मेरी आठवीं कहानी नवभारत टाईम्स पर

पहली कहानी- बताएँ तुझे कैसे होता है बच्चा

दूसरी कहानी- बस बन गया डाक्टर

तीसरी कहानी- नामर्द हूँ,पर मर्द से बेहतर हूँ

चौथी कहानी- बाबा की माया

पाँचवी कहानी- व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की

छटी कहानी-काश एक बार फिर मिल जाए सैंटा

सातवीं कहानी-थमा दो गर मुझे सत्ता

आठवी कहानी- मेड फॉर ईच अदर

 


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मेड फॉर ईच अदर
14 Mar 2009, 1538 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम 

राजीव तनेजा


हेलो। मे आई स्पीक टू मिस्टर राजीव तनेजा ? यस , स्पीकिंग। सर , मैं रिया बोल रही हूं। फ्लाना एंड ढीमका बैंक से। हां जी , बोलिए। सर , वी आर प्रवाइडिंग होम लोन एट वेरी रीज़नेबल रेट्स। सॉरी मैडम , आई एम नॉट इंटरेस्टिड। सर , बहुत अच्छी स्कीम दे रही हूं आपको।
हां जी , बताएं। सर , हम आपको बहुत ही कम ब्याज पर लोन प्रवाइड कराएंगे। अभी कहा न आपको कि नहीं चाहिए। सर , पहले मेरी पूरी बात सुन लें। प्लीज़ , अच्छा फटाफट बताएं , मैं रोमिंग में हूं। सर , आप अगर हमसे लोन लेते हैं तो उसका सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि समय पर किश्त न चुका पाने की कंडीशन में हम आपके घर अपने गुंडे और बदमाश नहीं भेजते हैं।

ओह , अच्छा ! फिर तो ठीक है। एक्चुअली , मुझे गुंडों और उनकी मार - कुटाई से बड़ा डर लगता है। यू नो , एक बार मेरे दोस्त कम पड़ोसी कम रिश्तेदार के घर पर काफी तोड़फोड़ और हंगामा कर गए थे। सर , वे उस एक्स कम्पनी के रिकवरी एजंट होंगे। यह तो पता नहीं। दरअसल , वे हैं ही बड़े बेकार लोग। बिना वजह कस्टमर्स को तंग करते हैं।

यह भी नहीं जानते कि ग्राहक तो भगवान का रूप होता है और कोई अपनी मर्ज़ी से थोड़े ही फंसता है , बैंकों के जाल में। ऊपर से बाज़ार में मंदा - ठंडा तो चलता ही रहता है। थोड़ा सब्र तो उन्हें रखना ही चाहिए कि कोई उनके पैसे खा थोड़े ही जाएगा। वैसे हमारे बैंक से लोन लेने के बाद तो वैसे भी आदमी किश्तें चुकाते - चुकाते अपने ही कष्टों से मर जाता है। ही ... ही .... ही ..

क्या ? प्लीज़ , आप माइंड न करें। आप इतना सब उल्टा - सीधा बके चली जा रही हैं और मुझे कह रही हैं कि माइंड न करें। एक्चुअली , इट वॉज़ अ पी . जे। पी . जे माने ? प्योर जोक ... प्रैक्टिकल जोक। ओह , फिर तो आप बड़े ही खतरनाक जोक मारती हैं मिस पिंकी। सर यह तो कुछ भी नहीं , मेरे जोक्स के आगे तो बड़े - बड़े हिल जाया करते हैं। ओह , रियली ? जी और सर , मेरा नाम पिंकी नहीं बल्कि रिया है। ओह , फिर तो आपने ठीक किया। क्या ठीक किया सर ?

यही कि अपना नाम बता दिया। वर्ना बेवजह कन्फ्यूज़न क्रिएट होता रहता। किस तरह का कन्फ्यूज़न सर ? एक्चुअली फ्रैंकली स्पीकिंग , इस तरह के दो - चार फोन तो रोज़ ही आ जाते हैं ना ! तो तो सबके नाम याद करने में अच्छी - खासी मुश्किल पेश आ जाया करती है। सर , जब आप हमसे एक बार लोन ले लेंगे न तो फिर कभी भी मेरा नाम नहीं भूल पाएंगे। और वैसे भी मैं भूलने वाली चीज़ नहीं हूं सर। जी , यह तो आपकी बातों से ही मालूम चल गया है। क्या मालूम चल गया है सर ?

यही कि आप बातें बड़ी दिलचस्प करती हैं। थैंक्स फॉर दा कॉम्प्लिमंट सर। एक्चुअली फ्रैंकली स्पीकिंग , यू हैव ए वेरी स्वीट एंड सेक्सी वॉयस। झूठे। फ्लर्ट करना तो कोई आप मर्दों से सीखे। प्लीज़ , इसे झूठ न समझें। सच में आपकी आवाज़ बड़ी ही मीठी और सुरीली है। तुम्हारी कसम। अच्छा जी , अभी मुझसे बात करते हुए सिर्फ आपको यही कोई दस - बारह मिनट हुए हैं और आप मेरी कसमें भी खाने लगे।

एक्चुअली , रिया वह क्या है कि किसी को समझने में पूरी उम्र बीत जाया करती है और किसी को जानने के लिए सिर्फ चंद सेकंड ही काफी होते हैं। यू नो , जोड़ियां ऊपर से ही बन कर आती हैं। जी , बात तो आप सही कह रहे हैं। सर ! वैसे आप रहते कहां हैं ? जी , शालीमार बाग। वहां तो प्रॉपर्टी के बहुत ज़्यादा रेट होंगे न सर ? जी , यही कोई सवा लाख रुपये गज के हिसाब से सौदे हो रहे हैं आजकल और अभी परसों ही डेढ़ सौ गज में बना एक सेकंड फ्लोर बिका है पूरे अस्सी लाख रुपये का।
गुड , मैं भी सोच रही थी कोई सौ - पचास गज का प्लॉट ले कर डाल दूं। आने वाले समय में कुछ न कुछ मुनाफा दे कर ही जाएगा। बिलकुल सही सोचा है आपने। किसी भी और चीज़ में इनवेस्ट करने से अच्छा है कि कोई प्लॉट या मकान खरीद कर रख लिया जाए। लेकिन , मुझे यह फ्लोर - फ्लार का चक्कर बेकार लगता है।

ये भी क्या बात हुई कि नीचे कोई और रहे और ऊपर कोई और। ऊपर छत पर सर्दियों में धूप सेंकनी हो या फिर पापड़ - वड़ियां सुखाने हों तो बस दूसरों के मोहताज हो गए हम तो। जी , ये बात तो है। इसमें कहां की अक्लमंदी है कि ज़रा - ज़रा से काम के लिए दूसरों को डिस्टर्ब कर उनकी घंटी बजाते रहो। जी , बिलकुल सही कहा सर आपने। सर , आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूं ? अरे यार , इसमें बुरा मानने की क्या बात है ? हक बनता है आपका। आप एक - दो क्या पूरे सौ सवाल पूछें तो भी कोई गम नहीं।
ये नाचीज़ आपकी सेवा में हमेशा हाज़िर रहेगा। टीं ... टीं ... बीप ... बीप ... बीप। ओह , लगता है कि बैलंस खत्म होने वाला है। मैं बस दो मिनट में ही रिचार्ज करवा कर आपको फोन करता हूं। हां , चिंता न करें मैं नम्बर सेव कर लूंगा। नहीं आप रहने दें , मैं ही कर लूंगी। हमें वैसे भी अपना दिन का टारगिट पूरा करना होता है।

ओ . के। ( दस मिनट बाद ) हैलो , राजीव ? हां जी। और सुनाएं , क्या हाल - चाल हैं ? बस , क्या सुनाएं ? कट रही है जैसे तैसे। ऐसे क्यों बोल रही हो यार ? बस ऐसे ही , कई बार लगता है कि जैसे जीवन में कुछ बचा ही नहीं है। चिंता ना करो , मैं हूं ना ? सब ठीक हो जाएगा।

कुछ ठीक नहीं होने वाला है। थोड़ी - बहुत ऊंच - नीच तो सब के साथ लगी रहती है। इनसे घबराने के बजाए इनका डट कर मुकाबला करना चाहिए। जी , खैर आप बताएं। क्या पूछना चाहती थीं आप ?
नहीं , रहने दें। फिर कभी , किसी अच्छे मौके पे। आज से अभी से अच्छा मौका और क्या होगा ? आज ही आपसे पहली बार बात हुई और आज ही आपसे दोस्ती हुई। और वैसे भी दोस्ती में कोई शक नहीं रहना चाहिए।

जी , सही कहा आपने। सर , मैं यह कहना चाहती थी कि ... । पहले तो आप ये सर ... सर लगाना छोड़ें। एक्चुअली , टू बी फ्रैंक बड़ा अजीब सा फील होता है जब कोई अपना इस तरह फॉरमैलिटी भरे लहज़े में बात करे। आप मुझे सीधे - सीधे राजीव कह कर पुकारें। जी सर , ऊप्स सॉरी राजीव।

हा हा हा हा ... एक्चुअली क्या है राजीव कि मैंने कभी किसी से ऐसे ओपनली फ्री हो कर बात नहीं की है। हमें हमारे प्रफेशन में सिखाया भी यही गया है कि सामने वाला बंदा कैसा भी घटिया हो और कैसे भी कितना भी रूडली बात करे , लेकिन हमें अपनी पेशंस अपने धैर्य को नहीं खोना है और अपने चेहरे पर हमेशा मुस्कान बना कर रखनी है।

हमारी आवाज़ से किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि हमारे अन्दर क्या चल रहा है। यू नो प्रफेशनलिज़म। सही ही है , अगर आप लोग अपने कस्टमर्स के साथ बदतमीज़ी के साथ पेश आएंगे तो अगला पूरी बात सुनने के बजाए झट से फोन काट देगा। वही तो ...

हां तो आप बताएं कि आप क्या पूछना चाहती थीं ? राजीव , किसी और दिन पर क्यों न रखें यह टॉपिक ? देखो , जब मैंने तुम्हें दिल से अपना मान लिया है तो हमारे बीच कोई पर्दा कोई दीवार नहीं रहनी चाहिए। जी , तो फिर पूछो न यार , क्या पूछना है आपको ? मैं तो सिम्पली बस यही जानना चाहती थी कि यहां शालीमार बाग में आपका अपना मकान है या फिर किराए का ? यार , यह किराया - विराया देना तो मुझे शुरू से ही पसन्द नहीं। इसलिए तो पांच साल पहले पिताजी का जमा - जमाया टिम्बर का बिज़नस छोड़ मैं अमृतसर से भाग कर दिल्ली चला आया कि कौन हर महीने किराया भरता फिरे ?

और आज देखो , अपनी मेहनत से मैंने सब कुछ पा लिया है। मकान , गाड़ी ... । ओह , तो इसका मतलब खूब तरक्की की है जनाब ने दिल्ली आने के बाद। बिलकुल , लाख मुश्किलें आई मेरे सामने लेकिन ज़मीर गवाह है मेरा कि मैंने कभी हार नहीं मानी और कभी ऊपरवाले पर अपने विश्वास को नहीं खोया। उसी ने दया - दृष्टि दिखाई अपनी। वर्ना मैं तो कब का थक - हार के टूट चुका होता और आज यहां दिल्ली में नहीं बल्कि वापस अमृतसर लौट गया होता। .. ऐसे नहीं बोलते , अब मैं हूं न तुम्हारे साथ। तुम्हारे हर दुख हर दर्द की साथिन।

वैसे कितने कमरे हैं आपके मकान में ? क्यों ? क्या हुआ ? कुछ नहीं , वैसे ही पूछ लिया। पूरे छह कमरों का सेट है। छह कमरे ? वाऊ ... दैट्स नाइस। लेकिन आप इतने कमरों का क्या करते हैं ? क्या बीवी ... बच्चे ? कहां यार , अभी तो मैं कुंवारा हूं। व्हाट अ लवली कोइंसीडंस , मैं भी अभी तक कुंवारी हूं। फिर तो खूब मज़ा आएगा जब मिल बैठेंगे कुंवारे दो। जी बिलकुल , लेकिन आप अकेले इतने कमरों का करते क्या हैं ?
दो तो मैंने अपने पास रखे हैं और एक मेहमानों के लिए। बाकी के तीन कमरे , वो क्या है कि कई बार मैं अकेला बोर हो जाता हूं इसलिए फिलहाल किराए पर चढ़ा रखा है। ठीक किया। थोड़ी - बहुत आमदनी भी हो जाती होगी और अकेले बोर होने से भी बच जाते होंगे। जी। लेकिन अब चिंता न करें , मैं आपको बिलकुल भी बोर न होने दूंगी। जब कभी भी ज़रा सा भी लगे कि आप बोर हो रहे हैं तो आप कभी भी किसी भी वक्त मुझे फोन कर दिया करें। मेरा वायदा है आपसे कि आप मेरी कम्पनी को पूरा एंजाय करेंगे।

जी , ज़रूर। शुक्रिया। दोस्ती में ... प्यार में ... नो थैंक्स ... नो शुक्रिया। बातों ही बातों में मैं ये पूछना तो भूल ही गया कि आप कहां रहती हैं ? घर में कौन - कौन हैं वगैरह। अब क्या बताऊं , घर में मां - बाप और बस हम तीन बहनें हैं। सबसे छोटी , सबसे लाडली और सबसे नटखट मैं ही हूं। और घर ? रहने को फिलहाल मैं जहांगीर पुरी में रह रही हूं। वह जो साईड पर लाल रंग के फ्लैट बने हुए हैं ? नहीं यार , जे . जे . कॉलनी में रह रही हूं। गुस्सा तो मुझे बहुत आता है अपने मम्मी - पापा पर कि उन्हें यही सड़ी सी कॉलनी मिली थी रहने के लिए , लेकिन क्या करूं मां - बाप हैं मेरे। बचपन से पाला - पोसा , पढ़ाया - लिखाया उन्होंने। उनके सामने फालतू बोलना ठीक नहीं।
खैर , आप बताएं , क्या - क्या आपकी हॉबीज़ हैं ? मुझे बढ़िया खाना , बढ़िया पहनना , बड़े - बड़े होटलों में घूमना - फिरना , स्वीमिंग करना , फिल्में देखना और फाइनली देर रात तक डिस्को में अंग्रेज़ी धुनों पर नाचना - गाना पसंद है। गुड , म्यूज़िक तो मुझे भी बहुत पसंद है। लेकिन , मुझे ये रीमिक्स वाले गाने तो बिलकुल ही पसंद नहीं। संगीत के अलावा और क्या - क्या शौक हैं आपके ? म्यूज़िक के अलावा मुझे हॉर्स राइडिंग पसंद है , लॉन्ग ड्राइव और हॉलीवुड मूवीज़ पसंद है। इसके अलावा और भी बहुत कुछ पसंद है , जब मिलोगी तब बताऊंगा। ओ . के। तो फिर कब मिल रही हैं आप ? देखते हैं। बताओ न , प्लीज़। क्या बात है ? बड़े बेताब हुए जा रहे हो मुझसे मिलने को ? ऐसा क्या है मुझमें ? और नहीं तो क्या , जिसकी आवाज़ ही इतनी खूबसूरत हो उससे पर्सनली मिलना भी तो चाहिए। पता तो चले कि ऊपर वाले ने मेरी किस्मत में कौन सा नायाब तोहफा लिखा है।

इतना ऊपर न चढ़ाओ मुझे कि कभी नीचे उतर ही न पाऊं। बताओ न यार , कब मिल रही हो ? ओके , कल तो मुझे शापिंग करने करोल बाग जाना है। क्यों न आप भी मेरे साथ चलें। जी , बिलकुल। आप बताएं , कितने बजे मिलेंगी ? मैं आपको आपके घर से ही पिक कर लूंगा। नहीं , आस - पड़ोस वाले फालतू में बाते बनाएंगे। सुबह मुझे अपनी सहेली के साथ शालीमार बाग में ही काम है , वहीं से मैं आपके घर आ जाऊंगी। कोई प्रॉब्लम तो नहीं है न आपको ? नहीं , मुझे भला क्या प्रॉब्लम होनी है। मैं तो वैसे भी अकेला रहता हूं। आपने पता तो बताया ही नहीं ?

हां नोट करें , आपने ये केला गोदाम देखा है शालीमार का ? जी , अच्छी तरह। बस , उसी के साथ ही है। क्या BK-1 Block में ? नहीं , नहीं उस तरफ नहीं। दूसरी तरफ तो A-Pocket है। हां , उसी तरफ। इसका मतलब AA Block है आपका। नहीं यार , फिर कहां ? AA Block के साथ वो फोर्टिस वालों का अस्पताल बन रहा है न ? जी , बस उसी के साथ जो झुग्गी बस्ती है। हां , है। बस , उसी में ... उसी में घर है मेरा।

क्या ? जी , लेकिन तुम तो कह रहे थे कि अपना मकान है , छह कमरों का। अरे , दिल्ली में अपनी झुग्गी होना मतलब अपना मकान होना ही है। पूरी छह झुग्गियों पर कब्ज़ा है मेरा और उन्हीं में से तीन किराये पर उठाई हुई होंगी ? जी , तुम तो ये भी कह रहे थे कि अमृतसर में तुम्हारे पिताजी का टिम्बर का बिज़नस है ? हां , है न। वहीं सदर थाने के पास वाले चौक पर ' दातुन ' बेचने का बरसों पुराना काम है हमारा। क्या ? और ये जो तुम म्यूज़िक और घुड़सवारी के शौक के बारे में बता रहे थे , वह सब भी क्या धोखा था ? जानू , ना मैंने तुम्हें पहले कभी झूठ कहा और न ही अब कहूंगा।
ये सच है कि म्यूज़िक का मुझे बचपन से बड़ा शौक है और इसी वजह से मैंने दिल्ली आने के बाद शादी - ब्याहों में ढोल बजाने का काम शुरू किया। ओह , इसका मतलब तभी बैंड - बाजे वालों की सोहबत में रहते हुए कई तरह के म्यूज़िक इंस्ट्रूमंटस को बजाना सीख लिया होगा ? जी।...और यह घुड़सवारी भी आपने वहीं से सीखी ? जी , दरअसल क्या है कि बैंड - बाजे वालों के यहां घोड़ी वाले भी आते रहते थे , तो उनसे ही ये हुनर सीख लिया।जी , ओ . के।
तो फिर कल कितने बजे आ रही हो ? आ रही हूं ? सपने में भी ऐसे ख्वाब न देखना। क्यों , क्या हुआ ? इडियट , मेरे साथ डेट पर जाना चाहता है ? ऐसी हालत करवा दूंगी कि न किसी को कहते बनेगा न छिपाते। एक मिनट , चुप बिलकुल चुप। मुझे इतना बोल रही है , तो तू कौन सा आसमान से टपकी है ? जानता हूं , अच्छी तरह जानता हूं। जहां तू रहती है न , वहां की एक - एक गली से एक - एक चप्पे से वाकिफ हूं मैं। तुम्हारे यहां किसी की भी सौ रुपए से ज़्यादा की औकात नहीं है। आऊंगा , आऊंगा तेरी ही गली आऊंगा और तुझसे नहीं बल्कि तेरी ही पड़ोसन के साथ डेट पर जाऊंगा।

शटअप , यू ऑलसो शटअप। गो टू हेल ...

 

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मेरा खुला पत्र योगेश समदर्शी के नाम

rajiv holi cartoon

समदर्शी जी नमस्कार....

ये खुला पत्र मैँ आपको इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि मेरे पास लिफाफा खरीदने के लिए खुले पैसे नहीं हैँ। एक्चुअली क्या है कि मेरे पास लिफाफे को बन्द करने लायक ज़रूरी गोंद नहीं थी तो मैँने सोचा कि.......अब आप कहेंगे कि गोंद नहीं थी तो क्या हुआ?...अपना चबड़-चबड़ करती गज़ भर लम्बी ज़बान तो थी...अपना झट से लिफाफे के किनारे पे उसी को सर्र से सरसराते हुए फिराते और फट से दाब देते अँगूठे से।....मुआफ कीजिएगा समदर्शी जी....आपने मुझे सही से नहीं पहचाना.....अपने शरीर के 'अँगूठे' जैसे पवित्र और पावन हिस्से को ऐसे बेकार के..... गैरज़रूरी कामों में ज़ाया कर  तिरसकृत  करने के बजाय मैँ उसका सदुपयोग लेनदारों को अँगूठा दिखाने में या फिर यार-दोस्तों को वक्त-ज़रूरत पर ठेंगा दिखाने में इस्तेमाल करना ज़्यादा बेहतर समझता हूँ और फिर आज के माड्रन ज़माने में...थूक से.....छी!...पढा-लिखा इनसान होने के नाते मैँ ऐसी घटिया सोच...ऐसा वाहियात ख्याल भी मैँ अपने दिल में कैसे ला भी  सकता हूँ?

नोट:होली के अवसर पर योगेश समदर्शी जी ने हम साहित्य शिल्पियों के काफी अच्छे कार्टून बनाए।अपने कार्टून को देख एक नया प्रयोग करने की सोची।उम्मीद है कि आप सभी को  पसन्द आएगा

बेकार की फुटेज ना खाते हुए मैँ सीधे-सीधे असल मुद्दे  पे आता हूँ।इसमें कोई शक नहीं कि आप एक कवि...लेखक होने के साथ-साथ कम्प्यूटर तकनीक के महान ज्ञाता भी हैँ।आप गुणी है....भगवान हैँ.....ऊपरवाले ने आपको एक नहीं...अनेक गुणों से लबरेज़ करके इस धरती पर भेजा है।आप में कार्टून बनाने की कला कूट-कूट कर भरी हुई है लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि आपको हर किसी के माखौल को उड़ाने का खुला लाईसंस मिल गया।

आपके नाम के अनुरूप मेरा ख्याल है कि आप योग वगैरा में काफी रुचि रखते हैँ।अच्छी बात है...इससे तन मन दोनों तंदुरस्त रहते हैँ।अगर मैँ सही हूँ तो समदर्शी का मतलब होता है ...सबको समान दर्‍ष्टि से देखने वाला लेकिन यहाँ तो ये जान के घोर निराशा हुई किए आप तो समान दर्‍ष्टि से देखने के बजाए आप तो किसी को देखते ही नहीं है(कुछ लड़कियों को भी आपसे यही शिकायत है लेकिन उनकी गोपनियता और निजता के लिहाज से उनका नाम यहाँ मकड़जाल पर उजागर करना उचित नहीं होगा)हाँ!...तो मैँ कह रहा था कि आप किसी को देखते ही नहीं हैँ बल्कि जो मन में आता है...जैसा मन को भाता है...बिना कुछ सोचे समझे उसे तुरंत कर डालने पे उतारू हो जाते हैँ।

हाह!...मैँ आपको क्या समझा और आप क्या निकले?....

कुछ तो आपने अपना और मेरी इज़्ज़त का ख्याल किया होता।क्या सोचा था कि आपकी ऐसी हिमाकत देख के राजीव खुश होगा?... शाबाशी देगा?...ऑक थू.....रोना आ रहा है मुझे अपनी किस्मत पर।गली-मोहल्ले के छोटे-छोटे...नन्हें-मुन्ने बच्चे तक बड़े कांफीडैंस के साथ मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैँ कि 'निक्कर' वाले अँकल आ गए...'निक्कर' वाले अँकल आ गए।

कसम ले लो मुझसे उस काली कमली वाले परवरदिगार की कि मैँने उस "बिन माँगे मोती मिले" वाले भयानक हादसे के बाद से ही निक्कर पहनना छोड़ा हुआ है।सच!...कसम है मुझे काली दिवार पे सूखते सफेद पॉयजामे के मटमैले नाड़े की जो मैँ एक लफ्ज़ भी झूठ कहा हो।

अब आप कहेंगे कि बच्चे तो भगवान का रूप हुआ करते हैँ

झूठ...बिलकुल झूठ.....कभी हुई करते होंगे भगवान का रूप....आजकल तो इनसे बड़ा शैतान...इनसे बड़ा उत्पाती पूरे जहाँ में भी ढूंढे ना मिलेगा।क्या कहा?....विश्वास नहीं होता?....अरे!...हाथ कँगन को आरसी क्या और पढे-लिखे को फारसी क्या?..एक बार यहाँ....मेरे यहाँ आ के मेरे ही नासपीट्टे बच्चों के साथ दो-दो हाथ कर के देख लें...अपने आप पता चल जाएगा।आप चाहें तो बेशक तस्दीक के लिए गवाही के तौर पर अपने साथ कुछ निजी गवाह और बॉर्डीगॉर्ड भी ला सकते हैँ....आपको खुली छूट है लेकिन ये सब आपके अपने जोखिम और विवेक पर निर्भर करेगा कि आपका ऐसा करना उचित भी होगा या नहीं।

मानता हूँ कि चिट्ठाजगत में आप मेरे सबसे प्रिय हैँ...अभिन्न मित्र हैँ लेकिन फिर भी मैँ यही कहूँगा कि आपने मेरे साथ अच्छा नहीं किया।अरे!...सच्चे दोस्त वो होते हैँ जो वक्त-ज़रूरत पर दोस्ती के लिए खुद को कुर्बान करने से भी पीछे नहीं हटरे और कुछ दोस्त आप जैसे नामुराद भी होते हैँ जो मौका देखते ही जले पे नमक छिड़कना नहीं भूलते।

जैसे कमान से निकल चुके तीर को रोका नहीं जा सकता और ज़बान से निकले हुए शब्दों को फिर से पलटा नहीं जा सकता और पलटना भी नहीं चाहिए क्योंकि क्षत्रिय जो एक बार ठान लेते हैँ...सो ठान लेते हैँ।

चलो!...जो किया सो किया...लेकिन ये तो सोचा होता कम से कम कि किस बेस पे आप मुझ जैसे जवाँ मर्द पट्ठे की रोएंदार टाँगों को क्लीनशेव्ड दिखा रहे हैँ?....तनिक सा....तनिक सा भी ख्याल नहीं आया आपके दिल में एक बार कि क्या बीतेगी राजीव बेचारे पर?...कैसे सामना करेगा वो इस जग-जहाँ के निष्ठुर तानों का?....कैसे पिएगा वो शर्बत इतने अपमानों का?....कैसे वो  बरसों की मेहनत से बनाया हुआ अपना छद्दम मैचोइज़्म बरकरार रख पाएगा।...कैसे "फड़ के किल्ली...चक्क दे फट्टे" का नारा बुलंद कर पाएगा?

नहीं!....कुछ नहीं सोचा आपने....अगर सोचा होता तो इस कार्टून में मैँ नहीं बल्कि वो नुक्कड़ पे बैठने वाला ब्ळॉगर 'मौदगिल' जी को भिगो रहा होता।हाँ!....नुक्कड़ से याद आया कि आखिर क्या मिल जाता है आपको किसी को ऐसे टिप्पणी माँगते हुए दिखाने से?....या फिर किसी बेचारे बुज़ुर्ग ब्लॉगर को लाईफ टाईम ऐचीवमैंट अवार्ड देने के बजाय ज़बरदस्ती किसी महिला के हाथों पकड़वा के रंग डलवाने में?....अब वो बेचारी महिला शान से अपनी चाय पत्ती बेचें या फिर कविताएँ लिखें?...

आखिर!....आप साबित क्या करना चाहते हैँ?....वैसे भी आपको पता होना चाहिए कि शेर खुद अपने दम पे अकेले ही शिकार किया करता है।ये याद दिलाने की मैँ ज़रूरत नहीं समझता कि उसे किसी चारे या फिर सहारे की ज़रूरत नहीं होती।खास कर के किसी औरत के सहारे की तो बिलकुल नहीं लेकिन ये गूढ ज्ञान की बातें आप क्या समझेंगे?....आप!....आप तो बस अपने गाँव और गाँव की कविताओं में ही डूबे रहिए...रमे रहिए।वैसे मैँने शायद आपके मुँह से ही उड़ती-उड़ती खबर सुनी थी कि आपका कोई कविता संग्रह भी जल्द ही छपने वाला है।अगर ऐसा सचमुच में है तो आपके मुँह में घी-शक्कर।मेरी तरफ से अग्रिम बधाई स्वीकार कर लें।अग्रिम इसलिए कि इतना सब कुछ होने के बाद मैँ इस निष्ठुर ज़माने में जी भी पाऊँगा या नहीं...इसका मुझे डर है।.....

इस जीवन को अपना साथी बनाने से पहले मेरी जॉन मुझे बहुत कुछ सोचना है।

ठीक है...माना कि मैँ निराश हूँ...उदास हूँ...हताश हूँ  लेकिन इसका मतलब ये हरगिज़ मत समझिएगा कि पाँच महीने से मैँने कुछ नहीं लिखा...इसलिए मैँ चुक गया हूँ ।बस इतना समझ लीजे कि 'लॉट सॉहब' आराम फरमावत रहे।

और हाँ!...किसी झूठे गुमान में ना रहिएगा कि मैँ आपसे हार मान गया हूँ या फिर आपसे डर गया हूँ। वैसे मैँ आपकी जानकारी के लिए बता दूँ तो इस पूरे जहाँ में मुझे डर लगता है सिर्फ दो चीज़ों से...एक...ऊपर बैठे परम पिता परमात्मा से और दूसरा नीचे बैठी अपनी महरारू....याने के अपनी घरवाली से ।ऊपर बैठे परमात्मा से तो खैर सभी डरते हैँ क्योंकि हमारे हर अच्छे-बुरे काम का वो गवाह होता है और फिर हमारी जीवन नैय्या का रिमोर्ट कंट्रोल भी तो उसी के हाथ में होता है ना?...इधर हमने कुछ गड़बड़ करी नहीं कि उधर उनका हाथ सीधा रिमोर्ट के बटन की तरफ झपट पड़ना है।उनसे कैसे कोई पंगा ले सकता है?...रही बात बीवी की तो...भईय्या....क्या बताएँ?....उससे तो इसलिए डर लगता है कि पापी पेट का सवाल जो छाया रहता है हरदम हमारे दिमाग पर।

"क्या कहा?...नहीं समझे"......

"अरे बाबा!...खाना जो उसी ने पका के खिलाना होता है हमको ...सिम्पल...और ये तो आप भली भांति जानते ही हैँ कि तीनो टाईम बिना डट खाए तो हमसे रहा नहीं जाता।.....अब ऐसी खाए-पिए की जगह नहीं डटेंगे तो क्या अपनी ऊ.पी वाली 'मायावती' बहन जी के आगे जा के कटेंगे?

एक शिकायत और है मुझे आपसे कि इतने बड़े तुर्रम खाँ कवि कम शायर....कम ब्लॉगर....कम आयोजनकर्ता को भिगोने के लिए आपने मेरे हाथ में 'A.K 47' या फिर 'A.K 3 पकड़ाने के बजाए ये बच्चों का सा फिस्स-फिस्स करता फिस्सफिस्सा सा झुनझुना पकड़ा दिया...ये बहुत गलत किया।....

"क्या कहा?...क्या गलत है इसमें?"......

"हद हो यार!...तुम भी?.....अब इतने बड़े कवि सम्राट को चारों खाने चित्त करना है तो क्या ऐसे 'फिस्स'.....'फिस्स'...'फचाक्क'....करके ढेर करूँगा?.....

नहीं!...अब और बे-इज़्ज़ती बर्दाश्त नहीं होती मुझसे।मैँ आपके खिलाफ मानहानि का केस दायर करने जा रहा हूँ।...जी हाँ!...मानहानि का....अगर नकद गिन के पूरे सवा इक्यावन रुपए ना धरवा लिए इस हथेली पे तो मेरा भी नाम राजीव तनेजा नहीं।....वो इसलिए कि क्या आपको डाक्टर ने कहा था कि मेरे काम-धन्धे का ढिंढोरा पूरे जहाँ में पीट डालो?...अरे!....खुशी से नहीं करता हूँ इसे....काम है मेरा ये ...बच्चे जो पालने हैँ लेकिन अफसोस....अब तो शायद बच्चे भी ठीक से ना पाल पाऊँ....पहले ही उधार वालों से परेशान हूँ...ऊपर से आपने जग-जहाँ को अपनी एक पोस्ट द्वारा बतला दिया कि राजीव का रैडीमेड दरवाज़े-खिड़कियों का काम है।अब तो जिसको नहीं भी बनाना होगा...वो भी सोचेगा कि चल यार!...दो कमरे एक्स्ट्रा डाल लेते हैँ....अपना क्या जाता है?.....आए-गए के काम आएँगे।.....राजीव है ना

उम्मीद है कि अब सीधा कोर्ट में ही मुलाकात होगी.....नोटिस बस पहुँचता ही होगा।.....और हाँ!....ध्यान रहे कि 'पूरे सवा इक्यावन रुपए' का क्लेम ठोका है आपके ऊपर...

ना एक पैसा कम...ना एक पैसा ज़्यादा।

फिलहाल इतना ही...बाकि फिर कभी

आपका शुभेच्छु,

राजीव तनेजा

कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार

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***राजीव तनेजा***

कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार कान खोल के सुन लो...कहे देती हूँ कसम से,'' बीवी भाषण पे भाषण पिलाए चली जा रही थी। "खबरदार! जो इस बार होली का नाम भी लिया ज़ुबान से, छोड़-छाड़ के चली जाऊँगी सब, फिर भुगतते रहना अपने आप पिछली बार का याद है ना? या भूले बैठे हैं जनाब कि कितने डंडे पड़े थे? और कहाँ-कहाँ पड़े थे? सिकाई तो मुझी को करनी पड़ी थी ना? तुम्हारा क्या है? मज़े से चारपाई पे लेटे-लेटे कराह रहे थे चुप-चाप....
"हाय!...मैं मर गया"

"हाय!.... मैं मर गया"

नोट:इस बार आलस्य या फिर व्यस्त्तता के चलते कुछ नया नहीं लिख पाया तो सोचा कि होली के मौके पर अपनी एक पुरानी कहानी को आप लोगों के साथ बांटू,इसे मैँने पिछले साल होली के मौके पर लिखा था।एक तरह से यह मेरी एक पुरानी कहानी"आसमान से गिरा" का दूसरा भाग है लेकिन आप अगर सिर्फ इसे ही पढना चाहें तो भी यह अपने आप में संपूर्ण है।उम्मीद है कि यह आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी।

"हुँह! बड़े आए थे कि इस बार पडोसियों के दाँत खट्टे करने हैं, मुँह की खिलानी है वगैरह-वगैरह। थोथा चना बाजे घना आखिर! क्या उखाड़ डाला था उनका? बित्ते भर का मुँह और ये लंबी चौडी ज़बान आखिर जग हँसाई से मिला ही क्या? बीवी मेरा मज़ाक-सा उड़ाती हुई गुस्से से बोली।

"धरे के धरे रह गए तुम्हारे सब अरमान कि मैं ये कर दूँगा और मैं वो कर दूँगा। अरे!...जो करना है सब ऊपरवाले ने करना है, हमारे तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं।" वह बिना रुके बोलती ही चली जा रही थी,
"मैं भी तो यही समझा रहा हूँ भागवान, अब जा के कहीं घुसी तुम्हारे दिमागे शरीफ़ में बात कि बाज़ी तो वो ही जीतेगा जो ऊपर से निशाना साधेगा।" मेरा इतना कहना भर था कि बीवी का शांत होता हुआ गुस्सा फिर से उबाल खाने लगा।
"हाँ! हाँ... पिछली बार तो जैसे तहखाने में बैठ के गुब्बारे मारे जा रहे थे, "ऊपर से ही मारे जा रहे थे ना? "फिर भला कहाँ चूक हो गई हमारे इस निशानची जसपाल राणा से? हुँह!...ना काम के ना काज के बस दुश्मन अनाज के।", बीवी का बड़बड़ाना जारी था। "अरे! एक निशाना क्या सही नहीं बैठा तुम तो बात का बतंगड़ बनाने पे उतारू हो।"
"और नहीं तो क्या करूँ?"
"बे-इज़्ज़ती तो मेरी होती है ना मोहल्ले में कि बनने चले थे तुर्रम खाँ और रह गए फिस्सडी के फिस्सडी। किस-किस का मुँह बंद करती फिरूँ मैं? या फिर किस-किस की ज़बान पे ताला जडूँ? अरे! कुछ करना ही है तो प्रैक्टिस-शरैक्टिस ही कर लिया करो कभी-कभार कि ऐन मौके पे कामयाबी हासिल हो। और कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों के साथ गली में क्रिकेट या फिर कंचे ही खेल लिया करो। निशाने की प्रैक्टिस की प्रक्टिस और लगे हाथ बच्चों को भी कोई साथी मिल जाएगा।" बीवी मुझे समझाती हुई बोली। और कोई तो खेलने को राज़ी ही नहीं है ना तुम्हारे इन नमूनों के साथ मैं भी भला कब तक साडी उठाए-उठाए कंचे खेलती रहूँ गली-गली? पता नहीं क्या खा के जना था इन लफूंडरों को मैंने।" उसका बड़बड़ाना रुक नहीं रहा था।

"स्साले!...सभी तो पंगे लेते रहते हैं मोहल्ले वालों से घड़ी-घड़ी। अब किस-किस को समझाती फिरूँ? कि इनकी तो सारी की सारी पीढ़ियाँ ही ऐसी हैं, मैं क्या करूँ? पता नही मैं कहाँ से इनके पल्ले पड़ गई? अच्छी भली तो पसंद आ गई थी उस इलाहाबाद वाले छोरे को लेकिन! अब किस्मत को क्या दोष दूँ? मति तो आखिर मेरी ही मारी गई थी न? इस बावले के चौखटे में शशि कपूर जो दिखता था मुझे। अब मुझे क्या पता था कि ये भी असली शशि कपूर के माफिक तोन्दूमल बन बैठेगा कुछ ही सालों में? तोन्दूमल सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया और ज़ोर से चिल्लाता हुआ बोला, "क्या बक-बक लगा रखी है सुबह से? चुप हो लिया करो कभी कम से कम।" ये क्या कि एक बार शुरू हुई तो भाग ली सीधा सरपट समझौता एक्सप्रेस की तरह पता है ना! अभी पिछले साल ही बम फटा है उसमें? चुप हो जा एकदम से कहीं मेरे गुस्से का बम ही ना फट पड़े तुझ पर।" मैं दाँत पीसता हुआ बोला।
"बम? कहते हुए बीवी खिलखिला के हँस दी।
"अरे! ऐसे फुस्स होते हुए बम तो बहुतेरे देखे हैं मैंने।''
"क्यों मिट्टी पलीद किए जा रही हो सुबह से?'' मैं उसकी तरफ़ धीमे से मिमियाता हुआ बोला,
"इस बार सुलह हो गई है अपनी पडोसियों से, अब उनसे कोई खतरा नहीं।"
"और उस नास-पीटे! गोलगप्पे वाले क्या क्या जिसे सोंठ से सराबोर कर डाला था पिछली बार?"
"अरे! वो नत्थू?"
"हाँ वही! वही नत्थू"...
"उसको? उसको तो कब का शीशे में उतार चुका हूँ।"
"कैसे?" बीवी उत्सुक चेहरा बना मेरी तरफ़ ताकती हुई बोली। "अरी भलीमानस!... बस.. यही कोई दो बोतल का खर्चा हुआ और बंदा अपने काबू में।"
"अब ये दारू चीज़ ही ऐसी बनाई है ऊपरवाले ने।"
"हूँ,....इसका मतलब इधर ढक्कन खुला बोतल का और उधर सारी की सारी दुशमनी हो गई हवा।" बीवी बात समझती हुई बोली।
"और नहीं तो क्या?" मैं अपनी समझदारी पे खुश होता हुआ बोला।
"ध्यान रहे! इसी दारू की वजह से कई बार दोस्त भी दुश्मन बन जाते हैं।" बीवी मेरी बात काटती हुई बोली।
"अरे!... अपना नत्थू ऐसा नहीं है।" मैं उसे समझाता हुआ बोला।
"क्या बात?... बड़ा प्यार उमड़ रहा है इस बार नत्थू पे?" बीवी कुछ शंकित-सी होती हुई बोली।
"पिछली बार की भूल गए क्या?... याद नहीं कि कितने लठैतों को लिए-लिए तुम्हारे पीछे दौड़ रहा था? ये तो शुक्र मनाओ ऊपरवाले का कि तुम जीने के नीचे बनी कोठरी में जा छुपे थे, सो!....उसके हत्थे नहीं चढे, वर्ना ये तो तुम भी अच्छी तरह जानते हो कि क्या हाल होना था तुम्हारा"वो मुझे सावधान करती हुई बोली।
"अरी बेवकूफ़!....बीती ताहि बिसार के आगे की सोच, इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा। सारा मैटर पहले से ही सैटल हो चुका है।" मैं उसे डाँटता हुआ बोला, और तो और... इस बार दावत का न्योता भी उसी की तरफ़ से आया है।"
"अरे वाह!.... इसका मतलब कोई खर्चा नहीं?" बीवी आशान्वित हो खुश होती हुई बोली।"
"जी!.... जी हाँ!....कोई खर्चा नहीं" मैं धीमे-धीमे मुस्करा रहा था।
"यार! तुम तो बड़े ही छुपे रुस्तम निकले। काम भी बना डाला और खर्चा दुअन्नी भी नहीं। हवा ही नहीं लगने दी कि कब तुमने रातों रात बाज़ी खेल डाली, " बीवी मेरी तारीफ़ करती हुई बोली।
"बाज़ी खेल डाली नहीं... बल्कि जीत डाली कहो"
"हाँ-हाँ! वही..."
"आखिर हम जो चाहें, जो सोचें, वो कर के दिखा दें, हम वो हैं जो दो और दो पाँच बना दें।"
"बस!....दावत का नाम ज़ुबाँ पर आते ही मुँह में जो पानी आना शुरू हुआ तो बस आता ही चला गया। आखिर!...मुफ्त में जो माल पाड़ने का मौका जो मिलने वाला था। अब ना दिन काटे कट रहा था और ना रात बीते बीत रही थी। इंतज़ार था तो बस होली का कि कब आए होली और कब दावत पाड़ने को मिले लेकिन अफसोस!.... हाय री मेरी फूटी किस्मत, दिल के अरमान आँसुओं में बह गए।

"होली से दो दिन पहले ही खुद मुझे अपने गाँव ले जाने के लिए आ गया था नत्थू कि खूब मौज करेंगे। मैं भी क्या करता? कैसे मना करता उसे? कैसे कंट्रोल करता खुद पे? कैसे उभरने नहीं देता अपने लुके-छिपे दबे अरमानों को? आखिर! मैं भी तो हाड़-माँस का जीता-जागता इनसान ही था ना? मेरे भी कुछ सपने थे, मेरे भी कुछ अरमान थे। पट्ठे ने!....सपने भी तो एक से एक सतरंगी दिखाए थे कि खूब होली खेलेंगे गाँव की अलहड़ गोरियों के संग और मुझे देखो!....मैं बावला... अपने काम-धंधे को अनदेखा कर चल पड़ा था बिना कुछ सोचे समझे उसके साथ।...

"आखिर में मैं लुटा-पिटा-सा चेहरा लिए भरे मन से घर वापस लौट रहा था, यही सोच में डूबा था कि घर वापस जाऊँ तो कैसे जाऊँ? और किस मुँह से जाऊँ?" "बडी डींगे जो हाँकी थी कि मैं ये कर दूँगा और मैं वो कर दूँगा। पिछली बार का बदला ना लिया तो! मेरा भी नाम राजीव नहीं, कोई कसर बाकी नहीं रखूँगा...वगैरा....वगैरा"

"अब क्या बताऊँगा और कैसे बताऊँगा बीवी को कि मैं तो बिना खेले ही बाज़ी हार चुका हूँ?... क्या करूँ? अब इस कमबख़्त मरी भांग का सरूर ही कुछ ऐसा सर चढ़ कर बोला कि सब के सब पासे उलटे पड़ते चले गए। कहाँ मैं स्कीम बनाए बैठा था कि मुफ़्त में माल तो पाडूँगा ही और रंग से सराबोर कर डालूँगा सबको सो अलग!..... हालाँकि बीवी ने मना किया था कि ज़्यादा नहीं चढ़ाना लेकिन अब इस कमबख्त नादान दिल को समझाए कौन? अपुन को तो बस!.... मुफ़्त की मिले सही फिर कौन कंबख्त देखता है कि कितनी पी और कितनी नहीं पी? पूरा टैंकर हूँ....पूरा टैंकर, कितने लोटे गटकता चला गया, कुछ पता ही ना चला। मदमस्त हो भांग का सरूर सर पे चढ़ता चला जा रहा था, लेकिन.... सब का सब इतनी जल्दी काफूर हो जाएगा ये सोचा ना था। पता नहीं किस-किस से पिटवाया उस नत्थू के बच्चे ने। स्साले ने!...पिछली बार की कसर पूरी करनी थी, सो मीठा बन अपुन को ही पट्टू पा गया था इस बार। उल्लू का पट्ठा!...... दावत के बहाने ले गया अपने गाँव और कर डाली अपनी सारी हसरतें पूरी। शायद!..... पट्ठे ने सब कुछ पहले से ही सेट कर के रखा हुआ था। वर्ना मैं?....मैं भला किसी के हत्थे चढ़ने वाला कहाँ था?

स्साले!....वो आठ-आठ लाठियों से लैस लठैत एक तरफ़ और दूसरी तरफ़ मैं निहत्था अकेला।... बेवकूफ़!....अनपढ़ कहीं के भला ऐसे भी कहीं खेली जाती है होली? अरे!.....खेलनी ही है तो रंग से खेलो, गुलाल से खेलो, जम के खेलो और...ज़रा ढंग से खेलो। कौन मना करता है?....और करे भी क्योंकर? आखिर!....त्योहार है होली, पूरी धूमधाम से मनाओ।" ये क्या कि पहले तो किसी निहत्थे को टुल्ली करो तबीयत से....फिर उठाओ और पटक डालो सीधा सड़ांध मारते बासी गोबर से भरे हौद में? बाहर निकलने का मौका देना तो दूर अपने मोहल्ले की लड़कियों से डंडों की बरसात करवा दी  हुँह!....बड़ी आई लट्ठमार होली।" ..."स्साले! अनपढ कहीं के, पता नहीं कब अकल आएगी इन बावलों को कि मेहमान तो भगवान का ही दूसरा रूप होता है। उसके साथ ऐसा बरताव? चुल्लू भर पानी में डूब मरो।

खैर! अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत, आज पल्ले पड़ी मेरे। पहले ही समझ जाता सब कुछ....तो ये नौबत ना आती। रह-रह कर बीवी के डायलाग रूपी उपदेश याद आ रहे थे कि कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार। अच्छा होता जो उसकी बात मान लेता। कम से कम आज ये दिन तो नहीं देखना पड़ता। खैर!...कोई बात नहीं, कभी तो ऊँट पहाड़ के नीचे आएगा। उस दिन कमबख़्त को मालूम पड़ेगा कि कौन कितने पानी में है। सेर को सवा सेर कैसे मिलता है। इस बार नहीं तो अगली बार सही, दो का नहीं तो चार का खर्चा ही सही।"

Rajiv Taneja

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आसमान से गिरा

holi

***राजीव तनेजा***

'हाँ आ जाओ बाहर... कोई डर नहीं है अब...चले गए हैं सब के सब।'
मैं कंपकंपाता हुआ आहिस्ता से जीने के नीचे बनी पुरानी कोठरी से बाहर निकला। एक तो कम जगह ऊपर से सीलन और बदबू भरा माहौल, रही-सही कसर इन कमबख़्तमारे चूहों ने पूरी कर दी थी। जीना दूभर हो गया था मेरा। पूरे दो दिन तक वहीं बंद रहा मैं। ना खाना, ना पीना, ना ही कुछ और। डर के मारे बुरा हाल था। सब ज्यों का त्यों मेरी आँखों के सामने सीन-दर-सीन आता जा रहा था। मानों किसी फ़िल्म का फ्लैशबैक चल रहा हो। बीवी बिना रुके चिल्लाती चली जा रही थी...

नोट:इस बार आलस्य या फिर व्यस्त्तता के चलते कुछ नया नहीं लिख पाया तो सोचा कि होली के मौके पर अपनी एक पुरानी कहानी को आप लोगों के साथ बांटू,इसे मैँने दो साल पहले होली के मौके पर लिखा था।उम्मीद है कि यह आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी।


'अजी सुनते हो? या आप भी बहरे हो चुके हो इन नालायकों की तरह? सँभालो अपने लाडलों को, हर वक़्त मेरी ही जान पे बने रहते हैं। तंग आ चुकी हूँ मैं तो इनसे ...काबू में ही नहीं आते। हर वक़्त बस उछल कूद और...बस उछल कूद और कुछ नहीं। ये नहीं होता कि टिक के बैठ जाएँ घड़ी दो घड़ी आराम से... ना पढ़ाई की चिंता ना ही किसी और चीज़ का फिक्र...हर वक़्त सिर्फ़ और सिर्फ़ शरारत...बस और कुछ नहीं। ऊपर से ये मुआ होली का त्योहार क्या आने वाला है, मेरी तो जान ही आफ़त में फँसा डाली है इन कमबख़्तों ने। उफ!...बच्चे तो बच्चे..... बाप रे बाप, जिसे देखो रंग से सराबोर| कपड़े कौन धोएगा?.... तुम्हारा बाप?

भगवान बचाए ऐसे त्योहार से।रोज़ कोई ना कोई शिकायत लिए चली आती है।
''इसने मेरी खिड़की का काँच तोड़ दिया और इसने मेरी नई शिफॉन की साड़ी की ऐसी-तैसी कर दी"...
''अरे!...डाक्टर ने कहा था कि काँच लगवाओ खिड़की में? प्लाई या फिर लकड़ी का कोई मज़बूत सा फट्टा  नहीं लगवा सकती थी क्या उसमें?''

"और ये साडी-साडी क्या लगा रखा है?"...

"कोई ज़रूरी नहीं है कि हर वक़्त अपना पेट दिखाती फिरो"...

"कोई ज़रूरी नहीं कि सामने वाले मनोज बाबू को यूँ छुप-छुप के ताकती फिरो खिडकी से हर दम" ....

"ज़्यादा ही आग लगी हुई है तो भाग क्यों नहीं खडी होती उनके साथ?" "शरीफ़ों का मोहल्ला है ये। लटके-झटके दिखाने हैं तो कहीं और जा के मुँह काला करो अपना" बीवी ने तो अपनी नौटंकी दिखा सबको चलता कर दिया पर 'शर्मा जी' वहीं खडे रहे....टस से मस ना हुए...बोल्रे..

"मेरे चश्मे का हाल तो देखो...अभी-अभी ही तो नया बनवाया था".....
"दो दिन भी टिकने नहीं दिया इन कम्भखतो ने"
"बस मारा गुब्बारा खींच के 'झपाक' और कर डाला काम-तमाम"
"टुकडे-टुकडे कर के रख दिया"

"अब पैसे कौन भरेगा?"शर्मा जी गुस्से से बिफरते हुए बोले

बीवी ने आवाज़ सुन ली थी शायद, लौटे चली आई तुरंत..बोली...
"अब शर्मा जी... बुढ़ापे में काहे अपनी मिट्टी पलीद करवाते हो? और मेरा मुँह खुलवाते हो। राम कटोरी बता रही थी कि चश्मा लगा है आँखे खराब होने से और आँखे ख़राब हुई हैं दिन-रात कंप्यूटर पे उलटी-पुलटी चीज़ें देखने से। इसीलिए तो काम छोड़ चली आई ना आपके यहाँ से?"

शर्मा जी बेचारे सर झुकाए पानी-पानी हो लौट गए। उनकी हालत देख मेरी मन ही मन हँसी छूट रही थी। अभी दो दिन बचे थे होली में, लेकिन अपनी होली तो जैसे कब की शुरू हो चुकी थी। बस छत पर चढ़े और लगे गुब्बारे पे गुब्बारा मारने हर आती-जाती लड़की पर....ले दनादन और...दे दनादन...
"पापा!... पापा!...सामने वालों की हिम्मत तो देखो...अपुन के मुकाबले पर उतर आए हैं।" अपना चुन्नू बोल पड़ा।
"हूँ...अच्छा! तो पैसे का रौब दिखा रहे हैं स्साले!....चॉयनीज़ पिचकारियाँ क्या उठा लाए सदर बाज़ार से, सोचते हैं कि पूरी दिल्ली को भिगो डालेंगे? अरे!...बाप का राज समझ रखा है क्या?...अपुन अभी ज़िंदा है, मरा नहीं। क्या मजाल जो हमसे कोई हमारे ही मोहल्ले में बाज़ी मार ले जाए। दाँत खट्टे ना कर दिए तो अपुन भी एक बाप की औलाद नहीं।"
यह सामने वाले के प्रति मेरे मन की ईर्ष्या थी या होली का उन्माद मैं खुद भी नहीं समझ सका पर जोश सातवें आसमान पर था तो हो गया मुकाबला शुरू।

कभी वो हम पे भारी पड़ते तो, कभी हम उन पे। कभी वो बाज़ी मार ले जाते तो कभी हम, कभी हमारा निशाना सही बैठता तो, कभी उनका। गली मानो तालाब बन चुकी थी लेकिन...कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था। कभी अपने चुन्नू को गुब्बारा पड़ता तो कभी उनके पप्पू का। धीरे-धीरे वो हम पे भारी पड़ने लगे। वजह?
"सुबह से कुछ खाया-पिया जो नहीं था, बीवी जो तिलमिलाई बैठी थी और वो स्साले! बीच-बीच में ही चाय-नाश्ता पाड़ते हुए वार पे वार किए चले जा रहे थे। बिना रुके उनका हमला जारी था। और इधर अपनी श्रीमती नाराज़ क्या हुई चाय-नाश्ता तो छोड़ो हम तो पानी तक को तरस गए।

हिम्मत टूटने लगी थी कुछ-कुछ...थक चुके थे हम और इधर ये पेट के नामुराद चूहे स्साले!...नाक में दम किए हुए बैठे थे। भूख के मारे दम निकले जा रहा था और बदन मानो हड़ताल किए बैठा था कि "माल बंद तो काम बंद"। ठीक कहा है किसी बंदे ने कि खुद मरे बिना जन्नत नसीब नहीं होती सो!...अपने मन को मार, खुद ही बनानी पड़ी चाय।
"ये देखो!...स्सालों, हम खुद ही बनाना और पीना जानते हैं...मोहताज नहीं हैं किसी औरत के।चूड़ियाँ पहन लो चूड़ियाँ ....हुँह!...जिगर में दम नहीं कहते हैँ "हम किसी से कम नहीं"। तुम्हारी तरह नहीं है हम, हम में है दम। ये नहीं कि चुपचाप हुकुम बजाया और कर डाली फरमाईश।अरे!...तुम्हें क्या पता कि अपने हाथ की में क्या मज़ा है? बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद?

अभी पहली चुस्की ही भरी थी कि फटाक से आवाज़ आई और सारे के सारे कप-प्लेट हवा में उड़ते नज़र आए, चाय बिखर चुकी थी और कप-प्लेट मानों अपने आखिरी सफ़र के कूच की तैयारी में जुटे थे। ऐसा लगा जैसे मानों, समय थम-सा गया हो। खून भरा घूंट पी के रह गया मैँ लेकिन एक मौका ज़रूर मिलेगा और सारे हिसाब-किताब पूरे हो जाएँगे। बस यही सोच मै खुद को तसल्ली दिए जा रहा था कि सौ सुनार की सही लेकिन जब एक लोहार की एक पड़ेगी ना बच्चू....तो सारी की सारी हेकड़ी खुद-ब-खुद बाहर निकल जाएगी। मैं चुपचाप बाहर आकर बालकनी में बैठ गया।

"देखो...देखो...पापा! कैसे बाहर खड़ा-खड़ा...गोलगप्पे पे गोलगप्पा खाए चला जा रहा है" अपना चुन्नू बोल पड़ा,
"निर्लज्ज कहीं का...ना तो सेहत की चिंता और ना ही किसी और चीज़ का फिक्र। पहले अपनी सेहत देख, फिर उस गरीब बेचारे गोलगप्पे की सेहत देख...कोई मेल भी है?
कुछ तो रहम कर। स्साला! चटोरा कहीं का। देख बेटा!... देख, अभी मज़ा चखाता हूँ। ले स्साले!... ले और खा गोलगप्पे...

"चिढाता है मेरे 'चुन्नू' को?"मैँने निशाना साध खींच के फेंक मारा गुब्बारा... ये गया....और....वो गया...
"फचाक्क".... आवाज़ आई और कुछ उछलता सा दिखाई दिया।
"मगर ये क्या? जो देखा, देख के विश्वास ही नहीं हुआ। पसीने छूट गए मेरे। थर-थर काँपने लगा, हाथ-पाँव ने काम करना बंद कर दिया। दिमाग जैसे सुन्न-सा हुए जा रहा था...
"पकड़ो साले को, "भागने ना पाए" जैसी आवाज़ों से मेरा माथा ठनका। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ध्यान से आँखे मिचमिचाते हुए फिर से देखा तो अपना पड़ोसी सही सलामत भला चंगा, पूरा का पूरा, जस का तस खड़ा था और बगल में शम्भू गोलगप्पे वाला सोंठ से सना चेहरा और बदन लिए गालियों पे गालियाँ बके चला जा रहा था। उसका नया कुर्ता झख सफ़ेद से अचानक नामालूम कैसे चॉकलेटी सा हो चुका था।

"दरअसल!...हुआ क्या कि बस पता नहीं कैसे एक छोटी-सी बहुत बड़ी गल्ती हो गई और मुझ जैसे तुर्रमखाँ निशानची का निशाना ना जाने कैसे चूक गया और गुब्बारा सीधा दनदनाता हुआ गोलगप्पे वाले के चटनी भरे डिब्बे में जा गिरा धड़ाम और....बस्स!...हो गया काम।
"पापा!...भागो....सीधा ऊपर ही चला आ रहा है लट्ठ लिए।" चुन्नू की मिमियाती सी आवाज़ सुनाई दी।
मैंने आव देखा ना ताव कूदता-फांदता जहाँ रास्ता मिला भाग लिया। कुछ होश नहीं कि कहाँ-कहाँ से गुज़रता हुआ कहाँ का कहाँ जा पहुँचा। हाय री मेरी फूटी किस्मत!... इसी समय निशाना चूकना था? जैसे ही छुपता-छुपाता किसी के घर में घुसा ही था कि वो लट्ठ बरसे बस... वो लट्ठ बरसे कि बस पूछो मत....कोई गिनती नहीं।

उफ़!...कहाँ-कहाँ नहीं बजा लट्ठ? स्सालों! कोई जगह तो बख्श देते कम से कम, सुजा के रख दिया पूरा का पूरा बदन। कहीं ऐसे खेली जाती है होली? अरे!..रंग डालो और बेशक भंग(भाँग) डालो लेकिन ज़रा सलीके से, स्टाईल से, नज़ाकत से, ये क्या कि आव देखा ना ताव और बस सीधे-सीधे भाँज दिया लट्ठ? ठीक है!...माना कि रिवाज़ है आपका ये लेकिन पहले देखो तो सही कि सामने कौन है?... कैसा है?.... कहाँ का है?... कुछ जान-वान भी है कि नही? स्टैमिना तो देखो कि सह भी सकेगा या नहीँ?

स्सालों!...खेलना है तो टैस्ट मैच खेलो... आराम से खेलो मज़े से, मज़े-मज़े में खेलो। ये क्या कि फिफटी-फिफ्टी भी नहीं...सीधे-सीधे ही टवैंटी-टवैंटी? ये बल्ला घुमाया...वो बल्ला घुमाया और कर डाली सीधा चौकों-छक्कों की बरसात। ठीक है!... माना कि इसमें जोश है...जुनून है... एक्साईट्मैंट है....दिवानापन है... खालिस...विशुद्ध एंटरटेनमैंट है लेकिन वो भी दिन थे जब सामने वाले को भी मौका दिया जाता था कि ले बेटा!...हो जाएँ दो-दो हाथ। कमर कस तू भी और कमर कसें हम भी...फिर देखते हैँ कि कौन?...कैसे? ...और किस पे ...कितने हाथ साफ करता है?....ये क्या कि सामने वाले को न तो सफ़ाई का मौका दो और ना ही दम लेने का वक्त?बस!...सीधे-सीधे  बरसा दिए ताबड़-तोड़ लट्ठ। इंसान है वो भी, मानवाधिकारों के चलते कुछ तो हक बनता है उसका भी।

कई बार समझा के देख लिया कि भईय्या...अभी तो होली आने में दो दिन बाकि हैँ लेकिन कोई मेरी सुने...तब ना।कहने लगे...अभी तो रिहर्सल ही कर रहे हैँ....फाईनल तो होली वाले दिन ही खेला जाएगा।उफ्फ!...स्सालों ने अपनी प्रैक्टिस-प्रैक्टिस के चक्कर में अपुन पर ही हाथ साफ़ कर डाला"
"जानी!...होली खेलने का शौक तो हम भी रखते है और खेल भी सकते हैं होली लेकिन तुम छक्कों के साथ होली खेलना हमारी शान के खिलाफ़ है।" इस डायलॉग से खुद को समझाता, बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा जैसे ही बाहर निकला तो जैसे आसमान से गिरा और खजूर पे अटका। बाहर लट्ठ लिए नत्थू गोलगप्पे वाला पहले से ही मौजूद था, मेरा ही इंतज़ार था उसे। दौड़ फिर शुरू हो चुकी थी मैं आगे-आगे और वो पीछे-पीछे। ये तो शुक्र है उस कुत्ते का जिसे मैंने कुछ ख़ास नहीं बस तीन या चार गुब्बारे ही मारे थे कुछ दिन पहले और निरे खालिस सफ़ेद से बैंगनी बना डाला था पल भर में, वही मिल गया रास्ते में, मुझे देख ऐसे उछला जैसे बम्पर लाटरी लग गई हो, पीछे पड़ गया मेरे। पैरों में जैसे पर लग गए हों मेरे। किसी के हाथ कहाँ आने वाला था मैं?...ये गया और वो गया।

"नत्थू क्या उसका बाप भी नहीं पकड़ पाया। हाँफते-हाँफते सीधे जीने के नीचे बनी कोठरी में डेरा जमाया। और आखिर चारा भी क्या था? वो स्साला!....नत्थू का बच्चा जो दस-बीस को साथ लिए चक्कर पे चक्कर काटे जा रहा था बार-बार। ये तो बीवी ने समझदारी से काम लिया और कोई ना कोई बात बना उन्हें चलता कर दिया तो कहीं जा के जान में जान आई।

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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बुरा ना मानो...होली है-7

हमसे का भूल हुई

जो ये सज़ा हमका मिली

 

 

atal aish

बुरा ना मानो...होली है-6

देख के तुमको...क्या होता है

कुछ ना बताएँगे

कुछ भी कहे कोई

हम तो तुमको देखे जाएँगे

 

nehru

बुरा ना मानो...होली है-5

मेरी किस्मत में तू नहीं शायद

क्यूँ तेरा इंतज़ार करती हूँ

मैँ तुझे कल भी प्यार करती थी

मैँ तुझे अब भी प्यार करती हूँ

 

 

 

mayawati

बुरा ना मानो...होली है-4

 

क्या अदा....क्या जलवे तेरे पारो....ओ पारो

 

 

6479

बुरा ना मानो...होली है-3

 

मेरे दिल में आज क्या है

तू कहे तो मैँ बता दूँ

AISH159

बुरा ना मानो...होली है-2

दिन ढल जाए...हाय रात ना जाए

तू तो ना आए ...तेरी याद सताए

 

shahid

बुरा ना मानो...होली है-1

छोड़ गए बालम....

हाय अकेला छोड़ गए

rekha amitabh aish

कुछ चित्र

अच्छा...अच्छा...बहुत अच्छा

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चुनाव के इस माहौल में बिन माँगे धोती मिले
पहले माँगे से भी ना मिलता कभी था कच्छाpangebaj


अब तो हमारी हर माँग पर नेता जी बस इतना कहें
अच्छा...अच्छा...बहुत अच्छा
netagiri 

 

***राजीव तनेजा***

 

चित्र सौजन्य: पंगेबाज़,गूगल इमेज सर्च

नवभारत टाईम्स पर मेरी कविता-सौगंध राम की खाऊँ कैसे

नवभारत टाईम्स पर मेरी कविता-सौगंध राम की खाऊँ कैसे

 

नोट:कल नवभारत टाईम्स ऑनलाईन की सर्च में ऐसे ही अचानक जब मैँने अपना नाम टाईप किया तो इस कविता के लिंक के मुझे दर्शन हुए,तो सोचा कि क्यों ना इसे आप सभी के साथ शेयर किया जाए ताकि प्रसाद स्वरूप कुछ अतिरिक्त टिप्पणियाँ हासिल हो सकें। :-)

तत्कालीन घटनाओं पर आधारित मेरी यह कविता लगभग एक साल पहले नवभारत टाईम्स ऑनलाईन पर आई थी,जिसका मुझे तब पता नहीं चला क्योंकि नवभारत टाईम्स वाले अपनी व्यस्त्तता के चलते लेखकों को उनके लेख छपने की सूचना नहीं देते हैँ या फिर ऐसा करना वे उचित नहीं समझते।हाँ!..वैसे उनके पास इतना समय अवश्य होता है कि किसी लेख पर आपके द्वारा की गई टिप्पणी के छपने की सूचना आपको तुरंत ई मेल द्वारा भेज देते हैँ।

 


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सौगंध राम की खाऊं कैसे


3 Feb 2008, 1257 hrs IST 

राजीव तनेजा


करास्तानी कुछ बेशर्मों की
शर्मसार है पूरा इंडिया
अपने में मग्न बेखबर हो
वीणा तार झनकाऊँ कैसे


नव वर्ष की है पूर्व सन्ध्या
नाच नाच कमर मटकाऊँ कैसे


ह्रदयविदारक द्र्श्य देख बार बार
मीडिया की कमर थपथपाऊँ कैसे

झूठे नकली स्टिंग ऑप्रेशन देख
स्वच्छ मीडिया के गुण गाऊँ कैसे


बगल में कत्ल होता लोकतंत्र
सपुर्द ए खाक होती बेनज़ीर देख
दुखी हूँ भयभीत हूँ लाचार हूँ
जग जहाँ को बतलाऊँ कैसे


नन्दी ग्राम जलते देख
चीतकार करते मन को समझाऊँ कैसे
नतीजन...एकजुट हो
समर्थन में लाल झण्डे के हाथ उठाऊँ कैसे


करुणानिधी और बुद्धदेव की कथनी देख
तडपते दिल को समझाऊँ कैसे
राम सेतू रूपी आस्था को टूटता देख
गुजरात हिमाचल विजयी बिगुल बजाऊँ कैसे


अपने देश में अपनों से
अपनों को ही मिटता देख
मैँ खुश हो खुशी के गीत गाऊँ कैसे
हिन्दी हूँ मैँ वतन है हिन्दोस्ताँ मेरा
निष्ठा पे अपनी प्रश्न चिन्ह लगवाऊँ कैसे


लम्बा है सफर कठिन है डगर
अपनों के बीच स्वदेश में
सरेआम खुलेआम
सौगन्ध राम की खाऊँ कैसे


***राजीव तनेजा***

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