***राजीव तनेजा***
"रुकिए!...रुकिए तनेजा जी...एक मिनट ज़रा रुकिए तो"…
"क्या हुआ?"...
"पहले तनिक ज़रा स्कूटर तो रोकिए"...
"हाँ!...अब कहिए...क्या बात है?"मैँ साईड पे स्कूटर रोक कर पूछता हूँ...
"आप मुझे ज़रा बाईपास तक छोड़ देंगे?"...
"यू मीन लिफ्ट?"...
"जी"...
"बस!...इतना सा?...ज़रा सा काम था?"...
"जी!...फिलहाल तो बस इतना सा ही काम था"...
"इसी के लिए आपने मुझे टोक दिया?"...
"जी"...
"क्या मैँ तुम्हें वेल्ला नज़र आता हूँ?"...
"क्या मतलब?".…
"कितनी बार टोक चुका हूँ मैँ आपको कि ऐसे पीठ पीछे आवाज़ें ना लगाया करें...अपशकुन होता है"...
"जी!...अपशकुन तो ये हमारे में भी होता है तनेजा जी!...बहुत बड़ा अपशकुन होता है लेकिन आप ही बताएँ कि मैँ अपना दुखड़ा गा-गा के आपको ना सुनाऊँ तो क्या उस निर्मोही जमनादास के पास जा के अपना अश्रु भरा आलाप लगाऊँ?...जो ठीक से मेरे चेहरे पे थूकता भी नहीं है"...
"क्या मतलब?"...
"म्म...मेरा मतलब कि वो मुझे ठीक से पूछता भी नहीं है"...
"और कर लो उसके आगे-पीछे पुच्च-पुच्च...मैँ ना कहता था कि ये जमनादास एक नम्बर का मतलबी इनसान है ...किसी के काम नहीं आएगा लेकिन कोई मेरी सुने तब ना"...
"लेकिन तुम लोगों को भी तो उसके घर जा-जा के डेरा जमाए बिना चैन कहाँ आता था?...ये सब सिर्फ इसलिए ना कि उसकी बीवी पच्चीस की और मेरी बीवी पैंतालिस की?"...
"जी!..लेकिन...
"गुप्ता जी!...सिर्फ कमसिन...स्मार्ट और मीठी-मीठी बातें करने से कुछ नहीं होता"..
"लेकिन उसका गोरा रंग....
"गोरे रंग को क्या चाटना है?...वो तो 'सूअर' का भी होता है"...
"ओह!...
"ये गोरा रंग...ये कमसिन उम्र...ये चासनी जैसे मीठी-मीठी...चिकनी-चुपड़ी बातें सब बेकार की...क्षणभंगुर...नष्ट होने वाली चीज़ें हैँ"..
"जी"...
"असल चीज़ होती है तजुर्बा...और वो ज़्यादा उम्र वालों के पास ही पाया जा सकता है"...
"जैसे आपकी बीवी के पास?"...
"बिलकुल!...उसके अलावा पूरे मोहल्ले में है ही कौन जो उसकी टक्कर थाम सके?"..
"जी!..है तो नहीं लेकिन...
"मैँ तो कहता हूँ कि हर इनसान को तजुर्बा हासिल करना चाहिए...खूब हासिल करना चाहिए...जी भर हासिल करना चाहिए "...
"जी"...
"तजुर्बा तो इनसान को अल्लाह ताला के द्वारा की गई दुनिया की सबसे बड़ी नेमत होता है"...
"जी!...आपकी बात तो सही है लेकिन वो...जमनादास की घरवाली तो हर जगह कहती फिरती है कि कलकत्ता में उसने बड़े-बड़े लोगों के...
"जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए नहीं हैँ उस बावली को पैदा हुए और मेरी...इस...इस तनेजा की बीवी का मुकाबला करने चली है?"मैँ हाँफता हुआ बोल पड़ा...
"हुँह!...बड़ी आई कलकत्ते वाली..एक-दो कच्चे-पक्के अचार क्या बना लिए होंगे वहाँ उसने ...खुद को पाक-कला की विशेषज्ञा समझने लगी?"...
"उस कल की लौडी को क्या पता कि कच्ची कैरी का खट्टा-मीठा अचार कैसे बनाया जाता है?"...
"जी!..इस बार तो गलती हो चुकी है..अगली बार से आप ही....
"मैँ ना कहता था कि ये अड़ोसी-पड़ोसी...ये रिश्तेदार...ये भाई-बन्ध..कोई काम नहीं आएगा...आएगा तो सिर्फ ये तनेजा खुद या फिर उसकी पैँतालिस वर्षीया बीवी ही तुम्हारे काम आएगी"...
"हें...हें...हें...तनेजा जी!..आप तो बिलावजह शर्मिन्दा कर रहे हैँ मुझे"...
"बिला वजह?...ये तो काम है मेरा"...
"क्या मतलब?"...
"दूसरों को बात-बात में बेईज़्ज़त करना ही तो अपुन का स्टाईल है बिड्डू"..
"ओह!...
"हाँ!..तो आप कहाँ?...कहाँ चलने के लिए कह रहे थे?"..
"कहीं नहीं"...
"क्या मतलब?...अभी तो आप कह रहे थे कि...
"आप जाईए!...मैँ अपने आप चला जाऊँगा"...
"कमाल करते हो तुम भी....अगर ऐसे ही करना था तो मुझे रोका किसलिए था?"..
"आप रहने दीजिए...मैँ अपना आराम से बस में चला जाऊँगा"...
"देख रहे हो भीड़ कितनी है बसों में?...कहीं पिस-पिसा गए बेकार में पंचर लगवाते फिरोगे"मैँ शर्मा जी की तोन्द की तरफ इशारा करता हुआ बोला..
"कोई बात नहीं...मैँ पंचर लगवा लूँगा...आपके साथ जाने के बजाय पंचर लगवाना ज़्यादा बेहतर रहेगा"शर्मा जी मन ही मन बुड़बुड़ाते हुए बोले..
"हा...हा...हा...तो इसका मतलब आप डर गए"...
"क्क्या मतलब?"...
"आ गए ना बच्चू मेरे झाँसे में?"..
"क्या मतलब?"...
"मैँने ज़रा सा मज़ाक क्या कर लिया?...आप तो उसे सच समझ...बुरा मान बैठे"...
"मज़ाक?"...
"और नहीं तो क्या मैँ सच में तुम्हारी वाट लगाने वाला था?"...
"ओह!...मैँ तो इसे सीरियसली ही समझ बैठा था"...
"पागल हो गए हो क्या?...दोस्त हूँ तुम्हारा...बताओ!...कहाँ छोड़ दूँ?"...
"बाईपास"...
"कहाँ जाना है?"...
"पानीपत"...
"अभी पिछले हफ्ते भी तो आप वहीं गए हुए थे ना?"...
"जी"...
"तो फिर अब दोबारा...इतनी जल्दी किसलिए?"...
"वोही...हर बार का रुटीन"..."ओह!...तो क्या फिर कोई लुढक गया?"...
"जी!...अभी परसों ही...पता नहीं कैसे?...मेरी मौसी के फूफा थे...अचानक बिना किसी नोटिस के ऊपर से बुलावा आ गया"..
"ओह!...
"पिछले आठ महीनों से पता नहीं क्या अजब का संयोग बन रहा है मेरे साथ कि हर महीने दो-चार...दो-चार कर के सभी जान-पहचान वाले अल्लाह को प्यारे होते जा रहे हैँ"...
"अल्लाह को प्यारे होते जा रहे हैँ?"...
"जी"...
"लेकिन आप तो हिन्दू हैँ"...
"तो क्या हिन्दुओं में मरना मना है?"...
"नहीं-नहीं!...उनके मरने या जीने पर तो किसी किस्म की कोई बन्दिश...पाबन्दी या रुकावट नहीं है लेकिन...
"लेकिन क्या?"...
"आपने अभी कहा कि अल्लाह को प्यारे हो रहे हैँ तो मैँने सोचा कि शायद किसी 'उलेमा'...'मौलवी'...
'शंक्राचार्य' या फिर किसी 'ब्लॉगर' के कहने में आ कर आप अपना वजूद ही खोने जा रहे हैँ"....
"क्या बात करते हैँ तनेजा जी आप भी?...ऐसा भला कैसे हो सकता है कि मैँ अपना...माँ-बाप का दिया हुआ...खुद का धर्म छोड़ कर...'खुदा' के धर्म को कैसे अपना सकता हूँ?"..
"तो फिर आपने कैसे कह दिया कि....
"ओह!...दरअसल क्या है कि ...'अल्लाह को प्यारा होना' एक मुहावरा है...जिसका मतलब होता है मृत्यू को प्राप्त कर लेना"...
"ओह!...आई एम सॉरी...मुझे इस बारे में बिलकुल भी पता नहीं था"...
"एक्चुअली!..क्या है कि मेरी हिन्दी शुरू से ही थोड़ी वीक किस्म की रही है..इस नाते कई बार मुझे...
"इट्स ओ.के...इट्स ओ.के...इसमें शर्मिन्दा होने की कोई बात नहीं है...हिन्दी बाहुल्य क्षेत्र में रहते हुए भी हम में से कितनों को शुद्ध हिन्दी लिखनी आती है?"...
"जी"...
"किसी को मात्राओं का पता नहीं चलता तो किसी को पूर्णविराम का ज्ञान नहीं और कोई-कोई तो...
"कोई-कोई तो?"..
"खैर छोड़ो!...मुझे भी कौन सा ढंग से पूरी हिन्दी आती है?"...
"तो फिर चलें?"...
"जी"...
"ओ.के...लैट मी स्टार्ट इट"..
"आपका ये एहसान मैँ ज़िन्दगी भर नहीं भूलूँगा"...
"इसमें एहसान की क्या बात है?...दोस्त हैँ आप मेरे...इस नाते इतना तो फर्ज़ बनता ही है मेरा"...
"जी!...तनेजा जी लेकिन आप जैसे चन्द पुराने ख्यालात वाले मित्रों की दकियानूसी सोच को अगर किनारे कर के देखें तो ये फर्ज़...कर्तव्य...ड्यूटी वगैरा की चिंता करता ही कौन है?"...
"जी!..ये सब तो पैदाईशी गुण होते हैँ जो हमें जीन में अपने माँ-बाप और पूर्वजों से मिले होते हैँ"...
"पूर्वजों से?"...
"जी"...
"तो क्या उनके वक्त में भी जीन्स का रिवाज़ था?"...
"क्या मतलब?"..
"अभी आपने कहा ना कि हमें अपने पूर्वजों से जीन्स मिलती थी"..
"ओह!..आप मेरी बात का गलत मतलब लगा बैठे..मेरा मतलब था कि हमें हमारे पूर्वजों के वंशानुगत गुण अपने आप ऐज़ ए गिफ्ट मिलते हैँ"...
"यू मीन उनका अपने आप हमारे अन्दर संचार होता रहता है?"..
"जी"..
"ओह!...मैँ भी कितना मूर्ख हूँ..किस बात का क्या मतलब लगा बैठा?"..
"इट्स ओ.के..इट्स ओ.के...जैसे ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती ...ठीक वैसे ही अज्ञानता की भी कोई सीमा नहीं होती...जितनी मर्ज़ी हो सकती है"..
"क्या सच?"..
"बिलकुल सच"..
"थैंक गॉड!...आपने तो मेरे सिर से बहुत बड़ा बोझ हल्का कर दिया...मैँ तो ऐसे ही खुद को पागल..
"अरे वाह!...बोझ तो आपका मैँ हलका कर रहा हूँ और आप शुक्रिया उस नीली छतरी वाले खुदा का कर रहे हैँ"...
"ओह!..सॉरी...आई एम रियली सॉरी...मुझे लगा कि"...शर्मा जी सर झुका शर्मिन्दा से होते हुए बोले
"प्लीज़!...डोंट फील गिल्टी...आप अपने को इस सब के लिए तनिक भी कसूरवार मत समझें..आजकल तो वैसे भी एहसान फरामोशों का ज़माना चल रहा है"...
"रियली?"..
"जी"...
"तो फिर ठीक है"शर्मा जी खुश होते हुए बोले...
"अब चलें?"...
"जी"..
"लाईए!...अपना ये झोला मुझे दे दीजिए...मैँ इसे आगे टाँग लेता हूँ"..
"नहीं!...रहने दीजिए...आपको मुश्किल होगी...मैँ हाथ में ही पकड़ लूँगा"...
"कमाल करते हैँ आप भी...एक तरफ दोस्त कहते हैँ और दूसरी तरफ दोस्ती का फर्ज़ भी ठीक से पूरा नहीं करने देते हैँ"....
"आपको कहीं मुश्किल ना हो जाए...मैँ तो इसलिए मना कर रहा था"...
"अजी छोड़िए!...काहे की मुश्किल?...जब स्कूटर ने वज़न उठाना ही है तो दो-चार किलो ज़्यादा सही या दो-चार किलो कम सही...क्या फर्क पड़ता है?"...
"जी!...ये बात तो है"...
"तो फिर चलें?"...
"जी"...
"ओ.के!..दैन लैट मी स्टार्ट इट"कहते हुए मैँ अपने स्कूटर को किक मार स्टार्ट कर आगे बढ लेता हूँ
"आप आराम से बैठे हैँ ना?"...
"जी"...
"कोई दिक्कत या परेशानी हो तो आप पहले बता दीजिएगा...मैँ बाद में थोड़ा आगे हो जाऊँगा"...
"बाद में क्यों?...पहले क्यों नहीं?"..
"बैलैंस नहीं बिगड़ जाएगा हमारा?"..
"ओह!..इस ओर तो मैँने ध्यान ही नहीं दिया"...
"तो फिर दीजिए ना"...
"जी!..ज़रूर..अभी फिलहाल तो कोई दिक्कत नहीं है..अपना आराम से....फर्स्ट क्लास बैठा हूँ..और फिर वैसे मैँ हूँ भी कितना?..कुल जमा अढाई छंटाक ही तो मेरा वज़न है"...
"हा...हा...हा...मातमपुर्सियों पे मुफ्त का खा-खा के पूरे ठुस्स पे ठुस्स हुए जा रहे हैँ आप लेकिन गुमान अभी भी वोही उन्नीस साल पुराना कि आप 'गुलशन बावरा' की तरह किंगड़ पहलवान दिखते हैँ"..
"जी!...अब बार-बार कौन अपना स्टेटस बदल-बदल के उसे अपडेट करता फिरे?...एक बार जो सोच लिया ..सो सोच लिया"..
"ओ.के"....
"अंत्येष्टी कितने बजे की है?"...
"चार बजे की"...
"लेकिन दो तो तुम्हें यहीं बजने वाले हैँ"...
"जी!..बस ऐसे ही...सुबह नल में पानी नहीं आ रहा था तो नहाने-धोने में देर हो गई...और बाद में घर से निकला तो रस्ते में अपने डॉक्टर साहब मिल गए"...
"कौन?...वो झोलाछाप?"...
"जी"...
"उसी के चक्कर में देर हो गई होगी?"...
"जी"..
"स्साला!...है ही इतना बातुनी कि अगर सुबह किसी को पकड़ ले तो समझों वो बन्दा गया काम से...शाम तक का उसका दानी-पानी वहीं...उसी डॉक्टर के साथ ही लिखा गया"..
"जी"...
"तो फिर तुम कैसे जल्दी छूट गए?"...
"डॉक्टर वो है लेकिन आज तो मैँने उलटा उसे ही गोली दे दी"...
"क्या मतलब?"...
"मैँने उसे गोली दे दी कि वापसी में उसके लिए पानीपत से ठर्रे की दो बोतल लेता आऊँगा"...
"तो क्या सचमुच में?"...
"अरे यार!...टाईम मिलेगा तो ले आऊँगा"..
"और नहीं मिला तो?"...
"नहीं मिला तो कह दूँगा कि ला रहा था...रस्ते में गिर के फूट गई"...
"गुड!...वैरी गुड"..
"वो तो यार...मुझे भी चाहिए थी लेकिन देसी नहीं...इंगलिश"...
"तो क्या दिक्कत है?...जहाँ उसके लिए दो लाऊँगा...वहाँ आपके लिए भी एक लेता आऊँगा"...
"नहीं!...मुझे भी दो चाहिए"...
"ठीक है बाबा!...दो लेता आऊँगा...क्यों निराश होते हो?"...
"थैंक्स"...
"इसमें थैंक्स की क्या बात है?...दोस्त हैँ आप मेरे"...
"जी"...
"तो फिर चलें?"..
"जी!..बिलकुल"...
"लेकिन मुझे लग रहा है कि आप टाईम पे पहुँच नहीं पाएँगे"...
"वो क्यों?"..
"सवा दो तो यहीं बज चुके हैँ"..
"ओह!..फिर तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी"गुप्ता जी घड़ी देख हड़बड़ाते हुए बोले...
"चिंता मत करो!...यहाँ से बाईपास है ही कितना दूर?..दस मिनट में पहुँच जाएँगे...और फिर कल पानीपत में बारिश भी तो हुई है"..
"जी!...हुई तो है लेकिन उससे क्या होता है?"...
"शमशान घाट की लकड़ियाँ भी तो भीग गई होंगी"...
"तो?"..
"मुर्दा फूंकने में दस-बीस मिनट तो फालतू के लग ही जाएँगे"...
"ओह!...इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया"....
"अब तो काम बन जाएगा ना?"...
"जी!...बिलकुल"...
"तो फिर चलें?"..
"जी"...
"बाईपास आते ही जो पहली बस नज़र आए..छलांग लगा...उसी में लपक के चढ जाना...अपना आराम से पहुँच जाओगे"..."जी"...
"ओह!...ये क्या?"...
"क्या हुआ?"...
"देख नहीं रहे कि सामने स्साले...लट्ठ लिए खड़े हैँ"...
"कौन?"...
"ठुल्ले...और कौन?"...
ओह!...
"लो!...ये हैलमेट पहन लो फटाफट"...
"जी"...
"शुक्र है!...स्सालों की नज़र नहीं पड़ी"...
"पड़ती भी कैसे?..मैँने अपना मुँह जो दूसरी तरफ घुमा लिया था"...
"गुड!...ये आपने बहुत अच्छा किया...वर्ना अभी ठुक जाने थे पाँच-सात सौ"...
"पाँच-सात सौ?"..
"जी!...
"लेकिन इनकी औकात तो सौ-पचास से ज़्यादा की होती ही नहीं है...तो फिर पाँच-सात सौ कैसे?"...
"अरे भाई!...दिवाली का सीज़न चल रहा है...इस से कम में तो उन्होंने अपनी नाड़(गर्दन) भी सीधी नहीं करनी थी"...
"ओह!...
"अब इस टोप्पे को बाईपास से पहले ना उतारना...क्या पता?..स्साले..वहाँ भी खड़े हों"...
"जी"...
"बस!..पहुँच ही गए समझो...दो मिनट और लगेंगे"...
"जी"...
"धत्त तेरे की...ये क्या?..यहाँ तो जाम लगा पड़ा है"...
"ओह!...लगता है कि लाल बत्ती खराब हो गई है...तभी इतना जाम लगा हुआ है...वर्ना नए वाले फ्लाईओवर के बनने के बाद तो इस ऐरिया में तकरीबन जाम लगना बन्द ही हो गया है"...
"हम्म!...यही लग रहा है"...
"ये अपनी शीला सरकार काम तो वैसे काफी करवा रही है लेकिन भीड़ इतनी है यहाँ दिल्ली में कि तमाम तरह की सुविधाएँ मिलने के बाद भी पूरा नहीं पड़ रहा है"...
"पूरा पड़े भी कैसे?...1000 नई कारें रोज़ बिकती हैँ यहाँ दिल्ली में और स्कूटर और मोटर साईकिलों की तो कोई गिनती ही नहीं"...
"जी"...
"मेरे हिसाब से तो जब तक कोई एक समान पब्लिक ट्रासपोर्ट सिस्टम लागू नहीं होता पूरी दिल्ली में..इन समस्यायों से निजात पाना बहुत मुश्किल है"...
"मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है"...
"पहली बात तो गांठ बाँध के लिख लो अपनी डिक्शनरी के पहले सफे पे कि नामुमकिन नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं है ज़िन्दगी में"...
"लेकिन इतनी भीड़...कैसे कंट्रोल होगा ये सब?"...
"जहाँ भीड़ भरा अंबार देखो..दो-चार बम गिरा दो स्सालों पर..अपने आप पब्लिक स्वाहा हो जाएगी...फिर आराम से करते रहो मौजां ही मौजां...सिम्पल"..
"लेकिन इन बमों या धमाकों की लपेट में हम और आप भी आ गए तो?"...
"पागल हो क्या तुम?"...
"क्या मतलब?"...
"कभी शिकारी को खुद अपने ही तीर से शिकार होते देखा है?"...
"नहीं"...
"तो फिर?"...
"तनेजा जी!...ये जाम तो लगता है कि शाम से पहले खुलने वाला नहीं...कब तक यूँ ही हम बेकार की बातों में टाईम खोटी करते रहेंगे?"...
"जी!...मैँ भी यहीं सोच रहा हूँ कि अगर आप अपनी मंज़िल पे समय से नहीं पहुँच पाए तो मेरा भी आपको लिफ्ट देना बेकार हो जाएगा"...
"आप एक काम करें"...
"क्या?"...
"आप यहीं से वापिस लौट जाएँ...मैँ अपना आगे पैदल-पैदल ही निकल लेता हूँ"...
"जाम देखा है...कितना है?...सबने आड़ी-तिरछी अपनी गाड़ियाँ फँसा रखी होंगी...ना घर के रहोगे ना घाट के"...
"क्या मतलब?"...
"बीच रस्ते में ही फँस के ना इधर के रहोगे और ना ही उधर के...अभी कम से कम एक जगह टिक के तो खड़े हो"...
"ठीक है!..तो फिर एक काम करते हैँ"...
"क्या?"...
"मैँ धक्का देता हूँ...
"किसे?"...
"स्कूटर को"...
"बाप का माल समझ रखा है क्या?...हाथ लगा के तो दिखाओ"...
"नहीं-नहीं!...आप गलत समझ रहे हैँ...मेरा ये मतलब नहीं था"...
"तो क्या मतलब था?"..
"म्मेरा मतलब तो था कि मैँ आपके स्कूटर को धक्का लगाता हूँ और आप इसे यहाँ से ऊपर...फुटपाथ पे चढा लें"...
"उससे क्या होगा?"...
"कुछ दूर तक तो पहुँच जाएँगे"..
"क्या फायदा?...आगे जा कर फिर कहीं फँस जाएँगे"...
"सभी तो निकाल रहे हैँ...हम भी निकाल लेते हैँ"...
"सभी अगर कुएँ में छलांग लगा रहे हैँ तो क्या हम भी लगा दें?"...
"यहाँ भीड़ के बीच फँसे रहने से तो अच्छा ही है कि हम आहिस्ता-आहिस्ता मूव होते रहें"...
"ताकि बाद में घर जा के जनानी से 'मूव' की मालिश करवाते फिरें?"..
"क्या मतलब?"...
"पत्थर देखें हैँ कि कैसे ऊबड़-खाबड़ फैले पड़े हैँ फुटपाथ पे?...एक मिनट में स्कूटर पलट जाएगा..चोट-चाट लगेगी...सो अलग"...
"तो क्या हुआ?...आप तो फुल्ली इंश्योर्ड हैँ ना?"...
"तो?"...
"फिर दिक्कत क्या है?"..
"मुझे अपनी नहीं...तुम्हारी फिक्र है"...
"किस मुगालते में बैठे हैँ जनाब?...किस मुगालते में?....अभी परसों ही तो मैँ भी अपने बीमे का प्रीमियम भर के आ रहा हूँ"...
"ओह!...दैट्स नाईस लेकिन फिर भी...मुझे डर लगता है"...
"क्या तनेजा जी...आप भी....मेरे होते हुए आप डरते क्यूँ हैँ?...बेधड़क हो के आँखें बन्द कीजिए और राम का नाम लेकर कुदा दीजिए"...
"ना बाबा..ना!..अपने बस का नहीं है"..
"कमाल करते हैँ आप भी..शेरदिल इनसान हो के चूहे जैसी बात करते हैँ...लगता है कि डर गए?"..
"मैँ भला क्यों डरने लगा?...डरें मेरे दुश्मन"...
"तो फिर निकालिए ना"...
"नहीं...बिलकुल नहीं"...
"लेकिन क्यों?"...
"क्या पता कि कहाँ तक जाम लगा है?...निकल पाएँगे...नहीं निकल पाएँगे...कोई गारैंटी नहीं"....
"गारैंटी तो जाम खुलने की भी नहीं लग रही"...
"चलिए!...चल निकलते हैँ"..
"क्या फायदा?...बेकार में ऊबड़-खाबड़ रस्ते पे स्कूटर कुदा अपना हाजमा खराब करते फिरेंगे?"...
"आपके बस का नहीं है ये सब तो लाईए...हैंडिल मुझे थमाईए...मैँ ही आपको अपनी जांबाज़ी का कुछ नमूना दिखा देता हूँ..आप तो ऐसे ही...बेकार में...खामख्वाह डर रहे हैँ"...
"लाईसैंस है आपके पास?"...
"नहीं!...लाईसैंस तो नहीं है"...
"फिर तो बिलकुल नहीं"...
"लेकिन क्यों?"...
"बिना लाईसैंस के गाड़ी चलाना तो सरासर कानून का उलंघन होगा"...
"तो फिर होने दीजिए ना लंघन-उलंघन...क्या फर्क पड़ता है?"...
"अरे वाह!..फर्क क्यों नहीं पड़ता?...बहुत पड़ता है"...
"लेकिन सभी तो ऐसे ही निकले जा रहे हैँ...हम भी निकल जाते हैँ"...
"कतई नहीं!..देश का ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते हमारा पहला फर्ज़ बनता है कि हम देश हित के लिए बनाए गए सभी कानूनों का अक्षरश पालन करें"...
"आपकी इस जिम्मेदारी भरी नागरिकता के चक्कर में मेरी बस निकल जाएगी"...
"तो दूसरी आ जाएगी...उस पे चले जाना...क्या फर्क पड़ता है?...लेट तो तुम वैसे भी हो ही चुके हो"...
"लेकिन दूसरी वाली अगर दो घंटे बाद आएगी तो क्या मैँ दो घंटे वहीं..चौक पर सड़ता रहूँ?"...
"तो?...क्या दिक्कत है?"...
"नहीं!...बिलकुल नहीं..और वैसे भी चुन्नू की मम्मी बता रही थी कि शाम के वक्त रोडवेज़ की बसों में रश बहुत बढ जाता है"....
"लेकिन आपके बेटे का नाम तो पुन्नू है ना?"...
"जी!...पुन्नू शर्मा"...
"तो फिर ये 'चुन्नू' कौन?"...
"अपनी पड़ोसन का बेटा है..नैन-नक्श और शक्ल-सूरत में....
"बिलकुल अपनी माँ पे गया है?"...
"नहीं!...बाप पे"...
"ओ.के"...
"तभी तो हूबहू मुझ से शक्ल मिलती है"...
"क्या?"..
"जी"..
"ओ.के...ओ.के...ये सब तो खैर आजकल की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में चलता ही रहता है"...
"जी"...
"हाँ!...तो आपके 'मन्नू' की मम्मी क्या बता रही थी?"...
"मन्नू...नहीं....'चुन्नू'...'मन्नू' की मम्मी तो गली नम्बर बारह में रहती है"...
"और उसकी शक्ल भी हूबहू आपसे मिलती है?"...
"मन्नू की?"...
"नहीं!...उसकी मम्मी की"मुझे गुस्सा आ गया..
"आपको कैसे पता?"...
"क्या?"..
"यही कि मेरे पिताजी का 'मन्नू' की नानी के घर खूब आना-जाना था?"....
"व्वो...वो तो मैँने बस ऐसे ही आईडिया लगा लिया था"...
"व्हाट ए परफैक्ट आईडिया...सर जी...व्हाट ए परफैक्ट आईडिया"...
"थैंक्स फॉर दा कॉम्प्लीमैंट"...
"हाँ! तो फिर आपकी ये सो कॉल्ड 'मन्नू' की मम्मी क्या कह रही थी?"..
"उसकी नहीं...मम्मी तो 'चुन्नू' की कह रही थी"...
"ओफ्फो!..वही तो पूछ रहा हू कि 'चुन्नू' की मम्मी क्या कह रही थी?"..
"यही कि शाम के वक्त रोडवेज़ की बसों में रश बहुत बढ जाता है?"....
"तो फिर घर से देर से निकलने की गलती की ही क्यों?"मैँ तैश में आ गुस्से से बोल पड़ा...
"जी हाँ!...सब मेरी ही गलती है...सब मेरी ही गलती है...नल में पानी नहीं आया...वो भी मेरी गलती है...रस्ते में डॉक्टर ने रोक लिया...वो भी मेरी ही गलती है और अब यहाँ मैँने आपको लिफ्ट देने के लिए कह दिया तो ये भी मेरी ही गलती है"...शर्मा जी रुआँसे हो फूट-फूट के रोते हुए बोले
"क्या मतलब?...तुमने मुझ से लिफ्ट माँग के कोई गलती की है?"...
"जी!..बहुत बड़ी गलती की है"..
"क्या मतलब?"...
"आपकी जगह कोई और ड्राईवर होता तो मैँ इस समय यहाँ आपके साथ झक मारने के बजाय आराम से हिचकोले खाती हुई बस में पानीपत का सफर कर रहा होता"...
"तो क्या डॉक्टर ने कहा था कि मुझ से लिफ्ट माँगो?"..
"जी!...उसी ने तो मेरी मति भ्रष्ट की थी"...
"क्या मतलब?"..
"उसी पागल के कहने पर तो मैँ स्कूटर रोकने के लिए आपको हाथ दिया था"..
"क्या मतलब?"...
"पहले मैँने डाक्टर गुप्ता से ही रिकवैस्ट की थी बाईपास तक छोड़ने के लिए तो उन्होंने आपका नाम रैफर कर दिया कि पीछे वो बावला तनेजा आ रहा है...शायद उसी तरफ जाएगा...उसी से लिफ्ट ले लो..मुझे ज़रा किसी पेशेंट को अरजैंट देखने जाना है"...
"ओह!...तो इसका मतलब आपने अपने विवेक के आधार पर नहीं बल्कि उस कमीने गुप्ता के कहने पर मुझ से लिफ्ट ली थी?"...
"जी"...
"इस स्साले!...गुप्ता के बच्चे को तो मैँ ज़िन्दा नहीं छोड़ूँगा...हमेशा मैँ ही इसे मिलता हूँ पंगे लेने के लिए"...
"क्या मतलब?"..
"ये जो आप मेरे अन्दर देशभक्ति और कानून का पालन करने वाले सरफिरे कीड़े को जो सट्ट मारते हुए देख रहे हैँ ना"..
"जी"...
"ये सब उसी का किया धरा है"...
"क्या मतलब?"..
"उस हरामखोर ने ही मुझे ये कानून का पालन करने की लत लगवाई है"..
"ओह मॉय गॉड!...इसका मतलब तो वो बड़ा ही कमीना किस्म का इनसान है"...
"जी!..निहायत ही घटिया दर्ज़े का आदमी है..अब तो मुझे उसे आदमी कहते हुए भी शर्म आती है"..
"वो किसलिए?"...
"आदमियों का काम होता है दूसरे की मुसीबत में काम आना"...
"जी"...
"लेकिन ये कमीना तो पहले आग लगाता है और फिर उसी आग में दूसरों को जलते देख प्रसन्न होता है"...
"ओह!...लेकिन हुआ क्या?...आप मुझे सारी बात खुल के बताएँ"...
"इसी कमीने के चक्कर में सब मेरा मज़ाक उड़ाने लगे हैँ आजकल"..
"लड़कियों से लेकर छोटे-छोटे अबोध बच्चे तक...सब की हँसी का पात्र बन गया हूँ मैँ"..
"लेकिन कैसे?"...
"तुम तो जानते ही हो कि पहले मेरा और डॉक्टर का खूब याराना हुआ करता था"....
"और अब छतीस का आंकड़ा?"..
"जी"..
"लेकिन कैसे?...पहले तो पूरा मोहल्ला मिसालें दिया करता था आप दोनों की दोस्ती की"...
"अब कसमें खाया करते हैँ हमारी दुश्मनी की"..
"जी!..लेकिन ये सब हुआ कैसे?...
"बात ही कुछ ऐसी हुई हम दोनों के बीच कि हमारे रास्ते...हमारी मंज़िलें जुदा-जुदा हो गई"..
"आखिर ये सब हुआ कैसे"...
"बात ज़्यादा पुरानी नहीं है...एक दिन ऐसे ही सड़क किनारे खड़े हो कर हम दोनों अपनी पिछली माशूकाओं के किस्से और उन से सम्बन्धित अपने अनुभवों को एक दूसरे के साथ सांझा कर रहे थे कि...अचानक मुझे इशारा करते हुए वो ज़ोर से चिल्लाया..ओए तनेजा!...देख माल जा रहा है"...
"ओ.के...फिर क्या हुआ?"...
"मैँने पलट के देखा तो एक कसे हुए बदन की स्वामिनी स्कूटर सवार कन्या...हाथ हिला...हमें वेव करती हुई फटाक से हमारी बगल से सांय-सांय करती हुई निकल कर सामने लाल बत्ती पर खड़ी हो गई"..
"ओ.के"...
"जैसे ही मैँ उसके पीछे जाने के लिए लपका तो तुरंत ही डॉक्टर ने पीछे से मेरा कॉलर खींच के कहा कि..." पहले मैँने इसे देखा था इसलिए पहले मैँ ही जाऊँगा इसके पीछे"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"मैँ कौन सा कम था मैँने साफ-साफ कह दिया कि अगर यही सब करना था तो मुझे आवाज़ दे के चेताया क्यों था?"...
"इस हिसाब से तो पहला हक आप ही का बनता था उस पर"...
"वोही तो...लेकिन वो कमीना इतनी आसानी से कहाँ मानने वाला था..उल्लू का पट्ठा मेरा कॉलर छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा था"..
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"मैँ कौन सा कम था?..मैँने अपने कॉलर की परवाह किए बिना उसे इतनी ज़ोर से झटका दिया कि ये जा..और वो जा"...
"डॉक़्टर?"...
"नहीं!...मेरा कॉलर"...
"ओह!...
"मैँ सीधा लाल बत्ती की तरफ लपका कि इतने में अचानक हरी बत्ती हो गई और वो ये जा..और वो जा"...
"ओह!...उसका कोई क्लू या पहचान वगैरा?"..
"पतली कमर...लम्बे बाल"..
"ऐसी लड़कियाँ तो हमारे शहर में ना जाने कितनी होंगी"..
"जी!...सेम टू सेम यही तो दुविधा हो रही थी मुझे कि उसे कहाँ ढूँढू?..कैसे ढूँढू?...ना नाम का पता...और ठिकाना लापता"..
"फिर क्या हुआ?"..
"होना क्या था?..चुपचाप मायूस हो के बैठने के अलावा और चारा भी क्या था मेरे पास?"...
"ओ जाने जाँ...ढूँढता फिर रहा...मैँ तुम्हें रात-दिन..मैँ यहाँ से वहाँ...
मुझको आवाज़ दो...छिप गए हो सनम...तुम कहाँ"...
"क्या मतलब?"...
ये गीत गुनगुनाने के अलावा मेरे पास कोई और चारा ही नहीं बचा था"...
"ओ.के"...
"फिर एक दिन ऐसा लगा जैसे भगवान ने मेरी सुन ली"...
"वो लड़की मिल गई?"...
"नहीं!...वो ज़ालिम भला इतनी आसानी से कहाँ मिलने वाली थी?...लेकिन जैसे साक्षात चमत्कार हो गया हो मेरे सामने"...
"क्या मतलब?"...
"अचानक सोते वक्त सपने में मेरी यादाश्त ने ज़ोर मारा और...
"और उसका मासूम चेहरा अचानक आपकी आँखों के सामने आ गया?"..
"कमाल करते हैँ शर्मा जी..आप भी..जब एक बार बता दिया कि वो हमारे पीछे की तरफ से आई थी और आगे की तरफ गई थी तो इसमें उसके चेहरे के दिखने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता ना"...
"ओह!..तो इसका मतलब ज़रूर आपको उसकी लचकती..बल खाती कमर दिख गई होगी?"...
"तो क्या तुम भी उससे मिल चुके हो?"..
"नहीं-नहीं!..मैँ भला उसे कैसे मिल सकता हूँ...वो तो आपके सपने में आई थी ना"..
"तो फिर आपने उसका जुग्राफिया एकदम एगज़ैक्ट याने के सेम टू सेम कैसे बता दिया?"...
"बस ऐसे ही..आईडिए से"...
"कुर्बान जाऊँ तुम्हारे नेक आईडिए पे..क्या सटीक आईडिया है"...
"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट...फिर क्या हुआ?"...
"अचानक सपने वो दिख गया जिसे बहुत पहले दिख जाना चाहिए था"...
"क्या दिख जाना चाहिए था?"...
"स्कूटर की स्टैपनी पे लिखा हुआ 'ब्रह्म' वाक्य..."हाय नी!...मैँ लेट हो गई"...
"ये उसकी स्टैपनी पे लिखा हुआ था?"...
"नहीं!..उसके कवर पे"...
"ओ.के!...फिर क्या हुआ?"...
"फिर क्या होना था?...जैसे ही मुझे वो 'ब्रह्म' वाक्य दिखाई दिया मैँ तो बल्लियों उछल कर पलंग से सीधा ज़मीन पे आ गिरा"...
"ओह!...चोट वगैरा तो नहीं आई ना?"...
"आई ना!...लेकिन मुझे नहीं...मेरे मुण्डू को"..
"पलंग से आप गिरे थे?"...
"जी"...
"और चोट मुण्डू को आई?"..
"जी!...अभी भी अस्पताल में भरती है...तीन-चार दिन में रिलीव हो जाएगा"...
"लेकिन कैसे?...गिरे तो आप थे"...
"ओह!..सबसे अहम बात तो मैँ आपको बताना भूल ही गया कि नीचे फर्श पे मेरी बगल में मेरा मुण्डू सो रहा था"...
"बेचारा!...फिर क्या हुआ?"...
"होना क्या था?..अगले दिन से मैँ उस नामुराद की खोज में दिन-रात एक कर के लग गया"..
"मुण्डू की?"....
"कमाल करते हैँ आप..मैँ भला उसे क्यों खोजने लगा?...और वैसे भी वो तो अस्पताल में ही था"...
"तो फिर?"..
"उसी बृह्म वाक्य वाली लड़की को खोज रहा था मैँ"...
"ओ.के!...फिर क्या हुआ?"...
"बस ऐसे ही एक दिन मैँ भरी दोपहरी में...लाल बत्ती पे खड़ा...पसीने में तरबतर हो उसी के बारे में सोच रहा था कि अचानक पीछे सांय की आवाज़ के साथ एक टू-व्हीलर उसी ब्रह्म वाक्य(हाय नी!...मैँ लेट हो गई)को अपने स्टैपनी कवर पे चिपकाए लालबत्ती जम्प कर आगे की तरफ लपका और..."और उसके पीछे-पीछे आप भी लपक लिए?"...
"जी!...लेकिन वो तो साफ बच के निकल गई और मैँ पुलिस वालों द्वारा लपक लिया गया"...
"ओह!...
"स्सालों ने वो ठुकाई की...वो ठुकाई की कि बस पूछो मत"...
"अन्दरली जेब तक खंगाल खंगाल मारी"...
"ओह"...
"पूरे बारह सौ पच्चीस रुपए थे मेरी उस जेब में...उन्हें लेने के बाद भी स्साले...हरामखोर बार-बार यही कहे जाएँ कि और निकाल..और निकाल"...
"तो आपको बाकी के पैसे भी निकाल के मुँह पे मारने थे हरामखोरों के"...
"वोही तो किया....जितनी भी रेज़गारी पड़ी थी जेब में...सारी की सारी निकाल के उनके मुँह पर दे मारी"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"फिर क्या?...उसके बाद तो उन्होंने मेरी वो धुनाई की...वो धुनाई की कि बस पूछो मत"...
"ओह!..ये तो बहुत बुरा हुआ आपके साथ"...
"अजी अभी कहाँ?...बुरा होना तो मेरे साथ अभी बाकी था"...
"क्या मतलब?"...
"इतनी ठुकाई और लुट-पिट जाने के बाद एक बेचारे पुलिस वाले को मुझ पर तरस आ गया"..
"ओ.के"...
"वो मेरे पास आ...मुझ से हमदर्दी जताते हुए बोला कि...भईय्ये!...के बात?..घणा जलदी में था?"..
"जी"...
"तो फिर भईय्ये ...अगर थमने घणी जलदी होवे सै ओर थम्म सबर बी कोणी कर सकदे तो फेर टैम पे निकल्या करो ना घर से"...
"बिलकुल सही कहा उसने...फिर क्या हुआ?"..
"उसकी हमदर्दी भरी बातें सुन मैँने उससे झूठ बोलना उचित नहीं समझा और उसे सब कुछ सच-सच बता दिया"...
"गुड!..ये आपने अच्छा किया...फिर क्या हुआ?"..
"फिर क्या होना था?..मेरी पूरी बात सुनने के बाद वो तो जैसे पागल हो गया...अपनी टोपी उतार...अपने बाल नोचता झूम-झूम कर नाचते-गाते हुए ठुमकने लगा"..
"ओह!...लगता है कि उसे अचानक कोई दौरा वगैरा पड़ा होगा"...
"शायद...उसे ऐसे हँसता हुआ देख उसके बाकी साथी भी उसके पास दौड़े चले आए और उससे उसके ऐसे हँसने की वजह पूछने लगे और वजह बताने पर वे सभी भी अपना पेट पकड़ कर हँसते हुए वहीं सड़क पर लोट-पोट होने लगे".....
"आखिर ऐसा क्या अनोखा बता दिया था उसने कि उन सभी की ऐसी दयनीय हालत हो गई"...
"उनकी कहाँ?...सबसे दयनीय हालत तो मेरी हुई थी"....
"क्या मतलब?"...
"उसने जो बताया..उसे सुन कर तो एक बार को मैँ भी हक्का-बक्का हो चक्कर खा के गिरने ही वाला था कि भगवान ने जाने कैसे मुझे इतनी हिम्मत और ताकत दी कि मैँ इतने बड़े आघात को दिल से लगाने के बजाय उन सभी को टुकुर-टुकुर बस देखता रहा...बस देखता रहा"..
"ओह!...आखिर उसने बताया क्या था?"...
"यही कि वो "हाय नी!..मैँ लेट हो गई" वाले ब्रह्म वाक्य वाली कोई कमसिन कन्या नहीं बल्कि....
"बल्कि कोई लड़का था?"..
"शर्मा जी!...लड़का होता तो भी मैँ सुप्रीमकोर्ट के आदेश के चलते कुछ सब्र कर लेता...लेकिन वो तो.....वो तो..
"वो तो?"...
"वो तो ना लड़का...ना लड़की....
"क्या मतलब?"..
"वो तो एक 'छक्का' था"..
"जी"...
"ओह!..माई गॉड...इसका मतलब तो आपके साथ बहुत बुरी बीती"..
"जी!...बहुत बुरी"....
"लो शर्मा जी!...बातों-बातों में ध्यान ही नहीं रहा कि जाम तो कब का खुल चुका है"...
"जी"...
"तो फिर चलें?"...
"नहीं"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"हाय!...नी मैँ लेट हो गई"...
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
http://hansteraho.blogspot.com
+919810821361
+919213766753
19 comments:
राजीव जी आपने बहुत हंसाया शुरू से अंत तक हर लाइन मजेदार..और रही बात जाम वाली तो दिल्ली में चाहे बम फेंकिए का कुछ भी जाम लगता नही कभी ख़त्म होगी..
बढ़िया हास्य से सराबोर प्रस्तुति.....धन्यवाद राजीव जी
पोस्ट बहुत बड़ी थी लेकिन आखिर तक बाँधें रखा आपकी लेखनी ने। धन्यवाद।
राजीव जी, कल भेंस के पीछे जोहड मै धकेल दिया... ओर आज इस ?? के पीछ लेट हो गये... बहुत मजेदार, चलिये घर तो पहुच गये ना
राम राम जी की
राजीव भाई,
आपकी इस पोस्ट ने बचपन की एक शरारत याद दिला दी...हम रिक्शा (ऑटो नहीं साइकिल रिक्शा) को रोक कर कहते थे...ऐ भाई, घंटाघर जाएगा क्या...बेचारा रिक्शा वाला कहता था...हां, जाऊंगा...फिर अपुन कहते थे...जा, फिर देख क्या रहा है...वो बेचारा मन ही मन हमारी शान में एक से फक्कड़ तोलता चला जाता था...
एक सलाह और...अगर राजीव भाई इस पोस्ट को दो टुकड़ों में बांट कर भी ठेल देते तो दोनों दिन एक जितना ही मज़ा देती...
जय हिंद...
अब हम भी ढूढेगे कोई लिफ्ट मांगने वाला ।
राजीव भाई यह तो मानना पडेगा कि आप एक उम्दा व्यंग्यकार है, और समाज और समय पर आपकी नजरिया भी शीशे की तरह साफ और स्पष्ट है, एक सुर और लय में आप इतना कुछ कह जाते हैं, यह आपकी विलक्षण प्रतिभा का नमूना है, खैर इस महंगाई के समय में, जहां लोग सब्जी के साथ रोना भी लेकर आते हैं, वहीं आप अपना बहुमूल्य समय बरबाद कर हमें हंसी का खजाना अर्पित करते हैं, आप को मेरी ओर से बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं, लेकिन मिञ एक प्यार भरा सुझाव भी है कि आप यदि छोटी छोटी लिखते तो और भी बेहतर हमारे लिए होता, क्यों कि आप इतना अच्छा लिखते हैं कि इतना लम्बा पढने को मन तो करता है, लेकिन समय का अभरीव होता है, सो मन मसोस कर कभी कभी छोडना पडता है, अतः एक बार इस पर विचार करें
आप का मिञ
अरूण कुमार झा
हे भगवान पढते-पढते थक़ गया,हंसते-हंसते थक़ गया और सोचते-सोचते भी थक़ गया कि इतना सोचते कैसे हो?इतना लिखते यानी टाईप कैसे कर लेते हो औए इतना कंटिन्यूटी कैसे मेन्टेन कर पाते हो,मान गये गुरू,जाम मे फ़ंस कर ड्राप करने का इरादा भी हुआ पर भले ही लेट हो गया मगर छोडा नही।छा गया गुरु।
पढ़ते - पढ़ते लग रहा था इसका अंत कब आएगा, बेहद ही सशक्त एवं मजेदार हास्य प्रस्तुति के लिये आभार ।
Singamara reading your blog
shutroo se akhir tak apnee rang men rahee lekhnee bahut khoob
आख़िरी तक सस्पेंस बरकरार रहा , और क्लाइमेक्स में तो मज़ा आ गया ..
bahoot sundar, ek zabardast vyang Rajeev ji. thoda lamba zaroor laga lekin shuru se ant tak tartamya nahin toota.... laga wapas Delhi pahunch gaya hoon aur traffic jam ke beech fans ke khada hoon.
bahut bahut shukriya,,, aur haan ji shukriya apne blog 'swarnimpal.blogspot' pe aake margdarshan karne ke liye bhi. aap suljha insaa samajh rahe hain aur main hoon ki sirf insaan banne ki hi koshish me laga hoon ab tak.. sulajh to baad me loonga.. :)
बहुत खूब....!!
हास्य के पुट के साथ कुछ अच्छे सन्देश भी दे गए बधाई..
मगर पोस्ट को थोडा छोटा लिखे तो पढने में सुलभ रहेगा...!!
जाम और यातायात के मेल में
इस व्यंग्य में शब्दों का जाम
घनघोर है, जोर है, शोर हर ओर है
कभी हंस रहे हैं
कभी ठुमक रहे हैं
उधर चैटिंग करने वाले
दनादन खटका रहे हैं
और हम इस जाम में ऐसे फंसे हैं
उधर नहीं जा पा रहे हैं।
पर सबकी शिकायत एक ही है
इंधन कम हो शब्दों का
तो हमारे समय का इंधन बचे।
कथा अच्छी रही
लिफ्ट शिफ्ट और स्टैपनी
कभी अपनी न हुई
सिर्फ कानून और सड़कों के गड्ढे
सदा अपने ही रहे
कभी सपने न बने।
अब टिप्पणी इससे ज्यादा करूंगा
तो पाठकों के साथ अन्याय होगा
इसलिए चलता हूं
फिर मिलता हूं।
हाय नी मैं भी लेट हो गयी ..टीपने में..मगर अब तो आ ही गया जी...लो झेलो..
अमा राजीव भाई इतना तो तय है कि पोस्ट आप भी हमारी तरह ही घराडी को देखेने नहीं देते ..वरना तो व्यंगय के साथ साथ आप कोई दर्द भरी सार्वभौमिक रचना भी लिख रहे होते। और भैया मैं समझ गया आप राजधानी में राष्ट्र मंडल खेल नहीं होने दोगे..।
प्रिय मित्रो,
आप सभी को सादर नमस्कार,
अपना कीमती समय देकर मेरी इस रचना को पढने और इस पर अपनी अमूल्य टिप्पणियाँ देने के लिए आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद... आप सभी की शिकायत जायज़ है कि कहानी बहुत लम्बी हो गई लेकिन इस बार जब लिखने के बाद मैँ अपनी कहानी को संपादित कर रहा था तो समझ नहीं आ रहा था कि कैसे अपने दही को खट्टा समझ उसका चीरफाड़ करूँ?
मेरी पूरी कोशिश ये थी कि किसी तरीके से साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे(मेरी कहानी की तारतम्यता भी ना टूटे)
समझ नहीं आ रहा था कि कौन सा हिस्सा काटूँ और कौन सा रहने दूँ?
शायद!...मैँ अपने लिखे पर खुद ही मंत्रमुग्ध था :-) जो मुझे नहीं होना चाहिए था :-(
अब इसे मेरी विफलता कहें या फिर......
छोड़ो!...मुझे कौन सा ज़्यादा हिन्दी आती है ?...
उम्मीद करता हूँ कि आप सभी साथियों का प्यार यूँ ही बेशुमार मुझ पर बरसता रहेगा
हैप्पी ब्लॉगिंग
विनीत:राजीव तनेजा
बिग बॉस वाला रोहित वर्मा तो नहीं था। सच बताईए..तनेजा जी।
बात-बात में बात भी हो गयी और सब कुछ कह भी दिया. पढ़ कर अच्छा लगा.
ये खुर्रांट बिल्ली हमारे लठैत ताऊ की तो नहीं लगती...
लो जी, मैं भी लेट हो गया टिप्पणी करने में :-)
क्लाईमैक्स बढ़िया रहा
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