***राजीव तनेजा***
"बात सर के ऊपर से निकले जा रही थी...कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर!...माजरा क्या है?"
जिस बीवी को मैँ कभी फूटी आँख नहीं सुहाया,वो ही मुझ पर दिन पर दिन मेहरबान हुए जा रही थी। बहुत दिमाग लड़ाने के बाद भी इस सब का कोई वाजिब कारण मुझे दिखाई नहीं दे रहा था|जो कल तक मुझे देख 'नाक-भों' सिकोडा करती थी,वही अब मौका देख जाने-अनजाने मुझसे लिपटने की कोशिश कर रही थी|मेरी पसन्द के पकवानों का तो मानो तांता लगा था|मेरी हर छोटी-बडी खुशी का ख्याल रखा जा रहा था|एक दिन आखिर सब राज़ खुल ही गया जब बीवी इठलाती हुई...बल खाती हुई चली आयी और बडे ही प्यार से बोली..."जी!...इस बार 'वैलैंटाईन' के मौके पर मुझे 'गोवा' घुमाने ले चलो|"
मेरा माथा तो पहले से ही सनका हुआ था।सो!...' वैलैंटाईन' के नाम से ही भड़क खडा हुआ|ऊपर से 'गोवा' जाने के नाम ने मानों आग में घी का काम किया।
{नोट:वैलैनटाईन के इस अवसर पर मैँने अपनी पुरानी कहानी "बिन माँगे मोती मिले" को आज के समय के हिसाब से संपादित किया है।उम्मीद है कि ये आपको पसन्द आएगी।}
"क्या बकवास लगा रखी है?"...
"कोई काम-धाम है कि नहीं?"...
"अपनी औकात...मत भूल"...
"हिन्दुस्तानी है...हिन्दुस्तानी की तरह ही रह"
"पर इसमें!..आखिर गलत ही क्या है?"
"गलत?...अरे!...ये बता कि सही ही क्या है इसमें?"
"ये तो प्यार करने वालों का दिन है"...
"मनाने में आखिर हर्ज़ा ही क्या है?"
"अरे!...अगर मनाना ही है तो फिर...'लैला-मजनू'...'सस्सी-पुन्नू'... या फिर 'शीरही-फरहाद' को याद करते हुए उनके दिन मनाओ"
"ये क्या?...कि बिना सोचे-समझे सीधा मुँह उठाया और नकल कर डाली इन फिरंगियों की?"
बीवी कुछ ना बोली लेकिन मेरा ध्यान पुरानी यादों....पुरानी बातों की तरफ जाता जा रहा था।यही कोई दो-चार साल पुरानी ही तो बात थी जब 'वैलैंटाईन' आने वाला था और दिल में दुनिया भर की उमंगे जवाँ हुए जा रही थी कि पिछली बार तो मिस हो गया था लेकिन इस बार नहीं।अब की बार तो दिल की हर मुराद पूरी होकर रहेगी।कोई कसर बाकी नहीं रहने दूंगा लेकिन कुछ-कुछ डर सा भी लग रहा था कि अगर कहीं...भगवान' ना करे किसी भी तरह से बीवी को पता चल गया तो?"...
"मैँ तो कहीं का ना रहूँगा।...
मेरी हालत तो धोबी के कुत्ते जैसी हो जाएगी...ना घर का....ना घाट का"
"अरे यार!..किसी को कानों-कान भी खबर नहीं होगी"...
"तुम बस दिल खोल के खर्चा किए जाओ"....
"बाकी सब मेरे पे छोड़ दो"...
"एक से एक टॉप' की' आईटम' के दर्शन ना करवा दूँ तो मेरा भी नाम...'सूरमा भोपाली' नहीं"एक दोस्त बोला
अब दिन-रात...सोते-जागते...उठते-बैठते यही ख्वाब देखे जा रहा था मैँ कि सब की सब मुझ पर फिदा हैँ।दिल बस यही गाए जा रहा था कि...
"मैँ अकेला....मैँ अकेला...
मेरे चारों तरफ...हसीनों का मेला"
"हॉय!...हर तरफ बस लडकियाँ ही लडकियाँ...दूजा कोई नहीं"...
"उफ!...कोई इधर से छेडे जा रही थी तो कोई...उधर से"
"अपनी बल्ले-बल्ले हो ही रही थी कि अचानक ऐसे लगा जैसे दिल के अरमाँ...आँसुओ में बह गए।सब के सब ख्वाब एक ही झटके में टूट के बिखर चुके थे। कुछ धर्म के ठेकेदार जो सरेआम...रेडियो'...टीवी चैनलों और... अखबारों' के जरिए अपना धमकी रूपी विज्ञापन दे रहे थे कि जिस किसी ने भी कुछ उलटा-सीधा करने की कोशिश की..उसकी वहीं पर मंतर पढवा...फेरे लगवा शादी करा दी जाएगी या फिर उसका मुँह काला कर'..गधे पे बिठा पूरे शहर का चक्कर कटवाया जाएगा"
"गधे पे बिठाने की बात सुन दोस्त खुद ही अपना मुँह काला करता हुआ ऐसे गायब हुआ जैसे गधे के सर से सींग।और अपुन रह गए फिर...वैसे के वैसे...सिंगल के सिंगल....प्यासे के प्यासे लेकिन दिल ने हिम्मत ना हारी...खुद को जैसे-तैसे करके समझाया और बीवी'से ज़रूरी काम का बहाना बना..जा पहुँचा सीधा 'गोवा'।
'गोवा' माने!...जन्नत।यहाँ किसी का कोई डर नही...जैसे मर्ज़ी...वैसे घूमो-फिरो।जो मर्ज़ी करो...कोई देखने-सुनने वाला नही...कोई रोकने-टोकने वाला नहीं।सो!...मै भी पूरे रंग में रंग चुका था।इधर_ उधर...पूछताछ करके पता लगाया कि 'सब कुछ दिखता है वाला बीच कहाँ है? जा पहुँचा!...सीधा वहीं।एक हाथ में बीयर की बोतल और दूसरे हाथ में गुलाब का फूल थामे मै अल्हड़ शराबी की तरह इस तलाश में कभी इधर डोल रहा था तो कभी उधर कि कहीं ना कहीं तो अपुन की चॉयस की मिलेगी ज़रूर।
लेकिन जिसे देखो...वही स्साली!....अपने लैवेल से नीचे की...याने के बिलो स्टैंडर्ड दिखाई दे रही थी। और मै था कि हाई क्लास से नीचे उतरने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।बस इसी चक्कर में सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम होने को आई लेकिन जो अपुन की समझ में बैठती याने के इस दिल को जंचती...वो ऑलरैडी किसी का हाथ थामे नज़र आती।
हाय री!...फूटी किस्मत...सब की सब...पहले से ही बुक्कड थी।काम बनता ना देख निराश हो मैने ये एहम फैसला लिया कि..अब की बार कोई नखरा नहीं...जैसी भी मिलेगी...काम चला लूंगा।अपना किस्मत में जो होगा...मिल जाएगा...बेकार में हाथ-पैर मार के क्या फायदा?अभी ये सब सोच ही रहा था कि...देखा तो स्विम सूट पहने तीन नीग्रो लडकियाँ अपनी मर्ज़ी से खुशी-खुशी सबके साथ फोटू खिंचवा रही हैँ।
क्या गज़ब की ऑईटम थी रे बाप?
लार टपकाता मैँ भी लग गया लाईन में।थोडी-बहुत...टूटी-फूटी अंग्रेज़ी आती थी...सो!...उसी से काम चलाते हुए बात आगे बढाई और उनसे दोस्ती कर डाली।थोड़ी ही देर में मैँने उनको अगले दिन डेट पे चलने के लिए इनवाईट कर डाला।हैरानी की बात ये कि मेरी तमाम आशंकाओं के विपरीत वो तीनों झट से मान गयी।ये तो वही बात हुई कि... बिन माँगे मोती मिले...माँगे मिले ना भीख।
कहाँ एक तरफ तो मैँ तरसता फिर रहा था लेकिन कोई भाव देने को तैयार नहीं और कहाँ ये बिना कोई खास मेहनत किए ही अपने आप ही बे-भाव टपक पडी।शायद!...मेरी डैशिंग(धाँसू)पर्सनैलिटी का कमाल था ये।हे प्रभू!...तेरी लीला अपरम्पार है।थोडी काली हुई तो क्या हुआ? अपने'श्री कृष्ण महराज भी कौन सा गोरे थे?
"काले ही थे ना?"
सो!...मैने भी यही सोचा कि इस वैलैनटाईन के पावन अवसर पर इन तीनों के साथ रास-लीला मना ही ली जाए।अब!...मजबूरी का नाम 'महात्मा गाँधी' है तो...यही सही।खैर!...अगले दिन मिलने की जगह फिक्स हुई और वो अपने होटल चली गयीं।आफकोर्स!..रात का खाना मेरे साथ खाने के बाद।अब ये भी कोई पूछने वाली बात है कि नोट किसने खर्चा किए? समझदार हो!....खुद जान जाओ।
पूरी रात नींद नहीं आई।कभी इस करवट लेटता...तो कभी उस करवट।घडी-घडी...उठ कर घडी देखता कि अभी कितनी देर है सुबह होने में? अल्सुबह ही उठ गया था मैँ लेकिन इंतज़ार की घडियाँ तो जैसे खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।खैर!..किसी तरीके से वो आ पहुँची।एक की तबियत कुछ ठीक नहीं थी सो!...नाश्ता करने के बाद उसने साथ चलने से इनकार कर दिया।अच्छा हुआ!...स्साली ने खुद ही मना कर दिया वर्ना मुझे ही कोई ना कोई बहाना गढना पड़ता...चौखटा जो कुछ खास नहीं था उसका।
उसे होटल में आराम करने की कह हम तीनों चल दिए अपनी मंज़िल याने के बीच की ओर।वहाँ पहुँचते ही मेरी तो निकल पडी।दोनों की दोनो सीधा पानी में कूद पड़ी और इशारे कर-कर मुझे बुलाने लगी।मै भी झट से हो लिया उनके पीछे-पीछे मगर बुरा हो इस कम्भख्त मारी यादाश्त का...उतावलेपन के चक्कर में कास्ट्यूम लाना तो मैँ भूल ही गया था।
अब दिल उदास हो ही चला था कि अचानक उम्मीद की एक किरण दिखाई दी।देखा तो नज़दीक ही रंग-बिरंगे कास्ट्यूम बिक रहे थे।जा पहुँचा सीधा वहीं...शायद मेरा चेहरा पढ लिया था पट्ठे ने....तभी उसने हर एक पीस उल्टे-सीधे दाम बताए लेकिन मैँ कहाँ पीछे हटने वाला था?...जितने माँगे...पकडा दिए चुपचाप....और चारा भी क्या था मेरे पास?....अकेला होता तो थोड़ी-बहुत बॉरगेनिग वगैरा भी करता लेकिन यहाँ?...इनके सामने?....सौदेबाज़ी?....मतलब ही नहीं पैदा होता।लड़कियों के सामने ऐसी छिछोरी हरकते करने से अच्छा है कि बन्दा डूब के ही मर जाए।इसलिए मैँने चुप हो जाना ही बेहतर समझा।
तुरंत तौलिया लपेटा और फटाफट कपडे बदल छलांग लगा सीधा कूद पडा पानी में।बस!...यही एक छोटी सी बहुत बड़ी गलती हो गयी मुझसे।शायद!..ना चाहते हुए भी कुछ ज़्यादा उतावला हो उठा था मैँ। पर्..रर...र्रर्र'...की सी आवाज़ आई...देखा तो...एक तरफ से मेरी निक्कर जवाब दे चुकी थी।खैर!...मैने परवाह नहीं की क्योंकि ऐसे छोटे-मोटे हादसे तो अक्सर होते ही रहते थे अपुन के साथ।एक हाथ से निक्कर थाम मैँ बेफिक्र अन्दाज़ में जा पहुँचा सीधा उनके पास।
मज़े आने अभी शुरू ही हुए थे कि दूसरी तरफ से भी निक्कर ने साथ छोड दिया।मजबूरन!...मुझे उनसे कुछ दूर जाना पडा क्योंकि मैँ अच्छी तरह जानता था कि 'सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी' लेकिन कोई गम नहीं...अभी कुछ दिन पहले ही तो मैँने हाई इंडैक्स का फ्रेम लैस चश्मा बनवाया था।सो!...दूर से भी सब कुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा था।राज़ की बात तो ये कि ऐसी दिलचस्प चीज़े तो मैँ घुप्प अँधेरे में भी बिना किसी मुश्किल के ढूढ लूँ।फिर यहाँ तो ऊपरवाले की दया से खूब धूप खिली हुई थी।
अजीब हालत हो रही थी मेरी....बाहर से तो ठण्ड लग रही थी मुझे लेकिन अन्दर ही अन्दर गर्मी से मैँ परेशान था।बुरा हो इस कम्भख्त मारी निक्कर का....आज ही जवाब देना था इसे?....उफ!...दोनों हाथों से इसे थामे-थामे कितना थक चुका था मैँ?...जिस हाथ को ज़रा सा भी आराम देने की सोचूँ निक्कर फट से स्प्रिंग माफिक ऊपर उछले और झट से तैरने लगे।सो!...हाथ वापिस...वहीं का वहीं पुरानी पोज़ीशन पर।तसल्ली थी कि कुछ कर नहीं पा रहा तो क्या हुआ?...आँखें तो सिक ही रही हैँ ना कम से कम?मजबूरीवश सोचा कि चलो!...अभी इसी भर से ही काम चला लिया जाए...बाद की बाद में देखी जाएगी।
अभी ठीक से आँखे सेंक भी नहीं पाया था कि एक बावली को जाने क्या सूझी कि उसने बॉल से खेलते-खेलते अचानक उसे मेरी तरफ उछाल दिया।पता नहीं कहाँ ध्यान था मेरा?...जाने कैसे गल्ती हो गयी और मैँ पागलों की तरह निक्कर छोड़ दोनों हाथो से गेंद की तरफ लपक लिया।वही हुआ...जिसका अँदेशा था।फिर से 'पर...र्..र..र.र्र'...की चरमराती सी आवाज़....और फिर सब कुछ शांत।
काम खराब होना था सो!...हो चुका था।निक्कर' ने ऐन मौके पे बीच मंझधार के मुझे अकेला छोडते हुए अपने हाथ उर्फ दोनों पाँयचे खडे कर दिए थे।सारी की सारी सिलाई उधड चुकी थी।अब वो निक्कर कम स्कर्ट ज़्यादा दिखाई दे रही थी और वो भी मिनी(छोटी)वाली नही बल्कि माइक्रो(सूक्ष्म)वाली।
सही कहा है किसी नेक बन्दे ने कि मुसीबत कभी अकेले नही आती...आठ-दस को हमेशा साथ लाती है।दरअसल!..हुआ क्या कि अब इस निक्कर ऊप्स सॉरी स्कर्ट के नीचे तो अपुन ने कुछ पहना नहीं था..हमेशा की तरह।तो जैसे ही मैँ पानी में आगे बढा....स्साली!...खुद बा खुद तैर के ऊपर आ गयी और नीचे......
"अब!...अपने मुँह से कैसे कहूँ?"
"जवान पट्ठे हो!....खुद ही अन्दाज़ा लगा लो मेरी हालत का"
"यूँ तो मैँ पक्का बेशर्म हूँ लेकिन यहाँ?...खुले आम?"....
"बाप..रे...बाप"
"अरे यार!...हिन्दुस्तानी हूँ मैँ...कोई काली या गोरी चमड़ी वाला फिरंगी नहीं कि आव देखूँ ना ताव और झट से बीच बज़ार ही कर डालूँ एक....दो...तीन।
अब तरसती निगाहों से सिर्फ और सिर्फ ताकते रहने के अलावा कोई और चारा भी तो न था मेरे पास।अभी सोच ही रहा था कि...क्या करूँ?...और..क्या ना करूँ? कि अचानक शरारती मुस्कान चेहरे पे लिए वो दोनों मेरी तरफ बढी।...
ओह!...कहीँ मेरी हालत का अन्दाज़ा तो नही हो गया था उन्हें?"...
उन्हें अपनी तरफ बढता देख मैँ कुछ घबराया...कुछ शरमाया...कुछ सकुचाया और फिर बिना सोचे समझे भाग लिया सीधा किनारे की तरफ।कुछ होश नहीं कि क्या दिखाई दे रहा है और क्या नहीं।बाहर पहुँचते ही झटका लगा।
देखा तो!...कपडे गायब।कोई हराम का *&&ं%$#$%& उन पर हाथ साफ कर चुका था।पीछे मुड़ के देखा तो दोनों हँसती-खिलखिलाती हुई मेरी ही तरफ चली आ रही थी।उनकी परवाह न करता हुआ मैँ दोनों हाथों से अपनी निक्कर थामे सरपट भाग लिया सीधा होटल की ओर।मुसीबतो का खेल अभी खत्म कहाँ हुआ था?पहुँचते ही एक झटका और लगा।वो 'कल्लो' मेरे सामान पे झाडू फेर चुकी थी।सब कुछ बिखरा-बिखरा सा था....
मेरा 'कैश'....
मेरे 'कपडे-लत्ते'...
मेरा 'क्रैडिट कार्ड'...
मेरा 'ए-टी-एम कार्ड'..
कुछ भी तो नहीं बचा था।सब का सब लुट चुका था।उन दोनों का नम्बर ट्राई किया तो मोबाईल स्विचड ऑफ की आवाज़ मानों मेरा मुँह चिढा रही थी।ऐसा लग रहा था जैसे तीनों की मिलीभगत थी इसमें।दिल तो कर रहा था कि अभी के अभी निकालूँ कहीं से रिवाल्वर और दाग दूँ पूरी की पूरी छै इनके सीने में।
मैँ लुटा-पिटा चेहरा लिए उस घडी को कोस रहा था जब मुझे वैलैनटाईन मनाने की सूझी।बड़ी मुश्किल से होटल वालो से पीछ छुडा मैँ भरे मन और बोझिल दिल से वापिस लौट रहा था।
अगर मै ऐश नहीं कर सकता तो और भला कोई क्यूँ करे?
सही हैँ!...ये धर्म के ठेकेदार।ये वैलैंटाईन-शैलेंटाईन' अपने देश के लिए नहीं बने हैँ।
ढकोसला है ढकोसला...सब का सब।
देखते ही देखते मैँ भी पेंट का डिब्बा और ब्रश हाथ में लिए प्यार करने वालों का मुँह काला करने को बेताब भीड में शामिल था।
***राजीव तनेजा***
8 comments:
बहुत दिनों के बाद लिखा। बहुत अच्छा, अच्छा लगा पढ़्कर। पर काहे इन लोगो का प्रचार करते हो इनकी फोटो लगाकर।
राजीव जी आपका लिखा बहुत जबरदस्त होता है पर बहुत लंबा होता है उसको पढने के लिए इस लिए कमेन्ट करने के लिए उसको फुर्सत से पढ़ना बहुत जरुरी लगता है .:) ..यह पोस्ट बहुत बढ़िया लगी आपकी ..
bahut khoob guru hansate raho achha likha hai.
मैँ लुटा-पिटा चेहरा लिए उस घडी को कोस रहा था जब मुझे वैलैनटाईन मनाने की सूझी।बड़ी मुश्किल से होटल वालो से पीछ छुडा मैँ भरे मन और बोझिल दिल से वापिस लौट रहा था.......Ha Ha Ha,,,koi bat nahi agle sal fir try kijiyega....!!
राजीव भाई, सामयिक विषय वस्तु पर गम्भीर चिन्तन किया है आपने, बधाई।
दोस्त कुछ लिखो ना नया सा उजला सा।
वाह बंधुवर वाह अच्छी रचना के लिये बधाई स्वीकारें
सटीक लिखा, पुस्तक मेले मे भेंट होगी शायद
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