ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति हमेशा अच्छा या फिर हमेशा बुरा ही हो। अपने व्यक्तिगत हितों को साधने..संवारने..सहेजने और बचा कर रखने के प्रयास में वो वक्त ज़रूरत के हिसाब से अच्छा या बुरा..कुछ भी हो सकता है। यह सब उसकी इच्छा.. परिस्थिति एवं मनोदशा के हिसाब से नियंत्रित होता है। दूसरी अहम बात ये कि हम चाहे जितना मर्ज़ी कह या हाँक लें कि.."हम अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं।" मगर हमारी मर्ज़ी भी कहीं ना कहीं घर परिवार या समाज द्वारा ही नियंत्रित होती है।
दोस्तों..मानवीय रिश्तों को ले कर इस तरह की गूढ़ ज्ञान भरी बातें आज इसलिए कि आज मैं एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'दुमछल्ला' के नाम से लिखा है निशान्त जैन ने।
मुख्य रूप से इस उपन्यास में कहानी है अपनी शर्तों पर जीने वाले मेरठ के कामयाब शेयर ब्रोकर निर्मय और उसकी पत्नी गायत्री के बीच बनते..बिगड़ते संबंधों की। साथ ही इसमें कहानी है उनके पारिवारिक मित्र अर्जुन और उसकी पत्नी निवेदिता के बीच बदलते समीकरणों की। दरअसल निर्मय पहले निवेदिता को चाहता था मगर निवेदिता के द्वारा गायत्री से मिलवाने पर वह उसकी ओर इस कदर आकर्षित हो गया कि निवेदिता को भुला..गायत्री से शादी कर लेता है। इसी सारी जद्दोजहद और कशमकश के बीच बतौर इम्प्लॉय पहले प्रियल की निर्मय के दफ़्तर और फिर दिल में एंट्री होती है। जो सारे झगड़े और फ़साद की जड़ बनती है।
इस उपन्यास में कहीं ग़हरी दोस्ती तो कहीं गहरी साज़िश पनपती दिखाई देती है। कहीं किसी की आँखों में लबालब भरा प्रेम उछालें मारता दिखाई देता है तो कहीं कोई प्रेम भी पूरा नाप जोख के..कद काठी मिला के करने का फैसला करता दिखाई देता है। कहीं इसमें कोई हर हाल में अपने बनाये कायदों पर टिके रहने को आमादा है तो कोई वक्त ज़रूरत के हिसाब से फ्लैक्सिबल होने की बात करता दिखाई देता है।
इस उपन्यास में अगर कहीं कोई ना चाहते हुए भी प्रेम के भंवर में इस कदर डूबता दिखाई देता है कि अब उसका इस सबसे उबर पाना ही मुश्किल हो रहा है। तो वहीं दूरी तरफ़ कहीं कोई प्रेम को महज़ ग़म ग़लत करने का ज़रिया माने बैठा है। कहीं इस उपन्यास में कोई दोस्ती को ही सब कुछ मान बैठा है तो कहीं कोई विश्वासघात करने को तैयार बैठा दिखाई देता है।
कहीं इस उपन्यास में हर कोई खुद को सही और दूसरे को ग़लत साबित करने पर तुला एवं अपने हितों के हिसाब से दूसरे को चलाने का प्रयास करता दिखाई देता है।
सरल शब्दों में लिखे गए इस उपन्यास में एक दो जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त पेज नंबर 15 पर दिखाई दिया दिया कि..
'कुछ देर में ही अर्जुन उस कमरे से बाहर निकल आता है और वापस सोफे पर आ कर लेट जाता है। वह किताब पढ़ना चाहता है लेकिन नींद उस पर हावी हो रही थी। वो फिर भी किताब पढ़ने के लिए उठाता है लेकिन पढ़ नहीं पाता। दिमाग की सीमाएँ शरीर पर हावी हो गई थी और वो सो जाता है।'
इसके बाद इन्हीं पंक्तियों को काटते हुए आगे लिखा दिखाई दिया जो कि अगले पेज तक गया कि..
'अर्जुन की सारी रात, करवटें बदल कर ही बीती। एक तो थकान, ऊपर से छोटा सा सोफा: आम परिस्थिति में भी ऐसे सोना मुश्किल होता है, जबकि अर्जुन तो अलग ही मनोस्थिति में था, उसे नींद कहाँ से आती?'
इसी तरह पेज नंबर 74 पर लिखा दिखाई दिया कि.. 'इतना कहकर निवेदिता ने हँसकर बात को मज़ाक में ढालने की कोशिश की।'
यहाँ 'मज़ाक में टालने की कोशिश की।' आना चाहिए।
शुरुआती चैप्टर के बाद लगभग पूरी कहानी को फ्लैशबैक में एक डायरी के ज़रिए बयां किया गया है। जो कहीं से भी डायरी की विधा नहीं लगती। डायरी विधा में अगर कहानी लिखी जा रही है तो डायरी में लिखी गयी सारी बातों को डायरी के लेखक याने के निर्मय के नज़रिए से लिखा जाना चाहिए था। लेकिन यहाँ इस तथाकथित डायरी में सभी किरदार अपने अपने ढंग एवं मनमर्ज़ी से अपनी मनमानी करते दिखे। या फिर कम से कम उसे याने के निर्मय को ही सूत्रधार के रूप में बीच बीच में आ..कहानी को आगे बढ़ाया जाना चाहिए था।
वाक्य विन्यास थोड़ा कच्चा लगा कि एक ही पैराग्राफ़ में कहीं किसी वाक्य का अंत 'ता है' से हो रहा है तो किसी के अंत में 'था' आ रहा है। उसी पैराग्राफ़ के कुछ एक वाक्य तो ऐसे लगे कि जैसे अभी वर्तमान में घटित हो रहे हैं।
मर्डर मिस्ट्री के रूप में उपन्यास की कहानी शुरू में थोड़ी उत्सुकता जगाती तो है मगर कहानी में लॉजिक और स्पष्टता की कमी इसे बोझिल भी बनाती है। उपन्यास में बुद्धजीविता भरी बातें भी कहीं कहीं थोड़ी उकताहट पैदा करती भी दिखी जिनसे बचा जा सकता था। उपन्यास का शीर्षक और कवर डिज़ायन अच्छा है मगर कहानी से कहीं खुद को रिलेट नहीं कर पाता।
उपन्यास पढ़ते वक्त यह भी लगा कि इसे जल्दबाज़ी में लाने के बजाय इसकी कहानी और ट्रीटमेंट पर अभी और मेहनत की जानी चाहिए थी। बेशक यह लेखक की पहली किताब है लेकिन उनके लेखन का हुनर..सोच और शब्दों का चयन प्रभावी है जो भविष्य में और अच्छे लेखन की उम्मीदें जगाता है।
हालांकि 'किआन फाउंडेशन' द्वारा यह उपन्यास मुझे उपहारस्वरूप भेजा गया लेकिन अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की बढ़िया क्वालिटी के कागज़ पर छपे इसके 162 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 135/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को, जो कि संयोग से एक ही हैं, बहुत बहुत शुभकामनाएं।
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