कुम्हलाई कलियाँ- सीमा शर्मा (संपादन)

यह कोई गर्व या खुशी की नहीं बल्कि लानत..मलामत और शर्म की बात है कि भारत जैसे जनसँख्या बहुल देश में, जो कि आबादी के मामले में पूरे विश्व में दूसरा स्थान रखता है, सैक्स को देश..समाज द्वारा एक निकृष्ट.. छुपा कर रखे जाने या हेय दृष्टि से देखी जाने वाली याने के बुरी चीज़ समझा जाता है। इसे एक ऐसा हौव्वा बना कर रखा गया है जिस पर खुलेआम.. खुले मन से बात करना..चर्चा या गुफ्तगू करना तक समाज के स्वयंभू ठेकेदारों द्वारा सही नहीं समझा जाता। हालांकि इन्हीं सब बातों को इन्ही स्वयंभू समाज के ठेकेदारों द्वारा एक दूसरे से कान में मज़े ले ले फुसफुसाते या या चटखारे लेते हुए अक्सर देखा जाता है।

साथ ही जहाँ एक तरफ़ ये सार्वभौमिक सत्य है कि जिस काम या चीज़ को बुरा कह..उसे करने से सबको रोका जाता है, उसी निषिद्ध..उसी वर्जित काम को करने के लिए इनसान का मन उसे बार बार उद्वेलित..प्रोत्साहित करता है..ललचाता रहता है। दरअसल एक तरह से तयशुदा नियमों को तोड़ने में मानव मन एक उपलब्धि ..एक संतुष्टि..एक खुशी..एक कामयाबी का एहसास प्राप्त करता है। 

वहीं दूसरी तरफ़ यह भी सच है कि इनसान की ताकत..उसका ज़ोर उसी पर चलता है जो उससे कमज़ोर हो..अपने हक़ में आवाज़ उठा पाने में..अपना विरोध जता पाने में सक्षम ना हो। ऐसे में सैक्स के पीछे पागल हो चुके कुंठित मनोवृत्ति के लोगों के लिए छोटे बच्चे एक आसान टॉरगेट होते हैं क्योंकि उनकी अपने ही घर-परिवार..दोस्तों या नज़दीकी रिश्तेदारों के घरों में मौजूद बच्चों तक आसानी से पहुँच होती है। जो स्वयं अपना अच्छा बुरा सोचने में तथा विरोध करने अथवा अपना बचाव कर पाने में सक्षम नहीं होते। ऐसे हादसे 
उन बच्चों के लिए उम्र भर का ऐसा नासूर बन जाते हैं कि उस दर्द..उस दुख..उस वेदना से वे कभी उबर नहीं पाते।

दोस्तों..आज दुख और विषाद से भरी बातें इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं इसी विषय को ले कर 'कुम्हलाई कलियाँ' के नाम से विभिन्न लेखिकाओं के आए एक कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसका संपादन सीमा शर्मा ने किया है। 

इस संकलन की 'सुधा ओम ढींगरा' द्वारा रचित कहानी 'टॉरनेडो' में सिंगल मदर जैनेफर की बेटी क्रिस्टी अपनी माँ से जॉन अंकल की शिकायत तो करती है मगर जॉन के साथ डेटिंग कर रही जैनेफर अपनी बेटी की शिक़ायत पर ध्यान नहीं देती। इसी वजह से जॉन की हरकतें इस हद तक बढ़ जाती हैं कि तंग आ कर मजबूरन क्रिस्टी को एक दिन घर छोड़ने का फैसला करना पड़ता है। 

इसी संकलन की 'मनीषा कुलश्रेष्ठ' द्वारा रचित 'लापता पीली तितली' नामक कहानी कुत्सित मानसिक प्रवृति के उन मृदभाषी व्यक्तियों की बात करती है जो देखने में तो मिलनसार..सभ्य एवं दूसरों की मदद के लिए सदैव तत्पर दिखाई देते हैं मगर भीतर ही भीतर वे तमाम ज़िन्दगी के लिए ऐसी ग़हरी चोट दे जाते हैं जो तमाम ज़िन्दगी भुलाए नहीं भूलती।

इसी संकलन की 'योगिता यादव' द्वारा लिखी गयी कहानी 'ताऊ जी कितने अच्छे हैं' में पिता के बड़े भाई याने के ताऊ जी के छोटे छोटे अहसानों तले दबे होने की वजह से कोई उनकी ग़लत हरकतों की तरफ़ तवज्जो नहीं दे पाता लेकिन घर की छोटी बेटी अपना विरोध प्रकट करने का अपनी समझ से कोई ना कोई ज़रिया फिर भी निकाल ही लेती है। 

इसी संकलन की 'अंजू शर्मा' द्वारा लिखी गयी 'उसके हिस्से का आसमान' नामक कहानी में बचपन से बुरे सपने देखती आ रही ट्रेनी एडवोकेट तृषा को घर के स्टोर की पुरानी अलमारी में दादी की मेडिकल फ़ाइल खोजते वक्त कुछ ऐसा मिलता है जिसकी वजह से उसके सारे संशय..सारे डर..सारी दुविधाएँ..सारे असमंजस दूर होने लगते हैं कि क्यों उसकी माँ अपने बच्चों के प्रति अतिरिक्त सुरक्षा बरतती थी या सदा उदास रहने वाले उसके पिता की उदासी का कारण क्या था।

लेखिका नीलिमा शर्मा द्वारा लिखी गयी 'उत्सव' नामक कहानी में एक युवती को जब अपने मायके के व्हाट्सएप ग्रुप में अपने दिवंगत पिता के खास क़रीबी..पिता समान दोस्त की तबियत खराब होने और फिर उनके देहांत की ख़बर मिलती है। अफ़सोस के लिए मायके पहुँचने पर घर के सदस्यों के आम मानवीय व्यवहार एवं धारणा के ठीक विपरीत, वो दुखी हो..अफ़सोस प्रकट करने या सांत्वना देने के बजाय हर समय पुलकित एवं खुश नज़र आती है।

इसी संकलन की विभा रानी द्वारा रचित 'होंठों की बिजली' नामक एक अलग़ तरह की कहानी में फ्लैशबैक के दौरान अस्पताल में भर्ती अपनी छह वर्षीया बलत्कृत बेटी चींचीं की बुरी हालत के लिए शानो स्वयं को ज़िम्मेदार मान रही है कि उसके सगे भाई याने के चींचीं के मामा ने ही उसका ऐसा हाल किया है। इसके साथ ही दूसरी तरफ़ वह बेटी के प्रति अपने पति याने के चींचीं के पिता की बेरुखी से भी चिंतित है। वहीं वर्तमान में वह चींचीं के भविष्य को ले कर चिंतित है कि उसके होने वाले पति को जब पुरानी बातों का पता चलेगा तो भी क्या उसके मन में चींचीं के प्रति पहले जैसा प्यार बना रहेगा अथवा नहीं। 

इसी संकलन की जयश्री रॉय द्वारा रचित एक रौंगटे खड़े कर देने वाली कहानी तलाकशुदा माँ की अंतर्मुखी स्वभाव की उस अभागी बेटी की बात करती है जिसका कभी माँ के दोस्त द्वारा तो कभी स्कूल के चपरासी द्वारा दैहिक शोषण किया गया। यहाँ तक कि ब्लैकमेलिंग का शिकार हो..वो अपने ही स्कूल के एक प्रभावशाली ट्रस्टी के बेटे से गर्भवती भी हो गयी।

इसी संकलन की सपना सिंह द्वारा लिखी गयी को पढ़ने पर ऐसा भान हुआ जैसे उसे वॉयस टाईपिंग के ज़रिए जल्दबाजी में टाइप करने के बाद बिना ग़लतियों की तरफ़ ध्यान दिए जस का तस आगे छपने के लिए भेज दिया गया और वह बिना किसी प्रकार की प्रूफ़रीडिंग के इस संकलन के ज़रिए छप भी गयी। इस कहानी में मुझे काफ़ी ग़लतियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर एक 113 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'क्यों न की होगी रुचिका ने आत्महत्या?'

कहानी के हिसाब से यहाँ रुचिका ने आत्महत्या की है। इसलिए यह वाक्य सही नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'क्यों की होगी रुचिका ने आत्महत्या?'

इसी कहानी में आगे चल कर एक और वाक्य पेज नंबर 114 पर लिखा दिखाई दिया। जिसका मतलब मैं समझ नहीं पाया। वाक्य इस प्रकार है..

 'ईश्वर ने सृष्टि रचते हुए ये जो इतने सारे तरह- तरह के जीव जंतु बनाए उन सब में उसके जैसा, 
 बिल्कुत्ल उसका दूसरा काम उसका पूरक उसी की नस्ल का।'

इसी पैराग्राफ में आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'और ताना जिंदगी के उम्र का कोई पड़ाव इस डर से अछूता बचा है क्या?'

यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'और तमाम ज़िन्दगी की उम्र का कोई पड़ाव इस डर से अछूता बचा है क्या?'

इसके आगे इसी पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई कि..

'वह तान पड़ी है कमरे में'

इसका मतलब भी मैं समझ नहीं पाया। 

इसी कहानी में वर्तनी की भी बहुत सी त्रुटियाँ दिखाई दीं जैसे कि..

*मूड़ ऑफ- मूड ऑफ
*मूढ- मूड
*बेतरीन- बेहतरीन
*खिन्नीता- खिन्नता
*ड्रायपर- डायपर
*प्लॉउट- प्लॉट
*स्वेहटर- स्वेटर
*सुंदतर- सुंदर
*वक़्तर- वक्त
*बरदात- वारदात
*अनुतरिंत- अनुत्तरित
*स्वन- स्वर
*झुझलाना- झुंझलाना
*प्रत्युक्षत: - प्रत्यक्षतः
*आँखो- आँखों
*बिल्कुत्ल- बिल्कुल
*अस्तित्वर- अस्तित्व
*सत्तास- सत्ता
*स्कूबल- स्कूल
*व्योवस्थित- व्यवस्थित
*आश्वआस्त- आश्वस्त
*प्रत्यास- प्रत्यक्ष

इसी संकलन की मीनाक्षी स्वामी द्वारा रचित कहानी में सर्दियों की एक शाम नर्सरी में खेलने गए हमउम्र कुछ बच्चों में से सरला की अज्ञात मोटरसाइकिल सवारों द्वारा बलात्कार करने के बाद हत्या कर दी जाती है और उसे बचाने के प्रयास में नर्सरी संभालने वाला वृद्ध भी घायल हो कोमा में पहुँच जाता है। इस सब से अनजान बच्चे परेशान हैं कि उनके अभिभावकों द्वारा उनका बाहर घूमना फिरना और खेलना कूदना..सब बंद करवा दिया गया है। 

एम जोशी हिमानी द्वारा रचित कहानी 'गुठलियाँ' में गरीब पिता की एक्सीडेंट में मौत हो जाने के बाद तीन बेसहारा रह गयी बच्चियों के साथ अकेली रह गयी माँ का सहारा उसका जवान भाई बनता तो है मगर बड़ी बेटी सुमन को उसका महीने महीने भर तक उनके घर में टिके रहना पसन्द नहीं। 

इस संकलन की कहानियाँ जहाँ एक तरफ़ अपने पाठकों को अवसाद..वेदना की तरफ़ ले जाती हैं तो दूसरी तरफ़ गहनता से सोचते हुए स्वयं अपने अंतर्मन में झाँकने पर मजबूर करती दिखाई दे देती हैं कि वास्तव में जो कुछ भी हो रहा या फिर हो चुका है..उस सब के लिए वे भी कहीं ना कहीं इस वजह से ज़िम्मेदार हैं कि उन्होंने इस तरह की घटनाओं को रोकने के मकसद से मुखर हो कर अपना विरोध नहीं जताया बल्कि मौन रह कर एक तरह से ऐसे कुकृत्यों को समर्थन अथवा प्रोत्साहन दिया। 

इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे बेहद पसंद आई जिनके नाम इस प्रकार हैं।

*टॉरनेडो- सुधा ओम ढींगरा
* लापता पीली तितली- मनीषा कुलश्रेष्ठ
* ताऊजी कितने अच्छे हैं- योगिता यादव
* उसके हिस्से का आसमान - अंजू शर्मा
* होठों की बिजली - विभा रानी
* दुःस्वप्न- जयश्री रॉय

कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त काफी जगहों पर शब्द भी आपस में जुड़े हुए दिखाई दिए। जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला।

*गाड- गॉड
*हतप्रभत- हतप्रभ
*शकल- शक्ल
*शाप- श्राप
*(अभी-अभे)- अभी-अभी
*बहसियों- वहशियों 
*बहसी- वहशी
*बेतहासा- बेतहाशा


132 पृष्ठीय इस बेहद ज़रूरी कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। जो कि कंटैंट और क्वालिटी को देखते हुए जायज़ है। सभी लेखिकाओं..संपादक समेत प्रकाशक को आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए बहुत बहुत शुभ कामनाएँ।

बलम कलकत्ता- गीताश्री

पुराने ज़माने से ही हमारे समाज में मान्य एवं प्रचलित  पितसत्तात्मक मनोवृति..सोच एवं सत्ता के चलते आदम याने के पुरुष, खुद को अपने शारीरिक बनावट..डील डौल के बल पर हौव्वा याने के स्त्री की बनिस्बत ज़्यादा श्रेष्ठ..ज़्यादा समझदार..ज़्यादा उत्तम..ज़्यादा ताकतवर मानता चला आया है। बदलते समय के साथ सोच में आए परिवर्तन के साथ साथ अब चूंकि साबित हो गया है कि स्त्री किसी भी मामले में पुरुषों से उन्नीस नहीं बल्कि बीस या फिर इक्कीस ही है। 

शीघ्र ही इस बदलाव का असर जीवन के हर क्षेत्र में दिखने लगा और महिलाएँ अपने हक़..अपने अधिकारों के लिए..घर..बाहर..हर जगह संघर्ष करते हुए आवाज़ उठाने लगीं। साहित्यिक रचनाओं में भीसहज ही इस परिवर्तन का असर नज़र आने लगा । जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को केन्द्रीय पात्र रखते हुए, कुछ देखे भाले तो कुछ अनजाने किस्म के किरदार सैंकड़ो..हज़ारों की संख्या में गढ़े..लिखे एवं पढ़े जाने लगे। 

इसी स्त्री विमर्श को ज़हन में रखते हुए हमारे समय की प्रसिद्ध लेखिका गीताश्री जी का कहानी संकलन 'बलम कलकत्ता' आया है। नारी की ममता..त्याग..शक्ति..स्नेह..हिम्मत..हौंसले और जज़्बे के मिले जुले असर से लैस इन सभी कहानियों का ताना बाना कसावट के साथ इस प्रकार बुना गया है कि ये सभी किरदार एक तरह से हमें देखे भाले और अपने अपने से लगते हैं।

इस संकलन की कहानियों में जहाँ एक तरफ़ किसी कहानी में बरसों से शराबी पति के अत्याचार सहती नीलू और उसकी माँ, शांति, एक दिन अपनी बेटी और होने वाले दामाद का साथ पा..विद्रोह कर उठती हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य कहानी में अलग अलग दृश्यों के माध्यम से एक ऐसी नाटकीय कहानी का ताना बाना रचा गया है जिसमें कस्बाई इलाके की एक लड़की, अपनी मर्ज़ी के विरुद्ध हो रही जबरन हो रही शादी से बचने के लिए, खुद में देवी आने का स्वांग रचती दिखाई देती है। मगर क्या अपने इन सब प्रयासों में वह सफ़ल हो पाती है?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में एक घर में कोहराम मचता तब दिखाई देता है जब छपरा से दिल्ली पढ़ने गया उस घर का लड़का, वहाँ से लौट कर घर में बताता है कि..अपनी मर्ज़ी से उसने शादी कर ली है। मगर क्या बात बस इतनी ही थी या इससे भी भयंकर धमाका होना अभी बाकी था?  

एक अन्य कहानी में रिटायर्ड बाप के अचानक घर से बिना बताए ग़ायब हो जाने पर बेरोज़गार छोटे बेटे समेत कई अन्यों के हाथ पाँव फूल जाते हैं कि.. "अब घर का खर्चा कैसे चलेगा?" घर में ताला जड़ित एक जंग लगा बक्सा उन सभी के लिए जिज्ञासा एवं कौतूहल का विषय है कि..

"आखिर!..इस बक्से में है क्या?"

बहनोई समेत सभी नज़दीकी रिश्तों के चेहरों से परत दर परत उतरते नकाबों को देख पिता की लाडली छोटी बेटी व्यथित है कि..बिना बताए उसके पिता आखिर.. गए कहाँ? 

स्नेह..दोस्ती..विश्वास और कला जैसी अनेक भावनाओं से लैस इस संकलन की एक अन्य कहानी देश के उस कस्बाई इलाके की बात करती है जहाँ के मेलों..नौटंकी और दावतों में सुंदर लड़कों का, लड़की बन, नाच दिखाते हुए सबका मनोरंजन करना आम बात है। अब ये और बात है कि दर्शकों के भौंडे..फूहड़ और अमर्यादित मज़ाकों को सहना इन लड़कों की नियति बन चुका है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ दोस्ती..स्नेह और आत्मीयता भरी बातों के बीच भटकती आत्मा और हॉनर किलिंग की बात करती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी प्यार..दोस्ती..ब्याह तक के हर मामले में असफ़ल रह..निराश हो चुकी माँ की बात करती है। जो अपनी बेटी को इन सब चीज़ों को भूल सिर्फ़ कैरियर पर फ़ोकस करने की राय देती है लेकिन बेटी के प्रेमी के सतत प्रयासों से कुछ ऐसा होता है कि उनमें जीवन के प्रति फिर से नई स्फूर्ति..नया जोश..नयी आशा..नयी उमंग..नया उल्लास नज़र आने लगता है।

एक अन्य कहानी में मेट्रो में सफ़र के दौरान, नारी स्वाविलंबन की वक़ालत करने वाली, तन्वी की मुलाक़ात दस साल पहले कॉलेज में बिछुड़े उसकी सहेली के एक्स बॉयफ्रेंड से होती है। जिसने सहेली से ब्रेकअप के बाद उसे प्रपोज़ किया था मगर अपने घर में माँ बाप के झगड़ों से परेशान तन्वी ने उसे उस वक्त इनकार कर दिया था। 

अब दस सालों के लंबे अंतराल के बाद क्या पत्थर बन चुकी तन्वी पिघलेगी? या फिर पूरी ज़िन्दगी वह महज़ एक सोलो ट्रैवलर बन कर रह जाएगी?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में एक स्वावलंबी लड़की खुद ही अपनी पसन्द के लड़के से शादी से पहले लिव इन में रहने का प्रस्ताव रखती है। तो कहीं किसी कहानी में बिना किसी ग़लती के गर्ल्स पीजी से अचानक निकाल दी गयी लड़की को, कोई और ठिकाना ना मिलने पर, मजबूरीवश अन्य लड़कों के साथ पहले उनका पीजी और फिर रूम शेयर करना पड़ता है। 

एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ ब्रेकअप के बाद से निराशा..हताशा और अवसाद से ग्रसित युवती फिर से जीने का..खुश रहने का कोई ज़रिया..कोई बहाना ढूँढती दिखाई देती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ प्रेम..धोखे..छल..कपट..विश्वासघात और समझौते से लैस एक अन्य कहानी में आपसी रिश्तों की बखिया सोशल मीडिया पर खुलेआम उधड़ती दिखाई देती है।

नारी शक्ति के ऐसे ही अनेक किस्सों से सुसज्जित इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे बहुत बढ़िया लगी। जिनके नाम इस प्रकार हैं।

*बलम कलकत्ता पहुँच गए ना
*मन वसंत तन जेठ
*उनकी महफ़िल से हम उठ तो आए
*बाबूजी का बक्सा
*सोलो ट्रैवलर
*उदास पानी में हँसी की परछाइयाँ
*अदृश्य पंखों वाली लड़की
*जैसे बंजारे को घर
*गुनाहों का इनबॉक्स

शहर..गांव..कस्बों एवं महानगरीय पात्रों से सुसज्जित इस बढिया कहानी संकलन में वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना होना थोड़ा खला। दो कहानियों में फाइनल एडिटिंग में हलकी सी चूक होने से कंफ्यूज़न भी क्रिएट होता दिखा जैसे कि पेज नंबर 111 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

 'दोनों हंसने लगे थे। जयेश ने महसूस किया, तन्वी ने अपनी हंसी दस सालों बाद भी बचा कर रखी थी।' 
इसके बाद अगले पेज याने के पेज नंबर 112 के पहले पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि...

'जयेश उसके कानों में फुसफुसा रहा था--"हम साल 2000 में बिछड़े थे । ये 2019 है।"

बाद में इसी कहानी के दौरान पेज नंबर 120 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'दस साल बाद मिला है, पुराने अंदाज में बातें कर रहा है। जरा भी नहीं बदला है।' 

अगर सन 2000 में बिछड़ कर जयेश, तन्वी से 2019 में मिलता है तो इसका मतलब वह उससे 19 साल के बाद मिल रहा है लेकिन कहानी में आगे भी इसी बात का जिक्र आ रहा है कि वे दोनों दस साल बाद फिर से मिले हैं।

*इसी तरह पेज नंबर 126 पर एक अन्य कहानी में लिखा दिखाई दिया कि..

 "उसे लगा कि मलय कुछ ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है उसमें, या वही ले रही है उसमें रुचि, पता नहीं... वह इतना वक्त क्यों नहीं दे रहा है,  सब काम छोड़ कर कोई करता है क्या किसी अजनबी के लिए।

यहाँ सोनल को आश्चर्य हो रहा है कि मलय उसके लिए इतना वक्त क्यों दे रहा है।

जबकि ग़लती से लिखा गया कि..पता नहीं..वह इतना वक्त क्यों नहीं दे रहा है। 

बढ़िया क्वालिटी के कागज़ पर छपे और धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस पन्द्रह कहानियों के 188 पृष्ठीय संकलन को छापा है प्रलेक प्रकाशन,मुंबई ने और इसका मूल्य रखा गया है 201/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

बारह सवाल- सुरेन्द्र मोहन पाठक

अब भी अगर कभी तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्यकारों द्वारा लुगदी साहित्य कह कर नकार दिए जाने वाला साहित्य हमारे सामने अपने, हार्ड (कॉपी) या फिर डिजिटल स्वरूप में आ जाता है तो पुराने दिन..पुराना समय एक बार फिर से नॉस्टेल्जिया के ज़रिए हमारे ज़हन में आ..हमें पुराने दिनों..पुरानी यादों में खो जाने को मजबूर कर देता है। 

मेन स्ट्रीम के गंभीर साहित्य और उनकी बुद्धिजीविता से भरी साहित्यनुकूल भाषा की बनिस्बत इनके कंटैंट रहस्य..रोमांच एवं रोमांस से भरे हुए आम बोलचाल की भाषा से लैस होते थे। इसलिए आम जनमानस के प्रिय थे। इनकी अत्यधिक लोकप्रियता के चलते हीन भावना से लैस हो कर इन्हें तथाकथित बुद्धिजीवियों के एक वर्ग द्वारा लुगदी साहित्य कह कर महज़ इसलिए पुकारा गया कि इस तरह के उपन्यासों में छपाई की लागत को कम करने के लिए औसत से भी हल्की क्वालिटी के कागज़ का इस्तेमाल किया जाता था। 

इस तरह के उपन्यासों में एक तरफ़ प्रेम..त्याग..ममता..स्नेह जैसी दिल को छू लेने वाली भावनाओं का बोलबाला था तो दूसरी तरफ़ इसमें देशभक्ति..युद्ध..फंतासी..क्राइम..और जासूसी जैसे थ्रिलर चाहने वालों की तादाद भी बेतहाशा थी। 

हिंदी के तेज़ रफ़्तार..थ्रिलर..रोमांचक उपन्यासों का जिक्र जब भी कहीं होता है तो लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक जी की रचनाओं का एक रोचक..मनमोहक संसार हमारी नज़रों के सामने इस कदर झिलमिलाने लगता है कि हम बस उसी के हो कर रह जाते हैं। दोस्तों..आज मैं बात करने जा रहा हूँ थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के एक उपन्यास "बारह सवाल" की। इनके अब तक 300 से ज़्यादा उपन्यास आ चुके हैं।

इस उपन्यास में कहानी है कई बार का सज़ायाफ्ता ठग विकास गुप्ता की। जिसे अख़बार में छपे एक इश्तेहार से पता चलता है कि उसका मामा, जिसे उसने कभी नहीं देखा, वसीयत में उसके नाम करोड़ों रुपए की मिल्कियत छोड़ कर मर गया है। हालांकि विकास को उसके मामा की बाबत कुछ भी नहीं पता था लेकिन मामा उसके सारे काले कारनामों की ख़बर रखता था। अब चूंकि वो जानता था कि उसका भांजा ठग है तो यकीनन तेज़ दिमाग भी ज़रूर होगा। उसी के तेज़ दिमाग की परीक्षा के लिए उसने अपनी वसीयत में विकास के लिए बारह सवालों के जवाब ढूँढने की शर्त रखी है।

 उन बारह सवालों को हल करने की शर्त जिनके जवाब की बाबत विकास को बिल्कुल भी इल्म नहीं है। उसे हर हाल में उन बारह सवालों का एकदम सही उत्तर ढूँढना है। अगर वो इसमें असफ़ल होता है तो सारी दौलत नेपाली मूल के तमंग बहादुर और उसकी माँ को मिल जाएगी जो मामा के पार्टनर का बेटा है और इसी दौलत के लिए उसकी जान के दुश्मन बना बैठा है। 
 
विकास इस चुनौती को स्वीकार करता है और इस काम में अपनी साथिन शबनम की मदद लेता है। जो खुद भी एक ठग है। इस काम में इनकी मदद के लिए ठगी का बड़ा नाम मनोहर लाल उर्फ कर्नल जे.एस. चौहान आता है। खुली आँखों से भी काजल चुराने में माहिर मनोहर लाल रोज़ रात क्लब में शराब पीने का आदि है जिसे वह कभी भी अपने पैसे से खरीद कर नहीं पीता।

एक तरफ़ विकास के सामने बारह सवालों को हल करने की चुनौती है दूसरी तरफ़ बातों बातों में मनोहर लाल उर्फ कर्नल जे.एस. चौहान के बीच आपस में शर्त लग जाती है कि उन दोनों में से बड़ा ठग कौन?

बहुत से रोचक..मनोरंजक ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स से सुसज्जित इस कहानी को पढ़ते वक्त आप इसमें इस कदर खो जाते हैं कि आपको पता भी नहीं चलता कि कब उपन्यास अपने अंतिम पायदान पर पहुँच कर खत्म हो गया। 

इस उपन्यास के किंडल एडिशन की कीमत 100 रुपए है और किंडल अनलिमिटेड सब्सक्रिप्शन वालों के लिए फ्री में उपलब्ध है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

आह्वान- सौरभ कुदेशिया

ईसा पूर्व हज़ारों साल पहले कौरवों और पांडवों के मध्य हुए संघर्ष को आधार बना कर ऋषि वेद व्यास द्वारा उच्चारित एवं गणेश द्वारा लिखी गयी महाभारत अब भी हमें रोमांचित करती है।  तमाम उलट फेरों और रहस्यमयी साजिशों एवं चरित्रों से सुसज्जित इस कहानी के मोहपाश से नए पुराने रचनाकार भी बच नहीं पाए हैं। परिणामतः इस महान ग्रंथ की मूल कहानी पर आधारित कभी कोई फ़िल्म..नाटक..कहानी या उपन्यास समय समय पर हमारे सामने अपने वजूद में आता रहा है।

इसी रोमांचक कहानी के कुछ लुप्तप्राय तथ्यों को ले कर सौरभ कुदेशिया हमारे समक्ष अपना थ्रिलर उपन्यास 'आह्वान' ले कर आए हैं। इस उपन्यास में कहानी है श्रीमंत के बेटे रोहन के रोड एक्सीडेंट में मारे जाने के बाद मिलने वाली उसकी वसीयत और वसीयत में दिए गए एक खाली बैंक लॉकर की। जिसमें एक अजीबोगरीब चित्र के अलावा और कुछ भी नहीं है। गूढ़ पहेली की तरह लिखी गयी वसीयत की गुत्थी सुलझाने के लिए उसके दोस्त जयंत, जो कि पुलिस ऑफिसर भी है, आगे आता है।

तहकीकात के दौरान गुप्त संकेतों और अजीबोगरीब लाशों के मिलने से सिंपल मर्डर मिस्ट्री जैसी नज़र आने वाली यह कहानी हर बढ़ते पेज के साथ सुलझने के बजाय मकड़जाल की भांति तब और अधिक उलझती जाती है जब एक एक कर के और भी कई हत्याएँ तथा अनहोनी घटनाएँ सर उठा..सामने आने लगती हैं।

नए और पुराने के फ्यूज़न से रची इस हॉलीवुडीय स्टाइल की कहानी में एक तरफ़ महाभारत और गीता के गूढ़ रहस्य हैं तो दूसरी तरफ़ उन्हीं गूढ़ रहस्यों से परत दर परत निकलते गुप्त संकेतों को समझने..उन्हें डिकोड करने को दिमागी कसरत एवं कवायद करते कुछ लोग। 

हर सीधी..सरल सी दिखने वाली बात के पीछे भी किसी ना किसी वजह या राज़ का तार्किक ढंग से होना साबित करता है कि इस कहानी को बड़े ही संयम और धैर्य के  साथ तसल्लीबख्श ढंग से धीमी आंच पर पकते पकते पकाया गया है। 
 
तेज़ रफ़्तार से चलती हुई यह रौंगटे खड़े कर देने वाली रोचक कहानी अपने ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स की वजह से कभी आपको चौंकने पर मजबूर कर देती है तो कभी इस सधी हुई भाषा और कहानी के ट्रीटमेंट को देख कर लेखक की लेखन कला के मुरीद होते हुए आप दाँतों तले उंगली दबाने को आतुर हो उठते हैं। 

क्या उपन्यास के अंत तक सब गुत्थियाँ सुलझ जाएँगी या फिर सुलझते सुलझते और ज़्यादा उलझ जाएँगी? यह सब तो खैर.. आपको इस वृहद उपन्यास के पहले भाग 'आह्वान' को पढ़ कर ही पता चलेगा। 

शुरुआती कुछ पृष्ठों में धीमी शुरुआत के अलावा पुराने संदर्भों की व्याख्या करते कुछ पृष्ठ अतिरिक्त बौद्धिकता भरे लगे। जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना होना..थोड़ा खला। हालांकि बाद में कहानी की बढ़ती लय और रफ़्तार के साथ इस कमी की तरफ़ ज़्यादा ध्यान नहीं जाता और  पाठक किताब के अंत तक सफलतापूर्वक आराम से पहुँच जाता है। इस बात के लिए लेखक की तारीफ़ करनी होगी कि पौराणिक बातों से अनजान पाठकों के लिए, उन्होंने उन तथ्यों को अलग से संदर्भ सहित बताया है। 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस 304 पृष्ठीय रोचक उपन्यास के पहले भाग 'आह्वान' के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

खुल्लम खुल्ला- ऋषि कपूर

सफ़ल फिल्मी सितारों की अगर बात करें तो उनकी आने वाली पीढ़ी एक तरह से कह सकते हैं कि..अपने 'मुँह में चाँदी का चम्मच ले कर' पैदा होती है। उन्हें वह सब ऐशोआराम और विलासिता भरा जीवन एक तरह से बिना किसी प्रकार का संघर्ष या जद्दोजहद किए आसानी से तश्तरी में सजा सजाया मिल जाता है। 

इसी तरह शुरुआती कैरियर के मामले में भी आमतौर पर इन स्टार किड्स को किसी किस्म की दिक्कत या परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता कि बड़े नाम वाले उनके पिता.. माँ या किसी अन्य नज़दीकी की वजह से उनकी फिल्मों को कहानी, कास्ट..कॉस्ट्यूम डिज़ायनिंग से ले कर फाइनैंस तक के हर मामले में उन सब तथाकथित परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता जिन्हें आमतौर पर किसी अन्य नए चेहरे को करना पड़ता है। बावजूद इन तमाम साहूलियतों के इन सबकी किस्मत का फ़ैसला इनकी परफार्मेंस के हिसाब से आम जनता के हाथ में होता है कि वह इन्हें सर आँखों पर बिठाती है या फिर औंधे मुँह धड़ाम गिरने पर मजबूर कर देती है।

दोस्तों..आज खुल्लम खुल्ला मैं बात करने जा रहा हूँ एक ऐसे स्टार किड की जिसके दादा से ले कर चाचा..मामा वगैरह सब के सब बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री में बड़ा नाम थे। जी..हाँ.. सही पहचाना आपने। मैं फ़िल्म स्टार ऋषि कपूर और उनकी आत्मकथा 'खुल्लम खुल्ला' की बात कर रहा हूँ। उनके पिता फ़िल्म स्टार राजकपूर ने उन्हें बतौर बाल कलाकार अपनी फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' में एक बड़ा रोल निभाने को दिया। 'मेरा नाम जोकर' के फ्लॉप होने पर उन्होंने अपने बेटे ऋषि कपूर को बतौर हीरो 'बॉबी' फ़िल्म में लॉन्च किया। जो कि बेइंतिहा फ़ायदे का सौदा साबित हुआ। यहाँ यह गौरतलब बात है ऋषि कपूर इससे पहले 'प्यार हुआ इकरार हुआ' गीत के एक दृश्य में बच्चे के रूप में अपनी पहली झलक दर्शकों को दिखला चुके थे।

 'बॉबी' फ़िल्म के ज़रिए भारतीय सिनेजगत में एक ऐसे नए सितारे का उदय हुआ जिसने लगातार सफ़लता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए अपनी पूरी ज़िन्दगी दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। पहले फेज़ में जहाँ एक तरफ़ उन्होंने स्टीरियोटाइप चॉकलेटी हीरो की भूमिकाएँ निभाई तो वहीं दूसरी तरफ़ 
अपने कैरियर के सैकेंड फेज़ में उन्होंने हमें चौंकाते हुए चुनौतीपूर्ण भूमिकाएँ निभा कर अनेकों पुरस्कार भी झटके।

रोचक शैली में लिखी गयी अपनी इस आत्मकथा में वे अपने दादा पृथ्वीराज कपूर से लेकर हर छोटे बड़े परिवार के हर सदस्य तथा अपने समकालीनों एवं वरिष्ठ सहयोगियों से अपने संबंधों की बात करते हैं। अपने परदादा वशेशर नाथ जी के बारे में बात करते हुए वह बताते हैं कि वह एक तहसीलदार थे और दिवान साहब के नाम से जाने जाते थे। 46 साल की उम्र में उन्हें नौकरी से जिले बर्खास्त कर दिया गया कि वे अपनो महिला मित्र के घर तक पहुँचने के लिए सुरंग खोदते हुए पकड़े गए थे।

अपनी इस किताब में बड़ी साफ़गोई से ऋषि कपूर स्वीकारते हैं कि एक समय महानायक अमिताभ बच्चन और सुपर स्टार राजेश खन्ना के साथ उनके संबंध सहज नहीं थे। ऋषि कपूर बताते हैं कि 'कुर्बानी' और 'कर्ज़' की रिलीज़ के बीच सिर्फ 1 हफ़्ते का फ़र्क था और 'कुर्बानी' के मुकाबले 'कर्ज़' के कम चलने से वह इस हद तक अवसाद से गिर गए थे कि उन्हें कैमरे का सामना करने से डर लगने लगा था और अपना कैरियर एक तरह से खत्म नजर आ रहा था। इसके लिए वे कभी नीतू सिंह के साथ हाल ही में हुई अपनी शादी को दोषी ठहराते तो कभी अपनी किस्मत को।

ऋषि कपूर बताते हैं कि यश चोपड़ा की फिल्म 'विजय' के एक हादसा साबित होने के बाद 'चांदनी' के निर्माण के दौरान यश चोपड़ा इस कदर मानसिक तनाव में थे कि अगर 'चांदनी' अच्छी नहीं चली तो उन्हें अपनी फ़िल्म निर्माण संस्था बंद कर 'टी सीरीज़' के लिए लघु फिल्में बनानी पड़ेंगी। चांदनी की प्रदर्शन पूर्व कोई सकारात्मक लहर के ना होने और फिल्म पंडितों के इसके डूबने की भविष्यवाणी कर रहे थे। तब ऋषि कपूर ने यश चोपड़ा की डायरी में हर पेज पर बस यही लिखा देखा कि..

"हे ईश्वर.. मेरी मदद कर।"

चांदनी ने बाद में जो सफलता पाई वह तो खैर इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है। 

इसी तरह के एक अन्य रोचक किस्से में ऋषि कपूर आगे बताते हैं कि 'चांदनी' फिल्म के बाद 'डर' फ़िल्म के लिए भी उन्हें ही सबसे पहले अप्रोच किया गया था लेकिन नकारात्मक भूमिका के लिए उन्होंने जब ना कर दी तो इसी फिल्म के लिए आमिर खान और अजय देवगन से भी बात की गई। अंततः रोल शाहरुख खान को मिला और बाकी सब तो अब इतिहास बन चुका है।

अपनी आत्मकथा में ऋषि कपूर कहते हैं कि किस्मत से उन्हें डांस वाली बढ़िया गीत और फिल्में मिली एवं साथ ही साथ में ईश्वर का शुक्र भी मनाते हैं कि उनका और गोविंदा का समय एक साथ कभी नहीं आया। क्योंकि वह गोविंदा के समान बढ़िया डांस नहीं कर पाते। अपने कैरियर का एक रोचक वाक्या बताते हुए ऋषि कपूर बताते हैं कि..किस तरह पंचम दा का उनके लिए रेकॉर्ड किया जा रहा गाना 'रुक जाना ओ जाना..हमसे दो बातें कर के चली जाना' देव आनंद जी ने अपनी फिल्म 'वारंट' के लिए माँग लिया था। 

इसी किताब में ऋषि कपूर आगे बताते हैं कि उनकी ग़हरी दोस्ती जितेंद्र, प्रेम चोपड़ा और राकेश रोशन के साथ थी लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि उनके रिश्ते जितेंद्र और राकेश रोशन के साथ पहले जैसे सामान्य नहीं रहे। जितेंद्र के साथ रिश्तो में मनमुटाव के लिए वह उनकी बेटी एकता कपूर को जिम्मेदार मानते हैं। इसी तरह राकेश रौशन के साथ अपने रिश्तों में फ़र्क आने की बात करते हुए वे बताते हैं कि वे उन्हें अपनी फिल्म मैं रितिक रोशन के पिता का रोल ऑफर किया तो छोटे रोल की वजह से उन्होंने जब अपने कैरियर पर फ़र्क पड़ने की बात कही तो राकेश रोशन ने उन्हें ताना मारा कि.."उनका कैरियर तो कब का खत्म हो चुका है।" इसी बात को उन्होंने बतौर चैलेंज किया और आने वाले समय में राकेश रोशन को अपनी दमदार भूमिकाओं के ज़रिए ग़लत साबित किया । 

ऋषि कपूर स्वीकार करते हैं कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म 'बॉबी' के लिए ₹ 30,000/-  दे कर अवार्ड खरीदा था। इसी तरह के अनेक रोचक किस्सों में से एक मे ऋषि कपूर, जावेद अख्तर द्वारा उनको दी गई चुनौती का जिक्र करते हैं कि..

"अगर उनकी आने वाली फिल्म 'शोले' ने  'बॉबी' से एक पैसा भी कम कमाया तो वह अपनी कलम तोड़ देंगे।"

 इसके साथ ही उन्होंने सलीम-जावेद जोड़ी के सलीम की उस चेतावनी का जिक्र भी उन्होंने किया जिसमें 'त्रिशूल' पिक्चर में उनका दिया रोल करने से इंकार कर देने पर उन्होंने उनका कैरियर खत्म करने की धमकी दी थी। 

ऐसे ही अनेक रोचक किस्सों से जुड़ी इस आत्मकथा में कहीं वे स्वीकारते हैं कि वैजयंतीमाला से उनके पिता राजकपूर के अफ़ेयर की वजह से उनकी माँ, बच्चों समेत कुछ महीने होटल में ही रही थी। हालांकि बाद में अपनी आत्मकथा में वैजयंतीमाला ने इस अफ़ेयर को सिरे से नकारते हुए इसे महज़ प्रचार के लिए राजकपूर की शोशेबाजी ही करार दिया था। तो कही ट्विटर पर अपनी साफ़गोई भरी बातों की वजह से उत्पन्न हुए विवादों का जिक्र करते हैं। कहीं अपने बेटे 'रणबीर कपूर' तो कहीं अपनी पत्नी 'नीतू सिंह(कपूर) से अपने संबंधों का जिक्र करते हैं। कहीं अपनी खूबियों का जिक्र करतें हैं तो उतनी ही साफ़गोई से अपनी कमियों को स्वीकारते हैं। 

मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी गयी इस आत्मकथा में को ऋषि कपूर के साथ मिल कर लिखा है मीना अय्यर ने और इसका हिन्दी अनुवाद किया है उषा चौकसे ने।

ऐसे ही अनेक रोचक किस्सों से सजी इस मज़ेदार आत्मकथा के 260 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है हार्पर हिन्दी ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। फिलहाल यह अमेज़न पर 279/- में मिल रही है। सह लेखिका, अनुवादक एवं प्रकाशक को आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

https://www.amazon.in/dp/9352777980/ref=cm_sw_r_cp_apa_glt_fabc_HEMT1CJ5BM4E3XNXZ413

नागाओं का रहस्य- अमीश त्रिपाठी

अमीश द्वारा लिखी गयी “शिव रचना त्रयी” का दूसरा उपन्यास “नागाओं का रहस्य” उनके पहले उपन्यास “मेलूहा के मृत्युंजय” की भांति ही बेहद रोचक एवं दिलचस्प है। रहस्य और रोमांच से भरपूर इस उपन्यास में आप कदम कदम पर विस्मित होते हैं, चौंकते हैं, मंद-मंद मुस्कुराते हैं और किसी-किसी पल एकदम से उत्साहित हो तनाव वश अपने शरीर को उत्सुकतापूर्ण ढंग से अकड़ा लेते हैं।

इसमें ‘शिव’ के साधारण मनुष्य से ईश्वर बनने की कहानी को बेहद दिलचस्प अंदाज़ से इस प्रकार लिखा गया है कि पढ़ते वक्त आप खुद को एक अलग ही दुनिया में पाते हैं मानों सब कुछ आपके समक्ष प्रत्यक्ष रूप से घटित हो रहा हो।

आंकड़ों के हिसाब से अगर देखा जाए तो मूल रूप में अंग्रेजी में लिखे गए इस उपन्यास की 40 लाख से ज्यादा प्रतियाँ अब तक बिक चुकी हैं और गिनती अभी भी बढ़ रही है. 19 भाषाओं में अब तक इसका अनुवाद हो चुका है. 
नोट: 
मूल रूप में अंग्रेजी में लिखा और उसका हिंदी में अनुवाद होने के कारण कई जगह आपको कुछ नए शब्दों का सामना करना पड़ सकता है। कुछ जगहों पर आपको भाषा थोड़ी सी असहज लग सकती है जिसे खैर..अनुवाद होने के कारण आसानी से नज़रंदाज़ कर उपन्यास का पूरा आनंद लिया जा सकता है। 

कम शब्दों में अगर कहें तो...आपके कीमती समय और पैसे की पूरी-पूरी वसूली।

ओए!..मास्टर के लौंडे- दीप्ति मित्तल

आज के समय में भी अगर कोई किताब आपको आपके पुराने समय..पुरानी यादों..पुरानी शरारतों..पुरानी कारस्तानियों..पुरानी खुराफातों.. पुरानी बेवकूफियों की तरफ़ ले जाए तो इसमें कोई ताजुब्ब नहीं कि आप नॉस्टेल्जिया के सागर में गोते खाते हुए बरबस मुस्कुरा या फिर खुल कर खिलखिला उठें।

ऐसे ही मुस्कुराने..खिलखिलाने के अनेकों मौके ले कर लेखिका दीप्ति मित्तल जी हमारे बीच अपनी पहली किंडल किताब 'ओय!..मास्टर के लौंण्डे' ले कर आयी हैं। इस लघु उपन्यास में कहानी है दो दोस्तों, दीपेश और हरजीत की। उस दीपेश की, जिसका एक सख्तमिज़ाज़ प्रोफ़ेसर के घर में जन्म हुआ है और इस बात का उसे बहुत पछतावा है कि पढ़े लिखे मास्टर का बेटा होने की वजह से घर बाहर..हर जगह उससे पढ़ाकू होने की उम्मीदें लगाई जाती हैं जबकि उसका पढ़ाई में बिल्कुल मन नहीं लगता और इसी वजह से हर कोई उसे..'ओय मास्टर के लौण्डे कह कर चिढ़ाता है।

जहाँ एक तरफ़ पिता की सख्तमिज़ाज़ी के चलते दीपेश समेत उसकी बहन तथा माँ भी आहत रहती हैं कि उन्हें भी एक तयशुदा अनुशासित वातावरण में बिना किसी कोताही के मन मारते हुए रहना पड़ता है। वहीं दूसरी तरफ़ उसका दोस्त हरजीत एक चाय वाले का मस्ती पसन्द..मनमौजी लड़का है। जिसे हर वक्त फिल्मी गानों, बढ़िया खाने-पीने..पहनने ओढ़ने से ही फुरसत नहीं है। 

इन दोनों की दोस्ती ऐसी कि किसी का भी एक दूसरे के बग़ैर गुज़ारा नहीं। पहली बात तो उनमें आपस में नाराज़गी होती ही नहीं और अगर होती भी है तो अगले दिन तक टिक नहीं पाती। दीपेश की आदत ऐसी कि छुपाना चाह कर भी हरजीत से कोई बात ज़्यादा देर तक छुपा नहीं पाता। ऐसी लँगोटिया यारों वाली दोस्ती के बीच एक दिन हरजीत बिना कुछ बताए ग़ायब हो जाता है। तमाम तरह की जिज्ञासाओं..आशंका से भरा दीपेश अपनी लाख कोशिशों के बावजूद उसका कुछ पता नहीं लगा पाता। 

आखिर..हरजीत के साथ क्या हुआ या वो कहाँ ग़ायब हो गया? क्या वह फिर कभी लौट के आ पाता है? इस तरह के तमाम सवालों का हल जानने के लिए तो आपको बचपन की शरारतों से लैस यह मज़ेदार उपन्यास पढ़ना होगा।

हरजीत के पंजाबी परिवार से होने के बावजूत उपन्यास में पंजाबी का ग़लत उच्चारण दिखाई दिया। 

किंडल का लिंक:

"ओय! मास्टर के लौंडे (Hindi Edition)" by दीप्ति मित्तल.

Start reading it for free: https://amzn.in/8O9f67c

स्वर्ग का अंतिम उतार- लक्ष्मी शर्मा

अमूमन सनातन धर्म को मानने वाले हर छोटे बड़े प्राणी के मन में कहीं ना कहीं यह इच्छा दबी रहती है कि कम से कम एक बार तो वह चार धाम की तीर्थ यात्रा पर जा कर अपना जन्म ज़रूर सफ़ल कर ले। भले ही इसके लिए वो कोई गांव देहात का पाई पाई जोड़ता ठेठ गरीब..गंवार हो अथवा फैशनेबल शहर का हर कदम पर रईसी झाड़ता कोई जाना माना सेठ हो। 

ऐसी हो एक यात्रा पर दोस्तों..आज मैं आपको ले चल रहा हूँ प्रसिद्ध लेखिका लक्ष्मी शर्मा जी के उपन्यास 'स्वर्ग का अंतिम उतार' के साथ। 

इस उपन्यास में कहानी है इन्दौर शहर के जाने माने रईस और उसके परिवार के धार्मिक पर्यटन के नाम पर चार धाम यात्रा पर जाने की। इसमें कहानी है उसी बंगले में चौकीदारी कर रहे छिगन की। उस छिगन की जो गांव की गरीबी और तंगहाली से तंग आ कर शहर में नौकरी करने के मकसद से आया  है।  हुक्म की तामील के रूप में उसे भी सेठ के परिवार के साथ, उनके पालतू कुत्ते की देखभाल के लिए, चार धाम की यात्रा पर जाना पड़ता है। उस चार धाम यात्रा पर, जिसका सपना उसकी दादी और माँ से ले कर वह खुद बचपन से देखता आया है।  

इस उपन्यास में एक तरफ कहानी है गांव देहात में पैसे पैसे को तरसते मजबूर लोगों की। तो दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं शहरी चोंचलों और उनकी दिन प्रतिदिन बढ़ती फ़िज़ूलखर्ची की। एक तरफ़ इसमें बातें हैं साफ़ चेहरे वाले सहज..सरल..सच्चरित्र इनसानों की तो दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं खोखली सहानुभूति लिए दोगले चेहरों से उतरते उनके नकाबों की।

इस उपन्यास में गंगा के बढ़ते प्रदूषण की चिंता के साथ साथ भांग की चटनी और अफ़ीम की भाजी जैसी कई अन्य रोचक जानकारियां भी है। कहीं  इसमें, जंगल काट कर उसके किनारे बसे, उन गांवों की बात है जिनमें गुलदार(तेंदुआ) शिकार की कमी के चलते घर में अकेले रह रहे इनसानों को उठा ले जाता है। इस उपन्यास में कहीं बात है पहाड़ों पर हर जगह आसानी से उपलब्ध मैग्गी की तो कहीं इसमें बात है पहाड़ों पर जगह जगह नज़र आ रहे झरनों के बावजूद नलकों और हैंडपंपों के होने की। इसी उपन्यास के माध्यम से पता चलता है कि झरनों का पानी कच्चा होने के कारण पीने लायक नहीं होता।

 इसमें बातें हैं उस देवप्रयाग की जहाँ कौवे बिल्कुल  नहीं दिखाई देते कि वहाँ पर सभी पितरों को मुक्ति मिल जाती है। इसमें बात है सास बहू के रिश्ते वाली उन दो नदियों, भागीरथी और अलकनंदा, की जिनका भागीरथ में संगम होता है। जिनमें भागीरथी को सास इसलिए कहा जाता है कि बहते हुए वह सास की ही भांति बहुत शोर करती है और अलकनंदा, जो कि बहु है, एकदम शांति से बहती है।

इस यात्रा कथा से गुज़रते हुए हम महसूस करते हैं कि एक स्मृति यात्रा भीतर ही भीतर छिगन के मन में भी चल रही है। जिसके जरिए वो अपने अतीत में झांकते हुए कुछ अन्य कथाओं के साथ चंदरी भाभी की मार्मिक कथा को भी उसके त्रासद रूप में  पाठकों से रूबरू करवाता है।

उपन्यास के मुख्य पात्र छिगन और उसके साथ हरदम रहते गूगल(कुत्ता) को केंद्र में रख कर इस पूरी कहानी का ताना बाना इस प्रकार कसावट के साथ बुना गया है कि कहानी का छोटे से छोटा पात्र भी कभी किसी जानकारी के माध्यम से तो कभी पहाड़ की बेटी जुहो जैसी किसी रोचक कथा के माध्यम से अपनी भूमिका को अहम बनाता हुआ नज़र आता है। 

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी होगी कि शब्दों के ज़रिए वह एक ऐसा चित्र पाठकों के समक्ष पेश करती हैं कि पढ़ने वालों को लगता है कि वे सब भी यात्रा में छिगन के साथ ही सफर कर रहे हैं। निर्बाध रूप से चलती कहानी कहीं भी बोझिल नहीं होती और पाठक इसके अंत तक आसानी से पहुँच जाता है।

सीधी साधी आम कहानी की तरह चल रही यह कहानी क्या एक आम यात्रा वृतांत भर रह जाएगी या अंत से पहले कुछ अप्रत्याशित या अकल्पनीय घटने को आपका इंतज़ार कर रहा है? यह सब तो आपको इस रोचक उपन्यास को पढ़ कर ही पता चलेगा।

104 पृष्ठों के इस बढ़िया उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक कक अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz