पाकिस्तान मेल - खुशवंत सिंह - उषा महाजन (अनुवाद)


भारत-पाकिस्तान के त्रासदी भरे विभाजन ने जहाँ एक तरफ़ लाखों करोड़ों लोगों को उनके घर से बेघर कर दिया तो वहीं दूसरी तरफ़ जाने कितने लोग अनचाही मौतों का शिकार हो वक्त से पहले ही इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए। हज़ारों-लाखों लोग अब तक भी अपने परिवारजनों के बिछुड़ जाने के दुख से उबर नहीं पाए हैं। सैंकड़ों की संख्या में बलात्कार हुए और अनेकों बच्चे अपने परिवारजनों से बिछुड़ कर अनाथ के रूप में जीवन जीने को मजबूर हो गए। इसी अथाह दुःख और विषाद से भरी घड़ियों को ले कर अब तक अनेकों रचनाएँ  लिखी जा चुकी हैं और आने वाले समय में भी लिखी जाती रहेंगी। 


दोस्तों आज मैं इसी भयंकर राजनैतिक भूल से उपजी दुःख और अवसादभरी परिस्थितियों को ले कर रचे गए ऐसे उपन्यास के हिंदी अनुवाद की बात करने जा रहा हूँ जिसे मूलतः अँग्रेज़ी में 'ट्रेन टू पाकिस्तान' के नाम से लिखा था प्रसिद्ध अँग्रेज़ी लेखक 'खुशवंत सिंह' ने और इसी उपन्यास का 'पाकिस्तान मेल' के नाम से हिंदी अनुवाद किया है उषा महाजन ने।


इस उपन्यास की मूल कथा में एक तरफ़ कहानी है भारत-पाकिस्तान की सीमा पर बसे एक काल्पनिक गाँव 'मनो माजरा' में रहने वाले जग्गा नाम के एक सज़ायाफ्ता मुजरिम की। जिसने अपने गांव की ही एक मुस्लिम युवती के प्यार में पड़ सभी बुरे कामों से तौबा कर ली है। इसी बात से नाराज़ उसके पुराने साथियों को उसकी ये तौबा रास नहीं आती और वे जानबूझकर उसे फँसाने के लिए उसी के गांव में डाका डाल कर एक व्यक्ति की हत्या कर देते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है वामपंथी विचारधारा से प्रेरित एक पढ़े-लिखे सिख युवक इकबाल सिंह की, जिसे आम जनता के विचारों की टोह लेने एवं उन्हें प्रभावित करने के मकसद से 'मनो माजरा' में उसके नेताओं द्वारा भेजा गया है। 


इस उपन्यास में कहीं भारत-पाक विभाजन की त्रासदी के दौरान पनपती आपसी नफ़रत और अविश्वास की बात होती नज़र आती है तो कहीं धार्मिक सोहाद्र और इंसानियत से भरी प्रेमभाव की बातें होती नज़र आती हैं। कहीं कत्लेआम के ज़रिए दोनों पक्षों (हिंदू और मुसलमान) के निरपराध नागरिक हलाक होते नज़र आते हैं तो कहीं अफसरों के ऐशोआराम और अय्याशियों की बात होती नजर आती है। 


कहीं देश हित के नाम पर तख़्तापलट के ज़रिए सत्ता परिवर्तन के मंसूबों को हवा मिलती दिखाई देती है तो कहीं देश में बेहिसाब बढ़ती जनसंख्या की बात की जाती दिखाई देती है।

इसी उपन्यास में कहीं जबरन उलटे- सीधे आरोप लगा कर किसी को भी पुलिस अपने जाल में फँसाती नज़र आती है तो कहीं पुलिस थानों में होने वाली कागज़ी कार्यवाही में अपनी सुविधानुसार लीपापोती की जाती दिखाई देती है। कहीं जेल में कैदियों को दी जाने वाली सुविधाओं में भी कैदी-कैदी के बीच भेदभाव होता दिखाई देता है तो कहीं सरकारी महकमों में पद और योग्यता के हिसाब से ऊँच-नीच होती नज़र आती है।


इसी कहानी में कहीं हिन्दू लाशों से भर कर पाकिस्तान से ट्रेन के आने की बात के बाद सरकारी अमला अलर्ट मोड में आता दिखाई देता है तो कहीं गाँव घर से इकट्ठी की गई लकड़ी और मिट्टी के तेल की मदद से उन्हीं लाशों का सामुहिक दाहकर्म होता दिखाई देता है। कहीं लकड़ी और तेल की कमी के चलते सामूहिक रूप से लाशें दफनाई जाती नज़र आती हैं। तो कहीं  सरकार एवं पुलिस महकमा अपने उदासीन रवैये के साथ पूरी शिद्दत से मौजूद नज़र आता है। कहीं लूट-खसोट, छीनाझपटी और बलात्कार इत्यादि में विश्वास रखने वाले हावी होते नज़र आते हैं तो कहीं पुलिसिया कहर और हुक्मरानों द्वारा जबरन अपनी इच्छानुसार किसी पर भी कोई भी इल्ज़ाम थोप देने की बात होती नज़र आती है। 


इसी किताब में कहीं अंधविश्वास और सेक्स से जुड़ी बातों को लेकर भारतीय मानसिकता की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं मिलजुल कर शांति और प्रेमभाव से रह रहे सिखों और मुसलमानों के बीच शक-शुबह के बीज बो नफ़रत पैदा करने के हुक्मरानी मंसूबो को हवा मिलती नज़र आती है। कहीं पाकिस्तान की तरफ़ से सतलुज नदी में कत्ल कर दिए गए बेगुनाह बच्चों, बूढ़ों और औरतों के कष्ट-विक्षत शवों के बह कर भारत की तरफ़ आने का रौंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य पढ़ने को मिलता है। तो कहीं योजना बना कर मुसलमानों से भरी पाकिस्तान जा रही ट्रेन में सामूहिक नरसंहार को अंजाम दिया जाता दिखाई देता है। जिस पर पुलिस एवं स्थानीय प्रशासन भी अपने उदासीन रवैये के ज़रिए इस सब को होने देने के लिए रज़ामंद नज़र आता है। 


इस तेज़, धाराप्रवाह, रौंगटे खड़े कर देने वाले रोचक उपन्यास 

में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफरीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। जिन पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 


● पेज नंबर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..


'आग की लाल लपटें काले आकश में लपक रही थीं'


यहाँ 'काले आकश में' की जगह 'काले आकाश में' आएगा। 


● पेज नंबर 109 में लिखा दिखाई दिया कि..


'बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है। हवा से प्रकाश को लजा जाती है। बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है।


यहाँ 'हवा से प्रकाश को लजा जाती है' की जगह 'हवा से प्रकाश को लज्जा आती है' या फ़िर 'हवा से प्रकाश को लज्जा आ रही है' आना चाहिए।


इसके बाद अगली पंक्ति में एक बार फ़िर से लिखा दिखाई दिया कि..


'बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है'


यह पंक्ति ग़लती से दो बार छप गई है। 


● पेज नंबर 123 में लिखा दिखाई दिया कि..


'हफ्ते-भर तक इकबाल अपनी कोठी में अकेला ही था'


इस दृश्य में इकबाल थाने में बंद है। इसलिए यहाँ 'कोठी' नहीं 'कोठरी' आना चाहिए। 


● पेज नंबर 125 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इनका मनो-मस्तिष्क हमेशा इससे त्रस्त रहता है'


यहाँ 'मनो-मस्तिष्क' की जगह 'मन-मस्तिष्क' आना चाहिए। 


● पेज नंबर 142 में लिखा दिखाई दिया कि..


'पुलिस ककने डकैती के सिलसिले में मल्ली को गिरफ़्तार कर दिया है'


यहाँ 'पुलिस ककने डकैती के सिलसिले में' की जगह 'पुलिस ने डकैती के सिलसिले में' आएगा। 


पेज नंबर 151 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'जाते वक्त मेरे साथ ऐसी निठुर ना बन'

यहाँ 'ऐसी निठुर ना बन' की जगह 'ऐसी निष्ठुर ना बन' आएगा। 

पेज नंबर 183 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं जानता हूँ कि आज मेरे से नाराज होंगे'

यहाँ 'आज मेरे से नाराज होंगे' की जगह 'आप मेरे से नाराज होंगे' आएगा। 

* जँभाई - जम्हाई

इस बेहद रोचक उपन्यास के बढ़ियाअनुवाद के लिए उषा महाजन जी बधाई की पात्र हैं। इस 208 पृष्ठीय दमदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

राघव - खंड - 1- विनय सक्सेना

बॉलीवुड की फ़िल्मों में आमतौर पर आपने देखा होगा कि ज़्यादातर प्रोड्यूसर एक ही ढर्रे या तयशुदा फॉर्मयुलों पर आधारित फ़िल्में बनाते हैं या बनाने का प्रयास करते हैं। एक समय था जब खोया-पाया या कुंभ के मेले में बिछुड़े भाई-बहन का मिलना हो अथवा बचपन में माँ-बाप के कत्ल का बदला नायक द्वारा जवानी में लिया जाना हो इत्यादि फॉर्मयुलों पर आधारित फिल्मों की एक तरह से बाढ़ आ गयी थी। 

इसी तरह किसी एक देशभक्ति की फ़िल्म के आने की देर होती है कि उसी तर्ज़ पर अनेक फिल्में अनेक भाषाओं में बनने लगती हैं। एक बाहुबली क्या ब्लॉग बस्टर साबित हुई कि उसके बाद ऐश्वर्या रॉय (बच्चन) और विक्रम समेत दक्षिण के बड़े-बड़े सितारे तक राजमहलों और युध्दों से संबंधित षड़यंत्रकारी फिल्मों में व्यस्त होते चले गए। 

कुछ-कुछ ऐसा ही हाल हमारे देश में साहित्य का भी है। आमतौर पर कोई भी लेखक अथवा कवि अपने सोच एवं विचारों से वशीभूत होकर किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम चलाता है या चलाने का प्रयास करता है जो उसे उसकी सोच के हिसाब से सही लगते हैं लेकिन बहुत से लेखक ऑन डिमांड भी किसी की मॉंग के अनुसार उसके सुझाए या दिए गए विषय पर भी उतनी ही सहजता से अपनी कलम चला लेते हैं जितनी सुगमता से वे अपने मन की इच्छा एवं रुचिनुसार विषय पर अपनी सोच के घोड़ों को दौड़ाते हुए लिखते हैं। लेकिन कई बार भेड़चाल को देखते हुए हम किसी ऐसे ट्रेंडिंग विषय पर भी अपनी सोच की नैय्या खेने लगते हैं जिस पर पहले ही बहुत से लेखक लिख चुके हैं या लिखने जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर मूल कहानी के एक ही होते हुए भी तुलसीदास या बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के ही लगभग 300 से ज़्यादा अलग-अलग वर्ज़न आ चुके हैं जो भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न देशों में विभिन्न लोगों द्वारा लिखे या रचे गए। इसी रामायण की प्रसिद्ध कहानी को अँग्रेज़ी लेखक अमीश त्रिपाठी द्वारा बड़े स्तर पर हॉलीवुड स्टाइल में लिखा गया जिसकी बिक्री के आँकड़े चौंकाते हैं। ख़ैर.. इस विषय में ज़्यादा बातें फ़िर कभी किसी अन्य पोस्ट में। फिलहाल मैं यहाँ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर पाँच खण्डों में लिखे गए उपन्यास 'राघव' के पहले खंड की बात करने या रहा हूँ जिसे लिखा है विनय सक्सेना ने।

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है किशनूर राज्य पर नज़रें गड़ाए उसके पड़ोसी राज्यों प्रकस्थ एवं तितार की षड़यंत्रभरी कोशिशों की। जिनके तहत एक तरफ़ किशनूर के युवाओं को रूपवती युवतियों के ज़रिए वासना के जाल में उलझा अपनी तरफ़ मिलाया जा रहा है तो वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें नशे की 
गिरफ्त में ले नाकारा किया जा रहा है। 

 इस उपन्यास में एक तरफ़ 'राघव' राज्य से निकाले जा चुके अपराधियों/बेगुनाहों को संगठित करने में जुटा दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ़ मंथरा सरीखी 'रूपा' की षड़यंत्रभरी चालबाज़ियों में फँस, ममतामयी राजमहिषी भी अपने पुत्र को राजा बनने के मोह में अपने सौतेले पुत्र 'राघव' के लिए महाराज से देशनिकाला माँगती नज़र आती है। 

इस उपन्यास में कहीं युवराज और राजनर्तकी के मध्य प्रेम पनपता दिखाई देता है तो कहीं अत्याचारी राजा के अमानवीय अत्याचार होते दिखाई देते हैं। कहीं खंडहर हो चुके भव्य महल  का राघव के दिशानिर्देशोंनुसार जीर्णोद्धार होता दिखाई देता है तो कहीं इस कार्य में विशालकाय पक्षी भी राघव की मदद करते नज़र आते हैं। 

इसी उपन्यास में कहीं अस्त्रों-शास्त्रों के संचालन, व्यूह रचना एवं युध्दकौशल से जुड़ी बातें नज़र आती हैं तो कहीं शतरंज की बिसात पर शह और मात के खेल के ज़रिए रणनीति की गूढ़ बातें सरल अंदाज़ में समझाई जाती दिखाई देती हैं। इसी किताब में कहीं औषधीय चिकित्सा में वन्य वनस्पतियों का महत्त्व समझाया जाता दिखाई देता है। 

◆ किसी भी गुप्तचर या दुश्मन के क्षेत्र में घुसे सैनिक का कर्तव्य होता है कि वह पकड़े जाने पर अपने देश या राज्य की कोई भी जानकारी अपने शत्रुओं को न लगने दे लेकिन इस उपन्यास में युवराज राघव के गुप्त रूप से प्रकस्थ की राजकुमारी से मिलने के प्रयास के दौरान जब वह जानबूझकर अचानक अपनी सुरक्षा में तैनात सैनिकों की दृष्टि से ओझल हो ग़ायब हो जाता है। तो उसकी खोज में जंगल में भटकते हुए जब दमन और उसके सैनिक पकड़े जाते हैं तो उनका एक ही बार में सब राज़ उगल देना बड़ा हास्यास्पद एवं अजीब लगता है कि ऐसे ढीले लोगों को राज्य की सेना में शामिल ही क्यों किया गया। 

◆ पेज नम्बर 22-23 पर दिए गए एक प्रसंग में महाराज ऊँचे लंबे कद के बलिष्ठ देव से राज्य की सुरक्षा के संदर्भ में एक दूसरे से आदरपूर्वक भाषा में विचारविमर्श कर रहे हैं। इसी प्रसंग के दौरान  महाराज देव को निर्देश देते हुए कहते हैं कि..

'कुछ भी संशयात्मक लगे तो वह तुझे और तू मुझे सूचित करेगा' 

यहाँ एक राजा के मुख से सम्मानपूर्वक भाषा के बजाय 'तुझे' और 'तू' की भाषा में देव को संबोधित करना थोड़ा अटपटा लगा। इसके बजाय अगर 'तुम्हें' और 'तुम' शब्दों का प्रयोग किया जाता तो बेहतर था।

इसी तरह की 'तू-तड़ाक' वाली भाषा का आगे भी उपन्यास में कई जगह पर प्रयोग दिखाई दिया। जिससे बचा जाना चाहिए था। 

◆ इसी किताब में सेना में नौसिखियों की भर्ती के लिए रँगरूट शब्द का उपयोग किया गया जो कि एक उर्दू शब्द है। उर्दू शब्दों जैसे 'मजलिस', 'शुबह' , 'शक', 'खैरख्वाह', 'सेहत', 'तरक्की' इत्यादि का इस्तेमाल बहुतायत में दिखा।

◆ पेज नंबर 103 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'यहाँ की जलवायु में प्राय: गंभीर रोग नहीं होते किंतु वर्षा के समय संक्रामक रोग, हैजा, मलेरिया आदि हो जाते हैं'

कहानी के समय-काल के हिसाब से कहानी की भाषा में यथासंभव हिंदी शब्दों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था लेकिन यहाँ इस्तेमाल किया गया 'मलेरिया' शब्द एक अँग्रेज़ी शब्द है। 

◆ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह काल्पनिक उपन्यास कहीं अँग्रेज़ी लेखक अमीश त्रिपाठी की लेखनी से प्रेरित लगा तो कुछ एक जगहों पर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे रामायण, महाभारत इत्यादि पौराणिक ग्रंथों के कुछ दृश्यों को हूबहू बस नाम, स्थान और पात्र संख्या बदल कर नए सिरे से पाठकों के समक्ष परोस दिया गया हो। उदाहरण के तौर पर ऋषि विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को शिक्षा-दीक्षा एवं युद्ध कौशल एवं जीवन के नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्रदान किए जाने के दृश्यों को लेखक द्वारा जस का तस वाले अन्दाज़ में पुनः लिख दिया गया। 

दरअसल हम लेखक अपने लिखे के मोह में इस कदर पड़ जाते हैं कि उसे ही ऐसा ब्रह्म वाक्य समझ लेते हैं जिसे किसी भी सूरत में काटा या छाँटा नहीं जा सकता जबकि किसी भी लेखक का स्वयं में एक अच्छा पाठक होना बेहद ज़रूरी है जो कि स्वयं अपने लिखे को ही पढ़ कर उसकी पठनीयता/अपठनीयता  की जाँच कर सके। साथ ही उसमें एक निर्दयी संपादक का गुण होना भी बहुत ज़रूरी है जो बेदर्दी से स्वयं लिखे हुए में से अनावश्यक हिस्से को काट-छाँट कर रचना को उम्दा एवं अव्वल दर्जे का बना सके। 

पाठकीय दृष्टि से अगर कहूँ तो यह उपन्यास मुझे बेहद खिंचा हुआ लगा। राघव की शिक्षा-दीक्षा से संबंधित दृश्य मुझे अनावश्यक रूप से ज़्यादा बड़े लिखे गए प्रतीत हुए जिनकी वजह से कई जगहों पर उपन्यास बोझिल एवं उबाऊ सा भी लगा। अगर कोशिश की जाती तो इस 286 पृष्ठीय उपन्यास को आसानी से 200 पेजों में समेटा जा सकता था। बतौर सजग पाठक एवं स्वयं के भी एक लेखक होने की वजह से मुझे इस तरफ़ ध्यान दिए जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई।

यूँ तो लेखक द्वारा इस उपन्यास के पाँचों खण्ड मुझे उपहारस्वरूप प्रदान किए गए परंतु अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस उपन्यास के 286 पृष्ठीय प्रथम खण्ड 'राघव - युगप्रवर्तक' के पेपरबैक संस्करण को छापा है वाची प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए जो कि कंटैंट के हिसाब से मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

पूतोंवाली - शिवानी

आजकल के इस आपाधापी से भरे माहौल में हम सब जीवन के एक ऐसे फेज़ से गुज़र रहे हैं जिसमें कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा पा लेने की चाहत की वजह से निरंतर आगे बढ़ते हुए बहुत कुछ पीछे ऐसा छूट जाता है जो ज़्यादा महत्त्वपूर्ण या अच्छा होता है। उदाहरण के तौर पर टीवी पर कोई उबाऊ दृश्य या विज्ञापन आते ही हम झट से चैनल बदल देते हैं कि शायद अगले चैनल पर कुछ अच्छा या मनोरंजक देखने को मिल जाए। मगर चैनल बदलते-बदलते इस चक्कर में कभी हमारा दफ़्तर जाने का समय तो कभी हमारा सोने का समय हो जाता है और हम बिना कोई ढंग का कार्यक्रम देखे ख़ाली के ख़ाली रह जाते हैं। कुछ ऐसी ही बात किताबों के क्षेत्र में भी लागू होती है कि हम ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की चाह में आगे बढ़ते हुए पीछे कुछ ऐसा छोड़ जाते हैं जो ज्ञान या मनोरंजन की दृष्टि से ज़्यादा अहम..ज़्यादा फायदेमंद होता है। 


दोस्तों..आज मैं इस बात को अपने समय की प्रसिद्ध लेखिका शिवानी की रचनाओं के बारे कह रहा हूँ जिनकी रचनाओं को पढ़ने का मौका तो मुझे कई बार मिला मगर किसी न किसी वजह से मैं उनका लिखा पढ़ने से हर बार चूक गया। आज से तीन महीने पहले उनकी लिखी "पूतोंवाली" किताब को पढ़ने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि मैं कितना कुछ पढ़ने से वंचित रह गया। लेकिन फ़िर कुछ ऐसा हुआ कि चाह कर भी इस बेहद रोचक किताब पर कुछ लिख नहीं पाया। अब लिखने के बारे में सोचा तो एक बार पुनः किताब पर नज़र दौड़ाने के बहाने इस किताब को फ़िर से पढ़ा गया। 


दोस्तों  हिन्द पॉकेट बुक्स के श्रद्धांजलि संस्करण 2003, में छपी इस किताब 'पूतोंवाली' में उनके लिखे दो लघु उपन्यास और तीन कहानियाँ शामिल हैं। 


'पूतोंवाली' नाम लघु उपन्यास है उस औसत कद-काठी और चेहरे मोहरे वाली 'पार्वती' की जिसे उसकी माँ की मृत्यु के बाद सौतेली माँ की चुगली की वजह से पिता के हाथों रोज़ मार खानी पड़ी। पिता के आदेश पर मोटे दहेज के लालच में सुंदर, सजीले युवक से ब्याह दी गयी। 


अपने रूपहीन चेहरे और कमज़ोर कद-काठी की वजह से पति की उपेक्षा का शिकार रही 'पार्वती' को आशीर्वाद के रूप में मिले 'दूधो नहाओ पूतों फलो' जैसे शब्द सच में ही साकार हुए जब उसने एक-एक कर के पाँच पुत्रों को जन्म तो दिया मगर..


इसी संकलन के एक बेहद रोचक लघु उपन्यास 'बदला' की कहानी पुलिस महकमे के ठसकदार अफ़सर 'त्रिभुवनदास' की नृत्य कला में निपुण बेहद खूबसूरत बेटी 'रत्ना' की बात करती है। जो अपनी मर्ज़ी के युवक से शादी करना चाहती है मगर उसका दबंग पिता उस युवक को रातों रात ग़ायब करवा उसका ब्याह किसी और युवक से करवा देता है। अब देखना यह है कि अपने प्रेमी के वियोग में तड़पती 'रत्ना' क्या उसे भूल नयी जगह पर अपने पति के साथ राज़ीखुशी घर बसा लेती है अथवा...


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'श्राप' में रात के वक्त सोते-सोते लेखिका अचानक किसी ऐसे सपने की वजह से हड़बड़ा कर उठ बैठती है जो उसे फ़्लैशबैक के रूप में  दस वर्ष पीछे की उस घटना की तरफ़ ले जाता है जिसमें वह अपनी मकान मालकिन के कहने पर, उसकी बहन के रहने के लिए, उसे अपने पोर्शन के दो कमरे कुछ दिनों के लिए इसलिए इस्तेमाल करने के लिए दे देती है कि उसे वर पक्ष वालों की ज़िद के चलते अपनी सुंदर, सुशील बेटी की शादी उनके शहर में आ कर करनी पड़ रही है। वधु पक्ष की तरफ़ से दिल खोल कर पैसा खर्च करने के बावजूद भी इस बेमेल शादी में कहीं ना कहीं कुछ खटास बची रह जाती है। 


विवाह के कुछ महीनों बाद लेखिका को अचानक पता चलता है कि शादी के चार महीनों बाद एक दिन ससुराल में रसोई में काम करते वक्त लापरवाही की वजह से उनकी बेटी की जलने की वजह से मौत हो गयी। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अचानक एक दिन लेखिका की मुलाक़ात बरसों बाद अपनी उस ख़ूबसूरत सहेली 'प्रिया' से रेलवे स्टेशन पर मुलाक़ात होती है, जिनकी दोस्ती कॉलेज वालों के लिए एक मिसाल बन चुकी थी। और उसकी उसी सहेली ने एक दिन बिना कोई वजह बताए अचानक से कॉलेज छोड़ दिया था। इस ट्रेन वाली मुलाक़ात में 'प्रिया' लेखिका के साथ गर्मजोशी तो काफी दिखाती है मगर अपना पता ठिकाना बताने से साफ़ इनकार कर देती है। 


इस बात के काफ़ी वर्षों के बाद एक दिन नैनीताल के किसी उजाड़ पहाड़ी रास्ते पर लेखिका की मुलाक़ात अचानक एक लंबे चौड़े..मज़बूत कद काठी के नितांत अजनबी व्यक्ति से होती है जो 'प्रिया' और लेखिका के बीच घट चुकी निजी बातों और घटनाओं का बिल्कुल सही एवं सटीक वर्णन करता है। जिससे लेखिका घबरा जाती है। अब सवाल उठता है कि आख़िर कौन था वो अजनबी जो उन दोनों के बीच घट चुकी एक-एक बात को जानता था? 


इसी संकलन की अंतिम कहानी में ट्रेन में रात का सफ़र कर रही लेखिका के कूपे में बड़ा सा चाकू लिए एक लुटेरा घुस आता है और सब कुछ लूट कर जाने ही वाला होता है कि अचानक कुछ ऐसा होता है कि लूटने के बजाय वही लुटेरा लेखिका के पास फॉरन करैंसी से भरा हुआ एक बटुआ छोड़ कर चला जाता है। 


127 पृष्ठीय इस बेहद रोचक और पठनीय किताब के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है 'सरस्वती विहार' (हिन्द पॉकेट बुक्स का सजिल्द विभाग है) ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 125/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।




मैमराज़ी - जयंती रंगनाथन

1970-80 के दशक में जहाँ एक तरफ़ मारधाड़ वाली फिल्मों का ज़माना था तो वहीं दूसरी तरफ़ आर्ट फिल्में कहलाने वाला समांतर सिनेमा भी अपनी पैठ बनाना शुरू कर चुका था। इसी बीच व्यावसायिक सिनेमा और तथाकथित आर्ट सिनेमा की बीच एक नया रास्ता निकालते हुए हलकी-फुल्की कॉमेडी फिल्मों का निर्माण भी होने लगा जिनमें फ़ारुख शेख, दीप्ति नवल और अमोल पालेकर जैसे साधारण चेहरे-मोहरे वाले कलाकारों का उदय हुआ। इसी दौर की एक मज़ेदार हास्यप्रधान कहानी 'मैमराज़ी' को उपन्यास की शक्ल में ले कर इस बार हमारे समक्ष हाज़िर हुई हैं प्रसिद्ध लेखिका जयंती रंगनाथन। 


मूलतः इस उपन्यास के मूल में कहानी है दिल्ली के उस युवा शशांक की जो दिल्ली में अपनी गर्लफ्रैंड 'सुंदरी' को छोड़ कर  भिलाई के स्टील प्लांट में बतौर ट्रेनी इंजीनियर अपनी पहली सरकारी नौकरी करने के लिए आया है। भिलाई पहुँचते ही पहली रात उसके साथ कुछ ऐसा होता है कि वो भौचंक रह जाता है। 


अगले दिन सुबह पड़ोसन के घर से नाश्ता कर के निकले शशांक के साथ कुछ ऐसा होता है कि आने वाले दिनों में वह अपने अफ़सर से ले कर कुलीग तक का इस हद तक चहेता बन बैठता है कि उनकी पत्नियाँ उसके साथ अपनी बेटी, बहन या रिश्तेदार की लड़की को ब्याहने के लिए उतावली हो उठती हैं। अब देखना ये है कि क्या शशांक ऐसे किसी मकड़जाल में फँस वहीं का हो कर रह जाएगा अथवा दिल्ली में बेसब्री से अपना इंतज़ार कर रही गर्लफ्रेंड सुंदरी के पास वापिस लौट जाएगा? उपन्यास को पढ़ते वक्त अमोल पालेकर की कॉमेडी फिल्म "दामाद" जैसा भी भान हुआ। मज़ेदार परिस्थितियों से गुज़रते इस तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास में पता ही नहीं चलता कि कब वह खत्म हो गया।


इस उपन्यास के पेज नम्बर 164 में एक पंजाबी भाषा के एक संवाद में लिखा दिखाई दिया कि..


'इडियट, सुंदरी की शादी किसी और से करवाएगा तू? बैन दे टके'

जो कि पंजाबी उच्चारण के हिसाब से सही नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..


यहाँ 'बैन दे टके' की जगह 'भैंण दे टके' या 'भैन दे टके' 


184 पृष्ठीय इस दिलचस्प उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द युग्म और YELLOW ROOTS India मिल कर और इसका मूल्य रखा गया है 249/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 


 
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