भी लिख चुके हैं। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास के मूल में कहानी है प्रतिष्ठित अख़बार 'अर्क' के बड़े पत्रकार 'मयूर' को राजस्थान से, वहाँ के प्रभावशाली राजनीतिज्ञ, 'मानव सिंह' का फोन और ईमेल आता है जिसमें 'सीमा' नाम की एक नाबालिग लड़की से हुए बलात्कार में प्रभावशाली नेता 'राघवेन्द्र' को दोषी बताया जाता है। उसके प्रभावशाली व्यक्ति होने की वजह से उस पर मुकदमा दर्ज करने से इलाके की पुलिस भी झिझक रही है। </div><div><br></div><div>कॉलेज के ज़माने से 'राघवेंद्र' से खार खाने वाले 'मयूर' पर अपने अखबार का सर्क्युलेशन बढ़ाने का मालिकों के दबाव है। ऐसे में सनसनी की चाह में वह मामले की तह तक जाने की ठान लेता है। अब देखना यह है कि चहुं ओर से राजनीति के चक्रव्यूह में घिरा 'मयूर' क्या सच में 'सीमा' को इंसाफ़ दिला पाता है या नहीं? अथवा 'राघवेन्द्र' से पुराना हिसाब चुकाने की चाह में 'मयूर' इस सारे मामले की तह तक जाने के लिए ही हाथ-पाँव मार रहा है? </div><div><br></div><div>छात्र राजनीति से ऊपर उठ राज्य की राजनीति से लबरेज़ इस उपन्यास में कहीं राजनीति के चार महत्त्वपूर्ण स्तंभों की बात होती दिखाई देती है तो कहीं मेवात के लोगों के अन्य मुसलमानों से अलग होने या आधे हिंदू होने और उनके कुआँ पूजने इत्यादि की बात होती नज़र आती है। इसी उपन्यास में कहीं गो रक्षा के नाम पर बने कानूनों की आड़ में अपना फायदा खोजा जाता दिखाई देता है तो कहीं गाय एवं अवैध हथियारों की तस्करी तथा अवैध शराब के धंधे के ज़रिए मोटा पैसा पीटा जाता दिखाई देता है।</div><div><br></div><div> इसी किताब में कहीं 'अपराध नहीं रोज़गार' के नाम पर आम जनता को बरगलाया जाता नज़र आता है। तो कहीं तब्लीगी जमात द्वारा उकसा कर मेवातियों को मुसलमान बनाए जाने की बात होती नज़र आती है। सत्ता की हिस्सेदारी में धर्म और जाति के घालमेल से उपजी इस घोर राजनीतिक कहानी में कहीं रंजिशों और साज़िशों का दौर चलता नज़र आता है तो कहीं वर्तमान में अवैध हथियार बनाने वाले सिकलीगरों के ओजपूर्ण इतिहास के बारे में जानकारी मिलती नज़र आती है। </div><div><br></div><div>शुरू से अंत तक बाँधे रखने की क्षमता वाले इस उपन्यास में कहीं नाजायज़ होते हुए भी अपने राजनैतिक प्रभाव के ज़रिए जायज़ करार दे हाइवे की ज़मींत पर डैंटल कॉलेज का बनना एप्रूव होता दिखाई देता है। तो कहीं उद्योगों में स्थानीय लोगों को रोजगार देने के बात पर हवा- हवा में ही ज़ोर दिया जाता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं अच्छी कंडीशन की पुरानी गाड़ियों को औने-पौने दाम पर बेचने के नाम पर कुछ अलग ही गोरखधंधा चलता दिखाई देता है तो कहीं फ़िरौती एवं बदले की नीयत से किसी का वारिस सरेआम अगवा किए जाने के फ़िरौती की रकम मिलने के बावजूद भी मारा दिया जाता है। </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं हैसियत होते हुए भी दिखावे के तौर ओर सभी विद्यार्थियों से एक-एक रुपया ले छात्र संघ का चुनाव लड़ा जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अख़बार अपनी साहूलियत के हिसाब से ख़बरें मैनेज करता नजर आता है। कहीं किसी अख़बार के सरकार विरोधी संपादकीयों की वजह से अखबार का मालिक, सरकारी विज्ञापनों में तरजीह ना मिलने से परेशान हो अपने ही संपादक पर गाज गिराता दिखाई देता है। तो कहीं आने वाले चुनावों में राजनैतिक फ़ायदे की चाह में सरकार अख़बारों को विज्ञापन का लालच दे खुद को बिज़नस फ्रैंडली बताते हुए अपनी गोटियाँ सेट करती नज़र आती है। </div><div><br></div><div> इसी उपन्यास में कहीं नांबियार सरीखा हाईकमान द्वारा बिठाया गया प्रभावशाली पात्र अपने एजेंडे के मुताबिक गोटियाँ सेट करता दिखाई देता है तो कहीं जानबूझ कर दूसरे प्रत्याशी के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए दलित प्रत्याशी को मैदान में उतार अपना उल्लू सीधा किया जाता दिखाई देता है। कहीं प्रेम जैसी पवित्र चीज़ को भी खुद के राजनैतिक फ़ायदे के मोहरा बनाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं अवैध हथियारों की खरीद-बिक्री का पूरा जुग्राफिया समझ धंधे में हाथ डाला जाता दिखाई देता है। </div><div> </div><div>कहीं सरकारी विज्ञापनों के लालच में अख़बार अपनी पॉलिसी से उलट घोर विरोधी से भी समझौते करते नज़र आते हैं। तो कहीं राजनीति के नियमों और अच्छी चाय बनाने के तरीकों में तुलना के ज़रिए समानता बताई जाती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं शह और मात के इस अजब खेल में छोटे प्यादे बड़ों के स्वार्थ के आगे होम होते नज़र आते हैं तो कहीं कदम-कदम पर स्वार्थ और धोखे से लबरेज़ इस कहानी में कब..कौन..कहाँ पलटी मार जाए, पता ही नहीं चलता। </div><div><br></div><div>राजनैतिक उठापटक व वर्चस्व की लड़ाई से जुड़े इस पल-पल चौंकाते इस रोमांचक उपन्यास में कहीं प्यार-मोहब्बत के मामले को अपने फ़ायदे के लिए लव जिहाद का रंग दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं पीड़ित को ही डरा धमका कर झूठा बयान देने के लिए मजबूर किया जाता दिखाई देता है।राजनीति और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को ले कर चलती इस उठापठक भर कहानी में कौन..कब.. किसको छल कर अपना उल्लू सीधा कर जाए..कोई भरोसा नहीं। </div><div> </div><div>हालांकि यह उपन्यास अपने आप में संपूर्ण है मगर फिर भी पिछले उपन्यास 'जनता स्टोर' से इस कहानी के जुड़ा होने की वजह से नए पाठकों को थोड़ा कंफ्यूज़न क्रिएट हो सकता है। बेहतर होता कि उपन्यास के प्रारंभ में पिछले उपन्यास की कहानी का संक्षिप्त सारांश दिया जाता। साथ ही ज़्यादा किरदारों के होने से उनके आपसी रिश्ते को ले कर थोड़ा कंफ्यूज़न भी क्रिएट हुआ। बढ़िया रहता यदि उपन्यास के आरंभ या अंत में एक या दो फ्लो चार्ट बना कर किरदारों के आपसी रिश्ते को भी सही से स्पष्ट किया जाता। </div><div><br></div><div>पल पल चौंकाते इस तेज़ रफ़्तार मज़ेदार उपन्यास के 191 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राधा कृष्ण प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखक की कलम से और अधिक पढ़ने को रोचक सामग्री निरंतर मिलती रहेगी। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। </div><div><br></div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-14093297791634800062023-05-30T14:13:00.001+05:302023-05-30T14:13:14.485+05:30मून गेट - पूनम अहमद<div><br></div><div>ऊपरी तौर पर ईश्वर ने सभी मनुष्यों (स्त्री-पुरुष) को एक समान शक्तियाँ तो दी हैं मगर गुण-अवगुण सभी में अलग-अलग प्रदान किए। गौर करने पर हम पाते हैं कि जहाँ एक तरफ़ कोई मनुष्य दया..मानवता..मोह..ममता से ओतप्रोत दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई अन्य मनुष्य लोभ..लालच..स्वार्थ..घमंड इत्यादि से भरा नज़र आता है। यह गुण या अवगुण स्त्री-पुरुष रूप में समान रूप से पाया जाता है। </div><div><br></div><div>आमतौर पर महिलाओं को उनके मृदभाषी स्वभाव एवं दया..ममता के मानवीय गुणों की वजह से जाना जाता है लेकिन ऐसी महिलाओं की भी कमी नहीं है जिन्होंने समाज की इन तथाकथित मान्यताओं को धता बताते हुए अपने हितों..अपनी इच्छाओं को ही सर्वोपरि रखा। </div><div><br></div><div>दोस्तों..आज मैं ऐसी ही कुछ स्त्रियों को केंद्रीय भूमिका में रख प्रसिद्ध लेखिका पूनम अहमद के 'मून गेट' के नाम से लिखे गए एक कहानी संकलन की बात करने जा रहा है। अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली पूनम अहमद जी अब तक 550 से ज़्यादा कहानियाँ और विभिन्न विषयों पर आधारित दो सौ से ज़्यादा लेख लिख चुकी हैं।</div><div><br></div><div>इस संकलन की कहानियों में कहीं एक ऐसी स्वावलंबी स्त्री नज़र आती है जिसका मकसद ही अपनी खूबसूरती और जवानी के बल पर ऐश करना है। तो कहीं किसी ऐसी युवती से भी पाठक रूबरू होते नज़र आते हैं जो अपने हित साधने के लिए बात-बात पर झूठ बोलने से भी नहीं चूकती है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक कहानी छोटे शहर से मुंबई आ कर प्राइवेट दफ़्तर में काम करने वाली तेज़तर्रार एवं खूबसूरत मोही की बात करती दिखाई देती है। उस मोही की, जिसका मकसद ही अपनी खूबसूरती और दिलकश अदाओं के बल पर अमीर युवकों को फाँस ऐशोआराम की ज़िन्दगी बसर करना है। एक पार्टी में मोही की मुलाक़ात शातिर प्रवृत्ति के हैंडसम हंक, देव चौधरी से होती है जिसका मकसद ही खूबसूरत लड़कियों के साथ ऐश करने के बाद मन भर जाने पर उन्हें छोड़ देने का है। ऐसे में जब एक जैसे दो शातिर व्यक्ति आपस में टकराते हैं तो देखने वाली बात यह है कि इन दोनों में से कौन अपने मकसद में सफल हो पाता है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में पलाश के घर और उसके परिवार के सदस्यों के बीच उनकी होने वाली बहू के रूप में अपनी पैठ बना चुकी उस, पलाश से उम्र में बड़ी, अनीशा की बात करती दिखाई देती है। जो हर तरह से उस परिवार के सदस्यों के बीच इस हद तक घुलमिल चुकी है कि वे सब भी उसे अपने परिवार का ही एक अंग मानने लगे हैं। ऐसे में जब अनीशा की कही हर बात बारी-बारी से झूठ साबित होने लगती है तो सब चौंक जाते हैं। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी बैंगलोर में अकेले रह कर नौकरी कर रही अमीर घर की दो बहनों इरा और नीरा में से जब इरा बिना किसी को बताए अचानक ग़ायब हो जाती है तो सभी दोस्त और परेशान हो उठते हैं। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या इरा कभी वापिस लौट पाएगी अथवा कहीं वह किसी धोखे..षड़यंत्र या किसी किस्म के बहकावे का शिकार तो नहीं हो गयी? </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी आमोदिनी नाम की उस युवती के महिला और फिर महिला से प्रौढ़ा बनने तक के सफ़र की कहानी कहती नज़र आती है जिसने अपनी इच्छाओं के आगे परिवार और समाज की बिलकुल भी परवाह नहीं की और अपने जीवन को अपनी मर्ज़ी से खुल कर जिया। </div><div><br></div><div>बतौर एक सजग पाठक एवं स्वयं भी एक लेखक होने के नाते मुझे इस संकलन की उत्सुकता जगाती कहानियों के अंत प्रभावित करने में थोड़े असफल रहे। तेज़ रफ़्तार से चलती दिलचस्प कहानी 'मोही' को जहाँ एक तरफ़ आसान सा अंत दे कर सस्ते में समाप्त कर दिया गया। तो वहीं दूसरी तरफ़ 'वो झूठी' कहानी अच्छी शुरुआती पकड़ के बाद शिथिल पड़ती दिखाई दी और अव्वल आते-आते अपने ढीले क्लाइमैक्स की वजह से मात्र औसत ही रह गयी।</div><div><br></div><div> इसी तरह इस संकलन की शीर्षक कहानी 'मून गेट' भी तगड़ी हाइप क्रिएट करने के बाद मुझे बिना किसी सार्थक अंत के के अचानक समाप्त कर दी गयी जैसी लगी। साथ ही इस संकलन की अंतिम कहानी 'आमोदिनी' में कहीं-कहीं दार्शनिकता भरा ज्ञान खामख्वाह उड़ेला जाता दिखाई दिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखिका इस तरफ़ तवज्जो देंगी।</div><div> </div><div>प्रूफरीडिंग की कमी के रूप में पेज नंबर 114 में लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'इरा को डर था कि कहीं पुलिस के लोग देख कर इरा कहीं और गायब ना हो जाए इसलिए उसने फैसला किया कि वह खुद उधर जाएगी और और उसे ढूँढ निकालेगी'</div><div><br></div><div>यहाँ 'इरा को डर था' की जगह 'नीरा को डर था' आएगा। साथ ही इसी वाक्य के अंत में ग़लती से दो बार 'और' शब्द छप गया है जबकि ज़रूरत एक की ही थी। </div><div><br></div><div>हालांकि सहज..सरल एवं धारा प्रवाह शैली में लिखा गया यह कहानी संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 165 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है साहित्य विमर्श प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 195/ रुपए। जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEilmp063wTeMdfGjj-opmn4oCIfMjPl2I07vj4TGCZSx6ashXT-BCeDuqSpV2h5rSdr8FZKE1AcBODusiCA3Dw3uT5Bdf9RihqMBxoeVJ9525H0vNVX02H_n7migwytdOnIXqFTCye0CDLsVn2aTZXteCwzebplRn3A9eki5U2ax25ezB_oTjfMsY62" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-73216689511004419052023-05-08T13:08:00.001+05:302023-05-08T13:08:13.652+05:30दिसंबर संजोग - आभा श्रीवास्तव<div>वैसे अगर देखा जाए तो हमारे आसपास के माहौल में इतनी कहानियाँ अपने किसी न किसी रूप में मौजूद रह इधर-उधर विचरती रहती है। जिन्हें ज़रूरत होती है पारखी नज़र..सुघड़ हाथों एवं परिपक्व सोच की, जो उन्हें किसी कहानी या उपन्यास का मुकम्मल जामा या फिर कोई छोटा सा हिस्सा ही बना सजा..संवार कर उभार सके।</div><div><br></div><div>आँखों के ऑपरेशन की वजह से लगभग 15 दिनों तक किताबों से दूरी के बाद ऐसे ही जिस उम्दा कहानी संकलन को पढ़ने का मौका मिला, उसे 'दिसंबर संजोग' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका आभा श्रीवास्तव ने। 650 से ज़्यादा रचनाएँ लिख चुकी आभा श्रीवास्तव जी अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। </div><div><br></div><div>धारा प्रवाह शैली में लिखी गयी इस संकलन की कहानियों में कहीं ज़िंदादिल स्वभाव की खूबसूरत प्रिया बनर्जी का अपने सगे मामा के दिलफैंक फौजी बेटे से प्रेम के बाद विवाह तो हो जाता है मगर कुछ ही महीनों के बाद वो एक विधवा के रूप में अपने मायके वापिस लौट आती है। इसके बाद कॉलेज में लैक्चरार लग चुकी प्रिया का अपने से कम उम्र के स्टूडेंट के अफ़ेयर होने के बाद विवाह तो हो जाता है मगर..</div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में तीन बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी रत्ना के ब्याह की तैयारियों में जुटे उसके गरीब माँ-बाप उस वक्त चिंता मुक्त नज़र आने लगते हैं जब ब्याह से एन पहले बुखार की वजह से रत्ना की मृत्यु हो जाती है कि अब उसके दहेज के लिए सहेजा गया सामान छोटी बेटी के दहेज में काम आ जाएगा। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ जब तीन खूबसूरत एवं गुणी बहनों में से दो बहनें अपने विवाह के पश्चात लड़का पैदा ना कर पाने की वजह से उपेक्षा/ कमज़ोरीवश मर जाती हैं तो सबसे छोटी बहन पूरी ज़िंदगी विवाह न करने के अपने फैसले पर अडिग हो जाती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में आँधी तूफ़ान से भरी अँधेरी रात में शहर के नामी गिरामी डॉक्टर श्रीवास्तव को एक बूढ़ा व्यक्ति बेहद गिड़गिड़ा कर मरणासन्न हालात में पड़ी अपनी बेटी का इलाज करने के लिए अपने साथ चलने के लिए राज़ी कर लेता है मगर वहाँ पहुँचने पर पता चलता है कि असल कहानी तो कुछ और ही है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ सब कुछ जानते समझते हुए भी अमीर घर के कैसेनोवा प्रवृति के गौतम का विवाह, उसकी माँ खूबसूरत दिव्या से कर देती है मगर किसी एक खूँटे से बँध कर रहना गौतम को मंज़ूर नहीं। अपनी गर्भवती पत्नी का त्याग कर गौतम के हमेशा-हमेशा के लिए घर छोड़ कर चले जाने पर गौतम की माँ पछतावे स्वरूप बुरी तरह से टूट कर डिप्रेशन में आ चुकी दिव्या के लिए संबल बनती है। ठीक होने के बाद गौतम की माँ उसका विवाह डॉ. शशांक से करवा देती है। ऐसे में क्या दिव्या, गौतम के साथ गुज़रे लम्हों और पुरानी बातों को भूल नए सिरे..नयी शुरुआत कर पाएगी? तो वहीं एक अन्य कहानी में बिना अपनी किसी ग़लती के शोभा को अपने ही घर में अपने परिवार से इस हद तक उपेक्षित जीवन जीना पड़ा कि माता-पिता की उदासीनता के चलते अपनी पसन्द के लड़के से विवाह करने पर उसके लिए घर के दरवाजे हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं। अब पिता की मृत्यु के बाद असहाय हो चुकी माँ शोभा से उसे अपने साथ..अपने घर बाकी की बची ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए ले जाने की गुहार लगा रही है।</div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी विवाह के छह महीनों बाद ही विधवा हो चुकी उस कल्याणी की बात करती दिखाई देती है। जिसके पड़ोस में रहने वाली भाभी के घर में उनका भाई, अमोल आ कर ठहरा हुआ है। शुरुआती परिचय के बाद कल्याणी के मन में अमोल के प्रति कुछ कोमल भावनाएँ जन्म लेने को होती हैं कि इतने में अमोल का रिश्ता कहीं और तय हो जाता है। क्या कल्याणी कभी अपनी भावनाएँ अमोल के समक्ष व्यक्त कर पाएगी अथवा मूक रह कर अपने मन की बात को मन में ही दबा रहने देगी? </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी अधेड़ उम्र के अच्युत और कमसिन अरुंधति की बेमेल जोड़ी के बहाने से इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि समय के साथ जीव-निर्जीव में बदलाव तो हो कर ही रहते हैं। इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ दबंग जेठानी बन कर कोई औरत अपनी देवरानी के जीवन को नर्क बनाती दिखाई डेट तो वहीं दूसरी ओर कर्कश सास बन कर अपने दब्बू बेटे का जीवन भी तबाह करती नज़र आती है। लेकिन यह भी तो सच का ना कि अपने कर्मों का हिसाब हमें यहीं..इसी जन्म में भुगतना पड़ता है। </div><div><br></div><div>कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ एक स्थानों पर मुझे प्रूफरीडिंग की कमियां भी दिखाएं दी जैसे कि..</div><div><br></div><div>पेज नंबर 60 में लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'उसी पार्टी में सुनयना को एक और बात पता चली कि सुनयना के साथ गौतम की गहरी दोस्ती थी'</div><div><br></div><div>यहाँ 'सुनयना' को नहीं बल्कि 'दिव्या' को पता चलता है कि 'सुनयना के साथ गौतम की गहरी दोस्ती थी' इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..</div><div><br></div><div>' उसी पार्टी में दिव्या को एक और बात पता चली कि सुनयना के साथ गौतम की गहरी दोस्ती थी'</div><div><br></div><div>इसी तरह पेज नंबर 61 में एक जगह लिखा है लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'मिस फ्रेशर का खिताब जीतने के बाद जब पहले सेमेस्टर में उसके सर्वाधिक अंक आए तो उसने 'ब्यूटी विद ब्रेन' की उक्ति को सार्थक कर दिया था।</div><div> </div><div>लेकिन इसी पैराग्राफ में इसके बाद एक और पंक्ति लिखी हुई दिखाई दी जो पहली पंक्ति को ही काटती नज़र आयी कि..</div><div><br></div><div>'स्कूल से कॉलेज तक वह पढ़ाई के अलावा हर गतिविधि कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी'</div><div>जो कि सही नहीं है। अतः सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..</div><div><br></div><div>'स्कूल से कॉलेज तक वह पढ़ाई के साथ-साथ हर गतिविधि, कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी'</div><div><br></div><div>हालांकि 148 पृष्ठीय यह उम्दा कहानी संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 160 /- जोकि कंटेंट एवं क्वालिटी के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-64661776279153454792023-04-22T17:27:00.001+05:302023-04-22T17:27:50.912+05:30बातें कम Scam ज़्यादा - नीरज बधवार<div>खुद भी एक व्यंग्यकार होने के नाते मुझे और भी कई अन्य व्यंग्यकारों का लिखा हुआ पढ़ने को मिला मगर ज़्यादातर में मैंने पाया कि अख़बारी कॉलम की तयशुदा शब्द सीमा में बँध अधिकतर व्यंग्यकार बात में से बात निकालने के चक्कर में बाल की खाल नोचते नज़र आए यानी कि बेसिरपैर की हांकते नज़र आए। ऐसे में अगर आपको कुछ ऐसा पढ़ने को मिल जाए कि हर दूसरी-तीसरी पंक्ति में आप मुस्कुरा का वाह कर उठें तो समझिए कि आपका दिन बन गया।</div><div><br></div><div>दोस्तों.. आज मैं ऐसे ही एक दिलचस्प व्यंग्य संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'बातें कम Scam ज़्यादा' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध व्यंग्यकार नीरज बधवार ने। इस व्यंग्य संग्रह में कहीं पुलसिया शह पर फुटपाथ और सड़के कब्ज़ा रहे रेहड़ी- पटरी वालों के ज़रिए दिन प्रतिदिन अमीर पर अमीर होते जा रहे पुलिसकर्मियों के वैभवशाली जीवन पर मज़ेदार अंदाज़ में तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में शादियों और पार्टियों में शगुन से ज़्यादा का खाना ठूँस-ठूँस कर खाने के तौर-तरीकों और कायदों की बात होती नजर आती है। </div><div><br></div><div>कहीं आजकल के लड़के-लड़कियों के सैल्फ़ी के प्रति क्रेज़ पर बात होती नजर आती है तो कहीं किसी के नॉनवेज खरीदने के बजाय लौकी खरीदने की बात पर व्यंग्य उत्पन्न होता नज़र आता है। कहीं ट्रैफ़िक की ऑरेंज बत्ती पर गाड़ी भगाने और हरी बत्ती पर रोकने की बात को ले कर मज़ेदार अंदाज़ में सांप्रदायिकता के इंटरनेट की वजह से फ़ैलने की बात होती नज़र आती है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन के किसी व्यंग्य में हाहाकारी तरीके से युवाओं में दिन-प्रतिदिन सैल्फ़ी के बढ़ते क्रेज़ की धज्जियाँ उड़ाई जाती दिखाई देती हैं। कहीं हर समय जल्दी में रह ट्रैफ़िक के नियमों का उलंघन करने वालों पर तो कहीं बड़े नामी गिरामी कलाकारों को ले कर बनने वाली घटिया फिल्मों के करोड़ों रुपए कमाने पर लेखक तंज कसते दिखाई देते हैं। </div><div>इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में सलमान खान के बहाने बॉलीवुड में बनने वाली बेसिरपैर की फिल्मों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में स्कूलों-विश्वविद्यालयों में दूसरों की ज़्यादा परसेंटेज आने से औसत बच्चे की दुविधाओं का वर्णन किया जाता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में दूसरे के महँगे मोबाइल और खूबसूरत बीवी से अपनी बीवी और मोबाइल की तुलना की जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य व्यंग्य में खुद की कुंडली में भ्रष्टाचार का योग खोजा जाता दिखाई देता है। कहीं सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा हमारे निजी डेटा का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी बड़े देश या नाम की वजह से हमारी भावनाएँ आहत होती नज़र आती हैं। </div><div><br></div><div>कहीं कोरोना के समय वैक्सिनेशन सैंटरों पर फ़ैली अफरातफरी और लालफीताशाही पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में लेखक फेसबुक और वहाट्सएपीय ज्ञान की बदौलत बावले हुए लोगों पर मज़ेदार ढंग से अपनी लेखनी चलाता नज़र आता है। इसी संकलन में कहीं किसी अन्य रचना में देश भर में हो रहे घोटालों को लेखक अपनी सोच का शिकार बनाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में अपने घर की आस में आम आदमी धक्के खाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में ऑफिस में नयी इंटर्न के आ जाने से रौनक के आ जाने की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं सरकारी अक्षमताओं को निजी कंपनियों द्वारा दूर कर आम आदमी की जेब काटी जाती दिखाई देती है। कहीं किसी व्यंग्य के ज़रिए टैक्स की चक्की में लगातार पिस रहे आम मध्यमवर्गीय की व्यथा व्यक्त की जाती नज़र आती है। तो कहीं किसी अन्य धारदार व्यंग्य में सिगरेट एवं शराब बिक्री को ले कर बनी सरकारी नीति में जनहित से पहले अपने हित की सरकारी पॉलिसी पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है।</div><div><br></div><div>कहीं दफ्तरों में औरों की अपेक्षा खुद को ज़्यादा मूर्ख सिद्ध करना अपना उल्लू सीधा करने के तौर तरीके बताए जाते दिखाई देते हैं तो कहीं आजकल के तथाकथित गुरुओं से आम आदमी का मोहभंग होता दिखाई देता है। कहीं गुरु की बताई सीख पर चलने के बजाय भगतजन उनकी मृत्य के बाद अपनी मनमानी करते नज़र आते हैं। इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में मोटिवेशनल स्पीकर खुद ही डिप्रेशन में जाता दिखाई दे रहा है तो कहीं किसीअन्य व्यंग्य में सस्ते में महँगा माल बेचने वाले भ्रामक विज्ञापनों से लेखक आहत होता नजर आता है। कहीं एफ़.एम के चैनल के घटिया जोक्स सुनाने वाले R.Js द्वारा खुद को खुराफाती, दबंग या डॉन बताने और सबका नम्बर वन RJ होने का दावा करने पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। तो कहीं भारतीय रेल की लेटलतीफी और रेलवे स्टेशनों की दुर्दशा पर कटाक्ष होता दिखाई देता है।</div><div><br></div><div>इस व्यंग्य संग्रह के लेखक एवं प्रूफरीडर की तारीफ़ करनी होगी कि मात्र दो जगहों पर वर्तनी की छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त खोजने पर भी बस एक प्रूफरीडिंग की कमी दिखाई दी जिसमें कि पेज नंबर 29 में लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'यूनिवर्सिटी ऑफ़ ढोलकपुर के स्टडी के मुताबिक इंसान को मरते वक्त इतना अफ़सोस सच्चा प्यार मिलने का नहीं रहता, जितना शादियों और बुफे में पैसे पूरे कर के ना आ पाने का रहता है'</div><div><br></div><div>यहाँ 'इतना अफ़सोस सच्चा प्यार मिलने का नहीं रहता' की जगह 'इतना अफ़सोस सच्चा प्यार नहीं मिलने का नहीं रहता' आएगा। </div><div><br></div><div>*मुसकराहट- मुस्कुराहट</div><div>*मुसलिम- मुस्लिम</div><div><br></div><div>143 पृष्ठीय इस मज़ेदार व्यंग्य संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रभात प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- जो कि मुझे आम हिंदी पाठक के नज़रिए से थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशित को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-33295893710529294442023-04-07T12:19:00.001+05:302023-04-07T12:19:18.241+05:30कथा चलती रहे- स्नेह गोस्वामी<div>कई बार कोई खबर..कोई घटना अथवा कोई विचार हमारे मन मस्तिष्क को इस प्रकार उद्वेलित कर देता है कि हम उस पर लिखे बिना नहीं रह पाते। इसी तरह कई बार हमारे ज़ेहन में निरंतर विस्तार लिए विचारों की एक लँबी श्रंखला चल रही होती है। उन बेतरतीब विचारों को श्रंखलाबद्ध करने के लिए हम उपन्यास शैली का सहारा लेते हैं और कई बार जब विचार कम किंतु ठोस नतीजे के रूप में उमड़ता है तो उस पर हम कहानी रचने का प्रयास करते हैं। मगर जब कोई विचार एकदम..एक छोटे से विस्फोट की तरह झटके से हमारे जेहन में उमड़ता है तो तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में लघुकथा का जन्म होता है।</div><div><br></div><div>दोस्तों आज लघुकथा से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं परिपक्व लेखन से लैस एक ऐसे लघुकथा संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'कथा चलती रहे' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका स्नेह गोस्वामी ने। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपने एवं अनेक पुरस्कारों से सम्मानित होने के अतिरिक्त अंतर्जाल पर भी स्नेह गोस्वामी जी अपनी कविताओं..कहानियों..लघुकथाओं एवं उपन्यासों के ज़रिए लगातार सक्रिय बनी हुई हैं। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक लघुकथा में जहाँ ज्ञान को छिपा कर रखने वाले गुरुओं पर कटाक्ष होता दिखाई देता तो वहीं एक अन्य लघुकथा इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि राजनीतिज्ञ और बड़े अफ़सरान ही देशों के बीच नफ़रत बोने का काम करते हैं बाकी आम जनता तो सभी देशों की एक जैसी ही होती है।</div><div><br></div><div>इसी संकलन की किसी अन्य रचना में व्यवसायीकरण की अँधी दौड़ में डॉक्टर/अस्पताल मानवता की साख़ पर बट्टा लगाते नज़र आते हैं। तो कहीं किसी अन्य रचना में बचपत से ले कर बड़े होने तक हर जगह लड़की की ही इच्छाओं पर अंकुश लगाने की प्रवृति पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में किसी कुशल गृहणी के सुबह से ले कर देर रात तक घर के कामों में ही खटते रहने की दिनचर्या का वर्णन किया जाता नज़र आता है तो कहीं कोई अन्य रचना आने वाले समय के भयावह मंज़र का वर्णन करती दिखाई देती है कि अब आने वाले समय में शोषण से ना लड़कियाँ और ना ही लड़के मुक्त रहने वाले हैं। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की किसी रचना में जहाँ ब्याह के बाद घर आयी नवविवाहिता के उसके शौहर से मोहभंग होने की प्रक्रिया सिलसिलेवार तरीके से वर्णन किया जाता दिखाई देता है। एक वहीं एक अन्य रचना बाहर दफ़्तर में बड़े ओहदे पर काम करने वाली उन स्त्रियों की व्यथा को व्यक्त करती नज़र आती है जिनकी उपलब्धियों को उनके घर में ही कम कर के आंका जाता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना अपने लोगों को फिट करने के चक्कर में सिफ़ारिश के बावजूद भी किसी व्यक्ति को सरकारी नौकरी न मिल पाने की बात करती नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में निजी फ़ायदे के लिए सरकारी प्रॉपर्टी को औने पौने में बेचा जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना में सास-जेठानियों के साथ हुए कटु अनुभवों को सहती आयी युवती अपनी बहू को हर संभव सुख देने का प्रयास तो करती है मगर...</div><div><br></div><div>इसी संकलन की कुछ अन्य रचनाओं में ग़रीबी की चर्चा से अपना नाम चमकाया जाता दिखाई देता तो कहीं किसी अन्य रचना में मामूली सी बात पर हुए झगड़े को सांप्रदायिक रंग दे कर अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकी जाती दिखाई देती हैं। कहीं घोंसला बनाने की जुगत में डूबे कबूतर- कबूतरी के ज़रिए शहरों के कंक्रीट के जंगलों तब्दील होने पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है कि शहरों में साफ़ हवा भी मिल पाना मुमकिन नहीं रह गया है। इसी संकलन की एक रचना जहाँ इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि सरकारी दफ्तरों का हर कर्मचारी कामचोर या बेईमान नहीं है। तो वहीं एक अन्य रचना बाल मज़दूरी पर बात करती नज़र आती है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन में कहीं दफ्तर में मातहत,अफ़सर की चमचागिरी करते नज़र आते हैं। तो कहीं नेताओं की मौकापरस्ती पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। कहीं आने वाले खर्चों की चिंता पति-पत्नी को मन मार उस जगह काम पर जाने के लिए मजबूर करती दिखाई देती जहाँ उनका शोषण होना तय है। तो कहीं किसी रचना में गाँव की शांत जिन्दगी से अपने बेटे के पास शहर आयी माँ वहाँ की व्यस्त और बेतरतीब जीवन शैली देख कर बेचैन हो उठती है। </div><div>कहीं किसी रचना में कोई थाली के बैंगन सा अपनी ही बात से पलटता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक रचना में जहाँ एक तरफ़ सुनीता खुद को और अपनी कामवाली को कमोबेश एक जैसी ही स्थिति में पा, उसकी ही तरह अपने पति का विरोध करने की ठान लेती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना पारिवारिक बँटवारे से पैदा हुई रंजिश की बात करती नज़र आती है कि किस तरह आपसी झगड़े में परिवार के परिवार बरबाद हो जाते हैं। कहीं किसी रचना में पिछले दस सालों से लगातार अपमानित और प्रताड़ित होती रही पत्नी भी अपने स्वाभिमान की ख़ातिर आख़िर एक दिन कड़ा कदम उठाने का फ़ैसला कर ही लेती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में नए प्रयोग के तौर पर लघुकथा को बेटी समान माना जाता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य रचना फ़िर चुहिया की चुहिया वाली पुरानी कहानी की तर्ज़ पर आजकल की दफ़्तरी लालफीताशाही की पोल खोलती नज़र आती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में ग़रीब झोंपड़ी वालों को मोहरा बना भर्ष्टाचार के ज़रिए बड़े नेता नोट कूटते दिखाई देते हैं। इसी संकलन की एक अन्य रचना मध्यमवर्गीय परिवारों की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है कि इनमें बरसों पुरानी हसरतों के पूरा होने पर भी अफ़सोस होता कि पैसे व्यर्थ के काम में बेकार कर दिए। कहीं किसी रचना में हिंदी की ज़रूरत और महत्ता को दर्शाया गया नज़र आता है। तो कहीं किसी रचना में घर में बुजुर्गों के होने की महत्ता को दर्शाया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में हिंदी ही अपने देश में अपनी बेकद्री होते देख विदेश में बस जाने का प्रयास करती दिखाई देती है। </div><div><br></div><div><br></div><div>इसी संकलन की कुछ रचनाएँ मुझे बेहद प्रभावी लगीं। जिनके नाम इस प्रकार हैं...</div><div><br></div><div>* कथा चलती रहे</div><div>* एक सुर</div><div>* विशेषज्ञ</div><div>* द्विदाम्नी</div><div>* ये शहर तो...</div><div>* तीन तलाक़</div><div>* पत्थर में दूब</div><div>* नो प्रॉब्लम</div><div>* काम</div><div>* आँखों की ज्योति</div><div>* विश्वास की न्यूज़</div><div>* छोटी बहू का स्वागत</div><div>* रंग बदलता गिरगिट</div><div>* विद्रोहिणी</div><div>* अपराजेय</div><div>* नया सच</div><div>* समर्था</div><div>* बड़ा होता बचपन</div><div>* चक्र-दुष्चक्र</div><div>* पत्थर</div><div>* फ़ुर्सत</div><div>* हसरत</div><div>* सुक़ून</div><div><br></div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक रचना 'कोटा' मुझे थोड़ी तर्कसंगत नहीं लगी कि क्लर्क जैसी छोटी नौकरी पर शिक्षामंत्री जैसा बड़ा नेता अपने बेटे को फिट करवा रहा है। </div><div><br></div><div>पेज नंबर 22 के प्रथम पैराग्राफ में दिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'मायके से आया सारा उपहार के नाम पर घर भर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था।'</div><div><br></div><div>यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..</div><div><br></div><div>'मायके से आए उपहार के नाम पर सारा घर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था'</div><div>या फ़िर..</div><div><br></div><div>'उपहार के नाम पर मायके से आया सारा घर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था'</div><div><br></div><div>हालांकि धाराप्रवाह शैली में लिखा गया है यह लघुकथा संग्रह मुझे लेखिका की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" 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जिसे 'बाली उमर' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखक भगवंत अनमोल ने। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में मूलतः कहानी है नवाबगंज नाम के एक गाँव के दौलतपुरवा मोहल्ले और और उसमें रहने वाले वहाँ के बाशिंदों की। इस उपन्यास में बातें हैं बाली उम्र के दौर से गुज़र रहे उन पाँच बच्चों की जिन्हें उनके स्वभाव या आदतों की वजह से आशिक, ख़बरीलाल, गदहा, पोस्टमैन और पागल है जैसे नाम दे दिए गए। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में एक तरफ़ आशिक के आशिकी भरे कारनामें हैं तो दूसरी तरफ़ छोटी से छोटी बात को भी देर से समझने वाले गदहे की अज्ञानता भरी बातें हैं। इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ इधर की बातें उधर करने वाले को ख़बरीलाल तो वहीं दूसरी तरफ़ बड़ों के प्रेम पत्र इधर-उधर पहुँचाने वाले को पोस्टमैन की उपाधि मिली है। इसी उपन्यास का एक अन्य पात्र पूरे गाँव और मोहल्ले में 'पागल है' के नाम से जाना जाता है कि दक्षिण भारत के किसी दूरदराज के गाँव से भटक कर यहाँ पहुँचे इस बालक की भाषा, ना कोई समझता और ना ही इसे वहाँ की स्थानीय भाषा, हिंदी का ज्ञान है। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है बाली उमर के इन बच्चों की नादानी भरी वयस्क शरारतों की तो दूसरी तरफ़ इसमें कहानी है भूख-प्यास से तड़पते माँ-बाप के एक ऐसे लाडले बालक की जिसे उसके सगे चाचा ने ही अपनी ईर्ष्या के चलते उसके परिवार से बहुत दूर यहाँ-वहाँ भटकने के लिए छोड़ दिया है। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है भूख प्यास से तड़पते समृद्ध परिवार के ऐसे कई दिनों के भूखे बालक की जिसे कूड़े में फेंके गए बासी भोजन तक में अपना अपना पेट भरने के लिए मजबूर होना पड़ा। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है किसी की अज्ञानता का फायदा उठा शोषण..अत्याचार और लालच के ज़रिए जबरन बँधुआ मज़दूर बनाने की। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में कहीं ऊलजलूल तर्कों के ज़रिए पृथ्वी को गोल नहीं बल्कि चपटा करार दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं इसमें ब्याह के बाद सैक्स को लेकर बाल मन ऐसी ऐसी कल्पनाएँ करता दिखाई देता है कि बेसाख्ता हँसी छूटने को आमादा हो उठती है। इसी उपन्यास में लेखक अनपढ़ों के नेता बनने पर कटाक्ष करता दिखाई देता है तो कहीं लोगों की आशिक़ प्रवृति पर तंज कसता नज़र आता है।</div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं उन सरकारी नौकरी वालों पर कटाक्ष होता नज़र आता है जो बिना रिश्वत लिए कुछ काम कर के राज़ी नहीं। तो कहीं नए लेखकों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है कि वे लिखने के लिए औरों को पढा जाना ज़रूरी नहीं समझते। इसी उपन्यास में कहीं गाँव के लोगों की राजनीति के प्रति उत्साह एवं रुचि को ले कर बात होती नजर आती है। </div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं गाँव के लोगों को इस वजह से दूरदर्शी बताया जाता दिखाई देता है कि वे अपने बच्चों को उनके साइज़ के नहीं बल्कि बड़े साइज़ के कपड़े ख़रीदवाते हैं कि उनके बड़े होने पर भी वही कपड़े उनके काम आ सकें। तो कहीं पहली बार किसी शादी में बफ़े भोजन का आनंद लेने को आतुर गाँव वाले इसे कुकुर भोज का दर्जा देते दिखाई देते हैं। तो कहीं जीवन में पहली बार ठंडे (कोल्डड्रिंक) को पी कर उसका आनंद लेने की बच्चों की सारी अधीरता.. उत्सुकता निराशा में तब्दील होती दिखाई देती है।</div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं नए लेखकों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है कि वे लिखने के लिए औरों को पढा जाना ज़रूरी नहीं समझते। तो कहीं गाँव के लोगों की राजनीति के प्रति उत्साह एवं रुचि को ले कर बात होती नजर आती है। </div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं प्राइमरी का कोई बालक अपनी अँग्रेज़ी की अध्यापिका से ही किस(Kiss) का मतलब जानने के लिए सवाल पूछता दिखाई देता है। तो कहीं बच्चे पैकेट वाले गुब्बारे (कंडोम) को ले कर भ्रमित नज़र आते हैं कि आख़िर ये ऐसे किस घृणित पदार्थ से बने हुए होने हैं कि उनके अभिभावक उन्हें इनसे दूर रहने के लिए हड़काते नज़र आते हैं। </div><div><br></div><div>लगभग आधी किताब तक पाठक इससे इस कदर जुड़ा रहता है कि उसके ज़ेहन में लेखक से बार-बार इस सवाल को पूछने का मन करने लगता है कि..</div><div><br></div><div>"अबे!...कितना हँसाओगे बे?"</div><div><br></div><div>बतौर एक सजग पाठक होने के नाते रोचक शैली में तेज़ रफ़्तार से चलता हुआ यह उपन्यास बाद के किसी-किसी चैप्टर में मुझे थोड़ा बोझिल एवं जबरन खिंचा हुआ भी लगा। अंत थोड़ा फ़िल्मी और पहले से अपेक्षित भी लगा। क्लाइमैक्स वाले सीन पर अगर और ज़्यादा मेहनत की जाए तो इस बढ़िया उपन्यास की लोकप्रियता में और अधिक इज़ाफ़ा हो सकता है। </div><div><br></div><div>127 पृष्ठीय इस मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्ज़ ने और इसका मूल्य रखा गया है 175/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्राइबर्स के लिए यह उपन्यास फ्री में उपलब्ध है तथा अमेज़न पर डिस्काउंट के बाद फिलहाल यह उपन्यास मात्र 123/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgGJEOgHqk7jU49vbq3yHUV9a8iXGTPIIxhyphenhyphenACKaftkxx8tPGxjwAsfcY0v4jzgqO1jHQ19e5eRoWRpekmB1o7-9yhul_o7EN9Q3C23HDJbD3lDyYfx3vlQ42jBqzfsTrpIpZaUHNtfj7E/s1600/1679821657216661-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-12691997234782802392023-03-17T09:09:00.001+05:302023-03-26T14:37:58.039+05:30प्रेत लेखन का नंगा सच- योगेश मित्तल<div>अगर अपने पढ़ने के शौक की बात करूँ तो मेरी भी शुरुआत बहुतों की तरह चंपक, मधु मुस्कान, लोटपोट, नंदन, सरिता, मुक्ता, धर्मयुग.. वाया साप्ताहिक हिंदुस्तान, वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों से होती हुई गुलशन नंदा के सामाजिक उपन्यासों तक जा पहुँचती है। </div><div><br></div><div>जी..हाँ, वही थ्रिलर उपन्यास और सामाजिक उपन्यास जिन्हें उस समय के तथाकथित दिग्गज साहित्यकारों ने लुगदी साहित्य कहते हुए सिरे से नकार दिया। हालांकि उस समय कर्नल रंजीत, इब्ने सफ़ी, जेम्स हेडली चेइस और गुलशन नंदा इत्यादि बहुत ज़्यादा बिकने और पढ़े जाने वाले लेखक थे मगर चूंकि ऐसे उपन्यास की लागत कम और मुनाफ़ा ज़्यादा रखने के लिए उन्हें बहुत ही हल्की क्वालिटी के सस्ते कागज़ पर छापा जाता था। तो इसी कमी को आधार बना कर उनके लेखन को लुगदी साहित्य या पल्प फिक्शन कहा जाने लगा। </div><div><br></div><div>उस वक्त इन लेखकों के बाज़ार में लगभग हर महीने नया उपन्यास आने से बड़ी हैरानी होती थी कि ये सब इतना ज़्यादा और इतनी जल्दी कैसे लिख लेते हैं कि इधर कोई घटना घटी और उधर कुछ ही दिनों में उस पर उपन्यास हाज़िर। </div><div><br></div><div>काफ़ी सालों बाद इस रहस्य से तब जा के पर्दा हटा जब पता चला कि घोस्ट राइटिंग यानि कि प्रेत लेखन क्या बला है। ऐसे में स्वतः इन बेनामी लेखकों के बारे में जानने की इच्छा मन में जाग उठी कि आख़िर.. किन वजहों से ये अपनी सारी मेहनत..सारा हुनर..सारा श्रेय किसी और को अपने नाम से इस्तेमाल करने के लिए दे देते हैं? </div><div><br></div><div>दोस्तों..आज मैं ऐसे ही एक घोस्ट राइटर याने के प्रेत लेखक, योगेश मित्तल से उनकी ही आत्मकथा 'प्रेत लेखन का नंगा सच' के ज़रिए परिचय करवाने जा रहा हूँ। जिसमें उनके बचपन..जवानी और बीमारी से जुड़ी बातों के अतिरिक्त लुगदी साहित्य यानी कि पल्प फिक्शन से जुड़ी ऐसी जानकारियाँ हैं जिन्हें शायद इस किताब के न आने पर पाठक कभी नहीं जान पाते। </div><div><br></div><div> इस किताब के लेखक, योगेश मित्तल की बेशक आम लोगों के बीच कोई पहचान नहीं है लेकिन 1970 से ले कर 2000 के बीच यही योगेश मित्तल अनेक लेखकों एवं प्रकाशकों का चहेता हुआ करता था। </div><div><br></div><div>इस किताब में कहीं देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता और भूतनाथ सीरीज का जिक्र होता दिखाई देता है जिनको पढ़ने के लिए उर्दू और अंग्रेजी भाषी लोगों ने हिंदी सीखें। तो कहीं किसी अन्य जगह पर योगेश जी बताते हैं कि 1969 में कलकत्ता से दिल्ली में आ कर बसने के बाद उन्होंने कभी अपने पड़ोसियों और दोस्तों के लिए घोस्ट राइटर के रूप में कहानियाँ लिखने के साथ साथ पड़ोस में ही किराए पर नॉवेल और मैगज़ीन किराए पर देने वाले विमल चटर्जी के साथ मिल कर पहले पहल मनोज पॉकेट बुक्स के बाल कहानियों के सैट के लिए घोस्ट राइटिंग शुरू की। उनकी लिखी कहानियों पर बतौर लेखक और संकलनकर्ता के रूप में 'प्रेम बाजपेयी' का नाम छपता था। जिसे बाद में बदल कर 'मनोज' कर दिया गया। </div><div><br></div><div>मनोज पॉकेट बुक्स के अंतर्गत छपने वाले 'इमरान' और 'विनोद-हमीद' सीरीज़ के उपन्यास भी इनके द्वारा ही लिखे गए। जो क्रमशः 'फ़रेबी दुनिया' और 'डबल जासूस' पत्रिकाओं में छपे। </div><div><br></div><div>कहीं वे भारती पॉकेट बुक्स के लिए 'जगत' सीरीज़ के नॉवेल 'ओम प्रकाश शर्मा' के नाम से लिखने का जिक्र करते नज़र आते हैं तो कहीं वे 'विजय सीरीज़' के ऐसे नॉवल लिखते नज़र आते हैं जो असलियत में 'ओमप्रकाश कम्बोज' के नाम से छपे। </div><div>कहीं वे भारती पॉकेट बुक्स के लिए ही 'ललित भारती' बन कर प्रेत लेखन करते रहे तो कहीं वे 'जेम्स बॉन्ड' बन कर भी अपने गुमनाम लेखन का परचम लहराते नज़र आते हैं। </div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं वे लेखक 'कुमारप्रिय' से अपनी जान पहचान और दोस्ती की बातें करते नज़र आते हैं तो कहीं वे 'पंकज पॉकेट बुक्स' के शुरुआती उपन्यास 'ओलंपिक में हंगामा' का जिक्र करते नज़र आते हैं। जिसे ओलंपिक खेलों के दौरान हुई इज़रायली खिलाड़ियों की हत्या को आधार बना कर लिखा गया यह। 'इमरान' सीरीज़ का यह उपन्यास एच. इकबाल के नाम से छपा था। कहीं वे 'रानो जीजी' तो कहीं वे इन्दर भैया' के छद्म नामों से अपना प्रेत लेखन जारी रखते नज़र आते हैं। </div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं किसी जगह लेखक बताते नज़र आते हैं कि बड़े उपन्यासकारों जैसे कि राज भारती, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कंबोज, विमल चटर्जी, सुरेंद्र मोहन पाठक, परशुराम शर्मा, वेद प्रकाश शर्मा, लोटपोट मैगजीन के लिए मोटू पतलू एवं बहुत से प्रकाशकों एवं लेखकों ने अपने उपन्यासों के मैटर को बढ़वाने के लिए घोस्ट राइटिर के रूप में इनकी लेखनी का सहारा लिया। इसी किताब के ज़रिए पता चलता है कि कई बार किसी उपन्यास में लेखन किसी का..नाम किसी का और फ़ोटो किसी और का हुआ करता था।</div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं कोई प्रेत लेखक अपनी लच्छेदार बातों के ज़रिए नए बकरों को फँसा उनका पब्लिशिंग की दुनिया में पदार्पण करवाता नज़र आता है तो कहीं लेखक स्वयं हिंद पॉकेट बुक्स के रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क 'मेजर बलवंत' के नाम से किसी अन्य प्रकाशक के लिए छद्म लेखन का कार्य करता नज़र आता है। जिसे उन्हें बाद में हिंद पॉकेट बुक्स की कोर्ट केस की धमकी के बाद छोड़ना पड़ा जबकि असलियत में हिंद पॉकेट बुक्स ने लेखक का उपन्यास आने के बाद ही इस नाम 'मेजर बलवंत' को अपने नाम से रजिस्टर्ड करवाया था। </div><div>इसी किताब में कहीं वयोगेश मित्तल मजबूरन अपने मित्र की एवज में बिना पारिश्रमिक लिए कई उपन्यास लिखते नज़र आते हैं कि उनका मित्र प्रकाशक से एडवांस में पैसा ले कर ग़ायब हो गया था।</div><div><br></div><div> इसी किताब में कहीं बड़े तथाकथित नाम वाले साहित्यकारों द्वारा गुलशन नंदा और इब्ने सफ़ी जैसे लेखकों के लेखन को दोयम दर्ज़े का करार दे उन्हें सिरे से इस हद तक नाकारा जाता दिखाई देता है कि उनकी तुलना वेश्याओं से की जाती दिखाई देती है। इसी किताब में कहीं ग़रीबी और पैसे की ज़रूरतों के मद्देनज़र लेखक का स्वयं अपने नाम से लिखने और छपने की ख्वाहिश से मोहभंग होता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य जगह पर लेखक स्वयं यह स्वीकार करते नज़र आते हैं कि उन्होंने इतने ज़्यादा छद्म नामों एवं प्रतिष्ठित लेखकों के लिए छद्म लेखन किया कि उन्हें स्वयं भी उन सभी के नाम याद नहीं। </div><div> </div><div>इसी किताब कहीं लेखक छद्म लेखन के लिए लेखकों की ग़रीबी की वजह से हुई फटीचर हालात को ज़िम्मेदार ठहराते नज़र आते हैं। तो कहीं पैसे के लालच में प्रकाशकों से एडवांस ले कर भी उनके लिए लिख कर ना दे पाने की वजह से ऐसे छद्म लेखकों से प्रकाशकों का मोहभंग होता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी किताब के ज़रिए पता चलता है कि उस दौर के सर्वाधिक चर्चित लेखकों जैसे कर्नल रंजीत, राजवंश, लोकदर्शी, समीर, केशव पण्डित,मनोज, रायज़ादा, टाइगर, विक्की आनंद, राजहंस इत्यादि के वजूद के पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रकाशकों की सोच थी। असल में उनके नाम का कोई व्यक्ति था ही नहीं। प्रकाशकों द्वारा इन छद्म नामों की उपज के पीछे की वजह दरअसल यह थी कि पैसे की तंगी या लालच की वजह से उस दौर के लेखक अक्सर प्रकाशकों से पैसा एडवांस में लेने के बाद उपन्यास लिखने में असमर्थता जताते हुए मुकर जाते थे। ऐसे में अपने घाटे को कवर करने के लिए प्रकाशक किसी भी लेखक को पकड़ कर अपना उपन्यास पूरा करवाने लगे। </div><div><br></div><div> इसी किताब में कहीं लुगदी साहित्य के पतन और लगातार बंद होती विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पीछे की वजह के लिए मनोरंजन के विभिन्न टीवी चैनलों..कंप्यूटर.. मोबाइल और इंटरनेट को ज़िम्मेदार बताया जाता दिखाई देता है तो कही अँग्रेज़ी एवं पाकिस्तान से ख़ास तौर पर मँगवाए गए उर्दू उपन्यास सीधे-सीधे चोला बदल हिंदी में छपते दिखाई देते हैं। इसी किताब में कहीं प्रेत लेखन के शहंशाह के रूप में आरिफ़ मारहवीं का नाम आता दिखाई देता है तो कहीं मनोज पॉकेट बुक्स के मनोज ट्रेड नेम के पीछे सैम्युअल अंजुम अर्शी उर्फ़ अंजुम अर्शी का नाम आता दिखाई देता है। कहीं उस्ताद लेखक के रूप में लेखक, फ़ारूक़ अर्गली का नाम लेते नज़र आते हैं तो कहीं गंभीर चेहरे के सधे लेखक के रूप में वे गोविन्द सिंह के नाम से पाठकों को रूबरू कराते दिखाई देते हैं। </div><div><br></div><div>कहीं इस किताब में थ्रिलर उपन्यासों के सुपर स्टार बन चुके वेदप्रकाश शर्मा से अन्य लेखकों की ईर्ष्या और जलन की बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं ओमप्रकाश शर्मा जैसे बड़े नाम से प्रेरित हो अन्य प्रकाशक भी उन्हीं के नाम जैसे किसी अन्य शख्स की आड़ में ओमप्रकाश शर्मा के नाम से ही उन्हीं की शैली और उन्हीं के किरदारों वाले नकली उपन्यास धड़ल्ले से छापते दिखाई देते हैं।</div><div><br></div><div>कहीं विक्रांत जैसे करैक्टर को जन्म देने वाले कुमार कश्यप के प्रेत लेखक से असली लेखक में तब्दील होने की कहानी कही जाती दिखाई देती है। तो कहीं दवाओं के एजेंट केवल कृष्ण कालिया के ट्रेड नाम 'राजहँस' से लिख का छा जाने की बात होती नजर आती है कि उनकी लेखनी से उस दौर के अनेक लेखक इस हद तक प्रेरित हुए कि उनके लेखन की छाप फ़िल्मों तक में भी नज़र आने लगी। </div><div><br></div><div>रोचक तथ्यों से भरी इस किताब को पढ़ते वक्त ज़ेहन में एक सवाल बार-बार उमड़ता दिखाई किया कि आख़िर एक आम पाठक किसी भी ऐसे व्यक्ति की आत्मकथा क्यों पढ़ना चाहेगा जिससे कि वह किसी भी भांति परिचित नहीं। ना वो कोई ऐसी जानी मानी शख्सियत या सेलिब्रिटी है कि उसके नाम का डंका पूरी दुनिया में बेशक न सही मगर कम से कम अपने देश में तो बज ही रहा हो। </div><div><br></div><div><br></div><div>इस किताब में एक आध जगह प्रूफरीडिंग की कमी के अतिरिक्त दो जगहों पर वाक्य रिपीट होते दिखाई दिए। इसके अतिरिक्त कुछ बातें जैसे कि लेखक की बीमारी और रिश्तेदारों से जुड़ी बातों की बार-बार पुनरावृत्ति होती दिखाई दी। जिनसे बचा जा सकता था। बतौर एक सजग पाठक होने के नाते मुझे इस किताब के शुरुआती पेज थोड़े उकताहट भरे और अंतिम लगभग 100 पेज रोचकता के साथ तेज़ रफ़्तार भी पकड़ते दिखाई दिए। </div><div><br></div><div><br></div><div>प्रेत लेखन एक ऐसा सच है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। सालों पहले से घोस्ट राइटिंग होती रही है और आने वाले समय में भी बेशक रूप बदल कर ही सही मगर होती रहेगी। ऐसे में इसमें किसी भी सच के उजागर होने से कोई सनसनी फैलने या हंगामा होने का डर नहीं। इसलिए इस किताब का शीर्षक 'प्रेत लेखन का नंगा सच' मुझे सनसनीखेज़ और बिकाऊ तो लगा मगर सार्थक करता कतई नहीं लगा। सही मायने में इस किताब का शीर्षक अगर 'प्रेत लेखन- पर्दे के पीछे का सच' या 'प्रेत लेखन की अंदरूनी कहानी' जैसा होता तो ज़्यादा सार्थक एवं विषयानुकूल होता। इसी किताब से पता चला कि पाठकों के रिस्पॉन्स को देखते हुए नयी जानकारियों भरा इसका अगला भाग भी लाया जा सकता है। ऐसे में बिना आत्मकथा वाले हिस्से के अगर किताब को सिर्फ़ कंटेंट बेस्ड फॉर्मेट में लॉन्च किया जाए तो मेरे हिसाब से किताब और ज़्यादा पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने में कामयाब होगी।</div><div><br></div><div>इस जानकारी भरी 268 पृष्ठीय आत्मकथात्मक किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है नीलम जासूस कार्यालय ने और इसका मूल्य रखा गया है 275/- रुपए जो कि मुझे कंटेंट एवं क्वालिटी के नज़रिए से ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। </div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: 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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-69289975340979699022023-03-08T18:28:00.001+05:302023-03-08T18:28:40.908+05:30क्वीन- कामिनी कुसुम<div><br></div><div>बात ज़्यादा पुरानी नहीं बस उस वक्त की है जब हिंदी फिल्मों की पटकथा लेखक के रूप में स्वर्गीय कादर खान की तूती बोला करती थी। लेखन के साथ साथ वे अभिनय के क्षेत्र में इस कदर व्यस्त थे कि चाह कर भी लेखन के लिए पर्याप्त समय या तवज्जो नहीं दे पा रहे थे। कहा जाता है कि ऐसे में इस दिक्कत से निजात पाने के लिए उन्होंने अपने अंडर कई अन्य लेखकों को काम दिया जो उन्हीं की शैली और स्टाइल में..उन्हीं के निर्देशानुसार कहानियों के परिस्थितिनुसार संवाद लिखते थे। जिनका बाद में कादर खान के नाम के साथ फिल्मों में इस्तेमाल किया गया। </div><div><br></div><div>ऐसा नहीं है कि इस तरह की घोस्ट राइटिंग या प्रेत लेखन सिर्फ़ हिंदी फिल्मों के लिए ही किया गया। पहले भी अनेकों बार ऐसा कभी किसी लेखक के लिखे को संवारने अथवा सुधारने के लिए..तो कभी बड़े नेताओं के भाषण अथवा आत्मकथा को लिखने के लिए किया गया। आमतौर पर मशहूर हस्तियां, बड़े अधिकारी या राजनीतिज्ञ अपनी आत्मकथाओं, संस्मरणों अथवा लेखों इत्यादि का मसौदा तैयार करने या उन्हें सुधारने करने के लिए घोस्ट राइटर्स को नियुक्त करते हैं।</div><div><br></div><div>मगर असल दुविधा या परेशानी तब होती जब अपने अन्तःकरण से पूर्णतः सही होते हुए हम जो लिख या कर अथवा जी रहे होते हैं, उसे ज़माने की नज़रों से मात्र इसलिए छुपाना पड़ता है कि..लोग क्या कहेंगे? </div><div><br></div><div>"कुछ तो लोग कहेंगे..लोगों का काम है कहना"</div><div><br></div><div>दोस्तों..आज घोस्ट राइटिंग से जुड़ी बातें इसलिए कि आज यहाँ मैं इसी विषय से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे 'क्वीन' के नाम से लिखा है अँग्रेज़ी की प्रसिद्ध लेखिका 'कामिनी कुसुम' ने। 5 अँग्रेज़ी किताबों के बाद ये उनका पहला हिंदी उपन्यास है। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में कहानी है उस लेखिका नव्या की जिसे उसके दो उपन्यास आ चुकने के बावजूद प्रकाशक एवं संपादक के आग्रह/दबाव पर इरोटिक यानि कि कामुकता से भरा उपन्यास लिखने के लिए कहा जाता है। शुरुआती झिझक एवं हिचकिचाहट के बाद वो इसे एक चुनौती के रूप में 'क्वीन' के छद्म नाम से सफलतापूर्वक लेखन शुरू कर तो देती है मगर..</div><div><br></div><div>इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है उस नव्या की जो पति के साथ अपने वैवाहिक संबंधों को ले कर इस उम्मीद में जी रही है कि उसके प्रति उदासीन हो चुका पति एक न एक दिन वापिस लौट कर उसके पास ज़रूर आएगा। दूसरी तरफ़ इसमें कहानी है एक ऐसे पति विवान की, जिसने परिवार के दबाव में आ, ना चाहते हुए भी नव्या से शादी कर ली कि उसकी प्रेमिका रायना हमेशा के लिए उसे छोड़ विदेश जा बसी है। अब चूंकि विदेश से मोहभंग होने के बाद रायना हमेशा हमेशा के लिए वापिस लौट आयी है। तो ऐसे में अब विवान भी अपनी बीवी- बच्चे को भूल रायना में ही अपनी पूरी ज़िन्दगी..पूरी दुनिया देख रहा है। </div><div><br></div><div>मुख्य पात्रों के अतिरिक्त इस उपन्यास में सहायक किरदारों के रूप में एक तरफ़ मालती देवी के रूप में एक ऐसी सास है जिनके लिए घर की इज़्ज़त से बढ़ कर कुछ भी नहीं। तो वहीं दूसरी तरफ़ आग लगाने के लिए मानवी के रूप में नव्या की एक अदद ननद भी है। साथ ही मूक प्रेमी के रूप में आदित्य का चरित्र भी है जो कभी खुल कर नव्या से अपने मन की बात नहीं कह पाया।</div><div><br></div><div>दिलचस्प मोड़ों से गुजरते इस सफ़र में अब देखना यह है कि..</div><div><br></div><div>■ नव्या और विवान के रिश्ते का क्या होगा? </div><div><br></div><div>■ क्या विवान, रायना के साथ अपनी मनचाही डगर..मनचाहे सफ़र पर जा पाएगा? </div><div><br></div><div>■ क्या मानवी सब कुछ जान कर भी अनजान बनी रहेगी अथवा अपने भाई या फ़िर नव्या का साथ देगी? </div><div><br></div><div>■ क्या कभी आदित्य, नव्या के समक्ष अपने मन के भावों को अभिव्यक्त कर पाएगा अथवा अस्वीकार्यता को ही अपनी किस्मत मान..चुप बैठ जाएगा? </div><div><br></div><div>■ क्या कभी छद्म रूप से लिखने के बजाय नव्या अपने भीतर.. सच को स्वीकार करने की हिम्मत..शक्ति एवं जज़्बा ला पाएगी? या फ़िर जीवनपर्यंत मात्र एक छद्म लेखिका ही बन कर रह जाएगी? </div><div><br></div><div>कहने तो धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास में एक सामान्य सी कहानी है मगर इरोटिक लेखन के तड़के ने इसे और ज़्यादा मज़ेदार और पठनीय बना दिया है। इस किताब से नए लेखकों को यह सीखने में मदद मिलेगी कि कैसे सीमा में रह कर बिना वल्गर हुए भी कामुक लेखन किया जा सकता है।</div><div><br></div><div>कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियां दिखाई दी जैसे कि 'स्टूल' शब्द के लिए बार बार 'टूल' लिखा नज़र आया। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखिका की कलम अभी हिंदी में और जादू बिखेरेती नज़र आएगी।</div><div><br></div><div>यूँ तो यह मनोरंजक उपन्यास मुझे किसी मित्र ने उपहार स्वरूप भेजा मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 122 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है Red Grab Books ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि कम पृष्ठ संख्या देखते हुए मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-73176486129262769802023-02-25T10:50:00.001+05:302023-02-25T10:50:48.092+05:30ज़िन्दगी 50 50- भगवंत अनमोल <div>जब भी कभी आपके पास किसी एक चीज़ के एक से ज़्यादा विकल्प हों तो आप असमंजस से भर.. पशोपेश में पड़ जाते हैं कि आप उनमें से किस विकल्प को चुनें? मगर दुविधा तब और बढ़ जाती है जब सभी के सभी विकल्प आपके पसंदीदा हों। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि आप मोटे ताज़े गन्नों से भरे एक खेत में खड़े हैं और आपको वहाँ से अपनी पसन्द का एक गन्ना चुनने के लिए बोल दिया जाए। तो यकीनन आप दुविधा में फँस जाऍंगे कि कौन सा गन्ना चुनें क्योंकि वहाँ आपको हर गन्ना एक से बढ़ कर एक नज़र आएगा। </div><div><br></div><div>मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ तब होता है जब मैं पढ़ने के लिए अपनी संग्रहीत किताबों की तरफ़ जाता हूँ तो अक्सर पशोपेश अथवा धर्मसंकट में पड़ जाता हूँ कि उनमें से किस किताब को चुनूँ और किसको नहीं? उनमें से बहुत सी किताबों को मैंने बड़े चाव से इस उम्मीद में खरीदा होता है कि मैं जल्द से जल्द इनका पूरा लुत्फ़ उठा सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ बहुत सी अन्य किताबों को मुझे लेखकों अथवा प्रकाशकों द्वारा इस उम्मीद में प्रेमपूर्वक भेंट किया गया होता है कि मैं यथाशीघ्र उन पर अपने पाठकीय नज़रिए से कुछ टिप्पणी कर सकूँ। मगर चूंकि किताबों की फ़ेहरिस्त इतनी लंबी हो जाती है कि कई बार अच्छी किताबें भी नज़र में आने से चूक जाती हैं। </div><div><br></div><div>दोस्तों..आज मैं किन्नर विमर्श से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का यहाँ जिक्र करने जा रहा हूँ। जिसे "ज़िन्दगी 50-50" के नाम से लिखा है भगवंत अनमोल ने। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के 'बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार 2017' से अलंकृत इस बेहतरीन उपन्यास के तीसरे संस्करण को मैंने आज से लगभग दो साल पहले 6 मार्च, 2021 में खरीदा था। पिछले दो सालों में कई बार उलटा पलटा जाने के बाद अंततः इसका नम्बर अब जा के आया लेकिन वो कहते हैं ना कि..'देर आए..दुरस्त आए' या 'जब जागो..तभी सवेरा'। आइए अब सीधे- सीधे चलते हैं इस उपन्यास की कथावस्तु की तरफ़। </div><div><br></div><div>किन्नर विमर्श के नए आयाम खोलता यह उपन्यास अपने मूल में एक साथ तीन अलग अलग कहानियों के ले कर चलता दिखाई देता है। जिनमें कहानी का मुख्य पात्र, अनमोल कहीं किसी ऐसे बड़े भाई की भूमिका निभाता दिखाई देता है जिसका छोटा भाई अपने शारीरिक अधूरेपन की वजह से घर-बाहर हर जगह प्रताड़ित..शोषित और अपमानित होता दिखाई देता है मगर वो (अनमोल) चाह कर भी उसकी कोई मदद नहीं कर पाता। </div><div><br></div><div>दूसरी कहानी में वह एक ऐसे पिता की भूमिका निभाता नज़र आता है, जिसका इकलौता बेटा, सूर्या भी उसके(अनमोल के) छोटे भाई हर्षा की तरह शारीरिक कमी का शिकार है। ऐसे में अब देखना यह है कि क्या अनमोल अपने अधूरे बेटे को देख कर अपने पिता, जिन्होंने समाज में अपनी मूँछों के नीचे हो जाने के डर से अपने दुधमुँहे बेटे को ज़हर दे मार डालने का प्रयास किया, की तरह क्रूर रवैया अपनाएगा या फ़िर समाज की परवाह ना करते हुए अपने बेटे के सामान्य जीवन जीने में संबल बन कर उसे प्रेरित करेगा।</div><div><br></div><div> इसी उपन्यास की तीसरी कहानी में अनमोल एक ऐसे प्रेमी के रूप में सामने आता है जो लाख चाहने के बावजूद भी, चेहरे पर जन्मजात दाग़ ले कर पैदा हुई अपनी दक्षिण भारतीय प्रेमिका, अनाया को अपना नहीं पाता कि उससे शादी कर के वो, अपने पहले से ही दुखी पिता को और ज़्यादा दुखी नहीं करना चाहता था कि वो उनकी जाति, धर्म एवं समाज की नहीं है। </div><div><br></div><div>कभी वर्तमान तो कभी फ्लैशबैक के बीच घूमते इस उपन्यास में कहीं आजकल के युवा इंजीनियरों और उसकी वीकेंड पर होने वाली दारू पार्टियों की बात होती नज़र आती है। तो कहीं किसी शारीरिक अपंगता की वजह से ही किसी के साथ घर-बाहर दुर्व्यवहार होता नज़र आता है। कहीं उपन्यास शारीरिक विकलांगता के बजाय मानसिक विकलांगता के अधिक खतरनाक होने की बात करता नज़र आता है। तो कहीं इसी उपन्यास में किसी का इस हद तक दैहिक शोषण होता दिखाई देता है कि वो आहत हो.. उस समाज/ परिवार को ही छोड़ने का फैसला कर लेता है जो उसका साथ देने के बजाय मात्र मूक दर्शक बन बस तमाशा देखता रहा। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में कहीं कोई बाप अपनी ही औलाद को बसों इत्यादि में कमर मटकाते हुए ताली बजा भीख माँगते देख शर्म से पानी पानी होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई बाप जीवन के हर छोटे बड़े फ़ैसले में अपने बेटे के साथ खड़ा नज़र आता है। </div><div>इसी किताब में कहीं कोई अपनी तमाम शर्तों के साथ व्यवहारिक हो प्रेम करता दिखाई देता है तो कहीं कोई बिना शर्त संपूर्ण समर्पण करता नज़र आता है। कहीं इसमें कोई अपने पिता के दो मीठे बोलों को तरसता दिखाई देता है तो कहीं कोई पिता के वजूद से ही नफ़रत करता दिखाई देता है।</div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कोई इस वजह से विवाह नहीं करता कि जिसे वो चाहती है, वो उसका नहीं हो सकता। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई किसी और के साथ इस वजह से विवाह के बंधन में बंध जाता है कि जिसे वो चाहता है, उससे उसकी शादी नहीं हो सकती।</div><div><br></div><div>प्रभावी शैली में लिखे गए इस उपन्यास के शुरुआती कुछ पृष्ठ थोड़ी ढिलमुल करने के बाद अपनी पकड़ इस प्रकार बना लेते हैं कि अंत तक आते आते संवेदनशील पाठकों की भावुक हो..आँखें नम हो उठती हैं।</div><div><br></div><div>प्रूफरीडिंग की कमी के तौर पर मुझे पेज नंबर 7 पर लिखा दिखाई दिया कि एक तरफ हाथ में पकड़े फोन पर नज़र थी और दूसरी तरफ कंप्यूटर का माउस अपने बैग में डाल रहा था।</div><div><br></div><div>इससे पहले यहाँ उपन्यास में नायक लैपटॉप बैग में डालता दिखाया गया है जबकि अब उसी के लिए कंप्यूटर (की माउस) शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है जो कि पढ़ने में थोड़ा अजीब लग रहा है। </div><div><br></div><div> इस उम्दा उपन्यास के 208 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 265/- रुपए। किंडल सब्सक्राइबर्स के लिए यह फ्री में उपलब्ध है तथा अमेज़न पर डिस्काउंट के बाद 184/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। </div><div><br></div><div><br></div><div>Zindagi 50-50 https://amzn.eu/d/47YoGEI</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgs3MEcGY13IoSt2Xly_VqsRTvt06do-n52NGEkM0Z2P0hJGS9ZA1Qa-6IMCy81WvVFBwRsEZQg-lW391FUi1SsNHK6nYomi1Bo9GKt10AuJQkqyrG7bKfOwUtPyXXBNrux82mHCNJH72A/s1600/1677302442843705-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-70682497875875997482023-02-08T13:22:00.001+05:302023-02-08T13:22:04.065+05:30उठा पटक- प्रभुदयाल खट्टर <div><br></div><div>आजकल की फ़िल्मों या कहानियों के मुकाबले अगर 60-70 के दशक की फिल्मों या कहानियों को देखो तो उनमें एक तहज़ीब..एक अदब..एक आदर्शवादिता का फ़र्क दिखाई देता है। आजकल की फ़िल्मों अथवा नयी हिंदी के नाम पर रची जाने वाली कहानियों में जहाँ एक तरफ़ भाषा..संस्कृति एवं तहज़ीब को पूर्णरूप से तिलांजलि दी जाती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ पहले की फिल्मों एवं कहानियों में एक तहज़ीब वाली लेखन परंपरा को इस हद तक बनाए रखा जाता था कि उन फिल्मों के खलनायक या वैंप किरदार भी अपनी भाषा में तमीज़ का प्रयोग किया करते थे कि अगर ऐसा न किया गया तो उन्हें दर्शकों एवं पाठकों द्वारा स्वीकार करने के बजाय पूर्ण रूप से नकार दिया जाएगा।</div><div><br></div><div>दोस्तों..आज मैं उसी 60-70 की तहज़ीब वाली मर्यादित भाषा शैली में लिखे गए एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'उठा पटक ' के नाम से लिखा है प्रभुदयाल खट्टर ने। बतौर स्क्रिप्ट राइटर एवं स्वर योगदान के क्षेत्र में दूरदर्शन और आल इंडिया रेडियो के लिए वर्षों तक अपनी सेवाएँ दे चुके प्रभुदयाल खट्टर जी की अब तक कई किताबें आ चुकी हैं। </div><div><br></div><div>उनके इस कहानी संकलन की किसी कहानी में जहाँ एक तरफ़ सरकारी दफ़्तर में काम करने वाला विवेक जब अपनी बहन के रिश्ते की बात अपने सहकर्मी दोस्त राजेश से करता है तो वह उसकी दहेज ना लेने की शर्त पर चौंक जाता है। क्या राजेश में कोई कमी या खोट था जिसकी वजह से वो शादी में दहेज नहीं लेना चाहता। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहने में कॉलेज में एक साथ पढ़ चुके नंदू और नंदिता की शादी करने से नंदू की माँ इस वजह से इनकार कर देती है कि नंदिता एक स्त्री हो कर पुलिस की मारधाड़ वाली नौकरी करती है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में आठ साल एक दूसरे से दूर रहने के बाद एक दिन अचानक आरती को समर का पत्र मिलता है तो पुरानी यादें फ़िर से ताज़ा होने लगती हैं कि किस तरह पिता के मना करने की वजह से उसका विवाह समर से नहीं हो पाया था। अब जहाँ एक तरफ़ आरती ने अब तक शादी नहीं की..वहीं दूसरी तरफ़ अमर शिखा से शादी कर तीन बच्चों का बाप बन चुका है और अब शिखा से अलग हो आरती को फ़िर से अपनाना चाहता है। अब देखना यह है कि आरती, समर से विवाह करने के लिए तैयार होती है अथवा उस युवक से शादी करने के लिए हाँ करती है जिससे उसके पिता 8 वर्ष पहले उसकी शादी करना चाहते थे। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ कमला अपने बेटे की शादी वंदना से तो कर तो देती है मगर अपनी उम्मीद से कम दहेज पा इस हद तक बौखला उठती है कि अपनी ननद के साथ मिल कर अपनी ही बहु को जला कर मार डालने तक की साजिश रचने से भी नहीं चूकती। तो वहीं एक अन्य कहानी में लाला हजारीलाल के यहाँ नौकरी करने वाला सोमनाथ उनकी नौकरी छोड़ रेलवे स्टेशन पर इस वजह से कुलीगिरी करने लगता है कि लाला उसे अपनी बेटियों को ज़्यादा न पढ़ाने की सलाह दे रहा था। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में बंसी की मुलाकात अचानक अपने बचपन के दोस्त मेवा से होती है। जिसमें मेवा, अपने 8 वर्षीय बेटे का बंसी की 5 वर्षीया बेटी के साथ उनके बड़े होने पर विवाह करने का वचन देता है। उसी रात रसोई में अचानक लगी आग में झुलस कर बंसी की मौत हो जाती है। अब देखना ये है कि बच्चों के बड़े होने पर मेवा क्या अपने किए वादे को निभाएगा अथवा बंसी की पत्नी की कम हैसियत के बारे में सोच अपने बात से मुकर जाएगा? </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अणिमा के पिता के इनकार के बाद निराश हो दिल्ली छोड़ कर जा चुका अमर अब पाँच सालों बाद वापिस लौटने पर पाता है कि पिता की ज़िद पर जबरन ब्याह दी गयी अणिमा, जो अब एक तीन वर्षीय बेटी की माँ है, का अब अपने शक्की पति से तलाक हो चुका है। बच्ची उस वक्त सदमे से ग्रस्त हो अस्पताल पहुँच जाती है जब उसे पता चलता है कि उसके नाना, उसे अनाथ आश्रम में भेज कर उसकी मॉ यानी कि अपनी बेटी की फ़िर से कहीं और शादी करवाना चाह रहे हैं। अब देखना ये है कि क्या अमर यह सब मूक दर्शक बन कर चुपचाप देखता रहेगा अथवा..</div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी आठ महीने के दांपत्य जीवन के बाद विधवा हो चुकी आनंदी के माध्यम से इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि एक न एक दिन हम सभी को मोह माया के बन्धनों से मुक्त हो कर अंततः अपनी मंज़िल..अपनी मुक्ति को पाना है। तो वहीं एक अन्य कहानी दहेज लोभियों के बुरे नतीजे की बात करती नज़र आती है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ एक साल पहले मोटरसाइकिल एक्सीडेंट में मृत्यु प्राप्त कर चुके मन्नू के नाम जब उसके दोस्त का पत्र और शादी का निमंत्रण आता है तो हैरान होती माँ भावुक हो उठती है कि उसकी शादी उसी लड़की से हो रही है जिससे वो खुद अपने बेटे मन्नू का विवाह करना चाहती थी। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में अविवाहित अणिमा परेशान हालात में अपनी रूममेट सुनंदा को बताती है कि वह राजेश के बच्चे की माँ बनने वाली है और इस ख़बर से बेख़बर राजेश शहर में नहीं है। राजेश के वापिस लौट आने पर सुनंदा इसकी ख़बर राजेश को देने के लिए उसके घर जाती है तो वहाँ राजेश के बैडरूम में उसके साथ किसी अन्य युवती को कपड़े पहनते हुए पा चुपचाप वापिस लौट जाती है। क्या सुनंदा इस बात की ख़बर अणिमा को देगी अथवा अणिमा के गर्भवती होने की वजह से चुपचाप मौन धारण कर लेगी? </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ स्त्री..पुरुष में एक जैसे कार्य के लिए एक जैसे वेतन की माँग करती नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में एक सेल्स गर्ल महिलाओं के प्रति भद्दी टिप्पणियों करने वालों के ख़िलाफ़ अन्य युवतियों को एकजुट करती नज़र आती है। </div><div><br></div><div>इसी संकलन की एक कहानी में मनीषा के गर्भवती होने पर उसकी सास अल्ट्रासाउंड करवाने का फ़रमान सुना देती है कि उन्हें लड़की नहीं बल्कि लड़का चाहिए। अब देखा ये है कि क्या मनीषा अपने ससुराल वालों की बातों में उनकी बात मान लेती है अथवा उनके विरोध के काँटों भरे रास्ते पर अपने कदम बढ़ा देती है। </div><div><br></div><div>पाठकीय नज़रिए से इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे थोड़ी सपाट बयानी करती हुई दिखाई दीं तो कुछ कहानियाँ अपने आप में संपूर्ण होने के बजाय महज़ दृश्य मात्र भी लगीं। जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। </div><div> </div><div><br></div><div>पेज नंबर 47 पर लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'अगले दिन शाम को ड्यूटी से लौटने पर उसे समर का व्हाट्सएप मैसेज मिला। उसने पढ़ा, लिखा था, "जन्मदिन मुबारक हो, तुम्हारा रात का खाना मेरी तरफ़ से आठ बजे आऊँगा।" ' </div><div><br></div><div>इसके बाद पेज नंबर 48 यानी कि अगले पेज पर लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>' "हैप्पी बर्थडे।" समर दरवाज़े पर फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ा था।</div><div><br></div><div>"थैंक्यू।" आरती ने कहा और फूलों का गुलदस्ता समर के हाथ से ले लिया।"</div><div><br></div><div>" कुछ लोगे?" आरती ने पूछा। </div><div><br></div><div>"नहीं, नहीं, आज बाहर चलेंगे। तुम चलोगी?" समर ने पूछा तो आरती जैसे असमंजस में पड़ गई।'</div><div><br></div><div>अब यहाँ ये सवाल उठता है कि जब समर ने अपने व्हाट्सएप मैसेज में आरती को जन्मदिन की मुबारकबाद देने के बाद कह ही दिया था कि..</div><div><br></div><div>"तुम्हारा रात का खाना मेरी तरफ़ से, आठ बजे आऊँगा।" </div><div><br></div><div>तो अब रात को आठ बजे आने के बाद फ़िर से पूछने की क्या ज़रूरत थी कि..</div><div><br></div><div>"तुम चलोगी?"</div><div><br></div><div>पेज नंबर 76 की एक कहानी 'रुलाई' में पाँच सालों बाद वापिस दिल्ली लौटे अमर की मुलाकात अपने दोस्त सतीश के घर में गुड्डी नाम की एक छोटी सी बच्ची से होती है। जो कभी उसकी प्रेमिका रह चुकी अणिमा की बेटी है। अणिमा के पिता की नज़र में अमर की हैसियत उनके जैसे अमीर परिवार की न होने के कारण उन दोनों की शादी नहीं हो पायी थी। अब अणिमा का अपने पति से तलाक हो चुका है और उसके पिता गुड्डी को अनाथ आश्रम भेजने की तैयारी कर रहे हैं। इस आघात से बच्ची डिप्रेशन में आ..अस्पताल पहुँच चुकी है।</div><div><br></div><div>ऐसे में अमर अस्पताल पहुँच गुड्डी को गोद लेने का प्रस्ताव रखता है। जिससे खुश हो कर अणिमा अपने पिता के विरोध के बावजूद भी पेज नम्बर 76 में कहती दिखाई देती है कि..</div><div><br></div><div>'अणिमा दृढ़ हो कर, बाबूजी की अवज्ञा करते हुए सतीश से बोली, "मैं गुड्डी की माँ हूँ, आप गुड्डी को गोद ले सकते हैं। लेकिन आपको मुझे यानी गुड्डी की माँ को, एक आया की तरह गुड्डी के साथ रहने की अनुमति देनी होगी।" </div><div><br></div><div>सतीश की आँखों में आँसू आ गए। वह भर्राए स्वर में बोला, "अणिमा तुम आया की तरह नहीं, मेरी पत्नी बन कर भी रह सकती हो, अगर मंज़ूर हो।"</div><div><br></div><div>"मंज़ूर है।' अणिमा की रुलाई फूट पड़ी और वह सतीश के गले लग कर,फफक फफक कर रोने लगी।'</div><div><br></div><div>उपरोक्त सभी संवाद अणिमा ने अमर से कहने थे लेकिन वह इन्हें सतीश यानी कि अपने भाई से कहती नज़र आ रही है। जो कि सही नहीं है। </div><div><br></div><div><br></div><div>धारा प्रवाह शैली में लिखा गया यह कहानी संकलन मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 182 पृष्ठीय कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शारदा पब्लिकेशन, दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</script></div>राजीव तनेजाhttp://www.blogger.com/profile/00683488495609747573noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4497269264531281345.post-28881180830322649522023-01-31T12:08:00.001+05:302023-02-01T13:24:35.227+05:30CIU क्रिमिनल्स इन यूनिफॉर्म- संजय सिंह/ राकेश त्रिवेदी <div><br></div><div>आजकल जहाँ एक तरफ़ बॉलीवुड की फिल्में अपनी लचर कहानी या बड़े..महँगे..नखरीले सुपर स्टार्स की अनाप शनाप शर्तों के तहत जल्दबाज़ी में बन बुरी तरह फ्लॉप हो.. धड़ाधड़ पिट रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ कसी हुई कहानी के साथ मंझे हुए अभिनय एवं निर्देशन के बल पर अनजान अथवा अपेक्षाकृत नए कलाकारों को ले कर बनीं वेब सीरीज़ लगातार हिट होती जा रही हैं। </div><div><br></div><div>कहने का तात्पर्य ये कि बढ़िया दमदार अभिनय एवं निर्देशन के अतिरिक्त लेखन की परिपक्वता भी किसी फिल्म या वेब सीरीज़ के हिट होने के पीछे का एक अहम कारक होती है। दोस्तों..आज वेब सीरीज़ से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं वेब सीरीज़ की ही तर्ज़ पर लिखे गए एक तेज़ रफ़्तार उपन्यास 'CIU- क्रिमिनल्स इन यूनिफ़ॉर्म' का जिक्र करने जा रहा हूँ। जिसे लिखा है क्राइम इन्वेस्टिगेशन पत्रकारिता में दो दशक बिता चुके लेखकद्वय संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी ने।।</div><div><br></div><div>इस लेखकद्वय जोड़ी की ही लिखी कहानी पर जल्द ही सोनी लिव के ओटीटी प्लैटफॉर्म पर एक वेब सीरीज़ आ रही है। जो बहुचर्चित स्टैम्प पेपर घोटाले के मुख्य अभियुक्त अब्दुल करीम तेलगी के जीवन पर बनी है। आइए..अब सीधे सीधे चलते हैं उपन्यास की मूल कहानी और उससे जुड़ी बातों पर। </div><div><br></div><div>हालिया ताज़ातरीन घटनाओं को अपने में समेटे इस उपन्यास में मूलतः कहानी है देश के सबसे अमीर कहे जाने वाले व्यवसायी 'कुबेर' के बहुचर्चित आवास 'कुबेरिया' के बाहर एक लावारिस गाड़ी के मिलने की। जिसमें कुबेर के नाम धमकी भरे पत्र एवं कुछ अन्य चीज़ों के साथ बिना डेटोनेटर के जिलेटिन की बीस छड़ें भी मौजूद थीं। </div><div> </div><div>कभी आतंकवाद तो कभी माफ़िया एंगल के बीच झूझती इस चौंकाने वाली घटना में पेंच की बात ये है कि बिना डेटोनेटर के जिलेटिन की छड़ी किसी काम की अर्थात विस्फ़ोट करने के काबिल नहीं। लेकिन अगर ऐसा था इस गाड़ी को वहाँ छोड़.. सनसनी या अफरातफरी फैलाने का असली मकसद..असली मंतव्य क्या था? </div><div><br></div><div>केन्द्र और राज्य सरकार के बीच की रस्साकशी और आपसी खींचतान का उदाहरण बनी इस घटना में केस की तहकीकात से जुड़ी तफ़्तीश का जिम्मा काफ़ी जद्दोजहद और लंबी बहस के बाद राज्य सरकार की इकाई CIU के जिम्मे आता है। जिसका हैड असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर यतीन साठे है। जो खुद 17 साल सस्पैंड रहने के बाद ख़ास इसी केस के लिए बहाल हुआ है। मगर यतीन साठे स्वयं भी तो दूध का धुला नहीं। </div><div><br></div><div>इस उपन्यास में कहीं सरकारी महकमों की आपसी खींचतान अपने चरम पर दिखाई देती है तो कहीं नेशनल सिक्योरिटी, पाकिस्तान, आई एस आई और इस्लामिक मिलिटेंट्स के नाम पर सरकार एवं पुलिस द्वारा देश को बरगलाया जाता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं मौकापरस्त पुलिस का गठजोड़ सत्ता पक्ष के साथ तो कहीं विपक्ष के साथ होता नज़र आता है।</div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं करोड़ों रुपयों की घूस दे कर पुलिस की बड़ी पोस्ट्स को हथियाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई पुलिस का नामी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नौकरी छोड़ पैसे..पॉवर और शोहरत के लालच में चुनाव लड़ता नज़र आता है। इसी किताब में कही किसी संदिग्ध को पुलिस अमानवीय तरीके से टॉर्चर करती दिखाई देती है। तो कहीं एजेंसियों की कोताही से असली मुजरिमों के बजाय समान नाम वाले निर्दोष प्रताड़ित होते नज़र आते हैं । </div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं दफ़्तरी सबूतों का इस्तेमाल अपने निजी फ़ायदे के लिए होता दिखाई देता है तो कहीं शक की बिनाह पर मातहत ही घर का भेदी बन अपने अफ़सर की लंका ढहाता दिखाई देता है।</div><div>इसी किताब में कहीं पुलिस महकमे में आपसी खींचतान और पावर बैलेंस की राजनीति होती दिखाई देती है तो कहीं खुद को फँसता पा बड़े अफ़सरान अपने मातहत को बलि का बकरा बनाते दिखाई देते हैं। कहीं अपनी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते मीडिया और पुलिस की आपसी खुंदक सर उठाए खड़ी नज़र आती है। तो कहीं बड़े नेताओं और पुलिसिया शह पर अवैध वसूली का खेल बड़े स्तर पर साढ़े हुए ढंग से खेला जाता दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>इसी किताब में कही गहन जाँच के नाम पर यतीन साठे जैसे राज्य सरकार के पुलिस अफ़सर को एनआईए जैसी केंद्रीय एजेंसी के अफ़सर सरेआम ज़लील ..बेइज़्ज़त कर प्रताड़ित करते नज़र आते हैं।</div><div><br></div><div>इसी उपन्यास में कहीं अपने फ़ायदे के चलते सीनियर अफसरों के ओहदे और रुतबे को दरकिनार कर छोटे अफ़सर को सभी महत्त्वपूर्ण केसेज़ का हैड बनाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई जॉइंट कमिश्नर रैंक के अफ़सर अपने ही कमिश्नर के ख़िलाफ़ अपने मन में दबी भड़ास राजनैतिक आकाओं के आगे उजागर करते दिखाई देते हैं। </div><div><br></div><div>इसी किताब में कहीं नहले पर दहले की तर्ज़ पर चल रही जाँच में लंबी तफ़्तीश के बाद केन्द्र सरकार की एजेंसियां पाती हैं कि उस गाड़ी को लावारिस छोड़ने वाला स्वयं CIU का हैड यतीन साठे ही था। क्या महज़ यतीन साठे अकेला ही इस सारे काँड का मास्टर माइंड था या फ़िर इस पूरे षड़यंत्र का वह एक छोटा सा मोहरा मात्र था? यह सब जानने के लिए तो आपको इस कदम कदम पर चौंकाते तेज़ रफ़्तार उपन्यास को पढ़ना होगा। </div><div><br></div><div>■ प्रूफरीडिंग की के रूप में मुझे पेज नंबर 52 की शुरुआत में बोल्ड हेडिंग में 2004 लिखा दिखाई दिया। उसके तुरंत बाद लिखा दिखाई दिया कि..</div><div><br></div><div>'बुलावा आने पर वह तुरंत निकला था'</div><div><br></div><div>यहाँ लगता है कि ग़लती से कुछ छपने से रह गया है क्योंकि इस वाक्य का कोई मतलब नहीं निकल रहा है। </div><div><br></div><div>■ इस उपन्यास के चैप्टर नंबर 10 के पेज नम्बर 175 में एटीएस अफसर नित्या शेट्टी आईपैड पर स्टेशन के सीसीटीवी में यतीन साठे के चेहरा, सिर ढंक कर जाने और लोकल ट्रेन में सवार होने के फुटेज होम मिनिस्टर सरदेशपांडे को दिखाते हुए उन्हें पूरे घटनाक्रम के बारे में बताता है कि सब कुछ किस प्रकार घटा।</div><div><br></div><div>इसी घटनाक्रम के दौरान नित्या शेट्टी बताता है कि..</div><div><br></div><div>'साठे एक बार फिर से हंसमुख को CIU के ऑफिस में बुलाता है। जहाँ साठे समेत कुछ पूर्व और मौजूदा एनकाउंटर स्पेशलिस्ट मिल कर हंसमुख पर भारी दबाव बनाते हैं। बदहवास हंसमुख कुछ मिनटों के लिए बाहर आता है तब वह इस योजना के बारे में अपने आप से बड़बड़ा रहा होता है, जिसे CIU ऑफिस के बाहर बैठा एक बार मालिक सुन लेता है। इस बार मालिक को हफ़्ता देने के लिए साठे ने बुलाया था और वह बाहर बैठा इंतजार कर रहा था। हंसमुख बड़बड़ा रहा होता है कि वह क्यों अपने सिर पर झूठी ज़िम्मेदारी ले जब उसने कुछ किया नहीं और उस पर ज़बरदस्ती दबाव डाला जा रहा है। इस बात की पुष्टि बाद में उस बार मालिक ने एटीएस से की।'</div><div><br></div><div><br></div><div>यहाँ लेखक द्वय के अनुसार एक बार मालिक ने हसमुख की बड़बड़ाहट सुनी और फ़िर इस बात की पुष्टि एटीएस वालों के सामने भी की जबकि पूरा उपन्यास फ़िर से खंगालने के बावजूद भी मुझे ऐसा कोई दृश्य देखने को नहीं मिला।</div><div><br></div><div>हालांकि 269 पृष्ठीय यह रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है आर.के.पब्लिकेशन, मुंबई ने और इसका मूल्य रखा गया है 395/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम हिंदी पाठकों तक किताब की पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि किताब के दाम आम आदमी की जेब के हिसाब से ही रखे जाएँ। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखकद्वय एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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