रुकावट के लिए खेद है

***राजीव तनेजा***


"बात पिछले साल की है....चार दिन थे अभी त्योहार आने में... मैँ मोबाईल से दनादन 'एस.एम.एस'किए जा रहा था" "क्रिसमस का त्योहार जो सिर पर था लेकिन ये 'एस.एम.एस' मैँ..अपने खुदगर्ज़ दोस्तों को या फिर मतलबी रिश्तेदारों को नहीं कर रहा था" "ये तो मैँ उन रेडियो वालों को भेज रहा था जो गानों के बीच-बीच में अपनी टाँग अडाते हुए बार-बार फलाने व ढीमके नम्बर पे 'एस.एम.एस' करने की गुजारिश कर रहे थे कि फलाने-फलाने नम्बर पे 'जैकपॉट'लिख के 'एस.एम.एस' करो तो 'साँता' आपके घर-द्वार आ सकता है ढेर सारे ईनामात लेकर"

(रुकावट के लिए खेद है)

 

नोट: इस बार व्यस्ता कह लें या फिर आलस कह लें...के चलते कुछ नया नहीं लिख पाया...इसलिए अपनी पुरानी कहानी 'बड़ा दिन'

को ही फिर से नए नाम से पोस्ट कर रहा हूँ।उम्मीद है कि आपको पसन्द आएगी...क्योंकि उम्मीद पे ही तो ये दुनिया...ये कायनात कायम है।



"सो!...मैने भी चाँस लेने की सोची कि यहाँ दिल वालों की दिल्ली में लॉटरी तो बैन है ही तो चलो 'एस.एम.एस' ही सही" "क्या फर्क पडता है?" "बात तो एक ही है"..."एक साक्षात जुआ है तो दूसरा मुखौटा ओडे उसी के पद-चिन्हों पे खुलेआम चलता हुआ उसी का कोई भाई-भतीजा" "साले!...यहाँ भी रिश्तेदारी निभाने लगे" "सो!...अपुन भी किए जा रहे थे 'एस.एम.एस' पे 'एस.एम.एस' कि जब खुद ऊपरवाला आ के छप्पर फाड रहा है अपने तम्बू का और बम्बू समेत ही हमें ले चल रहा है शानदार-मालादार भविष्य की तरफ कि...
"लै पुत्तरर !..कर लै हुण मौजाँ ही मौज़ाँ" ..."हो जाण गे हुण तेरे वारे-न्यारे" "अब ये कोई ज़रूरी नहीं कि हमेशा तीर ही लगें निशाने पे"... "तुक्के भी तो लग ही जाया करते हैँ निशाने पे कभी-कभार"... "कोई हैरानी की बात नहीं है इसमें जो इस कदर कौतुहल भरा चौखटा लिए मेरी तरफ ताके चले जा रहे हैँ आप" "क्या किस्मत के धनी सिर्फ आप ही हो सकते हैँ?"
"मैँ नहीं"...
"उसके घर देर है ...अन्धेर नहीं"...
"कुछ तो उसकी बे-आवाज़ लाठी से डरो"
"अब यूँ समझ लो कि अपुन को तो पूरा का पूरा सोलह ऑने यकीन ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास हो चला है कि...
अपनी बरसों से जंग खाई किस्मत का दरवाज़ा...अब खुला कि....अब खुला"
"दिन में पच्चीस-पच्चीस दफा कलैंडर की तरफ ताकता कि अब कितने दिन बचे हैँ पच्चीस तारीख आने में"
"पच्चीस तारीख!...?"..
"अरे!...बुरबक्क...लगा दी ना टोक"
"हाँ!...पच्चीस तारीख"
"कितनी बार कहा है कि यूँ सुबह-सुबह किसी के शुभ काम में अढंगा मत लगाया करो लेकिन...
तुम्हें अक्ल आए तब ना"
"पच्चीस बार पहले ही बता चुका हूँ कि पच्चीस दिसम्बर को ही तो मनाया जाता है 'बडा दिन' दुनिया भर में"...
और आप हैँ कि हर बार इसे 'बडा खाना' समझ लार टपकाने लगते हैँ"
"पेटू इंसान कहीं के "...
"बडा खाना तो होता है फौज में लेकिन तुम क्या जानो ये फौज-वौज के बारे में"...
"कभी राईफल हाथ में पकड के भी देखी है या माउज़र चला के देखा है कभी?"
"छोडो!...अब ये तुम्हारे लडकियों की नाज़ुक कलाईयाँ को थामने को बेताब हाथ क्या राईफल-शाईफल पकडेंगे?"
"यू!..बेवाकूफ 'सिविलियन'..."
"इन मेनकाओं का मोह त्याग ...देश की फिक्र करो बन्धुवर...देश की"
"हाँ!..तो मैँ कह रहा था कि जैसे-जैसे पच्चीस तारीख नज़दीक आती जा रही थी...मेरी 'एस.एम.एस'करने की स्पीड में भी तेज़ी से इज़ाफा होता जा रहा था"..."कई हज़ार के तो मैँ रिचार्ज करवा चुका था अभी तक "
"पुराना चावल जो ठहरा"..."मालुम जो था कि जितने ज़्यादा 'एस.एम.एस'...उतना ही ज़्यादा चाँस जीतने का"..."सो!...भेजे जा रहा था धडाधड 'एस.एम.एस' पे 'एस.एम.एस'"

"अब तो मोबाईल में भी बैलैंस कम हो चला था लेकिन फिक्र किस कम्भखत को थी? लेकिन सच कहूँ तो थोडी टैंशन तो थी ही कि सब यार-दोस्त तो पहले से ही बिदके पडे हैँ अपुन से "..."फाईनैंस का इंतज़ाम कैसे होगा?".. ."कहाँ से होगा?"
"ऐसे आडॆ वक्त पे अपने  'जीत बाबू' की याद आ गयी"
"बडे सज्जन टाईप के इंसान हैँ"...
"किसी को न नहीं कहा आज तक"
"भले ही कितनी भी तंगी चल रही हो लेकिन कोई उनके द्वार से खाली नहीं गया कभी"
"किसी पराए का दुख तक नहीं देखा जाता उनसे"
"नाज़ुक दिल के जो ठहरे"
"जो आया...जब आया...हमेशा सेवा को तत्पर"
"इतने दयालु कि कोई गारैंटी भी नहीं माँगते"
"बस तसल्ली के लिए घर,दुकान,प्लाट या गाडी-घोडे के कागज़ात भर रख लेते हैँ अपने पास "
"वैसे औरों से तो दस टका ब्याज लेते है मंथली का लेकिन...
अपुन जैसे पर्मानैंट कस्टमरज़ के लिए विशेष डिस्काउंट दे देते हैँ"
"बस बदले में उनके छोटे-मोटे काम करने पड जाते हैँ जैसे...
भैंसो को चारा डालना....
उनके 'टोमी' को सुबह-शाम गली-मोहल्ले में घुमा लाना"
"काम का काम हो जाता है और सैर की सैर"
"इसी बहाने अपुन का भी वॉक-शॉक हो जाता है"...


"वैसे इस बेफाल्तु से काम के लिए अपने पास अपने लिए भी टाईम कहाँ है?"
"ये तो बाबा रामदेव जी के सोनीपत वाले शिविर में उन्हें कहते सुना था कि...
सुबह-सुबह चलना सेहत के लिए फायदेमन्द है"
"फायदे की बात और वो मै ना मानूँ? ...
"ऐसा हरजाई नहीं"


"ऐसी गुस्ताखी करने की मैं सोच भी कैसे सकता था?"
"सो!..अपुन ने भी सोच-समझ के अँगूठा टिकाया और...
अपने जीत बाबू से पाँच ट्के ब्याज पे पैसा उठा धडाधड झोँक दिया इस 'एस.एम.एस' की आँधी में"
"अब दिल की धडकनें दिन प्रतिदिन तेज़ होने लगी ठीक कि ...
क्या होगा?...
"कैसे सँभाल पाउँगा इतनी दौलत को?"
"कभी देखा जो नहीं था ना ढेर सारा पैसा एक साथ"
"क्या-क्या खरीदूँगा?"...
"क्या-क्या करूँगा?"जैसे सैंकडो सवाल मन में उमड रहे थे"
"मैँ अकेली जान!..कैसे मैनेज करूँगा सब का सब?"
"हाँ!..अकेली ही कहना ठीक रहेगा"...
"बीवी को तो कब का छोड चुका था मैँ"
"वैसे!..अगर ईमानदारी से सच कहूँ तो उसी ने मुझे छोडा था"
"अब पछताती होगी "...
"उस बावली को मेरे सारे काम ही जो फाल्तू के लगते थे"..
"हमेशा पीछे पडी रहती थी के बचत करो...बचत करो"...
"कोई काम नहीं आया है और ना कोई आएगा"...
"काम आएगा तो सिर्फ गाँठ में बन्धा पैसा ही"
"दोस्त-यार...रिश्तेदार सब बेकार का...
फालतू का जमघट है"...
"बच के रहो इनसे"
"उस बावली को क्या पता कि ज़िन्दगी कैसे जिया करते हैँ"..
"उसे तो बस यही फिक्र पडी रहती हमेशा कि...
'फीस का इंतज़ाम हुआ बच्चों की?'...
'ये नैट कटवा क्यूँ नहीं देते?'...
'कार साफ करने वाला पैसे माँग रहा था'...
'गाडी की किश्त जमा करवा दी?'
"वो बोल-बोल के परेशान हुए रहती थी बे-फाल्तू में ही"
"शायद!...इसी चक्कर में दुबली भी बहुत हो गई थी"
"अरे!...अगर फीस नहीं भरी तो कौन सा आफत आ जाएगी?"...
"ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेंगे?"...
"नाम ही काट देंगे ना?"
"तो काट दें साले!..."...
"कौन रोकता है?"...
"सरकारी स्कूल बगल में ही तो है"...
"एक तो फीस भी कम...
"ऊपर से पैदल का रास्ता"...
"बचत ही बचत"...
"उल्टा!..जो पैसे बच जाएंगे...
तो उनसे कार की किश्त भी टाईम पे भर दी जाएगी"
"वैरी सिम्पल"
"ये आना-जाना तो चलता ही रहता है"
"कभी इस स्कूल तो कभी उस स्कूल"
"कहती थी कि नैट कटवा दूँ"...
"हुँह!..बडी आई नैट कटवाने वाली"...
"इतनी जो फैन मेल बनाई है दो बरस में...
सब!..छू मंतर नहीं हो जाएगी?"
"गुरू!..यहाँ तो चढते सूरज को सलाम है"...
"दिखते रहोगे तो बिकते रहोगे"...
"दिखना बन्द तो समझो बिकना भी बन्द"
"बैठे रहो आराम से"
"फैनज़ का क्या है?"...
"आज हैँ...कल नहीं"...
"आज शाहरुख के कर रहे हैँ तो कल रितिक के पोस्टर रौशन करेंगे लडकियों के बैडरूम"
"टिकाऊ नहीं होती है ये प्रसिद्धी-वर्सिद्धी "...
"बडे जतन से संभाला जाता है इसे"
"अपने!..'कुमार गौरव' का हाल तो मालुम ही है ना?"
"वन फिल्म वण्डर"
"एक फिल्म से ही सर आँखों पे बिठा लिया था पब्लिक ने और...
अगले ही दिन दूजी फिल्म पे उसी दिवानी पब्लिक ने ज़मी पे भी ला पटका था"
"टाईम का कुछ पता नहीं"...
"आज अच्छा है"....
"कल का मालुम नहीं"....
"रहे...रहे"...
"ना रहे ...ना रहे"
"क्या यार!...यहाँ तो पहले ही टैंशन है इतना कि मोबाईल में बैलैंस बचा पडा है और...
दिन जो हैँ वो प्रतिदिन कम होते जा रहे हैँ"
"कैसे भेज पाउंगा सारे पैसे के 'एस.एम.एस'?"
"अब ये सब सोच-सोच के मैँ सोच में डूबा हुआ ही था कि घंटी बजी और लगा कि...
जैसे मेरे सभी सतरंगी सपनों के सच होने का वक्त आ गया"
"मेरे बारे में मालुमात किया उन्होंने ....
पूछने पे पता चला कि रेडियो वाले ही थे और मेरा नम्बर उन्होंने सलैक्ट कर लिया है बम्पर ईनाम के लिए "
"बाँछे खिल उठी मेरी"...
"इंतज़ार की घडियाँ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी"
"प्यास के मारे हलक सूखा जा रहा था लेकिन पानी पीने का होश और फुरसत किसे थी?"
डर जो था कि कहीं 'साँता जी' गल्ती से ही किसी और के घर ना जा घुसें"...
"खास कर के बाजू वाले शर्मा जी के यहाँ"...
"साले!...दोगले किस्म के इंसान"..
"सामने कुछ और...पीठ पीछे कुछ"
"ऊपर-ऊपर से तो बेटा-बेटा करते रहते थे और अन्दर ही अन्दर मेरी ही बीवी पे नज़र रखते थे"
"बडा समझाते रहते थे मुझे दिन भर कि ...
"बेटा ऐसे नहीं करो...वैसे नहीं करो"
"अरे!...मेरा घर ...मेरी बीवी...
मेरी मरज़ी जो जी में आए करूँ"
"तुम होते कौन हो बीच में अडंगी लगाने वाले?"
"कहीं!...बीवी ही तो नहीं सिखा के गई उन्हें ये सब?"
"क्या पता!..पीठ पीछे क्या-क्या गुल खिलते रहे हैं यहाँ?"
"ये सब सोच-सोच के मैँ परेशान हो ही रहा था कि साँता जी आ पहुँचे"...
"उनका ओज से भरा चेहरा देख ही मेरे सभी दुख ....सभी चिंताएँ हवा हो गई"
"लम्बा तगडा कसरती बदन"...
"सुर्ख लाल दमकता चेहरा"...

"झक लाल कपडे"..
"उन्होंने बडे ही प्यार से सर पे हाथ फिराया"...
"मस्तक को प्यार से चूमा"
"चेहरा ओज से परिपूर्ण था "
"नज़रें मिली तो मैँ टकटकी लगाए एकटक देखता रह गया"
"आँखे चौंधिया सी रही थी"...
"सो!...ज़्यादा देर तक देख नहीं पाया मैँ"
"निद्रा के आगोश ने मुझे घेर लिया था"
"आँखे बन्द होने को थी"
"मुँह में आए शब्द मानो अपनी आवाज़ खो चुके थे"...
"चाह कर भी मैँ कुछ कह नहीं पा रहा था"
"शायद पवित्र आत्मा से मेरा पहला सामना था इसलिए"
"ऐसा ना मैंने पहले कभी देखा था और ना ही कभी इस बारे में कुछ सुना था"
"शायद!...आत्मा से परमात्मा का मिलन इसे ही कहते होंगे "
"ये आम इंसान से परम ज्ञानी बनने का सफर बहुत भा ही रहा था मुझे कि ...
उन्होंने पूछ लिया...
"चिंता ना कर वत्स !...बता क्या चाहिए तुझे?"
"अब से तेरे जीवन में बस मौजां ही मौजां"...
"मैँ कुछ बोलने से पहले सकुचाया"..
"शरमा मत...बता..क्या इच्छा है तेरी?"...
"मेरे कंठ से आवाज़ न निकली"
उन्होंने फिर प्रेम से पूछा"बता!...तेरी रज़ा क्या है?"
"चुप देख मुझे ...
उन्होंने खुद ही 'एयर कंडीशनर' की तरफ इशारा किया"
"मैंने मुण्डी हिला हामी भर दी"
"फिर टीवी की तरफ इशारा किया तो मैँने फिर मुण्डी हिला दी"
"उसके बाद तो फ्रिज...
'डीवीडी प्लेयर'...
'होम थियेटर'...
'हैण्डी कैम'...सबके लिए मैँ हाँ करता चला गया"
"वैसे होने को तो ये सारी की सारी चीज़े मेरे पास पहले से ही मौजूद थी लेकिन कोई भरोसा नहीं था इनका"
"बीवी के साथ कैसा जो चल रहा था कोर्ट में"
"क्या पता साली!...सब वापिस लिए बिना नहीं माने"
"इसलिए कैसे इनकार कर देता साँता जी को?"
"इतनी तो समझ है मुझे कि अच्छे मौके बार-बार नहीं मिला करते"
"सो!...हाथ आया दाव बिना चले कैसे रह जाता?"
"पहली बार तो मेरी किस्मत ने पलटी मारी थी और वो भी तब जब बीवी नहीं थी मेरे साथ"..
"शायद ऊपरवाले ने भी यही सोचा होगा कि इसके घर की लक्ष्मी तो हो गयी उडनछू....
तो क्यों न बाहर से ही कोटा पूरा कर दिया जाए इसका"
"नेक बन्दा है...कुछ ना कुछ बंदोबस्त तो करना ही पडेगा इसका"
"मैँ खुशी से पागल हुआ जा रहा था कि आवाज़ आई कि...
"वक्त के साथ-साथ मैँ भी बूढा हो चला हूँ"...
"इतना सामान कँधे पे उठा नहीं सकता और....
भला दिल्ली की सडकों पर बर्फ गाडी याने स्लेज का क्या काम?"
"इसलिए!...स्लेज छोड ट्रक ही ले आया हूँ मैँ"...

"वक्त के साथ-साथ खुद को भी बदलना पडता है...
"सो!...बदल लिया"साँता जी मुस्कुराते हुए बोले
"मैने भी झट से कह दिया कि आपक नाहक परेशान न हों...मैँ हूँ ना"
"उसी वक्त उनके साथ जा के सारा सामान ट्रक से अनलोड किया ही था कि इतने में नज़र लगाने को शर्मा जी आ पहुँचे"
बोले"ये क्या कर रहे हो?"...
"मैँ चुप रहा"..
"वो फिर बोल पडे"...
"मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन चुप रहा कि कौन मुँह लगे और अपना अच्छा-भला मूड खराब करे"
फिर बोल पडे"ये क्या कर रहे हो?"
"अब मुझसे रहा न गया"...
"आखिर बर्दाश्त की भी एक हद होती है"
"तंग आकर आखिर बोलना ही पडा कि...
"मेरा माल है"...
"मैँ जो चाहे करूँ"..
"आपको मतलंब?"
"शर्मा जी बेचारे तो मेरी डांट सुन के चुपचाप अपने रस्ते हो लिए"
"साँता जी के चेहरे पे अभी भी वही मोहिनी मुस्कान थी"
"उनकी सौम्य आवाज़ आई"अब मैँ चलता हूँ"....
"अगले साल फिर से मिलता हूँ"
"और वो पलक झपकते ही गायब हो चुके थे"
"मैँ खुशी से फूला नहीं समा रहा था कि अगले साल फिर से आने का वादा मिला है"...
"इस बार तो मिस हो गया लेकिन अगली बार नहीं"...
"अभी से ही लिस्ट तैयार कर लूंगा कि ये भी माँगना है और वो भी माँगना है"
"बार-बार सारे गिफ्टस की तरफ ही देखे जा रहा था मैँ"...
"नज़र हटाए नहीं हट रही थी कि पता ही नहीं चला कि कब आँख लग गयी"
"सपने में भी उस महान आत्मा के ही दर्शन होते रहे रात भर"
"जब आँख खुली तो देखा कि दोपहर हो चुकी थी"
"सर कुछ भारी-भारी सा था"
"उनींदी आँखो से सारे सामान पे नज़र दौडाई"..
"लेकिन!...ये क्या?"
"जो देखा...देख के गश खा गया मैँ"...
"सब कुछ बिखरा-बिखरा सा था"
"न कहीं टीवी नज़र आ रहा था और ना ही कहीं फ्रिज और होम थिएटर"
"हैण्डी कैम का कहीं अता-पता नहीं था"
"कायदे से तो हर चीज़ दुगनी-दुगनी होनी चाहिए थी पर यहाँ तो इकलौता पीस भी नदारद था"
"देखा तो तिजोरी खुली पडी थी"
"कैश....गहने-लत्ते...क्रैडिट कार्ड....
कुछ भी तो नहीं था"
"सब का सब माल गायब हो चुका था"
"मैंने बाहर जा के इधर-उधर नज़र दौडाई तो कहीं दूर तक कोई नज़र नहीं आया"
"कोई साला!..मेरे सारे माल पे हाथ साफ कर चुका था"
"मैँ ज़ोर-ज़ोर से धाड मार-मार रोने लगा"...
"भीड इकट्ठी हो चुकी थी "
"सबको अपना दुखडा बता ही रहा था कि शर्मा जी की आवाज़ आई...
"क्यों अपने साथ-साथ सबका दिमाग भी खराब कर रहे हो बेफिजूल में?"...
"रात को सारा सामान खुद ही तो लाद रहे थे ट्रक में और अब ड्रामा कर रहे हो चोरी का"
"मैने अपनी आँखो से देखा और आपसे पूछा भी तो था कि ये आप क्या कर रहे हैँ?"
"आपने ने तो उल्टा मुझे ही डपट दिया था कि मैँ अपना काम करूँ"
"रेडियो स्टेशन से पता किया तो मालुम हुआ कि ईनाम पाने वालों की लिस्ट में मेरा नाम ही नहीं था"
"अब लगने लगा था कि वो साला साँता फ्राड था एक नम्बर का "
"किसी तरीके से मेरा नम्बर पता लगा लिया होगा उसने"
"और शायद मुझे हिप्नोटाईज़ कर चूना लगा गया"


"अब तो यही के उम्मीद की किरण बाकि है कि शायद वो अपना वायदा निभाए और अगले साल वापिस आए"
"एक बार मिल तो जाए सही कम्भख्त,फिर बताता हूँ कि कैसे सम्मोहित किया जाता है"...फिर उसे बताऊँगा कि कैसे करते हैँ मौजां ही मौजां"
"बस इसी आस में कि वो आएगा मैँ इस बार भी 'एस.एम.एस' किए जा रहा हूँ...किए जा रहा हूँ"


"जय हिन्द"


***राजीव तनेजा***

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कभी तो माएके जा री बेगम(ऑडियो/पँजाबी)सहित

मुझे मेरे एक मित्र ने ये कविता मेरे मोबाईल में ब्लूटुथ के जरिए फॉरवर्ड की थी।मुझे सुनने में बहुत अच्छी लगी तो मैँने सोचा कि इसे सभी के साथ शेयर करना बेहतर रहेगा।ये कविता दरअसल पंजाबी में है और जिन सज्जन ने इसे लिखा है ..मैँ उनका नाम नहीं जानता।शायद वो पाकिस्तान से हैँ।अपने सभी पढने वालों के फायदे के लिए मैँने इसका हिन्दी में अनुवाद करने की कोशिश की है।

उम्मीद है कि आप सभी को पसन्द आएगी। असली रचियता से साभार सहित
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राजीव तनेजा

मेरी पाँचवी कहानी नवभारत टाईम्स पर

पहली कहानी- बताएँ तुझे कैसे होता है बच्चा

दूसरी कहानी- बस बन गया डाक्टर

तीसरी कहानी- नामर्द हूँ,पर मर्द से बेहतर हूँ

चौथी कहानी- बाबा की माया

पाँचवी कहानी- व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की


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'व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की'


10 Dec 2008, 1130 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम 

राजीव तनेजा


कसम ले लो मुझसे ' खुदा ' की या फिर किसी भी मनचाहे भगवान की। तसल्ली न हो तो बेशक ' बाबा रामदेव ' के यहां मत्था टिकवा कर पूरे सात के सात वचन ले लो, जो मैंने या मेरे पूरे खानदान में कभी किसी ने ' वीआईपी ' या किसी फैशनेबल लगेज के अलावा कोई देसी लगेज जैसे- थैला, बोरी, कट्टा, ट्रंक, अटैची या फिर कोई और बारदाना इस्तेमाल किया हो।

कुछ एक सरफिरे अमीरज़ादे तो ' सैम्सोनाइट ' का महंगा लगेज भी इस्तेमाल करने लग गए हैं आजकल। आखिर स्टैंडर्ड नाम की भी कोई चीज़ होती है कि नहीं। लेकिन, इस सब में भला आपको क्या इंट्रेस्ट ? आपने तो न कुछ पूछना है , न पाछना है और सीधे ही बिना सोचे - समझे झट से सौ के सौ इल्ज़ाम लगा देने हैं हम मासूमों पर। मानों हम जीते-जागते इंसान न होकर कसाई खाने में बंधी भेड़ - बकरियां हो गए कि जब चाहा जहां चाहा झट से मारी और फट से हांक दिया।
अच्छा लगता है क्या, किसी अच्छे भले सूटेड-बूटेड आदमी को ' झोला छाप ' कह उसकी पूरी पर्सनैलिटी पूरी इज़्जत की वाट लगाना ? मज़ा आता होगा न आपको हमें सड़क छाप कह कर हमारे काम, हमारे धंधे की तौहीन करते हुए ? सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते कि अपार खुशी का मीठा-मीठा एहसास होता है आपको, हमें नीचा दिखाने में ? वैसे यह कहां की भलमनसत है कि हमारे मुंह पर ही हमें हमारे छोटेपन का एहसास कराया जाए ?
यह सब इसलिए न कि हम आपकी तरह ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं, ज़्यादा सभ्य नहीं, ज़्यादा समझदार नहीं ? हमारे साथ यह दोहरा मापदंड, यह सौतेला व्यवहार इसलिए न कि हमारे पास डिग्री नहीं, सर्टिफिकेट नहीं है ? मैं आपसे पूछता हूं कि हकीम लुकमान के पास कौन से कॉलिज या विश्वविद्यालय की डिग्री थी ? या धनवंतरी ने ही कौन सा मेडिकल कॉलिज से एमबीबीएस या एमडी पास आऊट किया था ? सच तो यही है दोस्त कि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। फिर भी वह देश के जाने-माने हकीम थे, वैद्य थे, लाखों करोड़ों लोगों का सफलतापूर्वक इलाज किया था उन्होंने। क्यों है कि नहीं ?
उनके इस बेमिसाल हुनर के पीछे उनका सालों का तजुर्बा था, न कि कोई डिग्री। हमारी कंडीशन भी कुछ-कुछ उनके जैसी ही है। यानी कि 'ऑलमोस्ट सेम टू सेम ' क्योंकि जैसे उनके पास कोई डिग्री नहीं, वैसे ही हमारे पास भी कोई डिग्री नहीं, सिम्पल। वैसे आपकी जानकारी के लिए मैं एक बात और बता दूं कि ये लहराते बलखाते बाल मैंने ऐसे ही धूप में सफेद नहीं किए हैं, बल्कि इस डॉक्टरी में पूरे पौने नौ साल का प्रैक्टिकल तजुर्बा है मुझे और खास बात यह कि यह तजुर्बा मैंने इन तथाकथित एमबीबीएस या एमडी डॉक्टरों की तरह किसी बेज़ुबान चूहे या मेंढक का पेट काटते हुए हासिल नहीं किया है, बल्कि इसके लिए खुद इन्हीं नायाब हाथों से कई जीते जागते ज़िन्दा इंसानों के बदन चीरे हैं मैंने।
है क्या किसी ' डिग्रीधारी ' डॉक्टर या फिर मेडिकल ऑफिसर में ऐसा करने की हिम्मत ? और यह आपसे किस गधे ने कह दिया कि डिग्रीधारी डॉक्टरों के हाथों मरीज़ मरते नहीं हैं ? रोज़ ही तो अखबारों में इसी तरह का कोई ना कोई केस छाया रहता है कि फलाने सरकारी अस्पताल में फलाने डॉक्टर ने लापरवाही से ऑपरेशन करते हुए वक्त सरकारी कैंची को गुम कर दिया। अब कर दिया तो कर दिया, लेकिन नहीं अपनी सरकार भी न, पता नहीं क्या सोच कर एक छोटी सी सस्ती कैंची का रोना ले कर बैठ जाती है। यह भी नहीं देखती कि कई बार बेचारे डॉक्टरों के नोकिया ' एन ' सीरीज़ तक के महंगे-महंगे फोन भी मरीज़ों के पेट में बिना कोई शोर-शराबा किए गर्क हो जाते हैं। लेकिन, शराफत देखो उनकी, वे उफ तक नहीं करते।

अब कोई छोटा-मोटा सस्ता वाला चायनीज़ मोबाइल हो तो बंदा भूल-भाल भी जाए, लेकिन नोकिया और वह भी ' एन ' सीरीज़ कोई भूले भी तो कैसे भूले ? अब इसे कुछ डॉक्टरों की किस्मत कह लें या फिर उनका खून-पसीने की मेहनत से कमाया पैसा कि उन्होंने अपने फोन को बॉय डिफॉल्ट ' वाईब्रेशन ' मोड पर सेट किया हुआ होता है। जिससे न चाहते हुए भी कुछ मरीज़ पेट में बार-बार मरोड़ उठने की शिकायत लेकर उसी अस्पताल का रुख करते हैं, जहां उनका इलाज हुआ था।
वैसे बाबा रामदेव झूठ न बुलवाए तो यही कोई दस बारह केस तो अपने भी बिगड़ ही चुके होंगे इन पौने नौ सालों में, लेकिन इसमें इतनी हाय तौबा मचाने की कोई ज़रूरत नहीं। आखिर इंसान हूं और इंसानों से ही गलती होती है। लेकिन, अफसोस सबको मेरी ही गलती नज़र आती है। क्या किसी घायल, किसी बीमार की सेवा कर उसका इलाज कर, उसे ठीक भला चंगा करना गलत है ? नहीं न ? फिर ऐसे में अगर कभी गलती से लापरवाही के चलते कोई छोटी-बड़ी चूक हो भी गई तो इसके लिए इतना शोर-शराबा क्यों ?

मुझमें भी आप ही की तरह देश सेवा का जज़्बा है। मैं भी आप सभी की तरह सच्चा देशभक्त हूं और सही मायने में देश की भलाई के लिए काम कर रहा हूं। कहने को अपनी सरकार हमेशा बढ़ती जनसंख्या का रोना रोती रहती है, लेकिन अगर हम मदद के लिए आगे बढ़ते हुए अपनी सेवाएं दें तो बात फांसी तक पहुंच जाती है। वे कहें तो पुण्य और हम करें तो पाप। वाह री मेरी सरकार, कहने को कुछ और, करने को कुछ और।
जहां एक तरफ इंदिरा गांधी के ज़माने में कांग्रेस सरकार ने टारगिट पूरा करने के लिए जबरन नसबंदी का सहारा लिया था और अब वर्तमान कांग्रेस सरकार जगह-जगह 'कॉन्डम के साथ चलें ' के बैनर लगवा रही है। दूसरी तरफ कोई अपनी मर्जी से अबॉर्शन करवाना चाहे तो जुर्माना लगा फटाक से अंदर कर देती है। यह भला कहां का इंसाफ है कि अबॉर्शन करने वालों को और करवाने वालों को पकड़कर जेल में डाल दिया जाए ?

कोई कुछ कहे न कहे, लेकिन मेरे जैसे लोग तो डंके की चोट पर यही कहेंगे कि अगर लड़का पैदा होगा तो वह बड़ा होकर कमाएगा धमाएगा, खानदान का नाम रौशन करेगा। ठीक है, मान ली आपकी बात कि आजकल लड़कियां भी कमा रही हैं और लड़कों से दोगुना-तिगुना तक कमा रही हैं, लेकिन ऐसी कमाई किस काम की, जो वह शादी के बाद फुर्र हो अपने साथ ले चलती बनें ? यह भला क्या बात हुई कि खर्च करते करते बेचारा बाप बूढ़ा हो जाए और जब पैसे कमाने की बारी आए तो पति महाशय क्लीन शेव होते हुए भी अपनी मूछों को ताव देते पहुंच जाएं ? मज़ा तो तब है जब, जो पौधे को सींचे वही फल भी खाए। क्यों ? है कि नहीं। खैर छोड़ो, हमें क्या ? अपने तो सारे बेटे ही बेटे हैं। जिन्हें बेटी है, वही सोचेगा।
आप कहते हैं कि हम इलाज के दौरान हाइजीन का ध्यान नहीं रखते। सिरिंजो को उबालना, दस्तानों का इस्तेमाल करना वगैरह, तो क्या आपके हिसाब से पैसा मुफ्त में मिलता है या फिर किसी पेड़ पर उगता है ? आंखे हमारी भी हैं, हम भी देख सकते हैं कि अगर सिरिंजें दोबारा इस्तेमाल करने लायक होती हैं, तभी हम उन्हें काम में लाते हैं वर्ना नहीं। ठीक है, माना कि कई बार जंग लगे औज़ारों के इस्तेमाल से खतरा बन जाता है और यदा कदा केस बिगड़ भी जाते हैं। तो ऐसे नाज़ुक मौकों पर हम अपना पल्ला झाड़ते हुए मरीज़ों को किसी बड़े अस्पताल या फिर किसी बड़े डॉक्टर के पास भी रेफर तो कर देते हैं।
अब अगर कोई काम हमसे ठीक से नहीं हो पा रहा है तो यह कहां का धर्म है कि हम उससे खुद चिपके रह कर मरीज़ की जान खतरे में डालें। आखिर, वह भी हमारी तरह जीता जागता इंसान है, कोई खिलौना नहीं।
ट्रिंग...ट्रिंग
- हलो
- कौन ?
- नमस्ते
- बस, यहीं आस-पास ही हूं।
- ठीक है, आधे घंटे में पहुंच जाऊंगा।
- ओके, सारी तैयारियां करके रखो। फायनली मैं आने के बाद चेक कर लूंगा।
- हां, मेरे आने तक पार्टी को बहला कर रखो कि डॉक्टर साहब ओटी में ऑपरेशन कर रहे हैं।
- एक बात और, कुछ भी कह सुन कर पूरे पैसे अडवांस में जमा करवा लेना। बाद में पेशंट मर-मरा गया तो रिश्तेदार तो ड्रामा खड़ा कर नाक में दम कर देंगे। पहले पैसे ले लो तो ठीक, वर्ना बाद में बड़ा दुखी करते हैं।

अच्छा दोस्तो, कहने-सुनने को बहुत कुछ है। फिलहाल, जैसा कि आपने अभी सुना, शेड्यूल थोड़ा व्यस्त है। फिर मिलेंगे कभी, शायद जब आप बीमार हों।

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याहू!.....10000 का आँकड़ा पार

याहू!....

हँसते रहो पर आने वालों की सँख्या 10000(दस हज़ार) के आँकड़े को पार कर गई है।

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मैँ राजीव तनेजा अपने सभी चाहने वालों का तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने इस नाचीज़ की छोटी-छोटी कहानियों को पढने के लिए अपना कीमती वक्त दिया।

एक बार फिर से आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया

राजीव तनेजा

 
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