मेरी छटी कहानी नवभारत टाईम्स पर

पहली कहानी- बताएँ तुझे कैसे होता है बच्चा

दूसरी कहानी- बस बन गया डाक्टर

तीसरी कहानी- नामर्द हूँ,पर मर्द से बेहतर हूँ

चौथी कहानी- बाबा की माया

पाँचवी कहानी- व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की

छटी कहानी-काश एक बार फिर मिल जाए सैंटा

 

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काश एक बार फिर मिल जाए सैंटा


25 Dec 2007, 1027 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम 

राजीव तनेजा , दिल्ली

बात पिछले साल की है। चार दिन बचे थे , त्योहार आने में। मैं मोबाइल से दनादन एसएमएस किए जा रहा था। क्रिसमस का त्योहार सिर पर था , लेकिन ये एसएमएस मैं अपने खुदगर्ज़ दोस्तों को या फिर मतलबी रिश्तेदारों को नहीं कर रहा था। इसे मैं उन रेडियो वालों को भेज रहा था , जो गानों के बीच - बीच में अपनी टांग अड़ाते हुए बार - बार एसएमएस करने की गुजारिश कर रहे थे। कह रहे थे कि फलाने - फलाने नम्बर पर ' जैकपॉट ' लिख कर एसएमएस करो तो सैंटा आपके घर आ सकता है ढेर सारे इनामात लेकर।

सो मैंने भी चांस लेने की सोची कि यहां दिल वालों की दिल्ली में लॉटरी तो बैन है ही , चलो एसएमएस ही सही। क्या फर्क पड़ता है ? बात तो एक ही है न। एक साक्षात जुआ है , तो दूसरा मुखौटा ओढ़े उसी के पदचिन्हों पर खुलेआम चलता हुआ उसी का कोई भाई - भतीजा। साले, यहां भी रिश्तेदारी निभाने लगे।

खैर , अपुन ने भी खूब सारा एसएमएस पर एसएमएस किया। सोचा , खुद ऊपरवाला आकर छप्पर फाड़ रहा है अपने तम्बू का और बम्बू समेत ही हमें ले जा रहा है शानदार व मालदार भविष्य की तरफ कि लै पुत्तर ! कर लै हुण मौजा ही मौजा। हो जाण गे हुण तेरे वारे - न्यारे। अब यह कोई ज़रूरी नहीं कि हमेशा तीर ही लगे निशाने पर। कभी-कभार तुक्के भी तो लग जाया करते हैं निशाने पर।

कोई हैरानी की बात नहीं है इसमें , जो इस कदर कौतूहल भरा चेहरा लिए मेरी तरफ ताके चले जा रहे हैं आप। क्या किस्मत के धनी सिर्फ आप ही हो सकते हैं ? मैं नहीं ? उसके घर देर है अंधेर नहीं। कुछ तो उसकी बे - आवाज़ लाठी से डरो। अब यूं समझ लो कि अपुन को तो सोलह आने यकीन हो चला है कि अपनी बरसों से जंग खाई किस्मत का दरवाज़ा अब खुलने ही वाला है। दिन में पच्चीस - पच्चीस दफा कैलिंडर की तरफ ताकता कि अब कितने दिन बचे हैं , पच्चीस तारीख आने में।

पच्चीस तारीख ?

अरे ! बुरबक्क , लगा दी ना टोक। हां ! पच्चीस तारीख। कितनी बार कहा है कि यूं सुबह - सुबह किसी के शुभ काम में अड़ंगा मत लगाया करो , लेकिन तुम्हें अक्ल आए तब न। पच्चीस बार पहले ही बता चुका हूं कि पच्चीस दिसम्बर को ही तो मनाया जाता है ' बड़ा दिन ' दुनिया भर में। आप हैं कि हर बार इसे ' बड़ा खाना ' समझकर लार टपकाने लगते हैं। पेटू इंसान कहीं के। ' बड़ा खाना ' तो होता है फौज में , लेकिन तुम क्या जानो ये फौज - वौज के बारे में। कभी राइफल हाथ में पकड़ कर भी देखी है ? छोड़ो ! अब लड़कियों की सी नाज़ुक कलाइयों को थामने को बेताब तुम्हारे हाथ क्या राइफल - शाइफल पकड़ेंगे ?

यू बेवकूफ सिविलियन , इन मेनकाओं का मोह त्याग दे और देश की फिक्र कर बंधुवर। हां, तो मैं कह रहा था कि जैसे - जैसे पच्चीस तारीख नज़दीक आती जा रही थी, मेरे एसएमएस करने की स्पीड में भी तेज़ी से इज़ाफा होता जा रहा था। कई हज़ार के तो मैं रीचार्ज करवा चुका था अभी तक। मालूम जो था कि जितने ज़्यादा एसएमएस , उतना ही ज्यादा होगा जीतने का चांस। सो भेजे जा रहा था धड़ाधड़ एसएमएस पर एसएमएस। अब तो मोबाइल में भी बैलंस कम हो चला था , लेकिन फिक्र किस कम्बख्त को थी ? लेकिन , सच कहूं तो थोड़ी टेंशन तो थी ही कि सब यार - दोस्त तो पहले से ही बिदके पड़े हैं अपुन से। फाइनैंस का इंतज़ाम कैसे होगा ? कहां से होगा ?

ऐसे वक्त पर अपने जीत बाबू की याद आ गई। बड़े सज्जन किस्म के इंसान हैं। किसी को ' ना ' नहीं कहा है उन्होंने आज तक। भले ही कितनी भी तंगी चल रही हो , लेकिन कोई उनके द्वार से खाली नहीं गया कभी। किसी पराए का दुख तक नहीं देखा जाता उनसे। नाज़ुक दिल के जो ठहरे। जो आया , जब आया हमेशा सेवा को तत्पर। इतने दयालु कि कोई गारंटी भी नहीं मांगते। बस तसल्ली के लिए घर , दुकान , प्लॉट या गाड़ी - घोड़े के कागज़ात भर रख लेते हैं अपने पास।

वैसे औरों से तो दस टका ब्याज लेते हैं महीने का , लेकिन अपुन जैसे पर्मानंट कस्टमर के लिए विशेष डिस्काउंट दे देते हैं। बस , बदले में उनके छोटे - मोटे काम करने पड़ जाते हैं , जैसे भैंसो को चारा डालना , उनके टॉमी को सुबह - शाम गली - मोहल्ले में घुमा लाना आदि। काम का काम हो जाता है और सैर की सैर भी। इसी बहाने अपुन का भी वॉक - शॉक हो जाता है। वैसे अपने पास अपने लिए भी टाइम कहां है ? यह तो बाबा रामदेव जी के सोनीपत वाले शिविर में उन्हें कहते सुना था कि सुबह - सुबह चलना सेहत के लिए फायदेमंद है। फायदे की बात और मैं न मानूं ? ऐसा हरजाई नहीं मैं। ऐसी गुस्ताखी करने की मैं सोच भी कैसे सकता था ?

सो अपुन ने भी सोच-समझकर अंगूठा टिकाया और अपने जीत बाबू से पांच टके ब्याज पर पैसा उठाकर धड़ाधड़ झोंक दिया इस एसएमएस की आंधी में। अब दिल की धड़कनें दिन - प्रतिदिन तेज़ होने लगी कि क्या होगा ? कैसे संभाल सकूंगा इतनी दौलत को ? कभी देखा नहीं था ना ढेर सारा पैसा एक साथ। क्या - क्या खरीदूंगा ? क्या - क्या करूंगा ? ऐसे सैकड़ों सवाल मन में उमड़ रहे थे।

मैं अकेली जान ! कैसे मैनिज करूंगा सबका सब ? हां, अकेली ही कहना ठीक रहेगा। बीवी को तो कब का छोड़ चुका था मैं। वैसे ! अगर ईमानदारी से कहूं तो उसी ने मुझे छोड़ा था। अब पछताती होगी। उस बावली को मेरे सारे काम ही जो फालतू लगते थे। हमेशा पीछे पड़ी रहती थी कि बचत करो , बचत करो। कोई काम नहीं आया है और न कोई आएगा। काम आएगा तो सिर्फ गांठ में बंधा पैसा ही। दोस्त , रिश्तेदार सब बेकार होते हैं , ये फालतू का जमघट है। बच के रहो इनसे।

उस बावली को क्या पता कि ज़िन्दगी कैसे जिया करते हैं ? उसे तो बस यही फिक्र रहती है हमेशा कि बच्चों की फीस का इंतज़ाम हुआ ? ये नेट का कनेक्शन कटवा क्यों नहीं देते ? कार साफ करने वाला पैसे मांग रहा था। गाड़ी की किस्त जमा करवा दी ? वह बोल - बोल के परेशान हुए रहती थी फालतू में। शायद इसी चक्कर में दुबली भी बहुत हो गई थी।

अरे ! अगर फीस नहीं भरी तो कौन सी आफत आ जाएगी ? ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेंगे ? नाम ही काट देंगे ना ? तो काट दें साले ! कौन रोकता है ? सरकारी स्कूल बगल में ही तो है। एक तो फीस भी कम , ऊपर से पैदल का रास्ता। बचत ही बचत। बल्कि, जो पैसे बच जाएंगे तो उनसे कार की किस्त भी टाइम पर भर दी जाएगी। वेरी सिम्पल।

ये आना - जाना तो चलता ही रहता है। कभी इस स्कूल तो कभी उस स्कूल में। कहती थी कि नेट कटवा दूं। हुंह ! बड़ी आई नेट कटवाने वाली। इतनी जो फैन मेल बनाई है दो बरसों में , सब छू - मंतर नहीं हो जाएगी ? गुरु ! यहां तो चढ़ते सूरज को सलाम है। दिखते रहोगे तो बिकते रहोगे। दिखना बन्द तो समझो बिकना भी बन्द। बैठे रहो आराम से।

फैन्स का क्या है ? आज हैं , कल नहीं। आज शाहरुख के कर रहे हैं , तो कल रितिक के पोस्टर रौशन करेंगे लड़कियों के बेडरूम। टिकाऊ नहीं होती है ये प्रसिद्धि - व्रसिद्धि। बड़े जतन से संभाला जाता है इसे। अपने कुमार गौरव का हाल तो मालूम ही है न ? वन फिल्म वंडर। एक फिल्म से ही सर आंखों पर बिठा लिया था पब्लिक ने उसे और अगले ही दिन दूसरी फिल्म से उसी दीवानी पब्लिक ने उसे ज़मीं पर भी ला पटका था।

टाइम का कुछ पता नहीं। आज अच्छा है , कल रहे या ना रहे। क्या यार ! यहां तो पहले ही इतना टेंशन है। मोबाइल में बैलन्स बचा पड़ा है और दिन कम होते जा रहे हैं। कैसे भेज पाऊंगा सारे पैसे के एसएमएस ? मैं सोच में डूबा हुआ ही था कि घंटी बजी और लगा कि जैसे मेरे सभी सतरंगी सपनों के सच होने का वक्त आ गया। मेरे बारे में मालुमात किया उन्होंने। पूछने पर पता चला कि रेडियो वाले ही थे और मेरा नम्बर उन्होंने सिलेक्ट कर लिया है बम्पर इनाम के लिए। बांछें खिल उठी मेरी।

उधर इंतज़ार की घड़ियां खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। प्यास के मारे हलक सूखा जा रहा था , लेकिन पानी पीने की फुर्सत किसे थी ? डर जो था कि कहीं सैंटा जी गलती से किसी और के घर न जा घुसें। खासकर , बाजू वाले शर्मा जी के यहां। अजीब किस्म के इंसान हैं , सामने कुछ और पीठ पीछे कुछ और। ऊपर से तो बेटा - बेटा करते रहते थे और अन्दर ही अन्दर मेरी ही बीवी पर नज़र रखते थे।

बड़ा समझाते रहते थे मुझे दिन भर कि बेटा ऐसे नहीं करो , वैसे नहीं करो। अरे ! मेरा घर , मेरी बीवी , मेरी मर्जी जो जी में आए करूं। तुम होते कौन हो बीच में टांग अड़ाने वाले ? कहीं बीवी ही तो नहीं सिखा गई उन्हें ये सब ? क्या पता ! पीठ पीछे क्या - क्या गुल खिलते रहे हैं यहां ? यह सब सोच - सोच कर मैं परेशान हो ही रहा था कि सैंटा जी आ पहुंचे। उनका ओज से भरा चेहरा देखते ही मेरे सभी दुख , सभी चिंताएं हवा हो गए। लम्बा तगड़ा कसरती बदन। सुर्ख लाल दमकता चेहरा। झक लाल कपड़े। उन्होंने बड़े ही प्यार से सर पर हाथ फिराया। मस्तक को प्यार से चूमा। चेहरा ओज से परिपूर्ण था। नज़रें मिलीं तो मैं टकटकी लगाए एकटक देखता रह गया। आंखें चौंधिया - सी रही थीं। सो ज़्यादा देर तक देख नहीं पाया।

फौरन निद्रा के आगोश ने मुझे घेर लिया था। आंखें बंद होने को थीं। मुंह में आए शब्द मानो अपनी आवाज़ खो चुके थे। चाहकर भी मैं कुछ कह नहीं पा रहा था। शायद किसी पवित्र आत्मा से मेरा पहला सामना था इसलिए। ऐसा न मैंने पहले कभी देखा था और न ही कभी इस बारे में कुछ सुना था। शायद आत्मा से परमात्मा का मिलन इसे ही कहते होंगे। ये आम इंसान से परम ज्ञानी बनने के सफर के बीच ही उन्होंने पूछ लिया, 'बता वत्स ! क्या चाहिए तुझे ? बता , क्या इच्छा है तेरी ?' मेरे कंठ से आवाज़ ही नहीं निकल पाई। उन्होंने फिर प्रेम से पूछा , ' बता ! तेरी रज़ा क्या है ?'

चुप देख मुझे उन्होंने खुद ही एयर कंडिशनर की तरफ इशारा किया। मैंने सिर हिलाकर हामी भर दी। फिर टीवी की तरफ इशारा किया तो मैंने फिर सिर हिला दिया। उसके बाद तो फ्रिज , डीवीडी प्लेयर , होम थियेटर , हैंडीकैम सबके लिए मैं बस हां - हां करता चला गया। वैसे होने को तो ये सारी की सारी चीज़ें मेरे पास पहले से ही मौजूद थीं , लेकिन कोई भरोसा नहीं था इनका। बीवी के साथ मुकदमा जो चल रहा था कोर्ट में। क्या पता , वह सब वापस लिए बिना नहीं माने। इसलिए कैसे इन्कार कर देता सांता जी को ? इतनी तो समझ है मुझे कि अच्छे मौके बार - बार नहीं मिला करते। सो हाथ आया दांव , बिना चले कैसे रह जाता ?

पहली बार तो मेरी किस्मत ने पलटी मारी थी और वह भी तब , जब बीवी नहीं थी मेरे साथ। शायद ऊपरवाले ने भी यही सोचा होगा कि इसके घर की लक्ष्मी तो हो गई उड़न छू। तो क्यों न बाहर से ही कोटा पूरा कर दिया जाए इसका। नेक बन्दा है , कुछ न कुछ बंदोबस्त तो करना ही पड़ेगा इसका। मैं खुशी से पागल हुआ जा रहा था कि आवाज़ आई , ' वक्त के साथ - साथ मैं भी बूढ़ा हो चला हूं। इतना सामान कंधे पर उठा नहीं सकता और भला दिल्ली की सड़कों पर बर्फ गाड़ी यानी स्लेज का क्या काम ? इसलिए ! स्लेज छोड़कर , ट्रक ही ले आया हूं मैं। '

' वक्त के साथ - साथ खुद को भी बदलना पड़ता है। सो बदल लिया ', सांता जी मुस्कुराते हुए बोले। मैंने भी झट से कह दिया कि आप परेशान न हों , मैं हूं न ! उसी वक्त उनके साथ जाकर सारा सामान ट्रक से अनलोड किया ही था कि इतने में नज़र लगाने को शर्मा जी आ पहुंचे। बोले , ' यह क्या कर रहे हो ?'

मैं चुप रहा। वह फिर बोल पड़े। मुझे गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन चुप रहा कि कौन मुंह लगे इनसे और अपना अच्छा - भला मूड खराब करे। वह फिर बोल पड़े , ' यह क्या कर रहे हो ?' अब मुझसे रहा न गया। आखिर बर्दाश्त करने की भी हद होती है। तंग आकर आखिर बोलना ही पड़ा कि मेरा माल है , मैं जो चाहे करूं। आपको मतलब ? शर्मा जी बेचारे तो मेरी डांट सुन कर चुपचाप अपने रस्ते हो लिए। सैंटा जी के चेहरे पर अभी भी वही मोहिनी मुस्कान थी। उनकी सौम्य आवाज़ आई, ' अब मैं चलता हूं। अगले साल फिर से मिलता हूं। ' वह पलक झपकते ही गायब हो चुके थे। मैं खुशी से फूला नहीं समा रहा था कि अगले साल फिर से आने का वादा किया है उन्होंने।

इस बार तो मिस हो गया , लेकिन अगली बार नहीं। अभी से ही लिस्ट तैयार कर लूंगा कि मुझे क्या - क्या मांगना है ? बार - बार सारे गिफ्ट्स की तरफ ही देखे जा रहा था मैं। नज़र हटाए नहीं हट रही थी। पता ही नहीं चला कि कब आंख लग गई। सपने में भी उस महान आत्मा के ही दर्शन होते रहे रात भर। जब आंखें खुलीं तो देखा कि दोपहर हो चुकी है। सर कुछ भारी - भारी सा था। उनींदी आंखो से सारे सामान पर नज़र दौड़ाई।

लेकिन ! यह क्या ? जो देखा , देखकर गश खा गया मैं। सबकुछ बिखरा - बिखरा सा था। न कहीं टीवी नज़र आ रहा था और न ही कहीं फ्रिज और होम थिएटर। हैंडीकैम का कहीं अता - पता नहीं था। कायदे से तो हर चीज़ दुगनी - दुगनी होनी चाहिए थी , पर यहां तो इकलौता पीस भी नदारद था। देखा तो तिज़ोरी खुली पड़ी थी। कैश , गहने , कपड़े - लत्ते , क्रेडिट कार्ड कुछ भी तो नहीं बचा था। सब का सब माल गायब हो चुका था। मैंने बाहर जाकर इधर - उधर नज़र दौड़ाई तो कहीं दूर तक कोई नज़र नहीं आया। कोई साला मेरे सारे माल पर हाथ साफ कर चुका था। मैं ज़ोर - ज़ोर से दहाड़ मार - मार कर रोने लगा। भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी।

सबको अपना दुखड़ा बता ही रहा था कि शर्मा जी की आवाज़ आई। ' क्यों अपने साथ - साथ सबका दिमाग भी खराब कर रहे हो बेफिजूल में ? रात को सारा सामान खुद ही तो लाद रहे थे ट्रक में और अब चोरी का ड्रामा कर रहे हो। मैंने अपनी आंखों से देखा और आपसे पूछा भी तो था कि यह आप क्या कर रहे हैं ? आपने तो उल्टा मुझे ही डपट दिया था कि मैं अपना काम करूं।'

रेडियो स्टेशन से पता किया तो मालूम हुआ कि इनाम पाने वालों की लिस्ट में मेरा नाम ही नहीं था। अब लगने लगा था कि वह सैंटा ही एक नम्बर का झूठा था। किसी तरीके से मेरा नम्बर पता लगा लिया होगा उसने। शायद मुझे हिप्नोटाइज़ कर चूना लगा गया। अब तो यही उम्मीद बाकी है कि शायद वह अपना वादा निभाए और अगले साल फिर वापस आए। एक बार मिल तो जाए कम्बख्त , फिर बताता हूं कि कैसे सम्मोहित किया जाता है ? बस इसी आस में कि वह आएगा मैं इस बार भी एसएमएस किए जा रहा हूं , किए जा रहा हूं।

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4 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

नवभारत टाइम्‍स का
ऑनलाईन कहानी
विशेषांक प्रकाशित
हो रहा है।
पता लगा है कि
उसका नाम राजीव
तनेजा कहानी विशेषांक
रखने पर विमर्श
चल रहा है।
पर उन्‍हें आपकी
54 कहानियां और
चाहिएं, तुरंत
भिजवायें।
अग्रिममुबारक
पायें पहले
मुबारकबाद नहीं।

Udan Tashtari said...

पुनि पुनि बधाई.

योगेन्द्र मौदगिल said...

बढ़िया कहानी भाई तनेजा जी आप को पढ़ कर अच्छा लगा...........

हरकीरत ' हीर' said...

Bhot bhot BDHAI.....!

 
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