बस..बन गया डाक्टर -राजीव तनेजा

doc

कई दिनों से बीवी की तबियत दुरुस्त नहीं थी…कई बार उसने मुझसे कहा भी कि…

“डॉक्टर के पास ले चलो”…लेकिन मुझे अपने काम-धंधे से फुरसत हो तब ना।हर बार किसी न किसी बहाने से टाल देता| एक दिन बीवी ने खूब सुनाई कि…

“मेरे लिए ही तो टाइम नहीं है जनाब के पास… वैसे पूरी दुनिया की कोई भी बेकार से बेकार… कण्डम से कण्डम भी आ के खड़ी हो जाए सही…लार टपक पड़ती है जनाब की….लट्टू की तरह नाचते फिरते हैं चारों तरफ” 

अब भला कैसे समझाऊँ इस बावली को कि…. “आजकल इंडिया में बर्ड फ्लू फैला हुआ है। सो!…घर की मुर्गी की तरफ तो ताकना भी हराम है।इसलिए कभी- कभार जीभ का स्वाद बदलने की खातिर इधर- उधर मुंह मार ही लिया तो कौन सी आफत आन पड़ी?”...
"अब यार!…इसमें मेरा भला क्या कसूर?…क्या मैं पकड़ कर लाया था इस मुय्ये ‘बर्ड  फ्लू’ को? और फिर भूख चाहे पेट की हो या फिर किसी और चीज़ की ……बात तो एक ही है ना? अब जब ऊपरवाले ने पेट दिया है तो वो तो भूख के मारे तड़पेगा ही…मैं या आप भला इसमें क्या कर सकते हैं?.. और अगर पेट तड़पेगा तो उसे भरना तो ज़रूरी है ही।  अब ये औरतें क्या जानें कि…भूख आखिर होती क्या है?….इनको क्या पता कि मंडी में आलू किस भाव बिकता है?  इन्हें तो घर बैठे-बिठाए हुकुम का ताबेदार जो मिल गया है।सो!…आव देखती हैं ना ताव देखती हैं…बस..झट से मुंह खोला और कर डाली फरमाइश और मैं जैसे बरसों से इसी इंतज़ार में बैठा हूँ कि….कब मोहतरमा जी का हुकुम मिले और कब मैं उसे बजाऊँ?

“कोई और काम-धंधा है कि नहीं मुझे?”

एक दिन आखिर तंग आ के बोल ही डाला कि…

अब आप पूछेंगे कि…. “क्या… ‘आई लव यू’  बोल डाला?”…

“पागल समझ रखा है क्या?… ‘आई लव यू’ तो मैंने आज तक कभी भूले से भी अपनी माशूका…याने के अपनी हीरो होंडा की लाल स्पलैंडर बाईक को नहीं बोला तो बीवी को भला कैसे और किस मुंह से बोल डालता?”…

?…?..?..?

“अरे!…भाई…मैंने तो उसे बड़े ही प्यार से बस इतना भर कहा कि….

"चल!…आज ही करा देता हूं तेरा पोस्टमॉर्टम…ना रहेगा बाँस और ना ही बजेगी बाँसुरी”….

ले गया उसे सीधा ' नत्थू'  पन्चर वाले की दुकान पर।अरे!..बाबा…नाम है उसका ढीला-ढाला…' नत्थू' पन्चर वाला.. . कभी लगाया करता था पन्चर-शन्चर | पर अब तो डॉक्टर है डॉक्टर…पता नहीं कब उसे ये पढाई का नामुराद रोग लग गया और कब वो डॉक्टर बन गया?  वैसे भी कई दिनों से दिली तमन्ना थी कि…चार दिन की जिन्दगानी है…जीवन बहते दरिया का पानी है…एक बार मिल तो आऊँ कम से कम…पुराना यार जो है। पहुंचकर देखा तो बाहर लंबी लाइन लगी हुई थी…टोकन बांटे जा रहे थे कि अब इसका नंबर तो अब इसका।

रिसेपशनिस्ट बड़ी ही पटाखा रखी थी पट्ठे ने।अरे!…पटाखा क्या?... पूरी फुलझड़ी थी फुलझड़ी। मुझे तो अफसोस होने लगा था कि… “आखिर!…इतने दिन तक  झख  क्यों मारता रहा मैं?…मिलने क्यों नहीं आया?...मति मारी गई थी मेरी”…

अन्दर पहुंचा ही था कि नर्स को देख दिल झूम- झूम गाने लगा...  “क्या अदा , क्या जलवे तेरे पारो?... हो पारो”...

nurse
पट्ठा पता नहीं कहां से ये धांसू आईटम छाँट लाया था?…डॉक्टर लंगोटिया यार था अपना…पता चलते ही तुरंत सीधा अन्दर ही बुलवा लिया। हाय-हैलो के बाद बीवी की तकलीफ बताई तो उसने किसी दूसरे डॉक्टर का नाम सुझा दिया। मैं चौंका कि…

“यार!…तुम तो खुद ही इतने बड़े डॉक्टर हो... फिर किसी और के पास भेजने की भला क्या तुक है?"… 

“समझा कर यार!…घर का मामला है... सो…क्वॉलिफाइड ही ठीक है”…

कुछ देर बाद आने की कह मैंने बीवी को वापिस रिक्शा से घर भेज दिया

“हाँ!…अब बताओ कि  चक्कर क्या है आखिर?”…

“अब यार!…तुमसे क्या छिपाना?…तुम तो अपने लंगोटिया यार हो। जानते तो हो ही कि मैं पहले पन्चर लगाया करता था”…

“तो फिर इस डॉक्टरी जैसी कुत्ती लाइन में कैसे आ गए?”मैं बीच में ही बोल पड़ा
“हाँ!…यार बात तो तू बिलकुल सही कह रहा है…दरअसल हुआ क्या कि….तुम तो जानते ही हो कि अपने को माधुरी दीक्षित कितनी पसंद है?”…

“तो?”…

“बस!…वही ले आई मुझे इस डॉक्टरी के धन्धे में”…

“माधुरी दीक्षित ले आई?”…

“हाँ!…

“मैं कुछ समझा नहीं…ज़रा तफ्तीश से समझाओ”…

“बता रहा हूं बाबा….पहले ज़रा सब्र तो रख…सुबह- सुबह आए हो…पहले कुछ खा- पी तो लो”…

“शम्भू!….ज़रा चाय- नाश्ता तो लाना”… डाक्टर साहब कंपाउंडर को हुकुम देते हुए बोले …

“हाँ!…तो दरअसल हुआ क्या कि एक दिन C.D प्लेयर  किराए पर लिया और पूरी रात सिर्फ और सिर्फ माधुरी की ही फिल्में देखता रहा”…

“अच्छा…फिर?”…

“बस!…जैसे नशा सा छा गया हो…जहाँ भी देखूँ…वहाँ बस वो और मैँ... दूजा कोई नहीं”…

“धक- धक करने लगा... ओ मोरा जियरा डरने लगा”… 

“अगले दिन नींद पूरी ना होने की वजह से सर कुछ भारी-भारी सा था…ऊपर से  नासपीटे  मालिक का बुलावा आ गया ड्यूटी बजाने के लिए”…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”…

“माधुरी का जलवा ही ऐसा था कि मुझे कुछ सूझे नहीं सूझ रहा था…आँखो के आगे से उसकी ..लचकती...बल खाती..नाज़ुक सी कमर हटने का नाम ही नहीं ले रही थी”…

“ओ.के..

“टायर में हवा भरते- भरते होश ही नहीं रहा कि कितनी हवा भरनी है और कितनी नहीं?”….

“ओह!…फिर क्या हुआ?”..

“होना क्या था?…अचानक से धढ़ाम की आवाज़ आई और  ट्यूब…चारों खाने चित्त”…

“ओह!…

“राम नाम सत्य हो चुका था ट्यूब का…खूब सुनाई मालिक ने लेकिन मैने भी टका सा जवाब दे दिया कि...

“सम्भालो!…अपनी धर्मशाला… नहीं बजानी है तुम्हारी नौकरी”…

“ओह!…

“मेरी हिम्मत देख दिल ही दिल में माधुरी ने पीठ ठोंक डाली कि...

“शाबाश!…ये की ना मर्दों वाली बात….असली जवां मर्द हो तुम तो"…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…मैने अपना झुल्ली- बिस्तरा उठाया और जा पहुंचा सीधा डॉक्टर साहब के यहां”…

“किसलिए?”…

“घुय्यियाँ छीलने"…

“क्या मतलब?”…

“अरे!…यार कई बार वहाँ से बुलावा जो आ चुका था लेकिन मेरा मन ही नहीं करता था नौकरी छोड़ने को"..

“वो किसलिए?”..

“मालिक की बेटी की शक्ल कुछ- कुछ माधुरी से मिलती जो थी…सो…टिका रहा वहीं”…

“हम्म!…लेकिन फिर अचानक जमी-जमाई नौकरी को लात क्यों मार दी?”…

“पट्ठे ने अपनी बेटी जो ब्याह दी उस गंगू तेली के साथ…तो अब वहां रुक कर भला मैं कौन सा कद्दू पाड़ता?…सो…छोड जाना ही बेहतर लगा”…

“हम्म!…तो क्या डॉक्टर साहब के यहां भी पन्चर वगैरा ही लगाते थे?”…

“बावला तो नहीं है कहीं तू?…या फिर तैन्ने भांग चढा रखी है?”…

?…?…?…?

injection

“अरे!…यार….इंजेक्शन ठोकता था इंजेक्शन”…

“लेकिन ये सब तुम्हें आता ही कहाँ था?”…

“कोई पेट से ही थोड़े ये सब सीख के आया जाता?…यहीं… इसी दुनिया में रहकर सीखा जाता है सब का सब”…

“फिर भी….?" मेरे चेहरे पे असमंजस का भाव था

“अरे!…यार….सीधी सी बात है….पहले टायर में से कील उखाड़ता था….अब बदन मे कील घुसेड़ता हूँ…वैरी सिम्पल”…

“ओह!…

“शुरू- शुरू में तो बावला समझ के डाक्टर ने मुझे पर्ची काटने पे बिठा दिया था”…

“हम्म!…

“कई बार तो ये भी लगा कि…ये कहाँ आ के फँस गया मैं?…लेकिन वो कहते हैं ना कि…सब्र का फल मीठा होता है”…

“जी!….

“तो बस…इसी सोच पे टिका रहा मैं कि किसी ना किसी दिन तो अपनी भी किस्मत जागेगी ज़रूर"…

“गुड!…

“जल्द ही खुशी का सुनहर मौक़ा आ पहुंचा और अपनी फूटी किस्मत जाग उठी"..

“ओह!…हुआ क्या था?”…

“दरअसल!…हुआ क्या कि एक दिन कंपाउडर छुट्टी मार गया"....

“तो?”…

“उसका छुट्टी मारना था और मेरी किस्मत का बन्द दरवाज़ा खुलना था”…

“वो कैसे?”…

“डाक्टर साहब ने उसकी जगह मुझे ड्यूटी पर लगा दिया"…

“फिर क्या हुआ?”..

“पट्टी- वट्टी करना तो मैं जान ही चुका था अब तक…बस…डाक्टर साहब की सेवा करता गया और धीरे- धीरे सारे दाव- पेंच सीखता गया कि ... किस मर्ज़ के लिये कौन से ‘गोली’  थमानी है और किस मर्ज़ के लिये कौन सी?”…

“हम्म!…

“कस्बाई इलाके में हमारा क्लिनिक होने की वजह से ज़्यादातर अनपढ-गंवार लोग ही आते थे यहाँ…इसलिए कोई खास दिक्कत पेश नहीं आती थी हमें अपने मरीजों के साथ टैकल करने में"…

“ओ.के!..लेकिन आपके डाक्टर साहब तो काफी तजुर्बेकार रहे होंगे …उन्हें भला मरीजों को टैकल करने में कैसी परेशानी हो सकती थी?”..

“अरे!…नहीं…कुछ खास पढ़े-लिखे नहीं थे वो…बस ले-दे के मैट्रिक पास ही समझ लो”…

“ओह!…तो फिर कैसे….

“ये तो हमें भी समझ नहीं आता था कि…कैसे?….अन्दर की बात तो ये कि  उन्हें कुछ खास आता- जाता भी नहीं था”..

“ओह!…तो  फिर इलाज वगैरा कैसे करते थे?"…

“अरे!…यार एक- दो पुरानी किताबें छांट लाए थे कहीं रद्दी से…उन्हीं से पढ कर अलग- अलग तजुर्बे करते फिरते थे मरीज़ों पे जैसे कि 
कभी किसी को 'यूनानी' दवा थमा दी तो कभी किसी को 'आयुर्वेदिक'...कभी किसी को 'एलोपेथिक’……कभी-कभी तो 'होमियोपेथिक ' के भी गुण गाने लगते थे”…

“हम्म!…

“कई बार तो कमरा बन्द कर के पता नहीं क्या-क्या पीसते रहते थे?"…

“ओह!..

“कई बार तो उनके हाथ ताज़े गोबर से भी सने देखे थे मैने”…

“ओह!…

“एक बार तो मेरी हँसी ही छूट गयी थी जब मैने देखा कि डाक्टर साहब एक गाय के पीछे लौटा  लिये-लिए कुछ इस अंदाज़ में डोल रहे थे मानो कह रहे हों कि… ”निकाल!…निकाल…खिलाए गए चारे के बदले कुछ तो निकाल"…

“ओह!…

“अब ये तो ऊपरवाला जाने कि किस घड़ी…किस पल का इंतज़ार था उन्हें?”…

“कहीं गोमूत्र….

“भगवान जाने…जब हाथ में लौटा लिये बैरंग वापिस लौटे तो पूरा का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था उनका….सारा बदन कीचड़ से सना हुआ और कपडे फटेहाल”…

“ओह!…

“मेरी तो ये सोच के ही भीतर तक की रूह कांप उठी थी कि पता नहीं उस नामुराद गाय ने उन्हें कहाँ-कहाँ से और किस-किस तरह से चाटा होगा?…या फिर कहाँ-कहाँ अपने तीखे….नुकीले सींग घुसेड़े होंगे?”…

“ओह!…

“मरीज़ का चौखटा देख अलग- अलग तजुर्बे करते रहते थे कि इस पर ' यूनानी' फिट बैठेगी और इस पर आयुर्वेदिक”…

“हम्म!…

“ये तो शुक्र था ऊपरवाले का कि उनका वास्ता सिर्फ अनपढ-गवारों से ही पड़ता था…जो कोई भी मरियल सा आता…सीधा उसे पानी चढाने की बात कह स्ट्रेचर पे लिटा डालते"…

“ओह!… 

“वो बेचारा गरीब मानुस..जल्दी ठीक होने की आस में हामी भर देता…उस बेचारे को क्या मालूम कि दाम तो लिए जा रहे हैं 'ग्लूकोज़' के…और चढाया जा रहा है  निरा पानी”…

“निरा पानी?”…मैं चौंका 

“और नहीं तो क्या?”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“यही तो असली कमाई का फंडा है गुरु …क्योंकि इसमें ना हींग लगती है और ना ही फिटकरी और रंग तो चोखा चढ़ता ही है"…

“अरे!…यार…तुमको इस सब की खबर कैसे हो गई?…क्या डाक्टर साहब खुद ही इतना मेहरबान हो गये कि सारे भेद खुद -बा-खुद ही बताते चले गए?”…

“अरे!…उस डाक्टर के बच्चे का बस चलता तो वो तो इस सबकी मुझे हवा तक भी ना लगने देता”…

“तो फिर?”…

“अरे!…यार…सीधी सी बात है….मैँ अपने आंख-कान…नाक सब खुले रखता था”…

“ये आँख और कान को खुला रखना तो मैं समझ गया लेकिन ये नाक को खुला रख के तुम क्या उसकी…..

“अरे!…नहीं रे….कई दवाइयों को…जिनके नाम मैं रट नहीं पाता था…तो उन्हें सूंघ के पहचान लेता था"…

“ओह!…

“खुद को अनपढ बता खूब फुद्दू खींचा मैंने डाक्टर का…पट्ठा सोचता था कि ये अंगूठाछाप भला उसका क्या उखाड़ लेगा?”…

“हम्म!…

“वो मेरी तरफ से बेपरवाह बना रहा और मैं अन्दर ही अन्दर उसकी ही कब्र खोदता चला गया”…

“ओह!….

“आहिस्ता- आहिस्ता सब दवाईयो के नाम जबानी रट लिए थे मैने”…

“गुड!…वैरी गुड"…

“बस!…एक बात ही समझ नहीं आ रही थी कि ये डाक्टर का बच्चा एक ही बीमारी के लिये कभी ‘लाल’  गोली पकड़ाता है तो कभी ‘हरी’…कभी ‘पीली’…तो कभी ‘नारंगी'….मतलब ये कि…बीमारी कोई भी हो लेकिन दवा एक ही”…

“ओह!…

“ये चक्कर मुझे घनचक्कर किए जा रहा था लेकिन मैंने भी हार नहीं मानी"…

“गुड!…

“सीधी ऊँगली से घी निकालता ना देख मैंने भी अक्ल के घोडे दौडाए और जान लिया सब राज़…दूध का दूध और पानी का पानी कर डाला”…

“गुड!…

“स्साला!…डाक्टर बड़ा ही छुपा रुस्तम निकला…सारी की सारी गोलियों के रंग अलग- अलग लेकिन माल एक”… 

“माल एक?”मैने हैरानी से पूछा… 

“हाँ!…सब की सब गोलियों में खालिस मिट्टी थी….चाक मिट्टी" …

“ओह!…तो फिर डाक्टर साहब इलाज वगैरा कैसे करते थे?"…

“अरे!…काहे का डाक्टर?" दोस्त को अब तक ताव आ चुका था 

“पहले हलवाई था…स्साला…हलवाई"…

“हलवाई?" मुझे तो जैसे विश्वास ही ना हुआ

“हाँ!…भाई…हलवाई….एक बार गलती से किसी को खराब मिठाई खिला दी और वो बन्दा गया लुढक”…

“ओह!…

“कोर्ट- कचहरी का चक्कर पड़ा तो पट्ठे ने ले- दे के सरकारी डाक्टर से पूरी रिपोर्ट ही बदलवा दी….अच्छे खासे चढाने पड़े। बस!…तभी से यारी हो गयी उस डाक्टर से”…

“ओह!…तो इसका मतलब उसी से सीखा होगा ये सब”…

“और नहीं तो क्या?”…

“हम्म!…लेकिन इलाज सिर्फ मिट्टी से…..कैसे?”..

“अरे!…यार जो असली दवा देनी होती थी…उसका नाम पर्ची पे लिख के कह देता था कि… “बाज़ार से ले लो…जल्दी ठीक हो जाओगे"…

“ओह!…

“उसी से बन्दा ठीक हो जाता और सोचता कि डाक्टर साहब के हाथ में तो 'जादू' है….'शफा' है”….

“हम्म!…तो आजकल आपके ये डाक्टर साहब हैं कहां?”…

“अरे!…अब तो वो बहुत बड़े आदमी बन गए हैं….कई-कई तो फैक्ट्रियां है दवाईयों की”…

“अरे!…वाह…फिर तो बड़ी तरक्की कर ली उन्होने”… 

“अजी!…काहे की तरक्की?…ये तो भला हो उस पुलिस वाले का जिसने इन्हें जेल पहुँचाया था”…

“भला हो जेल पहुंचाने वाले का?” मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था 

“और नहीं तो क्या?…आया तो वो था डाक्टर साहब को जेल की हवा खिलाने…'नकली डिग्री' और 'नकली सर्टीफिकेट' के चक्कर में लेकिन अपने डाक्टर साहब भी कुछ कम नहीं थे…ऐसी चक्करघिन्नी घुमाई पट्ठे की कि एक ही वार में चारों खाने चित्त"…

“ओह!…हुआ क्या था?”…

“आफर ही ऐसा तगड़ा दे दिया डाक्टर साहब ने पट्ठे को कि अपनी सारी सुध-बुध भूल बस…उनके पीछे अपनी दुम हिलाता हुआ ..हाँ जी…हाँ जी की रट लगाने लगा"…

“ओह!…तो क्या डाक्टर साहब ने उसे….

“हाँ!…पचास टके का पार्टनर बना लिया उसे डाक्टर साहब ने अपनी दवाई वाली फैक्ट्री में”…

“लेकिन ऐसे …कैसे …किसी अनजान आदमी को अपनी फैक्ट्री में…पचास टके का पार्टनर?…

“अरे!…इतना हक तो उस भलेमानस का बनता ही था"…

“क्या मतलब?”..

“दरअसल…हुआ क्या कि नकली डिग्री सर्टीफिकेट के चक्कर में वॉरंट तो इशू हो ही चुके थे अपने डाक्टर साहब के…इसलिए जेल तो जाना ही पड़ा लेकिन उस पुलिस वाले ने वहाँ भी अपनी ऐसी सैटिंग बिछा रखी थी कि डाक्टर साहब को कोई कष्ट नहीं होने दिया”…

“ओह!…

“बाकी…केस को कमज़ोर करने का काम तो पहले ही कर चुका था अपनी रिपोर्ट के जरिये”… 

“हम्म!…

“जेल के तीन महीने ऐसे हँसी-खुशी से बीते कि डाक्टर साहब का वज़न पूरे आठ किलो बढ़ गया"…

“ओह!…

“अब तो खूब छन रही है दोनों में…मानों मानो एक ही लंगोट में खेला- कूदा करते थे बचपन से"…

“हम्म!…

“ठाठ से जी रहे हैं दोनों”…

“तो क्या ये सर्टिफिकेट वगैरा भी नकली तैयार हो जाते हैं?”…

“अरे!…तुम कहो तो अभी के अभी ' न्यूरो सर्जन' की डिग्री थमा तुम्हारे हाथ में?”..

“अभी के अभी?”…

“हाँ!…अभी के अभी….आजकल सब ऑनलाइन जो होता है”…

“लेकिन पहले तो….

“पहले की छोडो….पहले तो होता था कि डिग्री लेनी है तो लाइन में लग ‘यू.पी-बिहार’ का टिकट कटवाओ…दो-चार दिन काले करो…तब कहीं जा के बड़ी मुशकिल से सर्टिफिकेट हाथ लगता था और कहीं गलती से कोई मिस्टेक वगैरा हो गयी तो फिर नये सिरे से खर्चा करो और समझो कि पूरा हफ्ता गया काम से”…

“और अब?”…

“अभी कहा ना कि सब कुछ ऑनलाइन होता है…बस…नाम…पता…उम्र…फोटू वगैरा बदलो और तुरंत ही डिग्री हाथ में….’मुन्ना भाई’ नहीं देखी है क्या?” दोस्त हंसते हुए बोला
हा…हा…हा….

मै भी खिलखिला के हँस दिया

“तो डाक्टर साहब!…कब आऊँ मैं भी कंपाउंडरी करने?”… 

हा... हा... हा.... हा ..हम दोनों की संयुक्त हँसी 

“अभी तो यार…..बहुत सी बातें हैं तुमसे कहने-सुनने के लिए लेकिन क्या करूं?…मजबूरी है….पापी पेट का सवाल जो ठहरा…रोज़ी-रोटी का ख्याल तो करना ही पड़ेगा…बाहर मरीज़ों की लाइन लम्बी होती जा रही है”….

“हाँ-हाँ!…क्यों नहीं…मैं फिर कभी फुर्सत निकाल के आ जाऊंगा"…

“और हाँ!…संयोग से मेरी रिसेपशनिस्ट का नाम भी ‘रोजी’ ही है और वो रोटी भी बहुत बढ़िया बनाती है"…

“हा…हा…हा…. फिर तो जल्दी ही आना पड़ेगा"…

“हाँ-हाँ…क्यों नहीं?”…

मैं फिर आने की कह वापिस चला आया…अभी तो बहुत कुछ पूछना- सुनना बाकी था। भरपूर दावत के साथ-साथ नर्स को जी भर के ताड़ने का मौका भला कौन गंवाना चाहेगा?”…

***राजीव तनेजा***

http://hansteraho.blogspot.com

rajivtaneja2004@gmail.com

+919810821361

+919213766753

+919136159706

14 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

नीम हकीम खतरे जान,
बड़े डाक्टर फ़िकी दुकान
गए थे बीबी ठीक कराने
नर्स में फ़ंस गयी जान

जय हो

Anonymous said...

मतलब, अब अपने को रोज़ी-रोटी की टेन्शन नहीं :-)

शिवम् मिश्रा said...

अल्लाह बचाए ऐसे डाक्टर से !

राज भाटिय़ा said...

वाह जी वाह आप ने तो खुब खोली पट्टी इन डा० साहब की, वेसे बहुत सारे मिलते है जिन्हे ""आर एम पी"" कहते है ओर पता नही कोन कोन सी डिगरियां अपने नाम के आगे लगा रखी होती है.
बहुत अच्छा लगा.
धन्यवाद

Udan Tashtari said...

धन्य हुए...आप डॉक्टर हो लिए. मरीजों के लिए मेरी सहानुभूति और संवेदनाएँ बहुत दूर तक जाती हैं.

डॉ टी एस दराल said...

तनेजा जी , आज पहली बार आपका लेख पढने की हिम्मत की । अरे भाई इतना लम्बा लिखते हो कि इतनी देर में तो एम् बी बी एस पास कर लें ।
लेकिन टॉपिक देखकर सब छोड़ छाड़ कर आज आप को ही पढ़ा ।
आपने तो पोल खोल कर रख दी यार दोस्तों की ।

हा हा हा ! बहुत बढ़िया भाई , एकदम झकास ।

Mithilesh dubey said...

हा हा हा ! बहुत बढ़िया भाई , एकदम झकास ।

SomeOne said...

मुन्ना भाई को भी फेल कर दिया इस पेंचेर वाले और इसके डॉक्टर साहब ने तो !
वाकई कमाल का लेख है , पड़ते वक़्त बहुत मज़ा आया !

अन्तर सोहिल said...

तो अब रोजी रोटी के लिये डॉक्टरी करेंगें। बढिया है
शुभकामनायें, जल्द ही आपकी दो-तीन फैक्टरियां हों, दवाओं की :)

बेहतरीन व्यंग्य

प्रणाम स्वीकार करें

Khushdeep Sehgal said...

पति...घर की दाल रोज़ रोज़ खा कर आदमी भी बोर हो जाता है...
पत्नी...तो फिर...
पति...फिर क्या, आखिर कभी तो स्वाद बदलने का दिल करता है...
पत्नी...और अगर मैंने भी स्वाद बदलना शुरू कर दिया तो...

जय हिंद...

डॉ महेश सिन्हा said...

बढ़िया है
मूल प्रश्न यही है किसने बनाया इनको

Unknown said...

sundar
ati sundar
aare rojee nahee
us par to ham ab aa jame hai
rotee ke liye rojee par
sundar hai ye jhola doctor puraan
galee galee mai RMP mil jaayenege bhaiye.
RMP kee kamee nahee is duniyaa mai
ek dhoodho hazaar milte hai.

hamaare yahaa bhee ek taange wala turned doctor tha lekin uske bachche vaakai padhe lihe doctor hain.

कडुवासच said...

... bahut sundar !!!

परमजीत सिहँ बाली said...

बेहतरीन व्यंग्य!

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz