"क्यों!...है कि नहीं?"
***राजीव तनेजा***
"अब बताओगे भी या नहीं?"...
"क्या?"...
"ये गट्ठर उठाए-उठाए कब से तुम्हारे आगे-पीछे घूम रही हूँ"..
"क्यों?...क्या हुआ?....क्या है इसमें?"...
"इतना टाईम नहीं है मेरे पास कि मैँ तुम्हें एक-एक बात समझाने में लगी रहूँ और...
तुम मज़े से कम्प्यूटर पे इन मुय्यी बेफिजूल की कहानियों को लिखने के चक्कर में उँगलियाँ टकटकाते रहो"...
"शश्श!...चुप ...एकदम चुप"..
"चुपचाप साईड पे बैठ के देखो कि मैँ क्या लिख रहा हूँ"...
"इतनी वेल्ली नहीं हूँ मैँ जो बेफाल्तू में कम्प्यूटर में आँखें गड़ाती फिरूँ या फिर. ..
बावलों की तरह चुपचाप तुम्हारा ये सड़ा सा थोबड़ा देखती फिरूँ"...
"मतलब?..मतलब क्या है तुम्हारा?"...
"मैँ वेल्ले काम करता हूँ?"...
"और ये मेरे चेहरे के बारे में क्या कहा अभी तुमने?"...
"ज़रा फिर से तो कहना"...
"अच्छा भला तो है"मैँ अपने चेहरे पे हाथ फिराता हुआ बोला...
"और भी काम हैँ मुझे...फटाफट बताओ कि कौन से कपड़े पहनोगे और कौन से नहीं ताकि...
बाकी बचे हुए कपड़ों को मैँ कुछ ले-लिवा के बन्ने मारूँ"बीवी गट्ठर को मेरी टेबल पे पटकते हुए बोली
"बताओ..बताओ"...
"बताते क्यों नहीं?"...
"क्या?...क्या बताऊँ?"...
"कोई जवाब नहीं है मेरे पास तुम्हारी इन बेफिजूल की बातों का"..
"यही बताओ कि क्या पहनोगे और क्या नहीं"बीवी लगभग चिल्लाती हुई बोली
"कुछ पता भी है कि ना-ना कर के भी पूरी डेढ सौ कमीज़ें इकट्ठी हो गई हैँ जनाब की और...
पतलूनों की तो कोई गिनती नहीं"...
"ना तो खुद पहनते हो और ना ही किसी गरीब-गराब को देने देते हो"...
"किसी के काम आ जाएं तो क्या बुरा है?...अगला दुआएँ देगा"...
"मेरी तो किस्मत ही खराब है जो इस कबाड़ी के पल्ले पड़ गई"...
"हुण तेरी किस्मत नूँ केहड़ी गोल्ली वज्ज गई?"..
"और ये कबाड़ी-कबाड़ी क्या लगा रखा है?"..
"मैँ तुम्हें कबाड़ी दिखता हूँ?"..
"और नहीं तो क्या?...कभी ढंग से शक्ल भी देखी है आईने में?"....
"ये बढी हुई दाढी...ये बेतरतीब सी पैंट से बाहर निकली हुई कमीज़"...
"कबाड़ी ना कहूँ तुम्हें तो और क्या कहूँ?"...
"वैसे एक चीज़ नोटिस की है तुमने?"...
"क्या?"...
"यही कि...ये गली-गली घूम कर टीन-टब्बर खरीदने-बेचने वाले कबाड़ी भी...
कई दफा तुमसे कहीं ज़्यादा हैंडसम दिखते हैँ"बीवी हँसकर मेरा मज़ाक उड़ाते हुए बोली...
"वो तो जब मेरा मूड ठीक नहीं होता है और मैँ टैंशन में होता हूँ तभी होता है ऐसा"...
"हमेशा थोड़े ही होता है ऐसा...ज़्यादातर तो मैँ खूब बन ठन के रहता हूँ"...
"क्यों...है कि नहीं?"...
"लेकिन हमारे घर की हालत को देख के तो सभी कहते हैँ कि कबाड़ियों का घर है ये...कबाड़ी बसते हैँ यहाँ"...
"अरे वो!...वो तो पहले कबाड़ी रहा करता था ना इस घर में...
और याद नहीं...मैँने उसी से तो खरीदा था पौने आठ लाख में ये घर पूरे आठ साल पहले"...
"और तुम्हीं को तो दिया था बर्थडे गिफ्ट"...
"गिफ्ट?..लाख रोई थी तुम्हारे सामने की पॉवर ऑफ ऑटार्नी मेरे नाम करवा दो लेकिन...
तुम टस से मस ना हुए थे"..
"हुँह!..बड़े आए गिफ्ट देने वाले"...
"वो शक्लें...वो चेहरे और हुआ करते हैँ जो अपनी पत्नियों से प्यार करते हैँ"...
"क्या-क्या सपने...क्या-क्या अरमान नहीं देखे थे मैँने"...
"सब के सब मिट्टी में मिल गए"....
"किसी और के साथ ब्याहती तो वो रानी बना के रखता...रानी"...
"यहाँ कौन सी कमी है तुम्हें?"...
"पूरा दिन ही तो पसरी रहती हो खटिया पे"...
"बस खाया-पिया और लेट गई टीवी देखने"...
"कितनी बार समझा चुका हूँ कि दिवान पे लेट के मत देखा करो टीवी...कमज़ोर है...टूट जाएगा"...
"अब तो कई बार दिवान खुद भी हाथ जोड़ तुमसे मॉफी माँगने को होता है कि...
रहम करो...बहुत हो लिया..अब तो बक्श दो मुझे"...
"झूठ...बिलकुल झूठ...सरासर झूठा इलज़ाम है ये"...
"हर वक्त कहाँ देखती रहती हूँ टीवी?"...
"ये जो तुम्हारे कपड़े समेटने में जो लगी रहती हूँ पूरा दिन"....
"उसका कुछ नहीं?"..
"पता नहीं कितनी बार तो जोड़-जोड़ के रखती हूँ लेकिन तुम्हारा ये छोटा वाला मुन्ना है ना...
उफ..तौबा!...ऐसी आफत की पुड़िया तो मैँने कहीं नहीं देखी"...
"मेरा तो कोई असर है ही नहीं इस पे...पूरा का पूरा तुम पे गया है"
"तुम तो चले जाते हो मज़े से ट्रेन में छुक्क-छुक्क करते हुए पानीपत"..
"पीछे से तुम्हारा ये लाडला हर वक्त मेरी नाक में दम किए रहता है"
"अच्छा लगता है क्या कि सारे घर में कपड़े ही कपड़े बिखरे पड़े रहे हरदम?"...
"इधर समेटूं तो उधर बिखेर देता है...उधर सम्भालूँ तो इधर की खैर नहीं"..
"घर...घर ना हो के यतीम खाना नज़र आता है हरदम"...
"बाहर से घर में कोई मेहमान आ जाए तो क्या कहेगा?"...
"क्या कहेगा?"...
"यही कि रहने की तमीज़ नहीं है इन्हें"...
"वो तो यही सोचेगा ना कि मैँ ही ख्याल नहीं रखती हूँ घर का"...
"अब कहने वालों का मुँह कोई रोक पाया है भला...जो हम रोक लेंगे?"...
"वैसे तुम्हारे डर के मारे हर कोई आने से कतराता भी तो है"बीवी हल्की सी आवाज़ में बुदबुदाई...
"क्यों?..तुम्हारी बहन पिछले साल गर्मियों की छुट्टियों में...
क्या घास छीलने आई थी?"उसकी आवाज़ मैँने सुन ली थी...सो..तमक के बोला...
"हाँ!..आई तो थी"...
"फिर?"...
"एक ही बार में कान पकड़ लिए थे कि दोबारा कभी नहीं आएगी"...
"डाक्टर ने नहीं कहा था उसे कि यहाँ...हमारे घर आ के डॆरा जमाए"...
"डेरा?..अरे!...कुल जमा एक हफ्ते के लिए ही तो आई थी"...
"पता भी है कि एक हफ्ता कितने दिन का होता है?"...
"पूरे सात दिनों का"...
"भूला नहीं हूँ मैँ कि उन सात दिन में ही वो और उसके नालायक बच्चे पूरे महीने भर का राशन तक डकार गए थे"...
"बाप रे!....क्या खुराक है उनकी"...
"उफ!..तुम जैसा कोरा इनसान तो मैँने आजतक नहीं देखा"...
"सालियों पे तो लोग अपनी जान तक छिड़कते हैँ...सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहते हैँ"...
"लेकिन तुम!...उफ...तौबा"...
"हाँ-हाँ!...मानी तुम्हारी बात कि...
जीजे न्योछावर रहते हैँ अपनी सालियों पर और रहने भी चाहिए...आखिर रिश्ता है ऐसा है"...
"लेकिन!...ये तो बताओ ज़रा कि कौन सी सालियों पर?"...
"कौन सी सालियों पर?"..
"अपनी छोटी सालियों पर...और वो भी कोई ऐसी-वैसी तुम्हारी बहन जैसी डिब्ब खड़िब्बी नहीं बल्कि...
स्मार्ट...क्यूट...और सैक्सी सालियों पर"
"ना कि तुम्हारी बहन की तरह जो मुझसे भी उम्र में बारह साल बड़ी है"...
"स्साली!...खूसट बुढी कहीं की"...
"शर्म करो...शर्म करो"...
"अरे हाँ!..एक आईडिया आया है दिमाग में...तुम कहो तो बताऊँ?"मैँ उसकी बात पे ध्यान ना देता हुआ बोला...
"बको...क्या बकना है"...
"एक काम क्यों नहीं करती तुम?"...
"क्या?"...
"अभी बहुत दमखम है तुम्हारे पिताजी में"...
"तो?"...
"उनसे कह के एक आध कयूट सी साली मेरे लिए तैयार करवाओ ना"...
"जान ना छिड़कूँ उस पर तो कहना"...
"तुम्हें बेशक कल का छोड़ता आज छोड़ दूँ लेकिन....
उसका हाथ जो थाम लिया ना एक बार तो कभी छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता"...
"पक्का वायदा है ये राजीव का तुमसे"
"शर्म करो...शर्म करो...क्या ऊल-जलूल बके चले जा रहे हो?"..
"बोलने से पहले ज़रा सा सोच भी लिया करो कि क्या बोलना है और क्या नहीं"...
"अपने पिताजी को क्यों नहीं बोलते कि....
एक आध यंग...हॉट....टॉल...अच्छी फिज़ीक(सेहत)वाला देवर तैयार कर दें अपनी बहू के लिए"...
"बेचारी घर में अकेली तन्हा बैठी-बैठी बोर हो जाती है"..
"वैसे...तुम्हारे पिताजी में भी कोई कमी नहीं है...अच्छे खासे दिखते हैँ"..
"क्यों?...क्या ख्याल है तुम्हारा?"...
"क्या बक रही हो?"...
"क्यों लगी ना मिर्ची?...और फाल्तू बोलो"...
"याद रखो!...एक बोलोगे...तो दो सुनोगे"..
"हुँह!...बड़े आए बुढापे में मेरे पिताजी से पुट्ठे-सीधे काम करवाने वाले"...
"आज तक मेरी माँ पछता रही है कि कहाँ इस निरे कंजूस मक्खीचूस के घर फँसा बैठी अपनी फूल सी कोमल बेटी को"...
"फूल सी कोमल?...और तुम?"..
"हाह!...सपने देखना छोड़ दो ....कभी हुआ करती थी तुम फूल सी कोमल"...
"अब तो कड़वे कटहल सी कर्कश और...गोभी के फुल साईज़ फूल के माफिक मोटी हो तुम"...
"मेरी बहनें...मेरी माँ..मेरे सभी रिश्तेदार सब शिकायत करते हैँ कि दामाद जी कभी सीधे मुँह बात नहीं करते"...
"कभी भूले-भटके फोन भी करेंगे तो सीधा कॉल नहीं करेंगे बल्कि...मिस कॉल मार के छोड़ देंगे"...
"तो?"...
"अरे!..तुमने फोन मिलाया है...तुम्हें बात करनी है...तो फिर भला मिस कॉल क्यों?"
"ऐसा करते हुए शर्म नहीं आती तुम्हें?"...
"शर्म?..बचत में कैसी शर्म?"...
"हाह!..शर्म आनी चाहिए उन्हें...अपने दामाद से खर्चा करवाते हुए"...
"अपना तो सीधा सरल फण्डा है कि ....जिसने की शर्म..उसके फूटे कर्म"...
"हुँह!..बड़े आए ससुराल वाले"..
"करना-कराना कुछ है नहीं और...रुआब सहूँ दुनिया भर का?"...
"मॉय फुट"...
"कहने को तो चार-चार मुस्टंडे साले हैँ मेरे लेकिन...
इतनी शर्म भी नहीं है किसी में कि और कुछ नहीं तो कम से कम मेरा मोबाईल ही रिचार्ज करवा दिया करें हर महीने"
"क्यों?..ठेका ले रखा है उन्होंने तुम्हारा?"...
"जब दिल्ली छुड़वा के पानीपत बुला रहे हैँ मुझको...तो ठेका ही समझो"..
"लेते रहो सपने ...ना नौ मन तेल होगा और ना ही राधा नाचेगी"...
"अच्छा भला रह रहा था दिल्ली में...ऊँगली कर-कर के बिकवा दिया मेरा मकान"...
"अब पैसे हाथ में लिए-लिए फिर रहा हूँ लेकिन कोई ढंग का मकान मिले तब ना"...
"उफ!...बेचने जाओ तो स्साला सही दाम नहीं मिलता..खरीदने जाओ तो सही आवास नहीं मिलता"..
"बड़ा कहते थे तुम्हारे भाई कि...उठा अपना झुल्ली-बिस्तरा और आ जा पानीपत...यहीं सैटल हो जा"...
"काम धन्धा और घर दोनों नज़दीक के नज़दीक हो जाएंगे"...
"ज़्यादा ध्यान भी दिया जा सकेगा काम धन्धे की तरफ और रोज़ाना के सफर के पाँच घंटे भी बचेंगे"...
"लो आ गया हूँ तुम्हारी शरण में...कराओ मेरा जुगाड़...कराओ ना मुझे कहीं ढंग से सैटल"...
"हुँह!...बड़े आए मुझे सैट कराने वाले"...
"इस सैट-सैट के चक्कर में मेरी पूरी सैटिंग ही बिगाड़ के रख दी"...
"अब कह रहे हैँ कि मकान खरीदने की कोई ज़रूरत नहीं है साल दो साल...
किराए पे रहो फिलहाल...और जो पैसा मिलना है मकान का उसे बिज़नस में लगाओ"...
"स्साला!...मुझ से मूर्ख कोई और प्राणी भी होगा इस पूरे जहान में?"...
"क्यों क्या हुआ?"...
"मज्झ वेच्च के घोड़ी खरीद बैठा मैँ"(भैंस बेच के घोड़ी खरीद बैठा मैँ)...
"फिर क्या हुआ?"...
"दूध-घी से भी गया और घोड़े की लीद अलग से उठानी पड़ रही है अब मुझे"...
"मतलब?"...
"अरे!...जो किराया आता था अपने मकान से...उस से भी हाथ धो बैठा मैँ और...
अब आगे खुद को किराया भरना पड़ेगा"...
"यही सोच-सोच के तो परेशान हूँ मैँ"..
"तो पहले सोचना था ना...अब क्या फायदा?"...
"कितनी बार समझाया है कि एक से भले दो होते हैँ लेकिन तुम मानों तब ना"...
"कभी राय भी तो नहीं लेते हो मेरी"...
"एक बार कुछ जी में आ जाए सही ...
बस!..तुरंत बिना आगा-पीछा सोचे अमल कर डालते हो उस पर"...
"मुझ से अच्छी तो मेरी बहने हैँ...उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता है उनके घर में"...
"बहुत अच्छे हैँ मेरे दोनों जीजे...बड़ा ख्याल रखते हैँ मेरी बहनों का"...
"क्यों?...ऐसे क्या सुरखाब के पर लगे हैँ उनमें?"...
"मेरी बहनें चाहे कुछ भी करती रहें...कुछ भी कहती रहें लेकिन उनके पति उफ तक नहीं करते"..
"सुबह बैड टी से लेकर नाश्ता तक खुद ही बना के परोसते हैँ"...
"स्साले!...हलवाई रहे होंगे पिछले जन्म में दोनों के दोनों"...
"कई बार तो वाकयी रश्क(ईर्ष्या)होता है मुझे अपनी बहनों की किस्मत से"..
"ऐसी कोई अनोखी खूबी तो नहीं देखी मैँने उनकी किस्मत में"...
"कोई एक खूबी हो तो बतलाऊँ"...
"मतलब?"...
"कहाँ मेरी बहनों के ससुराल में ये लम्बे चौड़े घर और कहाँ ये महज़ दो कमरों का सैट?"...
"मेरी तो किस्मत ही फूटी थी जो ब्याह के यहाँ चली आई"...
"क्यों?..इस दो कमरों के सैट में क्या बुराई है?"..
"बुराई तो कुछ नहीं लेकिन ज़रा ढंग से सैटिंग तो हो कम से कम"
"ये क्या कि पलंग पे...डायनिंग पे...कुर्सी पे...सोफे पे...
यहाँ तक कि ज़मीन पर भी ....बिखरे पड़े रहते हैँ तुम्हारे कपड़े"...
"उफ़!...जहाँ देखो...वहीं कपड़ॉं की भरमार"...
"कितना भी करीने से तह लगा के सजा के रख लो लेकिन...
अगले दिन सुबह होते ही जनाब को वही कपड़े चाहिए होते हैँ जो सबसे नीचे पड़े होते हैँ"...
"सारी की सारी तह ही बिगाड़ के रख देते हैँ"...
"मैँ भी इनसान हूँ कोई मशीन नहीं"...
"तो क्या ढंग के कपड़े भी ना पहनूँ?"...
"पता भी है कि प्रापर्टी डीलर का काम है मेरा..रोज़ रोज़ नई-नई पार्टियों से मिलना-जुलना होता है"..
"वही पुराने घिसे-पिटे कपड़े पहन के डील फॉयनल किया करूं उन सब से?"...
"सब पता है मुझे कि कितनी और कैसी डीलें फॉयनल करते हो तुम हर रोज़"...
"अनाड़ी नहीं हूँ मैँ...सब समझती हूँ कि रोज़-रोज़ ये नए-नए कपड़े पहन कर किस के साथ गुलछर्रे उड़ाते हो"...
"किस के साथ?"मैँ चौंका कहीं इसे सब पता तो नहीं चल गया है
"उसी मुय्यी कम्मो चूरनवाली के साथ ना?"...
"बेवाकूफ!...वो...वो तो मेरी धर्म बहन है"मैँने राहत की साँस ली...
"हाँ!..ये बात और है कि उसके अलावा और बहुत सी...
'चूरन वालियाँ' है जो हरदम तैयार रहती हैँ अपुन के साथ डेट पे जाने के लिए"मैँ मन ही मन हँसा...
"सीधी बात है...इस हाथ दे और उस हाथ ले"...
"मतलब?"...
"मतलब ये मेरी जॉन कि अगर तुम मेरा ख्याल रखोगी...तो यकीनन...मैँ भी तुम्हारा ख्याल रखूँगा"...
"मतलब तुम्हारी हर बात मानूँगा"...
"तो क्या मैँ तुम्हारा ख्याल नहीं रखती?"...
"अगर अभी मैँ तुम्हारा ख्याल नहीं रखती तो फिर दुनिया की कोई भी औरत तुम्हारा ख्याल कभी रख भी नहीं सकती"...
"हाँ!..ये मेरा ख्याल ही तो है जो मुझे. ..
ये टूटे हुए बटन वाली फटी कमीज़ पहन कर जाना पड़ता है"मैँ कमीज़ के टूटे बटन की तरफ इशारा करता शांत स्वर में बोला..
"हे भगवान!...मैँ इन्हें फटे-पुराने कपड़े पहनाती हूँ?"...
"तुम देख रहे हो ना भगवान कि. ..
कैसा इलज़ाम लगाया जा रहा है मुझ पर?"बीवी ऊपर की ओर देखती हुई हिस्टीरिआई अन्दाज़ में चिल्लाई...
"मैँ पूरा दिन काम करते-करते मर जाती हूँ और...
मेरी सेवाओं का...मेरी निष्ठा का ये सिला दिया जा रहा है मुझे"बीवी रुँआसी हो बोलती चली गई...
"ये देखो!...खुद ही देख लो...इस पैंट कि सिलाई उधड़ी पड़ी है पिछले चार हफ्ते से लेकिन...
मजाल है जो तुम्हारे कान पे जूँ भी रेंगे तो"...
"तुम भी तो उसी वक्त याद दिलाते हो जब टीवी पे मेरा कोई ना कोई फेवरेट प्रोग्राम चल रहा होता है"...
"अच्छा भला ये बताओ कि कौन सा प्रोग्राम तुम्हारा फेवरेट नहीं है?"...
"हर वक्त तो घुसी रहती हो इस मुय्ये बुद्धू बक्से में"...
"कभी सोनी...तो कभी स्टार प्लस...
कभी ज़ी टीवी...तो कभी सहारा..जो ना कभी हुआ हमारा"..
"कभी आजतक....तो कभी ज़ी न्यूज़"...
"और तो और ...जब कहीं कुछ देखने सुनने लायक नहीं मिलता तो बिज़नस न्यूज़ के चैनल ही देखने बैठ जाती हो"...
"कभी 'आवाज़' तो कभी 'सी.एन.बी.सी' देख आँखें फैला...बत्तीसी फाड़....अपने दीद्दे दिखा रही होती हो"...
"सच्ची-सच्ची बताना कि कुछ पल्ले भी पड़ता है उसमें?"...
"या यूँ ही बेफाल्तू में शोर-शराबा सुनने की हैबिचुअल हो गई हो?"...
"तुम क्या जानों?...उनमें भी मैँ अपने मतलब की आईटम छांट लेती हूँ"...
"जैसे?"...
"जैसे..एँकर की साड़ी का 'डिज़ाईन'...उसका 'मेकअप'..उसकी 'आईब्रो'..
उसका 'हेयर स्टाईल'...बालों में लगे 'हेयर पिन' ...'जूड़ों के नए-नए डिज़ाईन'...
बड़ी-बड़ी सैलीब्रिटीज़ के 'लिप लाईनर'...उनका बात करने का लहज़ा..वगैरा...वगैरा"...
"हम्म...अब समझा!...आजकल मुझसे यूँ होंठ भींच-भींच के बातें क्यों की जा रही है"...
"हाँ!..मैँ सलीब्रिटीज़ को फॉलो करती हूँ...अच्छा लगता है मुझे"...
"आखिर!...बुरा ही क्या है इसमें?"..
"चलो माना कि कोई बुराई नहीं है इसमें...झेला जा सकता है इतना सब कुछ लेकिन...
ये जो कई बार तुम बेशर्मों की तरह डिस्कवरी चैनल तो ..कभी ऐनीमल प्लैनैट देख रही होती हो..उसका क्या?"..
"क्यों इन चैनल्ज़ में क्या बुराई दिख गई आपको?"...
"अच्छे भले नॉलेज के चैनल हैँ...ज्ञान बढता है इनसे"...
"सब पता है मुझे कि कैसा ज्ञान बढाते हैँ ये चैनल"...
"जब कभी कुछ उल्टा-सीधा कर रहे होते हैँ ये बेचारे जानवर तो चोरी छुपे बना लिया जाता है उनका वीडियो"...
"तो?"...
"सीधे-सीधे उनकी प्राईवेसी में दखल है ये"...
"ये साफ तौर पे आघात है उनकी निजता पे"...
"जहाँ एक तरफ हम इनसानों का अगर कोई चोरी-छुपे...
ज़रा सा...छोटा सा...माईनर सा ...मिनट दो मिनट का भी 'एम.एम.एस' बना ले तो...
वो हाय-तौबा मचाई जाती है कि पूछो मत"...
"दिन-रात एक कर दिया जाता है कलप्रिट(मुजरिम) को पकड़ कर जकड़ने के लिए"...
"वहीं दूसरी तरफ इन भोले जानवरों की तो...
पूरी दो..पौने दो घंटे की फिल्म ही टैलीकास्ट कर दी जाती है और कोई कुछ नहीं कहता"...
"वैरी स्ट्रेंज"...
"और हम मतलबी इनसान उसे अपने मज़े के लिए खूब चटखारे ले ले के देखते हैँ"..
"यार-दोस्तों को फोन कर-कर के बतलाते हैँ कि फलाने फलाने चैनल पे धांसू आईटम दिखाई जा रही है...मिस मत करना"...
"और हाँ!...लोगों को भरमाने के लिए सरासर ब्लू फिल्म को 'वाईल्ड बीस्टस एट देयर एक्स्ट्रीम'और...
ना जाने क्या-क्या का नाम दे डाक्यूमैंटरी फिल्म का ठप्पा लगा दिया जाता है"
"दिस इज़ नॉट फेयर"...
"ब्लू फिल्म?"...
"हाँ!...ब्लू फिल्म..इनसानों की ना हुई तो क्या हुआ?"...
"है तो ब्लू फिल्म ही ना?"...
"सरासर ..दिनदहाड़े सैक्स परोसा जा रहा है धड़ाधड़ और कोई ऐतराज़ नहीं करता"...
"वाह रे ऊपरवाले!...देखा तेरा इंसाफ"...
"जहाँ एक अदना सा...छोटा सा 'एम.एम.एस' बनाने वाले को...
जेल की सलाखों के पीछे सड़ने के वास्ते डाल दिया जाता है और वहीं दूसरी तरफ ठीक इसके उल्ट...
इन ब्लू फिल्मों...ऊप्स सॉरी!...डॉक्यूमैंटरी फिल्मों के निर्माताओं को...
बैस्ट फिल्ममेकर..बैस्ट सिनेमैटोग्राफर...और ना जाने किस-किस बैस्ट अवार्ड से नवाज़ा जाता है"
"मुलज़िनों को सज़ा देना तो दूर ...उल्टे उन्हीं पे अवार्ड देने के नाम पर खूब धन वर्षा की जाती है"..
"हे ऊपरवाले!...तू मुझे उठा ले...
ऐसा घोर कलयुग मैँने कहीं नहीं देखा कि...
जहाँ मूक जानवरों की गरिमा को खंडित करने वालों को ही महिमा मंडित किया जाता है"
"मन तो ऐसा करता है कि इस टीवी के बच्चे को अभी के अभी उठा के बाहर फैंक दूँ"...
"खबरदार!...जो इस टीवी की तरफ आँख उठा के भी देखा तो...खून पी जाऊँगी तुम्हारा"...
"कहीं भूले में मत रहना कि तुम मुझ पे यूँ ज़ुल्म पे ज़ुल्म करते जाओगे और मैँ सब चुपचाप सहती जाऊँगी"...
"कलयुगी नारी हूँ मैँ कोई पुराने ज़माने की पतिवर्ता औरत नहीं "
"और हाँ!...कहीं मुगालते में ना रहना ...ये टीवी मेरा है...सिर्फ मेरा"...
"इस पर अपना हक जताने की सोचन भी मत"...
"सनद रहे कि मेरे दहेज में आया था 'एल.जी'का ये पूरे उनत्तीस इंच का कलर्ड टीवी"...
"साढे सोलह हज़ार नकद गिन के खर्चा किए थे मेरे बाप ने...पूरे साढे सोलह हज़ार"..
"बस इसी लिए चिपकी रहा करो इससे हरदम...और कोई काम करने की तो ज़रूरत ही नहीं है ना"...
"डाक्टर नहीं कहता है कि रात को दो-दो बजे तक डेल्ले फैला के टीवी देखो और फिर दिन में जब सूरज छत पे चढ आए
तब तक घोड़े बेच के सोई रहो आराम से"...
"उसके बाद भी बस खाया-पिया और पसर लिए दिवान पे टीवी देखने के वास्ते"...
"स्साला टीवी!...टीवी ना हुआ...खुदा का बच्चा हो गया कि मत्था टेकना ज़रूरी है हर वक्त"..
"तुम्हें क्या पता टीवी की महिमा...
घर के ड्राईंग रूम से लेकर बैडरूम तक ...वाया किचन होता हुआ...अब तो बाथरूम तक आ पहुँचा है"...
"अरे!...सब बड़े लोगों के चोंचले हैँ"...
"सुनो!..."
"कहो"...
"क्यों ना हम भी बड़े लोगों की तरह अपनी किचन और बाथरूम में भी टीवी लगवा बड़े बन जाएं?"...
"खाना बनाने और नहाने-धोने के चक्कर में कई दफा सीरियल मिस हो जाता है"...
"अरे!...मिस हो जाता है तो होने दो...रिपीट टलीकास्ट भी तो आता है ना अगले दिन"..
"लेकिन यहाँ भी तो प्राब्लम है मैडम को...दो-दो बार जो देखना होता है हर एपीसोड को"...
"पता नहीं खुर्दबीन(दूरबीन)लेकर क्या ढूँढती फिरती है इन बकवास सीरियलों में?"...
"अरी बावली!..तेरी किचन वाली बात तो फिर भी मान लूँ कि...
रसोई में रहेगी तो खाना तो मिलेगा टाईम पे कम से कम मुझे लेकिन...
ये बाथरूम वाला फंडा तो शुरू से लेकर आखिर तक गलत ही गलत है"...
"वो भला क्यों?"...
"अरी बावली!...बाथरूम होता है और कामों के लिए"...
"पता चले कि तीन घंटे तक मैडम जी बाथरूम में ही लगी रही....
मैँ खुश कि...चलो आज कई दिनों बाद चमक-धमक रही है...
सो!..चमकने दो..अपना ही फायदा है"...
"राते ठीकठाक कट जाया करेंगी लेकिन...
कहीं बाद में ये पता चले कि मैडम तो वैसी की वैसी बिना नहाई-धोई काली शॉ की काली शॉ ही निकली"...
"ऊपर से पूरे तीन घंटे नाहक में गवां दिए इस मुय्यी एकता कपूर के चक्कर में"
"अरे!...गुस्सा तो इतना आता है कि अभी के अभी इस एकता की बच्ची का गला घोंट के सारा का सारा टंटा ही खत्म कर दूँ"...
"ना रहेगा बाँस और ना बजने दूँगा कभी उसकी बाँसुरी"...
"अपनी कमाई के चक्कर में पूरी दुनिया की ऐसी की तैसी करने पे तुली है"...
"क्यों?...क्या कह रही है तुम्हें?"..
"अपना काम ही तो कर रही है चुपचाप"...
"हाँ!..जानता हूँ कि अपना काम कर रही है और उसका काम है पब्लिक को फुद्दू बना नोट कमाना"....
"सही है!..अपनी तिजोरी भरी रहे...भरती रहे धड़ाधड़ ...बाकि सारी दुनिया जाए भाड़ में"..
"अगर हम मर्दों से कभी पूछा जाए ना कि कौन है उनका दुश्मन नम्बर एक?"...
"तो सभी की ज़ुबान पे एक ही नाम होगा...
एकता कपूर...एकता कपूर और बस एकता कपूर"...
"पट्ठी!...पता नहीं किस जन्म के वैर निकाल रही है हम मर्दों से"...
"ऐसा सम्मोहित कर डाला है इसने आजकल की औरतों को कि बस पूछो मत"..
"ना खाना मिलता है टाईम पे..ना ही पहनने-ओढने को ढंग से कपड़े"...
"आखिर ऐसा क्या स्वाद मिलता है तुम औरतों को कि...
अपना आगा पीछा सब भूल के इस मुय्ये टीवी से चिपकी रहती हो हर हमेशा?"..
"बहुत कुछ मिलता है हमें...यूँ समझ लो कि वो सब...जो तुम पूरी ज़िन्दगी मुहय्या नहीं करवा सकते"..
"हमारे सपने...हमारे अरमान कुछ पल के लिए ही सही लेकिन हकीकत का जामा तो पहन लेते हैँ कम से कम"..
"हमारी वो सब चाहते...जो तुम जैसे मध्यम वर्ग के लोग कभी पूरी नहीं कर सकते ...
उन्हें ये 'एकता'हकीकत के नए आयाम देती है"
"इस टीवी की वजह से ही तुम्हारे संग नर्क योनि झेलते हुए भी हमें खुद के जन्नत में होने का सा सुखद अहसास होता है"...
"इसीलिए हम अपने सब दुख-दर्द भूल तुम मर्दों के ज़ुल्म ओ सितम हँस-हँस के सह लेती हैँ"...
"हमारे वो सब अरमान जिन्हें हम तुम मर्दों के डर की वजह से छुपा देती हैँ...दबा देती हैँ...कुचल देती हैँ...
वो सब सपने हमें साकार होते हुए से लगते हैँ"...
"वैसे एक बात बताओ"...
"क्या?"...
"कब से देखे जा रहे हैँ ये बेफाल्तू के...बेफिजूल से सपने?"...
"यही कोई दस बारह साल पहले से ही ना?"...
"हाँ...तो?"...
"मैँ यकीनी तौर पे दावे के साथ कह सकता हूँ कि उस से पहले नहीं देखें होंगे ऐसे बेतुके सपने"...
"इस यकीन की वजह?"...
"वजह ये कि...उस से पहले इन एकता कपूर टाईप सीरियलों का...
कोई वजूद...कोई असितत्व ही नहीं था हिन्दुस्तान के वायुमण्डल में"
"उस वक्त भी तो लोग जिया करते थे...
वाह!...क्या मद को मस्त करने वाली ब्यार बहा करती थी उन दिनों हमारे वायुमंडल में"मैँ पुराने दिनों की याद में खो सा गया...
"तुम चाहे कुछ भी कहते रहो...कुछ भी बकते रहो लेकिन...
हम औरतें तो एकता कपूर की तहे दिल से एहसान मंद हैँ...शुक्रगुज़ार हैँ कि उसने हमें जीना सिखाया"...
"उसने हम में आगे बढने की होड़ जगाई...हम में सपने जगाए"....
"लेकिन!..उन्हें पूरा करने का कोई रास्ता नहीं सुझाया"...
"लेकिन खुशी तो मिलती है ना हमें ये सब देख के"...
"बहुत भोली हो तुम"...
"साईक्लॉजिकल प्रैशर डाल तुम्हारी सबकी भावनाओं से खेल रही है वो"..
"खिलवाड किया जा रहा है तुम्हारे इमोशनज़ के साथ"...
"हम औरतों के इमोशनज़ से ही तो खेलते हैँ सब"....
"हमारी भावनाओं को खेल समझ कर उनसे खेला जाता रहा है हमेशा"...
"पहले एकाधिकार था मर्दों का...अकेले वही खेला करते थे हमारी भावनाओं से"...
"अब मोनोपली का ज़माना नहीं रहा...
कम्पीटीशन के इस ज़माने में अगर एकता कपूर भी यही खेल खेलने लग गई है तो इसमें हैरत की बात क्या है?"...
"ह्यूमन साईक्लॉजी है ये तो कि हम किसी अपने को दुखी देख..परेशान हो उठते हैँ...
तो किसी खास को प्रसन्न देख उसकी खुशी में शरीक भी होते हैँ"...
"लेकिन मैडम जी!...सिर्फ फिल्मों और टीवी सीरियलों में ही होता है ऐसा"...
"वर्ना असल ज़िन्दगी में जहाँ एक तरफ किसी अपने को खुश देख हम जलभुन कोयला हो उठते हैँ...
उसकी कामयाबी देख हमें रोटी हज़म नहीं होती है"...
"वहीं दूसरी और जब हमारा कोई अपना...सगेवाला...
संकट के दौर में फँसा अपनी मुसीबतों से अकेला जूझ रहा होता है तो...
हमारे मन में शुद्ध देसी घी के मॉल-पुय्ये पक रहे होते हैँ और खुश्बुदार जलेबियाँ तली जा रही होती हैँ"..
"मैडम जी!...यहाँ हर कोई अपने दुख से...अपनी परेशानी से...दुखी नहीं है बल्कि...
वो दुखी है....परेशान है...दूसरे के सुख से...उसकी कामयाबी से"...
"इन मुय्ये सीरियलों को ही देखो...यही सब तो सिखा रहे हैँ ये हमें"...
"ईर्ष्या...द्वेश....जालसाज़ी....व्याभिचार...अनैतिक विवाहतेर सम्बन्ध इत्यादि..इत्यादि"...
"और हम इसी में खुश हैँ"..
"किसी सीरियल में किसी चहेते किरदार के साथ कोई हादसा हो जाए तो उसके गम में हमारे घर चूल्हा नहीं जलता...
"चूल्हा?...और आज के ज़माने में?"...
"मेरा मतलब...उस दिन हमें खाना नहीं मिलता"....
"किसी सीरियल में कोई खुशी का मौका हो तो मारे खुशी के मैडम जी का पेट तो वैसे फुल्ल हो फूल जाता है"...
"सो!..खाना बनाने और खिलाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता"
"जागो...मैडम जी जागो!...
नकली खुशियाँ परोस रही है वो तुम्हारे आगे और तुम उन्हें असली समझ अपने ही वजूद से खिलवाड़ कर रही हो"...
"सीरियल के अन्दर चल रहे किसी दुखद सीन के साथ -साथ तुम्हारी आँखे भी नम होती देखी है कई बार मैँने"
"एकता के सभी सीरियलों की कहानी ही ऐसी लिखी जाती है कि जिसमें...
इमोशन...ड्रामा...पैसा...सस्पैंस..थ्रिल...ईर्ष्या...
भरपूर मात्रा में हो ताकि खुद से जुड़ाव महसूस करने लगें औरतें"...
"सिर्फ औरतें ही क्यों?"...
"वो इसलिए..क्योंकि वो अच्छी तरह जानती है कि अगर औरतों को अपने वश में कर लिया गया तो...
मर्दों की जेब ढीली करवाना कोई बड़ी लम्बी चौड़ी बात नहीं है"...
"अब इसमें मर्दों की जेब कहाँ से टपक पड़ी?"...
"अरी बेवाकूफ!...रही ना तू बावली की बावली"...
"तू क्या समझती है कि ये एकता कपूर हमारे तुम्हारे मनोरंजन के लिए ये सब नाटक-वाटक परोस रही है?"...
"और क्या मकसद हो सकता है इस सब के पीछे?"...
"अरी मेरी भोली भंडारन!...बहुत बड़ा बाज़ार है इस सब के पीछे"...
"महज़ दस सैकैंड की एक एडवर्टाईज़मैंट को दिखाने की एवज़ में...
ये टीवी चैनल वाले कई-कई लाख वसूल करते हैँ कम्पनियों से"..
"और जानती है कि एक-एक एपीसोड के बीच में अन्दाज़न कितने मिनट तक ऐड दिखाई जाती है?"...
"यही कोई आधे घंटे के ऐपीसोड में दस से बारह मिनट"..
"तो सोच कि अगर दस सैकैंड की एक ऐड के दस लाख रुपए हुए तो एक मिनट के हो गए साठ लाख"....
"इस हिसाब से गिनों तो दस मिनट के हो गए छै करोड़"...
"छै करोड़?...बाप रे..."बीवी की आँखे आश्चर्य से फटी की फटी रह गई
"लेकिन मैँ भी कुछ कम नहीं हूँ...जैसे ही ऐड स्टार्ट होती है..मैँ फटाक से चैनल बदल लेती हूँ"...
"लेकिन एक बात नोटिस की है मैँने"...
"वो क्या?"...
"यही कि जब भी मैँ चैनल बदल किसी दूसरे चैनल पे जाती हूँ तो वहाँ भी कोई ना कोई ऐड ही चल रही होती है"...
"लगता है सब चैनल वाले आपस में मिल गए हैँ...
और कोई ऐसा प्रोग्राम या साफ्टवेयर इज़ाद कर डाला है इन लोगों ने जो सभी चैनलज़ को एक साथ मॉनीटर करता है"...
"एक साथ परफैक्ट टाईमिंग के साथ सभी प्रोग्रामज़ की व्यूइंग सैट की जाती है"
"और करें भी क्यों ना?"..बेइंतिहा पैसा जो जुड़ा हुआ है इस सब के साथ"...
"अभी हम जो हिसाब लगा रहे थे वो तो सिर्फ आधे घंटे की ही कहानी थी"...
"पूरे चौबीस घंटे इन चैनलों पे कोई ना कोई सीरियल धमाचौकड़ी मचा ही रहा होता है"....
"तो सोच कि कितने करोड़ का खेला होता होगा रोज़ाना"...
"इस हिसाब से तो पूरे महीने के हो गए....*&ं %$#@ रुपए"
"बाबा रे....इतना पईस्सा?"...
"मेरे लिए तो हिसाब लगाना ही मुश्किल हो रहा है"...
"मैँ तो कई बार हैरान होने के बाद परेशान हो उठता हूँ कि इतना सारा पैसा वो गिनते कैसे होंगे?"...
"कौन सा उन्हें तुम्हारी तरह थूक लगा उँगलियों से गिनना होता है?"...
"इस सारे काले-सफेद पैसे का हिसाब रखने के लिए सैंकड़ॉ की तादाद में तो उन्होंने मॉड्रन मुंशी रखे होंगे"...
"मॉड्रन मुंशी..माने?"...
"मेरा मतलब 'सी.ए' याने के चार्टेड एकाउंटेट से था"..
"हम्म!...तभी डेली के हिसाब से थोक के भाव में चैनल लाँच होते जा रहे हैँ आजकल"...
"और नहीं तो क्या?"...
"कहाँ पहले सिर्फ एक चैनल हुआ करता था अपना दूरदर्शन ...और अब तो डेढ सौ का आँकड़ा भी पार हो गया है"...
"कुछ ही महीनों में पूरे ढाई सौ हो जाने का कयास भी लगा रहे हैँ कुछ लोग"..
"खैर छोड़ो!...बड़े लोगों की बड़ी बातें"...
"हमने तुमने क्या लेना है इस सब से?"...
"हाँ तो बात हो रही थी कि ये एकता की बच्ची यूँ ही बेफाल्तू...कभी ना पूरे होने वाले सपनों का झुनझुना थमाती है"...
"तो क्या हुआ?...
हमें अपने सभी अरमान...सभी सपने साकार होते हुए से तो लगते हैँ ना"...
"साकार होते हुए से लगते हैँ...साकार होते तो नहीं ना?"
"रहने दो..रहने दो...तुम्हारे पास तो मेरी हर बात का कोई ना कोई जवाब तैयार मिलता है हमेशा"...
"मैँ तुमसे कुट्टी हूँ...पक्की कुट्टी"...
"वो भला क्यों?"...
"कभी हमारी एनीवर्सरी पे कोई ढंग की आईटम भी दी है तुमने मुझे?"...
"हर बार एक सड़ा सा बूके उठा के ले आते हो"...
"ज़्यादा हुआ तो कोने वाले चित्रकूट ढाबे पर दाल मक्खनी और शाही पनीर आर्डर कर दिया"...
"छुट्टियों में कहीं घुमाने ले जाने के लिए कहो तो...काफी ना नुकर के बाद जनाब अगर मानेंगे भी तो ...
हरिद्वार से आगे जाने की तो सोचेंगे भी नहीं"...
"तो क्या मैँ तुझे क्रूज़ पे मलेशिया ले जाऊँ घुमाने?"...
"अरे!..इतने की तो तुम्हारी औकात ही नहीं है...यहीं नार्थ इंडिया में ही घुमा-फिरा दो...यही बहुत है"...
"लेकिन कहाँ?"...
"कभी मनाली..कभी शिमला तो कभी नैनीताल तो जाया ही जा सकता है ना"...
"उस पर भी बहाना तैयार रहता है जनाब का हमेशा कि मुझे हिल स्टेशन पे गाड़ी चलाने की प्रैक्टिस नहीं है"...
"अरे!..नहीं है तो ...करो ना प्रैक्टिस...कौन रोकता है?"...
"सुना नहीं है तुमने कि...करत करत अभ्यास के..जड़मति सुजान"..
"और हाँ!...अगर कहीं हमें घुमाने ले जाने की सोचो भी तो पहले अपनी इस खटारा मारुति को ठीक करवा लेना"...
"पूरे आठ सौ दफा घिसड़-घिसड़ कर चल ली मैँ तुम्हारी इस खटारा 'मारुति आठ सौ'(Maruti 800) में"...
"अब बस का नहीं है मेरे"...
"मेरे होते हुए चिंता क्यूँ करती है?"...
"मैँ तेरे लिए सैंत्रो वालों की नई कार....
'आई 10"निकलवा देता हूँ शोरूम से अभी के अभी"मैँ ज़ोर से हँस उसकी भावनाओं का मज़ाक उड़ाता हुआ बोला..
"हाँ-हाँ क्यों नहीं...उड़ा लो जितना उड़ाना है मेरा मज़ाक"..
"एक तुम हो और एक वो है जिसने अभी पिछले हफ्ते ही अपनी पत्नी को नव्वीं-नकोर मर्सिडीज़ दी है गिफ्ट में"...
"तुम सफारी ही दिलवा दो...मैँ खुश हो जाऊँगी"...
"ये भी ना कर सको तो कम से कम 'नैनो' की लाँचिंग के वक्त ब्रैंड न्यू पीस ही दिलवा देना"
"मर्सीडीज़?..और गिफ्ट में?"...
"ऐसा बावला कौन पैदा हो गया हमारे मोहल्ले में?"...
"मोहल्ले में नहीं बल्कि...टीवी में..."
"ओह!...फिर तो ज़रूर एकता की बच्ची का ही सीरियल रहा होगा?"...
"जी"...
"इसलिए तो कहता हूँ हमेशा कि बेड़ागर्क कर के रख दिया है उसने हम मर्दों का"...
"उसके बाप का क्या जाता है?"...
"सिर्फ दिखाना भर ही तो होता है"...
"कौन सा सच में गिफ्ट देना होता है?"...
"इसीलिए उसके सीरियलों में कभी कोई किसी को बँगला गिफ़्ट कर रहा होता है तो कोई स्पेशियस फ्लैट"...
"कोई पता नहीं आने वाले सालों में भारत सरकार से परमिशन ले ...टैक्स चुका वो अपने सीरियलों में ...
कभी ताजमहल ..तो कभी कुतुबमिनार ही गिफ्ट ना करने लगे"...
"तुम तो इस साठ गज के डिब्ब-खड़िब्बे मकान को ही मेरे नाम करने से साफ नाट गए थे"
"और बात करते हो लम्बी चौड़ी...
"तुम चाहे कितने भी तर्क-वितर्क पेश कर लो लेकिन...
मैँ तो ये सीरियल देखना कभी नहीं छोड़ूँगी क्योंकि...
बहुत कुछ देखने...सीखने को मिलता है हमें इनसे"......
"मसलन?"...
"जैसे...कभी साड़ी का पल्लू का फैंसी डिज़ाईन...तो कभी ईयरिंग के लेटेस्ट सैट...
कभी लिपिस्टिक के शेड...तो कभी मौड्यूलर किचन के सैट ...
कभी लेटैस्ट फैशन के लहँगा चोली...तो कभी डिज़ायनर सोफा सैट ...
तो कभी अल्ट्रा माड्रन वॉडरोब(अल्मीराह)...तो कभी मार्बल फिनिश डायनिंग टेबल"...
"तुमसे चालू इनसान तो मैँने पूरी दुनिया में नहीं देखा"...
"अब क्या हुआ?"...कौन सा चालूपन्ना कर दिया मैँने तुम्हारे साथ?"...
"ये जो इधर-उधर की बातों में असली बात ही गोल कर गए...उसका क्या?"...
"कौन सी बात?"...
"ये जो तुम्हारी ड्यूटी लगाई थी मैँने कपड़े छांटने की"...
"पड़ा रहने दे ना यार...क्या फर्क पड़ता है?"...
"ये भी कोई बात हुई कि जब भी टोको...यही कहते हो कि पड़ा रहने दे सबको"...
"बड़ा होने पे अपना मुन्ना पहन लेगा"...
"अरे!..कोई ऐव्वें ही फाल्तू नहीं है मेरा बेटा जो तुम्हारे ये फटे-पुराने चिथड़े पहनेगा"...
"उसको तो मैँ राजा बनाऊँगी...राजा"
"और वैसे भी अभी तो कुल जमा पौने दो साल का हुआ है...कब पड़ा होगा?...कब पहनेगा?...
"और हाँ!..लिखवाना है तो बेशक अभी लिखवा लो मेरे से कि...
तुम्हारी ये बीड़ी से जली हुई पैंटे तो मैँ उसे बिलकुल ही नहीं पहनने दूँगी...कहे देती हूँ"..
"अरी बेवाकूफ!....पहनावे से गुरबत टपकनी चाहिए तो अच्छा रहता है"...
"वो भला क्यों?"...
"नज़र नहीं लगती है ज़माने की और बेवजह फाल्तू में नोटिस में आने से बचता है बन्दा"...
"हम्म!...लेकिन उस वक्त तो पता नहीं क्या फैशन चल रहा होगा और क्या नहीं?"...
"अरी बावली!...कोई भी चीज़ हमेशा ऊँची..और ऊँची नहीं उठ सकती"...
"एक ना एक दिन उसे नीचे उतरना ही पड़ता है"...
"कभी ना कभी तो ऊँट को पहाड़ के नीचे से गुज़रना ही पड़ता है "
"मेरी बात गांठ बान्ध लो कि लौट के वही पुराने दिन हमेशा वापिस आते है...
सो!...इस बार भी ज़रूर आवेंगे"...
"और तभी ये कपड़े भी काम आएंगे"...
"अब अपने बिग बी को ही लो...
पहले कहाँ सुपर स्टार के सिंहासन पे कई साल बिना किसी तगड़ी चुनौती के विराजमान रहा"...
"क्यों है कि नहीं?"..
"उसके बाद ऐसा नीचे गिरा धड़ाम कि...चारों खाने चित्त"....
"कोई उठाने वाला नहीं..कोई संभालने वाला नहीं"...
"पूरे छै साल तक घर में खाली बैठा बैठा रोटियां तोड़ता रहा".....
"रोटियाँ तोड़ता रहा?"...
"हाँ!...जया बेचारी...सेकती रही और ये तोड़-तोड़ उन्हें खाता..चबाता रहा"...
"क्यों है कि नहीं?"...
"ये तो वो शुक्र मनाए...अमर सिंह का कि उसने मुलायम और अम्बानी के जरिए उसको अमरत्व का घूंट चखा दिया"...
"बेशक!..इस चक्कर में मुलायम की..खुद की लुटिया डूब गई और...
अब मायवती के जरिए अम्बानी की भी फुल्ल-फुल्ल तैयारी है"
"उन सब की मदद से या फिर सहारा इण्डिया की बैसाखी के सहारे अपने पैरों पे खुद बिग बी खड़ा हुआ कि नहीं"...
"बोल....हुआ कि नहीं?...
"ओफ्फो!...अभी कुछ देर पहले तो रट्टू तोते के माफिक रट लगाए बैठे थे...
क्यों है कि नहीं?...क्यों है कि नहीं?...के जाप की"...
"अब पता नहीं क्या सूझा है जनाब को कि अब बोले चले जा रहे हैँ...बोल है के नहीं...बोल है के नहीं"...
"आखिर इतना कंफ्यूज़न पैदा ही काहे को करते हो कि किसी के पल्ले कुछ भी ना पड़े?"...
"ज़रूर अपने बाप पे गए हो"
"अरी बावली!...रही ना तू निरी खोत्ती(गधी)की खोत्ती"...
"इसे कहते हैँ तकिया कलाम"....
"मैट्रिक पास पढी-लिखी हूँ मैँ ...अनपढ नहीं" ...
"जानती हूँ अच्छी तरह कि तकिया किसे कहते हैँ और गिलाफ किसे कहते हैँ"...
"लेकिन!..ये तकिया कलाम?.....
"कहीं ये अपने भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम जी का ही तो तकिया नहीं है कहीं?"
"तुम्हारे हत्थे कैसे लग गया?"..
"अगर कभी बचपन में हिन्दी पढी होती ढंग से तो आज ये नौबत ना आती"...
"ज़रूर...हैडमास्टर को छोल्ले दे के पास हुई होगी तुम"
"छोल्ले?"...
"हाँ...हाँ...छोल्ले माने चने"....
"पहले ज़माने में हैडमास्टर का रेट फिक्स हुआ करता था"...
"छोल्ले की बोरी दो और साठ परसैंट नम्बर लो...वैरी सिम्पल"
"तब नकद का रिवाज़ नहीं होता था ना"...
"हुँह....गाँव के निपट गँवार रहे तुम पूरी ज़िन्दगी और रहोगे भी"...
"मेरे बाप तो तो नोट खर्चे थे...नोट"...
"वो भी पूरे गिन के कड़-कड़ कर कड़कते हुए करारे नोट थमाए थे हैडमास्टर को"...
"वो भी सौ...दो सौ नहीं बल्कि...पूरे सात सौ छयासी रुपए धरे थे उसकी हथेली पे"...
"इतने में भी बड़ी मुश्किल से माना था हैडमास्टर ...वो भी तब ..
जब उसने एक नोट में सात सौ छयासी का नम्बर देख लिया था"...
"सात सौ छयासी?"...
"लेकिन तुम तो ब्राहमण के घर में पैदा हुई हो ना?"...
"या कहीं मुझे धोखे में रखा गया?"..
"अरे बेवाकूफ!....मैँ ब्राहमण घर की हुई तो क्या?"....
"वो हैडमास्टर का बच्चा तो मुस्लिम ही था ना"...
"कहने लगा कि या तो पूरे ग्यारह सौ रुपए दो अपने धर्म के हिसाब से"...
"या फिर मेरे हिसाब से चलते हुए सात सौ छयासी निकालो"...
"ना एक रुपया कम...ना एक रुपया ज़्यादा"
"चन्द रुपयों को बचाने की खातिर तुमने अपना ईमान...अपना धर्म बदल दिया?"...
"शेम ऑन यू"..
"वो बात दर असल ये है कि ...वैसे तो मैँ अपने धर्म पे सौ फीसदी टिकी रहती..लेकिन...
जहाँ पैसे का नाम आ जाए...वहाँ कौन सा धर्म?...और कैसा ईमान?"...
"क्या फर्क पड़ता है?"...
"ब अस...कैसे भी कर के बचत होनी चाहिए"....
"क्यों है कि नहीं?"...
"दूँ खींच के एक?"...शर्म नहीं आती मेरी नकल उतारते हुए?"...
"नकल!..और तुम्हारी?...भांग तो नहीं चढा रखी तुमने?"...
"पता है ना कि चार भाई हैँ मेरे...और चारों के चारों 'मास्टर चन्दगी राम' के अखाड़े के निकले हुए हैँ"...
"एक ही पटखनी में सब इंजर-पिंजर ढीले ना करवा दिए तुम्हारे तो कहना"...
"होश से बात किया करो मुझसे...बाद में शिकायत ना करते फिरना सबसे कि पहले चेताया नहीं था संजू ने"...
"और हाँ!...ये तुम में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई कि मुझे खींच के एक हाथ मारोगे?"...
"मैँने कब कहा कि मारूँगा?...
"अभी क्या बक रहे थे?"...
"मैँ...मैँ तो कह रहा था कि अगर कहीं तुम गिरने लगोगी तो एक हाथ बढा तुम्हारा हाथ थाम लूंगा"...
"हम्म!...फिर ठीक है"...
"और हाँ!...याद आया ...ये जो गट्ठर तुम्हारे सामने पड़ा है..इसको कब छांटोगे?"...
"बस अभी!...अभी छांट रहा हूँ"...
"याद है ना ...शाम को मेरे बड़े वाले भाई साहब आ रहे हैँ पानीपत से"....
"उनको इंटरनैशनल एयरपोर्ट पे छोड़ने भी जाना है"...
"इस बार लीबिया का टूर है उनका"...
"सो!..झट से काम निबटाओ और फटाफट तैयार हो जाओ "...
"जी!...जैसा आपका हुकुम"...
"संजू!..."...
"बोलो"...
"एक चाय मिलेगी?"...
"थक गया हूँ...ये कहानी लिखते-लिखते"...
"अभी लाई एक मिनट में"...
"साथ में कुछ मट्ठियाँ-शट्थियाँ भी लेती आना"...
"ठीक है"...
"कुछ देर बाद हम दोनों चाय की चुसकियाँ के बीच गट्ठर में से कपड़े छांट रहे थे"..
"तो दोस्तो...खेल खत्म और पैसा हज़म"...
"कैसी लगी ये कहानी आपको?"...
"उम्मीद तो है कि आपको पसन्द आई होगी"...
"कोई ज़रूरी नहीं है कि अच्छा और सिर्फ अच्छा ही कमैंट चाहिए मुझे"...
"अगर कहानी पसन्द नहीं भी आए तो बेझिझक जैसा चाहें वैसा कमैंट दें आप लेकिन कमैंट ज़रूर दें"...
"इसी से तो हम जैसे नौसिखियों की हिम्मत बढती है..हौसला अफज़ाई होती है"...
"क्यों!...है कि नहीं?"...
***राजीव तनेजा***
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rajivtaneja2004@gmail.com
Rajiv Taneja
Phone No:+919810821361,+919896397625
4 comments:
bahut badhiya dhanyawaad
रेल की तरह लंबी
रेल में गुजरी सफर से
बिल्कुल सच हैं जो
झूठ नहीं है कहीं
लगता तो ऐसा ही है
पता नहीं वैसा है कि नहीं
पर हैं मजेदार
लज्जतदार
पापड़ नहीं
रूबरू सच्चाईयां मेरे मित्र.
बहुत अच्छा खींचते हो
रेल में बैठने वालों
और न बैठने वालों
के चित्र विचित्र.
यही है असली राजीव। सुन्दर है। मजाक मजाक में ह्कीकत बयान कर दी। हम जैसे परिवारो की।
GOOD JOB
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