बिना खड़ग बिना ढाल-राजीव तनेजा

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बस नहीं चलता मेरा इन स्साले…ट्रैफिक हवलदारों पर...

"मेरा?...मेरा चालान काट मारा?...लाख समझाया कि कुछ ले दे के यहीं मामला निबटा ले लेकिन नहीं…पट्ठे को ईमानदारी के कीड़े ने डंक जो मारा था|सो!..कैसे छोड देता?…कोर्ट का चालान किए बिना नहीं माना| आखिर!…जुर्म ही क्या था मेरा?...बस…ज़रा सी लाल बत्ती ही तो जम्प की थी मैँने और क्या किया था?….और फिर इस दुनिया में ऐसा कौन है जिसने जानबूझ कर या फिर कभी गलती से गाहे-बगाहे  ऐसा ना किया हो?”..
"ठीक है!..माना कि मैँ ज़रा जल्दी में था और आजकल जल्दी किसे नहीं है?…ज़रा बताओ तो"...

"क्लर्क को अफसर बनने की जल्दी ..बच्चों को बड़े होने की जल्दी…गरीब को अमीर बनने की  जल्दी... काउंसलर को M.L.A और फिर M.L.A से सांसद या मुख्यमंत्री बनने की जल्दी...जल्दी यहाँ हर एक को है…बस…सब्र ही नहीं है किसी को"…

"अब!...ऐसे में अगर मैंने भी थोड़ी-बहुत जल्दी कर ली तो क्या गुनाह किया?...और अगर वाकयी में ये गुनाह है भी तो भी मैं इसे नहीं करता तो क्या करता?...माशूका का फोन जो बार-बार आए जा रहा था कि..."कहाँ मर गए?...फिल्लम तो कब की शुरू हो चुकी"..

अब!...ऐसे में जल्दी करने के अलावा और चारा भी क्या था मेरे पास?..मोबाईल पे उसी से बतियाते बतियाते ध्यान ही नहीं रहा कि कब लाल बत्ती जम्प हो गई?...

"अब!..हो गई तो हो गई..कौन सा तूफान टूट पड़ा?...एक को बक्श देता तो क्या घिस जाता? ...पूरी दिहाडी गुल्ल हो गई इस मुय्ये चालान को भुगतते...भुगतते|हुंह!..कभी इस कोर्ट जाओ तो कभी उस कोर्ट जाओ...कभी इस कमरे में जाओ तो कभी उस कमरे में...कभी इसके तरले करो तो कभी उसके...और तो जैसे मुझे कोई काम ही नहीं है?"...

"वेल्ला समझ रखा है क्या?"...

इसी भागदौड़ में कब सुबह से दोपहर हो गई...पता भी नहीं चला|काफी थक हारने के बाद में आखिर बात तब जा के बनी जब मैं सही अफसर तक जा पहुंचा लेकिन हाय...री मेरी किस्मत...लंच टाईम को भी उसी वक्त होना था| उसका टिफिन खोलना मानो इसी बात का इंतज़ार कर रहा था कि मेरे चरण कमल...पादुकाओं समेत उसके कमरे में पड़ें |इधर मैंने कमरे में एंटर किया और उधर उसके डिब्बे का ढक्कन खुला|

देखते ही मेरा माथा ठनका कि ..."लो!...एक घंटा तो और गया इसी नाम का"...लाख मान मनौवल की पट्ठे से कि..."दो मिनट का काम है...प्लीज़!..कर दो"..लेकिन साला..ज़िद्दी इतना कि...नहीं माना

"कसम से!...बहुत रिक्वैस्ट की...कर के देख ली ...एक दो जानकारों के नाम भी लिए लेकिन स्साला... यमदूत की औलाद...साफ मना कर गया कि...

"मैँ तो नहीं जानता इनमें से किसी एक को भी"..

फिर पता नहीं पट्ठे की दिमाग में क्या आया कि मेरा मायूस चेहरा देख एहसान सा जताता हुआ बोल उठा... "अच्छा!...जा किसी ऐसे बन्दे को ले आ जिसे मैँ भी जानता हूँ और उसे तू भी जानता हो...तेरा काम कर दूंगा"...

"हुंह!...काम कर दूंगा....अब यहाँ...स्साली...इस अनजानी जगह पे मैं किसे ढूँढता फिरूँ?...और फिर अगर गलती से कोई कोई मिल-मिला भी गया तो वो भला मेरी बात क्यों मानने लगा?"..

काम होने की कोई उम्मीद ना देख...मैं निराश हो...मुँह लटकाए चुपचाप कमरे से बाहर निकल आया...इसके अलावा और मैं कर भी क्या सकता था?...अंत में थक हार के जब कुछ और ना सूझा तो पता नहीं क्या सोच मैँ वापिस बाबू के कमरे में लौट आया और सीधा जेब में हाथ डाल..पाँच सौ का करारा नोट निकालते हुए उससे बोला...

"देख ले इसे ध्यान से...गाँधी है...इसे तू भी जानता है और इसे मैँ भी जानता हूँ"... 

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बाबू हौले से मुस्काया और नोट के असली-नकली होने के फर्क को जल्दबाजी में चैक करने के बाद उसे अपनी जेब के हवाले करता हुआ बोला...

"बड़ी देर के दी मेहरबां आते...आते"...

"वव..वो..दरअसल...बात ही कुछ देर से समझ आई"...

"समझ..तेरा काम हो गया" कह मोहर लगा उसने रसीद मेरी हथेली पे धर दी 

देर तो पहले ही बहुत हो चुकी थी ...इसलिए बिना किसी प्रकार का वक्त गंवाए मैंने झट से बाईक उठाई और अपनी मंजिल की तरफ चल दिया...

"ट्रिंग...ट्रिंग...

"उफ्फ!..इस स्साले..फोन को भी अभी बजना था"..

"हैलो!...कौन...

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"सॉरी!...नाट इंट्रेसटिड"...

"इंट्रेसटिड के बच्चे...मैं चंपा बोल रही हूँ"...

"ओह!...सॉरी डार्लिंग.. म्म..मैं बस...अभी पहुँच ही रहा हूँ...रस्ते में ही हूँ"... 

"बस दो मिनट और...हाँ-हाँ!...पता है डार्लिंग की तुम्हें स्टार्टिंग मिस करना बिलकुल भी पसन्द नहीं”..

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“बस!…दो मिनट और…यहीं…पास ही में हूँ”कह मोबाईल को वापिस जेब में डाल मैँने बाईक की रफ्तार और बढा दी....

एक तो मैँ पहले से शादीशुदा और ऊपर से तीन अच्छे-खासे जवान होते बच्चे..बड़ी मुश्किल से सैटिंग हुई है...ज़्यादा देर हो गई तो कहीं बिदक ही ना जाए..कुछ पता नहीं आजकल की लड़कियों का 

"ओफ्फो!...ये क्या?...फिर लाल बत्ती हो गई?"...

"पता नहीं किस मनहूस का मुँह देखा था सुबह-सुबह...देर पे देर हुए जा रही है…आज तो मैं गया काम से"मैं मन ही मन सोचता हुआ बोला...

"जो भी होगा..देखा जाएगा”...ये सोच मैँने बिना रोके गाड़ी आड़ी-तिरछी चला ...जिग-जैग करते हुए लाल बती जम्प करा दी...

“अब..रोज़ की आदत जो ठहरी...इतनी आसानी से कैसे छूटेगी?"..

"ओह!...शिट...ये क्या?....ये स्साले..ठुल्ले तो यहाँ भी खड़े हैं"...

"पागल का बच्चा...कूद के बीच में आ गया...अभी ऊपर चढ जाती तो?"..

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"सब तो यही कहते ना कि बाईक वाले की लापरवाही से कांस्टेबल की टाँग टूट गई?"...

"अब टूट गई तो टूट गई...मैं इसमें क्या करूँ?"...

"क्या कहा?...बदनामी हो जाएगी?"...

"ओह!...

"कल के अखबार में मेरी खबर छपेगी...फोटो के साथ?"...

"ओह!..

"सब मेरी ही गल्ती निकालेंगे?"...

"ओह!...

"कोई ये नहीं छापेगा कि वही पागल…स्साला कांस्टेबल का बच्चा कूद के बीचोंबीच सड़क के आ गया था"...

"ओह!...

इन जैसे सैंकडों सवाल अपने जवाबों के साथ मेरे मन-मस्तिष्क में गूँज उठे..

"स्सालो!...पंद्रह अगस्त तो कब का बीत गया...अब काहे इत्ते मुस्तैद हो के ड्यूटी बजा रहे हो?...अपनी जान की फ़िक्र तो करो कम से कम”...

“इतना भी नहीं जानते कि…जान है तो जहान है?"...

"क्यों बे?...बडी जल्दी में है?...कहीं डाका डाल के निकला है क्या?"..

"वव..वो जी..बस...ऐसे ही....थोड़ा सा लेट हो गया था...इसलिए"... 

"इतनी जल्दी होती है तो घर से जल्दी निकला कर"...

"ज्जी!...जी..जनाब"..

"कही दारू तो नहीं पी हुई है स्साले ने" एक मुझे सूंघता हुआ बोला 

"पट्ठे ने इंपोर्टेड सैंट लगाया हुआ है जनाब...ज़रूर इश्क-मुश्क का चक्कर होगा"वो बोला...

"हम्म!...(इंस्पेक्टर मुझे ऊपर से नीचे तक गौर से देखता हुआ बोला)

"क्यों..बे साले?...क्या अकेले-अकेले ही सारे मज़े करेगा?"दूसरा बोल उठा

"क्क...क्या मतलब?...मतलब क्या है आपका?"मैंने उखड़ने का प्रयास किया  

"अरे!...इसकी छोड़...पुच्च..तू जा”इंस्पेक्टर मुझे पुचकारता हुआ बोला…

“ये तो बस ऐसे ही मजे ले रहा है तेरे साथ...सुबह से कोई मिला नहीं ना"...

हा…हा…हा…

“थैंक्स!…

"अरे!…शुभ काम में जा रहा है...थोड़ी सेवा-पानी तो करता जा"...

"ओह!...सॉरी...मैं तो भूल ही गया था" मैँने सकपकाते हुए...जेब में हाथ डाल एक सौ का नोट उसे पकड़ा दिया  

गाँधी का पत्ता निकालते हुए मन ही मन सोच रहा था कि एक तो वो था जो लेने को राज़ी नहीं था और एक ये हैं जो बिना लिए मानने को राजी नहीं हैं...

"वाह!...वाह रे गांधी...वाह...तेरी महिमा अपरम्पार है...तू पहले भी बड़ा काम आया अपने देश के और अब भी बड़ा काम आ रहा है" 

"दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल...साबरमति के सन्त तूने कर दिया कमाल" 

"हाँ!..सच...साबरमति के सन्त ...तूने कर दिया कमाल"

***राजीव तनेजा***

rajivtaneja2004@gmail.com

http://hansteraho.blogspot.com

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+919213766753

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छोड़ो ना…कौन पूछता है? - राजीव तनेजा

   maid....

"एक...दो...तीन....बारह...पंद्रह...सोलह...  

"ओफ्फो!…कितनी देर से आवाज़े लगा लगा के थक गई हूँ लेकिन जनाब हैँ कि अपनी ही धुन में मग्न पता नहीं क्या गिनती गिने चले जा रहे हैँ”बीवी अपने माथे पे हाथ मारती हुई बोली…

“कहीं मुँशी से हिसाब वगैरा लेने में तो कोई गलती नहीं लग गयी?"... 

"न्न..नहीं तो"मैं हड़बड़ाता हुआ बोला .. 

"तो फिर ये उँगलियों के पोरों पर क्या गिना जा रहा है?"... 

"क्क..कुछ भी तो नहीं"…

“इतनी पागल तो मैं हूँ नहीं जितनी तुम समझ रहे हो” बीवी कमर पे हाथ रख गुस्से से मेरी तरफ देखती हुई बोली…

“म्म..मैं तो बस..ऐसे ही टाईमपास…

"हुँह!..सब बेफाल्तू के काम तुम्हें ही आते हैँ…कुछ और नहीं सूझा तो लगे गिनती गिनने"....

अब बीवी को कैसे बताता कि मैँ अपनी एक्स माशूकाओं की गिनती करने में बिज़ी था कि कहीं कोई गलती से मिस तो नहीं हो रही? सो!...चुपचाप उसकी सुनने के अलावा और कोई चारा भी कहाँ था मेरे पास? 

"अरे!..गिनती गिनने के बजाय अगर ढंग से पहाड़े रट लो तो चुन्नू की ट्यूशन के पैसे तो बचें कम से कम लेकिन जनाब को इन मुय्यी …बेफाल्तू की कहानियों को लिखने-लिखाने से फुरसत मिले तब ना...क्लास टीचर ने तो साफ कह दिया है इस बार कि…. “अगर फाईनल टर्म में अच्छे नंबर नहीं आए तो अगली क्लास में बच्चे को चढाना मुश्किल हो जाएगा”....

“हम्म!…

"पता भी है कि वो शारदा की बच्ची अपनी चम्पा को बरगला के वापिस झारखंड ले गयी है"...

"क्क…कौन शारदा?"लड़की का नाम सुनते ही मैं चौंक उठा...

"अरे!..वही..प्लेसमैंट एजेंसी वाली कलमुँही...और कौन?..अब ये मत पूछ बैठना कि कौन चम्पा?"... 

"हाँ!...कौन चम्पा?"मैँ अपने दिमाग पे जोर डाल कुछ सोचता हुआ बोला...

"अरे!...अपनी कामवाली बाई ‘चम्पा’ को भी नहीं जानते?…पता नहीं किन ख्यालों में खोए रहते हो कि ना दीन की खबर ना ही दुनिया का कोई फिक्र"..

"क्या उसका नाम ‘चम्पा’ था?”..

“तुम्हें नहीं पता?”…

“अब..कभी ठीक से मेरा इंट्रोडक्शन करवाया हो उससे…तभी तो पता चले"…

“ठीक से…मतलब कैसे?”…

“कैसे मतलब?…जैसे करवाया जाता है…वैसे…अपना हैंड शेक कर के…गले मिल के..मीठे पान की गिलौरी खिला के"…

“हाँ!…बस यही एक कसर बाकी रह गई थी…ये भी पूरी कर दी होती तो मेरा तो बेड़ा ही पार था समझो"…

“हा…हा…हा…बहुत मजाक हो गया…अब कुछ सीरियस बात हो जाए?"मैं गंभीर मुद्रा बनाता हुआ बोला .

“हाँ!…ज़रूर"…

“क्या हुआ उसको?"... 

"रोज़ ही तो फोन आ रहा था उस ‘शारदा’ की बच्ची का कि...साल पूरा हो गया है...नया एग्रीमैंट बनेगा और इस बार चम्पा को अपने साथ गाँव ले के जाऊँगी"...

"तो इसमें गलत क्या है?…तसल्ली करवानी होती है इन्हें इनके माँ-बाप को कि…

“देख लो...ठीकठाक भली चंगी है”… तभी तो इनकी कमाई होती है और नई मछलियाँ फँसती हैँ इनके जाल में"..

"तो एक महीने बाद नहीं करवा सकती थी तसल्ली?...लाख समझाया कि अगले महीने माँ जी की आँख का आप्रेशन होना है…कम से कम तब तक के लिए तो रहने दे इसे लेकिन पट्ठी ऐसी अड़ियल निकली कि लाख मनाने पर भी टस से मस ना हुई…ले जा के ही मानी"...

"तो क्या डाक्टर ने कहा था कि ‘चम्पा’ की डाईरैक्ट फोन पे बात करवा दो ‘शारदा’ से?"....

"और क्या करती?…बार-बार फोन कर कर के मेरा सिर जो खाए जा रही थी कि…. ‘बात करवा दो...बात करवा दो’...पता नहीं अब कैसे मैनेज होगा सब?"...

"क्यों?...क्या दिक्कत है?"...

"दिक्कत?…एक हो तो बताऊँ...एक-एक दिन में दस-दस तो रिश्तेदार आते हैँ तुम्हारे यहाँ"..

"तो?"...

"कभी इसके लिए चाय बनाओ तो कभी उसके लिए शरबत घोलो...इनसे किसी तरह निबटूँ तो पिताजी भी बिना सोचे समझे गरमागरम पकोड़ों की फरमाईश कर डालते हैँ"...

"अरे!…यार..बचपन से शौक है उन्हें पकोड़ों का"...

"तो मैँ कहाँ मना करती हूँ कि शौक पूरे ना करें?...कितनी बार कह चुकी हूँ कि 'माईक्रोवेव' ला दो...'माईक्रोवेव' ला दो लेकिन ना आप पर और ना ही पिताजी पर कोई असर होता है मेरी बातों का"...

"क्या करना है माईक्रोवेव का?"...

"पता भी है कि एक मिनट में ही सारी चीज़ें गर्म हो जाती हैँ उसमें"...

"तो?"...

"अपना...एक ही बार में किलो...दो किलो पकोड़े तल के धर दूँगी कि…बाद में आराम से गरम किए और परोस दिए"....

"सिर्फ पकोड़ों भर के लिए ही माईक्रोवेव चाहिए तुम्हें?"...

"नहीं!...अगर मेरी चलने दोगे तो एक बार में चाय की पूरी बाल्टी उबाल के रख दूँगी कि.... ‘लो!..आराम से सुड़को’ "...

“हम्म!..

"इन स्साले!...मुफ्तखोरों को ताश पीटने को यहीं जगह मिलती है"..

"तो?"...

"इतना भी नहीं होता किसी से कि कोई मेरी थोड़ी बहुत हैल्प ही कर दे…सारा काम मुझ अकेली को ही करना पड़ता है"...

"क्यों?...कल जो पिताजी आम काटने में तुम्हारी हैल्प कर रहे थे...वो क्या था?"...

"हाँ!..वो काट रहे थे और तुम बेशर्मों की तरह ढीठ बन…दूसरी तरफ मुँह कर के ‘कॉमेडी सर्कस'  का आनंद लेते हुए बड़े आराम से दीददे फाड़ हँस रहे थे"... 

"तो क्या मैँ भी उनकी तरह अपने हाथ लिबलिबे कर लेता?...फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन….ये वेल्ला शौक नहीं पाला है मैँने कि कोई काम-धाम ना हुआ तो बैठ गए पलाथी मार के जनानियों की तरह मटर छीलने"...

"तो इसमें कौन सी बुरी बात है?"...

"कह दिया ना!...अपने बस का रोग नहीं है ये"...

"हुँह!...बस का रोग नहीं है…मेरी शर्म नहीं है तो ना सही लेकिन पिताजी की ही थोड़ी मदद कर देते तो घिस नहीं जाना था तुमने".. 

“अरे!……तुम तो ऐसे ही बेकार में छोटी सी बात का बतंगड़ बनाने पे तुली हो"...

"छोटी सी बात?….एक दिन चौके में गुज़ार के दिखा दो तो मानूँ...पसीने से लथपथ हो बुरा हाल ना हो जाए तो कहना"... 

"वैसे!…बुरा ना मानों तो एक बात पूछूँ?”…

"पूछो"...

"ऐसी बेहूदी राय तुम्हें किस उल्लू के चरखे ने दी थी?"..

"तुमसे शादी करने की?"...

"नहीं"...

"फिर?"...

"यही शमशान घाट के नज़दीक प्लाट खरीद अपना आशियाना बनाने की"...

"तुम भी तो बड़ी राज़ी खुशी तैयार हो गयी थी कि…चलो शमशान घाट के बाजू में घर होने से अनचाहे मेहमानों से छुटकारा तो मिलेगा"... 

"वोही तो...लेकिन यहाँ तो जिसे देखो मुँह उठाता है और सीधा हमारे घर चला आता है…जैसे घर...घर ना हुआ ...सराय हो गई... इस मुय्ये शमशान से तो अच्छा था कि तुम किसी गुरूद्वारे या मन्दिर के आसपास घर बनाते"...

"तो उससे क्या होता?"...

"सुबह शाम अपने इष्ट को मत्था टेक घंटियों की खनकार के बीच माला जपती और आए-गयों को प्रसाद में गुरू के लंगर छका फ़ोकट में ही खुश कर देती....कम से कम रोटियाँ का ये बड़ा ढेर बनाने से तो मुक्ति मिलती"बीवी हाथ फैला रोटियों के ढेर का साईज़ बताती हुई बोली 

“हम्म!…

"तुम तो अपना मज़े से काम पे चले जाते हो...पीछे सारी मुसीबतें मेरे लिए छोड़ जाते हो"...

"तो क्या काम पे भी ना जाऊँ?"...

"ऐसा मैँने कब कहा?"...

"अरे!…मेरे सामने अगर कोई मेहमान आए तो मैँ कुछ ना कुछ कर के सिचुएशन को हैंडल भी कर लूँ लेकिन अब अगर कोई मेरी पीठ पीछे आ धमके तो इसमें मैँ क्या कर सकता हूँ?"...

"कर क्यों नहीं सकते?...साफ-साफ मना तो कर सकते हो अपने रिश्तेदारों को कि हमारे यहाँ ना आया करें"...

"क्या बच्चों जैसी बातें करती हो?…ऐसे भी भला किसी को मना किया जाता है?...ये तो अपने आप समझना चाहिए उन लोगों को"... 

“साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि तुम में हिम्मत नहीं है?…अगर तुम्हारे बस का नहीं है तो मैँ बात करती हूँ"... 

“पागल हो गई हो क्या?”..

“वाह!….शर्म तुम्हारे रिश्तेदारों को नहीं है और पागल मैं हो गई हूँ?"….

“तुम तो यार..ऐसे ही…

“पागल के बच्चे ना दिन देखते हैँ और ना ही रात...बाप का राज समझ के जब मन करता है...तब आ धमकते हैँ"मेरी बात से अनभिज्ञ बीवी अनचाहे मेहमानों को कोसती चली जा रही थी...
"अभी परसों की ही लो...तुम्हारे दूर के चचा जान आए तो थे अपने मोहल्ले के धोबी के दामाद की मौत पे लेकिन अपनी लाडली बहू को छोड़ गए मेरे छाती पे मूंग दलने"..

"अरे!..तबियत ठीक नहीं थी उसकी...अपने साथ ले जा के क्या करते?"..

"हुँह!...तबियत ठीक नहीं थी... अरे!…अगर तबियत ठीक नहीं थी तो डाक्टर ने नहीं कहा था कि यूँ बन-ठन के किसी के घर जा के डेरा जमाओ..सब ड्रामा है...ड्रामा…निरा ड्रामा"...

“ड्रामा?”मैं चौंकता हुआ बोला…

“हाँ!…ड्रामा…देखा नहीं था कि जब आई थी तो कैसे चुप-चुप......हाँ-हूँ के अलावा कोई और बोल-बचन ही नहीं फूट रहा था ज़बान से लेकिन ससुर के जाते ही पट्ठी चौड़ी हो के ऐसे पसर गई सोफे पे जैसे अपने बाप की बरात पे आई हो"…

“ओह!…

"उसके बाद तो ऐसी शुरू हुई कि बिना रुके लगातार बोलती चली गई...चबड़...चबड़...तब तक चुप नहीं हुई जब तक सामने ला के आधा दर्जन कचौड़ी और समोसे नहीं धर दिए...बड़ी फन्ने खाँ समझती है अपने आपको".. 

"कह क्या रही थी?"... 

"ये पूछो कि क्या नहीं कह रही थी?….कभी अपने सास-ससुर की चुगली...तो कभी ननद जेठानी को लेकर हाय तौबा"... 

“ओह!…

"उनसे निबटी तो अपनी तबियत का रोना ले के बैठ गयी….

"हाय!..मेरा तो 'बी.पी'  लो हो गया है..हाय!...मेरे घुटनों में दर्द रहने लगा है आजकल"...

"उफ!..मेरे सलोने चेहरे पे कहाँ से आ गया ये मुय्या पिम्पल?...देखो!...मेरे चेहरे पे कोई रिंकल तो नहीं दिखाई दे रहे ना?"बीवी उसी की नकल उतारती हुई बोली... 

“ओह!…तो क्या सचमुच में….

"अरे!...दिखण...भाँवे ना दिखण...मैणूँ अम्ब लैँणा है?(दिखें ना दिखें...मुझे आम लेना है?…कल की बुड्ढी होती आज बुड्ढी हो जाए...मेरी बला से…मुझे क्या फर्क पड़ता है?"... 

"हम्म!..फिर क्या हुआ?”मुझे भी उसकी बातों में रस आने लगा था 

"उसके बाद जो मैडम जी ने जो अपनी तारीफें करनी शुरू की कि बस करती ही चली गई...कभी अपने सुन्दर सलोने चेहरे की तो कभी अपनी कमसिन फिगर की तारीफ"…

"और तुम चुपचाप सुनती रही?…मुंह तोड़ के क्यों नहीं हाथ में धर दिया?”… 

"अरे!…मेरा बस चलता तो मैंने तो उसे कभी का….

“ये तो पिताजी की ही शर्म है जो मैंने उसे…बस..चने के झाड पे चढा के ही सन्तोष कर लिया”…

“ओह!…लेकिन कैसे?”मेरे स्वर में चिंता मिश्रित उत्सुकता थी 

"मैँने बातों ही बातों में उससे कह दिया कि… ‘तुम्हारी शक्ल तो बिलकुल कैटरीना कैफ से मिलती है’...

"अरे!..वाह...क्या सच में?”..

"टट्टू”…

"तो फिर?"..

"अरे!..'कैटरीना' वो...जो अमेरिका में तूफान आया था"...

"ओह!...और 'कैफ'?"मैँ हँसता हुआ बोला...

"अपना शुद्ध एवं खालिस हिन्दुस्तानी क्रिकेटर 'मोहम्मद कैफ' ...और कौन"...

"हा...हा...हा"...

"इससे बड़ी ड्रामेबाज औरत तो मैँने अपनी ज़िन्दगी में आज तक नहीं देखी.. सीधी बात है कि काम ना करना पड़े किसी दूसरे के घर में...इसलिए..नौटंकी पे उतर आते हैँ लोग"..

"अरे!…यार..क्यों बेकार में नाहक परेशान होती हो?…शारदा कह तो गई है कि बीस दिन के अन्दर-अन्दर वापिस लौटा लाऊँगी"...

"क्यों झूठे सपने दिखा के मेरा दिल बहलाते हो?…इतिहास गवाह है कि हमारे घर का गया नौकर कभी वापिस लौट के नहीं आया"... 

"हम्म!…ये बात तो है"…

“पूरे सवा ग्यारह रुपए की बूँदी चढाऊँगी शनिवार वाले दिन...बजरंगबली के पुराने मन्दिर में जो ये वापिस आ गई"बीवी अपने सर के पल्लू को ठीक करती हुई बोली…

"फॉर यूअर काईंड इंफार्मेशन ...शनिवार वाले दिन शनिदेव को प्रसन्न किया जाता है ...ना कि बजरंगबली को"मैँ टोकता हुआ बोला...

"सत वचन..लेकिन जो एक बार बोल दिया...सो...बोल दिया…अगली बार जब नौकरानी भागेगी तब मंगलवार के दिन शनिदेव को प्रसाद चढा…खुश कर देंगे...सिम्पल"...

"सही है!...अभी आयी नहीं है और तुम फिर से उसे भगाने के बारे में पहले सोचने लगी...इसे कहते हैँ एडवांस्ड प्लैनिंग...लगी रहो"मैं ताना मारता हुआ बोला... 

"मुझे तो डाउट हो रहा है..कि कोई झारखंड-वारखंड नहीं ले के गई होगी उसे…ज़्यादा पैसों के लालच में यहीं दिल्ली में ही किसी और कोठी में लगवा दिया होगा काम पे…कोई भरोसा नहीं इनका"...

“हम्म!…होने को तो कुछ भी हो सकता है…खैर…छोड़ो उसे..अच्छा हुआ जो अपने आप चली गई…वैसे भी अपने काबू से बाहर निकलती जा रही थी आजकल"... 

"हाँ!...ज़बान भी कुछ ज़्यादा ही टर्र-टर्र करने लगी थी उसकी...एक-एक काम के लिए कई-कई बार आवाज़ लगानी पड़ती थी उसे...जब आयी थी तो इतनी भोली कि बिजली का स्विच तक ऑन करना नहीं आता था उसे और अब…अब तो टीवी के रिमोर्ट के साथ छेड़खानी करना तो आम बात हो गई थी उसके लिए"... 

"याद है मुझे कि कैसे तुमने दिन रात एक कर के रोज़मर्रा के सारे काम सिखाए थे उसे और अब जब अच्छी खासी ट्रेंड हो गयी तो ये शारदा की बच्ची ले उड़ी उसे"...

"यही काम है इन प्लेसमैंट ऐजैंसियों का...अनट्रेंड को हम जैसों के यहाँ भेज के ट्रेंड करवाती हैँ और फिर दूसरी जगह भेज के मोटे पैसे कमाती हैँ"...

"मेरा कहा मानो तो बीति ताहिं बिसार के आगे की सोचो"...

"मतलब?"...

"भूल जाओ उसे और देख भाल के किसी अच्छी वाली को रख लो".. 

"हाँ!..रख लूँ...जैसे धड़ाधड़ टपक रही हैँ ना आसमान से स्नो फॉल के माफिक…पता भी है कि कितनी शॉर्टेज चल रही है आजकल?….प्लेसमैंट वाले पन्द्रह-पन्द्रह हज़ार तक कमीशन मांगने लग गए हैं एक साल की”…

“ओह!…

"और जब से ये मुय्या 'आई.पी.एल' का रोना शुरू हुआ है हमारे यहाँ...काम वाली बाईयों का तो जैसे अकाल पड़ गया है"...

"वो कैसे?"..

"कुछ तो बढती मँहगाई के चलते दिल्ली छोड़ होलम्बी कलाँ और राठधना जा के बस गई हैँ आजकल और कुछ ने गर्मियों के इस सीज़न में अपने दाम दुगने से तिगुने तक बढा दिए हैँ"...

“ओह!…

"और ऊपर से नखरे देखो इन साहबज़ादियों के कि सुबह के बर्तन मंजवाने के लिए दोपहर दो-दो बजे तक इनका रस्ता तकना पड़ता है"...

“हम्म!…

"इनके आने की आस में ना काम करते बनता है और ना ही खाली बैठे रहा जाता है…ऊपर से बिना बताए कब छुट्टी मार जाएँ...कुछ पता नहीं"...

"लेकिन…इस सब से 'आई.पी.एल' का क्या कनैक्शन?"मेरी समझ में बात नहीं आ रही थी...

"अरे!...ऊपर वाली दोनों तरह की कैटेगरी से बचने वाली छम्मक छल्लो टाईप बाईयों ने अपने ऊपरी खर्चे निकालने के चक्कर में पार्ट टाईम में 'चीयर लीडर' का धन्धा चालू कर दिया है"...

"चीयर लीडर माने?"... 

"अरे!…वही...जो 'आई.पी.एल' के ट्वैंटी-ट्वैंटी मैचों में छोटे-छोटे कपड़ों में हर चौके या छक्के पर उछल-उछल कर फुदक रही होती हैँ"... 

"ओह!..तो क्या ये भी छोटे-छोटे कपड़ों में?….और इनको इतने बड़े मैचों में परफार्म करने का चाँस कैसे मिल गया?"मेरी खुशी भरी उत्सुकता छुपाए ना छुप रही थी...

"अरे!...वहाँ नहीं"...

"तो फिर…कहाँ?"... 

"इंटर मोहल्ला ट्वैंटी-ट्वैंटी क्रिकेट मैचों में साड़ी पहन के ही ठुमके लगा रही हैँ"...

“ओह!…

"बिलकुल ‘आई.पी.एल’ की तर्ज पे मैच खेले जा रहे हैँ"...

"लेकिन…'आई.पी.एल' में तो पैसे का बोलबाला है...बड़े-बड़े सैलीब्रिटीज़ ने खरीदा है टीमों को"...

"तो क्या हुआ?…अपने यहाँ की टीमों को भी कोई ना कोई स्पाँसर कर रहा है"... 

"जैसे?”…

"जैसे बगल वाले मोहल्ले की टीम को ‘घासी राम’ हलवाई स्पाँसर कर रहा है और...अपने मोहल्ले की टीम को तो ‘छुन्नामल’ ज्वैलर स्पाँसर कर रहा है"...

“ओह!…

"घासी राम तो अपनी टीम को चाय-समोसे फ्री में खिला-पिला रहा है"...

"तो क्या ‘छुन्नामल’ भी अपनी ज्वैलरी फ्री बाँट रहा है?"मैं हँसता हुआ बोला...

"उसे क्या अपना दिवालिया निकालना है जो ऐसी गलती करेगा?…पूरे इलाके का माना हुआ खुर्राट बिज़नस मैन है वो…उसके बारे में तो मशहूर है कि अच्छी तरह से ठोक बजा के जाँचने परखने के बाद ही वो अपने खीस्से के नट-बोल्ट ढीले करता है" …

"तो?"...

"क्रिकेट ग्राऊँड में अपने शोरूम के बैनर लगाने और मोहल्ले की दिवारों पर पोस्टर लगाने की एवज में अपनी क्वालिस दे दी है लड़कों को घूमने फिरने के लिए विद शर्त ऑफ पच्चीस से तीस किलोमीटर पर डे"...

"लेकिन कल ही तो मैँने अपने मोहल्ले के लौंडे लपाड़ों को टूटी-फूटी साईकिलों पे इधर-उधर हाँडते(घूमते) देखा था"...

"वोही तो...घाटा तो उसे बिलकुल भी बरदाश्त नहीं है"...

"किसे?"...

"अरे!...अपने छुन्नामल को...और किसे?...जहाँ अपनी टीम ने पहले मैच में ठीक से परफार्म नहीं किया...उसने फटाक से अल्टीमेटम दे दिया"...

“ओह!..

"दूसरे मैच में भी कुछ खास नहीं कर पाने पर उसने अपने यहाँ के कैप्टन को अच्छी खासी झाड़ पिला अपनी क्वालिस वापिस मँगवा ली"...

“ओह!… तो क्या बस दो ही टीमें भाग ले रही हैँ तुम्हारे इस देसी 'आई.पी.एल' में?"...

"दो नहीं…तीन...तीन टीमें भाग ले रही हैँ"... 

“तीसरी टीम को कौन स्पाँसर कर रहा है?"...

"तीसरी टीम को जब कोई और नहीं मिला तो मजबूरी में ‘नंदू' धोबी से ही अपने को स्पाँसर करवा लिया"...

“नंदू से?…वो बेचारा तो खुद अपना गुज़ारा ही बड़ी मुश्किल से करता होगा...वो क्या टट्टू स्पाँसर करेगा?"..

"अरे!...तुम्हें नहीं पता...पूरे तीन मोहल्लों में वही तो अकेला धोबी है जिसका काम चलता है बाकि सब तो वेल्ले बैठे रहते हैँ"...

"ऐसा क्यों?"...

"ज़बान का बड़ा मीठा है...हमेशा...जी..जी करके बात करता है...बाकि किसी को तो इतनी तमीज़ भी नहीं है कि औरतों से कैसे बात की जाती है...हमेशा तूँ तड़ाक से बात करते हैँ"…

“ओह!..

"और आजकल तो वैसे भी एकता कपूर के सीरियलों की वजह से टाईम ही किस औरत के पास है कि वो खुद कपड़े प्रैस करती फिरे?"...

“हम्म!..

"सो!..सभी के घर से कपड़ॉं का गट्ठर बनता है और जा पहुँचता है सीधा धोबी के धोबी घाट में"...

“हम्म!..

"खूब मोटी कमाई है उसकी…..सुना है कि अब तो नई आईटैन भी खरीद ली है उसने" ...

“अ..आईटैन?”मैं चौंकता हुआ बोला

“हाँ!…आईटैन"…

"नकद?"....

"नहीं!...किश्तो पे"...

“ओह!…(मैंने राहत की सांस ली) 

"आजकल उसी से आता-जाता है"....

"अरे वाह!...क्या ठाठ हैँ पट्ठे के"मेरे जले पे नमक छिड़का जा रहा था लेकिन फिर भी ना जाने मेरे मुंह से ‘वाह' करके उसकी तारीफ़ निकल गई ... 

"और नहीं तो क्या?…उस दिन की याद है ना जब मैँ आपसे ज़िद कर रही थी ‘अक्षरधाम’ मन्दिर घुमाने के लिए ले चलने की और आपने गुस्से में साफ इनकार कर दिया था?"...

"तो?”…

“पता नहीं इस मुय्ये धोबी के बच्चे को वो बात कैसे पता चल गई और बड़े मज़े से मुझसे कहने लगा कि...  "भाभी जी!...अगर राजीव जी के पास टाईम नहीं है तो मैँ ही आपको ‘अक्षरधाम’ मन्दिर ही घुमा लाता हूँ".. 

“क्क्या?”…

“हाँ"…

“उस स्साले की इतनी हिम्मत?”…

“उसकी हिमाकत देख एक बार तो मैं भी हैरत में पड़ गई थी"…

“तो फिर तुमने उसे क्या कहा?”मुझे गुस्सा आ चुका था 

“कहना क्या था?…कोई बहाना कर के साफ़-साफ़ मना कर दिया मैंने"…

“हम्म!…

"हुँह!..बड़ा आया मुझे घुमाने वाला...शक्ल देखी है कभी आईने में?

"तुमने ज़रूर किसी ना किसी से जिक्र किया होगा इस बात का तभी तो उसे पता चला होगा"मैंने राहत की सांस ले कुछ सोचते हुए कहा... 

"मैँने भला किससे और क्यों जिक्र करना है?… अपनी बाई ही पास में खड़ी-खड़ी सब सुन रही थी..उसी ने चुगली करी होगी"..

“हम्म!…मुझे भी यही लग रहा है….इनका तो यही काम होता है...इधर की उधर लगाओ और...उधर की इधर"… 

"एक तो डिमांड ज्यादा और सप्लाई कम होने की वजह से पहले से ही ये बाइयां काबू में नहीं आती थी और अब..जब से ये मुय्या 'आई.पी.एल' शुरू हुआ है..और भी दिमाग चढ गया है इनका"...

“हम्म!… 

"मेरी राय में तो बैन लगा देना चाहिए इन चीयर लीडरों पर…सारा का सारा माहौल बिगाड़ के रख छोड़ा है"...

"कौन सी वालियों ने?...टी.वी वालियों ने या फिर ये अपनी देसी वालियों ने?"...

"दोनों की ही बात कर रही हूँ...उन्होंने क्रिकेट ग्राऊँड में माहौल बिगाड़ के रखा है तो इन्होंने यहाँ...गलियों में”…

"लोकल वालियों से तो तुम्हारी खुँदक समझ आती है लेकिन इन इन 'टी.वी' वालियों से तुम्हें क्या परेशानी है?…अच्छा भला खिलाड़ियों और दर्शकों को जोश दिला रही हैँ"...

"वोही तो...वो वहाँ क्रिकेट ग्राऊँड में…मिनी स्कटें पहन फुदक रही होती हैँ और यहाँ हम औरतों के दिल ओ दिमाग में हमेशा एक धुक्क-धुक्क सी लगी रहती है"...

"हाथ में आए पँछी के उड़ चले जाने का खतरा?"...

"और नहीं तो क्या?…क्या जादू कर जाएँ?...कुछ पता नहीं इन गोरी चिट्टी फिरंगी मेमों का"... 

“हम्म!..

"और वैसे भी आजकल मन बदलते देर कहाँ लगती है?"...

“अरे!…लेकिन सबके बस की कहाँ है?...इतनी सस्ती भी नहीं है वे कि कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा फटाक से अपना बटुआ खोले और झटाक से ले उड़े इन्हें"...

"हाँ!...'आई.पी.एल' खिलाड़ियों की और बात है...बेइंतिहा पैसा मिला है उन्हें...आराम से अफोर्ड कर लेंगे लेकिन...यहाँ अपने मोहल्ला छाप खिलंदड़ों का क्या?...उनके पास तो अपने पल्ले से मूँगफली खाने के तक के पैसे नहीं मिलने के...वो भला क्या खाक खर्चा करेंगे?"...

“हम्म!…बात तो तुम सही कह रहे हो"..

"और सबसे बड़ी बात कि …इन दोनों टाईप की आईटमों का आपस में क्या मुकाबला?...कहाँ वो गोरी चिट्टी...एकदम मॉड...छोटे-छोटे कपड़ों में नज़र आने वाली सैक्सी बालाएँ और कहाँ ये एकदम सीधी-साधी सूट या फिर साड़ी में लिपटी निपट गाँव की गँवारने?…कोई मेल नहीं है इनका"... 

"लेकिन वो कहते हैं ना कि जब गधी पे दिला आता है तो सोनपरी की चमक भी फीकी दिखाई देने लगती है"...

“हम्म!…

"याद नहीं?...अभी पिछले हफ्ते ही तो सामने वाले शर्मा जी की मैडम अपने ड्राईवर के साथ उड़नछू हो गई थी और वो गुप्ता जी भी तो अपनी बाई के साथ खूब हँस-हँस के बाते कर रहे होते हैँ आजकल"...

"अच्छा!...अब समझा….तभी रोज़ नए-नए सूट पहने नज़र आती है"...

"तुमने कब से ताड़ना शुरू कर दिया उसे?"बीवी मेरी तरफ देख गुस्से से आँखें तरेरती हुई बोली...

"व्वो…वो तो बस…ऐसे ही…एक दिन सब्ज़ी ले रही थी तो अचानक नज़र पड़ गई"...

"सब समझती हूँ मैँ...अचानक नज़र पड़ गयी…किसी दिन मेरी नज़र किसी पे पड़ेगी ना बच्चू…तब पता चलेगा"….

“म्म..मैं तो बस ऐसे ही…

"कुछ तो ख्याल करो अपनी बढती उम्र का...अगले महीने पूरे चालीस के हो जाओगे"...

अब उसे कैसे बताता कि 'ऐट दा एज ऑफ फौर्टी...मैन बिकम्ज़ नॉटी?...

"एक बात और ...तुम्हारे इन सो कॉल्ड मॉड कपड़ों को पहन नंगपना करने मात्र से ही कोई सैक्सी नहीं हो जाता"... 

"अच्छा?…तो फिर कैसे हुआ जाता है?…ज़रा बताओ तो...एक्सप्लेन इट क्लीयरली"...

"देखो!...चैलैंज मत करो हमें…हम हिन्दुस्तानी औरतें साड़ी और सूट में भी अपनी कातिल अदाएँ दिखा गज़ब ढा सकती हैँ"...
सच ही तो कह रही है संजू...तभी तो आजकल वो गुप्ता जी की कामवाली बाई...हर समय आँखों में छायी रहती है"मैँ मन ही मन सोचने लगा... 

"तो क्या अपनी देसी चीयर लीडरस भी?"मैँ बात बदलते हुए बोला...

"अब किसी के चेहरे पे थोड़े ही लिखा होता है?...पैसा देख मन बदलते देर कहाँ लगती है?"...

“हम्म!..

"इसलिए मैँ कहती हूँ कि इन देसी चीयर लीडरस पर तो हमेशा के लिए बैन लगना चाहिए…तभी अक्ल ठिकाने आएगी इनकी"...

“हम्म!….

"मेरा बस चले तो अभी के अभी कच्चा चबा जाऊँ इस ‘शारदा’ की बच्ची को...पागल की बच्ची..औकात ना होते हुए भी ऐसे बन ठन के…अकड़ के चलती है मानो किसी स्टेट की महरानी हो"...

“ओह!…

"पता जो है उसे कि उसके बगैर किसी का गुज़ारा नहीं है…एक मन तो करता है कि अभी के अभी जा के सीधा पुलिस में कम्प्लेंट कर दूँ उसकी"...

"अरे!...कुछ नहीं होगा वहाँ भी....उल्टे पुलिस ही चढ बैठेगी हम पर"...

"किस जुर्म में?"...

"अरे!...मालुम तो है तुम्हें...नाबालिग थी अपनी बाई और ऊपर से हमने उसकी पुलिस वैरीफिकेशन भी नहीं करवाई हुई थी"... 

"हमने क्या?...पूरे मोहल्ले में सिर्फ सॉंगवान जी का ही घर है जिन्होंने सारी की सारी फारमैलिटीज़ पूरी की हैँ"...

"सही बात!...कभी मूड बना के थाने जाओ भी तो कहते हैँ...पहले लेटेस्ट फोटो ले के आओ"...

"पागल के बच्चे!...कभी पूछते हैँ....कि कौन कौन सी भाषाएँ बोलती है?"...

“अरे!…तुमने इससे उपनिष्द पढवाने हैँ या फिर कोई गूढ अनुवाद कराना है?"...

"बेतुके सवाल ऐसे समझदारी से करेंगे मानों इन सा इंटलैक्चुअल बन्दा पूरे जहाँ में कोई हो ही नहीं"... “उम्र कितनी है?...पढी-लिखी है के नहीं?...अगर है!...तो कहाँ तक पढी है?"...

"अरे!...तुमने क्या उस से डॉक्ट्रेट करवानी है जो ये सब सवालात कर रहे हो?"...

"स्साले!...सनकी कहीं के...कभी-कभी तो दोनों हाथों के फिँगर प्रिंट ला के देने तक का फरमान जारी कर देते हैँ"... 

"अब इनके तुगलकी आदेश के चक्कर में अपने हाथ नीले करते फिरो…और कोई काम नहीं है क्या हमें?”…

"उनके कहे अनुसार सब कर भी दो तो कभी फलानी कमी निकाल देते हैँ तो कभी ढीमकी"...

"पहले तो कभी अपने यहाँ की पुलिस इतनी मुस्तैद नहीं दिखी थी...जैसी आजकल दिख रही है"...

“हाँ!… अच्छी भली तो थी…पता नहीं अचानक क्या बिमारी लग गयी?"...

"तुम्हारा कहना सही है...आमतौर पर तो अपने यहाँ की पुलिस ढुलमुल रवैया ही अपनाती है लेकिन जब कभी कहीं कोई तगड़ी वारदात होती है...तब इन पर ऊपर से डण्डा चढता है और तभी ये पूरी मुस्तैदी दिखाते हैँ"...

"वैरीफिकेशन के काम में देरी लगाने की शिकायत करो तो जवाब मिलता है कि 'कानून' से काम करने में तो वक्त लगता ही है"... लेकिन कोई ये बताएगा कि ये सॉंगवान का बच्चा कैसे आधे घंटे में ही सारा काम निबटा आया था?"... 

"पट्ठे ने!...ज़रूर चढावा चढाया होगा…यही सब तो प्लेसमैंट एजेंसी वाले भी करते हैँ…तभी तो पुलिस भी इनकी छोटी-मोटी गल्तियों को नज़र अन्दाज़ करती है और इसी कारण बिना किसी डर...बिना किसी खौफ के इनका धन्धा दिन दूनी रात चौगुनी तेज़ी से फलफूल रहा है"...

"अब तो कम समय में ज़्यादा कमाई के चक्कर में बहुत से बेरोज़गार मर्द-औरत इस धन्धे धड़ाधड़ उतरते जा रहे हैँ"... 

"हम्म!...इसीलिए आजकल इन तथाकथित प्लेसमैंट ऐजेंसियों की बाड़ सी आ गई है"...

"घरेलू नौकरानियों की डिमांड ही इतनी ज़्यादा है कि पूरा ज़ोर लगाने पर भी पूर्ति नहीं हो पा रही है"...  “तभी तो आजकल इन प्लेसमैंट वालों के भाव बढे हुए हैँ...कहने को तो ये कहते हैँ कि हम समाजसेवा का काम कर रहे हैँ…गरीब...मज़लूमों को रोज़गार उपलब्ध करवा रहे हैँ लेकिन इनसा कमीना मैँने आज तक नहीं देखा"....

"वो कैसे?"...

"अरे!...इस प्लेसमैंट की आड़ में ये जो जो अनैतिक काम होता है ...उनके बारे में जो कोई भी सुनेगा तो हैरान रह जाएगा"... 

"अनैतिक काम?"...

"और नहीं तो क्या?…देह-व्यापार से लेकर स्मगलिंग तक कोई भी धन्धा इनसे अछूता नहीं है"...

"ओह!...

"जिन बच्चों की अभी पढने-लिखने की उम्र है उनसे ज़बर्दस्ती इधर का माल उधर कराया जाता है"...

"कैसा माल?"...

"यही...स्मैक...ब्राऊन शुगर...पोस्त से लेकर छोटे-मोटे हथियार तक ...कुछ भी हो सकता है"...

"ओह!...

“कई बार तो ये प्लेसमैंट का धन्धा ये लोग अपनी घिनौनी करतूतों को छुपाने के लिए करते हैँ...किसी से शादी करने या करवा देने का लालच देकर तो किसी को मोटी तनख्वाह पे आरामदायक नौकरी दिलवाने का झुनझुना थमा कर ये अपने प्यादे तैयार करते हैँ"...

“ओह!…

“लाया गया तो उन बेचारों को किसी और काम के लिए होता है और झोंक दिया जाता है किसी और काम की भट्ठी में"... 

"क्या सच?"... 

"हो भी सकता है"...

"क्या मतलब?...अभी तो तुम ये सब कह रहे थे...वो क्या था?"...

"वो तो यार!...मैँ ऐसे ही...मज़ाक-मजाक में…

"तो इसका मतलब...इतनी देर से झूठ पे झूठ बके चले जा रहे थे?"...

"और क्या करता?…तुम सुबह से कामवाली बाई को लेकर परेशान हुए बैठी थी"...

"तो?"...

"तुम्हारा ध्यान बटाने के लिए… 

"हुँह!… 

"लेकिन मेरी सभी बातें झूठ नहीं हैँ और बाकी भी सच हो सकती हैँ...कसम से"....

"वो कैसे?"...

"कलयुग है ये और इसमें कुछ भी हो सकता है क्योंकि....ज़माना बड़ा खराब है"...

"हाँ!...ये तो है...ज़माना तो सच में बड़ा खराब है"…


"ट्रिंग..ट्रिग"...

"देखना तो...किसका फोन है?"...

"हैलो..... 

"कौन?"...

"चम्पा?”....

“अरे!…बेटा कहाँ है तू?"....

"क्या कहा?…दिल्ली में?"... 

"लेकिन बेटा...तू तो गाँव जाने की कह कर गई थी ना?"... 

"अच्छा!...शारदा नहीं ले के गई"...  

"अभी कहाँ है बेटा?"...

"क्या कहा?...पता नहीं"...

"रो मत बेटा...चुप हो जा...यहीं…हाँ!..यहीं आ जा हमारे पास"....

"पता याद है ना बेटा?...अच्छी तरह से तो याद करवाया था ना तुझे बेटा?"...

"हाँ-हाँ!…यही है"…

"तू एक काम कर बेटा...किसी रिक्शे या फिर ऑटो वाले को हमारे घर का पता बता दे"...

"ठीक है बेटा...किराया हम यहीं दे देंगे...तू चिंता ना कर”...

“हम तो तुझे पहले ही रोक रहे थे ना बेटा लेकिन क्या करें?...वो शारदा ही नहीं मानी"...

"ठीक है...बेटा...हाँ…आ जा"…

"हैलो!...हैलो...

“क्या हुआ बेटा?…फोन क्यों काट दिया बेटा?"... 

"क्या हुआ?".... 

"चम्पा का फोन था"...

"अच्छा?...क्या कह रही थी?"...

"यहीं दिल्ली में ही है...किसी कोठी में काम कर रही है".... 

"लेकिन वो तो गाँव जाने की कह कर गई थी ना?"...

"मैँ ना कहती थी कि सब ड्रामा है...यहीं कहीं लगवा दिया होगा"...

"कह तो रही है...कि आ रही हूँ"...

"कहाँ से फोन किया था?"... 

"किसी 'पी.सी.ओ' से कर रही थी...कह तो रही थी कि अभी आधे घंटे में पहुँच जाऊगी"...

"हे!…ऊपरवाले...तेरा लाख-लाख शुक्र है"...

"अब तो खुश?"...

"बहुत"...

"एक मिनट!...फोन तो देना"... 

"कहाँ मिलाना है?....मैँ मिला देती हूँ"...

"पुलिस स्टेशन"...

"किसलिए?"... 

"वैरीफिकेशन”…

"छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"... 

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

rajivtaneja2004@gmail.com 

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919213766753

+919136159706

 

काम हो गया है…मार दो हथोड़ा- राजीव तनेजा

***राजीव तनेजा***

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"हैलो!…इज़ इट...+91 804325678 ?”...

"जी!..कहिये"...

"सैटिंगानन्द महराज जी है?"…

"हाँ जी!...बोल रहा हूँ..आप कौन?"

"जी!…मैँ..राजीव बोल रहा हूँ"…

"कहाँ से?”…

"मुँह से"...

"वहाँ से तो सभी बोलते हैँ...क्या आप कहीं और से भी बोलने में महारथ रखते हैँ?"…

"जी नहीं!...मेरा मतलब ये नहीं था"...

"तो फिर क्या तात्पर्य था आपकी बात का?"...

"दरअसल!...मैँ कहना चाहता था कि मैँ शालीमार बाग से बोल रहा हूँ"..

"ओ.के…लेकिन आपको मेरा ये पर्सनल नम्बर कहाँ से मिला?”..

"जी!...दरअसल ..वाराणसी से लौटते समय श्री लौटाचन्द जी ने मुझे आपका ये नम्बर दिया था"…

"अच्छा!...अच्छा...फोन करने का कोई खास मकसद?”…

"जी!...मुझे पता चला था कि इस बार दिल्ली में शिविर का आयोजन होना है"...

"जी!…आपने बिलकुल सही सुना है"...

"तो मैँ चाहता था कि इस बार का...

"देखिए!...आजकल  हमारे फोनों के टेप-टाप होने का खतरा बना रहता है इसलिए अभी ज़्यादा बात करना उचित नहीं"...

"जी!…

“ऐसा करते हैँ...मैँ दो दिन बाद मैँ दिल्ली आ रहा हूँ...आप अपना पता और फोन नम्बर मुझे मेल कर दें... आपके घर पे ही आ जाता हूँ और फिर आराम से बैठ के सारी बातें...सारे मैटर डिस्कस कर लेंगे विस्तार से"...

"जी!…जैसा आप उचित समझें"...

“आप मेरी ई-मेल आई.डी नोट कर लें”....

"जी!...बताएँ"...

आई.डी है व्यवस्थानन्द@नकदनरायण.कॉम

"ठीक है!...मैँ अभी मेल करता हूँ"...

"ओ.के...आपका दिन मँगलमय हो"

"आपका भी"

(दो दिन बाद)

ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग....

“हैलो ...राजीव जी?”...

"जी!...बोल रहा हूँ"...

"मैँ सैटिंगानन्द!.....बाहर खड़ा कब से कॉलबैल बजा रहा हूँ...लेकिन कोई दरवाज़ा ही नहीं खोल रहा है"..

"ओह!...अच्छा....एक मिनट…मैं अभी आता हूँ"…

“जी!..

(दरवाज़ा खोलने के पश्चात)

“नमस्कार जी"…

“नमस्कार…नमस्कार…कहिये!…कैसे हैं आप?”..

“बहुत बढ़िया…आप सुनाएं"…

“मैं भी ठीकठाक…सब कुशल-मंगल"…

“आईए..यहाँ...यहाँ सोफे पे विराजिए"..

“जी!…

"वो दरअसल…क्या है कि आजकल हमारी कॉलबैल खराब  है और ये पड़ोसियों के बच्चे भी पूरी आफत हैँ आफत...एक से एक नौटंकीबाज ...एक से एक ड्रामेबाज…मन तो करता है कि एक-एक को पकड़ के दूँ कान के नीचे खींच के एक"….

"छोडिये!…तनेजा जी…बच्चे हैँ...बच्चों का काम है शरारत करना"...

"अरे!…नहीं….आप नहीं जानते इनको…आप तो पहली बार आए हैं…इसलिए ऐसा कह रहे हैं वर्ना ये बच्चे तो ऐसे हैँ कि बड़े-बड़ों के कान कतर डालें…वक्त-बेवक्त तंग करना तो कोई इनसे सीखे...ना दिन देखते हैँ ना रात....फट्ट से घंटी बजाते हैँ  और झट से फुर्र हो जाते हैँ"

"ओह!…

“इसीलिए…इस बार जो घंटी खराब हुई तो ठीक करवाना उचित नहीं समझा"...

"बिलकुल सही किया आपने”...

“आजकल तो वैसे भी बच्चे-बच्चे के पास मोबाईल है...जो आएगा...अपने आप कॉल कर लेगा"...

"जी!…

"सफर में कोई दिक्कत..कोई परेशानी तो नहीं हुई?"...

"नहीं!...ऐसी कोई खास दिक्कत या परेशानी तो नहीं लेकिन बस…थकावट वगैरा तो हो ही जाती है लम्बे सफर में”...

“जी!…

“बदन कुछ-कुछ टूट-टूट सा रहा है" सैटिंगानन्द जी अंगड़ाई लेते हुए बोले...

"ओह!…आप कहें तो थोड़ी मालिश-वालिश…

“नहीं-नहीं…रहने दें…आपको कष्ट होगा"..

“अजी!…काहे का कष्ट?…घर आए मेहमान की सेवा करना तो मेरा परम धर्म है"…

“अरे!…नहीं…रहने दें…घंटे-दो घंटे सुस्ता लूँगा तो ऐसे ही आराम आ जाएगा"…

“जी!… जैसा आप उचित समझें"…

“आपसे मिलने को मन बहुत उतावला था...इसलिए इधर स्टेशन पे गाड़ी रुकी और उधर मैँने ऑटो पकड़ा और सीधा आपके यहाँ पहुँच गया"....

"अच्छा किया"...

"पहले तो सोचा कि किसी होटल-वोटल में कोई आराम दायक कमरा ले के घंटे दो घंटे आराम कर…कमर सीधी कर लेता हूँ …उसके बाद आपसे मिलने चला आऊँगा लेकिन यू नो!...टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"…

"जी!….

“और ऊपर से टू बी फ्रैंक..मुझे पराए देस में ये…होटल वगैरा का पानी रास नहीं आता है और धर्मशाला या सराय में रहने से तो अच्छा है कि बन्दा प्लैटफार्म पर ही लेट-लाट के अपनी कमर का कबाड़ा कर ले”…

“जी!…ये तो है"…

“दरअसल!..इन सस्ते होटलों के भिचभिचे माहौल से बड़ी कोफ्त होती है मुझे...एक तो पैसे के पैसे खर्चो करो...ऊपर से दूसरों के इस्तेमालशुदा बिस्तर पे...

छी!...पता नहीं कैसे-कैसे लोग वहाँ आ के ठहरते होंगे और ना जाने क्या-क्या पुट्ठे-सीधे काम करते होंगे"...

"स्वामी जी!...ज़माना बदल गया है...ट्रैंड बदल गए हैँ…जीने के सारे मायने....सारे कायदे…सारे रंग-ढंग बदल गए हैँ….देश प्रगति की राह पर बाकी सभी उन्नत देशों के साथ कदम से कदम...कँधे से कँधा मिला के चल रहा है और अब तो वैसे भी ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है...इसलिए..बाहरले देशों का असर तो आएगा ही"...

"आग लगे ऐसे ग्लोबलाईज़ेशन को...ऐसी उन्नति को...ऐसी प्रगति को”…

“जी!…लेकिन…

“ऐसी तरक्की को क्या पकड़ के चाटना है जो खुद को खुद की ही नज़रों में गिरा दे…झुका दे?”..

“जी!…

"ऐसी भी क्या आगे बढने की...ऊँचा उठने की अँधी हवस....जो देश को...देश के आवाम को गर्त में ले जाए...पतन की राह पे ले जाए?"

"जी!…

“खैर!..छोड़ो इस सब को...जिनका काम है...वही गौर करेंगे इस सब पर…अपना क्या है?..हम तो ठहरे मलंग…मस्तमौले फकीर...जहाँ किस्मत ने धक्का देना है...वहीं झुल्ली-बिस्तरा उठा के चल देना है"...

"जी!…

“बस!..यही सब सोच के कि…किसी होटल में जा…धूनी रमाना अपने बस का नहीं…मैं सीधा आपके यहाँ चला आया कि दो-चार...दस दिन जितना भी मन करेगा....राजीव जी के साथ उन्हीं के घर पे…उन्हीं के बिस्तर में बिता लूँगा…आखिर!..हमारे लौटाचन्द जी के परम मित्र जो ठहरे"

"हे हे हे हे....कोई बात नहीं जी...ये भी आप ही का घर है...आप ही का बिस्तर है…जब तक जी में आए ..जहाँ चाहें…अलख जगा..धूनी रमाएँ"...

"ठीक है!...फिर कब करवा रहे हो कागज़ात मेरे नाम?..

"कागज़ात?"...

"अभी आप ही तो ने कहा ना"...

"क्या?"...

"यही कि ..ये भी आप ही का घर है"..

"हे हे हे हे….स्वामी जी!...आपके सैंस ऑफ ह्यूमर का भी कोई जवाब नहीं…भला ऐसा भी कहीं होता है कि….

“आमतौर पर तो नहीं लेकिन हाँ…किस्मत अगर ज्यादा ही मेहरबान हो तो…हो भी सकता है…हें…हें…हें…हें"..

'हा…हा…हा… वैरी फन्नी”…

“जी!…

“खैर!...ये सब बातें तो चलती ही रहेंगी...पहले आप नहा-धो के फ्रैश हो लें...तब तक मैँ चाय-वाय का प्रबन्ध करवाता हूँ"...

"नहीं वत्स!...चाय की इच्छा नहीं है...आप बेकार की तकलीफ रहने दें"...

"महराज!...इसमें तकलीफ कैसी?"..

"दरअसल!...क्या है कि मैँ चाय पीता ही नहीं हूँ"...

"सच्ची?”…

“जी!…

“वैरी स्ट्रेंज….जैसी आपकी मर्ज़ी…लेकिन अपनी कहूँ तो...सुबह आँख तब खुलती है जब चाय की प्याली बिस्कुट या रस्क के साथ सामने मेज़ पे सज चुकी होती है और फिर काम ही कुछ ऐसा है कि दिन भर किसी ना किसी का आया-गया लगा ही रहता है...इसलिए पूरे दिन में यही कोई आठ से दस कप चाय तो आराम से हो जाती है"...

"आठ-दस कप?"...

"जी!…

“वत्स!...सेहत के साथ यूँ…ऐसे खिलवाड़ अच्छा नहीं"...

"जी!…

“जानते नहीं कि सेहत अच्छी हो..तो सब अच्छा लगता है...वक्त-बेवक्त किसी और ने नहीं बल्कि तुम्हारे शरीर ने ही तुम्हारा साथ देना है"...

“जी!…

“इसलिए...इसे संभाल कर रखो और स्वस्थ रहो"…

“जी!…

“अब मुझे ही देखो…चाय पीना तो दूर की बात है ...मैँने आजतक कभी इसकी खाली प्याली को भी सूँघ के नहीं देखा है कि इसकी रंगत कैसी होती है?..इसकी खुशबु कैसी होती है?”...

"ठीक है…स्वामी जी…आप कहते हैं तो मैं कोशिश करूँगा कि इस सब से दूर रहूँ"…

"कोशिश नहीं...वचन दो मुझे"..

“जी!…

"कसम है तुम्हें तुम्हारे आने वाले कल की....खेतों में चलते हल की...जो आज के बाद तुमने कभी चाय को छुआ भी तो"...

"जी!…स्वामी जी!....आपके कहे का मान तो रखना ही पड़ेगा"...

"तो फिर मैँ आपके लिए दूध मँगवाता हूँ?...ठण्डा या गर्म?...कैसा लेना पसन्द करेंगे आप?"...

"दूध?"...

"जी!…

“वो तो मैँ दिन में सिर्फ एक बार ही लेता हूँ…सुबह चार बजे की पूजा के बाद...दो चम्मच शुद्ध देसी घी या फिर...शहद के साथ”…

"ओह!…तो फिर अभी आपके लिए नींबू-पानी या फिर खस का शरबत लेता आऊँ?”मैं उठने का उपक्रम करता हुआ बोला….

“नहीं!…रहने दीजिए…ये सब कष्ट तो आप बस रहने ही दीजिए”…

“अरे!..कष्ट कैसा?…आप मेरे मेहमान हैं और मेहमान की सेवा करना तो…

“अच्छा!…नहीं मानते हो तो मेरा एक काम ही कर दो"…

"जी!…ज़रूर….हुक्म करें"…

"वहाँ!....उधर मेरा कमंडल रखा है...आप उसे ही ला के मुझे दे दें"...

"अभी…इस वक्त आप क्या करेंगे उसका?"..

"दरअसल!..क्या है कि उसमें एक 'अरिस्टोक्रैट'  का अद्धा रखा है"...

"अद्धा?”…

“हाँ!…अद्धा…दरअसल हुआ क्या  आते वक्त ट्रेन में ऐसे ही किसी श्रधालु का हाथ देख रहा था तो उसी ने...ऐज़ ए गिफ्ट प्रैज़ैंट कर दिया"...

"ओह!...

"अब किसी के श्रद्धा से दिए गए उपहार को मैं कैसे लौटा देता?”…

“जी!…

“आप उसे ही मुझे पकड़ा दें और हो सके तो कुछ नमकीन और स्नैक्स वगैरा भी भिजवा दें"...

"जी!….ज़रूर"…

“जब तक मैँ इसे गटकता हूँ तब तक आप खाने का आर्डर भी कर दें…बड़ी भूख लगी है"सैटिंगानन्द महराज पेट पे हाथ फेरते हुए बोले...

"सोडा भी लेता आऊँ?"मेरे स्वर में व्यंग्य था ...

"नहीं!...यू नो...सोडे से मुझे गैस बनती है...और बार-बार गैस छोड़ना बड़ा अजीब सा लगता है...ऑकवर्ड सा लगता है"..

"जी!..

"पता नहीं इन कोला कम्पनियाँ को इस अच्छे भले...साफ-सुथरे पानी में गैस मिला के मिलता क्या है कि वो इसमें मिलावट कर इसे गन्दा कर देती हैँ...अपवित्र  कर देती हैँ?"

"जी!…

"आप एक काम करें...उधर मेरे झोले में शुद्ध गंगाजल पड़ा है…हाँ-हाँ…उसी 'बैगपाईपर' की बोतल में…आप उसे ही दे दें...काम चल जाएगा"वो अपने झोले की तरफ इशारा करते हुए बोले...

"जी!…आपने बताया नहीं कि आपका सफर कैसे कटा?"...

"सफर की तो आप पूछें ही मत...एक तो दुनिया भर का भीड़ भड़क्का..ऊपर से लम्बा सफर"…

“जी!…

“धकम्मपेल में हुई थकावट के कारण सारा बदन चूर-चूर हो रहा था और ऊपर से भूख के मारे बुरा हाल"…

“ओह!…

“घर से मैं ले के नहीं चला था और स्टेशनों के खाने का तो तुम्हें पता ही है कि …कैसा होता है?"…

“जी!…तो फिर स्टेशन से उतर के किसी अच्छे से….साफ़-सुथरे रेस्टोरेंट में…

“मैंने भी यही सोचा था कि जा के किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में शाही पनीर के साथ 'चूर-चूर नॉन' का लुत्फ़ लिया जाए ..

"यू नो!...शाही पनीर के साथ चूर-चूर नॉन का तो मज़ा ही कुछ और है?"

"जी!...ये तो मेरे भी फेवरेट हैँ"...

"गुड!…फिर मैँने सोचा कि बेकार में सौ दो सौ फूंक के क्या फायदा?...लंच टाईम भी होने ही वाला है और...राजीव जी भी तो भोजन करेंगे ही"...

"जी!…

“सो!...क्यों ना उन्हीं के घर का प्रसाद चख पेट-पूजा कर ली जाए?…उन्होंने मेरे लिए भी तो बनवाया ही होगा"

"हे हे हे हे....क्यों नहीं..क्यों नहीं?…बिलकुल सही किया आपने"...

"जी!…

“अब काम की बात करें?"मैं मुद्दे पे आता हुआ बोला...

"नहीं!...जब तक मैँ ये अद्धा गटकता हूँ...तब तक आप खाना लगवा दें क्योंके..पहले पेट पूजा...बाद में काम दूजा"...

"जी!...जैसा आप उचित समझें"...

"भय्यी!...और कोई चाहे कुछ भी कहता रहे लेकिन अपने तो पेट में तो जब तक दो जून अन्न का नहीं पहुँच जाता...तब तक कुछ करने का मन ही नहीं करता"...

"जी!…

“वो कहते हैँ ना कि भूखे पेट तो भजन भी ना सुहाए"

(खाना खाने के बाद)

"मज़ा आ गया...अति स्वादिष्ट....अति स्वादिष्ट"सैटिंगानन्द जी पेट पे हाथ फेर लम्बी सी डकार मारते हुए बोले

"हाँ!..अब बताएँ कि आप उन्हें कैसे जानते हैँ?"

"किन्हें?"...

"अरे!...अपने लौटाचन्द जी को और किन्हे?"...

"ओह!...अच्छा...दरअसल..वो हमारे और हम उनके लंग़ोटिया यार हैँ...अभी कुछ हफ्ते पहले ही मुलाकात हुई थी उनसे"…

"अभी आप कह रहे थे कि वो आपके लँगोटिया यार हैँ?"...

"जी!..

"फिर आप कहने लगे कि अभी कुछ ही हफ्ते पहले मुलाकात हुई?”…

"जी!…

"बात कुछ जमी नहीं"…

“क्या मतलब?”..

“लँगोटिया यार तो उसे कहा जाता है जिसके साथ बचपन की यारी हो...दोस्ती हो"...

"ओह!...आई.एम सॉरी…वैरी सॉरी…मैं आपको बताना तो भूल ही गया था कि लंगोटिया यार से मेरा ये तात्पर्य नहीं था"

"तो फिर क्या मतलब था आपका?"...

"जी!..एक्चुअली….दरअसल बात ये है कि वो मुझे पहली बार हरिद्वार में गंगा मैय्या के तट पे नंगे नहाते हुए मिले थे"

"नंगे?"...

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों का क्या मतलब?…हॉबी थी उनकी"…

“नंगे नहाना?”..

“नहीं!… जब भी वो हरिद्वार जाते थे तो नित्यक्रम बन जाता था उनका"..

“क्या?”..

“किसी ना किसी घाट पे हर रोज नहाना"…

“तो?”…

“उस दिन ‘हर की पौढी' का नंबर था"…

“तो?”…

“वहाँ पर चल रहे मंत्रोचार में  ऐसे खोए कि  उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि…आज पानी का बहाव कुछ ज्यादा तेज है”…

“तो?”..

“तो क्या?…उसी तेज़ बहाव के चलते उनकी लंगोटी जो बह गई थी गंगा नदी में…तो नंगे ही नहाएंगे ना?"...

"ओह!...लेकिन क्या घर से एक ही लंगोटी ले के निकले थे?"

"यही सब डाउट तो मुझे भी हुआ था और मैँने इस बाबत पूछा भी था लेकिन वो कुछ बताने को राज़ी ही नहीं थे"...

"ओह!…

“मैँने उन्हें अपनी ताज़ी-ताज़ी हुई दोस्ती का वास्ता भी दिया लेकिन वो नहीं माने"...

"ओह!…

“आखिर में जब मैँने उनका ढीठपना देख…तंग आ…उनसे वहीँ के वहीँ अपना लँगोट वापिस लेने की धमकी दी तो थोड़ी नानुकर के बाद सब बताने को राज़ी हुए"..

"अच्छा...फिर?"

"उन्होंने बताया कि घर से तो वो तीन ठौ लंगोटी ले के चले थे"...

“ओ.के"…

"एक खुद पहने थे और दो सूटकेस में नौकर के हाथों पैक करवा दी थी"...

"फिर तो उनके पास एक पहनी हुई और दो पैक की हुई…याने के कुल जमा तीन लँगोटियाँ होनी चाहिए थी?"...

"जी!..लेकिन...उनमें से एक को तो उनके साले साहब बिना पूछे ही उठा के चलते बने"...

“ओह!…

"बाद में जब फोन आया तो पता चला कि जनाब तो 'मँसूरी' पहुँच गए हैँ 'कैम्पटी फॉल' में नहाने के लिए"...

"हाँ!...फिर तो लँगोटी ले जा के उसने ठीक ही किया क्योंकि सख्ती के चलते मँसूरी का प्रशासन वहाँ नंगे नहाने की अनुमति बिलकुल नहीं देता है"..

"जी!…लेकिन मेरे ख्याल से तो लौटाचन्द जी को साफ-साफ कह देना चाहिए था अपने साले साहब को कि वो अपनी लँगोटी खुद खरीदें"...

“जी!..

"लेकिन किस मुँह से मना करते लौटाचन्द जी उसे?...वो खुद कई बार उसी की लँगोटी माँग के ले जा चुके थे...कभी गोवा भ्रमण के नाम पर तो कभी काँवड़ यात्रा के नाम पर और ऊपर से ये जीजा-साले का रिश्ता ही ऐसा है कि कोई कोई इनकार करे तो कैसे?"...

"ओह!…

“वो कहते हैँ ना कि…सारी खुदाई एक तरफ और...जोरू का भाई एक तरफ"...

"जी!…

"इसलिए मना नहीं कर पाए उसे…आखिर…लाडली जोरू का इकलौता भाई जो ठहरा"...

"लेकिन हिसाब से देखा जाए तो एक लँगोटी तो फिर भी बची रहनी चाहिए थी उनके पास"...

"बची रहनी चाहिए थी?...वो कैसे?"..

"अरे!..हाँ..याद आया....आप तो जानते ही हैँ अपने लौटाचन्द जी की..पी के कहीं भी इधर-उधर लुडक जाने की आदत को"...

"जी!..

"बस!...सोचा कि हरिद्वार तो ड्राई सिटी है...वहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं...सो..दिल्ली से ही इंग्लिश-देसी …सबका पूरा  इंतज़ाम कर के चले थे कि सफर में कोई दिक्कत ना हो"...

"ठीक किया उन्होंने...रास्ते में अगर मिल भी जाती तो बहुत मँहगी पड़ती"...

"जी!…

“फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…खुली छूट मिली तो बस…पीते गए....पीते गए"...

"ओह!…

“नतीजन!...ऐसी चढी कि हरिद्वार पहुँचने के बाद भी ...लाख उतारे ना उतरी"...

"ओह"...

"रात भर पता नहीं कहाँ लुड़कते-पुड़कते रहे"...

“ओह!…

"अगले दिन म्यूनिसिपल वालों को गंदी नाली में बेहोश पड़े मिले..पूरा बदन कीचड़ से सना हुआ...बदबू के मारे बुरा हाल"...

"ओह!...

"बदन से धोती…लँगोट सब गायब"...

"ओह!…कोई चोर-चार ले गया होगा"...

"अजी कहाँ?...हरिद्वार के चोर इतने गए गुज़रे भी नहीं कि किसी की इज़्ज़त...किसी की आबरू के साथ यूँ खिलवाड़ करते फिरें"...

"तो फिर?"...

"मेरे ख्याल से शायद...नाली में रहने वाले मुस्तैद चूहे रात भर डिनर के रूप में इन्हीं के कपड़े चबा गए होंगे"

"ओह!…

“बस!…तभी से हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई"...

"ओ.के”…

"वैसे...एक राज़ की बात बताऊँ?…उनसे कहिएगा नहीं...परम मित्र हैँ मेरे...बुरा मान जाएँगे"...

"जी!..बिलकुल नहीं…आप चिंता ना करें…बेशक सारी दुनिया कल की इधर होती आज इधर हो जाए लेकिन मेरी तरफ से इस बाबत आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी"...

“थैंक्स!…

"आप बेफिक्र हो के कोई भी राज़ की बात मुझ से कह सकते हैँ"...

"लेकिन..कहीं उनको पता चल गया तो?"...

"यूँ समझिए कि जहाँ कोई कॉंफीडैंशल बात इन कानों में पड़ी...वहीं इन कानों को समझो सरकारी  'सील' लग गई"

"गुड"..

“और ये लीजिए….लगे हाथ..ये बड़ा..मोटा सा...किंग साईज़ का ताला भी लग गया मेरी इस कलमुँही ज़ुबान पे"सैटिंगानन्द घप्प से अपना मुंह हथेली द्वारा बन्द करते हुए बोले

“गुड!…वैरी गुड"…

"जहाँ बारह-बारह सी.बी.आई वाले भी लाख कोशिश के बावजूद कुछ उगलवा नहीं पाए...वहाँ ये लौटानन्द चीज़ ही क्या है?"...

"सी.बी.आई. वाले?"...

"हाँ!… ‘सी.बी.आई’ वाले…पागल हैं स्साले…सब के सब"…

?…?…?…?…?

“उल्लू के चरखे...स्साले!..थर्ड डिग्री अपना के बाबा जी के बारे अंट-संट निकलवाना चाहते थे मेरी ज़ुबान से लेकिन मजाल है जो मैँने उफ तक की हो या एक शब्द भी मुँह से निकाला हो"...

"ओह!..

“ये सब तो खैर..आए साल चलता रहता है...कभी इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों के छापे...तो कभी  पुलिस और 'सी.बी.आई' की रेड"...

“ओह!..

"इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों का मामला तो अखबार और मीडिया में भी खूब उछला था कि इनकी फर्म हर साल लाखों करोड़ रुपयों की आयुर्वेदिक दवायियाँ  बेचती है और एक्सपोर्ट भी करती है लेकिन उसके मुकाबले टैक्स आधा भी नहीं भरा जाता"...

"आधा?...

“अरे!...हमारा बस चले तो आधा  क्या हम अधूरा भी ना भरें"...

"लेकिन स्वामी जी!...टैक्स तो भरना ही चाहिए आपको...देश के लिए...देश के लोगों के भले के लिए"...

"पहले अपना...फिर अपनों का भला कर लें..बाद में देश की..देश के लोगों की सोचेंगे"...

"जी!…एक आरोप और भी तो लगा था ना आप पर?"...

"कौन सा?"...

"यही कि आपकी दवाईयों में जानवरो की...

"ओह!...अच्छा...वो वाला...उसमें तो लाल झण्डे वालों की एक ताज़ी-ताज़ी बनी अभिनेत्री...

ऊप्स!...सॉरी...नेत्री ने इलज़ाम लगाया था कि हम अपनी दवाईयों में जानवरों की हड्डियाँ मिलाते....गो मूत्र मिलाते हैँ"..

“जी!…

"उस उल्लू की चरखी को जा के कोई ये बताए तो सही कि बिना हड्डियाँ मिलाए आयुर्वेदिक या यूनानी दवाईयों का निर्माण नहीं हो सकता"...

"जी!…

“और रही गोमूत्र की बात...तो उस जैसी लाभदायक चीज़...उस जैसा एंटीसैप्टिक तो पूरी दुनिया में और कोई नहीं"...

"जी!..उस नेत्री को तो मैँने भी कई बार देखा था टीवी....रेडियो वगैरा में बड़बड़ाते हुए"...

“अरे!..औरतज़ात थी इसलिए बाबा जी ने मेहर की और बक्श दिया वर्ना हमारे सेवादार तो उनके  एक हलके से...महीन से इशारे भर का इंतज़ार कर रहे थे"...

“हम्म!…

“पता भी नहीं चलना था कि कब उस अभिनेत्री...ऊप्स सॉरी नेत्री की हड्डियों का सुरमा बना...और कब वो सुरमा मिक्सर में पिसती दवाईयों के संग घोटे में घुट गया"...

"ये सब तो खैर आपके समझाने से समझ आ गया लेकिन ये पुलिस वाले बाबा जी के पीछे क्यों पड़े हुए थे?"....

"वैसे तो हर महीने...बिना कहे ही पुलिस वालों को और टैक्स वालों को उनकी मंथली पहुँच जाती है लेकिन इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही पेचीदा हो गया था एक पागल से आदमी ने  पुलिस में झूठी शिकायत कर दी कि…

“बाबा जी ने उसकी बीवी और जवान बेटी को बहला-फुसला के अपनी सेवादारी में....अपनी तिमारदारी में लगा लिया है"...

"ओह!…

“अरे!..उसकी बीवी या फिर उसकी बेटी दूध पीती बच्ची है जो बहला लिया...फुसला लिया?"

"जी!…..

"अब अपनी मर्ज़ी से कोई बाबा जी की शरण में आना चाहे तो क्या बाबा जी उसे दुत्कार दें?... भगा दें?"...

"हम्म!…

“उसी पागल की देखादेखी एक-दो और ने भी सीधे-सीधे बाबा जी पे अपनी बहन...अपनी बहू को अगवा करने का आरोप जड़ दिया"

"ओह!…फिर क्या हुआ?”...

"होना क्या था?…कोई और आम इनसान  होता तो गुस्से से बौखला उठता...बदला लेने की नीयत से सोचता लेकिन अपने बाबा जी महान हैँ...अपने बाबा जी देवता हैँ"...

"जी!..

"चुपचाप मौन धारण कर  बिना किसी को बताए समाधि में लीन हो गए"....

"ओह"...

"बाद में मामला ठण्डा होने पर ही समाधि से बाहर निकले"...

“हम्म!…

"सहनशक्ति देखो बाबा जी की....विनम्रता देखो बाबा जी की…इतना ज़लील..इतना अपमानित...इतना बेइज़्ज़त होने के बावजूद भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा"...

"बस!...सबसे शांति बनाए रखने की अपील करते रहे"...

"जी!...

"और जब बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखा तो अपने वकीलों..अपने शुभचिंतकों से सलाह मशवरा करने के बाद कोई चारा ना देख...पुलिस वालों से सैटिंग कर ली और उन्होंने ने जो जो माँगा...चुपचाप बिना किसी ना नुकुर के तुरंत दे दिया"..

"बिलकुल ठीक किया...कौन कुत्तों को मुँह लगाता फिरे?"..

"बदले में पुलिस वालों ने शहर में अमन और शांति बनाए रखने की गर्ज़ से दोनों पक्षों  में समझौता करा दिया"...

"ओह!…

“जब शिकायतकर्ताओं ने आपसी रज़ामंदी और म्यूचुअल अण्डरस्टैडिंग के चलते अपनी सभी शिकायतें वापिस ले ली तो बाबा जी के आश्रम ने भी उन पर थोपे गए सभी केस..सभी मुकदमे बिना किसी शर्त वापिस ले लिए"..

“जी!…

"आप शायद कोई राज़ की बात बताने वाले थे?"...

"राज़ की बात?"...

"जी!…

“हाँ!...याद आया...मैँ तो बस इतना ही कहना चाहता था कि उन्होंने याने के लौटाचन्द जी ने अभी तक मेरी लंगोटी वापिस नहीं की है"...

"हा...हा...हा...वैरी फन्नी...आप तो बहुत हँसाते हो यार"...

"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट….क्या करूँ?…ऊपरवाले ने बनाया ही कुछ ऐसा है"

"ये ऊपरवाला...कहीं आपसे ऊपरवाली मंज़िल पे तो नहीं रहता?"...

"ही...ही....ही...यू ऑर आल सो वैरी फन्नी"...

"जी!…अपने को भी ऊपरवाले ने कुछ ऐसा ही बनाया है"..

“एक जिज्ञासा थी स्वामी जी"…

"पूछो वत्स"...

"ये जो स्वामी जी के शिविर वगैरा लगते रहते हैँ ...पूरे देश में"...

"जी!…

"इन्हें आर्गेनाईज़ करने वाले को भी कोई फायदा होता है इसमें?”..

"फायदा?"...

"जी!…

“अरे!...उनके तो लोक-परलोक सुधर जाते हैं…अगले-पिछले सब पाप धुल जाते हैं…आज़ाद हो जाते हैँ इस मोह-माया के बंधन से..मन शांत एवं निर्मल रहने लगता है…वगैरा..वगैरा"...

"ये बात तो ठीक है लेकिन मेरा मतलब था कि इतने सब इंतज़ाम करने में वक्त और पैसा सब लगता है"...

"वत्स!...हमारे बाबा जी का जो एक बार सतसंग या योग शिविर रखवा लेता है.....वो सारे खर्चे...सारी लागत निकालने के बाद आराम से अपनी तथा अपने परिवार की छह से आठ महीने तक की रोटी निकाल लेता है"... 

"सिर्फ रोटी?"मैं नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ बोला...

"और नहीं तो क्या लड्डू-पेड़े?”...

लेकिन सिर्फ इतने भर से….

“एक्चुअली टू बी फ्रैंक...बचता तो बहुत ज़्यादा है लेकिन हमें  ऐसा कहना पड़ता है नहीं तो कभी-कभार कम टिकटें बिकने पर आर्गेनाईज़र लोगों के ऊँची परवान चढे सपने धाराशाई हो जाते हैँ…और हम ठहरे ईश्वर के प्रकोप से डरने वाले सीधे-साधे लोग…इसलिए!…अपने भक्तों को दुखी नहीं देख सकते...निराश नहीं देख सकते" ..

"ओह!…वैसे आजकल बाबा जी का रेट क्या चल रहा है"...

“रेट?”…

“जी!…

“फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन…बाबा जी बिकाऊ नहीं हैं"…

“म्मेरा…मेरा ये मतलब नहीं था…ममैं…तो बस इतना ही पूछना चाहता था कि सात दिन के एक शिविर में बाबा जी के विजिट के कितने चार्जेज हैं?”…

“ओह!...तो फिर ऐसा कहना था ना…लैट मी कैलकुलेट…. सात दिनों के ना?”…

“जी!…

“पचास लाख" सैटिंगानन्द महराज जेब से कैलकुलेटर निकाल कुछ हिसाब लगाते हुए बोले ..

"लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो पांच साल पहले बाबा जी ने इतने दिन के ही शिविर के तीस लाख लिए थे"…

"तो क्या हुआ?...इन पिछले पांच सालों में महंगाई का पता है कि कितनी बढ़ गई है?...साग-सब्जियों के दामों में रोजाना नए सिरे से आग लगती है …पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें हैं कि काबू में आने का नाम ही नहीं ले रही...जिस चीज़ को हाथ लगाओ...उसी के दाम आसमान को छू रहे होते हैं"…

“जी!…ल्लेकिन…एकदम से इतने ज्यादा...कोई अफोर्ड करे भी तो कैसे?"..

“अरे!..पाँच सालों में तो बैंक पे पड़े रूपए भी दुगने होने को आते हैं...इस हिसाब से देखा जाए तो बाबा जी ने आम आवाम का ध्यान रखते हुए तीस के पचास किए हैँ...साठ नहीं"...

"जी!...

"बातें तो बहुत हो गई...अब क्यों ना काम की बात करते हुए असल मुद्दे पे आया जाए?"...

"जी!...ज़रूर"...

"तो फरमाएं...क्या चाहते हैं आप मुझसे?"..

"यही कि इस बार दिल्ली के शिविर का ठेका मुझे मिलना चाहिए"...

"लेकिन मेरे ख्याल से तो इस बार की डील शायद मेहरा ग्रुप वालों के साथ फाईनल होने जा रही है"...

"सब आपके हाथ में है...आप जिसे चाहेंगे...वही नोट कूटेगा"

"बात तो आपकी ठीक है लेकिन वो गैडगिल का बच्चा...

"अजी!...लेकिन-वेकिन को मारिए गोली और टू बी फ्रैंक हो के सीधे-सीधे बताईए कि आपका पेट कितने में भरेगा?"..

"ये आपने बहुत बढ़िया बात की…मुझे वही लोग पसन्द आते हैँ जो फाल्तू बातों में टाईम वेस्ट नहीं करते और सीधे मुद्दे की बात करते हैं"...

"जी!...अपनी भी आदत कुछ-कुछ ऐसी ही है"...

"साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो ज़्यादा लालच नहीं है मुझे"...

"फिर भी कितना?"...

"जो मन में आए...दे देना"....

"लेकिन बात पहले खुल जाए तो ज़्यादा बेहतर...बाद में दिक्कत पेश नहीं आती....यू नो!...पैसा चीज़ ही ऐसी है कि बाद में बड़ों बड़ों के मन डोल जाते हैँ"

"अरे!...यार...मैँ तो अदना सा...तुच्छ सा प्राणी हूँ...ज़्यादा ऊँची उड़ान उड़ने के बजाय ज़मीन पे चलना पसन्द करता हूँ"...

"पहेलियाँ ना बुझाएं प्लीज़..मुझे इनसे बड़ी कोफ़्त होती है"...

"बस!...आटे में नमक बराबर दे देना"...

"आप साफ-साफ कहें ना कि ...कितना?"...

"ठीक है!...बाबा जी का तो आपको पता ही है...पचास लाख उनके और उसका दस परसैंट...याने के पाँच लाख मेरा...टोटल हो गया पचपन लाख"...

"लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है...मेहरा ग्रुप वाले तो इससे काफी कम में डील फाईनल करने जा रहे थे"...

"जी!...आपकी बात सही है...सच्ची है लेकिन उनके मुँह से निवाला छीनने में यू नो...

"मुझे भी कोई ना कोई जवाब दे उन्हें टालना पड़ेगा..और साथ ही साथ...ऊपर से नीचे तक काफी उठा-पटक करने की ज़रूरत पड़ेगी...कईयों के मुँह बन्द करने पड़ेंगे"...

"जी!...वो तो लौटाचन्द जी ने कहा था किसी और से बात करने के बजाय सीधा 'सैटिंगानन्द' जी से ही बात करना...इसीलिए मैँनेआपको कांटैक्ट किया वर्ना वो गैडगिल तो बाबा जी से भी डिस्काउंट दिलाने की बात कह रहा था"..

"उस स्साले!...गैडगिल की तो मैँ...कोई भरोसा नहीं उसका...कई पार्टियों से एडवांस ले के भी मुकर चुका है..आप चाहें तो खुद हमारे दफ्तर से पता कर लें"...

"हम्म!...

"मैँ तो कहता हूँ कि ऐसे काम से क्या फायदा?...बाद में उसके चक्कर काटते रहोगे"...

"जी!...

"वैसे…एक बात टू बी फ्रैंक हो के कहूँ?....

"जी!...ज़रूर"...

'खाना उसने भी है और खाना मैँने भी है लेकिन जहाँ एक तरफ आजकल वो मोटा होने के लिए ज़्यादा फैट्स...ज़्यादा प्रोटींन वगैरा ले रहा है...वहीं मैँने आजकल पतला होने की ठानी है...इसलिए मार्निंग वॉक के अलावा बाबा 'रामदेव' जी का योगा भी शुरू किया है”...

“कमाल के चीज़ है ये योगा भी...यू नो!... पिछले बीस दिनों में...मैँ पंद्र्ह किलो वेट लूज़ कर चुका हूँ"...

"दैट्स नाईस...इसीलिए आप फिट-फिट भी लग रहे हैँ"...

"थैंक्स!..थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"...

ट्रिंग...ट्रिंग...."...

"एक मिनट…पहले ज़रा ये फोन अटैंड कर लूँ"..

“जी!…बड़े शौक से"…

“हैलो...कौन?"...

"लौटाचन्द जी?”....

"नमस्कार"...

"हाँ जी!...उसी के बारे में बात कर रहे थे"...

"बस!...फाईनल ही समझिए"...

"ठीक है!...एडवांस दिए देता हूँ"...

"कितना?"...

"पाँच लाख से कम नहीं?"...

"लेकिन अभी तो यहाँ...घर पे मेरे पास यही कोई तीन...सवा तीन के आस-पास पड़ा होगा"...

"ठीक है!...आप दो लाख लेते आएँ...आज ही साईनिंग एमाउंट दे के डील फाईनल कर लेते हैँ"...

"जी!...नेक काम में देरी कैसी?"...

"आधे घंटे में पहुँच जाएँगे?"...

"ठीक है!..मैँ वेट कर रहा हूँ"...

“ओ.के...बाय"

(फोन रख दिया जाता है)

"अपने लौटाचन्द जी थे...बस..अभी आते ही होंगे"..

"तो क्या लौटाचन्द जी भी आपके साथ?"...

"जी!...पहली बार आर्गेनाईज़ करने की सोची है ना...इसलिए...पूरा कॉंफीडैंस नहीं है"...

"चिंता ना करो..राम जी सब भली करेंगे...मैँ तो कहता हूँ कि ऐसा चस्का लगेगा कि सारे काम..सारे धन्धे भूल जाओगे...लाखों के वारे-न्यारे होंगे..लाखों के"...

"एक मिनट!..आप बैठें ..मैँ पेमैंट ले आता हूँ"...

"ठीक है...गिनने में भी तो वक्त लगेगा..लेते आइये"...

"जी!..मैं बस..ये गया और वो आया"...

"जी!...

(पांच मिनट बाद)

"लीजिए!...स्वामी जी..गिन लीजिए..पूरे साढे तीन लाख है...बाकी के ढेढ लाख भी बस आते ही होंगे"... 

"जी!...

"और बाबा जी के पेमैंट तो डाईरैक्ट उन्हीं के पास..आश्रम में पहुँचानी है ना?"...

"नहीं!..वहाँ नहीं...आजकल बड़ी सख्ती चल रही है...उड़ती-उड़ती खबर पता चली है कि  कुछ सी.बी.आई वाले सेवादारो के भेष में आश्रम के चप्पे-चप्पे पे नज़र रखे बैठे हैँ"...

"ओह!...तो फिर?"...

"चिंता की कोई बात नहीं...हमारे पास और भी बहुत से जुगाड हैं...वो सेर हैं तो हम सवा सेर"...

"जी!...

"आपको एक कोड वर्ड बताया जाएगा"...

"जी!...

"जो कोई भी वो कोड वर्ड आपको बताए..आप रकम उसी के हवाले कर देना"...

"जी!...

"वो उसे हवाला के जरिए बाहरले मुल्कों में बाबा जी के बेनामी खातो में जमा करवा देगा"..

"जी!...जैसा आप उचित समझें"...

"ठक...ठक..ठक.."

"लगता है कि लौटाचन्द जी आ गए…टाईम के बड़े पाबन्द हैं"..

"जी!..यही लगता है" सैटिंगानन्द महराज घड़ी देखते हुए बोले...

"एक मिनट!...मैँ दरवाज़ा खोल के आता हूँ...आप आराम से गिनिए"...

"जी!..

"आईए!...आईए... S.H.O साहब और गिरफ्तार कर लीजिए इस ढोंगी और पाखँडी को"...

"धोखा"....

"सारे सबूत...आवाज़ और विडियो की शक्ल में रिकार्ड कर लिए हैँ मैँने इसके खिलाफ और आपके दिए इन नोटों पर भी इसकी उँगलियों  के निशान छप चुके होंगे"

"छोडों…छोड़ो मुझे…मैं कहता हूँ…छोड़ो मुझे"..

“कस के पकड़े रहना  S.H.O साहब…कोई भरोसा नहीं इसका”… 

“अरे!...कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी पुलिस मेरा...दो दिन भी अन्दर नहीं रख पाएगी तेरी ये पुलिस मुझे"..

"जानता नहीं कि "बाबा जी महान है"...उनकी की पहुँच कहाँ तक है?"...

"चिंता ना कर...तेरे चहेते बाबा जी के आश्रम में भी रेड पड़ चुकी है"...

"क्क्या?"...

"इधर तेरा विडियो बन रहा था तो उधर उनका भी बन रहा था"...

"क्क्या?"..

"हाँ!...अपने लौटाचन्द जी वहीं है और उन्हीं का फोन था उस वक्त कि....

"काम हो गया है...मार दो हथोड़ा"..

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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