"एक...दो...तीन....बारह...पंद्रह...सोलह...
"ओफ्फो!…कितनी देर से आवाज़े लगा लगा के थक गई हूँ लेकिन जनाब हैँ कि अपनी ही धुन में मग्न पता नहीं क्या गिनती गिने चले जा रहे हैँ”बीवी अपने माथे पे हाथ मारती हुई बोली…
“कहीं मुँशी से हिसाब वगैरा लेने में तो कोई गलती नहीं लग गयी?"...
"न्न..नहीं तो"मैं हड़बड़ाता हुआ बोला ..
"तो फिर ये उँगलियों के पोरों पर क्या गिना जा रहा है?"...
"क्क..कुछ भी तो नहीं"…
“इतनी पागल तो मैं हूँ नहीं जितनी तुम समझ रहे हो” बीवी कमर पे हाथ रख गुस्से से मेरी तरफ देखती हुई बोली…
“म्म..मैं तो बस..ऐसे ही टाईमपास…
"हुँह!..सब बेफाल्तू के काम तुम्हें ही आते हैँ…कुछ और नहीं सूझा तो लगे गिनती गिनने"....
अब बीवी को कैसे बताता कि मैँ अपनी एक्स माशूकाओं की गिनती करने में बिज़ी था कि कहीं कोई गलती से मिस तो नहीं हो रही? सो!...चुपचाप उसकी सुनने के अलावा और कोई चारा भी कहाँ था मेरे पास?
"अरे!..गिनती गिनने के बजाय अगर ढंग से पहाड़े रट लो तो चुन्नू की ट्यूशन के पैसे तो बचें कम से कम लेकिन जनाब को इन मुय्यी …बेफाल्तू की कहानियों को लिखने-लिखाने से फुरसत मिले तब ना...क्लास टीचर ने तो साफ कह दिया है इस बार कि…. “अगर फाईनल टर्म में अच्छे नंबर नहीं आए तो अगली क्लास में बच्चे को चढाना मुश्किल हो जाएगा”....
“हम्म!…
"पता भी है कि वो शारदा की बच्ची अपनी चम्पा को बरगला के वापिस झारखंड ले गयी है"...
"क्क…कौन शारदा?"लड़की का नाम सुनते ही मैं चौंक उठा...
"अरे!..वही..प्लेसमैंट एजेंसी वाली कलमुँही...और कौन?..अब ये मत पूछ बैठना कि कौन चम्पा?"...
"हाँ!...कौन चम्पा?"मैँ अपने दिमाग पे जोर डाल कुछ सोचता हुआ बोला...
"अरे!...अपनी कामवाली बाई ‘चम्पा’ को भी नहीं जानते?…पता नहीं किन ख्यालों में खोए रहते हो कि ना दीन की खबर ना ही दुनिया का कोई फिक्र"..
"क्या उसका नाम ‘चम्पा’ था?”..
“तुम्हें नहीं पता?”…
“अब..कभी ठीक से मेरा इंट्रोडक्शन करवाया हो उससे…तभी तो पता चले"…
“ठीक से…मतलब कैसे?”…
“कैसे मतलब?…जैसे करवाया जाता है…वैसे…अपना हैंड शेक कर के…गले मिल के..मीठे पान की गिलौरी खिला के"…
“हाँ!…बस यही एक कसर बाकी रह गई थी…ये भी पूरी कर दी होती तो मेरा तो बेड़ा ही पार था समझो"…
“हा…हा…हा…बहुत मजाक हो गया…अब कुछ सीरियस बात हो जाए?"मैं गंभीर मुद्रा बनाता हुआ बोला .
“हाँ!…ज़रूर"…
“क्या हुआ उसको?"...
"रोज़ ही तो फोन आ रहा था उस ‘शारदा’ की बच्ची का कि...साल पूरा हो गया है...नया एग्रीमैंट बनेगा और इस बार चम्पा को अपने साथ गाँव ले के जाऊँगी"...
"तो इसमें गलत क्या है?…तसल्ली करवानी होती है इन्हें इनके माँ-बाप को कि…
“देख लो...ठीकठाक भली चंगी है”… तभी तो इनकी कमाई होती है और नई मछलियाँ फँसती हैँ इनके जाल में"..
"तो एक महीने बाद नहीं करवा सकती थी तसल्ली?...लाख समझाया कि अगले महीने माँ जी की आँख का आप्रेशन होना है…कम से कम तब तक के लिए तो रहने दे इसे लेकिन पट्ठी ऐसी अड़ियल निकली कि लाख मनाने पर भी टस से मस ना हुई…ले जा के ही मानी"...
"तो क्या डाक्टर ने कहा था कि ‘चम्पा’ की डाईरैक्ट फोन पे बात करवा दो ‘शारदा’ से?"....
"और क्या करती?…बार-बार फोन कर कर के मेरा सिर जो खाए जा रही थी कि…. ‘बात करवा दो...बात करवा दो’...पता नहीं अब कैसे मैनेज होगा सब?"...
"क्यों?...क्या दिक्कत है?"...
"दिक्कत?…एक हो तो बताऊँ...एक-एक दिन में दस-दस तो रिश्तेदार आते हैँ तुम्हारे यहाँ"..
"तो?"...
"कभी इसके लिए चाय बनाओ तो कभी उसके लिए शरबत घोलो...इनसे किसी तरह निबटूँ तो पिताजी भी बिना सोचे समझे गरमागरम पकोड़ों की फरमाईश कर डालते हैँ"...
"अरे!…यार..बचपन से शौक है उन्हें पकोड़ों का"...
"तो मैँ कहाँ मना करती हूँ कि शौक पूरे ना करें?...कितनी बार कह चुकी हूँ कि 'माईक्रोवेव' ला दो...'माईक्रोवेव' ला दो लेकिन ना आप पर और ना ही पिताजी पर कोई असर होता है मेरी बातों का"...
"क्या करना है माईक्रोवेव का?"...
"पता भी है कि एक मिनट में ही सारी चीज़ें गर्म हो जाती हैँ उसमें"...
"तो?"...
"अपना...एक ही बार में किलो...दो किलो पकोड़े तल के धर दूँगी कि…बाद में आराम से गरम किए और परोस दिए"....
"सिर्फ पकोड़ों भर के लिए ही माईक्रोवेव चाहिए तुम्हें?"...
"नहीं!...अगर मेरी चलने दोगे तो एक बार में चाय की पूरी बाल्टी उबाल के रख दूँगी कि.... ‘लो!..आराम से सुड़को’ "...
“हम्म!..
"इन स्साले!...मुफ्तखोरों को ताश पीटने को यहीं जगह मिलती है"..
"तो?"...
"इतना भी नहीं होता किसी से कि कोई मेरी थोड़ी बहुत हैल्प ही कर दे…सारा काम मुझ अकेली को ही करना पड़ता है"...
"क्यों?...कल जो पिताजी आम काटने में तुम्हारी हैल्प कर रहे थे...वो क्या था?"...
"हाँ!..वो काट रहे थे और तुम बेशर्मों की तरह ढीठ बन…दूसरी तरफ मुँह कर के ‘कॉमेडी सर्कस' का आनंद लेते हुए बड़े आराम से दीददे फाड़ हँस रहे थे"...
"तो क्या मैँ भी उनकी तरह अपने हाथ लिबलिबे कर लेता?...फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन….ये वेल्ला शौक नहीं पाला है मैँने कि कोई काम-धाम ना हुआ तो बैठ गए पलाथी मार के जनानियों की तरह मटर छीलने"...
"तो इसमें कौन सी बुरी बात है?"...
"कह दिया ना!...अपने बस का रोग नहीं है ये"...
"हुँह!...बस का रोग नहीं है…मेरी शर्म नहीं है तो ना सही लेकिन पिताजी की ही थोड़ी मदद कर देते तो घिस नहीं जाना था तुमने"..
“अरे!……तुम तो ऐसे ही बेकार में छोटी सी बात का बतंगड़ बनाने पे तुली हो"...
"छोटी सी बात?….एक दिन चौके में गुज़ार के दिखा दो तो मानूँ...पसीने से लथपथ हो बुरा हाल ना हो जाए तो कहना"...
"वैसे!…बुरा ना मानों तो एक बात पूछूँ?”…
"पूछो"...
"ऐसी बेहूदी राय तुम्हें किस उल्लू के चरखे ने दी थी?"..
"तुमसे शादी करने की?"...
"नहीं"...
"फिर?"...
"यही शमशान घाट के नज़दीक प्लाट खरीद अपना आशियाना बनाने की"...
"तुम भी तो बड़ी राज़ी खुशी तैयार हो गयी थी कि…चलो शमशान घाट के बाजू में घर होने से अनचाहे मेहमानों से छुटकारा तो मिलेगा"...
"वोही तो...लेकिन यहाँ तो जिसे देखो मुँह उठाता है और सीधा हमारे घर चला आता है…जैसे घर...घर ना हुआ ...सराय हो गई... इस मुय्ये शमशान से तो अच्छा था कि तुम किसी गुरूद्वारे या मन्दिर के आसपास घर बनाते"...
"तो उससे क्या होता?"...
"सुबह शाम अपने इष्ट को मत्था टेक घंटियों की खनकार के बीच माला जपती और आए-गयों को प्रसाद में गुरू के लंगर छका फ़ोकट में ही खुश कर देती....कम से कम रोटियाँ का ये बड़ा ढेर बनाने से तो मुक्ति मिलती"बीवी हाथ फैला रोटियों के ढेर का साईज़ बताती हुई बोली
“हम्म!…
"तुम तो अपना मज़े से काम पे चले जाते हो...पीछे सारी मुसीबतें मेरे लिए छोड़ जाते हो"...
"तो क्या काम पे भी ना जाऊँ?"...
"ऐसा मैँने कब कहा?"...
"अरे!…मेरे सामने अगर कोई मेहमान आए तो मैँ कुछ ना कुछ कर के सिचुएशन को हैंडल भी कर लूँ लेकिन अब अगर कोई मेरी पीठ पीछे आ धमके तो इसमें मैँ क्या कर सकता हूँ?"...
"कर क्यों नहीं सकते?...साफ-साफ मना तो कर सकते हो अपने रिश्तेदारों को कि हमारे यहाँ ना आया करें"...
"क्या बच्चों जैसी बातें करती हो?…ऐसे भी भला किसी को मना किया जाता है?...ये तो अपने आप समझना चाहिए उन लोगों को"...
“साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि तुम में हिम्मत नहीं है?…अगर तुम्हारे बस का नहीं है तो मैँ बात करती हूँ"...
“पागल हो गई हो क्या?”..
“वाह!….शर्म तुम्हारे रिश्तेदारों को नहीं है और पागल मैं हो गई हूँ?"….
“तुम तो यार..ऐसे ही…
“पागल के बच्चे ना दिन देखते हैँ और ना ही रात...बाप का राज समझ के जब मन करता है...तब आ धमकते हैँ"मेरी बात से अनभिज्ञ बीवी अनचाहे मेहमानों को कोसती चली जा रही थी...
"अभी परसों की ही लो...तुम्हारे दूर के चचा जान आए तो थे अपने मोहल्ले के धोबी के दामाद की मौत पे लेकिन अपनी लाडली बहू को छोड़ गए मेरे छाती पे मूंग दलने"..
"अरे!..तबियत ठीक नहीं थी उसकी...अपने साथ ले जा के क्या करते?"..
"हुँह!...तबियत ठीक नहीं थी... अरे!…अगर तबियत ठीक नहीं थी तो डाक्टर ने नहीं कहा था कि यूँ बन-ठन के किसी के घर जा के डेरा जमाओ..सब ड्रामा है...ड्रामा…निरा ड्रामा"...
“ड्रामा?”मैं चौंकता हुआ बोला…
“हाँ!…ड्रामा…देखा नहीं था कि जब आई थी तो कैसे चुप-चुप......हाँ-हूँ के अलावा कोई और बोल-बचन ही नहीं फूट रहा था ज़बान से लेकिन ससुर के जाते ही पट्ठी चौड़ी हो के ऐसे पसर गई सोफे पे जैसे अपने बाप की बरात पे आई हो"…
“ओह!…
"उसके बाद तो ऐसी शुरू हुई कि बिना रुके लगातार बोलती चली गई...चबड़...चबड़...तब तक चुप नहीं हुई जब तक सामने ला के आधा दर्जन कचौड़ी और समोसे नहीं धर दिए...बड़ी फन्ने खाँ समझती है अपने आपको"..
"कह क्या रही थी?"...
"ये पूछो कि क्या नहीं कह रही थी?….कभी अपने सास-ससुर की चुगली...तो कभी ननद जेठानी को लेकर हाय तौबा"...
“ओह!…
"उनसे निबटी तो अपनी तबियत का रोना ले के बैठ गयी….
"हाय!..मेरा तो 'बी.पी' लो हो गया है..हाय!...मेरे घुटनों में दर्द रहने लगा है आजकल"...
"उफ!..मेरे सलोने चेहरे पे कहाँ से आ गया ये मुय्या पिम्पल?...देखो!...मेरे चेहरे पे कोई रिंकल तो नहीं दिखाई दे रहे ना?"बीवी उसी की नकल उतारती हुई बोली...
“ओह!…तो क्या सचमुच में….
"अरे!...दिखण...भाँवे ना दिखण...मैणूँ अम्ब लैँणा है?(दिखें ना दिखें...मुझे आम लेना है?…कल की बुड्ढी होती आज बुड्ढी हो जाए...मेरी बला से…मुझे क्या फर्क पड़ता है?"...
"हम्म!..फिर क्या हुआ?”मुझे भी उसकी बातों में रस आने लगा था
"उसके बाद जो मैडम जी ने जो अपनी तारीफें करनी शुरू की कि बस करती ही चली गई...कभी अपने सुन्दर सलोने चेहरे की तो कभी अपनी कमसिन फिगर की तारीफ"…
"और तुम चुपचाप सुनती रही?…मुंह तोड़ के क्यों नहीं हाथ में धर दिया?”…
"अरे!…मेरा बस चलता तो मैंने तो उसे कभी का….
“ये तो पिताजी की ही शर्म है जो मैंने उसे…बस..चने के झाड पे चढा के ही सन्तोष कर लिया”…
“ओह!…लेकिन कैसे?”मेरे स्वर में चिंता मिश्रित उत्सुकता थी
"मैँने बातों ही बातों में उससे कह दिया कि… ‘तुम्हारी शक्ल तो बिलकुल कैटरीना कैफ से मिलती है’...
"अरे!..वाह...क्या सच में?”..
"टट्टू”…
"तो फिर?"..
"अरे!..'कैटरीना' वो...जो अमेरिका में तूफान आया था"...
"ओह!...और 'कैफ'?"मैँ हँसता हुआ बोला...
"अपना शुद्ध एवं खालिस हिन्दुस्तानी क्रिकेटर 'मोहम्मद कैफ' ...और कौन"...
"हा...हा...हा"...
"इससे बड़ी ड्रामेबाज औरत तो मैँने अपनी ज़िन्दगी में आज तक नहीं देखी.. सीधी बात है कि काम ना करना पड़े किसी दूसरे के घर में...इसलिए..नौटंकी पे उतर आते हैँ लोग"..
"अरे!…यार..क्यों बेकार में नाहक परेशान होती हो?…शारदा कह तो गई है कि बीस दिन के अन्दर-अन्दर वापिस लौटा लाऊँगी"...
"क्यों झूठे सपने दिखा के मेरा दिल बहलाते हो?…इतिहास गवाह है कि हमारे घर का गया नौकर कभी वापिस लौट के नहीं आया"...
"हम्म!…ये बात तो है"…
“पूरे सवा ग्यारह रुपए की बूँदी चढाऊँगी शनिवार वाले दिन...बजरंगबली के पुराने मन्दिर में जो ये वापिस आ गई"बीवी अपने सर के पल्लू को ठीक करती हुई बोली…
"फॉर यूअर काईंड इंफार्मेशन ...शनिवार वाले दिन शनिदेव को प्रसन्न किया जाता है ...ना कि बजरंगबली को"मैँ टोकता हुआ बोला...
"सत वचन..लेकिन जो एक बार बोल दिया...सो...बोल दिया…अगली बार जब नौकरानी भागेगी तब मंगलवार के दिन शनिदेव को प्रसाद चढा…खुश कर देंगे...सिम्पल"...
"सही है!...अभी आयी नहीं है और तुम फिर से उसे भगाने के बारे में पहले सोचने लगी...इसे कहते हैँ एडवांस्ड प्लैनिंग...लगी रहो"मैं ताना मारता हुआ बोला...
"मुझे तो डाउट हो रहा है..कि कोई झारखंड-वारखंड नहीं ले के गई होगी उसे…ज़्यादा पैसों के लालच में यहीं दिल्ली में ही किसी और कोठी में लगवा दिया होगा काम पे…कोई भरोसा नहीं इनका"...
“हम्म!…होने को तो कुछ भी हो सकता है…खैर…छोड़ो उसे..अच्छा हुआ जो अपने आप चली गई…वैसे भी अपने काबू से बाहर निकलती जा रही थी आजकल"...
"हाँ!...ज़बान भी कुछ ज़्यादा ही टर्र-टर्र करने लगी थी उसकी...एक-एक काम के लिए कई-कई बार आवाज़ लगानी पड़ती थी उसे...जब आयी थी तो इतनी भोली कि बिजली का स्विच तक ऑन करना नहीं आता था उसे और अब…अब तो टीवी के रिमोर्ट के साथ छेड़खानी करना तो आम बात हो गई थी उसके लिए"...
"याद है मुझे कि कैसे तुमने दिन रात एक कर के रोज़मर्रा के सारे काम सिखाए थे उसे और अब जब अच्छी खासी ट्रेंड हो गयी तो ये शारदा की बच्ची ले उड़ी उसे"...
"यही काम है इन प्लेसमैंट ऐजैंसियों का...अनट्रेंड को हम जैसों के यहाँ भेज के ट्रेंड करवाती हैँ और फिर दूसरी जगह भेज के मोटे पैसे कमाती हैँ"...
"मेरा कहा मानो तो बीति ताहिं बिसार के आगे की सोचो"...
"मतलब?"...
"भूल जाओ उसे और देख भाल के किसी अच्छी वाली को रख लो"..
"हाँ!..रख लूँ...जैसे धड़ाधड़ टपक रही हैँ ना आसमान से स्नो फॉल के माफिक…पता भी है कि कितनी शॉर्टेज चल रही है आजकल?….प्लेसमैंट वाले पन्द्रह-पन्द्रह हज़ार तक कमीशन मांगने लग गए हैं एक साल की”…
“ओह!…
"और जब से ये मुय्या 'आई.पी.एल' का रोना शुरू हुआ है हमारे यहाँ...काम वाली बाईयों का तो जैसे अकाल पड़ गया है"...
"वो कैसे?"..
"कुछ तो बढती मँहगाई के चलते दिल्ली छोड़ होलम्बी कलाँ और राठधना जा के बस गई हैँ आजकल और कुछ ने गर्मियों के इस सीज़न में अपने दाम दुगने से तिगुने तक बढा दिए हैँ"...
“ओह!…
"और ऊपर से नखरे देखो इन साहबज़ादियों के कि सुबह के बर्तन मंजवाने के लिए दोपहर दो-दो बजे तक इनका रस्ता तकना पड़ता है"...
“हम्म!…
"इनके आने की आस में ना काम करते बनता है और ना ही खाली बैठे रहा जाता है…ऊपर से बिना बताए कब छुट्टी मार जाएँ...कुछ पता नहीं"...
"लेकिन…इस सब से 'आई.पी.एल' का क्या कनैक्शन?"मेरी समझ में बात नहीं आ रही थी...
"अरे!...ऊपर वाली दोनों तरह की कैटेगरी से बचने वाली छम्मक छल्लो टाईप बाईयों ने अपने ऊपरी खर्चे निकालने के चक्कर में पार्ट टाईम में 'चीयर लीडर' का धन्धा चालू कर दिया है"...
"चीयर लीडर माने?"...
"अरे!…वही...जो 'आई.पी.एल' के ट्वैंटी-ट्वैंटी मैचों में छोटे-छोटे कपड़ों में हर चौके या छक्के पर उछल-उछल कर फुदक रही होती हैँ"...
"ओह!..तो क्या ये भी छोटे-छोटे कपड़ों में?….और इनको इतने बड़े मैचों में परफार्म करने का चाँस कैसे मिल गया?"मेरी खुशी भरी उत्सुकता छुपाए ना छुप रही थी...
"अरे!...वहाँ नहीं"...
"तो फिर…कहाँ?"...
"इंटर मोहल्ला ट्वैंटी-ट्वैंटी क्रिकेट मैचों में साड़ी पहन के ही ठुमके लगा रही हैँ"...
“ओह!…
"बिलकुल ‘आई.पी.एल’ की तर्ज पे मैच खेले जा रहे हैँ"...
"लेकिन…'आई.पी.एल' में तो पैसे का बोलबाला है...बड़े-बड़े सैलीब्रिटीज़ ने खरीदा है टीमों को"...
"तो क्या हुआ?…अपने यहाँ की टीमों को भी कोई ना कोई स्पाँसर कर रहा है"...
"जैसे?”…
"जैसे बगल वाले मोहल्ले की टीम को ‘घासी राम’ हलवाई स्पाँसर कर रहा है और...अपने मोहल्ले की टीम को तो ‘छुन्नामल’ ज्वैलर स्पाँसर कर रहा है"...
“ओह!…
"घासी राम तो अपनी टीम को चाय-समोसे फ्री में खिला-पिला रहा है"...
"तो क्या ‘छुन्नामल’ भी अपनी ज्वैलरी फ्री बाँट रहा है?"मैं हँसता हुआ बोला...
"उसे क्या अपना दिवालिया निकालना है जो ऐसी गलती करेगा?…पूरे इलाके का माना हुआ खुर्राट बिज़नस मैन है वो…उसके बारे में तो मशहूर है कि अच्छी तरह से ठोक बजा के जाँचने परखने के बाद ही वो अपने खीस्से के नट-बोल्ट ढीले करता है" …
"तो?"...
"क्रिकेट ग्राऊँड में अपने शोरूम के बैनर लगाने और मोहल्ले की दिवारों पर पोस्टर लगाने की एवज में अपनी क्वालिस दे दी है लड़कों को घूमने फिरने के लिए विद शर्त ऑफ पच्चीस से तीस किलोमीटर पर डे"...
"लेकिन कल ही तो मैँने अपने मोहल्ले के लौंडे लपाड़ों को टूटी-फूटी साईकिलों पे इधर-उधर हाँडते(घूमते) देखा था"...
"वोही तो...घाटा तो उसे बिलकुल भी बरदाश्त नहीं है"...
"किसे?"...
"अरे!...अपने छुन्नामल को...और किसे?...जहाँ अपनी टीम ने पहले मैच में ठीक से परफार्म नहीं किया...उसने फटाक से अल्टीमेटम दे दिया"...
“ओह!..
"दूसरे मैच में भी कुछ खास नहीं कर पाने पर उसने अपने यहाँ के कैप्टन को अच्छी खासी झाड़ पिला अपनी क्वालिस वापिस मँगवा ली"...
“ओह!… तो क्या बस दो ही टीमें भाग ले रही हैँ तुम्हारे इस देसी 'आई.पी.एल' में?"...
"दो नहीं…तीन...तीन टीमें भाग ले रही हैँ"...
“तीसरी टीम को कौन स्पाँसर कर रहा है?"...
"तीसरी टीम को जब कोई और नहीं मिला तो मजबूरी में ‘नंदू' धोबी से ही अपने को स्पाँसर करवा लिया"...
“नंदू से?…वो बेचारा तो खुद अपना गुज़ारा ही बड़ी मुश्किल से करता होगा...वो क्या टट्टू स्पाँसर करेगा?"..
"अरे!...तुम्हें नहीं पता...पूरे तीन मोहल्लों में वही तो अकेला धोबी है जिसका काम चलता है बाकि सब तो वेल्ले बैठे रहते हैँ"...
"ऐसा क्यों?"...
"ज़बान का बड़ा मीठा है...हमेशा...जी..जी करके बात करता है...बाकि किसी को तो इतनी तमीज़ भी नहीं है कि औरतों से कैसे बात की जाती है...हमेशा तूँ तड़ाक से बात करते हैँ"…
“ओह!..
"और आजकल तो वैसे भी एकता कपूर के सीरियलों की वजह से टाईम ही किस औरत के पास है कि वो खुद कपड़े प्रैस करती फिरे?"...
“हम्म!..
"सो!..सभी के घर से कपड़ॉं का गट्ठर बनता है और जा पहुँचता है सीधा धोबी के धोबी घाट में"...
“हम्म!..
"खूब मोटी कमाई है उसकी…..सुना है कि अब तो नई आईटैन भी खरीद ली है उसने" ...
“अ..आईटैन?”मैं चौंकता हुआ बोला
“हाँ!…आईटैन"…
"नकद?"....
"नहीं!...किश्तो पे"...
“ओह!…(मैंने राहत की सांस ली)
"आजकल उसी से आता-जाता है"....
"अरे वाह!...क्या ठाठ हैँ पट्ठे के"मेरे जले पे नमक छिड़का जा रहा था लेकिन फिर भी ना जाने मेरे मुंह से ‘वाह' करके उसकी तारीफ़ निकल गई ...
"और नहीं तो क्या?…उस दिन की याद है ना जब मैँ आपसे ज़िद कर रही थी ‘अक्षरधाम’ मन्दिर घुमाने के लिए ले चलने की और आपने गुस्से में साफ इनकार कर दिया था?"...
"तो?”…
“पता नहीं इस मुय्ये धोबी के बच्चे को वो बात कैसे पता चल गई और बड़े मज़े से मुझसे कहने लगा कि... "भाभी जी!...अगर राजीव जी के पास टाईम नहीं है तो मैँ ही आपको ‘अक्षरधाम’ मन्दिर ही घुमा लाता हूँ"..
“क्क्या?”…
“हाँ"…
“उस स्साले की इतनी हिम्मत?”…
“उसकी हिमाकत देख एक बार तो मैं भी हैरत में पड़ गई थी"…
“तो फिर तुमने उसे क्या कहा?”मुझे गुस्सा आ चुका था
“कहना क्या था?…कोई बहाना कर के साफ़-साफ़ मना कर दिया मैंने"…
“हम्म!…
"हुँह!..बड़ा आया मुझे घुमाने वाला...शक्ल देखी है कभी आईने में?
"तुमने ज़रूर किसी ना किसी से जिक्र किया होगा इस बात का तभी तो उसे पता चला होगा"मैंने राहत की सांस ले कुछ सोचते हुए कहा...
"मैँने भला किससे और क्यों जिक्र करना है?… अपनी बाई ही पास में खड़ी-खड़ी सब सुन रही थी..उसी ने चुगली करी होगी"..
“हम्म!…मुझे भी यही लग रहा है….इनका तो यही काम होता है...इधर की उधर लगाओ और...उधर की इधर"…
"एक तो डिमांड ज्यादा और सप्लाई कम होने की वजह से पहले से ही ये बाइयां काबू में नहीं आती थी और अब..जब से ये मुय्या 'आई.पी.एल' शुरू हुआ है..और भी दिमाग चढ गया है इनका"...
“हम्म!…
"मेरी राय में तो बैन लगा देना चाहिए इन चीयर लीडरों पर…सारा का सारा माहौल बिगाड़ के रख छोड़ा है"...
"कौन सी वालियों ने?...टी.वी वालियों ने या फिर ये अपनी देसी वालियों ने?"...
"दोनों की ही बात कर रही हूँ...उन्होंने क्रिकेट ग्राऊँड में माहौल बिगाड़ के रखा है तो इन्होंने यहाँ...गलियों में”…
"लोकल वालियों से तो तुम्हारी खुँदक समझ आती है लेकिन इन इन 'टी.वी' वालियों से तुम्हें क्या परेशानी है?…अच्छा भला खिलाड़ियों और दर्शकों को जोश दिला रही हैँ"...
"वोही तो...वो वहाँ क्रिकेट ग्राऊँड में…मिनी स्कटें पहन फुदक रही होती हैँ और यहाँ हम औरतों के दिल ओ दिमाग में हमेशा एक धुक्क-धुक्क सी लगी रहती है"...
"हाथ में आए पँछी के उड़ चले जाने का खतरा?"...
"और नहीं तो क्या?…क्या जादू कर जाएँ?...कुछ पता नहीं इन गोरी चिट्टी फिरंगी मेमों का"...
“हम्म!..
"और वैसे भी आजकल मन बदलते देर कहाँ लगती है?"...
“अरे!…लेकिन सबके बस की कहाँ है?...इतनी सस्ती भी नहीं है वे कि कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा फटाक से अपना बटुआ खोले और झटाक से ले उड़े इन्हें"...
"हाँ!...'आई.पी.एल' खिलाड़ियों की और बात है...बेइंतिहा पैसा मिला है उन्हें...आराम से अफोर्ड कर लेंगे लेकिन...यहाँ अपने मोहल्ला छाप खिलंदड़ों का क्या?...उनके पास तो अपने पल्ले से मूँगफली खाने के तक के पैसे नहीं मिलने के...वो भला क्या खाक खर्चा करेंगे?"...
“हम्म!…बात तो तुम सही कह रहे हो"..
"और सबसे बड़ी बात कि …इन दोनों टाईप की आईटमों का आपस में क्या मुकाबला?...कहाँ वो गोरी चिट्टी...एकदम मॉड...छोटे-छोटे कपड़ों में नज़र आने वाली सैक्सी बालाएँ और कहाँ ये एकदम सीधी-साधी सूट या फिर साड़ी में लिपटी निपट गाँव की गँवारने?…कोई मेल नहीं है इनका"...
"लेकिन वो कहते हैं ना कि जब गधी पे दिला आता है तो सोनपरी की चमक भी फीकी दिखाई देने लगती है"...
“हम्म!…
"याद नहीं?...अभी पिछले हफ्ते ही तो सामने वाले शर्मा जी की मैडम अपने ड्राईवर के साथ उड़नछू हो गई थी और वो गुप्ता जी भी तो अपनी बाई के साथ खूब हँस-हँस के बाते कर रहे होते हैँ आजकल"...
"अच्छा!...अब समझा….तभी रोज़ नए-नए सूट पहने नज़र आती है"...
"तुमने कब से ताड़ना शुरू कर दिया उसे?"बीवी मेरी तरफ देख गुस्से से आँखें तरेरती हुई बोली...
"व्वो…वो तो बस…ऐसे ही…एक दिन सब्ज़ी ले रही थी तो अचानक नज़र पड़ गई"...
"सब समझती हूँ मैँ...अचानक नज़र पड़ गयी…किसी दिन मेरी नज़र किसी पे पड़ेगी ना बच्चू…तब पता चलेगा"….
“म्म..मैं तो बस ऐसे ही…
"कुछ तो ख्याल करो अपनी बढती उम्र का...अगले महीने पूरे चालीस के हो जाओगे"...
अब उसे कैसे बताता कि 'ऐट दा एज ऑफ फौर्टी...मैन बिकम्ज़ नॉटी?...
"एक बात और ...तुम्हारे इन सो कॉल्ड मॉड कपड़ों को पहन नंगपना करने मात्र से ही कोई सैक्सी नहीं हो जाता"...
"अच्छा?…तो फिर कैसे हुआ जाता है?…ज़रा बताओ तो...एक्सप्लेन इट क्लीयरली"...
"देखो!...चैलैंज मत करो हमें…हम हिन्दुस्तानी औरतें साड़ी और सूट में भी अपनी कातिल अदाएँ दिखा गज़ब ढा सकती हैँ"...
सच ही तो कह रही है संजू...तभी तो आजकल वो गुप्ता जी की कामवाली बाई...हर समय आँखों में छायी रहती है"मैँ मन ही मन सोचने लगा...
"तो क्या अपनी देसी चीयर लीडरस भी?"मैँ बात बदलते हुए बोला...
"अब किसी के चेहरे पे थोड़े ही लिखा होता है?...पैसा देख मन बदलते देर कहाँ लगती है?"...
“हम्म!..
"इसलिए मैँ कहती हूँ कि इन देसी चीयर लीडरस पर तो हमेशा के लिए बैन लगना चाहिए…तभी अक्ल ठिकाने आएगी इनकी"...
“हम्म!….
"मेरा बस चले तो अभी के अभी कच्चा चबा जाऊँ इस ‘शारदा’ की बच्ची को...पागल की बच्ची..औकात ना होते हुए भी ऐसे बन ठन के…अकड़ के चलती है मानो किसी स्टेट की महरानी हो"...
“ओह!…
"पता जो है उसे कि उसके बगैर किसी का गुज़ारा नहीं है…एक मन तो करता है कि अभी के अभी जा के सीधा पुलिस में कम्प्लेंट कर दूँ उसकी"...
"अरे!...कुछ नहीं होगा वहाँ भी....उल्टे पुलिस ही चढ बैठेगी हम पर"...
"किस जुर्म में?"...
"अरे!...मालुम तो है तुम्हें...नाबालिग थी अपनी बाई और ऊपर से हमने उसकी पुलिस वैरीफिकेशन भी नहीं करवाई हुई थी"...
"हमने क्या?...पूरे मोहल्ले में सिर्फ सॉंगवान जी का ही घर है जिन्होंने सारी की सारी फारमैलिटीज़ पूरी की हैँ"...
"सही बात!...कभी मूड बना के थाने जाओ भी तो कहते हैँ...पहले लेटेस्ट फोटो ले के आओ"...
"पागल के बच्चे!...कभी पूछते हैँ....कि कौन कौन सी भाषाएँ बोलती है?"...
“अरे!…तुमने इससे उपनिष्द पढवाने हैँ या फिर कोई गूढ अनुवाद कराना है?"...
"बेतुके सवाल ऐसे समझदारी से करेंगे मानों इन सा इंटलैक्चुअल बन्दा पूरे जहाँ में कोई हो ही नहीं"... “उम्र कितनी है?...पढी-लिखी है के नहीं?...अगर है!...तो कहाँ तक पढी है?"...
"अरे!...तुमने क्या उस से डॉक्ट्रेट करवानी है जो ये सब सवालात कर रहे हो?"...
"स्साले!...सनकी कहीं के...कभी-कभी तो दोनों हाथों के फिँगर प्रिंट ला के देने तक का फरमान जारी कर देते हैँ"...
"अब इनके तुगलकी आदेश के चक्कर में अपने हाथ नीले करते फिरो…और कोई काम नहीं है क्या हमें?”…
"उनके कहे अनुसार सब कर भी दो तो कभी फलानी कमी निकाल देते हैँ तो कभी ढीमकी"...
"पहले तो कभी अपने यहाँ की पुलिस इतनी मुस्तैद नहीं दिखी थी...जैसी आजकल दिख रही है"...
“हाँ!… अच्छी भली तो थी…पता नहीं अचानक क्या बिमारी लग गयी?"...
"तुम्हारा कहना सही है...आमतौर पर तो अपने यहाँ की पुलिस ढुलमुल रवैया ही अपनाती है लेकिन जब कभी कहीं कोई तगड़ी वारदात होती है...तब इन पर ऊपर से डण्डा चढता है और तभी ये पूरी मुस्तैदी दिखाते हैँ"...
"वैरीफिकेशन के काम में देरी लगाने की शिकायत करो तो जवाब मिलता है कि 'कानून' से काम करने में तो वक्त लगता ही है"... लेकिन कोई ये बताएगा कि ये सॉंगवान का बच्चा कैसे आधे घंटे में ही सारा काम निबटा आया था?"...
"पट्ठे ने!...ज़रूर चढावा चढाया होगा…यही सब तो प्लेसमैंट एजेंसी वाले भी करते हैँ…तभी तो पुलिस भी इनकी छोटी-मोटी गल्तियों को नज़र अन्दाज़ करती है और इसी कारण बिना किसी डर...बिना किसी खौफ के इनका धन्धा दिन दूनी रात चौगुनी तेज़ी से फलफूल रहा है"...
"अब तो कम समय में ज़्यादा कमाई के चक्कर में बहुत से बेरोज़गार मर्द-औरत इस धन्धे धड़ाधड़ उतरते जा रहे हैँ"...
"हम्म!...इसीलिए आजकल इन तथाकथित प्लेसमैंट ऐजेंसियों की बाड़ सी आ गई है"...
"घरेलू नौकरानियों की डिमांड ही इतनी ज़्यादा है कि पूरा ज़ोर लगाने पर भी पूर्ति नहीं हो पा रही है"... “तभी तो आजकल इन प्लेसमैंट वालों के भाव बढे हुए हैँ...कहने को तो ये कहते हैँ कि हम समाजसेवा का काम कर रहे हैँ…गरीब...मज़लूमों को रोज़गार उपलब्ध करवा रहे हैँ लेकिन इनसा कमीना मैँने आज तक नहीं देखा"....
"वो कैसे?"...
"अरे!...इस प्लेसमैंट की आड़ में ये जो जो अनैतिक काम होता है ...उनके बारे में जो कोई भी सुनेगा तो हैरान रह जाएगा"...
"अनैतिक काम?"...
"और नहीं तो क्या?…देह-व्यापार से लेकर स्मगलिंग तक कोई भी धन्धा इनसे अछूता नहीं है"...
"ओह!...
"जिन बच्चों की अभी पढने-लिखने की उम्र है उनसे ज़बर्दस्ती इधर का माल उधर कराया जाता है"...
"कैसा माल?"...
"यही...स्मैक...ब्राऊन शुगर...पोस्त से लेकर छोटे-मोटे हथियार तक ...कुछ भी हो सकता है"...
"ओह!...
“कई बार तो ये प्लेसमैंट का धन्धा ये लोग अपनी घिनौनी करतूतों को छुपाने के लिए करते हैँ...किसी से शादी करने या करवा देने का लालच देकर तो किसी को मोटी तनख्वाह पे आरामदायक नौकरी दिलवाने का झुनझुना थमा कर ये अपने प्यादे तैयार करते हैँ"...
“ओह!…
“लाया गया तो उन बेचारों को किसी और काम के लिए होता है और झोंक दिया जाता है किसी और काम की भट्ठी में"...
"क्या सच?"...
"हो भी सकता है"...
"क्या मतलब?...अभी तो तुम ये सब कह रहे थे...वो क्या था?"...
"वो तो यार!...मैँ ऐसे ही...मज़ाक-मजाक में…
"तो इसका मतलब...इतनी देर से झूठ पे झूठ बके चले जा रहे थे?"...
"और क्या करता?…तुम सुबह से कामवाली बाई को लेकर परेशान हुए बैठी थी"...
"तो?"...
"तुम्हारा ध्यान बटाने के लिए…
"हुँह!…
"लेकिन मेरी सभी बातें झूठ नहीं हैँ और बाकी भी सच हो सकती हैँ...कसम से"....
"वो कैसे?"...
"कलयुग है ये और इसमें कुछ भी हो सकता है क्योंकि....ज़माना बड़ा खराब है"...
"हाँ!...ये तो है...ज़माना तो सच में बड़ा खराब है"…
"ट्रिंग..ट्रिग"...
"देखना तो...किसका फोन है?"...
"हैलो.....
"कौन?"...
"चम्पा?”....
“अरे!…बेटा कहाँ है तू?"....
"क्या कहा?…दिल्ली में?"...
"लेकिन बेटा...तू तो गाँव जाने की कह कर गई थी ना?"...
"अच्छा!...शारदा नहीं ले के गई"...
"अभी कहाँ है बेटा?"...
"क्या कहा?...पता नहीं"...
"रो मत बेटा...चुप हो जा...यहीं…हाँ!..यहीं आ जा हमारे पास"....
"पता याद है ना बेटा?...अच्छी तरह से तो याद करवाया था ना तुझे बेटा?"...
"हाँ-हाँ!…यही है"…
"तू एक काम कर बेटा...किसी रिक्शे या फिर ऑटो वाले को हमारे घर का पता बता दे"...
"ठीक है बेटा...किराया हम यहीं दे देंगे...तू चिंता ना कर”...
“हम तो तुझे पहले ही रोक रहे थे ना बेटा लेकिन क्या करें?...वो शारदा ही नहीं मानी"...
"ठीक है...बेटा...हाँ…आ जा"…
"हैलो!...हैलो...
“क्या हुआ बेटा?…फोन क्यों काट दिया बेटा?"...
"क्या हुआ?"....
"चम्पा का फोन था"...
"अच्छा?...क्या कह रही थी?"...
"यहीं दिल्ली में ही है...किसी कोठी में काम कर रही है"....
"लेकिन वो तो गाँव जाने की कह कर गई थी ना?"...
"मैँ ना कहती थी कि सब ड्रामा है...यहीं कहीं लगवा दिया होगा"...
"कह तो रही है...कि आ रही हूँ"...
"कहाँ से फोन किया था?"...
"किसी 'पी.सी.ओ' से कर रही थी...कह तो रही थी कि अभी आधे घंटे में पहुँच जाऊगी"...
"हे!…ऊपरवाले...तेरा लाख-लाख शुक्र है"...
"अब तो खुश?"...
"बहुत"...
"एक मिनट!...फोन तो देना"...
"कहाँ मिलाना है?....मैँ मिला देती हूँ"...
"पुलिस स्टेशन"...
"किसलिए?"...
"वैरीफिकेशन”…
"छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"...
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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18 comments:
बहुत अच्छी कहानी बन पड़ी है।
प्लेसमेंट एजेंसी वालों की पोल के साथ शर्मा जी और गुप्ता जी को भी लपेट लिया।
वैसे अक्षर धाम वाली गल किसने की?
जय हो।
हँसते रहो...मुस्कुराते रहो...खिलखिलाते रहो
हँसते रहो...मुस्कुराते रहो...खिलखिलाते रहो...ha hga ha
बढिया कहानी बन पडी है !!
:-) मस्त है!
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
एक बार फिर उसी वे में लजवाब रचा है आपने, क्या बात इतना लंबा और इतना सहज कैसे लिख लेते हैं आप, बहुत खूब लगी ये रचना ।
सहज शब्दों में बेहतरीन प्रस्तुति ।
bahut hi behtar likha aapne, taareef main shabd kam hain, bahut hi sundar prastuti
तो भाभी जी सब बता दिया आपको ...
अति सुंदर रचना जी धन्यवाद,मजे दार ओर मस्त
बहाने बहाने से आप बहुत सी गंभीर बातें कह जाते हैं
वैरीफिकेशन”…
"छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"...
nice one
maukaa aane par ham abhee aise hee casual ho jaate hai. bahut badhiyaa likhaa hai bhaai.
बहुत लम्बी रचनाएं होती है आपकी,जरा सा छोटा कीजिये प्लीज़.
कामवाली बाईयां किस तरह से छाती कुटवाती है एकदम सही लिखा.
हम भी मरे इतना प्यार से घरवालों से नही बोलते होंगे जितने इन् बाइयों से.
हर वाक्य मे बेटा बोलना, बोली मे शक्कर घुल जाना ... काम जो करवाना है इनसे.घर के रूटीन वर्क की ऊब,थकान से बचने के लिए ही हम इनकी मदद लेते हैं,धीरे धीरे इन् पर इतने डिपेंड हो जाते हैं कि अपने माँ बाप के मरने पर इतने दुखी नही हुए जितना इनके काम छोड़ देने या लम्बी छुट्टियों पर जाने के नाम पर होता है.आपने बखूबी एक एक बात मस्त लिखी है.
क्या बात है भई बड़ी पैनी नजर रखते
हैं!हा हा हा आगे नही लिखूंगी किस पर???? हा हा
ग्रीन अक्षर पढ़ने मे बड़ी परेशानी आई.आँखों पर बहुत जोर पड़ता है.
आई टेन मे अक्षरधाम दर्शन कराने ले जाने वाला धोबी??? उसके चरण कहाँ है? आप कितने किस्मत वाले हैं ! आपके मोहल्ले मे कितने अच्छे लोग रहते हैं.क्यों उसके चरित्र पर संदेह करते है प्रभु!
कुछ जगह तो कमाल के वाक्य लिखे हैं आपने.
"वैसे!…बुरा ना मानों तो एक बात पूछूँ?”…
"पूछो"...
"ऐसी बेहूदी राय तुम्हें किस उल्लू के चरखे ने दी थी?"..
"तुमसे शादी करने की?"...
हा हा हा खूब हँसी मैं सच्ची.
अरे ऐसा कई जगह पधा जिसका ज़िक्र कमेन्ट मे करने की इच्छा थी किन्तु वापस आर्टिकल पढ़ कर ढूढना पड़ेगा.
किताब और ब्लोग मे यही अंतर है अब इम्पोर्टेंट वाक्यों के नीचे लाइन कैसे खींचू और खास पेज के कोने को कैसे मोडू???
कैसे ??? बताइयेगा.
आर्टिकल्स की लम्बाई कम कीजियेगा.
बाकि मस्त लिखा है.
हा हा हा
Wah
taneja sahab
अच्छा अब समझ आया मेरी कामवाली अचानक गायब कैसे हो गई?
अच्छा व्यंग्य लिखा है राजीव भाई...
Nice...sirji..:):):):)
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