***राजीव तनेजा***
"सुनो"...
"ये 'ट्यूब' कितने की आती है?"....
"बूत्था(चेहरा) चमकाना है कि दाँत मंजवाने हैँ?"...
"क्यों?...मेरे चौखटे को क्या हुआ है?"...
"अच्छा-भला तो है"...
"और दाँत?...दाँत देखे हैँ कभी आईने में?"...
"क्यों?...दाँतो में मेरे क्या कमी दिख गई जनाब को"....
"अच्छे भले मोतियों जैसे तो हैँ"...
"तो मैँने कब कहा कि मोती सिर्फ सफेद ही हुआ करते हैँ?"...
"तुम्हारा मतलब मेरे दाँत पीले हैँ?"....
"ऐसा मैँने कब कहा?"...
"तुम क्या मुझे घसियारिन समझते हो जो मैँ तुम्हारी इन आड़ी-तिरछी बातों का मतलब ना समझूँ?"....
"सब समझती हूँ मैँ...तुम्हारा इशारा कहीं और होता है और निशाना कहीं और"...
"तो मैँने क्या गलत कह दिया?"...
"क्या तुम्हारे दाँतों में हल्की सी 'ऑफ व्हाईटिश' टोन नहीं है?"...
"है"...
"तो?"...
"उससे क्या फर्क पड़ता है?"...
"फर्क क्यों नहीं पड़ता?"...
"आज ज़रा से पीले हैँ...ध्यान नहीं रखोगी तो कल को सुनहरे होंगे और फिर भूरे हो बदरंग होते देर ना लगेगी"...
"और वैसे भी बच्ची नहीं हो तुम कि तुम्हें डांट-डपट के ज़बरदस्ती वाश-बेसिन के आगे खड़ा कर ब्रश करवाया जाए"....
"अच्छा!...तो अब तुम मुझे डांटोगे?"....बीवी कमर पे हाथ रख चिल्लाती हुई बोली
"ऐसा मैँने कब कहा?"....
"कहने में कोई कसर छोड़ी भी है?"...
"अरी भागवान!....कितनी बार प्यार से समझा चुका हूँ कि दिन में कम से कम तीन दफा ब्रश किया करो लेकिन मेरे कहे का तुम पे कोई असर हो...तब तो"...
"हुँह!...तीन दफा ब्रश किया करो"...
"और तो जैसे मुझे कोई काम ही नहीं है?"...
"तुम्हारे फायदे की बात करो तो भी मुश्किल...ना करो ...तो भी मुश्किल"...
"कोई ज़रूरत नहीं है मेरे फायदे की सोचने की...अपना अच्छा-बुरा मैँ खूब समझती हूँ"....
"हुँह!...बड़े आए मेरा फायदा करवाने वाले"...
"खुद तो नुकसान पे नुकसान करते रहे पूरी ज़िन्दगी"....
"अब चले हैँ दूसरों का उद्धार करने"...
"अरे!..मेरा बैड लक मुझे कामयाबी पाने से हमेशा रोकता रहे तो इसमें मैँ क्या करूँ?"...
"स्साला!...हमेशा मुझसे दो कदम आगे चलने की होड़ में रहता है"...
"कौन?"...
"मेरा बुरा वक्त...और कौन?"....
"तो क्या डाक्टर कहता है कि कभी 'भलस्वा' तो कभी 'गुड़गांवा' तो कभी 'पानीपत' जा के डेरा जमाओ"...
"अरी भागवान मेरे दाहिने पांव के नीचे तिल है"...
"तो?"...
"मेरे पैर में चक्कर है"...
"सब बेकार की बात है"...
"अरे नही!...इसीलिए तो मैँ एक जगह टिक के नहीं बैठ सकता"...
"लेकिन चिंता ना कर...लौट के बुद्धू घर को आ चुका है"...
"मेरा अच्छा वक्त बस अब आया ही समझो"...
"इतने साल तो हो गए देखते-देखते....पता नहीं कब आएगा"...
"अरे!...कभी ना कभी तो घूरे के दिन भी फिरते हैँ"....
"परेशान ना हो...अब देर नहीं है अच्छा समय आने में....इसीलिए तो सब पंगे छोड़ के वापिस 'नांगलोई'...अपने अड्डे पे आ गया हूँ कि नहीं?"....
"यहाँ अपनी खुद की जगह है...ना कोई किराया और ना ही किसी और किस्म का ऊटपटांग खर्चा"...
"जो बचना है...अपने लिए...खुद के लिए बचना है".....
"वो सब तो ठीक है लेकिन कभी-कभी मुझे ये लगता है कि तुम तो मुझे बिलकुल भी प्यार नहीं करते"...
"अरे जानू!...मैँ तो तुम्हें इतना प्यार करता हूँ...इतना प्यार करता हूँ कि बस पूछो मत"....मैँ दोनों बाहें फैला प्यार का साईज़ सा बताता हुआ बोला
"तो फिर तुम हर समय मेरी बुराई क्यों करते रहते हो?....
और तो किसी को मेरे अन्दर कोई कमी नहीं दिखती"...."तो क्या कोई तुम्हारी तारीफ भी करता है?"...
"छत्तीस हैँ!...किस-किस का नाम बताऊँ?"बीवी पंजा फैला आँखे नचाती हुई बोली...
"फिर भी!...पता तो चले"....
"अभी परसों ही की लो...बगल वाले 'शर्मा जी' कह रहे थे कि....
"संजू जी!..जब-जब आप हँसती हैँ तो ऐसे लगता है कि जैसे मोती झड़ रहे हों"...
"हाँ!...कमज़ोर ही इतने हैँ कि अब झड़े..कि अब झड़े"...
"तुम तो बस ऐसे ही ऊट पटांग बकते रहा करो?"...
"बक नहीं रहा हूँ...सही कह रहा हूँ"....
"जा के समझाओ उस 'शर्मा' के बच्चे को कि दूसरों की बीवियों को लाईन मारना बन्द करे और अपने चश्मे का नम्बर किसी अच्छे ऑप्टीशियन से चैक करवाए"...
"स्साले!...को नए-पुराने माल में फर्क दिखाई देना बन्द हो गया है"....
"तो मैँ तुम्हें बुढिया दिखती हूँ?"...बीवी फिर कमर पे हाथ रख चिल्लाई.
"ऐसा मैँने कब कहा?"...
"कहा तो नहीं लेकिन क्या तुमने मुझे उल्लू समझ रखा है?"...
"अरे!..मैँ तो उस 'शर्मा' के बच्चे की बात कर रहा था कि....
स्साला 'ठरकी' ना हो किसी जगह का तो"...
"बुढापे में हाथ को हाथ नहीं सूझता है और ये चला है लाईन मारने"...
"हाँ!...लाईन मारता है लेकिन उसे जो कहना या करना होता है...साफ-साफ तो करता है"...
"तुम्हारी तरह नहीं कि दिल में कुछ और....दिमाग में कुछ और"...
"क्यों?...मैँने क्या गलत कह दिया...या...कर दिया?"...
"रहने दो...रहने दो...सुबह-सुबह मेरी ज़ुबान खुलवा क्यों अपनी मिट्टी पलीद करवाते हो?"...
"नहीं!...जब इतनी खुल ही गई है तो बाकि की कसर भी क्यों छोड़ती हो?"...
"निकाल लो अपने दिल की भड़ास और बक डालो आज वो सब..जो तुम्हारे दिल में है"...
"वो जो उस दिन पार्टी में भविष्य बांचने के नाम पे तुम मेरी सहेली 'शिप्रा' के हाथ को बार-बार सहला रहे थे...वो क्या था?"...
"तो यूँ कहो ना कि तुम्हें जलन हो रही है"...
"हुँह!...जले मेरी जूती"...
"अरे मेरी माँ!...मैँ तो बस ऐसे ही...ज़रा सा मज़ाक करने के मूड में था"....
"हाँ-हाँ!...अब तो मैँ तुम्हें माँ ही दिखूँगी....वो कमीनी जो मिल गई है"...
"मेरी ही गल्ती है जो मैँने उस करमजली को तुमसे इंट्रोड्यूस करवाया"....
"सब मेरी ही गल्ती है"...
"लेकिन उस कलमुँही को तो सोचना चाहिए था कि डायन भी हमला करने से पहले आजू-बाजू के सात घर छोड़ देती है".
"अरे यार!...तुम तो बुरा मान गई"...."मैँ तो बस ऐसे मज़ाक-मज़ाक में ट्राई कर के देख रहा था कि सैट-वैट भी होती है कि नहीं"....
"तुमने उसको सैट करके आम लेने हैँ?"....
"अरे यार!...तुम्हारे मुँह से ही तो कई बार उसकी तारीफ सुनी थी"....
"तो?"....
"तो यही चैक कर रहा था कि बात सच में सच्ची है या फिर तुम ऐसे ही हवाई फॉयर कर रही थी"...
"कोई ज़रूरत नहीं है मेरी किसी भी सहेली के फाल्तू मुँह लगने की"....
"मैँ?...और तुम्हारी इन पान-गुटखा चबाती सहेलियों के मुँह लगूँ?"...
"सवाल ही नहीं पैदा होता"...
"तो फिर वो उस से चिपक-चिपक जो बातें कर रहे थे...वो क्या था?"....
"अरे!...सिर्फ बात ही तो कर रहा था"....
"कौन सा उसे ब्याह के घर ला रहा था?"...
"ला के तो देखो...टाँगे ना तोड़ दूंगी उसकी"...
"अरे!...ज़रा सा फ्लर्ट क्या कर लिया?....तुम तो बुरा मान के बैठ गई"...
"मालुम है मुझे!...इस उम्र में 'निकाह' या 'ब्याह' नहीं बल्कि सिर्फ फ्लर्ट ही हुआ करते हैँ"...
"गलत!....बिलकुल गलत"...
"ये तुमसे किस गधे ने कह दिया"...
"क्यों?....कहना या सुनना किससे है?....मुझे खुद पता है"...
"कितनी बार समझा चुका हूँ कि रोज़ाना सुबह अखबार पढने की आदत डालो"....
"इससे दीन-दुनिया में क्या चल रहा है...इसका पता रहता है"...
"लग गए ना फिर मेरी नुक्ताचीनी करने?"...
"अच्छा!...चलो बताओ क्या चल रहा है तुम्हारी इस दीन-दुनिया में?"...
"अभी कुछ दिन पहले की ही तो खबर है कि काठमांडू की जेल में बन्द चौसंठ साल के चार्ल्स शोभराज ने इसी दशहरे को अपनी बीस वर्षीय प्रेमिका से ब्याह रचाया है"...
"इसमें क्या है?...फिरंगी आदमी है...जब चाहे...जहाँ चाहे ब्याह कर अपनी ठरक ठण्डी करता फिरे"...
"हाँ!...चाहे तो ब्याह ना भी करे"....
"लेकिन उसकी देखादेखी हर कोई बेहय्याई पे उतर आए...ऐसा भी तो ठीक नहीं"...
"ओ.के...ओ.के मैडम जी"...
"तुम सही...मैँ गलत"...
"मैँ कभी गलत भी हुई हूँ?"...
"ना!...कभी नहीं"....
हाँ!...अब बताओ...कौन सी ट्यूब के दाम पूछ रही थी तुम?"...
"पैप्सोडैंट या फिर बोरोलीन?"....
"वो वाली नहीं रे बाबा"...
"तो फिर?"...
"अरे!..वो..जिस से चमचम चमकती हुई रौशनी पैदा होती है"...
"तो ऐसे बोलो ना"...
"बताओ!...किसका दाम बताऊँ?"...
"'फिलिप्स'....'सिलवैनिया' या फिर 'राम-लक्ष्मण'?"....
"राम-लक्ष्मण...माने?"..
"अरे!...'राम-लक्ष्मण' याने के 'लक्सराम'"...
"ओह!...अच्छा"....
"कोई भी हो...क्या फर्क पड़ता है?"....
"तुम बस दाम बताओ"...
"क्यों?..खराब हो गई क्या?"....
"अभी दस-बारह दिन पहले ही तो बदलवाई 'बिजली पहलवान' से"...
"बिजली पहलवान?"....
"लेकिन वो तो नाटा सा...सींकिया सा...मरियल सा है"....
"वो क्या खाक पहलवानी करेगा?"...
"अरे!..बदन पे ना जाओ उसके"...
"डील-डौल ना हुए तो क्या?...गज़ब की...चीते सी फुर्ती है पट्ठे में"...
"आज भी याद है मुझे...वो तपती दोपहरी में...सावन का...बिना बारिश वाला महीना....जब धूल भरी आँधी चल रही थी...ऐसे में उस 'चने-मुरमुरे' बेचने वाले 'पलटूद्दीन' ने बीचोंबीच सड़क के कीचड़ और गोबर से लथपथ हो अपने से दुगने वज़न के 'रामनिवास' को गज़ब की पलटी मारते हुए चारों खाने चित्त किया था"...
"रामनिवास को तो मैँ जानती हूँ लेकिन ये 'पलटूद्दीन' कौन?"...
"अरे!..इसी 'पलटूद्दीन' को तो अब सारा मोहल्ला 'बिजली पहलवान' के नाम से पुकारता है"...
"ओह!...लेकिन वो तो 'चने-मुरमुरे' बेचता था ना?"...
"अरे!...जब नाम 'बिजली पहलवान' रखा गया तो काम भी बदल लिया"....
"दर असल !...बचपन में कई बार बिजली चोरी के चक्कर में खंबे पे चढ खूंटी फँसाते-फँसाते वो खुद भी बिजली के झटके खाने का आदि हो चुका था"...
"तो?"....
"तो क्या?.....इससे बेहतर और भला क्या काम रहता उसके लिए?"....
"एक मिनट!...इसे तो शायद मैँ भी जानती हूँ"....
"कैसे?"....
"एक मिनट!...सोचने दो"....
"हाँ!...याद आया"...
"तुम्हारे इस 'पलटूदीन' का असली नाम 'देवी प्रसाद' है"...
"तुम्हें कैसे पता?"...
"अरे वो बगल वाले 'चुन्नू' की मौसी बता रही थी कि उनके मोहल्ले में एक रिक्शेवाला हुआ करता था 'देवी प्रसाद' नाम का"...
"तो?"....
"उसे ढंग से रिक्शा चलाना आता नहीं था.....इसलिए बार-बार पलट जाता था"....
"बस!...लोगों ने उसका मज़ाक उड़ा उसे 'पलटू राम' कहना शुरू कर दिया"...
"तुम्हें गल्ती लगी है..वो कोई और होगा"....
"ये 'पलटू राम' नहीं बल्कि 'पलटूद्दीन' है और हिन्दू नहीं बल्कि मुस्लमान है"...
"नहीं!...ये हिन्दू है"....
"तुम्हें इतना यकीन कैसे है?"..
"मैँ गारैंटी से कह सकती हूँ"...
"कैसे?"....
"अरे कैसे क्या?..जब-जब इसका रिक्शा पलटता होगा तब इसका चेहरा दुखी हो दीन रूप धारण कर लेता होगा"... सो!...लोगों ने पलटू के साथ दीन और जोड़ इसे 'पलटूराम' से 'पलटूदीन' बना दिया"....
"ओह!..काफी इंटरैस्टिंग कहानी है"....
"अरे!...अभी तुमने पूरी कहानी सुनी ही कहाँ है?"...
"इसके बारे में तो मौसी और भी कहानी सुना रहे थी"....
"वो क्या?"...
"यही कि बचपन में कोई इसे आर्य समाज मन्दिर की सीढियों पर रोता-बिलखता छोड़ गया था"...
"ओह!...
"व्यवस्थापकों को दया आ गई और उन्होंने इसे वहीं रख लिया"...
"गुड!...वैरी गुड"...
"लेकिन इसका मन किसी एक जगह ना लगा"...
"कभी इस मन्दिर तो कभी उस मन्दिर में अपना डेरा जमाता रहा"...
"रंग काला होने की वजह से लोगों ने 'कलुआ' कह पुकारना शुरू किया"...
"कलुआ!....वाह क्या नाम है"....
"लेकिन इसका नाम तो 'देवी प्रसाद' है ना?"...
"पता नहीं लोगों ने कितने नाम बदले इसके?"...
"कोई इसे 'कल्लू' ..तो कोई इसे 'कल्लन' तो कोई इसे 'कालिया' कह के पुकारता था"
"लेकिन ये 'देवीप्रसाद' नाम इसे कैसे मिला?"...
"सुना है!...मन्दिर वगैरा जागरण के वक्त इसके अन्दर 'देवी' प्रगट हुआ करती थी और ये ऐसा तांडव करता था कि पूछो मत"..
"ओह!...इसी लिए लोग इसे 'देवी प्रसाद' कहने लग गए होंगे"...
"नहीं!...पुकारते तो सब इसे 'देवी'...'देवी' ही करके थे"...
"फिर ये 'प्रसाद' नाम का टाईटल इसके साथ कैसे जुड़ गया?"....
"एक दो बार मन्दिरों में ये दूसरे भिखारियों का प्रसाद चुराते हुए पकड़ा गया तो सब इसे 'देवी प्रसाद' कहने लग गए"...
"वाकयी काफी रोचक कहानी है"....
"लेकिन तुम्हारा तो ये लंगोटिया यार है ना?"...
"हाँ!...है तो?"...
"तुम्हें इसने कभी अपनी कहानी नहीं बताई?"...
"अरे!...कुछ बातें ऐसी होती हैँ जिनका पर्दे में रहना ही अच्छा होता है"...
"हाँ!...ये तो है"...
"खैर छोड़ो...हमें क्या?"...
"तुम बताओ!...कब खराब हुई?"...
"क्या?"...
"ट्यूब...और क्या?"...
"अरे नहीं!...खराब कहाँ?"....
"अपनी तो सभी ट्यूबें एकदम भली-चंगी चकाचक है".
"तो फिर ऐसे ही बेकार में मोल-भाव पूछ के मेरे दिमाग का दही क्यों कर रही थी?"...
"ऐसे ही"...
"ऐसे ही?...मतलब?"...
"कोई तो वजह होगी"...
"अरे यार!...नॉलेज के लिए पूछ रही थी"...
"तुम कभी घर पे ना हुए तो"...
"पता तो होना चाहिए कम से कम"..
"कभी ऐसा हुआ है कि मैँ तुम्हारे बिना घर से कहीं बाहर गया हूँ?"...
"अच्छा छोड़ो!...और ये बताओ कि ये 'चोक' वगैरा कितने की आती होगी?"...
"हुण्ण 'चोक' नूँ केहड़ी गोली वज्ज गई?"...
"होना क्या है?...कुछ भी तो नहीं"...
"तो फिर?"....
"व्वो...दरअसल...
"क्या हुआ?"...
"तुम्हारी ज़बान लड़खड़ा के 'चोक' क्यूँ होने लगी?"....
"अरे नहीं बाबा!...मैँ तो बस ऐसे ही...
"नॉलेज के लिए ही पूछ रही थी ना तुम?"...
"हाँ"...
"सच-सच बताओ कि चक्कर क्या है?'...
"आज तुम कभी 'ट्यूब' पे ..तो कभी 'चोक' पे क्यूँ फिदा हुए जा रही हो?"..
"वो दरअसल क्या है कि..आज के अखबार में इश्तेहार आया है कि..."घर बैठे 'चोक-ट्यूब' उद्योग लगाओ और मनचाहे पैसे कमाओ"...
"तो तुम भी लाखों कमाने की सोचने लगी?"...
"मैँ क्या?..अपने मोहल्ले की 'पिंकी'.....'प्रीति' और 'प्रिया' समेत 'सुनीता' भी यही सोच रही है"....
"व्हाट ए जोक?"...
"तो इसमें बुरा ही क्या है?"...
"तुम?...और फैक्ट्री?"...
"ही....ही....ही....
"तुम औरतें लगाओगी ये 'ट्यूब-श्यूब' का कारखाना?"...
"क्यों?...हैरत क्यों हो रही है तुम्हें?"...
"हम क्यों नहीं लगा सकती?"...
"अरे मेरी जान!...ये कोई 'भिण्डी'....'तोरई' या 'करेले' की तरकारी नहीं है कि बस काट-कूट के तड़का लगाया और हो गया काम-तमाम"....
"तो?"....
"जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है इसके लिए"...
"तो मेहनत करने से डरता ही कौन है?"...
"समझा कर!....कई तरह के चाहे-अनचाहे पंगों के दौर से गुज़रना पड़ता है"..
"मैँ सब मैनेज कर लूंगी"....
"ना...तुम्हारे बस का नहीं होगा ये सब"...
"एक्चुअली!..उनका तो मुझे कोई खास पता नहीं लेकिन तुम इस तरह के कामों के लिए बनी ही नहीं हो"..
"प्लीज़ यार!....
"अब इसमें 'प्लीज़ यार' क्या करेगा?"...
"कह तो दिया ना एक बार कि तुम एक औरत हो और औरत होने के नाते तुम किसी भी कीमत पर ये काम नहीं कर सकती"...
"तो क्या किसी 'कठमुल्ला' ने फतवा जारी किया हुआ है इस सब के खिलाफ?"...
"अरे नहीं बाबा!.... ना ही किसी मन्दिर के 'पंडे' ने और ना ही किसी मस्जिद के 'मौलवी' ने फिलहाल औरतों के काम करने पे ऐतराज़ किया है"...
"तो फिर किसी प्रकार की कोई रोक...बैन या पाबंदी लगाई हुई है अपनी सरकार ने कि औरते इस तरह के काम नहीं कर सकती?"...
"नहीं!...ऐसी तो कोई बात नहीं है"..
"'सोनिया जी' तो वैसे भी औरतो की हिमायती है"...
"उनकी सरकार ने क्या रोकना है?"...
"उल्टा सरकार तो आगामी बजट में औरतों को 'एक्साईज़' और 'सेल्स टैक्स' वगैरा से भी छूट देने की भी योजना बना रही है"....
"वाऊ!...दैट्स नाईस"....
"लेकिन...
"लेकिन क्या?"...
"कभी किसी औरत को ऐसे 'ट्यूब'...'अगरबत्ती' या 'चोक' जैसे काम करते नहीं देखा है ना"...
"इसलिए थोड़ा ऑकवर्ड सा फील हो रहा है"...
"हाँ-हाँ!...तुम मर्दों को तो हम औरतो का आगे बढ कामयाबी हासिल करना अजीब ही लगेगा"...
"नहीं यार!...तुम तो जानती ही हो कि मैँ औरतों का कितना बड़ा हितैशी हूँ"...
"छोटी...नन्ही बच्चियों से लेकर....कमसिन बालाओं तक और.... 'अधेड़' उम्र की महिलायों से लेकर उम्रदराज़ स्त्रियों तक ..मैँने कभी किसी को छोटा या ओछा नहीं समझा"...
"ऐक्चुअली!...जवानी के दिनों में सभी की मेरे साथ दोस्ती रह चुकी है"...
"ओह!..दैट्स नाईस....बहुत बढिया"...
"लेकिन फिर तुम मुझे काम करने से रोकना क्यों चाहते हो?"...
"अरे यार!...फैक्ट्री वगैरा चलाने में सौ लफड़े होते हैँ...कभी पार्टियों से निबटो तो कभी स्टाफ से...कभी बिजली की चोरी करो तो कभी एक्साईज़ वालों की जेब गर्म करो"....
"और ऊपर से ये लेबर वाले इतने मुँहफट होते हैँ कि पूछो मत"...
"अरे!..तुम नहीं जानते...शादी से पहले मैँ अपने इलाके की सबसे बड़ी मुँहफट रह चुकी हूँ"...
"ओह!...रियली?"...
"और नहीं तो क्या"....
"दैट्स नाईस"....
"तीन बार तो मैँ कालेज में सैकेंड रनर अप भी रह चुकी हूँ"....
"मुँहफट होने में?"...
"नहीं!...बैस्ट वक्ता होने में"...
"गुड!...वैरी गुड"...
"लेकिन....
"अरे!...मेरी तरफ से तुम बेफिक्र और बेचिंत हो जाओ...जब कभी भी लेबर वालों ने मेरे साथ गलत तरीके से पेश आना है...मैँने उन्हें ऐसे-ऐसे सीधे और पुट्ठे ...सभी तरह के श्लोक सुनाने हैँ कि उनसे ना कुछ कहते बनेगा...और ना ही कुछ करते बनेगा"..
"लेकिन पहले कभी किसी औरत को ऐसे दो टके के लोगों के साथ मगजमारी करते नहीं देखा है ना"...
"पहले तो कभी किसी ने औरत को अंतरिक्ष में जाते भी नहीं देखा था"...
"आज औरत रिक्षा चलाने जैसे छोटे-मोटे काम से लेकर शिक्षा देने जैसे दिमाग वाले काम में और भिक्षा मांगने जैसे घटिया काम में सबसे अव्वल है"....
"अरे वाह!...'रिक्षा,शिक्षा और भिक्षा की तुमने क्या तुक मिलाई है"...
"तुम्हें तो सिम्पल हाउस वाईफ नहीं बल्कि एक कामयाब लेखिका होना चाहिए"...
"रहने दो...रहने दो...ये मस्काबाज़ी बन्द करो और सीधे-सीधे ये बताओ कि तुम मुझे अपना पर्सनल काम करने दोगे या नहीं?"...
"अरे यार!...समझा करो"...
"क्या समझूँ मैँ? कि जहाँ आज एक तरफ आम भारतीय नारी 'बस-ट्राम' से लेकर 'लोकोमोटिव' तक सब चला रही है और दूसरी तरफ मैँ हूँ कि घर में वेल्ली बैठ-बैठ अपना वजूद ही खोती जा रही हूँ"...
"अरे यार!...क्यों बात का बतंगड़ बनाने पे तुली हो?"..
"आज की नारी कहाँ से कहाँ पहुँच गई है और तुम चाहते हो कि मैँ कुँए की मेंढकी बन...जिसमें हूँ...उसी में संतोष कर लूँ?"....
"सच!...आज की नारी कहाँ से कहाँ पहुँच गई है"...
"साड़ी...सूटृ और दुपट्टा छोड़....जींस...कैपरी के रस्ते मिनी स्कर्ट तक जा पहुँची है"...
"तो अब तुम्हें हमारे पहनावे से भी दिक्कत होने लगी?"...
"अरे!...ये सब तो हम अपने लिए थोड़े ही पहनती हैँ...ये तो तुम मर्दों को लुभाने के लिए"...
"वोही तो....इतनी देर से मैँ यही तो समझाना चाह रहा हूँ मेरी जान ..कि कोई ऐसा काम करो जिसमें मर्दों को लुभा उनसे अच्छा खासा पैसा ऐंठा जा सके"
"सलाह तो तुम्हारी मुझे नेक लग रही है लेकिन.....
"एक अकेली अबला नारी...कैसे करे इतनी मगजमारी?"...
"अरे!...मैँ हूँ ना"....
"मेरे होते हुए अकेली कहाँ हो तुम?"..
"सच?"...
"मुच"...
"मैँने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे ऊँचा...और ऊँचा उठने के ख्वाबों को पूरा करने में तुम मेरा साथ दोगे"...
"अरे!..तुम बस हिम्मत तो करो...फिर देखती जाओ...मैँ क्या कमाल दिखाता हूँ"...
"देख लो!...बीच मंझधार में मेरा साथ ना छोड़ देना"...
"अरे!...मैँ कोई गैर नहीं बल्कि तुम्हारा पति हूँ"...
"इस नाते मैँ तुम्हारा साथ नहीं दूंगा तो क्या उस कलमुँही 'शिप्रा' का दूंगा?"....
"हा...हा...हा"....
"नाम मत लो उस चुड़ैल का"....
"और तुम तो वैसे भी कमाने की बात कर रही हो...
"हाँ!...अगर गवाने की बात होती तो मैँ सोचता भी"...
"एक बात बताऊँ?"...
"क्या?"...
"अपनी शादी के वक्त...फेरे शुरू होने से पहले ही मैँने सदा तुम्हारा साथ देने का वचन ले लिया था"...
"ओह रियली?"....
"तुम कितने अच्छे हो"...
"लेकिन एक बात मेरे पल्ले अभी तक नहीं पड़ रही"....
"क्या?"....
"यही कि तुम जैसी माड्रन और बिन्दास लड़की को उन गँवारनों के साथ मिलकर ये ट्यूब या चोक जैसा घटिया काम करने की क्या सूझी?"..
"अरे!..ये सब तो मैँ तुम्हारा मन टटोलने के लिए कह रही थी और यही काम वो सब भी अपने-अपने पतियों के साथ कर रही हैँ"...
"क्या?"....
"दरअसल हमारे दिमाग की फैक्ट्री में नोट कमाने के ऐसे-ऐसे धांसू आईडिए घूम रहे हैँ कि बस पूछो मत"...
"कमाई इतनी होनी है कि गिनने की फुरसत नहीं मिलनी है"...
"अरे वाह!...फिर तो मज़े आ जाएँगे"..
"और नहीं तो क्या"....
"तो फिर क्या सोचा है तुमने?"....
"किस बारे में?"....
"यही कि कौन सा काम करना है?"...
"फिलहाल नहीं बता सकती".....
"क्यों?"...
"इट्स ए टॉप सीक्रेट"...
"लेकिन...
"समझा करो यार!...सहेलियाँ बुरा मान जाएँगी"....
"कसम है तुम्हें ओस में डूबी छतरी के नीचे बैठे कनखजूरे के तिरछे कान की जो तुमने मुझे सब कुछ सच-सच ना बताया"...
"इटस नॉट फेयर राजीव"...
"मैँ तुम्हारी अर्धांगिनी हूँ और अपनी बीवी को भला कोई इस तरह इमोशनली ब्लैक मेल करता है?"...
"तो इसका मतलब तुम नहीं बताओगी?"...
"ओ.के!...ओ.के बाबा...बताती हूँ लेकिन पहले तुम ये वादा करो कि तुम इस राज़ को राज़ ही रखोगे और किसी से कुछ नहीं कहोगे"...
"ओ.के"...
"कसम है तुम्हें भी झमाझम बारिश में पनघट पे भीगती पनिहारिन के उड़ते आँचल की जो तुमने इस बाबत किसी से एक शब्द भी कहा"...
"हाँ!...नहीं कहूँगा"...
"ऐसे नहीं!...कसम खाओ"...
"ओ.के....मैँ कसम खाता हूँ 'आन'...'बान' और 'शान' से जलते मुर्दों से भरे शमशान की कि ये राज़...ताज़िन्दगी राज़ ही रहेगा और मेरी मौत के बाद मेरी लाश के साथ ही स्वाहा हो जाएगा"...
"ओ.के"...
"तो फिर क्या सोचा है तुमने?"...
"अरे!...सोचने-वोचने का टाईम तो कब का निकल गया गया"...
"हम तो अपना जॉय़ंट वैंचर शुरू भी कर चुकी हैँ"....
"मतलब?"...
"मतलब यही कि अपना धन्धा तो मस्त चाल से दौड़ना भी शुरू हो चुका है"...
"कौन सा धन्धा?"...
"हम सहेलियों ने मिलकर फ्रैण्डशिप क्लब खोला है"....
"ओह!....गुड...वैरी गुड"....
"तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली"...
"वैसे...किस नाम से खोला है तुमने अपना ये क्लब?"...
"मस्ती फ्रैण्डशिप क्लब" के नाम से
"और टैग लाईन क्या रखी है?"....
"हमने 'टैग लाईन' रखी है...'मस्ती वही जो मिले सस्ती"...
"धत...तेरे की"...
"सस्ती?"....
"हुँह!...फिर क्या फायदा?"...
"अरे!...सिर्फ टैग लाईन है ये...लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए"...
"असल में तो हमने खाल उतार लेनी है अपने मैम्बरों की"...
"ओह!...मगर कैसे?"...
"पहले तो जिस किसी भी बकरे का फोन आता है...उससे से हम ऐसी-ऐसी नशीली बातें करती हैँ कि वो तुरंत हमारे क्लब का मैम्बर बनने को उतावला हो उठता है"...
"गुड!...वैरी गुड"...
"उसके बाद?"...
"उसके बाद हम उससे मैम्बर बनाने के नाम पर 501/- का शगुन अपने बैंक एकाउंट में डलवाती हैँ और उसके बदले में उसे तीन लड़कियों के फोन नम्बर देने का वायदा करती हैँ जिनसे वो मनचाही बातें कर सके"...
"देखो!..किसी का भी ऐसे-वैसे नम्बर देने से कहीं फँस-फँसा ना जाना"....
"अरे!..पागल समझ रखा है क्या हमें?"...
"हम किसी और का नहीं बल्कि अपने ही नम्बर बारी-बारी से अपने कस्टमर्ज़ को देती हैँ"....
"गुड!...वैरी गुड"...
"लेकिन बैंक खाते से भी तो तुम लोग पकड़ में आ सकते हो"...
"बिलकुल नहीं"...
"बैंक एकाउंट भी हमने बोगस आई.डी से खुलवाया हुआ है और पैसे निकालने के लिए हम बैंक नहीं जाएँगी बल्कि हर बार अलह-अलग ए.टी.एम कार्ड इस्तेमाल करेंगी"..
"एकचुअली!..आज सुनीता गई हुई है वो शास्त्री नगर वाले 'ए.टी.एम' से पैसे निकालने"...
"कुछ भी करो लेकिन अपना ध्यान रखना क्योंकि कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैँ"...
"चिंता क्यों करते हो?"...
"हम अपने खिलाफ कोई सबूत नहीं छोड़ रही हैँ"....
"गुड!...लेकिन लोगों तक तुम्हारे फोन नम्बर कैसे पहुँचते हैँ?"...
"अरे!....तुम तो जानते ही हो कि प्रीति ...'छत्तीसगढ' से ब्याह के यहाँ आई है और प्रिया...'आसनसोल' से और पिंकी....'राजस्थान' से तो सुनीता....'बहालगढ' से
और तुम 'धनबाद' से"...
"हाँ"...
"तो इस से क्या फर्क पड़ता है"...हम अखण्ड भारत के नागरिक हैँ और पूरा भारत हमारा है"....
"कोई भी कहीं से आ के कहीं भी बस सकता है"...
"सिर्फ 'कश्मीर' को छोड़ के"...
"हाँ"...
लेकिन इस से फर्क क्या पड़ता है?"...
"अरे!....इन गर्मी की छुट्टियों में हम सभी अपने-अपने मायके गई थी के नहीं?"...
"तो?"...
"वहाँ से हम सभी ने वहाँ के लोकल अखबारों में मित्रता सबँधी विज्ञापन छपवाए"...
"ओह!...लेकिन एक बार विज्ञापन देने से क्या होगा?"....
"ऐसे विज्ञापन तो लगातार छाए रहने चाहिए अखबारों के भीतरी पन्नों पर"...
"चिंता ना करो!....हम पूरे साल की पेमेंट एडवांस में ही दे आए हैँ"...
"अब वहाँ हमारे होने...ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा"...
"नियत तिथियों को अपने आप हमारे विज्ञापन छपते रहेंगे"....
"वाउ!...दैट्स नाईस"....
"अब अपने लगातार फोन घनघनाते रहेंगे...कभी 'सतना' से ...तो कभी 'पटना' से"...बीवी कमर मटकाती हुई बोली
"लेकिन फोन नम्बर से तो पकड़े जाने का डर है"....
"अरे इतनी पागल भी नहीं हैँ हम कि अपनी असली पहचान देकर फोन कनैक्शन लें"...
"तो?"...
"अरे!...वो सुनीता जो है उसने कुछ दिन के लिए एक मोबाईल की दुकान में काम किया था"....
"तो?"....
"बस वहीं से उसने कुछ लोगों की फोटो उड़ाई और उन्हीं के जरिए हमने फोन खरीद लिए"...
"लेकिन सिर्फ फोटो से क्या होता है?"....
"आई डी भी तो चाहिए होती है"....
"वो कौन सा मुश्किल काम है?"...
"उस मास्टर के बच्चे को फोटॉ थमाए और फी 'आई डी' के दो सौ रुपए दिए और हफ्ते भर में ही हमारे पास नकली वोटर कार्ड थे"...
"ग्रेट"...
"लेकिन तुम्हें ध्यान कैसे रहता है कि तुम्हारे क्लब का कौन मैम्बर है और कौन मैम्बर नहीं?"...
"मतलब?"...
"ये भी तो हो सकता है कि कोई एक आदमी मैम्बर बन के तुमसे लड़कियों के नम्बर ले ले और बाद में उन नम्बरों को पूरी दुनिया में बांट दे"...
"अरे!...हम तो पूरी दुनिया को चलाने चली हैँ...कोई दूसरा हमें क्या चलाएगा?"...
"मतलब?"...
"जो भी हमारा मैम्बर बनता है उसके मोबाईल नम्बर को रजिस्टर कर लेती हैँ और साथ ही ग्राहक को साफ-साफ बता दिया जाता है कि अगर वो इसी नम्बर से बात करेगा तभी लड़कियाँ..बात करेंगी वर्ना नहीं"...
"गुड...वैरी गुड"...
"तारीफ करनी पड़ेगी तुम्हारी कि क्या नायाब तरीका निकाला है".....
"करो...करो...जी भर तारीफ करो"....
"मैँ चीज़ ही ऐसी हूँ"...
"लेकिन एक बात समझ नहीं आ रही कि आखिर ये मैम्बर लोग बातें ही क्या करते होंगे?"....
"यकीनन...साफ सुथरी और अच्छी बातें तो नहीं करते होंगे"...
"बिलकुल"....
"अगर साफ-सुथरी और अच्छी बातें ही करनी हैँ तो भला इसके लिए कोई नोट क्यों फूंकेगा?"...
"ये बात भी है"...
"तुम्हारा मन मान जाता है हर किसी से ऐसी बातें करने के लिए?"...
"सच कहूँ तो खुद से ही घिन्न आने लगती है जब किसी पराए मर्द की अश्लील और गंदी बातें इन कानों में पड़ती हैँ लेकिन क्या करूँ धन्धा है ये हमारा और इसमें पैसे ही इतना है कि शर्म-वर्म सबको भूल जाना पड़ता है"...
"बात तो तुम ठीक ही कह रही हो और वैसे भी बड़े-बुज़ुर्ग कह गए हैँ कि जिसने की शर्म...उसके फूटे कर्म"...
"बिलकुल"...
"एक और कंफ्यूज़न दिमाग के भंवर में गोते लगा रहा है...तुम कहो तो बताऊँ?"...
"इसमें शर्माना कैसा?"...जो पूछना है...बेधड़क हो के पूछो"...
"क्या तुम्हारे क्लब के मैम्बरों का मन सिर्फ फोन पे बातें कर के भर जाता होगा?"..
"मतलब?"...
"मतलब कि उनका मन मिलने को नहीं करता होगा?"...
"भय्यी!...अगर उनकी जगह मैँ होता तो दूसरी बार में ही मुलाकात की ज़िद पकड़ लेता"...
"मन क्यों नहीं करता है?....ज़रूर करता है"...
"आखिर वो भी जीते-जागते इनसान हैँ और इस नाते उनका मन तो बहुत कुछ करने को करना चाहिए"..
"वोही तो"....
"तो ऐसी सिचुएशन को आप लोग कैसे हैण्डिल करती हो?"...
"क्या सचमुच.....
"ए मिस्टर!...क्या समझ रखा है तुमने हमें"...
"हम सभी अच्छे और खानदानी घरों से आई हैँ और इस नाते हमारे माँ-बाप ने हमें ऐसे घटिया संस्कार नहीं दिए हैँ "...
"छी!...छी...कितनी घटिया और ओछी बात कह दी तुमने अपनी पत्नी के लिए...छी..."...
"राजीव!...मैँ तो तुम्हें अच्छा-खासा ब्रॉड माईंडेड इनसान समझती थी"...
"मैँने तुम्हें क्या समझा और तुम क्या निकले?"...
"सॉरी डॉर्लिंग!...मेरी बातों से तुम्हें चोट पहुँची...मगर मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था"...
"मैँ तो बस ऐसे ही नॉलेज के लिए पूछ रहा था"...
"रहने दो...रहने दो...जानती हूँ कि तुम बात बदलने में कितने माहिर हो"...
"प्लीज़ यार!...ऐसी भी क्या नाराज़गी?"...
"मान भी जाओ"...
"ओ.के बाबा!...नहीं बताना है तो मत बताओ"...
"नहीं!...अब जब तुमने पूछ ही लिया है तो ज़रूर बताऊँगी"...
"दर असल जब कोई हम से मिलने की ज़्यादा ही ज़िद करता है तो हम उसे Rs.10,000/- से Rs.12,000/-तक और हमारे खाते में डालने के लिए राज़ी कर लेती हैँ"...
"वैरी क्लैवर"....
"कुछ एक तो और पैसे के नाम से ही बिदक लेते हैँ लेकिन कुछ एक रईसज़ादे ऐसे भी दिलदार होते हैँ कि तुरंत पैसा जमा कर देते हैँ हमारे एकाउंट में"...
"गुड...वैरी गुड"...
"उसके बाद?"...
"उसके बाद क्या?"...
"उसके बाद तो उसका नम्बर हमारे मोबाईलों से डिलीट हो चुका होता है और हम पराए मर्दों के फोन तो कभी भूल कर भी नहीं उठाती हैँ"...
"हा...हा...हा"...
"लेकिन तुम्हारा तो सिर्फ पाँच लड़कियों का ग्रुप है जबकि मर्दों की चॉयस तो बेहिसाब होती है"...
"मतलब?"...
"मतलब किसी का गाँव की 'ग्वालन' से बात करने का मन करता होगा तो किसी का शहर की एकदम 'मॉड कन्या' से"....
"हाँ!...किसी को 'ठेठ पंजाबन' चाहिए होती है तो किसी को 'अल्हड़ बिहारिन'...किसी को 'तेज़तर्रार बंगालन' चाहिए होती है तो किसी को 'मस्तमौली मराठन"...
"कोई 'हिन्दू' लड़की की डिमांड करता होगा तो कोई 'क्रिशचियन' की इच्छा भी जाहिर करता होगा"...
"कोई कोई तो 'मुस्लिम' लड़की की भी माँग करने लगते हैँ"....
"तो इस सब को तुम कैसे मैनेज करती होगी?"...
"अरे!...बहुत आसान है....जिस की जैसी डिमांड आती है...उसी हिसाब से उसके मोबाईल नम्बर को सेव कर लिया जाता है"...
"मैँ समझा नहीं"...
"अरे यार!...सिम्पल सी बात पता नहीं तुम्हारे भेजे में क्यों नहीं घुस रही?"...
"अगर किसी को 'पंजाबन' लड़की से बात करनी होती है तो हम उसका नम्बर 'रज्जो'...'जस्सी' वगैरा के नाम से सेव कर लेती हैँ ..और जिसका दिल 'क्रिशचियन' लड़की पे आया होता है तो हम उसका नम्बर 'जूली' या फिर 'सूज़ी' वगैरा के नाम से सेव कर लेती हैँ"...
"गुड!...वैरी गुड"...
"इससे हमें याद रहता है कि किससे क्या बन के बात करनी है लेकिन इस चक्कर में हम अपने असली नाम भी भूलने लगी हैँ"...
"वो भला क्यों?"...
"अरे!...एक ही दिन में हमें अपने नाम बीसियों बार बदलने पड़ते है...कभी किसी से 'सूज़ी' बन इंगलिश झाड़नी पड़ती है तो...अगले ही मिनट हमें 'विमलादेवी' बन किसी से'अवधी' और भोजपुरी' में बात कर उसे राज़ी कर रही होती हैँ"...
"ओह!...
"कई बार तो बड़ी ही फन्नी सिचुएशन पैदा हो जाती है"...
"वो भला कैसे?"...
"अरे!...जिससे हमें अँग्रेज़ी में बात करनी होती है उसके सामने हम असी-तुसी कर पंजाबी मार रही होती हैँ और जिसके सामने हमें 'हमार...तुम्हार...आवत...जावत' करना होता है...उस निपट गँवार के आगे हम 'Hi Buddy....Looking Gr8' कह अँग्रेज़ी झाड़ रही होती हैँ"...
"ओह!...
"चिंता ना करो...कुछ दिन में ही हम इस सब की हैबिचुअल हो जाएँगी...फिर हमें कोई दिक्कत नहीं होगी"...
"बस!...फिर पैसा ही पैसा बरसना है"...
"गुड!...इसे कहते हैँ जज़्बा"...
"अगर दिमाग तेज़ हो और इरादे नेक व मज़बूत हों तो कोई मंज़िल दूर नहीं रहती"...
"जी!...बिलकुल"...
"दाद देनी पड़ेगी तुम्हारी और तुम्हारी सहेलियों की जिन्होंने इतनी शानदार और जानदार स्कीम सोची पैसा बनाने की"...
"टट्टू!...सारा दिमाग मैँने लगाया और तुम मेरे साथ उनकी भी तारीफ कर रहे हो"...
"वो सब तो मेरी उँगलियों पे नाचने वाली महज़ कठपुतलियाँ हैँ"...
"जिस तरफ उँगली झुकाई मैँने...उस तरफ ही झुक जाना है उन्होंने"...
"ओह!...अगर ये सब सच है तो तुमने उस सुनीता की बच्ची को पैसे निकलवाने के लिए क्यों भेज दिया?"...
"क्यों?...इससे क्या फर्क पड़ता है?"...
"अरे वाह!...फर्क क्यों नहीं पड़ता?"...
"कल को वो बहाँ से निकलवाए बीस हज़ार और तुम्हें बता दे बारह हज़ार...तो तुम उसका क्या उखाड़ लोगी"...
"ओह!...ये बात तो मैँने सोची ही नहीं"...
"इसीलिए मैँ कहता हूँ कि अपनी मर्ज़ी से कोई काम ना किया करो"...
"अगर कुछ करना भी है तो घर में एक मर्द खाली निठल्ला बैठा है...उसकी कम से कम सलाह ही ले लो"...
"अरे!...इस काम में मर्द नहीं बल्कि लड़किया चाहिए होती हैँ"...
"तो?"...
"तो कहाँ से पैदा करती मैँ लड़कियाँ?"....
"अपनी मुन्नी तो वैसे भी अभी नासमझ है"...
"अरे!...बहुत बेरोज़गारी है अपने देश में"....
"छत्तीस धक्के खाती फिरती हैँ इधर-उधर नौकरी की तलाश में"...
"उन्ही में से बढिया सी आठ-दस को छाँट के रख लेते नौकरी पे"...
"ताकि तुम्हारे मज़े हो जाते?"...
"सब समझती हूँ मैँ...हर समय तुम्हारी नज़र पराई स्त्रियों पर ही रहती है"...
"अरी भाग्वान...कसम है मुझे मरियल बिल्ली के डर से पलंग के नीचे छुपे हुए दढियल हैवान की जो मैँने तुम्हारे अलावा किसी और को ताका भी तो"...
"ओ.के!...फिर ठीक है"...
"लेकिन तुम भी कसम खाओ खंबा नोचती खिसियानी बिल्ली के टूटे नाखूनों की जो तुम मेरे अलावा किसी भी पराए मर्द की तरफ आकर्षित भी हुई तो"...
"ओ.के...ओ.के मेरी जान"...
"अरे!...उठो.....सुबह-सुबह ये नींद में बड़बड़ाते हुए कैसी-कैसी अजीब सी कसमें खा रहे हो और मुझे खिलवा रहे हो?"...
"ओह!...
"ओह!...मॉय गॉड...ये सब तो सपना था"...
"क्यों?...क्या हुआ सपने में?"...
"क्कुछ नहीं"...
"सुनो!...बाहर चल के बॉलकनी में बैठो...मैँ चाय लेकर आती हूँ"...
"हम्म....
"सुनो"...
"क्या?"...
"एक बहुत बढिया आईडिया आया नोट बनाने का"...
"बनाने का?"...
"हाँ!...पागल होते हैँ वो लोग जो नोट कमाते हैँ....हमारे पास तो नोट अपने आप चल कर आएँगे"...
"अरे वाह!...फिर तो मज़ा आ जाएगा"...
"बिलकुल"...
"आप बाहर चल के बैठो तो सही...वहीं चाय की चुस्कियों के बीच आराम से बात करते हैँ"...
"ठीक है"...
"और हाँ!...फ्रंट पेज की खबर को विस्तार से पढना"....
"क्यों?...क्या लिखा है उसमें?"...
"कलयुग आ गया है अब तो...घोर कलयुग"...
"आखिर हुआ क्या?"...
"होना क्या है?"...यहीं आज़ाद पुर के लूसा टॉवर में एक दफ्तर पकड़ा गया है...जहाँ से दो लड़के और पाँच लड़कियाँ अरैस्ट हुई हैँ"...
"ज़रूर चकला चला रहे होंगे"...
"नहीं"...
"तो फिर?"...
"फ्रैण्डशिप क्लब चला रहे थे"...
"ओह!...
"पुलिस को शिकायत मिली और सब के सब धरे गए"...
"अच्छा हुआ...स्साले के मकान...दुकान...बैंक एकाउंट सब के सब सीज़ हो गए"...
"अब चक्की पीसता फिरेगा कई साल"...
"पता नहीं उसके पीछे से उसके बीवी-बच्चों का क्या होगा?"...
"सबको रातोंरात करोड़पति बनने की पड़ी है"....
"पता नहीं!...लोग मेहनत कर हलाल की खाने को राज़ी क्यों नहीं हैँ"...
"हाँ!...तो तुम किस स्कीम के बारे में बता रहे थे?"...
"अरे!...व्वो...वो तो कुछ नहीं...मैँ तो बस ऐसे ही मज़ाक कर रहा था"...
"खाओ मेरी कसम"...
"कसम है मुझे ओस में डूबी छतरी के नीचे बैठे कनखजूरे के तिरछे कान की"...
"नहीं जनाब!..तिरछे वाला कान तो ऑलरैडी मेरे लिए बुक है"....
"हाँ!....आप चाहें तो बेशक सीधे वाले कान की कसम खा सकते हैँ"...
"मुझे कोई ऐतराज़ नहीं"...
"हा...हा...हा"
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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+919213766753
3 comments:
वाह जी इतने दिनों के बाद भी वही ताजगी है आपके व्यंग्य में। शीर्षक भी अच्छा लगा। कसम कनखजूरे के तिरछे कान की पढकर मजा आ गया।
राजीव भाई
रातोंरात करोड़पति बनने की हवस में लोग अंधे हो चुके हैं यह निर्विवाद सत्य है
आपने सामयिक विषय को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया
आपको बधाई
बहुत सुन्दर लिखा है
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