लिखी हुई इबारत- ज्योत्सना 'कपिल'

तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार, जिसमें कि आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत हो..माद्दा हो...की नपे तुले शब्दों में की गयी प्रभावी अभिव्यक्ति को लघुकथा कहते हैं। मोटे तौर पर अगर लघुकथा की बात करें तो लघुकथा से हमारा तात्पर्य एक ऐसी कहानी से है जिसमें सीमित मात्रा में चरित्र हों और जिसे एक बैठक में आराम से पढ़ा जा सके। आज लघुकथा का जिक्र इसलिए कि हाल ही में मुझे ज्योत्सना 'कपिल' जी का लघुकथा संग्रह "लिखी हुई इबारत" पढ़ने का मौका मिला। 

इस संग्रह में उनकी कुल 55 रचनाएँ हैं और इन्हें पढ़ कर आसानी से जाना जा सकता है कि ज्योत्सना जी के पास सहज मानवीय स्वभावों तथा संबंधों पर अच्छी जानकारी एवं पकड़ है। इसके अलावा वे अपने आसपास के माहौल से कहानियां एवं किरदार चुनने के मामले में पारखी नज़र रखती हैं। उनकी किसी रचना में अगर इस बात की तस्दीक होती दिखाई देती है कि प्रतियोगिता का असली मज़ा तभी आता है जब सामने खड़ा प्रतिद्वंद्वी भी उन्हीं की टक्कर का हो। तो वहीं उनकी कोई अन्य रचना बताती है कि माँ के लिए उसके बच्चे सदैव बच्चे ही रहते हैं जबकि बड़े होने पर उनके शौक एवं प्राथमिकताएं इस कदर बदल जाती हैं कि वे स्वयं बात बात पर अपने अभिभावकों का अपमान करने से भी नहीं चूकते हैं | 

इस संकलन की किसी रचना में नौकरी के दौरान शोषण, अपमान और बुरी नज़रें झेल रही पत्नी को पति द्वारा महज़ इसलिए चुप रहने के लिए कह दिया जाता है कि उसकी नौकरी की वजह से बच्चों की पढ़ाई, फ़्लैट तथा गाड़ी की किश्तें आराम से निकल रही हैं| तो कहीं किसी रचना में सरकारी अस्पतालों में हो रहे भ्रष्टाचार का जिक्र इस बात से किया गया है कि वहाँ पर नसबंदी के आपरेशन के दौरान धोखे से किसी मरीज़ की किडनी को निकाल लिया गया |

 कहीं किसी रचना में स्कूलों द्वारा बच्चों से प्रोजेक्ट के नाम पर बिना बात करवाए जाने वाले अनाप शनाप खर्चों के ऊपर गरीब माँ बाप की दुविधा एवं हताशा के हवाले से कटाक्ष किया गया है |

इस संकलन को पढ़ने के दौरान इसमें शामिल कई मुद्दों से रूबरू होना पड़ा जैसे...कहीं किसी बलत्कृत पीड़िता के विवाह को ले कर उत्पन्न होती दुविधा तो कहीं जुए में पत्नी को दांव पर लगाने की बात है। कहीं एसिड अटैक की घटना के माध्यम से इस बात की पुष्टि होती है कि कभी ना कभी घूम फिर कर हमारे गुनाह... हमारे बुरे कर्म..हमारे सामने आ ही जाते हैं। कहीं किसी रचना में विपदा के वक्त एक भाई दिग्भ्रमित तो होता है मगर जल्द ही चेत जाता है। कहीं किसी रचना में इनसान की धोखे वाली प्रवृत्ति पर जानवरों के माध्यम से कटाक्ष किया गया है। 

कहीं किसी रचना में जवान बच्चों पर अपनी मर्ज़ी थोपने से उत्पन्न होने वाले बुरे नतीजों के प्रति आगाह किया गया है तो कहीं किसी रचना में आधे अधूरे बाल श्रम उन्मूलन कानूनों के उलटे पड़ते नतीजों पर भी अपनी बात रखी गयी है। कहीं राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों में होती धांधली की बात है तो कहीं किसी रचना में देश की सुरक्षा का दुश्मन से सौदा करता पति दिखाई देता है। कहीं फूलों के माध्यम से पात्र कुपात्र की बात है तो कहीं नाम कमाने की अँधी होड़ और कीमत पर अपने घर परिवार की इज़्ज़त आबरू को तार तार हो..होम होते हुए दिखाया गया है। कहीं किसी वेश्या के त्याग से किसी संभ्रांत घर की इज़्ज़त बचाने की बात है तो कहीं इसमें स्वाभिमान के नाम पर अपने तय हो चुके रिश्ते को तोड़ती युवती की बात है। कहीं सज्जन कुसज्जन को ले कर होते मतिभ्रम का जिक्र है तो कहीं इसमें पैसा..शोहरत..नाम के मिल जाने के बाद रंग बदलने की बात है।

 कहीं इसमें सपनों के बनने और फिर टूटने की बात है तो कहीं इसमें पुरुषत्व के ज़रिए सज्जन दिखने वाले कुसज्जनों की ओछी हरकतें हैं। कहीं इसमें पैसा देख रंग और नज़रिया बदलते पति की बात है तो कहीं इसमें सही को ग़लत समझने की बात है। कहीं इसमें राखी जैसे पवित्र बन्धन में लेन देन को ले कर उपजते घाटे नफ़े की बात है तो कहीं इसमें गर्भवती हो सबकी निंदा सहती विक्षिप्त कामवाली को ले कर चुगली करने वाली को उसका अपना पति ही अकेले में..उसी विक्षिप्ता को रौंदता दिखाई देता है। 
 
कहीं अपने ब्याह का अरमान ले फौज से ड्यूटी कर लौटता युवक, घर पहुँचने पर अपनी चाहत को अपने ही विधुर पिता की पत्नी बने देखता है तो कहीं इसमें रद्दी के भाव बिकते साहित्य और साहित्यकारों की दुर्दशा के प्रति उदासीन होते समाज पर भी कटाक्ष किया गया है। कहीं किसी रचना में मज़ाक मज़ाक में किए जाने वाले मजाकों से उत्पन्न होने वाले नतीजों के प्रति भी आगाह किया गया है तो कहीं इसमें जन्नत और हूरों के मोह में मतिभ्रष्ट होते युवाओं को आईना दिखाने की भी बात है।

कहीं इसमें पैसों और सुख सुविधा के नाम पर पहले से विवाहित अमीरज़ादों के मोहपाश में जवान लड़कियाँ फँस तो जाती हैं मगर उनका भ्रम तब जा के टूटता है जब उनसे पहले वे अपने निजी परिवार को ज़्यादा तरजीह देते दिखाई देते हैं। 

यूँ तो सभी रचनाएं एक से एक महत्तवपूर्ण एवं ज्वलंत मुद्दों को समेटे हुए हैं और अपने कथाक्रम तथा रचनात्मक दृष्टि से भी उम्दा हैं मगर एक दो लघुकथाएं मुझे थोड़ा सा अनावश्यक विस्तार या फिर कोई कमी लिए हुए दिखी मसलन... एक लघुकथा ‘आइना’ शीर्षक से है जिसकी अंतिम पंक्ति का एक किरदार द्वारा कहा जाना ज़रूरी नहीं था| रचना उससे पहले ही अपना मंतव्य पूर्ण रूप से स्पष्ट कर चुकी थी| इसी तरह का एक और उदाहरण है ‘भगवान् या भूख’ नामक रचना जिसमें एक महिला किरदार अपने घर से मंदिर, भगवान को दूध पिलाने जाने के लिए निकलती है तो उसे दरवाज़े पर एक भिखारी, भिक्षा की याचना करता हुआ दिखाई देता है| जिसे वह दुत्कार कर लंबी लाइन लगे मंदिर में भगवान् के दर्शन करने चली जाती है| वहाँ भगवान् के आगे उसे अपनी ग़लती का एहसास होता है तो पछताती हुई वह मंदिर से बाहर निकलती है। बाहर निकलते ही उसे वही भिखारी, वहीं पर उसका इंतज़ार करते हुए मिलता है| अब सवाल यह उठता है कि कोई भिखारी दुत्कार दिए जाने के बावजूद घंटों तक सिर्फ एक भिक्षा के लिए कैसे किसी का और क्यों इंतज़ार करेगा? दूसरी त्रुटी इसी रचना में यह दिखाई दी कि भिखारी सिर्फ उसी से भिक्षा हेतु याचना करने के लिए उसके घर से मंदिर तक क्यों आया? या फिर तीसरी त्रुटि में यह भी हो सकता है कि उस भिखारी में साक्षात भगवान विद्यमान हों और उसकी परीक्षा ले रहे हों। अगर ऐसा है तो इस बात को स्पष्ट रूप से इंगित किया जाना जरूरी बनता है। कुछ भी कहें इस रचना में थोड़ा झोल झाल है जिसे सही से दुरस्त करने की ज़रूरत है| 

अब क़ाबिल ए गौर बात ये कि बढ़िया...धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस संकलन की सभी रचनाओं में कुछ ना कुछ गौर करने लायक बात है मगर फिर भी कुछ चुनिंदा  रचनाएं मुझे बहुत बढ़िया लगी | जिनके नाम इस प्रकार हैं: 

• चुनौती
• कब तक?
• मुफ़्त शिविर
• किस और?
• वंश
• विडम्बना
• खिसियानी बिल्ली 
• खाली हाथ
• प्रेम की बंद गली 
• स्वाभिमान
• मासूम कौन 
• कृष्ण चरित
• आशा की किरण
• नज़रिया
• हिसाब 
• हरे काँच की चूड़ियाँ
• भयाक्रांत
• चार दिन की...
• अहसास
• काश, मैं रुक जाता 
• स्टिंग ऑपरेशन 

यूँ तो यह संकलन मुझे उपहारस्वरूप मिला फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की उम्दा क्वालिटी के इस लघुकथा संग्रह के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है अयन प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। किताब की हर बड़े छोटे तक पहुँच और आम पाठक की जेब तथा उसके बजट को देखते हुए ये ज़रूरी हो जाता है कि हार्ड बाउंड संस्करण के अतिरिक किताबों के पेपरबैक संस्करण भी निकाले जाने चाहिए। आने वाले सुखद एवं उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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