***राजीव तनेजा***
कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार कान खोल के सुन लो...कहे देती हूँ कसम से,'' बीवी भाषण पे भाषण पिलाए चली जा रही थी। "खबरदार! जो इस बार होली का नाम भी लिया ज़ुबान से, छोड़-छाड़ के चली जाऊँगी सब, फिर भुगतते रहना अपने आप पिछली बार का याद है ना? या भूले बैठे हैं जनाब कि कितने डंडे पड़े थे? और कहाँ-कहाँ पड़े थे? सिकाई तो मुझी को करनी पड़ी थी ना? तुम्हारा क्या है? मज़े से चारपाई पे लेटे-लेटे कराह रहे थे चुप-चाप....
"हाय!...मैं मर गया"
"हाय!.... मैं मर गया"
नोट:इस बार आलस्य या फिर व्यस्त्तता के चलते कुछ नया नहीं लिख पाया तो सोचा कि होली के मौके पर अपनी एक पुरानी कहानी को आप लोगों के साथ बांटू,इसे मैँने पिछले साल होली के मौके पर लिखा था।एक तरह से यह मेरी एक पुरानी कहानी"आसमान से गिरा" का दूसरा भाग है लेकिन आप अगर सिर्फ इसे ही पढना चाहें तो भी यह अपने आप में संपूर्ण है।उम्मीद है कि यह आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी।
"हुँह! बड़े आए थे कि इस बार पडोसियों के दाँत खट्टे करने हैं, मुँह की खिलानी है वगैरह-वगैरह। थोथा चना बाजे घना आखिर! क्या उखाड़ डाला था उनका? बित्ते भर का मुँह और ये लंबी चौडी ज़बान आखिर जग हँसाई से मिला ही क्या? बीवी मेरा मज़ाक-सा उड़ाती हुई गुस्से से बोली।
"धरे के धरे रह गए तुम्हारे सब अरमान कि मैं ये कर दूँगा और मैं वो कर दूँगा। अरे!...जो करना है सब ऊपरवाले ने करना है, हमारे तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं।" वह बिना रुके बोलती ही चली जा रही थी,
"मैं भी तो यही समझा रहा हूँ भागवान, अब जा के कहीं घुसी तुम्हारे दिमागे शरीफ़ में बात कि बाज़ी तो वो ही जीतेगा जो ऊपर से निशाना साधेगा।" मेरा इतना कहना भर था कि बीवी का शांत होता हुआ गुस्सा फिर से उबाल खाने लगा।
"हाँ! हाँ... पिछली बार तो जैसे तहखाने में बैठ के गुब्बारे मारे जा रहे थे, "ऊपर से ही मारे जा रहे थे ना? "फिर भला कहाँ चूक हो गई हमारे इस निशानची जसपाल राणा से? हुँह!...ना काम के ना काज के बस दुश्मन अनाज के।", बीवी का बड़बड़ाना जारी था। "अरे! एक निशाना क्या सही नहीं बैठा तुम तो बात का बतंगड़ बनाने पे उतारू हो।"
"और नहीं तो क्या करूँ?"
"बे-इज़्ज़ती तो मेरी होती है ना मोहल्ले में कि बनने चले थे तुर्रम खाँ और रह गए फिस्सडी के फिस्सडी। किस-किस का मुँह बंद करती फिरूँ मैं? या फिर किस-किस की ज़बान पे ताला जडूँ? अरे! कुछ करना ही है तो प्रैक्टिस-शरैक्टिस ही कर लिया करो कभी-कभार कि ऐन मौके पे कामयाबी हासिल हो। और कुछ नहीं तो कम से कम बच्चों के साथ गली में क्रिकेट या फिर कंचे ही खेल लिया करो। निशाने की प्रैक्टिस की प्रक्टिस और लगे हाथ बच्चों को भी कोई साथी मिल जाएगा।" बीवी मुझे समझाती हुई बोली। और कोई तो खेलने को राज़ी ही नहीं है ना तुम्हारे इन नमूनों के साथ मैं भी भला कब तक साडी उठाए-उठाए कंचे खेलती रहूँ गली-गली? पता नहीं क्या खा के जना था इन लफूंडरों को मैंने।" उसका बड़बड़ाना रुक नहीं रहा था।
"स्साले!...सभी तो पंगे लेते रहते हैं मोहल्ले वालों से घड़ी-घड़ी। अब किस-किस को समझाती फिरूँ? कि इनकी तो सारी की सारी पीढ़ियाँ ही ऐसी हैं, मैं क्या करूँ? पता नही मैं कहाँ से इनके पल्ले पड़ गई? अच्छी भली तो पसंद आ गई थी उस इलाहाबाद वाले छोरे को लेकिन! अब किस्मत को क्या दोष दूँ? मति तो आखिर मेरी ही मारी गई थी न? इस बावले के चौखटे में शशि कपूर जो दिखता था मुझे। अब मुझे क्या पता था कि ये भी असली शशि कपूर के माफिक तोन्दूमल बन बैठेगा कुछ ही सालों में? तोन्दूमल सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया और ज़ोर से चिल्लाता हुआ बोला, "क्या बक-बक लगा रखी है सुबह से? चुप हो लिया करो कभी कम से कम।" ये क्या कि एक बार शुरू हुई तो भाग ली सीधा सरपट समझौता एक्सप्रेस की तरह पता है ना! अभी पिछले साल ही बम फटा है उसमें? चुप हो जा एकदम से कहीं मेरे गुस्से का बम ही ना फट पड़े तुझ पर।" मैं दाँत पीसता हुआ बोला।
"बम? कहते हुए बीवी खिलखिला के हँस दी।
"अरे! ऐसे फुस्स होते हुए बम तो बहुतेरे देखे हैं मैंने।''
"क्यों मिट्टी पलीद किए जा रही हो सुबह से?'' मैं उसकी तरफ़ धीमे से मिमियाता हुआ बोला,
"इस बार सुलह हो गई है अपनी पडोसियों से, अब उनसे कोई खतरा नहीं।"
"और उस नास-पीटे! गोलगप्पे वाले क्या क्या जिसे सोंठ से सराबोर कर डाला था पिछली बार?"
"अरे! वो नत्थू?"
"हाँ वही! वही नत्थू"...
"उसको? उसको तो कब का शीशे में उतार चुका हूँ।"
"कैसे?" बीवी उत्सुक चेहरा बना मेरी तरफ़ ताकती हुई बोली। "अरी भलीमानस!... बस.. यही कोई दो बोतल का खर्चा हुआ और बंदा अपने काबू में।"
"अब ये दारू चीज़ ही ऐसी बनाई है ऊपरवाले ने।"
"हूँ,....इसका मतलब इधर ढक्कन खुला बोतल का और उधर सारी की सारी दुशमनी हो गई हवा।" बीवी बात समझती हुई बोली।
"और नहीं तो क्या?" मैं अपनी समझदारी पे खुश होता हुआ बोला।
"ध्यान रहे! इसी दारू की वजह से कई बार दोस्त भी दुश्मन बन जाते हैं।" बीवी मेरी बात काटती हुई बोली।
"अरे!... अपना नत्थू ऐसा नहीं है।" मैं उसे समझाता हुआ बोला।
"क्या बात?... बड़ा प्यार उमड़ रहा है इस बार नत्थू पे?" बीवी कुछ शंकित-सी होती हुई बोली।
"पिछली बार की भूल गए क्या?... याद नहीं कि कितने लठैतों को लिए-लिए तुम्हारे पीछे दौड़ रहा था? ये तो शुक्र मनाओ ऊपरवाले का कि तुम जीने के नीचे बनी कोठरी में जा छुपे थे, सो!....उसके हत्थे नहीं चढे, वर्ना ये तो तुम भी अच्छी तरह जानते हो कि क्या हाल होना था तुम्हारा"वो मुझे सावधान करती हुई बोली।
"अरी बेवकूफ़!....बीती ताहि बिसार के आगे की सोच, इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा। सारा मैटर पहले से ही सैटल हो चुका है।" मैं उसे डाँटता हुआ बोला, और तो और... इस बार दावत का न्योता भी उसी की तरफ़ से आया है।"
"अरे वाह!.... इसका मतलब कोई खर्चा नहीं?" बीवी आशान्वित हो खुश होती हुई बोली।"
"जी!.... जी हाँ!....कोई खर्चा नहीं" मैं धीमे-धीमे मुस्करा रहा था।
"यार! तुम तो बड़े ही छुपे रुस्तम निकले। काम भी बना डाला और खर्चा दुअन्नी भी नहीं। हवा ही नहीं लगने दी कि कब तुमने रातों रात बाज़ी खेल डाली, " बीवी मेरी तारीफ़ करती हुई बोली।
"बाज़ी खेल डाली नहीं... बल्कि जीत डाली कहो"
"हाँ-हाँ! वही..."
"आखिर हम जो चाहें, जो सोचें, वो कर के दिखा दें, हम वो हैं जो दो और दो पाँच बना दें।"
"बस!....दावत का नाम ज़ुबाँ पर आते ही मुँह में जो पानी आना शुरू हुआ तो बस आता ही चला गया। आखिर!...मुफ्त में जो माल पाड़ने का मौका जो मिलने वाला था। अब ना दिन काटे कट रहा था और ना रात बीते बीत रही थी। इंतज़ार था तो बस होली का कि कब आए होली और कब दावत पाड़ने को मिले लेकिन अफसोस!.... हाय री मेरी फूटी किस्मत, दिल के अरमान आँसुओं में बह गए।
"होली से दो दिन पहले ही खुद मुझे अपने गाँव ले जाने के लिए आ गया था नत्थू कि खूब मौज करेंगे। मैं भी क्या करता? कैसे मना करता उसे? कैसे कंट्रोल करता खुद पे? कैसे उभरने नहीं देता अपने लुके-छिपे दबे अरमानों को? आखिर! मैं भी तो हाड़-माँस का जीता-जागता इनसान ही था ना? मेरे भी कुछ सपने थे, मेरे भी कुछ अरमान थे। पट्ठे ने!....सपने भी तो एक से एक सतरंगी दिखाए थे कि खूब होली खेलेंगे गाँव की अलहड़ गोरियों के संग और मुझे देखो!....मैं बावला... अपने काम-धंधे को अनदेखा कर चल पड़ा था बिना कुछ सोचे समझे उसके साथ।...
"आखिर में मैं लुटा-पिटा-सा चेहरा लिए भरे मन से घर वापस लौट रहा था, यही सोच में डूबा था कि घर वापस जाऊँ तो कैसे जाऊँ? और किस मुँह से जाऊँ?" "बडी डींगे जो हाँकी थी कि मैं ये कर दूँगा और मैं वो कर दूँगा। पिछली बार का बदला ना लिया तो! मेरा भी नाम राजीव नहीं, कोई कसर बाकी नहीं रखूँगा...वगैरा....वगैरा"
"अब क्या बताऊँगा और कैसे बताऊँगा बीवी को कि मैं तो बिना खेले ही बाज़ी हार चुका हूँ?... क्या करूँ? अब इस कमबख़्त मरी भांग का सरूर ही कुछ ऐसा सर चढ़ कर बोला कि सब के सब पासे उलटे पड़ते चले गए। कहाँ मैं स्कीम बनाए बैठा था कि मुफ़्त में माल तो पाडूँगा ही और रंग से सराबोर कर डालूँगा सबको सो अलग!..... हालाँकि बीवी ने मना किया था कि ज़्यादा नहीं चढ़ाना लेकिन अब इस कमबख्त नादान दिल को समझाए कौन? अपुन को तो बस!.... मुफ़्त की मिले सही फिर कौन कंबख्त देखता है कि कितनी पी और कितनी नहीं पी? पूरा टैंकर हूँ....पूरा टैंकर, कितने लोटे गटकता चला गया, कुछ पता ही ना चला। मदमस्त हो भांग का सरूर सर पे चढ़ता चला जा रहा था, लेकिन.... सब का सब इतनी जल्दी काफूर हो जाएगा ये सोचा ना था। पता नहीं किस-किस से पिटवाया उस नत्थू के बच्चे ने। स्साले ने!...पिछली बार की कसर पूरी करनी थी, सो मीठा बन अपुन को ही पट्टू पा गया था इस बार। उल्लू का पट्ठा!...... दावत के बहाने ले गया अपने गाँव और कर डाली अपनी सारी हसरतें पूरी। शायद!..... पट्ठे ने सब कुछ पहले से ही सेट कर के रखा हुआ था। वर्ना मैं?....मैं भला किसी के हत्थे चढ़ने वाला कहाँ था?
स्साले!....वो आठ-आठ लाठियों से लैस लठैत एक तरफ़ और दूसरी तरफ़ मैं निहत्था अकेला।... बेवकूफ़!....अनपढ़ कहीं के भला ऐसे भी कहीं खेली जाती है होली? अरे!.....खेलनी ही है तो रंग से खेलो, गुलाल से खेलो, जम के खेलो और...ज़रा ढंग से खेलो। कौन मना करता है?....और करे भी क्योंकर? आखिर!....त्योहार है होली, पूरी धूमधाम से मनाओ।" ये क्या कि पहले तो किसी निहत्थे को टुल्ली करो तबीयत से....फिर उठाओ और पटक डालो सीधा सड़ांध मारते बासी गोबर से भरे हौद में? बाहर निकलने का मौका देना तो दूर अपने मोहल्ले की लड़कियों से डंडों की बरसात करवा दी हुँह!....बड़ी आई लट्ठमार होली।" ..."स्साले! अनपढ कहीं के, पता नहीं कब अकल आएगी इन बावलों को कि मेहमान तो भगवान का ही दूसरा रूप होता है। उसके साथ ऐसा बरताव? चुल्लू भर पानी में डूब मरो।
खैर! अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत, आज पल्ले पड़ी मेरे। पहले ही समझ जाता सब कुछ....तो ये नौबत ना आती। रह-रह कर बीवी के डायलाग रूपी उपदेश याद आ रहे थे कि कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार। अच्छा होता जो उसकी बात मान लेता। कम से कम आज ये दिन तो नहीं देखना पड़ता। खैर!...कोई बात नहीं, कभी तो ऊँट पहाड़ के नीचे आएगा। उस दिन कमबख़्त को मालूम पड़ेगा कि कौन कितने पानी में है। सेर को सवा सेर कैसे मिलता है। इस बार नहीं तो अगली बार सही, दो का नहीं तो चार का खर्चा ही सही।"
Rajiv Taneja
Delhi(India)
http://hansteraho.blogspot.com
+919810821361
+919213766753
6 comments:
होली तो खेलनी पड़ेगी मिसेज संजू तनेजा
मैं आ रही हूं होली खेलने
इस पर मदमस्ती वाली होली आपके
शालीमार बाग के एक पार्क में ही सही
आप अपने घर से मेरी गाड़ी में ही चलेंगे
चौंकिए मत
यह चुनावी कैंपेन नहीं है
असल में अभिषेक बच्चन आज विदेश में हैं
तो मैंने सोचा कि मैं दिल्ली में ही क्यूं न खेलूं
- ऐश्वर्या बच्चन
एक अच्छी कहानी को
बार बार पढ़वाना अच्छा है
होली तो खेलनी ही नहीं चाहिए
आखिर पानी का मामला है
रंगों का मामला है
गुब्बारों का मामला है
फूलों का मामला नहीं है
सुगंध बिखरायें
पुरानी कहानियां
हर होली दीवाली पर पढ़वायें
और स्वीकार करें हमारी रंगकामनायें।
मजा आ गया होगा लठ मार होली खैल के। होली मुबारक।
:) बढ़िया कहानी .होली की बहुत बहुत बधाई
:)):))) bahuth badiya kahani...
recently i was searching for the user friendly Indian Language typing tool and found ... "quillpad"...
heard that it is much superior than the Google's indic transliteration...? it has an option for Rich Text as well as it provides 9 Indian languages..whereas, Google is not providing Rich Text and gives you only 5 language options...
will you tell me your opinion about the same...?
www.quillpad.in
Keep writing...
jai Ho...
होली है भाई तने जा जी..... नयी हो के पुरानी पड़नी तो हैई....
mubarak
Post a Comment