" बेनाम सा ये दर्द "
नेहा पारीख
दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं घर क्यों नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हूई राहों का तमाशा
जाते हैं सब जिधर मैं उधर क्यों नहीं जाता
वो नाम जो ना जाने कब से ना चेहरा ना बदन है
वो ख़्वाब है अगर तो बिखर क्यों नहीं जाता
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