नैना- संजीव पालीवाल

अगर बस चले तो अमूमन हर इनसान अपराध से जितना दूर हो सके, उतना दूर रहना चाहता है बेशक इसके पीछे की वजह को सज़ा का डर कह लें अथवा ग़लत सही की पहचान भरा हमारा विवेक। जो अपनी तरफ से हमें इन रास्तों पर चलने से रोकने का भरसक प्रयास करता है। मगर जब बात अपराध कथाओं की हो तो हर कोई इनके मोहपाश से बंधा..इनकी तरफ़ खिंचा चला आता है। भले ही वो कोई लुगदी साहित्य का तेज रफ़्तार उपन्यास हो अथवा कोई फ़िल्म या वेब सीरीज़।

उपन्यासों की अगर बात करें तो बात चाहे 'इब्ने सफी' की हो या फिर 'जेम्स हेडली चेइस' के हिंदी अनुवाद वाली किताबों की। ओमप्रकाश कंबोज, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश शर्मा तथा सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे शुद्ध हिंदी लेखकों ने इस क्षेत्र में अपने लाखों की संख्या में मुरीद बनाए। बतौर क्राइम/थ्रिलर लेखक अपने समय में इन्होंने जो मुकाम हासिल किया, वो आज भी काबिल ए तारीफ़ है। आज के समय में भी अगर वैसा ही कोई तेज़ रफ़्तार उपन्यास पढ़ने को मिल जाए तो बात ही क्या।

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ संजीव पालीवाल जी के पहले उपन्यास 'नैना' की जो कि एक मर्डर मिस्ट्री है। पहले उपन्यास की दृष्टि से अगर देखें तो कहीं भी..किसी भी एंगल से नहीं लगता कि यह उनका पहला उपन्यास है। विषय की गहनता और उस पर किए गए शोध से साफ़ पता चलता है कि इसे ज़मीनी स्तर पर उतारने से पहले इस पर कितनी ज़्यादा मेहनत एवं गहन चिंतन किया गया है।

इस उपन्यास में मूलतः कहानी है मॉर्निंग वॉक के दौरान पार्क में अलसुबह, बेरहमी से हुए एक युवती के कत्ल की। पुलसिया तफ़्तीश से पता चलता है कि मरने वाली एक बड़े न्यूज़ चैनल की मशहूर न्यूज़ एंकर 'नैना' थी। शक के घेरे में बेरोज़गार पति समेत उसके तत्कालीन बॉस तथा एक जूनियर भी आती है और हर एक के पास उसके कत्ल की कोई ना कोई ठोस एवं वाजिब वजह मौजूद है। 

प्यार..धोखे.. फ्लर्टिंग और अवैध संबंधों के ज़रिए राजनीति के गलियारे में घुस कर यह बेहद रोचक उपन्यास कभी ब्लैकमेल तो कभी मी टू जैसे विभिन्न मुद्दों के जूझता दिखाई देता है। कहीं इसमें जलन..अहंकार और बदले जैसी भावनाएं सर उठा..अपना फन फैलाने से भी नहीं चूकती हैं। तो कहीं इसमें किसी भी कीमत पर आगे..निरंतर आगे बढ़ने की धुन में ग़लत सही की पहचान लोप होती दिखाई देती है।

किसी भी मर्डर मिस्ट्री जैसे उपन्यास में तमाम शंकाओं एवं संभावनाओं को नज़रंदाज़ किए बिना हर पहलू को बराबर की अहमियत दे कर लिखना अपने आप में दिमाग़ी तौर पर बेहद मुश्किल एवं थकाने वाला है। लेखक का इस तरह की तमाम दिक्कतों से सफलतापूर्वक बाहर निकल आना उनके भावी लेखन के प्रति नयी आशाएँ..संभावनाएं एवं अपेक्षाएं जगाने में पूरी तरह सक्षम है। 

धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास का कवर डिज़ायन खासा आकर्षक एवं उत्सुकता जगाने वाला है। एक आध जगह वर्तनी की छोटी मोटी त्रुटि दिखाई दी। 266 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है वेस्टलैंड पब्लिकेशंस की सहायक कम्पनी Eka ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

2 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

उपन्यास के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख। उपन्यास जल्द ही पढ़ने की कोशिश रहेगी।

मन की वीणा said...

रोचक जानकारी देता , पुस्तक के प्रति रुचि बढ़ाता लेख।

 
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