गुलाबी नदी की मछलियाँ- सिनीवाली

फेसबुक पर जब मैं पहले पहल आया तो खुद ब्लॉगर होने के नाते उन्हीं ब्लॉगर्स के संग दोस्ती की। समय के अंतराल के साथ इसमें बहुत से नए पुराने लेखक और कवि भी जुड़ते चले गए। उस वक्त मुझे यह खुशफहमी थी कि.. 'मैं बहुत बढ़िया लिखता हूँ।' लेकिन वो कहते हैं ना कि..'ऊँट को भी कभी ना कभी पहाड़ के नीचे आने ही पड़ता है।' 

तो जी..मुझे भी आना ही पड़ गया। अब जब कुछ सालों पहले मैंने औरों का लिखा थोड़ा बहुत ढंग से पढ़ना शुरू किया तो पाया कि मेरा लेखन तो उनके आसपास भी नहीं फटकता है।  खैर..इस स्वीकारोक्ति के बाद एक महत्त्वपूर्ण बात ये कि समय के साथ मेरे लेखन में भी सुधार हुआ। जिसका पूरा श्रेय मैं पढ़ने और सिर्फ़ पढ़ने को देना चाहूँगा कि और कुछ नहीं तो कम से कम मेरा निजी शब्दकोश तो ऐसा करने से विस्तृत हुआ ही है। जिसकी वजह से अब मैं वाक्यों को पहले की अपेक्षा ज़्यादा असरदार ढंग से लिखने में खुद को समर्थ पा रहा हूँ। 

खैर..आज मैं ऐसी ही अपनी एक फेसबुक मित्र 'सिनीवाली' के कहानी संग्रह "गुलाबी नदी की मछलियाँ" की बात करने जा रहा हूँ। दो कहानी संग्रहों के अतिरिक्त उनकी कहानियाँ अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी छप चुकी हैं एवं एक कहानी संग्रह का डोगरी भाषा में अनुवाद तथा एक कहानी का हिंदी अकादमी द्वारा सफलतापूर्वक नाट्य मंचन भी हो चुका है।

धाराप्रवाह लेखन से सजे उनके इस कहानी संकलन की कहानियों में कहीं शहर से गाँव में आ कर ईंट भट्ठे के लिए धड़ाधड़ खेती की बढ़िया ज़मीन पट्टे पर लेने वाले धूर्त सेठ और उसके ख़िलाफ़ सर उठाने वाले 'तेजो' नाम के छोटे किसान की बात नज़र आती है। जो ज़्यादा पैसों के बदले भी अपनी ज़मीन को पट्टे पर ना दे उसे खुद जोतने का फ़ैसला कर अधिकतर गाँव वालों के उपहास का पात्र बनता है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ  अपराधी प्रवृति के अपने बाप द्वारा फिरौती के लिए अपह्रत किए गए युवक पर, उसकी देखरेख कर रही 'लौंगिया', इस कदर मोहित हो उठती है कि उसकी जान पर बन आने की बात सुन घबरा उठती है और उसे हर हाल में बचाने की ठान लेती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य कहानी में ज़रूरी काम की वजह से शहर से बाहर गए पति की गैरमौजूदगी में, देर रात घर आए अनजान अतिथि को वह (जो दो छोटी बच्चियों की माँ भी है),  रात गुज़ारने के लिए अपने दो कमरों के घर में जगह दे तो देती है मगर आशंकाओं..कुशंकाओं के चलते खुद रात भर सो नहीं पाती।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि.."किसी को सब कुछ मिल के भी कुछ नहीं मिलता।" तो वहीं इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक भाभी और ननद की एक जैसी किस्मत की बात करती दिखाई देती है। जिसमें भाभी घर में अपने पति के साथ रहते हुए भी माँ नहीं बन पाती और ननद को तो ब्याह के बाद से ही उसका पति लेने नहीं आता। क्या कभी उनके घर आंगन और मन में कभी खुशियों की तरंगें तैर पाएँगी? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ बात करती है उन युवाओं की जो घर बाहर के तानों से आज़िज़ आ..काम की तलाश में गाँवों से शहरों की ओर पलायन तो कर बैठे हैं मगर शहरों के दड़बेनुमा कमरों में नारकीय जीवन बिताते हुए वहाँ की मॉल नुमा संस्कृति के साथ अपना सामंजस्य बिठाने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। साथ ही इसमें बात है आज के युवाओं में उपजती हताशा और कुंठा से भरे उनके भावनात्मक मगर विवेकहीन फैसलों की। इसमें बात है राह से भटक चुके युवा के फिर वापिस सही रास्ते..सही ढर्रे पर पुनः लौट आने की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी संकलन की एक अन्य कहानी अर्श से फ़र्श तक के सफ़र को, संपन्न घर की बेटी के ब्याह कर गाँव के अमीर घर में आने और  फिर किस्मत के चलते ग़रीब हो जाने के माध्यम से बयां करती नज़र आती है।

इसी संकलन की किसी कहानी में जहाँ एक तरफ़ गाँव देहात की चुनावी सरगर्मियों का जायज़ा लिया गया है कि किस तरह पुलिस की आँख बचा शराब गाँव में पहुँचती एवं बँटती है। कैसे धन..बाहुबल एवं पराक्रम के बल पर चुनावी हवा को अपनी ओर करने के प्रयास किए जाते हैं और किस तरह आम जनता दोनों तरफ़ से पैसे ऐंठ..अपना उल्लू साधती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी संकलन की एक अन्य कहानी में एक दूसरे से बेहद प्रेम करने वाले बालकृष्ण बाबू और सुभषिणी को उनके बुढ़ापे में बेटों के बीच बंटवारे के बाद अलग अलग बेटे के साथ रहने को मजबूर होना पड़ता है। क्या एक ही घर में अलग अलग रहने पर भी उनके बीच का प्रेम कायम रह पाएगा अथवा वक्त और परिस्थितियों की मार झेलता हुआ लुप्त होने की कगार पर पहुँच जाएगा?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी मज़ेदार, परिस्थितियों पर आधारित एक ऐसी कहानी है। जिसमें शादी की उम्र निकल जाने के बाद देर से हो रही अपनी शादी में युवक परेशान है कि एन शादी से पहले उसके ही गाँव में बिरादरी की एक बुढ़िया मरणासन्न हालात में है और अगर वो मर गयी तो सामाजिकता निभाने के चक्कर में उसकी शादी इस साल नहीं हो पाएगी। जबकि उसी बुढ़िया के घरवाले उसका अंतिम समय आया समझ कर पंडित से उसके नाम की आखिरी पूजा करवा रहे हैं। ऐसे में क्या बुढ़िया बच पाएगी अथवा युवक की शादी सामान्य ढंग से हो पाएगी? यह सब तो आपको इस उथल पुथल भरी मज़ेदार कहानी को पढ़ कर ही पता चल पाएगा।

धाराप्रवाह एवं परिपक्व लेखन से सजे इस रोचक कहानी संकलन में मुझे लगभग ना के बराबर त्रुटियां मिली। मगर फिर भी पेज नम्बर 46 पर एक जगह मुझे टीवी की जगह टीवी और शायद किसी अन्य पेज पर 'ननिहाल' की जगह 'ननीहाल' लिखा दिखाई दिया। इसी तरह पेज नंबर 98 पर लिखा दिखाई दिया कि ..

'कुछ ने अपना काम हल्ला मचाना चुन लिया तो कुछ इस रोमांचक माहौल में एक किनारे बैठकर किसी को ऑफिस के भीतर घुसते देखता तो किसी को बाहर निकलते।'

यहाँ पर..'ऑफिस के भीतर घुसते देखता' की जगह 'ऑफिस के भीतर घुसते देखते' आएगा। 

यूँ तो इस संकलन की सभी कहानियाँ मुझे बढ़िया एवं प्रभावी लगी लेकिन साथ ही साथ कुछ कहानियों में ऐसा भी लगा कि जैसे उन्हें अचानक ही एक झटके से बिना किसी हिंट या अंदेशे के समाप्त कर दिया गया हो। उन्हें और अधिक विस्तार दिया जाना चाहिए था। 128 पृष्ठीय इस उम्दा कहानी संग्रह के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है अंतिका प्रकाशन प्रा. लि. ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।



तुम्हारी लंगी- कंचन सिंह चौहान

कुछ कहानियाँ के विषय एवं प्लॉट सरंचना इतनी ज़्यादा सशक्त एवं प्रभावी होती है कि पढ़ते वक्त वे आपके मन में भीतर इस कदर रच बस जाती हैं कि घँटों तक आप उनके मोहपाश..उनके तसव्वुर से बच नहीं पाते। उन्हें पढ़ चुकने के बाद भी आप उनमें इस हद तक खोए रहते हैं कि कुछ समय तक आपको किसी अन्य चीज़ की बिल्कुल भी सुधबुध नहीं रहती। उस पर भी अगर कहानियॉं वेदना..दुख..हताशा..अवसाद से लबरेज़ हों तो आप भी उसी दुःख..उसी पीड़ा..उसी वेदना में शरीक होते हुए खुद भी ऐसा महसूस करने लगते हैं जैसे सब कुछ हूबहू आपके सामने ही घट एवं आप पर ही बीत रहा हो। 

ऐसा ही कुछ मेरे साथ इस बार हुआ जब मुझे कंचन सिंह चौहान जी का कहानी संग्रह "तुम्हारी लंगी" पढ़ने को मिला। बतौर राहत बस ग़नीमत ये कि इन कहानियों का अंत किसी ना किसी प्रकार की साकारत्मकता को अपने साथ में लिए हुए चलता है।

इस संकलन में एक कहानी अपने अपने क्षेत्र में कामयाब एक ऐसे युवक और युवती की है जो अपनी शारीरिक अक्षमता की वजह से विकलांग याने के डिसेबल्ड की श्रेणी में आते हैं। संयोग से पहली बार मिलने के बावजूद भी उन दोनों का जीवन लगभग एक जैसा है कि दोनों ने अपने अपने प्यार को इस वजह से छोड़ दिया या स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि उनकी शारीरिक कमी के चलते उनके होने वाले सक्षम पार्टनर का आने वाला जीवन कष्टमय हो जाता। 

अगली कहानी है संयोग से हवाई जहाज़ में आई ख़राबी के चलते एक ही होटल के एक ही कमरे में एक साथ रुकने को मजबूर एक रेस्टोरेंट व्यवसायी युवक और एक खूबसूरत फीमेल एस्कॉर्ट की है। वहाँ युवती के पेशे को निकृष्ट बताते हुए युवक उसे हीन भावना का शिकार बना ज़लील करना चाहता है मगर देखने वाली बात ये कि किस तरह युवती तर्कों के ज़रिए उसके और अपने धंधे के बीच कंपैरीज़न कर समानता स्थापित करते हुए उसकी हर बात..हर आरोप का दो टूक एवं अकाट्य  जवाब देती है। 

चार बहनों में तीसरे नम्बर की इंटर पास होनहार युवती अपनी माँ के लाख मना करने..समझाने के बावजूद अपने बड़े भाई के पसंद के एक दबंग विधुर, जिसका मानसिक रूप से विकलांग एक बेटा भी है, से शादी करने के लिए महज़ इसलिए हाँ कर देती है कि वो अपने भाई भाभी को नाराज़ कर परिवार पर बोझ नहीं बनना चाहती। बरसों वहाँ शारीरिक एवं मानसिक रूप से शोषित..प्रताड़ित एवं ज़लील होने के बाद जब उसकी उसी सौतेली, मानसिक रूप से अपरिपक्व, औलाद का विवाह झूठ सच बोल कर धोखे से एक कन्या कर दिया जाता है। अब सवाल ये उठता है कि क्या इस बेमेल विवाह के बाद वो अपनी बहू की होनी वाली दुर्दशा को देख चुपचाप कबूतर के माफ़िक अपनी आँखें मूंद लेती है या फिर उसे, इस सब से बचने के लिए कोई जतन..कोई प्रयास करती है?

अगली कहानी प्यार में धोखा खा गर्भवती हो चुकी एक युवती को उसके गर्भपात के बाद जबरन परिवार वालों द्वारा एक ऐसे युवक से ब्याह दिया जाता है जो खुद बच्चा पैदा करने में सक्षम नहीं है। लेकिन इसी दोष के लिए युवती को बाँझ कह कर उसके घर और समाज द्वारा जब हद से ज़्यादा प्रताड़ित किया जाता है तब ऐसे में वो अपने सर के ऊपर से ये झूठा लांछन हटाने के लिए क्या कोई आसान रास्ता चुनती है या फिर किस्मत के सहारे खुद को अकेला छोड़ देती है?

नेता का बिगड़ैल जवान बेटा जब खुद को भाव ना दिए जाने और अपने अनैतिक प्रस्ताव को कठोरता से ठुकरा दिए जाने की एवज में गरीब परिवार की कॉलेज जाने वाली लड़की को गुस्से में तेज़ाब से इस कदर जला देता है कि उसे 75% जली हालात में अस्पताल में भर्ती कराया जाता है। तमाम धमकियों और लालच के बावजूद भी जब युवती न्याय के लिए लड़ने के अपने फ़ैसले पर अटल..अडिग रहते हुए टस से मस नहीं होती। ऐसे में तमाम कोशिशों और टूटते हौसलें के बावजूद क्या उसे न्याय मिल पाता है?

एक ऐसी युवती की कहानी जिसे उसकी सास और पति, दोनों के द्वारा ईंटें..पत्थर मार मार कर एक अँधे कुएँ में मरणासन्न हालात में फैंक दिया जाता है मगर अपनी जिजीविषा के चलते वो किसी प्रकार बच तो जाती है मगर चोटों की वजह से हमेशा के लिए अपाहिज हो जाती है। लंबे कोर्ट केस के बाद कुछ ऐसा हो जाता है कि उसे, समझौता कर फिर उसी घर में बहु बन कर जाना पड़ता है। ऐसे में उसके सामने अब कशमकश भरा प्रश्न खड़ा है कि मौत या ज़िन्दगी में से उसके लिए क्या बेहतर है?

बेहद प्यार करने वाले पति की जवान मौत के बाद जब एक बच्ची की माँ अपने ही देवर के ज़रिए अनेकों बार बलात्कार का शिकार होती है तो अपने जीवन से निराश हो, वह मरने का फैसला कर लेती है। मगर बेटी की सुरक्षा एवं उसके भविष्य की चिंता उसे मरने भी नहीं देती। तमाम लोकलाज के डर और तानों के बावजूद मजबूरन उसे, उसी देवर की पत्नी बन कर लगातार शारिरिक एवं मनसिज तौर पर प्रताड़ित एवं ज़लील होना पड़ता है। ऐसे में क्या कभी उसे, उसके नारकीय जीवन से मुक्ति मिल पाती है? 

कई साल अफ़ेयर चलने के बाद जब श्रेयांश किसी और से शादी करने का फैसला करता है तो शिवानी बुरी तरह टूट जाती है। ऐसे में शिवानी का मित्र, अविनाश उसका संबल बन कर उसे इस अवसाद..इस दुख..इसी निराशा से बाहर निकलने में इस हद तक मदद करता है कि एक दिन किन्हीं कमज़ोर लम्हों में शिवानी और अविनाश एक हो जाते हैं। क्या शिवानी अपनी ज़िंदगी में अपने प्यार..अपनी मंज़िल को पा पाएगी या फिर उसके जीवन में बस भटकना ही लिखा है?

अंतिम कहानी है विक्रम और उस लड़की की जिसे उसके माँ बाप समेत सब लंगी कह कर बुलाते हैं। लंगी अर्थात लंगड़ी जो ठीक से उठना बैठना तो दूर चल भी नहीं पाती। अपनी इस शारीरिक अक्षमता की वजह से उसे जगह जगह तानों एवं अपमान से गुज़रना पड़ता है। विक्रम की प्रेरणा से हिम्मत प्राप्त कर तमाम तरह की बाधाओं को पार कर वो लंगी एक दिन अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी कर उच्च मुकाम पर जा तो पहुँचती मगर...

सरल..प्रवाहमयी भाषा में लिखी गयी इन कहानियों की एक और ख़ासियत ये कि इनमें कहीं भी..कोई भी शब्द गैरज़रूरी नहीं। कसी हुई भाषा शैली में लिखे गए इस उम्दा कहानियों के संकलन में कुल 9 कहानियाँ हैं और इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

लॉक उन डेज़- कामना सिंह

सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य समाज में सबके साथ घुल मिल कर रहने का आदि है। ऐसे में यह कल्पना करना भी मुश्किल हो जाता है कि हम जहाँ पर हों, वहाँ पर दूर दूर तक हमसे बात करने..बोलने बतियाने..गुफ्तगू करने वाला कोई ना हो। किसी इनसान को देखने तक को हमारी आँखें तरस जाएँ और हम बस एकालाप करते हुए हर समय गहन सोच में डूब, अपनी बीत चुकी ज़िन्दगी को याद एवं आने वाले भयावह दिनों की कल्पना मात्र से ही डर कर सिहरते रहें। सोते जागते हर समय बस यही दुआ करते रहें कि.. काश..कोई हमसे बात करने वाला..हमें देखने सुनने वाला आ जाए और उससे बोल बतिया कर हम अपनी व्यथा..अपनी परेशानी..अपना एकाकीपन हल्का या फिर थोड़ा बहुत कम कर लें। 

दोस्तों..ऐसे ही कुछ अनुभव से मुझे गुज़रना पड़ा जब मैने पढ़ने के लिए प्रसिद्ध लेखिका कामना सिंह जी का उपन्यास "लॉकडाउन डेज़" उठाया। जैसा कि नाम से ही विदित है कि यह उपन्यास कोरोना नामक महामारी के बाद दुनिया भर में फैलने के बाद सावधानी स्वरूप लगने वाले लॉक डाउन और उससे उत्पन्न स्थितियों एवं परिस्थितियों के गुणा भाग पर आधारित है। साथ ही साथ संयोग से यह हिंदी भाषा का पहला संपूर्ण उपन्यास बन गया है जो कोरोना की दहशत और संपूर्ण मानवजगत के उससे लड़ने के प्रयासों और उनकी सफलताओं और असफलताओं के बारे में है।

इस उपन्यास में कहानी एक ऐसे युवक की है जो अपनी नयी नौकरी के दफ़्तरी काम से कुछ दिन ऑस्ट्रेलिया में बिताने के बाद हवाई जहाज़ से वापिस दिल्ली लौटा है। कोरोना महामारी के बढ़ते फैलाव की वजह से हवाई अड्डे पर ही उसे ताक़ीद कर दी जाती है कि उसे कुछ दिनों तक अकेले क्वारैंटाइन रहना पड़ेगा। अब दिक्कत की बात ये कि लॉकडाउन की वजह से उसकी कम्पनी का वह गेस्टहाउस, जिसमें वह इन दिनों रहा करता था समेत देश के सभी होटल, रेस्टोरेंट, ऑफिस, धर्माशाला ओर सराय समेत सभी कुछ बंद हो चुका है। 

अपने पैतृक घर, बनारस वो इसलिए नहीं जाना चाहता कि अपने लिए बताए गए, उसकी ही बचपन की दोस्त के आए रिश्ते को नकार, वो अपने माँ बाप तथा उस लड़की के मन को आहत कर दिल्ली चला आया जो उसकी जीवनसंगिनी हो सकती थी। अब इस लॉक डाउन की वजह से होने वाली छटनियों के चलते उसे भी उसकी नौकरी का कोई भरोसा नहीं कि बचेगी या नहीं। ऐसे हालातों में मजबूरन उसे शहर की आबोहवा से दूर एकांत में बने दोस्त के फार्महाउस पर बने छोटे से दो कमरों के मकान में शरण लेनी पड़ती है जिसकी संयोग से चाबी कुछ दिनों से उसके पास है। 

इस उपन्यास में कहानी है महज़ नूडल्स, कॉर्नफ्लेक्स और थोड़े से सेबों पर गुज़ारे गए उसके उन 21 दिनों की जो उसने सिर्फ सोते..जागते..टीवी देखते और अपने हर अच्छे बुरे अपने फ़ैसले पर मंथन करते हुए, बिना चार्जर के बैट्री डेड मोबाइल के  साथ टूट चुके या भुलाए जा चुके रिश्तों को याद करते हुए बिताए हैं।

इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ एकाकीपन से उपजी उसकी हताशा..कुंठा..निराशा..अवसाद और खीज के साथ पल पल उभर कर अपने पाँव फैलाती नाकारात्मकता है तो वहीं दूसरी तरफ उसका संयम..उसका धैर्य..उसकी साकारत्मकता भी गुपचुप खिलते हुए अपना असर दिखा रही है।

इसमें बात है शहरों से गांवों की ओर पलायन करते मज़दूरों और अनजाने में उनके द्वारा फैलाए जा रहे कोविड 19 वायरस की। साथ ही इसमें बात है सरकारी अमले की जागरूकता..सजगता के साथ साथ उसकी निष्क्रियता एवं असफ़लता भरी कोताही की। इसमें बात है टीवी के ज़रिए पता चल रही देश दुनिया के ताज़ातरीन हालातों और चहुं ओर फैली आशा और निराशा की।

इसमें सजग..जागरूक एवं ज़िम्मेदार अवाम के साथ साथ बात है विदेशों से आने वाले उन लापरवाह भारतीयों की जो क्वारैंटाइन रहने के बजाय इधर उधर घूम..पार्टियाँ एन्जॉय करते हुए अपने बूते पर जगह जगह महामारी का संक्रमण फैलाते रहे। इसमें एक तरफ जहाँ बात है भारत के उन सजग नागरिकों की जिन्होंने ज़रा सा शुबह..शक होते ही देश..दुनिया एवं समाज हित में खुद को सबसे अलग थलग करना सहर्ष ही अपनी स्वेच्छा से मंज़ूर कर लिया। तो वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोगों का मान मर्दन भी है जो सन्देह के घेरे में आए अपने परिवार के लोगों को छिपा कर देश दुनिया के सामने अपनी ग़लत आचरण की मिसाल पैदा करते रहे अर्थात इसमें बात है पढ़े लिखे समझदारों के साथ साथ समझदार मूर्खों की भी।

इसमें बात है घरों से कूड़ा उठाने वाले छोटे तबके के सफाई कर्मचारियों और आंगनबाड़ी तथा आशा के कार्यकर्ताओं के जुझारूपन की। इसमें बात है अस्पतालों के इलाज को तत्पर डॉक्टरों, नर्सों और वार्ड बॉयज़ के ज़िम्मेदारी भरे योगदान की। इसमें धन्यवाद स्वरूप बात है शमशान घाट में शवों को नहलाने और अंतिम संस्कार करवाने वालों के योगदान की। 

इसमें पुलिस , सेना, समाजसेवियों के अथक प्रयासों के साथ साथ बात है देश दुनिया से हर पल जोड़े रखने वाले मीडियाकर्मियों और उनके सराहनीय योगदान की। इसमें बात है हर उस छोटे से बड़े व्यक्ति के योगदान की जिन्होंने किसी ना किसी बहाने जनजीवन को सुचारू रूप से चलाने में आम आदमी की मदद की। साथ ही इसमें बात है आपदा को अवसर में बदलने वाले मुनाफ़ाखोरों और दरियादिली की जीती जागती मिसालों की। इसमें बात है बनारस और उसके मणिकर्णिका घाट और वहाँ पर लगातार जलती लाशों की। इसमें बात है टूट चुके या भुलाए जा चुके रिश्तों को फिर से समेटने..सहलाने ओर पुचकारने की।

यूँ तो यह उपन्यास मुझे उपहारस्वरूप मिला। फिर भी मैं अपने पाठकों की जानकारी के लिए बताना चाहूँगा कि इस 216 पृष्ठीय उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है अनन्य प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

बेरंग लिफ़ाफ़े- मनीष भार्गव

कई बार कुछ पढ़ते हुए अचानक नॉस्टेल्जिया के ज़रिए हम उस वक्त..उस समय..उस माहौल में पहुँच जाते हैं कि पुरानी यादें फिर से ताज़ा हो..सर उठाने को आमादा होने लगती हैं। दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ नॉस्टेल्जिया के ज़रिए फिर से पुराने समय..पुराने माहौल की तरफ़ ले जाते एक ऐसे ही उपन्यास 'बेरंग लिफ़ाफ़े' की। जिसे लिखा है मनीष भार्गव ने और यह उनकी पहली कृति है।

मेट्रो के सफ़र से शुरू हुई इस उपन्यास की कहानी के आरंभ में ही मुख्य किरदार से मध्यप्रदेश से दिल्ली आयी हुई वहाँ की पुलिस कुछ तफ़्तीश करती दिखाई देती है। उन्हें उसकी पिछली नौकरी के दौरान वहाँ के किसी पुराने मामले में उन्हें उस पर कुछ शक है।

फ्लैशबैक के ज़रिए आगे बढ़ती हुई इस कहानी में कहीं दफ़्तरी कार्यशैली और वहाँ की अफसरशाही की बातें हैं तो कहीं कम्प्यूटर और सर्वर हैकिंग से जुड़ी बातें कहानी कक आगे बढ़ाने का प्रयास करि दिखाई देती हैं।कहीं इस उपन्यास में शेयर मार्केट की गूढ़ बातें सरल अंदाज में पढ़ने को मिलती हैं। तो कहीं इसमें गाँव के कठिन जीवन का वर्णन महसूस करने को मिलता है।

कहीं इसमें बचपन की शरारटन से जुड़े किस्से दिखाई देते हैं तो कहीं उस समय के बच्चों का भोलापन दिखाई देता है। कहीं इसमें नवोदय(होस्टल) की पढ़ाई..शरारतें और विद्यार्थियों की अनुशासित दिनचर्या दिखाई देती है। कहीं इसमें 9th-10th के नाज़ुक दौर में हार्मोन्स में होने वाले बदलावों की वजह से कोई किसी की तरफ़ आकर्षित दिखता है। तो कहीं कोई इसमें इसी दौर में पढ़ाई को गंभीरता से लेने की सलाह देता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं चुनावों के वक्त कलैक्टर ऑफिस में अफ़सरों की पौबारह होती दिखाई देती है कि उस वक्त चुनाव की आपाधापी में ऑफिस में बजट का कोई मुद्दा नहीं होता जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। तो इसी उपन्यास में कहीं अफसरशाही खुद अपने मातहतों को भ्रष्ट होना सिखाती दिखाई देती है। 

कहीं यह उपन्यास इस बात की भी तस्दीक करता दिखाई देता है कि..

'भ्रष्टाचार सिर्फ़ सरकारी तौर पर ही नहीं बल्कि आम जनता के स्तर पर भी होता है।'
क्योंकि आम समर्थ लोग भी खुद को दीन हीन बता ग़रीबों के लिए चल रही सरकारी योजनाओं का मसलन BPl कार्ड, राशनकार्ड, वृद्धावस्था पेंशन, कृषि सब्सिडी इत्यादि का लाभ उठाना चाहते हैं।

कहीं यह उपन्यास बताता है कि कुछ होटल/रेस्टोरेंट वाले फ़ूड इंस्पेक्टरों को खुद उनके होटल या रेस्टोरेंट में छापा मारने का निमंत्रण देते हैं कि इससे अख़बार में उनके होटल या रेस्टोरेंट की ख़बर फोटो सहित आने से उनका प्रचार हो जाएगा। तो वहीं दूरी तरफ़ उपन्यास यह भी बताता है कि फूड इंस्पेक्टरों को कुछ तयशुदा होटलों पर छापे मारने की इजाज़त भी नहीं होती थी कि वे किसी मौजूदा राजनीतिज्ञ या फिर किसी बड़े अफ़सर के निजी प्रतिष्ठान होते हैं।

इसी उपन्यास में कहीं यह उपन्यास रिटायर होने के बाद बड़े IAS अफ़सर द्वारा  अपनी पेंशन के लिए रिश्वत देने के उदाहरण से इस बात को सही साबित करता दिखाई देता है कि..'सब कुर्सी को ही सलाम करते हैं।'

इसी उपन्यास में कहीं इस बात की तस्दीक होती दिखाई देती है कि किन्हीं बीत चुके लम्हों के ज़रिए किसी विशेष को याद करना, उससे प्रत्यक्ष मिलने से ज़्यादा आनंद देता है। तो कहीं इसी उपन्यास में प्याज़ के छिलकों और ज़िन्दगी के एक समान होने की बात भी पढ़ने को मिलती है।

कुछ जगहों पर प्रूफ रीडिंग की खामी के तौर पर ग़लत शब्द छपने से वाक्य भी सही ढंग से बने हुए नहीं दिखाई दिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 15 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'मुझे अपने गुरु, जो मेरे बड़े भाई की तरह थे उनकी एक बाद याद आई कि जब भी समस्या हो तो ध्यान रखना आपकी मदद सिर्फ आप ही कर सकते हो।'

यहाँ 'एक बाद याद आयी' की जगह 'एक बात याद आयी' होगा। 

*इसी तरह पेज नंबर 59 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसने आपने परिचय के 3-4 सीनियर का नाम भी बताया जिन्हें वो जानता था।' 

यहाँ 'आपने परिचय के 3-4 सीनियर' की जगह 'अपने परिचय के 3-4 सीनियर' आएगा।

इसके बाद अपने नवोदय (होस्टल) प्रवास के दौरान लेखक ने एक जगह पेज नंबर 63 पर लिखा कि..

'9th के बाद हम नीलगिरी हाउस में शिफ्ट हो गए। 

इसके एक पेज बाद ही पेज नंबर 65 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'धीरे-धीरे कई वर्ष निकल गए। हम 10th में आ चुके थे।'

9th से 10th में आने में जबकि सिर्फ़ एक साल लगना चाहिए लेकिन यहाँ लिखा है कि..9th से 10th में आने में कई वर्ष निकल गए। 

मेरे हिसाब से किसी भी कहानी या उपन्यास को लिखते वक्त उसके प्लॉट..थीम और कंटैंट को ले कर लेखक के ज़हन में एक स्पष्ट रूपरेखा होनी चाहिए कि आखिर..वह कहना क्या चाहता है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो लेखक मुझे थोड़ा कन्फ्यूज़्ड और एक साथ दो नावों की सवारी करता दिखा कि उसे एक तरफ़ इस उपन्यास की कहानी को रहस्य..रोमांच से भरपूर रखना है अथवा अपने जीवन के निजी संस्मरणों के लेखे जोखे को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना है।

एक तरफ़ इस उपन्यास की कहानी का आगाज़ एक ऐसी पुलसिया तफ्तीश से हो रहा है जिससे लेखक याने के कहानी का मुख्य किरदार बचना चाह कर भी बच नहीं पा रहा है लेकिन शुरुआती 38 पृष्ठों के बाद ही इस 122 पृष्ठीय उपन्यास में आगे के 75 पृष्ठों तक सिर्फ फ़्लैशबैक के ज़रिए लेखक, जो कि कहानी का मुख्य किरदार भी है, सिर्फ अपनी वह कहानी कह रहा है जिसका पुलिस या उसकी तफ़्तीश से कोई लेना देना नहीं। हालांकि कि पैचवर्क के रूप में आखिरी 2-3 पृष्ठों में पुलिस का जिक्र भी आनन फानन में कहानी को बस जैसे तैसे समाप्त करने को प्रयासरत दिखा।

लेखक की भाषा शैली और उनका धाराप्रवाह लेखन भविष्य में उनसे और अच्छे कंटैंट की उम्मीद जगाता है। हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया कागज़ पर छपे इस 122 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 130/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

मुझसे कैसा नेह- अलका सिन्हा

आम तौर पर जब हम नया नया पढ़ना शुरू करते हैं तो हमें पता नहीं होता कि किसे हम पढ़ें और किसे नहीं। ऐसे में रामबाण औषधि के रूप मे आँखें मूंद कर अन्य लोगों की तरह हम भी बड़े लेखकों और उनके रचनाकर्म को ही अपना मनमीत बना, उस पर अपने अध्यन के श्रद्धा रूपी पुष्प सुमन अर्पित कर खुद को कृतार्थ समझने लगते हैं। हमारी ज़्यादातर प्राथमिकता बड़े लेखकों...बड़े प्रकाशकों के नामों की रहती है और इस चक्कर में समकालीन एवं नवांगतुक नाम हमारी वरीयता की सूची में आने से बचे रह जाते हैं जबकि उनका लेखन भी कई बार अव्वल दर्जे का होता है। 

इस बार अपने समकालीन रचनाकारों की बात करते हुए मैं प्रसिद्ध लेखिका अलका सिन्हा जी के कहानी संग्रह "मुझसे कैसा नेह" की बात करना चाहूँगा। धाराप्रवाह लेखनशैली में लिखी गयी उनकी कहानियाँ बेशक हमारे आसपास दिख रहे किरदारों एवं घट रही घटनाओं को ले कर ही बुनी गयी हैं मगर फिर भी अपने आप में अनूठी हैं। लीक से हट कर प्रयोग में लाया गया उनका ट्रीटमेंट ही उन्हें भीड़ से अलग एवं विशिष्ट बनाता है।

उनके इस कहानी संकलन की किसी कहानी में घरों में काम करने वाली एक युवती अपनी मालकिन की देखादेखी अपनी बेटी को भी बड़े स्कूल में पढ़ाना चाहती है और उसके लिए भरसक प्रयास भी करती है। मगर क्या अपने इस प्रयास में वो सफल हो पाती है?

एक अन्य कहानी इस बात की तस्दीक करती है कि लज़ीज़ व्यंजनों से कहीं आगे की चीज़ है भूख और उसका वजूद में होना। साथ ही नरम आरामदायक बिस्तर से ज़्यादा ज़रूरी है..चैन की नींद सोना।

उनकी कोई कहानी अगर बताती है कि बदलते वक्त के साथ पति पत्नी की आदतों और स्वभाव में परिपक्वता तो आ जाती हैं लेकिन अंदर ही अंदर हम अपने साथी में वही पुराने दिन..पुराना अल्हड़ रोमानीपन ढूँढते रह जाते हैं। तो वहीं कोई कहानी नयी और पुरानी पीढ़ी की सोच में आते फर्क को इंगित करते हुए कहती है कि..अपने अच्छे संस्कार..अच्छी बातों के लिए हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली संताने या पीढ़ियाँ भी हमारे ही नक्शेकदम पर चलें मगर क्या असलियत में ऐसा संभव हो पाता है?

उनकी एक कहानी रिटायर होने की उम्र के ईमानदार पिता की व्यथा बताती है कि उसका होनहार बेटा जब परीक्षाओं में अव्वल आने पर भी रिश्वत ना देने की वजह से जब अपनी योग्यतानुसार कही नौकरी नहीं पा पाता। तो ऐसे में व्यथित हो, वह(उसका पिता) आत्महत्या करने तक का प्रयास करता है कि उसके ही दफ़्तर में सहानुभूति के चलते उसके बजाय उसके बेटे को नौकरी और रहने को घर मिल जाए।

कहीं किसी कहानी में किसी घर में किराए पर अकेली रहने आयी एक युवती अपने एकाकीपन से होने वाली ऊब से बचने और अपने मन के उदगारों को व्यक्त करने के लिए एक पेड़ से दोस्ती कर लेती है और उससे ही मन की व्यथा कथा कह सुन कर अपने मन को हल्का कर लेती है। तो किसी कहानी में आँखों से लाचार एक युवक अपनी हीन भावना से ग्रस्त हो कर अपने लिए आए सुन्दर युवती के रिश्ते को अपने छोटे भाई के लिए चुन तो लेता है। मगर उसके बाद उसी युवती की घर में तारीफें सुन सुन कर उससे कुड़ने..खीजने एवं जलने लगता है। तब उस युवती के प्रयासों से कुछ ऐसा होता है कि उनके आपसी रिश्ते पुनः सौहाद्रपूर्ण हो..जीवित हो उठते हैं।

कहीं किसी कहानी ताइक्वांडो में कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुका युवक चीन जा कर वहाँ की प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल जीतना चाहता है जिसके लिए उसकी भाभी भी उसे बहुत प्रोत्साहित करती है। मगर पैसे की कमी के चलते वो चीन नहीं जा पाता और हालात से समझौता कर खुद को मोल्ड करता हुआ यहीं दुनियादारी में रम जाता है। 

एक अन्य कहानी में बरसों बाद एक युवती अपने नॉस्टेल्जिया से वशीभूत हो कर जब अपने बचपन के घर..अपने मायके कुछ दिन रहने के लिए पहुँचती है तो पाती है कि घर से उसे जोड़ने वाली उसके बचपन की तमाम चीज़ें..सभी यादें हटाई या फिर बदल दी जा चुकी हैं तो व्यथित हो बुझे मन से वह तुरंत वापिस लौटने का फैसला कर लेती है।

एक अन्य कहानी में बड़े प्रेम..जतन एवं उल्लास के भाव से पहली बार अपने पति के लिए स्वैटर बुन रही युवती की बात है कि किस तरह उस स्वैटर को पति को दिखाने से पहले ही उसकी बेटी अनजाने में एक भिखारी को दे..उसे उसके एक पुराने हो..लगभग भुलाए जा चुके कर्ज़ से मुक्त कर देती है। 

किसी कहानी में अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए सशंकित एवं चौकस रहने की बात है तो किसी कहानी में लापरवाह पति की आदतों से त्रस्त पत्नी को विवाह के 18 वर्षों बाद किसी का प्रेम पत्र मिलता है। जिसमें प्रेम प्रदर्शन के अलावा बाहर उससे अकेले में मिलने का निवेदन भी है। 

इसमें दो बहनों की एक कहानी है जिसमें एक बहन अपनी माँ की डांट और दूसरी बहन को ले कर अपने साथ होते पक्षपात से नाराज़ हो कर अपने घर से बाहर निकल तो जाती है मगर रात होते ही उसका अपने घर..अपने परिवार के प्रति मोह फिर से उमड़ पड़ता है और वह पुनः अपने घर जाने के लिए लालायित हो उठती है जहाँ पर सब उसे प्यार करते हैं।

एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ गांव में रह रहा युवक जब अपने बड़े भाई को बरसों बाद अपने परिवार के साथ गांव लौटते देखता है तो बंटवारे के डर से संशकित हो उसकी हर बात..हर मदद..हर सहानुभूति को शक की नज़र से देखने लगता है। तो वहीं दूसरी तरफ एक अन्य कहानी में एक युवती को जब उसके चीफ द्वारा हवाई अड्डों पर विस्फोटक की जांच से संबंधित सेमिनार के लिए चुन कर भेजा तो जाता है तो वह खुद को भाग्यशाली समझती है। मगर उसकी ही लापरवाही एवं चौकस ना रहने से उसका सब ज्ञान..सब समझदारी धरी की धरी रह जाती है जब उसकी चूक से सवारियों भरे उस यात्री जहाज़ को बम से हवा में उड़ा दिया जाता है जिसमें एक बड़ा नेता भी सफर कर रहा था।

एक अन्य कहानी में गाड़ियों के शोरूम का मालिक अपने सपने में खुद को मरा हुआ पाता है और उसी सपने के फ्लैशबैक में जा कर वह देखता है कि किस तरह वह अपने गुणी छोटे भाई का हक़ मार कर खुद मालिक बने बैठा है। सपने में ही पश्चाताप करते हुए अपने भाई को उसका हक़ देने के बाद देखता है कि उसका भाई अब उसके हर किए का उससे बदला ले रहा है। ऐसे में जागने के बाद अपने छोटे भाई के लिए बीच का कोई रास्ता निकालने की वह कुछ फैसला कर लेता है कि साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।

एक अन्य कहानी में हिंदू मुस्लिम प्रेम विवाह से गर्भवती हुई एक युवती के पति को उसके(लड़के के) पिता के खाप पंचायती आदेश के बाद, उसके अपने संबंधियों द्वारा ही मौत के घाट उतार दिया जाता है। ऐसे में अपनी वर्तमान स्थिति से निराश हो युवती नारी निकेतन में अपना आसरा खोजने की सोचती है तो संयोग से उसे अवसादग्रस्त एक ऐसा बुजुर्ग मिलता है जो अपनी बाकी की बची हुई ज़िन्दगी के लिए वृद्धाश्रम खोज रहा है। किस्मत के मारे दोनों एक साथ बाप बेटी की तरह रहने लगते हैं मगर क्या होता है जब असलियत से पर्दा हटता है?

सिद्धांतवादी प्रोफ़ेसर पिता का बेटा जब अपने पिता के कहे अनुसार उनके सिद्धांतों पर नहीं चल पाता तो एक दिन उन्हें अकेला छोड़ खुद अलग रहने लगता है। ऐसे में सहानुभूति वश उसकी मित्र जो प्रोफ़ेसर की शिष्या भी है, उनसे बेटे से समझौता कर लेने का आग्रह करती है जो हार्टअटैक झेल चुके स्वाभिमानी पिता को मंज़ूर नहीं।

उनके इस कहानी संकलन में कुल 20 कहानियाँ हैं और हर  कहानी ऐसी कि बस आपके मुँह से वाह निकले।एक उम्दा कहानी संकलन पाठकों को देने के लिए लेखिका एवं प्रकाशक का आभार।

136 पृष्ठीय इस संग्रहणीय कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को 2012 में छापा है किताबघर प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

दुमछल्ला- निशान्त जैन

ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति हमेशा अच्छा या फिर हमेशा बुरा ही हो। अपने व्यक्तिगत हितों को साधने..संवारने..सहेजने और बचा कर रखने के प्रयास में वो वक्त ज़रूरत के हिसाब से अच्छा या बुरा..कुछ भी हो सकता है। यह सब उसकी इच्छा.. परिस्थिति एवं मनोदशा के हिसाब से नियंत्रित होता है। दूसरी अहम बात ये कि हम चाहे जितना मर्ज़ी कह या हाँक लें कि.."हम अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं।" मगर हमारी मर्ज़ी भी कहीं ना कहीं घर परिवार या समाज द्वारा ही नियंत्रित होती है।

दोस्तों..मानवीय रिश्तों को ले कर इस तरह की गूढ़ ज्ञान भरी बातें आज इसलिए कि आज मैं एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'दुमछल्ला' के नाम से लिखा है निशान्त जैन ने। 

मुख्य रूप से इस उपन्यास में कहानी है अपनी शर्तों पर जीने वाले मेरठ के कामयाब शेयर ब्रोकर निर्मय और उसकी पत्नी गायत्री के बीच बनते..बिगड़ते संबंधों की। साथ ही इसमें कहानी है उनके पारिवारिक मित्र अर्जुन और उसकी पत्नी निवेदिता के बीच बदलते समीकरणों की। दरअसल निर्मय पहले निवेदिता को चाहता था मगर निवेदिता के द्वारा गायत्री से मिलवाने पर वह उसकी ओर इस कदर आकर्षित हो गया कि निवेदिता को भुला..गायत्री से शादी कर लेता है। इसी सारी जद्दोजहद और कशमकश के बीच बतौर इम्प्लॉय पहले प्रियल की निर्मय के दफ़्तर और फिर दिल में एंट्री होती है। जो सारे झगड़े और फ़साद की जड़ बनती है। 

इस उपन्यास में कहीं ग़हरी दोस्ती तो कहीं गहरी साज़िश पनपती दिखाई देती है। कहीं किसी की आँखों में लबालब भरा प्रेम उछालें मारता दिखाई देता है तो कहीं कोई प्रेम भी पूरा नाप जोख के..कद काठी मिला के करने का फैसला करता दिखाई देता है। कहीं इसमें कोई हर हाल में अपने बनाये कायदों पर टिके रहने को आमादा है तो कोई वक्त ज़रूरत के हिसाब से फ्लैक्सिबल होने की बात करता दिखाई देता है।

इस उपन्यास में अगर कहीं कोई ना चाहते हुए भी प्रेम के भंवर में इस कदर डूबता दिखाई देता है कि अब उसका इस सबसे उबर पाना ही मुश्किल हो रहा है। तो वहीं दूरी तरफ़ कहीं कोई प्रेम को महज़ ग़म ग़लत करने का ज़रिया माने बैठा है। कहीं इस उपन्यास में कोई दोस्ती को ही सब कुछ मान बैठा है तो कहीं कोई विश्वासघात करने को तैयार बैठा दिखाई देता है। 

कहीं इस उपन्यास में हर कोई खुद को सही और दूसरे को ग़लत साबित करने पर तुला एवं अपने हितों के हिसाब से दूसरे को चलाने का प्रयास करता दिखाई देता है। 

सरल शब्दों में लिखे गए इस उपन्यास में एक दो जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त पेज नंबर 15 पर दिखाई दिया दिया कि..

'कुछ देर में ही अर्जुन उस कमरे से बाहर निकल आता है और वापस सोफे पर आ कर लेट जाता है। वह किताब पढ़ना चाहता है लेकिन नींद उस पर हावी हो रही थी। वो फिर भी किताब पढ़ने के लिए उठाता है लेकिन पढ़ नहीं पाता। दिमाग की सीमाएँ शरीर पर हावी हो गई थी और वो सो जाता है।'

इसके बाद इन्हीं पंक्तियों को काटते हुए आगे लिखा दिखाई दिया जो कि अगले पेज तक गया कि..

'अर्जुन की सारी रात, करवटें बदल कर ही बीती। एक तो थकान, ऊपर से छोटा सा सोफा: आम परिस्थिति में भी ऐसे सोना मुश्किल होता है, जबकि अर्जुन तो अलग ही मनोस्थिति में था, उसे नींद कहाँ से आती?'

इसी तरह पेज नंबर 74 पर लिखा दिखाई दिया कि.. 'इतना कहकर निवेदिता ने हँसकर बात को मज़ाक में ढालने की कोशिश की।'

यहाँ 'मज़ाक में टालने की कोशिश की।' आना चाहिए। 

शुरुआती चैप्टर के बाद लगभग पूरी कहानी को फ्लैशबैक में एक डायरी के ज़रिए बयां किया गया है। जो कहीं से भी डायरी की विधा नहीं लगती। डायरी विधा में अगर कहानी लिखी जा रही है तो डायरी में लिखी गयी सारी बातों को डायरी के लेखक याने के निर्मय के नज़रिए से लिखा जाना चाहिए था। लेकिन यहाँ इस तथाकथित डायरी में सभी किरदार अपने अपने ढंग एवं मनमर्ज़ी से अपनी मनमानी करते दिखे। या फिर कम से कम उसे याने के निर्मय को ही सूत्रधार के रूप में बीच बीच में आ..कहानी को आगे बढ़ाया जाना चाहिए था। 

वाक्य विन्यास थोड़ा कच्चा लगा कि एक ही पैराग्राफ़ में कहीं किसी वाक्य का अंत 'ता है' से हो रहा है तो किसी के अंत में 'था' आ रहा है। उसी पैराग्राफ़ के कुछ एक वाक्य तो ऐसे लगे कि जैसे अभी वर्तमान में घटित हो रहे हैं।

मर्डर मिस्ट्री के रूप में उपन्यास की कहानी शुरू में थोड़ी उत्सुकता जगाती तो है मगर कहानी में लॉजिक और स्पष्टता की कमी इसे बोझिल भी बनाती है।  उपन्यास में बुद्धजीविता भरी बातें भी कहीं कहीं थोड़ी उकताहट पैदा करती भी दिखी जिनसे बचा जा सकता था। उपन्यास का शीर्षक और कवर डिज़ायन अच्छा है मगर कहानी से कहीं खुद को रिलेट नहीं कर पाता। 

उपन्यास पढ़ते वक्त यह भी लगा कि इसे जल्दबाज़ी में लाने के बजाय इसकी कहानी और ट्रीटमेंट पर अभी और मेहनत की जानी चाहिए थी। बेशक यह लेखक की पहली किताब है लेकिन उनके लेखन का हुनर..सोच और शब्दों का चयन प्रभावी है जो भविष्य में और अच्छे लेखन की उम्मीदें जगाता है।

 हालांकि 'किआन फाउंडेशन' द्वारा यह उपन्यास मुझे उपहारस्वरूप भेजा गया लेकिन अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की बढ़िया क्वालिटी के कागज़ पर छपे इसके 162 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 135/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को, जो कि संयोग से एक ही हैं, बहुत बहुत शुभकामनाएं।

कितने मोर्चे- वन्दना यादव

“कितने मोर्चे”

Vandana Yadav जी का यह उपन्यास अपने आप में अनूठा है। अनूठा इसलिए कि अब तक सेना की पृष्ठभूमि और उसमें भी खास तौर पर हमारे फौजियों की अकेली रह रही बीवियों की व्यथा और उनकी कथा का इस उपन्यास में बहुत ही रोचक ढंग से ताना-बाना बुना गया है। ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि स्त्री नज़रिए से किसी ने इस सन्दर्भ में अपनी...अपने मन की बात कही हो। ये अलग नज़रिया भी इस उपन्यास को आम की श्रेणी से हटा कर ख़ास बनाता है।

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के मुद्दों को लेकर इस उपन्यास में उनका विस्तार से विवरण या यूँ कह लें कि चित्रण किया गया है, तो भी ग़लत नहीं होगा। इसे लेखिका के लेखन की सफलता ही कहेंगे कि 350 पृष्ठों से भी ज़्यादा लंबा होने के बावजूद ये उपन्यास कहीं पर भी शिथिल नहीं पड़ता, बोझिल नहीं लगता। एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद पाठक उसे पूरा पढ़ने को मजबूर हो जाता है। सरल शब्दों से लैस वंदना यादव जी का धाराप्रवाह लेखन अपनी रौ में पढ़ने वालों को अपने साथ.. . अपनी ही दिशा में बहा ले जाता है।

किस तरह की तकलीफों से हमारे फौजिओं की अकेली रह रही पत्नियाँ और उनके बच्चे अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी में रूबरू होते हैं, इसका पता भी हमें इस उपन्यास को पढ़ कर ही चलता है। जिस तरह के जर्जर हालत वाले फ्लैटों में रह कर उन्हें अपने दिन-रात काटने पड़ते हैं, वह भी हमें इसी उपन्यास से पता चलता है। अकेले रह कर किसी महिला के लिए बच्चों की परवरिश करना, उन्हें अच्छे संस्कार देना, अच्छी शिक्षा देना कितना मुश्किल है, उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक इन सभी घटनाओं को खुद झेलता एवं महसूस करने लगता है।

इस उपन्यास में जहाँ एक तरह बच्चों की शिक्षा, उनके भविष्य के बारे में चिंता जताई गई है, वहीं दूसरी तरफ प्रेम विवाह, महिलाओं का बाहर नौकरी कर खुद अपने वजूद, अपनी अलग पहचान हासिल करने की इच्छा को भी बखूबी दिखाया गया है। लंबे समय बाद मिल रहे पति-पत्नी के बीच प्यार, उनकी आपसी नोकझोंक, बच्चों के सुखद भविष्य की कामना एवं चिंता, मिलेट्री अस्पतालों में हो रही लापरवाही, मिलेट्री एरिया में सिविल वर्कस के लिए ज़िम्मेदार ‘एम.ई.एस’ की बदइंतज़ामी, अवैध एवं अवांछित लोग, ज़्यादा माँग के चलते नौकरानियों की मनमर्जी, अनुशासन एवं सिविलियंज़ के प्रति फौजिओं और उनके परिवारों का नज़रिया सहित बहुत से अनेक मुद्दों को प्रभावी ढंग से छुआ गया है।

सब कुछ हमें अपने आसपास घटता हुआ प्रतीत होता है। पढ़ते समय ऐसा एक बार भी नहीं लगा कि हम किसी निर्जीव किताब को पढ़ रहे हैं। हमेशा ऐसा ही लगा कि सब कुछ हमारे सामने ही चलचित्र के माफिक चल रहा है। इस उपन्यास को और अधिक चुस्त एवं क्रिस्प बनाने के लिए इसमें बार-बार लिफ्ट का खराब होने और उसके हर बार के विस्तृत विवरण से शायद बचा जा सकता था।

सबसे बड़ी खूबी इस उपन्यास कि मुझे यह लगी इसमें कहीं भी कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। सरल एवं प्रचलित शब्दों के ज़रिए ही लेखिका ने अपनी.. अपने मन की बात कही है। शब्दों का सरल होना इस उपन्यास की विस्तृत पहुँच के मंसूबे को अमली जामा पहनाने में पूरी तरह सक्षम है। 

अनन्य प्रकाशन से प्रकाशित इस उम्दा उपन्यास के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

लेडीज़ सर्कल- गीताश्री

 कुछ कहानियाँ तुरत फुरत में पढ़ कर बस निबटा भर दी जाती हैं और कुछ को पढ़ते समय आपको अतिरिक्त रूप से सजग हो कर कुछ एक्स्ट्रा प्रयास करना पड़ता है कि कहीं कुछ..थोड़ा सा भी छूट ना जाए और वो कहानी अपनी तमाम विषमताओं, संवेदनाओं एवं आवेगों के साथ आपके दिमाग में  भीतर..गहरे तक अपनी पैठ बना सके। 
 
हमारे बीच ऐसे ही गहन  विषयों को ले कर रची गयी कहानियों की रचियता हैं गीताश्री। उनकी कहानियों में हर बार मुझे एक अलग वेवलेंथ...एक अलग ट्रीटमेंट दिखाई देता है। विषयानुसार अपनी कहानियों में वो स्थानीय भाषा तथा वहाँ की भाषायी टोन का प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल करती हैं जिससे कहानी का प्रभाव कई गुणा ज़्यादा बढ़ कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होता है। 

अभी फिलहाल में मुझे उनका कहानी संग्रह "लेडीज़ सर्कल" पढ़ने का मौका मिला। पढ़ने से पहले मन में दुविधा तो नहीं मगर हाँ..संशय ज़रूर था  ल कि इसमें  सिर्फ  और सिर्फ  स्त्री मन की ही कहानियाँ होंगी  लेकिन  यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ  की स्त्री मन की कहानियों के होने के बावजूद  इसमें  पुरुष चरित्रों को भी  उभरने का  पूरा-पूरा मौका दिया गया है। 

 विविध विषयों की इस किताब में कुल 8 कहानियां हैं और हर कहानी अपने में अलग अलग विषय संजोय हुए है। किसी कहानी में पैसा कमाने परदेस गए पति की नव ब्याहता पत्नी की व्यथा है तो किसी कहानी में अतृप्त पत्नी की दबी कुचली इच्छाओं का जिक्र है। किसी कहानी में एनकाउंटर और उसके पीछे की कहानी का वर्णन है तो किसी कहानी में स्त्रियों द्वारा ही स्त्रियों के सपनों को उभरने ना देने की चाही-अनचाही कोशिशों का जिक्र है। किसी कहानी में रेप विक्टिम,उसकी बहादुरी, उसकी तथा उसके परिवार की मनोदशा का विस्तार से वर्णन है तो किसी कहानी में यायावरों की अपनी दुनिया झलकती है। और अंतिम कहानी में यौन संबन्धों का स्त्रियों के बीच आपसी हँसी मज़ाक से होते हुए उनकी परेशानी का हल जैसा कुछ खोजने का प्रयास किया गया है। 

एक अच्छे लेखक या लेखिका होने के लिए उसका एक अच्छा श्रोता होना बहुत जरूरी है। अच्छा श्रोता ही विषय को सही से समझ कर उस पर प्रभावी तरीके से किसी कहानी को रच सकता है। इस किताब में उनके द्वारा लिखी गयी भूमिका से भी यह बात सिद्ध होती है की वह खुद भी एक अच्छी श्रोता हैं। 140 पृष्ठीय इस किताब का प्रकाशन राजपाल एण्ड संस द्वारा किया गया है और इसका मूल्य Rs.195/- जो किताब की क्वालिटी तथा कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा प्रतीत नहीं होता है। उम्दा क्वालिटी का कंटैंट देने के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई। 

 

दुल्हन माँगे दहेज- वेद प्रकाश शर्मा

अगर आप पल्प फिक्शन याने के लुगदी साहित्य दीवाने या फिर मुरीद हैं या फिर कभी आपने अपने जीवन में इन तथाकथित लुगदी साहित्य के उपन्यासों पर एक गंभीर या फिर सतही तौर पर नज़र दौड़ाई है  तो यकीनन आप स्व.वेदप्रकाश शर्मा जी के नाम से अनजान नहीं होंगे। पल्प फिक्शन के जादूगर वेदप्रकाश शर्मा जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं। सैंकड़ों की संख्या में उन्होंने जासूसी तथा सामाजिक ताने बाने में रचे थ्रिलर उपन्यासों की रचना की है। उनके लिखे कुछ उपन्यासों पर सीरियल तथा फिल्में भी बनी जो काफी हिट भी हुई।

कुछ महीने पहले फेसबुक पर एक पुराने नॉवेल बेचने तथा खरीदने के ग्रुप के बारे में पता चला और उसका सदस्य बनते ही मानों पुराने अरमां फिर से जागने को आतुर हो उठे। वहाँ पर वेदप्रकाश शर्मा तथा सुरेंद्र मोहन पाठक जी के उपन्यासों के ज़खीरे के ज़खीरे नज़र आने लगे। तो लगे हाथ मैंने भी बहुत से पुराने उपन्यास पेटीएम के ज़रिए भुगतान कर मँगवा लिए। उन्हें पढ़ने का मौका तो खैर अभी नहीं मिला। इसलिए उनका ज़िक्र फिर कभी।

1982 में उनको आखिरी बार पढ़ने के बाद मैंने 2017 में न्यूज़ हंट नामक मोबाइल एप से उनका एक उपन्यास "सुपर स्टार" खरीद कर पढा था लेकिन तब तक मैंने अपने द्वारा पढ़ी गयी किताबों पर लिखना शुरू नहीं किया था और अब जब लिखना शुरू किया तो इन पर भी लिखने से गुरेज़ क्यों? 

अभी फिलहाल में मैंने  किंडल पर खरीदा हुआ उनका "दुल्हन माँगे दहेज" उपन्यास पढ़ा। जैसे कि नाम से ही ज़ाहिर है कि उपन्यास दहेज प्रथा के बारे में है मगर खासियत ये कि इतने आम...सादे से विषय को उठा कर भी उन्होंने ऐसा थ्रिलर रच दिया है कि बरसों तक इसे पढ़ने वाले पाठक इसे भूल नहीं पाएँगे। अपने प्लाट और स्क्रीन प्ले के ज़रिए उपन्यास हर पल आपको चौंकाता है..विस्मित करता है..अचंभित करता है। एक ही उपन्यास में षडयंत्र,साजिश, प्रेम, इंतकाम, रहस्य आदि का सही मात्रा में नपा तुला मिश्रण कि बस आप...वाह कर उठें। 

हालांकि कई जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ खलती हैं। अगर आप किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्राइबर हैं तो आप यह तेज़ रफ़्तार उपन्यास मुफ़्त में पढ़ सकते हैं या फिर 99/- रुपए में इसे खरीद भी सकते है।

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नीली तस्वीरें- सुरेन्द्र मोहन पाठक

1980 और इससे पहले के दशक में जब हमारे यहाँ मनोरंजन के साधनों के नाम पर लुगदी साहित्य की तूती बोला करती थी। एक तरफ़ सामाजिक उपन्यासों पर जहाँ लगातार फिल्में बन रही थी तो वहीं दूसरी तरफ़ थ्रिलर और जासूसी उपन्यासों के दीवानों की भी कमी नहीं थी। एक तरफ़ सामाजिक उपन्यासों के क्षेत्र में गुलशन नंदा को सेलिब्रिटी का सा दर्ज़ा प्राप्त था। तो दूसरी तरफ़ ओम प्रकाश शर्मा, ओमप्रकाश कंबोज, वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के दीवानों की गिनती भी कम नहीं थी। 

निजी तौर पर उस वक्त मैं वेद प्रकाश शर्मा के लेखन का दीवाना था कि तब किसी और का लिखा मैंने या तो पढ़ा ही नहीं या फिर बहुत कम पढ़ा। खैर..पिछली कसर को पूरा करने के इरादे से लगभग दो साल पहले मैंने सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की लेखनी से सुसज्जित उनकी आत्मकथा के पहले भाग को पढ़ा तो यकीन मानिए..उनकी प्रभावी एवं कसी हुई लेखन शैली ने पहली ही नज़र में मुझे उनका मुरीद बना लिया।

दोस्तों..आज मैं उन्हीं के 1973 याने के आज से लगभग 48 साल पहले लिखे गए एक थ्रिलर उपन्यास 'नीली तस्वीरें' की बात करने जा रहा हूँ। जिसे मैंने हाल फिलहाल ही किंडल अनलिमिटेड के माध्यम से पढ़ा। सुनील सीरीज़ के हिसाब से इसका 47वां नम्बर है। सुनील सीरीज़ से अनजान पाठकों के लिए मैं बताना चाहूँगा कि राज नगर से दोपहर को छपने वाले 'ब्लास्ट' अखबार का रिपोर्टर है जो हर अपने तेज़ दिमाग और ज़हीनियत के बल पर हर बार एक नए केस को सुलझाता है।

इस मर्डर मिस्ट्री उपन्यास में कहानी शुरू होती है राजनगर की 'मनोहर मेंशन' में एक जवान..खूबसूरत मॉडल युवती 'निशा' की लाश के मिलने से। जिसकी गोली मार कर हत्या कर गयी है और हत्या से कुछ समय पहले प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा प्रसिद्ध उद्योगपति लाला मंगत राम को उस घर से बाहर निकलते देखा गया है। 

उम्मीद के मुताबिक पुलिसिया तफ़्तीश मे हत्या का शक लाला मंगत राम पर शक जाता है। जिसकी निशा पर लीक से हट कर कई अतिरिक्त मेहरबानियां मसलन.. रुपए पैसे ..बड़े घर..गाड़ी इत्यादि से मदद भी ग़ौरतलब है। बकौल लाल मंगत राम, वे अपने गुज़र चुके दोस्त के एहसानों का बदला उसकी बेटी की मदद कर के कर रहे थे। खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए मंगत राम पहले एक प्राईवेट जासूस और बाद में 'ब्लास्ट' के क्राइम रिपोर्टर सुनील की मदद लेता है।

तफ़्तीश के दौरान अय्याश प्रवृति का लाला मंगत राम सुनील के सामने स्वीकार करता है कि तीन खूबसूरत लड़कियों के साथ, कुछ उन्मादी क्षणों के दौरान, चोरी से खींची गयी उसकी नंगी तस्वीरों को लेकर निशा उसे ब्लैकमेल कर रही थी। लेकिन साथ ही साथ वो ये दावा भी करता है कि उसका कत्ल उसने नहीं किया। 

इस बेहद तेज़ रफ़्तार चौंकाने वाले उपन्यास में अब सुनील को, मंगत राम द्वारा नियुक्त किए गए, गर्म दिमाग़ प्राइवेट जासूस की मदद से उन तीन लड़कियों के साथ साथ निशा के उस आशिक़ को भी खोज निकालना है जिसका पता चलने पर मंगतराम से उसे गुण्डों से बुरी तरह पिटवा दिया था। 

क्या सुनील इस पर पल उलझती गुत्थी को सुलझा पाएगा या फिर वह इस लगातार होते कत्लों से लैस इस रोमांचक कहानी में और अधिक उलझ कर रह जाएगा? 

43 साल पुराना उपन्यास होने की वजह से हालांकि पढ़ते वक्त उस समय के और आज के माहौल में आए फ़र्क की वजह से थोड़ा टाइम गैप लगता है लेकिन फिर भी यह उपन्यास अपने धाराप्रवाह लेखन..तेज़ रफ़्तार..रहस्य और ट्रीटमेंट की वजह से अब भी प्रभावित करता है।

किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्रिप्शन के साथ आप इसे मुफ़्त में या फिर 100 रुपए में इसे आप अपनी किंडल लाइब्रेरी के लिए खरीद भी सकते हैं। 

स्वयंसिद्धा- मंजरी शुक्ला

आमतौर पर किसी भी किताब को पढ़ने के बाद मेरी पहली कोशिश होती है कि उस पर एक आध दिन के भीतर ही मैं अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया लिख लूँ। मगर इस बार संयोग कुछ ऐसा बना कि पहली बार किसी किताब को लगभग 4 महीने पहले पढ़ने के बावजूद भी उस पर बस इसलिए नहीं लिख पाया कि उसे मैंने हार्ड कॉपी के बजाय किंडल पर पढ़ा। मगर अपन तो ठहरे देसी टाइप के एकदम सीधे साधे जलेबी मार्का बंदे। जब तक ठोस किताब हाथ में ना आ जाए..पढ़ने का मज़ा बिल्कुल नहीं आता या कह लो कि सब कुछ होते हुए भी तसल्ली नहीं होती।

खैर..अब किताब को पढ़ तो लिया लेकिन उस पर कुछ लिखने से पहले ही इस कंमबख्तमारे किंडल के सब्सक्रिप्शन ने खड़े पाँव अपने हाथ झाड़ कर खड़े कर दिए कि पहले मुँह दिखाई के शगुन के रूप में सब्स्क्रिप्शन रिन्यू करवाओ और उसके बाद जो मन में आए लिखते रहना।  अब हमने सोचा कि फिलहाल रिन्यू करवाने के बजाय थोड़ा टाइम ठोस याने के पेपरबैक का ही इंतज़ार कर लें। क्या पता बात बन जाए?  अब बात को तो बनना था..तो लो जी..बात बन ही गयी। आ गया हार्ड कॉपी वर्ज़न। 

धन भाग साड्डे..जो दर्शन होए तवाडे।

अब हम तो इसी ताक में बैठे। आते ही अमेज़न पर ऑर्डर किया लेकिन आग लगे इस कंबख्तमारी याद को। पिछला सारा पढ़ा काफी हद तक उड़नछू हो..फुर्र हो चुका था। चलो...जी कोई दिक्कत नहीं, बढ़िया किताब हो तो बार बार पढ़ी जाती है।

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध लेखिका मंजरी शुक्ला जी के कहानी संग्रह "स्वयंसिद्धा" की। उस स्वयंसिद्धा की, जो बचपन से अपनी माँ को हमेशा पिता द्वारा प्रताड़ित.. अपमानित होते हुए देखती है और उसे भी अपनी माँ के तमाम आश्वासनों के बावजूद, विवाह उपरांत वही सब झेलना पड़ता है। ऐसे में उसके जीवन में किसी शुभचिंतक का आगमन क्या उसके दुखों को कम या ज़्यादा कर पाता है अथवा नहीं? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ तीन साल तक एक ऐसी बुर्का पहने युवती से प्रेम करने, मगर उसका चेहरा ना देख पाने के बावजूद जब एक युवक उसे अपने घर..अपनी माँ से मिलाने के लिए ले जाता है। वहाँ पहली बार उसे पता चलता है कि उसकी चाहत का चेहरा एक तरफ से पूरा जला हुआ है। 

तो वहीं दूसरी तरफ एक अन्य कहानी में बूढ़े माँ बाप अपने उस बेटे की पिछले आठ महीनों से प्रतीक्षा करते दिखाई देते हैं जो काम के सिलसिले में शहर जाने की बोल वापिस आने का नाम नहीं ले रहा। क्या महज़ बेटे के भेजे ख़त और पैसों से उनकी तसल्ली हो पाएगी?

एक अन्य कहानी में कुदरत की ग़लती से स्त्रीयोचित गुणों एवं स्वभाव वाला लड़का बचपन में अपने पिता एवं दादी की उपेक्षा..प्रताड़ना एवं नफ़रत झेलने को मजबूर होता है। ऐसे बच्चे की ज़िन्दगी में सहारा एवं संबल बन कर उसकी बेबस माँ के सामने एक किन्नर आता है और अपने प्रयासों से उस बच्चे को अव्वल नंबरों से तालीम दिला उस पोज़ीशन पर पहुँचा देता है कि उससे बुरा बर्ताव करने वाले उसके अपने ही शर्मिंदा हो उठते हैं। 

अगली कहानी अलग अलग धर्मों में विश्वास करने वाले ऐसे दो लंगोटिया यारों की है जिनका एक दूसरे के बिना बिल्कुल भी गुज़ारा नहीं। मगर उनमें से एक की माँ कट्टर हिन्दू होने के कारण बेटे के दोस्त को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करती मगर कुछ ऐसा घटता है कि वो अपनी सारी नफ़रत भूल उससे भी अपने बेटे जैसे ही प्रेम करने लगती है। 

एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ पुत्र मोह में जलन का मारा एक प्रिंसिपल माली की होनहार लड़की की सफलता को देख कर इस कदर जलन से भर उठता है कि सही या ग़लत का फैसला भी नहीं कर पाता है। तो वहीं एक दूसरी कहानी में बात है आजकल के कामकाजी जोड़ों की कि किस तरह 
अपनी उच्च आकांक्षाओं की बलि चढ़ाते हुए अक्सर कामकाजी जोड़े अपने बच्चों को महँगे क्रैचेज़ में डाल बस अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं मगर क्या वहाँ.. उन हाई फाई क्रैचेज़ में उनके बच्चों को सही पोषण..ममता और लाड़ प्यार मिल पाता है, जिसके वो असलियत में हकदार हैं?

इसी संकलन की एक कहानी "गीला तौलिया" हमें सोशल मीडिया के चक्रों कुचक्रों से आगाह करती है कि इसके चंगुल में फँसने से पहले सजग आँखों एवं खुले मस्तिष्क से हम अपना अच्छा बुरा पहले सोच लें। 

इसी संकलन कहीं कोई कहानी हल्के फुल्के ढंग दहेज और पैसे के लालच में हो रहे बेमेल रिश्तों की कहानी कहती है तो किसी कहानी में नाउम्मीदी तक जा पहुँची एक अधूरी प्रेम कहानी अपनी आखिरी पंक्तियों में पूर्णता को प्राप्त करती है। तो कोई कहानी इस बात की तस्दीक करती है कि बेईमान से बेईमान व्यक्ति का भी कभी ना कभी ईमान जाग उठता है। 

पठनीयता की दृष्टि से अगर देखें तो सभी कहानियों की भाषा प्रवाहमयी है। अलग अलग कलेवरों से सुसज्जित इस संकलन की कुछ कहानियों ने मुझे प्रभावित किया। उनके नाम इस प्रकार हैं: 

*स्वयंसिद्धा
*अम्मा
*पार्वती आंटी
*विदाई
*गुरु दक्षिणा
*क्रेश
*मिलन
*प्रायश्चित 

प्रवाहमयी भाषा में लिखी गयी इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे पुरानी नींव पर नयी इमारत जैसी तो कोई कोई थोड़ी फिल्मी टाइप भी लगी। किसी को जल्दबाज़ी में समाप्त कर दिया गया सा प्रतीत हुआ  तो कोई थोड़ी खिंची हुई सी भी लगी। इन कहानियों पर अभी और मेहनत की जानी चाहिए। इसके अलावा कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियाँ भी दिखाई दी जिन्हें दूर  किया जाना चाहिए।

*पेज नम्बर 111 में एक जगह "हूर के गले में लंगूर" की जगह ग़लती से "हूर के गले में अंगूर" टाइप हो गया है। जिससे इस वाक्य को जिस संदर्भ में लिखा गया है, वह निरर्थक हो गया है। 

*पेज नम्बर 140 में एक जगह "दोषी" शब्द के साथ ग़लती से "गवाह" शब्द भी टाइप हो गया है। जिससे उस वाक्य का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। या तो सिर्फ "दोषी" होना चाहिए था या फिर उसकी जगह "मुजरिम" शब्द का इस्तेमाल किया जाता तो बेहतर था। 

150 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है फ्लाई ड्रीम्स पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

गाँव गुवाड़- डॉ. नरेन्द्र पारीक

स्मृतियों के जंगल से जब कभी भी गुज़रना होता है तो अनायास ही मैं फतेहाबाद(हरियाणा) के नज़दीक अपनी नानी के गाँव 'बीघड़' में पहुँच जाता हूँ। जहाँ कभी मेरी नानी गोबर और मिट्टी के घोल से फर्श और दीवारें लीपती नज़र आती तो कभी बकरी से दूध निकलते मेरे नाना। जिनकी बस यही एक स्मृति मेरे ज़हन में अब भी विद्यमान है। कभी गाँव के एक कमरे में बनी लाइब्रेरी से मुझे किताबें ना देने पर लाइब्रेरियन को धमकाती मेरे मामा की बड़ी बेटी नज़र आती। तो कभी एकादशी के मौके पर गाँव के गुरुद्वारे की दीवार के साथ ठिय्या जमाए मेरे मामा के लड़के चने के दानों के बदले खरबूजे बेचते नज़र आते।

दोस्तों..आज गाँव देहात की बातें इसलिए कि आज मैं ऐसे ही गाँव देहात की स्मृतियों को ताज़ा करती एक संस्मरणों की किताब के बारे में बात करने जा रहा हूँ। जिसे 'गाँव गुवाड़' के नाम से लिखा है डॉ. नरेन्द्र पारीक ने। पेशे से शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. साहब के इन संस्मरणों में कहीं कंटीली झाड़ियों से घिरे घास फूस से बने कच्चे घर दिखाई देते हैं। तो कहीं झाड़ियों को जला चूल्हे पर खाना बनता दिखाई देता है। कहीं इसमें दूध, दही, घी और छाछ के साथ मोटे अनाजों जैसे 'जौ'..'बाजरा' इत्यादि की बातें दिखाई दी। तो कहीं इसमें 'सहज पके सो मीठा होय' की तर्ज़ पर पुरानी पतलून अल्टर हो.. फिर से नयी बनती दिखाई दी। कहीं एक दूसरे की मदद की तत्पर गाँव के सीधे साधे लोग दिखाई दिए। तो कहीं इस किताब में गोबर से लिपी पुती दीवारें और फर्श दिखाई दिए। 

कहीं इसमें अपनी मिट्टी के मोह में डूबा कोई अशक्त हो चुका वृद्ध नज़र आता है। तो कहीं इसमें स्वार्थी बेटा सब कुछ अपने नाम करवाता नज़र आता है। कहीं इसमें किसी भी न्योते का अधीरता से इंतज़ार कर रहा अबोध बालक नज़र आता है। तो कहीं कोई जीमण में पानी पीने के लिए गिलास भी घर से ले जाने को तैयार दिखता है। कहीं इसमें जीमण के बाहर चप्पल चुराने वाले की पौ बारह होती दिखाई देती हैं तो कहीं कोई अपनी पुरानी चप्पल को नयी चप्पल से बदलने की फ़िराक में वहीं आसपास ही मंडराता दिखाई देता है।

कहीं किसी रेडियो से जुड़े संस्मरण में उसके सबसे शक्तिशाली मनोरंजन का साधन होने की बात पढ़ने को मिलती है। तो कहीं रेडियो के लिए लाइसेंस ज़रूरी होने की अहम बात। कहीं ख़बरों के लिए बीबीसी रेडियो के सबसे विश्वसनीय होने की बात आती है। तो कहीं इसमें रेडियो सीलोन के अलग अंदाज़ का जिक्र आता है। कहीं इसमें ओलंपिक क्रिकेट..हॉकी के आंखों देखे प्रसारण की बात होती नज़र आती है। तो कहीं इसमें रेडियो पर फरमाइशी गीतों के कार्यक्रम आने की बात दिखाई देती है।

कहीं इस किताब से गांवों में अब भी बच्चों को उनके पिता या दादा के नाम से पहचाने जाने की बात का पता चलता है। तो कहीं काठ पट्टी( तख्ती) को समर्पित एक आलेख में स्कूलों से तख्ती(काठ पट्टी) के विलुप्त होने की बात नज़र आती है। कहीं किसी संस्मरण में गाँव के कुओं पर भी जातिप्रथा के हावी होने की बात का पता चलता है। कहीं 'उगते सूरज को सलाम' की तर्ज़ पर गांवों में पानी की आपूर्ति के लिए टैंकरों के आ जाने से, कभी गाँव की जीवन रेखा रहे, कुओं को भुला दिए जाने का दर्द लेखक को सालता दिखाई देता है। 

कहीं इस किताब में मदारी और साँप-नेवले की लड़ाई का किस्सा आता है तो कही इसमें हाथ की सफ़ाई से सिक्के गायब होते या धड़ से सर अलग होता दिखाई देता हैं। कहीं किसी अन्य संस्मरण में नाटक मंडली द्वारा गाँव में रामलीला और अन्य नाटकों का मंचन होता दिखाई देता है। तो किसी अन्य संस्मरण में गांव की गलियों से बन्दर को कंकड़ पत्थर मार कर भागते बच्चों का हुजूम कूदता..फांदता और हुड़दंग मचाता दिखाई देता है।

 इसी संकलन में कहीं भड़भूजे के यहाँ भाड़ में 'चने' और 'जौ' भूने(भूजे) जाते दिखाई देते हैं तो कहीं देसी खाद्य पदार्थ 'खीचड़ा' बनता दिखाई देता है। कहीं किसी संस्मरण में गाँव के सादा रहन सहन के साथ वहाँ की देसी सब्ज़ियों को याद किया जाता दिखाई देता है तो कहीं किसी अन्य संस्मरण में कंचे, मार दड़ी और गिल्ली डंडे जैसे बचपन में खेले जाने वाले पुराने खेलों का फिर से स्मरण किया जाना दिखाई देता है। 

कहीं किसी गाँव के मेलों से जुड़े किसी अन्य संस्मरण में बताया जा रहा है कि पुराने वक्त में कम पैसों में भी किस तरह खुश रह कर मेलों का आनंद लिया जाता था। तो वहीं किसी अन्य संस्मरण में गाँव के शादी वाले घर में हफ़्ता दस दिन पहले से ही उत्सव का माहौल बनता दिखाई देता है। जिसके सौहाद्रपूर्ण वातावरण में सब गांव वाले आपस में मिल बाँट कर काम करते दिखाई देते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ उसी शादी के हर काम में मीन मेख निकालने को रिश्ते में बुआ और फूफा वगैरह के पहुँच जाने की बात पता चलती है। इसी संस्मरण में आगे कहीं ढोल नगाड़ों की लय पर गाँव की स्त्रियाँ और बच्चे नृत्य करते दिखाई देते हैं तो कहीं सब घर में बिठाए दर्ज़ी के आसपास नए कपड़ों की सिलाई हेतु मंडराते दिखाई देते हैं। कहीं इसमें शगुन के पैसे कॉपी में लिखवाते गांव वाले और रिश्तेदार नज़र आते हैं। तो कहीं सबको तंग कर नखरे दिखाते दूल्हे के यार दोस्त दिखाई देते हैं।

सीधे..सरल शब्दों में गाँव देहात की बातों को नॉस्टेल्जिया के ज़रिए फिर से ताज़ा करती इस किताब के साथ वहाँ के माहौल में रचे बसे चित्र किताब को और अधिक प्रभावी बनाते हैं।  कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियाँ मसलन..
*वर्तनी की त्रुटियाँ
*रेड़ियो- रेडियो
*पादान- पायदान
दिखाई देने के अतिरिक्त कुछ संस्मरणों में किसी किसी बात को थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर लिखा गया प्रतीत हुआ। साथ ही कुछ एक संस्मरण थोड़े खिंचे हुए भी लगे जिन्हें आसानी से छोटा किया जा सकता था। अगर आप गाँव देहात की अपनी स्मृतियों को फिर से ताज़ा करना चाहते हैं तो यह किताब आपको पुनः उसी दौर..उसी माहौल में ले जाने में पूरी तरह से सक्षम है। 

यूँ तो यह किताब मुझे प्रकाशक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी के कागज़ पर छपी इस 140 पृष्ठीय किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है JAI3E Books & Publishing ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

पार उतरना धीरे से- विवेक मिश्र

जब भी आप कोई कहानी पढ़ते हैं तो कभी मुस्कुराते हैं, कभी खिलखिलाते हैं, कभी चौंकते हुए किसी गहन सोच में डूब जाते हैं। कई बार आप किसी कहानी को पढ़ते समय उसमें इतना खो जाते हैं कि कहानी के खत्म होने के बाद भी आप उससे..उसके असर..उसके ताप से बाहर नहीं निकल पाते और अगली कहानी तक पहुँचने से पहले आपको, अपनी दिमागी थकान और मन में उमड़ रहे झंझावातों से उबरने के लिए एक विश्राम, एक अंतराल की आवश्यकता पड़ती है। 

ऐसा ही कुछ इस बार मेरे साथ हुआ जब मुझे प्रसिद्ध कहानीकार विवेक मिश्र जी की कहानियों की किताब "पार उतरना धीरे से" पढ़ने का मौका मिला। इस किताब की कहानियाँ कहीं पर हमें राजे-रजवाड़ों की..उनकी शानो शौकत की..उनकी अकड़, उनके घमंड..उनके द्वारा किए गए दमन से रूबरू कराती हैं तो कहीं बीहड़ में अन्याय के विरुद्ध अपने समूचे पतन तक इधर उधर विचरती हुई दिखाई देती हैं। कहीं भ्रष्टाचार और उसकी अंतिम परिणति को एक पागल के माध्यम से दर्शाया गया है तो कहीं सपने के भीतर ही सपने की सैर कराई गयी है। कहीं आस्था-अनास्था के बीच बालमन का सहज सुलभ विचरण है तो किसी कहानी में जीवन की क्षणभंगुरता और प्रेम को आधार बना थर्टी मिनट्स जैसी कहानी के ज़रिए रोमांच, प्रेम और डर के समिश्रण से आप..आपका पूरा वजूद झूझ रहा होता है। कहीं अपने सहज मन के सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में सबकुछ मटियामेट होते दिखता है तो कहीं प्रेम और अनुराग में डूबी युवती रीतियों कुरीतियों के चक्कर में फँस अपने नए जन्मे बच्चे से हाथ धो बैठती है। 

विवेक मिश्र जी की कहानियाँ अपने अलग विषय एवं कलेवर से युक्त ट्रीटमेंट की वजह से देर तक अपना असर बनाए रखती हैं और आपके अन्तर्मन में कहीं ना कहीं अपनी पैठ बना लेती हैं। 

सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित उम्दा क्वालिटी एवं कंटैंट की इस 120 पेज की किताब में कुल दस कहानियाँ हैं और इसका मूल्य मात्र Rs.100/- है। जो कि बहुत कम होने की वजह से पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करने में पूर्णतः सक्षम है।

बावली बूच- सुनील कुमार

आमतौर पर किसी व्यंग्य कहानी या उपन्यास में समाज..सरकार..व्यक्ति अथवा व्यवस्था की ग़लतियों एवं कमियों को इस प्रकार से चुटीले अंदाज़ में उजागर किया जाता है कि सामने वाले तक बात भी पहुँच जाए और वह खिसियाने..कुनमुनाने.. बौखलाने..बगलें झाँकने के अलावा और कुछ ना कर पाए। व्यंग्यात्मक उपन्यास?..वो भी हरियाणा के एक छोरे की कलम से? बताओ..इससे बढ़ कर सोने पे सुहागा और भला इब के होवेगा? 

*जी..हाँ...वही हरियाणा..जित दूध दही का खाणा।

* वही हरियाणा, जहाँ बात बात में हास्य अपने खड़े और खरे अंदाज़ में कभी भी औचक..बिना किसी मंशा एवं बात के खामख्वाह टपक पड़ता है।

 दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ लेखक सुनील कुमार जी के उपन्यास "बावली बूच" की। बावली बूच माने मूर्ख या ऐसा  पागल जिसे दुनियादारी की खबर या समझ नहीं है। सच कहूँ तो मुझे इस बात की उम्मीद थी कि इस उपन्यास में हरियाणा की ठेठ शैली याने के लट्ठमार भाषा में एक से एक हाज़िरजवाबी से भरे ऐसे पंच होंगे जिनका मनोरंजन के अलावा कहानी से कोई खास लेना देना नहीं होगा। मगर मेरी आशा के ठीक विपरीत एवं एक सुखद आश्चर्य के रूप में इस उपन्यास में एक ऐसी कहानी का ताना बाना बुना गया है जो शुरुआती कुछ पृष्ठों के बाद ही भक्क से आपकी आँखें खोल...आपको संजीदा होने पर मजबूर कर देती है। 

इस उपन्यास में कहानी है एक ऐसे नायक की, जो अंत तक लड़ा याने के अंतक चौधरी। वो अंतक चौधरी, जिसे उसकी माँ ग्रैजुएशन के बाद भी तीन साल तक इस आस में घर बिठा के रखती है कि कुछ ले दे के ही सही, मगर अपने छोरे को सरकारी नौकरी में लगवा के ही मानेगी। भले ही वो सरकारी अस्पताल में जानवरों के डॉक्टर का कंपाउंडर बन,भैंसों की रंबाहट और उनके गोबर से लथपथ होता रहे। मगर होनी को भला कौन टाल सका है जो अंतक या उसकी माँ टाल जाती? अब उस बेचारी को भला क्या पता था कि उसका लाडला 'अंतक' एक दिन मीडिया जगत में अपने नाम का..तेल पिला लट्ठ गाड़ के रहेगा। 

जी...हाँ..दोस्तों, ये उपन्यास मीडिया जगत के अच्छे-बुरे..काले-सफ़ेद..धूसर-चटख चमकीले..हर रंग से हमें रूबरू करवाता है। एक ऐसा उपन्यास, जो एक तरफ मीडिया जगत की भीतरी पड़ताल कर..उसकी ढुलमुल करती..लचर पचर व्यवस्था एवं दिन पर दिन डांवाडोल हो..डगमगाती अर्थव्यवस्था की पोल खोलता है। तो वहीं दूसरी तरफ, टीवी चैनलों के भीतर रोज़ पनपती साजिशों..साहूलियतों एवं जायज़ नाजायज़ समझौतों से भरी कारगुजारियों को सामने लाता है। इसके साथ ही ये उपन्यास, आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते, छुटभैये चैनलों द्वारा दूसरे चैनल्स की खबरों को चोरी करने एवं उनके स्टॉफ में सेंध लगाने के जायज़ नाजायज़ कारणों एवं मंशाओं को उजागर करता है। 

एक ऐसा उपन्यास जो हमें बताता है कि किस तरह से दिवास्वप्न दिखा..आम मध्यमवर्गीय युवाओं को सुनहरे कैरियर के झांसा दे उनसे लाखों रुपया एक ही झटके में झट से झटक कर..फट से अपने काबू में कर लिया जाता है। इसके साथ ही ये हमें बताता है कि आपको, आपके काम के बारे में सही से मालूमात होने से भी ज़्यादा ज़रूरी है कि आपको तलवे चाटने की कला का सही एवं भरपूर मात्रा में उच्च स्तरीय ज्ञान हो। एक ऐसा उपन्यास जो बताता है कि उच्च प्रतियोगिता वाली सरकारी नौकरियों को भी आपसी सोहाद्र एवं लेन देन की परिभाषा से लैस गोटियों को सैट करने से आसानी से हासिल किया जा सकता है।

वैसे तो बहुत सी पंच लाइन्स एवं कोटेशन्स से भरा ये मनोरंजक उपन्यास शुरू से ही अपनी पकड़ बनाता हुआ चलता है लेकिन एक सजग पाठक की हैसियत से मुझे इसका अंत कुछ कुछ फिल्मी या फिर देखा भाला एवं धीमा लगा। क्लाइमैक्स में साक्षात्कार के बजाय कोई तगड़ा..जान जोखिम में डालने वाला..थ्रिलर टाइप स्टिंग ऑपरेशन होता तो और भी बेहतर होता। कुछ जगहों पर छोटी छोटी मात्रात्मक ग़लतियाँ दिखाई दी जिन्हें आसानी से दूर किया जा सकता था। उपन्यास की क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से मुझे इसके कवर पेज का डिज़ायन थोड़ा अँधेरे में डूबा डूबा सा लगा। इसे थोड़ा और चटख या चमकदार याने के आकर्षित करने वाला होना चाहिए था। 

इसके अलावा उपन्यास में ज़्यादा किरदार होने की वजह से काफ़ी देर तक कंफ्यूज़न बना रहा कि कौन सा किरदार, कौन सा काम या रोल कर रहा है? ऐसी स्थिति में अच्छा रहता कि उपन्यास के शुरू या अंत के भीतरी पन्नों पर किरदार के नाम और ओहदे के हिसाब से एक फ्लो चार्ट बना होता कि कौन सा किरदार..क्या काम कर रहा है और उसका दूसरे किरदार से रिश्ता या नाता क्या है। 

यूँ तो इस उपन्यास में जगह जगह हास्य अपने छोटे छोटे रूपों..स्वरूपों में इधर उधर बिखरा पड़ा है मगर इसमें फौजी बनाम पुलिस सैल्यूट का एक ऐसा दृश्य भी मेरी आँखों के सामने आया जिसने मुझ जैसे हास्य व्यंग्य लेखक को भी पढ़ना छुड़वा, इस कदर हँसने पर मजबूर कर दिया कि हँसते हँसते मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े। बधाई मित्र..इस ऊर्जा को बनाए रखें।

175 पृष्ठीय इस मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण के प्रकाशक हैं हिन्दयुग्म ब्लू और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

लिखी हुई इबारत- ज्योत्सना 'कपिल'

तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार, जिसमें कि आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत हो..माद्दा हो...की नपे तुले शब्दों में की गयी प्रभावी अभिव्यक्ति को लघुकथा कहते हैं। मोटे तौर पर अगर लघुकथा की बात करें तो लघुकथा से हमारा तात्पर्य एक ऐसी कहानी से है जिसमें सीमित मात्रा में चरित्र हों और जिसे एक बैठक में आराम से पढ़ा जा सके। आज लघुकथा का जिक्र इसलिए कि हाल ही में मुझे ज्योत्सना 'कपिल' जी का लघुकथा संग्रह "लिखी हुई इबारत" पढ़ने का मौका मिला। 

इस संग्रह में उनकी कुल 55 रचनाएँ हैं और इन्हें पढ़ कर आसानी से जाना जा सकता है कि ज्योत्सना जी के पास सहज मानवीय स्वभावों तथा संबंधों पर अच्छी जानकारी एवं पकड़ है। इसके अलावा वे अपने आसपास के माहौल से कहानियां एवं किरदार चुनने के मामले में पारखी नज़र रखती हैं। उनकी किसी रचना में अगर इस बात की तस्दीक होती दिखाई देती है कि प्रतियोगिता का असली मज़ा तभी आता है जब सामने खड़ा प्रतिद्वंद्वी भी उन्हीं की टक्कर का हो। तो वहीं उनकी कोई अन्य रचना बताती है कि माँ के लिए उसके बच्चे सदैव बच्चे ही रहते हैं जबकि बड़े होने पर उनके शौक एवं प्राथमिकताएं इस कदर बदल जाती हैं कि वे स्वयं बात बात पर अपने अभिभावकों का अपमान करने से भी नहीं चूकते हैं | 

इस संकलन की किसी रचना में नौकरी के दौरान शोषण, अपमान और बुरी नज़रें झेल रही पत्नी को पति द्वारा महज़ इसलिए चुप रहने के लिए कह दिया जाता है कि उसकी नौकरी की वजह से बच्चों की पढ़ाई, फ़्लैट तथा गाड़ी की किश्तें आराम से निकल रही हैं| तो कहीं किसी रचना में सरकारी अस्पतालों में हो रहे भ्रष्टाचार का जिक्र इस बात से किया गया है कि वहाँ पर नसबंदी के आपरेशन के दौरान धोखे से किसी मरीज़ की किडनी को निकाल लिया गया |

 कहीं किसी रचना में स्कूलों द्वारा बच्चों से प्रोजेक्ट के नाम पर बिना बात करवाए जाने वाले अनाप शनाप खर्चों के ऊपर गरीब माँ बाप की दुविधा एवं हताशा के हवाले से कटाक्ष किया गया है |

इस संकलन को पढ़ने के दौरान इसमें शामिल कई मुद्दों से रूबरू होना पड़ा जैसे...कहीं किसी बलत्कृत पीड़िता के विवाह को ले कर उत्पन्न होती दुविधा तो कहीं जुए में पत्नी को दांव पर लगाने की बात है। कहीं एसिड अटैक की घटना के माध्यम से इस बात की पुष्टि होती है कि कभी ना कभी घूम फिर कर हमारे गुनाह... हमारे बुरे कर्म..हमारे सामने आ ही जाते हैं। कहीं किसी रचना में विपदा के वक्त एक भाई दिग्भ्रमित तो होता है मगर जल्द ही चेत जाता है। कहीं किसी रचना में इनसान की धोखे वाली प्रवृत्ति पर जानवरों के माध्यम से कटाक्ष किया गया है। 

कहीं किसी रचना में जवान बच्चों पर अपनी मर्ज़ी थोपने से उत्पन्न होने वाले बुरे नतीजों के प्रति आगाह किया गया है तो कहीं किसी रचना में आधे अधूरे बाल श्रम उन्मूलन कानूनों के उलटे पड़ते नतीजों पर भी अपनी बात रखी गयी है। कहीं राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों में होती धांधली की बात है तो कहीं किसी रचना में देश की सुरक्षा का दुश्मन से सौदा करता पति दिखाई देता है। कहीं फूलों के माध्यम से पात्र कुपात्र की बात है तो कहीं नाम कमाने की अँधी होड़ और कीमत पर अपने घर परिवार की इज़्ज़त आबरू को तार तार हो..होम होते हुए दिखाया गया है। कहीं किसी वेश्या के त्याग से किसी संभ्रांत घर की इज़्ज़त बचाने की बात है तो कहीं इसमें स्वाभिमान के नाम पर अपने तय हो चुके रिश्ते को तोड़ती युवती की बात है। कहीं सज्जन कुसज्जन को ले कर होते मतिभ्रम का जिक्र है तो कहीं इसमें पैसा..शोहरत..नाम के मिल जाने के बाद रंग बदलने की बात है।

 कहीं इसमें सपनों के बनने और फिर टूटने की बात है तो कहीं इसमें पुरुषत्व के ज़रिए सज्जन दिखने वाले कुसज्जनों की ओछी हरकतें हैं। कहीं इसमें पैसा देख रंग और नज़रिया बदलते पति की बात है तो कहीं इसमें सही को ग़लत समझने की बात है। कहीं इसमें राखी जैसे पवित्र बन्धन में लेन देन को ले कर उपजते घाटे नफ़े की बात है तो कहीं इसमें गर्भवती हो सबकी निंदा सहती विक्षिप्त कामवाली को ले कर चुगली करने वाली को उसका अपना पति ही अकेले में..उसी विक्षिप्ता को रौंदता दिखाई देता है। 
 
कहीं अपने ब्याह का अरमान ले फौज से ड्यूटी कर लौटता युवक, घर पहुँचने पर अपनी चाहत को अपने ही विधुर पिता की पत्नी बने देखता है तो कहीं इसमें रद्दी के भाव बिकते साहित्य और साहित्यकारों की दुर्दशा के प्रति उदासीन होते समाज पर भी कटाक्ष किया गया है। कहीं किसी रचना में मज़ाक मज़ाक में किए जाने वाले मजाकों से उत्पन्न होने वाले नतीजों के प्रति भी आगाह किया गया है तो कहीं इसमें जन्नत और हूरों के मोह में मतिभ्रष्ट होते युवाओं को आईना दिखाने की भी बात है।

कहीं इसमें पैसों और सुख सुविधा के नाम पर पहले से विवाहित अमीरज़ादों के मोहपाश में जवान लड़कियाँ फँस तो जाती हैं मगर उनका भ्रम तब जा के टूटता है जब उनसे पहले वे अपने निजी परिवार को ज़्यादा तरजीह देते दिखाई देते हैं। 

यूँ तो सभी रचनाएं एक से एक महत्तवपूर्ण एवं ज्वलंत मुद्दों को समेटे हुए हैं और अपने कथाक्रम तथा रचनात्मक दृष्टि से भी उम्दा हैं मगर एक दो लघुकथाएं मुझे थोड़ा सा अनावश्यक विस्तार या फिर कोई कमी लिए हुए दिखी मसलन... एक लघुकथा ‘आइना’ शीर्षक से है जिसकी अंतिम पंक्ति का एक किरदार द्वारा कहा जाना ज़रूरी नहीं था| रचना उससे पहले ही अपना मंतव्य पूर्ण रूप से स्पष्ट कर चुकी थी| इसी तरह का एक और उदाहरण है ‘भगवान् या भूख’ नामक रचना जिसमें एक महिला किरदार अपने घर से मंदिर, भगवान को दूध पिलाने जाने के लिए निकलती है तो उसे दरवाज़े पर एक भिखारी, भिक्षा की याचना करता हुआ दिखाई देता है| जिसे वह दुत्कार कर लंबी लाइन लगे मंदिर में भगवान् के दर्शन करने चली जाती है| वहाँ भगवान् के आगे उसे अपनी ग़लती का एहसास होता है तो पछताती हुई वह मंदिर से बाहर निकलती है। बाहर निकलते ही उसे वही भिखारी, वहीं पर उसका इंतज़ार करते हुए मिलता है| अब सवाल यह उठता है कि कोई भिखारी दुत्कार दिए जाने के बावजूद घंटों तक सिर्फ एक भिक्षा के लिए कैसे किसी का और क्यों इंतज़ार करेगा? दूसरी त्रुटी इसी रचना में यह दिखाई दी कि भिखारी सिर्फ उसी से भिक्षा हेतु याचना करने के लिए उसके घर से मंदिर तक क्यों आया? या फिर तीसरी त्रुटि में यह भी हो सकता है कि उस भिखारी में साक्षात भगवान विद्यमान हों और उसकी परीक्षा ले रहे हों। अगर ऐसा है तो इस बात को स्पष्ट रूप से इंगित किया जाना जरूरी बनता है। कुछ भी कहें इस रचना में थोड़ा झोल झाल है जिसे सही से दुरस्त करने की ज़रूरत है| 

अब क़ाबिल ए गौर बात ये कि बढ़िया...धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस संकलन की सभी रचनाओं में कुछ ना कुछ गौर करने लायक बात है मगर फिर भी कुछ चुनिंदा  रचनाएं मुझे बहुत बढ़िया लगी | जिनके नाम इस प्रकार हैं: 

• चुनौती
• कब तक?
• मुफ़्त शिविर
• किस और?
• वंश
• विडम्बना
• खिसियानी बिल्ली 
• खाली हाथ
• प्रेम की बंद गली 
• स्वाभिमान
• मासूम कौन 
• कृष्ण चरित
• आशा की किरण
• नज़रिया
• हिसाब 
• हरे काँच की चूड़ियाँ
• भयाक्रांत
• चार दिन की...
• अहसास
• काश, मैं रुक जाता 
• स्टिंग ऑपरेशन 

यूँ तो यह संकलन मुझे उपहारस्वरूप मिला फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की उम्दा क्वालिटी के इस लघुकथा संग्रह के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है अयन प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। किताब की हर बड़े छोटे तक पहुँच और आम पाठक की जेब तथा उसके बजट को देखते हुए ये ज़रूरी हो जाता है कि हार्ड बाउंड संस्करण के अतिरिक किताबों के पेपरबैक संस्करण भी निकाले जाने चाहिए। आने वाले सुखद एवं उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

जनता स्टोर- नवीन चौधरी

ये उस वक्त की बात है जब दसवीं पास करने के बाद कई राज्यों में ग्यारहवीं के लिए सीधे कॉलेज में एडमिशन लेना होता था। दसवीं पास करने के बाद जब गौहाटी (गुवाहाटी) के गौहाटी कॉमर्स कॉलेज में मेरा एडमिशन हुआ तो वहीं पहली बार छात्र राजनीति से दबंग स्वरूप से मेरा परिचय हुआ। एक तरफ़ कनात नुमा तंबू  में माइक पर मैरिट के हिसाब से एडमिशन पाने के इच्छुक उन बच्चों के नाम एनाउंस हो रहे थे जिनका एडमिशन होने जा रहा था। साथ ही साथ उन्हें उसी तंबू में एक तरफ़ टेबल कुर्सी लगा कर बैठे क्लर्कों के पास फीस जमा करने के लिए भेजा जा रहा था । फीस भरने के बाद साथ की ही टेबल पर, तमाम सिक्योरिटी एवं कॉलेज  स्टॉफ के होते हुए भी, दबंगई के दम पर स्टूडेंट्स यूनियन के लिए जबरन चंदा लिया जा रहा था।

खैर..छात्र राजनीति से जुड़ा यह संस्मरण यहाँ इसलिए कि आज मैं छात्र राजनीति से ओतप्रोत एक ऐसे ज़बरदस्त उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'जनता स्टोर' के नाम से लिखा है नवीन चौधरी ने।

राजस्थान की राजधानी जयपुर के इर्दगिर्द घूमते इस उपन्यास मे कहानी है वहाँ के राजपूतों..जाटों और ब्राह्मणों के उस तबके की जो खुद को दूसरों से ऊपर..उम्दा..बड़ा और बहादुर समझता है। इनके अलावा एक और तबका ब्राह्मणों का भी है जो इन दोनों से ही खार खाता है। 

इस उपन्यास में कॉलेज में एडमिशन के वक्त से शुरू हुई झड़प कब बढ़ कर एक बड़ी लड़ाई में तब्दील हो जाती है..पता ही नहीं चलता। इसमें कहीं मयूर, दुष्यंत, प्रताप के साथ साथ उपन्यास के सूत्रधार के बीच स्कूली नोकझोंक के शुरुआती किस्से नज़र आते हैं जो समय के साथ अब ऐसी प्रगाढ़ दोस्ती में बदल चुके हैं कि सब  एक दूसरे की खातिर मरने मारने को तैयार रहते हैं। कहीं इस उपन्यास में फ्लर्टिंग और शरारत से भरा रोमानी रोमांस दिखाई देता है। तो कहीं भीतर ही भीतर जलन के मारे बरसों पुरानी दोस्ती भी टूटने की कगार पर खड़ी दिखाई देती है। 

कहीं इस उपन्यास में नकली मार्कशीट्स और एडमिशन फॉर्म्स में हेराफेरी के बल पर एडमिशन स्कैम होता नज़र आता है। तो कहीं फ़र्ज़ी तरीके से जाली स्पोर्ट्स और जाति सर्टिफिकेट बनते दिखाई देते हैं। कहीं विरोधी गुट के हाथ पैर तोड़ने को आमादा लट्ठ लिए तैयार खड़ा दबंग छात्रों का दूसरा गुट नज़र आता है। तो कहीं इस उपन्यास में ग्लैमर का रूप धारण कर चुका अपराध अपने चरम पर परचम लहराता दिखाई देता है।

कही इस उपन्यास में संविधान से ज़्यादा ज़रूरी अपने जातिगत वोट बैंक को समझने वाले स्वार्थी राजनीतिज्ञ नज़र आते हैं। तो कहीं बिगड़ैल छात्रों और अपराधियों को अपनी छत्रछाया में पालपोस कर पोषित करती राजनैतिक पार्टियां नज़र आती हैं। 

कहीं इस उपन्यास में ज्वलंत मुद्दे को नुक्कड़ नाटक के ज़रिए कोई भुनाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अपनी सारी मेहनत को वोटों में बदलने को आतुर नज़र आता है। कहीं छात्रसंघ चुनावों के दौरान भावी विजेता के सामने डम्मी उम्मीदवार खड़ा कर उसके वोट काटे जाते दिखाई देतें हैं। तो कहीं कोई अपने ही साथियों के भीतरघात से त्रस्त नज़र आता है। कहीं चुनावी उठापटक के बीच मज़े लेने को आतुर छात्र दोतरफ़ा समर्थन देते दिखाई देते हैं। तो कहीं कोई दूसरे की मेहनत..प्लानिंग को धता बता सारी मलाई खुद हज़म करता नज़र आता है। 

कहीं जबरन धमका कर प्रत्याशी बिठाए जाते दिखाई देते हैं। तो कहीं इस उपन्यास में कोई राजनैतिक पार्टी अपनी ही पार्टी के गले की हड्डी बन चुके साथी से त्रस्त नज़र आती है। कहीं राजनैतिक आंदोलनों में कोई बरगला दिया गया मासूम, जोश जोश में खुद मर कर नेताओं का गिद्ध भोजन बनता दिखाई देता है। 

इस उपन्यास में कहीं राजपूतों की शान दिखाई देती है तो कहीं जाटों की अकड़। कहीं इसमें शहर का ब्राह्मण वर्ग अपनी अलग गुटबंदी करता नज़र आता है तो कहीं इसमें आपसी जंग जीतने को सब धर्म और जाति के मुद्दों पर अलग अलग खेमों में बंटे नज़र आते हैं।

कहीं इसमें राजनैतिक गलियारे में पैठ रखने वाला पत्रकार नज़र आता है तो कहीं नेताओं के इशारे में चक्करघिन्नी बन नाचती पुलिस दिखाई देती है। कहीं इसमें पुलिश की बर्बरता और टॉर्चर नज़र आता है तो कहीं उनका छात्रों के प्रति मित्रवत रवैया। कहीं पद.. कुर्सी की लालसा में कोई अति विश्वासी भी विश्वासघात कर दूसरे की पीठ में छुरा घोंपता नज़र आता है। तो कहीं इसमें अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते छात्र नेता साम..दाम..दण्ड.. भेद अपना अपना उल्लू सीधा करते नज़र आते हैं। कहीं घाघ मुख्यमंत्री अपना फन फैलाए डसने को तैयार दिखता है। तो कहीं शातिर गृहमंत्री अपनी गोटियाँ सेट करता दिखाई देता है। 

इस तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास में हर कोई अपनी समझ के हिसाब से इस प्रकार अपनी चाल चल रहा है कि आप अंदाजा लगाते रह जाते हैं कि किसके पीछे कौन..किसके ख़िलाफ़..उसका अपना बन, कैसी चाल चल रहा है? 

कदम कदम पर चौंकाने वाले इस  बेहद रोचक और रोमांचक उपन्यास को मैंने किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्रिप्शन से पढ़ा। इसके 207 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल प्रकाशन ने और इसका मूल्य 199/- रुपए है जो कि कंटैंट के हिसाब से बहुत ही जायज़ है। यह उपन्यास फिलहाल अमेज़न पर 185/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

मल्लिका- मनीषा कुलश्रेष्ठ

कुछ किताबें पहले से पढ़ी होने के बावजूद भी आपकी स्मृति से विलुप्त नहीं हो पाती। वे कहीं ना कहीं आपके अंतर्मन में अपनी पैठ..अपना वजूद बनाए रखती हैं। आज एक ऐसे ही उपन्यास का जिक्र जिसे मैंने वैसे तो कुछ साल पहले पढ़ा था लेकिन मन करता है कि इसका जिक्र बार बार होता रहे। दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ मनीषा कुलश्रेष्ठ जी के उपन्यास 'मल्लिका' की। हिंदी कथा क्षेत्र में इनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। यह उपन्यास पाठक को एक अलग ही दुनिया में.. एक अलग ही माहौल में अपने साथ.. अपनी ही रौ में बहाए लिए चलता है।

इस उपन्यास की कहानी में उन्होंने हिंदी सेवी भारतेन्दु हरिचंद जी तथा उनकी प्रेयसी मल्लिका की प्रेम कहानी को आधार बना तथ्यों तथा कल्पना के संगम से भरपूर एक विश्वसनीय गल्प रचा है। सारगर्भित शैली में लिखे गए  इस उपन्यास में कहीं-कहीं ऐसा भी भान होता है कि उन्होंने 'देवदास' और 'परिणीता' जैसी बड़े कैनवास की बंगाली कलेवर वाली फिल्मों के माफिक ही कहानी को अपने हुनर एवं परिश्रम से रच दिया है।

हमेशा की तरह इस बार भी उनकी लेखनी आपको विस्मृत कर अपने सम्मोहन के जाल में शनै शनै लपेट लेती है और आप उसी के होते हुए एक तरह से छटपटाते रहते है जब तक कि आप उपन्यास को पूरा पढ़ कर समाप्त नहीं कर देते। 

पश्चिम बंगाल और काशी के माहौल में रचे बसे इस उपन्यास में मल्लिका तथा भारतेंदु हरिचन्द के प्रेम तथा साहित्यिक सफर की यात्रा को बहुत ही प्रभावी ढंग से अपने पाठकों के समक्ष रखा है। इस बात में को शक नहीं कि उनकी लिखी एक एक बात में, एक एक विवरण में तथा बांग्ला उच्चारण के पीछे इस हद तक उनका शोध किया गया है कि आने वाली पीढ़ियाँ इसे ही संपूर्ण सच समझ बैठें, कोई आश्चर्य नहीं।

राजपाल एंड संस द्वारा प्रकाशित इस 160 पेज के उपन्यास के पेपरबैक संस्करण का मूल्य ₹235/-  है जो कि कंटैंट और क्वालिटी के बढ़िया होने की वजह से थोड़ा महँगा होते हुए भी अखरता नहीं है।

दिल है छोटा सा- रणविजय

जहाँ एक तरफ कुछ कहानियों को पढ़ते वक्त हम उसके किरदारों से भावनात्मक तौर पर खुद को इस तरह जोड़ लेते हैं कि उसके सुख..उसकी खुशी को अपना समझ खुद भी चैन और सुकून से भर उठते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ कुछ कहानियॉ मन को उद्वेलित करते हुए हमें इस कदर भीतर तक छू जाती हैं कि हम किरदार की पीड़ा..उसके दुःख दर्द को अपना समझ..उसी की तरह चिंतायुक्त हो..उसी बारे में सोचने को मजबूर होने लगते हैं। 

अमूमन एक किताब में एक ही कलेवर की रचनाएँ पायी जाती हैं लेकिन कई बार एक ही पैकेज में कई कई रंग जैसी ऑफर्स भी तो मिलती ही हैं ना? ऐसा ही पैकेज मुझे इस बार मिला जब एक ही किताब में अलग अलग कलेवर की कहानियाँ पढ़ने को मिली।

दोस्तों... आज मैं बात कर रहा हूँ लेखक रणविजय जी के कहानी संग्रह "दिल है छोटा सा" की। यतार्थ के धरातल पर मज़बूती से खड़ी हुई इनकी रचनाएँ अपनी अलग पहचान दर्ज करवाने में पूरी तरह सक्षम हैं।। इस संकलन की पहली कहानी थोड़ी कॉम्प्लिकेटेड याने के जटिल प्रेम कहानी है जिसमें एक युवक, अपना विवाह तय हो जाने के बावजूद किसी और युवती के आकर्षण(प्रेम नहीं) में बँध, उसे पाना चाहता है। उधर युवती भी किसी और के साथ पहले से ही अंगेज्ड होने के बावकूद उससे प्यार करने लगती है और उससे भी प्रेम में संपूर्ण समर्पण चाहती है मगर युवक क्या ऐसा करने की हिम्मत कर पाता है? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी है इंजीनियरिंग कर रही अमनदीप और शिशिर की दोस्ती के बीच लगातार टाँग अड़ाते दिलफेंक..लंपट प्रोफ़ेसर विक्रांत की। जिसमें एक की ज़िद और दूसरे की  हताशा ऐसी कुंठा और अवसाद को जन्म देती है कि सिवाय बदनामी के किसी के हाथ कुछ नहीं आता। नतीजन तीन ज़िंदगियाँ शहर से दरबदर हो, बरबाद हो जाती हैं।

"मजबूरी जो ना कराए..अच्छा है।" इस बात की तस्दीक करती अगली कहानी है बेरोज़गारी की मार झेलते युवा दंपत्ति रामजीत और श्यामा की। जिन पर एहसान कर उनका एक पुराना परिचित, किशन, उसे नौकरी तो दिलवा देता है मगर एहसान भी आजकल भला कहाँ निस्वार्थ भाव से किए जाते हैं?

इससे अगली कहानी है 42 वर्षीय शादीशुदा वरिष्ठ अधिकारी अरविंद और उनसे पार्क में सैर के दौरान मिली विनीता के बीच शनै शनै पनपते प्रेम और लगाव भरे सफ़र की जिसे एक खूबसूरत मोड़ पर किसी और जन्म के लिए फिलहाल अधूरा छोड़ दिया जाता है। 

इसी संकलन की अन्य कहानी है गांव में रहने वाले दो भाइयों केदारनाथ और बदरीनाथ की। बड़े भाई बदरी के लालच के चलते पक्षपातपूर्ण बंटवारा हो जाने के बावजूद भी उसे छोटे भाई की मेहनत और किस्मत से अर्जित हुई संपन्नता देख कर चैन नहीं है। जलन इस हद तक बढ़ जाती है कि हताशा के मारे कुएँ में छलांग लगा उसे आत्महत्या का प्रयास करना पड़ता है। 

अगली कहानी है जेपी एसोसिएट्स नामक हाइवे निर्माण कंपनी में बतौर प्रोजेक्ट मैनेजर कार्यरत तेजस मिश्रा और नयी नयी पोस्टिंग हो कर उस इलाके में आयी एसडीएम मानसी गुप्ता की है।  जिसके पास एक ज़रूरी काम निकलवाने के तेजस का जाना बेहद ज़रूरी है। उस पढ़ाई में औसत मानसी गुप्ता के पास जो कभी उससे बेहद प्रेम करती थी मगर उसने, उसका दिल तोड़ते हुए उसे साफ़ इनकार कर दिया था। अब उसकी समृद्धि.. उसकी शान और रुआब से प्रभावित हो, वो उसे फिर से पाने..अपनाने के मंसूबे बाँधने की सोचने लगता है मगर गया वक्त क्या कभी लौट के आता है? 

अगली कहानी है गरीबी...अभाव...शोषण और बुरे हालातों में जी रहे बदलू और किसुली की। वहाँ उनके साथ ऐसा क्या होता है कि अपने उज्ज्वल भविष्य के सपने को देख उनकी आंखें खुशी से चमक उठती हैं। 

जैसा कि मैंने पहले कहा कि इस एक संकलन में आप कई कई रंगों से वाबस्ता होंगे तो कहीं इसमें प्यार की मद भरी  रोमानी बातें हैं तो कहीं दुख..ग़रीबी..कटुता एवं बेरोज़गारी की मार झेलते लोग भी। कहीं इसमें विवाहेतर संबंधों की बातें हैं तो कहीं इसमें भाइयों की आपसी फूट..जलन और लालच भी है। कहीं इसमें खुद श्रधेय तो दूसरे को हेय समझने की मानसिकता है। कहीं इसमें इस किताब में कहीं कोई ऊँचे बोल बोल, हवा हवाई बातों से अपनी हवा बनाते दिखता है तो कहीं ठग..लंपट मौका देख, अपने रंग दिखाने से नहीं चूकता है। 

एक आध जगह कुछ छोटी छोटी मात्रात्मक ग़लतियाँ दिखाई दी। इसके अलावा मुखर्जी नगर का जिक्र आने पर एक जगह "वाजीराम एकैडमी" लिखा दिखाई दिया जबकि असलियत में वह "वाजीराव अकैडमी" है। 

सच कहुँ तो रणविजय जी के लेखन को पढ़ कर अफ़सोस हुआ कि..जनाब..इतना बढ़िया हुनर ले कर अब तक आप कहाँ खोए रहे? मानवीय स्वभाव एवं अपने आसपास के माहौल को देखने..समझने और परखने का उनका ऑब्जर्वेशन बहुत बढ़िया है।

यूँ तो यह कहानी संकलन बतौर उपहार मुझे लेखक से मिला लेकिन अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस 160 पृष्ठीय उम्दा कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 150/- रुपए जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

गीली पाँक- उषाकिरण खान

कई बार बड़े नाम..बड़े कैनवस वाली फिल्में भी अपने भीतर तमाम ज़रूरी..गैरज़रूरी मसालों के सही अनुपात में मौजूद होने के बावजूद भी महज़ इस वजह से बॉक्सऑफिस पर औंधे मुँह धराशायी हो ..धड़ाम गिर पड़ती हैं कि उनकी एडिटिंग..याने के संपादन सही से नहीं किया गया। मगर फ़ौरी तौर पर इसका खामियाज़ा इसे बनाने वालों या इनमें काम करने वालों के बजाय उन अतिउत्साही दर्शकों को उठाना पड़ता है जिन्होंने बड़ा नाम या बैनर देख कर अपने हज़ारों..लाखों रुपए, जो कुल मिला कर करोड़ों की गिनती में बैठते हैं, उस कमज़ोर फ़िल्म पर पूज या वार दिए। कमोबेश ऐसा ही कुछ कई बार किताबों के साथ भी होता है जिनमें लेखक के बड़े नाम के साथ साथ उनका कंटैंट भी एकदम बढ़िया होता है मगर...

हिंदी पट्टी में एक तय प्रोसीजर या रूटीन के तहत होता यह है कि लेखक अपने हिसाब से एकदम सही सही लिख कर उसे पांडुलिपि के रूप में प्रकाशक को भेज देता है। उसके बाद  प्रकाशक उसे किताब की सॉफ्टकॉपी के रूप में ढाल पुनः लेखक/लेखिका के पास प्रूफरीडिंग या फाइनल चैकिंग के लिए पीडीएफ कॉपी के रूप में भेज देता है। लेखक के एप्रूव करने के बाद किताब फाइनली छपने के लिए जाती है। ऐसे में किताब में छपने के बाद कमियां निकल आने पर सवाल उठता है कि इस कोताही या ग़लती का ठीकरा लेखक या प्रकाशक.. किसके सर? 

खैर..ये सब बातें तो फिर कभी। फिलहाल दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित लेखिका उषाकिरण खान जी के कहानी संकलन 'गीली पाँक' की। विशिष्ट भाषा शैली और कथ्य को ले कर लिखी गयी इस संकलन की कहानियाँ कभी चौंकाती हैं तो कभी विस्मित करती हैं।  इन कहानियों में कहीं पुरातत्ववेत्ता अजय विश्वास के यहाँ दैनिक मज़दूरी की एवज में खुदाई कर रहा अनपढ़..गंवार हनीफ नज़र आता है जो काम करते करते कई ऐतिहासिक तथ्यों एवं शब्दावलियों का अच्छा जानकार हो गया है। वह हनीफ, जिसे खूबसूरत.. गोरी चिट्टी जैनब से ब्याह करना है। मगर ब्याह से पहले उसे जैनब के लिए एक अदद घर और चंद गहने भी चाहिए जिनका जुगाड़ उसकी दैनिक मज़दूरी से कतई संभव नहीं। 

ऐसे में खुदाई से सही सलामत..साबुत निकलने वाली कीमती मूर्तियों को ज़्यादा पैसों के लालच में बाहर बेचने के चक्कर में वह डॉ. विश्वास से विश्वासघात तो कर बैठता है मगर...

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में चिता पर लेटी माँ को शमशान ले जाने की तैयारी में जुटे परिवार के बीच फ्लैशबैक के ज़रिए पुरानी यादों..पुरानी बातों को फिर से जिया जा रहा है। जिसमें इस घर में माँ के ब्याह कर आने से ले कर अब तक के समय को याद किया गया है।

कहीं इस कहानी में ताने मारते रिश्तेदार नज़र आते हैं तो कहीं बढ़ती उम्र के साथ भूलने की बीमारी से ग्रस्त हो रही माँ। कहीं इसमें मध्यमवर्गीय पिता की बेटियों के ब्याह को ले कर चिंता दिखाई देती है तो कहीं इसमें बेमेल रिश्ते के बाद नखरीले पति के पत्नी को त्यागने की बात नज़र आती है। कहीं इन्हीं सब बातों से व्यथित पत्नी की मनोदशा परिलक्षित होती है। 

भूत और वर्तमान के बीच डोलती गांव देहात की एक अन्य कहानी में बातें हैं उस गोरी छरहरी सगुनी की जिसने पहले पति के रूखेपन और सास के तानों के बीच पेट में ही बच्चा खो दिया था। इस बातें है उस सगुनी की, जिसका पति द्वारा त्यागने के बाद फिर से ब्याह किया तो गया मगर चालाक भाभी के चलते वो, वहाँ भी बस ना पायी।

इसमें बातें हैं स्नेहमयी माँ और प्यारे भाई भाभी के साथ घर में रह ईंट भट्ठे की नौकरी कर रही उस सगुनी की, जिसके मधुर स्मृति स्वरूप किन्हीं खूबसूरत क्षणों में अपने मालिक के शहर में रह कर वकालत की पढ़ाई कर रहे बेटे, करन से संबंध बन जाते हैं जो प्रौढ़ावस्था में भी उसकी यादों में बने रहते हैं।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में सरकारी दफ़्तर के राजभाषा विभाग में काम कर रही 35 वर्षीया कामिनी की उसके छात्रावास से अचानक निकाल दिया जाता है तो दोस्तों की मदद से उसे कुछ ही महीनों बाद रिटायर होने वाले पिता समान भाई जी के यहाँ शरणस्थली मिलती है तो वह भी दिल से उन्हें अपना मान लेती है।

गांव देहात से जुड़ी इस संकलन की कहानियों में कहीं बाढ़ की विभीषिका के बीच मंगल बहु और देवी माँ फँस जाती हैं। तो कहीं किसी अन्य कहानी में दूरदराज के इलाके में बतौर ओवरसियर नियुक्ति पर पहली नौकरी के दौरान आया युवक बाढ़ से जलमग्न हुए गाँव से खुद पलायन करने के बजाय गाँव वालों की मदद करने का निर्णय लेता है और इस चक्कर में सबको गाँव से सुरक्षित बाहर निकलने के प्रयास में अंत में खुद गाँव की ही एक युवती अड़हुल के साथ अकेला बच जाता है। अड़हुल के साथ उस रात पनपे शारिरिक संबंध के बाद भावुक हो वह उसी के साथ जीने मरने की बातें सोचने लगता है। मगर होनी में तो कुछ और ही लिखा है।

इसी संकलन की राजनीतिक उठापटक से जूझती एक अन्य एक कहानी में चुनाव हारने के बाद हमेशा हमेशा के लिए राजनीति छोड़ वापिस जा रही नेत्री की ट्रेन के सफ़र के दौरान संयोग से जिस सहयात्री से मुलाकात होती है, वह राजनीति में उसका वरिष्ठ होने के साथ साथ उसका घुर विरोधी भी है। कहानी अपने सफ़र के दौरान अंग्रेजों के दमन चक्र से ले कर अंधे प्रेम, विश्वासघात, छल, प्रपंच इत्यादि गलियारों से होती हुई घूस, भ्र्ष्टाचार वगैरह के प्लेटफॉर्म याने के पड़ावों पर रुक कर अंततः अपने मुकाम तक पहुँचती है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में पंचायत के समक्ष शहर से गाँव आ कर बसे सुंदर बाबू के ग़लत चालचलन का मुक़दमा आता है। जिसमें बतौर गवाह रूकिया का नाम है। क्या रूकिया दबंगों के डर से उस सज्जन पुरुष सुंदर बाबू के ख़िलाफ़ गवाही दे देगी, जिनके उसके तथा गाँव वालों के ऊपर पहले से ही बड़े एहसान हैं? 

कुछ कहानियों में स्थानीय/क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का इस्तेमाल जहाँ एक तरफ़ कहानी को खूबसूरती प्रदान करता है तो वहीं दूसरी तरफ़ उस भाषा को ना जानने वालों को इससे दुविधा भी होती है। बेहतर यही होता कि ऐसे शब्दों या वाक्यों के हिंदी अनुवाद भी साथ में ही दिए जाते।

बहुत से शब्द टाइप करते वक्त फ्लो में गलत टाइप हो जाते हैं जिन्हें प्रूफरीडिंग के समय सुधारा जाना बेहद ज़रूरी होता है। मगर इस कहानी संकलन में इस तरह की अनेकों ग़लतियाँ दिखाई दी जिनमें छपना कुछ चाहिए था मगर छप कुछ गया। उदाहरण के तौर पर.. 

•पेज नंबर 17 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"तक तो वह नहीं पहनती है, फिर कौन सी पहनूँ?"

इसे इस तरह होना चाहिए था..

"तब तो वह नहीं पहननी है, फिर कौन सी पहनूँ?"

*इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

"अच्दा? हम छुट्टी में तो गए ही नहीं? अबूझ सी कह उठती।

यहाँ 'अच्दा?' की जगह 'अच्छा?' होना चाहिए था। मेरे हिसाब से 'अच्दा' कोई शब्द नहीं है।

*इसी तरह पेज नंबर 20 पर लिखा दिखाई दिया कि..

*"अम्मा बताती थी कि जब उन्होंने घर में कदम रखा तो इतने सारे काले लोगों को एक साथ कर हुई थी।" 

यह वाक्य अधूरा छपा है इसलिए अपनी बात को सही से ज़ाहिर नहीं कर पा रहा है। इसे इस प्रकार होना चाहिए...

"अम्मा बताती थी कि जब उन्होंने घर में कदम रखा तो इतने सारे काले लोगों को एक साथ देख कर हैरान हुई थी।"

*इसके आगे पेज नंबर 21 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"पिता 'डीच ऑफ ट्रस्ट'का केस लड़ रहे थे।"

जबकि यहाँ होना चाहिए था कि..'ब्रीच ऑफ ट्रस्ट' का केस लड़ रहे थे।' याने के विश्वासघात का केस लड़ रहे थे।

*और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 26 पर एक जगह बिना किसी जरूरत पूरा का पूरा एक वाक्य फिर से रिपीट होता दिखा।

*इसी तरह पेज नंबर 30 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अम्मा को खूब समझाया था "मैं तो छोटी डॉक्टर हूँ जिसने बाबूजी तुम्हें दिखवा रहे हैं वह सब मेरे टीचर रह चुके हैं।"

यहाँ 'जिसने बाबूजी तुम्हें दिखवा रहे हैं' के बजाय 'जिनसे बाबूजी तुम्हें दिखवा रहे हैं' होना चाहिए।

*इसके अतिरिक्त पेज नम्बर 40 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'शून्य आकाश में रही।'

इस वाक्य को कहानी के हिसाब से इस तरह होना चाहिए था कि..

'शून्य आकाश में तकती रही।'

*इसके अतिरिक्त पेज नंबर 90 पर लिखा दिखाई दिया कि..

" विगत दस वर्ष  बेतरह व्यस्त थी। अब कुछ दिन या फिर चाहूं तो आजीवन मुक्त निबंध हूं।"

यहाँ 'अब कुछ दिन या फिर चाहूँ तो..' की जगह 'यहाँ 'अब कुछ दिन या फिर कहूँ तो..' आना चाहिए। 

*इसी तरह पेज नंबर 93 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"नहीं दीदी, मैं सब कुछ समय गई हूं। कुछ बाकी नहीं समझना।"

यह वाक्य भी सही नहीं बना। इसे इस प्रकार होना चाहिए।

"नहीं दीदी, मैं सब कुछ समझ गयी हूँ।"

*पेज नंबर 95 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"युवा क्रांतिकारी की सारी भंगिमाएँ मुझे मोहक लगतीं। में स्थित आंखों से सोमेंद्र की ओर ताकती रहती।"

यहाँ 'स्थित आँखों से सोमेंद्र की ओर ताकती रहती ' के बजाय 'स्थिर आँखों से सोमेंद्र की ओर ताकती रहती' आएगा।'

*पेज नंबर 100 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"केतली में पानी खैलने लगा।"

यहाँ होना चाहिए कि 'केतली में पानी खौलने लगा।'

इसके आगे इसी पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

"क्यों ऐसे क्यों खड़ी हो चंपा, मुझ पर क्रोश है क्या?"

यह वाक्य भी सही से नहीं बना। इसे इस प्रकार होना चाहिए..

"क्यों ऐसे खड़ी हो चंपा? मुझ पर क्रोध है क्या?"


*पेज नंबर 110 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"मैं उदास हूँ अवश्य पर सोचने की क्षमा रखती हूँ।"

यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था.."मैं उदास अवश्य हूँ पर सोचने की क्षमता रखती हूँ।"

*पेज नंबर 120 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"अस्पताल नाम मात्र का था। न पक्की छत, न दीवारें। कोई ऐवरेटस भी नहीं।"

यहाँ 'ऐवरेटस" का मतलब मुझे समझ में नहीं आया। हाँ.. अगर यह 'एस्बेस्टस' शब्द अर्थात सीमेंट की चद्दर है तो फिर भी वाक्य के हिसाब से इसका मतलब बन सकता है।

*पेज नंबर 123 की अंतिम पंक्ति से चल कर अगले पेज की शुरुआती पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

"ओस की बूंद से प्याज बुझाई जा रही है।"

जबकि यहाँ वाक्य का मंतव्य प्यास बुझाने से है।

*एक आध जगह कहानी के किरदारों के साथ भाषा मैच नहीं हुई जैसे कि पेज नंबर 74 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"अब ज्यादा लेक्चर न झाड़ो। चुपचाप बैठी रहा। सुबह होने में देर नहीं है।" 

कहानी के माहौल के हिसाब से यह गांव की अनपढ़ औरतों के बीच संवाद चल रहा है। इस हिसाब से यहाँ 'लेक्चर' जैसे अंग्रेज़ी शब्द का इस्तेमाल सही नहीं है।

काफ़ी जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियाँ दिखाई दी जैसे...

*सोतची- सोचती
*पहल- पहन
*निवाज- रिवाज़
*उम्मा- अम्मा
*काई- कोई
*नाराजगी- नाराज़गी
*मुसकराता- मुस्कुराता
*बलवाया- बुलवाया
*हपने- पहने
*शक्द- शब्द
*हब- सब
*बल्कुल- बिल्कुल
*शुन्य- शून्य
*आबरसियर- ओवरसियर
*दरगा- दरगाह
*पुच- चुप
*हिफ्राक्रीट- हिपोक्रेट
*तिरस्कूता- तिरस्कृत 

उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के आगे आने वाले संस्करणों में इस तरह की कमियों को दूर कर लिया जाएगा। 136 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लिखिक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

 
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