महिमा मंडन एक ग्राम सेवक का

 

"महिमा मंडन-एक ग्राम सेवक का"

भारत किसानों का..खेत-खलिहानों का देश है।हमारे देश की 70% से ज़्यादा आबादी खेती पर निर्भर है।ज़ाहिर है कि जब इतने ज़्यादा लोग एक ही काम में....एक ही मकसद में जुटे होंगे तो उन्हें कई तरह की मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता होगा।लेकिन राई के दाने बराबर छोटी मुश्किलों को पहाड़ बराबर बताने का हुनर तो कोई इन भोले किसानों से सीखे।मेरे ख्याल से तो ये बेकार की ड्रामेबाज़ी सबका ध्यान अपनी तरफ खींचने की कवायद भर ही है क्योंकि..

  • जहाँ एक तरफ किसान रोना रोते हैँ खेतो में बिजली ना होने का.... तो यहाँ शहर में ही कौन सा हरदम लट्टू(बल्ब)चमचमियाते रहते हैँ?लाईट जैसी वहाँ जाती है..ठीक वैसी ही यहाँ भी जाती है।
  • वो कहते हैँ कि गाँवों में खेतों को प्रचुर मात्रा में पानी नहीं मिल रहा है तो यहाँ शहर में ही कौन सा हम स्विमिंग पूल में आए दिन डुबकियाँ लगा...पिकनिक मना रहे होते हैँ?
  • वो समय पे 'खाद' इत्यादि के ना मिलने से दुखी रहते हैँ तो यहाँ हम ही कौन सा सब कुछ पाकर सुखी हो गए हैँ?
  • अगर कभी वो अपने आपसी झगड़ों से त्रस्त नज़र आते हैँ तो यहाँ कौन सा हम आपस में गलबहियाँ डाल फूले समा रहे होते हैँ?
  • किसानों का कहना है कि उन्हें आए दिन एक से एक दिक्कत पेश आती रहती है और वो सदा परेशानियों से घिरे रहते हैँ लेकिन इसमें कौन सी बड़ी बात है?यहाँ शहर में ही कौन चैन से बेचिंत हो...वेल्ला बैठ मूँगफली चबा रहा होता है?

ठीक है!...माना कि किसानों को कई परेशानियाँ है....कई मुश्किलें हैँ।तो क्या इन छोटे-मोटे कामों के लिए सरकार खुद या फिर उसके कोट-पैंट पहने सूटेड-बूटेड मातहत अफसर रोज़ाना कीचड़ और गोबर की दुर्गन्ध भरे माहौल से दो चार होते रहें?
"नहीं ना?"...
वैसे अगर मेरी राय मानें तो आप ऐसे घिनौने सपने देखना तो छोड़ ही दें कि सरकार के बड़े-बड़े शाही अफसर खुद सीधे सीधे...पर्सनल तौर पर गाँव के निपट गँवारों से आ के संपर्क साधेंगे।लेकिन फिर भी दरियादिली देखिए इन फुली 'ए.सी' के 'वैल फर्निशड' दफ्तरों में बैठने वाले 'इंगलिश स्पीकिंग' अफसरों की कि उन्होंने देश की खातिर...किसानों की खातिर  'ग्राम सेवक' नामक अपने नुमाईन्दे को उनकी सेवा में अर्पित कर दिया कि "लो!...खुश हो जाओ और सम्भालो इसे...यही है तुम्हारा ग्राम सेवक"...

"अब करते रहो आराम से  इसकी सेवा।"

अब करने को तो सरकारी बाबुओं ने इस 'ग्राम सेवक' नामक पद को क्रिएट कर दिया लेकिन फिर उनके सामने ये यक्ष प्रश्न मुँह उठाए खड़ा हो गया कि इन स्थानों पर रखा किसे जाए?अर्थात किसकी भर्ती की जाए इस मलाईदार पद के लिए?तो किसी समझदार ने पूरी ईमानदारी से अपनी समझदारी दिखाते हुए कहा होगा....

" इसमें क्या है?....जो करारे-करारे नोट खिलाएगा वही साँवली-सलौनी नौकरी पाएगा....सिम्पल"और फिर सबने सर्वसम्मति से इस प्रस्ताव को पारित कर इस पर 'आफिशियल' की अनधिकारिक मोहर लगा दी होगी।इसके बाद उन सभी स्थानों पर अपने आदमियों को पैसे ले-ले फिट किया गया।अब आप पूछेंगे कि अचानक इतने सारे अपने आदमी कहाँ से टपक पड़े?...
तो भय्यी!...जब उन्होंने पैसे दे दिए...तो वो पराए कहाँ रहे?...अपने ही हो गए ना?...
खैर!...नौकरी तो दे दी गई लेकिन फिर सवाल उठा कि..."ये ग्राम सेवक नाम का जंतु आखिर करेगा क्या?"

क्या इसे ऐसे ही भोले-भाले किसानों को मुफ्त में ठगने का लाईसैंस दे खुला छोड़ दिया जाए?...

"नहीं ना?"...

"और अगर कुछ नहीं करेगा तो उसे पैसा किस बात का दिया जाए?...

तनख्वाह किस बात की दी जाए?"

क्योंकि पुराना उसूल जो बना हुआ है कि...आराम ...हराम है।
इसलिए उसका पहला काम जो उसे सौँपा गया वो था कि अलसुबह पँचायत भवन को खोलना और साँझ ढलते ही उसे बन्द करना।अलसुबह इसलिए खोलना कि ताश पीटने वालों और दारू पी अपना मनोरंजन करने वालों को धूप या बारिश में बाहर खड़े हो इंतज़ार ना करना पड़े।यू नो?  इंतज़ार करना ही सबसे मुश्किल काम होता है।...अब अगर माशूका-वाशूका का इंतज़ार करना पड़े तो कोई करे भी।...
अब यहाँ उनकी माशूका याने ताश की गड्डी या दारू की बोतल...अद्धा पव्वा तो उनके खीसे में पहले से ही मौजूद होता है तो फिर इंतज़ार कौन कम्बख्त करता फिरे?

असल में सरकारी बाबुओं ने एक सोची समझी रणनीति के तहत इस 'ग़्राम सेवक' नामक चमचे की रचना की जो बिना किसी लाग-लपेट के उनके उल्लू को सीधा करता रहे।और ये सब इस तरह किया गया कि इस से देश और देश की किसान लॉबी में सीधे-सीधे ये संदेश गया कि यह 'ग्राम सेवक' किसानों के बीच का है और उनके हालात को...उनकी परेशानियों को समझ कर उनका हल ढूँढने में सक्षम है।

"सही ग्राम सेवक वो   जो सेवा कर   दिल जीत

खेत की   खलिहान की   आवाम की  सबकी पीड़ा हरे"

खैर!...ये तो हुई 'ग्राम सेवक' शब्द की सरकारी परिभाषा लेकिन असलियत इसके बिलकुल ही उलट है।असलियत में ग्राम सेवक वो होता है जो सरकारी एड का...सरकारी फण्डों का एक-एक ग्राम तक नोच ले..लूट-खसोट ले।कहने को तो लिखत्तम में उसके काम कुछ और होते हैँ और बखत्तम में कुछ और...जैसे सरकारी तौर पे तो इनका काम होता है....

  • ग्राम पंचायतों के रिकार्ड मेनटेन रखना..उनके बही-खाते अप टू डेट रखना वगैरा वगैरा लेकिन असल में पहले वो अपनी सेहत...अपना स्टैंडर्ड...अपना बैंक बैलैंस मेनटेन करता है और अपनी आमदनी को एकदम एकूरेट याने के अप टू दा मार्क रखता है।
  • उसका दूसरा काम होता है पंचायतों की महीने भर में हुई बैठकों का ब्योरा रखना लेकिन उसका इंटरैस्ट इन कामों के बजाय इस सब में होता है कि...फलाने फलाने पंच ने इस महीने कितने रुपए कूटे और कितने नहीं।
  • उसके जिम्मे एक और निहायत ही ज़रूरी काम होता है कि वो ग्रामीण विकास और उन्नति के कार्यक्रमों को सुचारू रूप से लागू करने में ग्राम पंचायत की हरसंभव मदद करे।तो इसके लिए वो(ग्राम सेवक) और पंच दोनों अपने विकास और अपनी उन्नति के लिए एक दूसरे की पूरी ईमानदारी...मेहनत और लगन के साथ जी भर मदद करते हैँ।
  • ग्राम सेवक का एक और काम होता है कि वो 'पंचायत' और 'बी.डी.पी.ओ' के बीच में बिचौलिए की तरह काम करे।तो इस काम को बखूबी पूरा करते हुए वो इधर की बातें उधर और उधर की बातें इधर करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है।

लेकिन वो पुरानी कहावत सुनी है ना कि "कुत्ते को घी हज़म नहीं होता है"...ठीक वैसे ही किसानों को ये ग्राम सेवक हज़म नहीं होता है।हाज़मा खराब रहता है उनका हरहमेशा। पचा नहीं पाते हैँ कि कोई उन्हें...सरकार को  यूँ ही दिनदहाड़े ठगता चला जाए।वो कहते हैँ ना कि "एक तो करेला...ऊपर से नीम चढा"...एक तो कभी ना संतुष्ट होने वाला उनका  स्वभाव ...ऊपर से ये औरतों वाली चुगलखोरी की आदत।बाप रे!...कभी इसकी चुगली तो कभी उसकी चुगली...वो शिकायत करते हैँ कि...

  • ग्राम सेवक अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं करते और ज़्यादातर गैर हाज़िर रहते हैँ।...
    अरे!..ऐसी कौन सी खेत-खलिहानों में गोली चल रही है जो वो रोज़-रोज़ सावधान मुद्रा में हाज़िर हो अपनी ड्यूटी बजाएँ?
  • किसान कहते हैँ कि ग्राम सेवक पंचायत के साथ मिलकर सरकारी ऐड और सरकारी फण्ड का एक-एक ग्राम तक लूट कर देश को तबाह करने में लगे हैँ...बरबाद करने में लगे हैँ।लेकिन उनसे पूछो तो ग्राम-मिलीग्राम नहीं बल्कि हर माईक्रोग्राम तक का उनका हक बनता है।आखिर कौन बक्श रहा है देश को? सभी तो लूटने-खसोटने में जुटे हैँ।तो ऐसे में ये कहाँ का इंसाफ है कि वो अकेला  साधू-महात्मा बन दूर बैठे खाली तमाशा देखता रहे?

खैर ये सब शिकवे-शिकायतें तो लगी ही रहेंगी लेकिन इनके चक्कर में कहीं असली बात ना छूट जाए कि आज के आधुनिक युग में नारी की शक्ति को...नारी की महत्ता को नकारा  नहीं जा सकता।वो कहते हैँ ना कि हर सफल आदमी के पीछे एक नारी का हाथ होता।ये सच्चाई ही तो है कि वर्तमान सरकार के पीछे 'सोनिया गाँधी' का हाथ है...इसलिए ये चल रही है।

पुरानी सरकारों ने भी नारी जाति की महत्ता को पहचाना और उसका  पूरा सम्मान करते हुए उसे 'ग्राम सेविका' के पद पे सुशोभित किया।जहाँ इनका काम....

  • लिपस्टिक पाउडर और बिन्दी लगा सजने संवरने के अलावा अपने इलाके में महिला मण्डलों का निर्माण कर उन्हें चलाना होता है।लेकिन सार्वभौमिक तथ्य ये है कि भला अकेली बेचारी औरत इतना सब कैसे कर पाएगी?कैसे झेल पाएगी काम के भारी दबाव और टैंशन को?इसलिए उसके हर काम में उनके घर के मर्दों का पूरा-पूरा दखल रहता है और जो कुछ कुँवारी या चिर कुँवारी टाईप की होती हैँ तो उनकी मदद के लिए
    बुड्ढों से लेकर जवान तक...कुँवारों से लेकर शादीशुदा तक..
    यहाँ तक कि तलाकशुदा और रंडुए तक...सभी मदद को तत्पर रहते हैँ
    वैसे देखा जाए तो ये सब सही भी है क्योंकि इन बेचारी ग्राम सेविकाओं के जिम्मे मर्दों को रिझाने के अलावा महिला उद्धार जैसे कठिन शब्दों सरीखे  कठिन काम सौँप उनका जीना मुहाल कर दिया है सरकार ने।
  • सरकार कहती है कि ग्राम सेविकाएँ महिला मण्डलों के जरिए औरतों में जागरूकता ला उन्हें आत्मनिर्भर बनाएँ।लेकिन कौन कहता है कि महिलाएँ जागरूक नहीं हैँ?महिलाएँ आत्मनिर्भर नहीं हैँ?

आज की नारी सब जानती है...सब पहचानती है।विडंबना देखिए कि 'ग्राम सेविका' वो लेकिन सेविका जैसा एक भी गुण मुझे उनमें दिखाई नहीं देता क्योंकि...उसे सब पता रहता है कि...

  • कैसे अपने रूपजाल में..अपने मोहपाश में फँसा मर्दों को उल्लू बना अपने स्वार्थ सिद्ध किए जाते हैँ?
  • कैसे रोनी सूरत बना मर्दों को इमोशनली ब्लैकमेल कर मर्दों से बर्तन और कपड़े धुलवाए जाते हैँ?
  • कैसे भोली सूरत बना शापिंग मॉलों में मर्दों की जेबें खाली करवाई जाती हैँ?
  • कैसे दहेज के झूठे केसों में भोले पतियों को फँसा डराया-धमकाया जाता है?वगैरा वगैरा...

जय हो नारी शक्ति की...

जय हो 'ग्राम सेवक' की  और साथ ही जय हो 'ग्राम सेविका' की भी 

अरे हाँ!...याद आया किसानों को इन 'ग्राम सेवकों' से ताज़ी-ताज़ी शिकायत ये भी है कि ये आजकल बात-बेबात 'लाल झंडा' उठा हड़ताल पे जा इधर-उधर की हाँकने के बजाय काम ठप्प करने में ज़्यादा रुचि...ज़्यादा इंटरैस्ट लेने लगे हैँ।वैसे आप ये बताएँ कि वे पहले ही बैठ के कौन सी घुय्यियाँ ही छीला करते थे जो अब आपको तकलीफ होने लगी।क्या आपके ऐतराज़ के चलते वो हड़ताल पे भी ना जाएँ?क्या उन्हें आपके इस सड़ेले समाज में जीने का हक नहीं?

"क्या कहा?...नहीं?"....

"हद हो यार आप भी!....यहाँ अपने हिन्दुस्तान में जो कर्मचारी अपने जीवन मे कभी हड़ताल पे ना गया हो उसे किसी भी हालत में सच्चा देशभग्त नहीं माना जा सकता। इसलिए आप इस बारे में इलज़ाम लगाना तो छोड़ ही दें कि 'ग्राम सेवक' आलसी हैँ...काम नहीं करना चाहते वगैरा वगैरा।कुछ पता भी है कि हाथ में झण्डा लगा"सरकार...हाय-हाय... सरकार...हाय-हाय" के नारे लगाने में गला कैसे सूख के सिकुड़ जाता है?...कैसे बाज़ुएँ अकड़ के दोहरी हो जाती हैँ?...कैसे सीना पिचक के पस्त हो जाता है?आपको तो इन हड़तालियों की हिम्मत की दाद देनी चाहिए कि वो ताश-बीड़ी और तीन पत्ती का लालच छोड़ कड़कती धूप में प्रशासन से...मैनैजमैंट से दो-दो हाथ कर अपने हक की लड़ाई लड़ रहे होते हैँ।इसलिए आपको तो चाहिए कि आप अपने सब वैर-भाव भुला के इन बेचारे मज़लूम 'ग्राम सेवकों'  का साथ दें और ज़ोर से जयकारा लगाएँ 

"जय हो कृपा निधान....आँधी में उड़ते तूफान की"...

"जय हो भारतीय संविधान की"

***राजीव तनेजा***

 

नोट:इस लेख को लिखने की प्रेरणा मुझे श्री अविनाश वाचस्पति जी से मिली

 

Rajiv Taneja

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