तीन बच्चे पानीपत के और दो फरीदाबाद के पकड़ लो

***राजीव तनेजा***

“ऐसा आखिर कब तक चलेगा बॉस?”…

“क्यों?…क्या हुआ?”…

“क्या हुआ?..जैसे आप जानते ही नहीं हैं….यहाँ दिन-रात खाली बैठने से भूखों मरने की नौबत आ गई है… और आप कह रहे हैं कि क्या हुआ?”…

“तो इस तुगलकी शीला के कुलबुलाते फरमान की आंच में मैं ही कौन सा माल-पुए सेंक रहा हूँ?…तुम्हारी तरह मैं भी तो खाली ही बैठा हूँ ना?"…..

“आपका खाली बैठना…ना बैठना एक बराबर है बॉस”….

“क्या मतलब?”…

“आप तो खाली बैठे-बैठे भी कंप्यूटर पर उँगलियाँ टकटका कर दो दूनी चार करते हुए इधर-उधर से अपना काम चला लेंगे…..लेकिन हम….हम क्या करें?”…

“फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन इस कहानियाँ लिखने के बिलबिलाते शौक से मुझे दुअन्नी भी नसीब नहीं होती है…इन्हें तो मैं बस ऐसे ही…महज़ टाईम पास करने के लिए लिखता हूँ”…

“चलो…घर बैठे आपका टाईम तो पास हो जाता है कम से कम लेकिन यहाँ परदेस में रोजाना खाली बैठ-बैठ के हम किसकी माँ-बहन एक करें?”…

“मेरी और अपनी छोड़ के..बाकी सबकी”…

“लेकिन बॉस…ऐसा आखिर कब तक चलेगा?…कब तक?…कब तक हम यूँ निठल्ले बैठ के दूसरों की …..

“ठीक है!…तो फिर आज अपनी वालियों को ही छेड के काम चला लो लेकिन ध्यान रहे कि माल अपना है…पराया नहीं”…

“नहीं!…बॉस…नहीं….मेरा ये मतलब बिलकुल नहीं था”….

“तो क्या फिर ऐसे ही….फ़ोकट में डरा रहे थे?….

“क्या बॉस…आप भी?….म्म….मेरा कहने का तो मतलब था कि कब तक हम इस सच को नकारते हुए कि..हमारे अपने घर में भी ..खुद की निजी..सगी माँ-बहनें हैं… हम यूँ खुलेआम पराए टोटटों को ताड़ अपनी नीयत काली करते फिरें?…आखिर कब तक?”…

“तो फिर टाईम-पास के लिए तुम कोई और डीसेंट सा काम क्यों नहीं ढूंढ लेते?”…

“अब इस टोटटे ताड़ने से और भला डीसेंट काम क्या होगा बॉस?”…

“बात तो तुम्हारी एकदम सही है…इसमें ना तो हींग लगती है और ना ही फिटकरी और रंग तो चोखा चढ़ता ही है"…

“बिलकुल!…इस महँगाई भरे युग में बिना कुछ खर्चा किए मुफ्त में आँखें सिक जाएँ इससे ज्यादा और भला क्या चाहिए किसी नेक बंदे को?”…

“ठीक है!…तो फिर जैसे गाड़ी चल रही है…चलने दो"…

“लेकिन क्या मुफ्त में?”…

“क्या मतलब?”…

“कब तक?…आखिर कब तक हम यूँ ही मुफ्त में लोगों की माँ-बहन एक करते फिरें?”..

“तो तुम चाहते हो कि इस नेक काम के लिए भी तुम्हारे समक्ष बतौर नजराना कुछ फीस पेश की जाए?”…

“हाँ!…और वो भी बिना किसी प्रकार की काट-छांट के फुल एण्ड फाईनल"…

“क्या मतलब?”..

“उस पर कोई लेवी नहीं…कोई टैक्स नहीं"…

“हुंह!…कोई लेवी नहीं…कोई टैक्स नहीं….सीधे-सीधे जा के सरकारी गल्ले पे धावा बोल डकैती क्यों नहीं डाल लेते?”…

“व्हाट एन आईडिया सर जी…व्हाट एन आईडिया लेकिन अगर सीधी ऊँगली से ही घी निकल जाए तो ऊँगली टेढ़ी करने की ज़रूरत क्या है?”…

“भूल जाओ…अपने इस खुशनुमा होते हुए सुनहरी ख़्वाब को….भूल जाओ”…

“लेकिन क्यों?”…

“पहली बात तो ये कि अभी इतना बेडागर्क नहीं हुआ है हमारे दूषित होते हुए सभ्य समाज का कि लोग अपनी माँ-बहन को छिड़वाने हेतु बतौर नजराना तुम्हारे समक्ष फीस की पेशकश करें"…

“और दूसरी बात?”…

“आमदनी के इतने सरल स्रोत का पता होने के बावजूद सरकार टैक्स माफ कर दे….हो ही नहीं सकता"..

“इसीलिए तो मुझे बड़ी खुंदक आती है इस दिल्ली सरकार की दिन पर दिन बिलो स्टैंडड हो गिरती हुई नीयत पर कि वो दूसरे की मेहनत का…हक हलाल का पैसा हड़पने में मिनट  भर की भी देरी नहीं लगाती”…

“तुम क्या?…मैं तो खुद तंग आ चुका हूँ यहाँ से…यहाँ के घुटन भरे सड़े-गले माहौल से ….ना किसी किस्म का कोई खटका….ना ही कानों को भीतर तक बेंध डालने वाला धूम-धडाम करता शोर-शराबा”…

“उफ़!…कोई पागल ही रह सकता है इस मरघट की सी शान्ति भरे नीरस माहौल में….कसम से!…अगर पापी पेट का सवाल ना होता तो….माँ कसम…अभी के अभी….

“शांत!…गदाधारी भीम…शांत…तुम अकेले ही परेशान नहीं हो इस नीरवता भरे लुंज-पुंज माहौल से…मैं खुद यहाँ के निराशाजनक माहौल से तंग आ कर कई मर्तबा  सुसाईड करने तक की सोच चुका हूँ”…

“ओह!…तो फिर अब तक किया क्यों नहीं बॉस?”…

“बस!…यार …ऐसे ही…कभी व्यावसायिक मजबूरियों के चलते मैं ऐसा नहीं कर पाया तो कभी  टाईम ही नहीं मिला पाया इस सब के लिए"…

“रहने दो बॉस…रहने दो….ये सब तो ना मरने के बहाने हैं…महज़ बहाने"…

“बहाने?”….

“और नहीं तो क्या?”…

“क्या मतलब?”…

“अरे!…अगर लगन सच्ची और इरादा पक्का एवं नेक हो तो कोई भी मजबूरी…कैसी भी मजबूरी इंसान को ढट्ठे खू(अंधे कुएं)  में गिर कर मरने से नहीं रोक सकती"…

“कहना बहुत आसान है बच्चे लेकिन जब असलियत में जब मरने की बारी आती है ना तो …..फट के हाथ में आ जाती है"…

“छोड़ो ना बॉस….ये सब बेकार की…बेमतलब की बातें हैं…..असलियत की काँटों भरी जिंदगी से इनका कोई सरोकार नहीं…कोई वास्ता नहीं"…

“क्या मतलब?”…

“सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते बॉस..कि हिम्मत नहीं है आप में इस सब को करने की…डरते हैं आप अपने वजूद के छिन्न-भिन्न हो बिखर जाने से ..गुर्दा नहीं है आप में अपनी ही मौत को खुशी-खुशी गले लगाने का”…

“हाँ!…नहीं है गुर्दा मुझमें अपनी ही मौत को खुशी-खुशी गले लगाने का लेकिन जानते हो क्यों?”…

“क्यों?”…

“पत्थरदिल कलेजा चाहिए होता है इस सब के लिए एण्ड फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन मेरे सीने में पत्थर का टुकड़ा नहीं बल्कि एक जिंदा दिल धड़कता है…जिंदा….

“धड़कता क्या?…तडपता है… तडपता है अपने मासूम बिलखते बच्चों की भूख से…तडपता है दिन पर दिन लाचार होते अपने बूढ़े माँ-बाप की बेचारगी से …तडपता है अपनी बीवी के जिस्म पे भूखे भेड़ियों और गिद्धों की वासना भरी नज़र से”..

“ओह!…

“कई बार सोचा कि चलती ट्रेन से कूद कर जान दे दूँ लेकिन बस हिम्मत ही नहीं हुई”…

“अगर ऐसी ही बात है बॉस…तो फिर छोड़ क्यों नहीं देते मनहूसियत लिए इस नामुराद इलाके को?”..

“कहना बहुत आसान है बच्चे कि इस इलाके को छोड़ दूँ….कल को पता चले कि जहाँ जा के डेरा बसाया …वहाँ भी नोटिस चिपके मिलें कि…फलानी-फलानी दफा के तहत….दफा हो जाओ यहाँ से"…

“लेकिन मैं पूछता हूँ कि  सिर्फ हमारे इलाके को लेकर ही ऐसा पक्षपात भरा रवैया क्यों?…दूसरे इलाकों में तो खुलेआम धांय-धांय कर के धुएँ उड़ाए जा रहे हैं….चीरफाड़ किए जा रहे हैं…उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता”…ordinance-to-hault-sealing_26

“यही तो विडंबना है मेरे दोस्त कि लाइन पार वही सब हो रहा है जिसके लिए हमें रोका जा रहा है टोका जा रहा है”…

“ओह!…

“पता है कितनी मुश्किलें?…कितनी दिक्कतें आती हैं जमे जमाए कारोबार को एक जगह से उखाड के दूसरी जगह फिर से सेट करने में?” ….

“लेकिन इसके अलावा और चारा भी क्या है अपने पास?”…

“चारा तो यही है मेरे दोस्त कि….जहाँ बैठे हैं…जैसे बैठे हैं…चुपचाप वैसे ही दुबक के बैठे रहे"…

“लेकिन कब तक?…आखिर!…कब तक हमें ऐसे निराशा और अवसाद भरे माहौल में जीना पड़ेगा?”…

“जब तक दिल्ली में कामन वैल्थ गेम खत्म नहीं हो जाते…तब तक"…

“क्या मतलब?…उसमें तो अभी बहुत दिन पड़े हैं…तब तक क्या ऐसे ही …..

“जितने भी पड़े हैं…चुपचाप किसी तरीके से मनमसोस कर के काट लो…उसके बाद तो रातें भी अपनी होंगी और दिन भी अपने….अपना खुलेआम …धांय-धांय कर मज़े से धुआं उडाएंगे …

“क्यों सुनहरी चमक लिए झूठे ख़्वाब दिखा रहे हो बॉस?…एक बार जो दिल्ली से पत्ता कट गया तो समझो कट गया…बाद में तो यहाँ तम्बू गाड़ना …ना आपके बस का रहना है और ना ही मेरे"…

“तो फिर जब तक खेल निबट नहीं जाते…चुपचाप अपने-अपने दडबे में दुबक के बैठे रहो बाहर निकलने की सोचना भी मत…हमेशा के लिए पर कतर दिए जाएंगे”….

“कमाल करते हो आप भी….चुपचाप दुबक के बैठ जाएँ….यहाँ पान…गुटखा….खैनी चबाने तक के पैसे नहीं बचे हैं जेब में….बनिए ने उधार देने से अलग मना कर दिया है …..कुल जमा दो दिन का राशन ही बचा होगा मुश्किल से अलमारी में”…

“ओह!…

“अगर यही हाल रहा ना तो कसम से कहे देता हूँ कि एक ना एक दिन इस शीला की गर्दन होगी मेरी मुट्ठी में”…

“शांत!…गदाधारी भीम…शांत…गुस्से पे अपने काबू रखो…अगर किसी ने सुन लिया तो….

“सुन लिया तो सुन लिया…मैं क्या किसी से डरता हूँ?…और फिर इस तुगलकी फरमान के चलते बचा ही क्या है मेरे पास जो कोई उखाड लेगा?”…

“हाथ-पैर तो सही सलामत बचे हैं ना?…ज्यादा चूं-चपड़ की तो वो भी उखाड़ दिए जाएंगे जड़ से…पता है ना कि हमेशा उसके इर्द-गिर्द कितनी बड़ी कमांडो फ़ोर्स तैनात रहती है?”…delhi2

“तो क्या हुआ?…मैंने भी कौन सा चूडियाँ पहन रखी हैं?”…

“बस!…कह दिया ना एक बार कि…बस…जानते नहीं कितनी बड़ी तोप है वो?….तुम्हारे मचलते अरमानों को नेस्तनाबूत कर धूल उड़ाने में उसे पल भर की भी देरी नहीं लगेगी”…

“लेकिन महज़ क्या इसी डर के चलते हम अपने वजूद को गुमनामी के अँधेरे में खो जाने दें?…क्या इस तरह चुप लगा के डरते हुए हमारा अपने-अपने दडबों में दुबक जाना जायज़ है?”..

“जायज़ तो जो हम कर रहे हैं…वो भी नहीं है”…

“लेकिन इसके अलावा और चारा भी क्या है अपने पास?…पेट हमारे साथ भी लगे हुए हैं…हमने भी अपने बीवी-बच्चे पालने हैं…काम नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या?”…

“बड़े आए कहने वाले कि रंधा मशीनें ना चलाओ…सील कर देंगे…इनसे प्रदूषण फैलता है…अरे!..अगर नहीं चलाएंगे तो खाएंगे क्या?…खिलाएंगे क्या?”…Multi-Purpose-Wood-Working-Planner

यही बात तो इन मरदूदों के समझ में नहीं आती कि घोड़ा अगर घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या?”…

“ठीक है!…आप कहते हो तो चलो मान लेते हैं…नहीं चलाते मशीनें लेकिन क्या सिर्फ अकेले हमारे मशीनें बंद कर देने ये धुआं-धक्कड़ रुक जाएगा?”…

“नहीं!…

“तो फिर मैं आपसे पूछता हूँ जनाब…आपसे…आपसे और आपसे सिर्फ हमारे इलाके के साथ ये पक्षपात क्यों?…ये भेदभाव क्यों? ..उधर आसाम गली की तरफ जा के क्यों नहीं झांकते हैं ये लोग?…गिन के पूरी अस्सी मोल्डिंग मशीनों समेत आरा मशीनें चल रही हैं वहाँ”…

“अस्सी?"…

“जी हाँ!…पूरी अस्सी"…

“वहाँ भला क्यों जाने लगे ये लोग?…नजराना जो चढ चुका है फी मशीन पचास हज़ार के हिसाब से"…

“प्पचास….हज़ार?”…

“हाँ!…पूरे पचास हज़ार”…

“इस हिसाब से अस्सी मशीनों के हो गए पूरे चालीस लाख"…

“हाँ!…वो भी सिर्फ छह महीनों तक बक्शने की कीमत”…

“ओह!….लेकिन हम जैसे छोटे-मोटे धंधे वाले लोग कहाँ से लाएं इतना पैसा एक साथ…हमने तो रोज कमाना है और रोज खाना है”…

“यही तो रोना है इस देश का मेरे भाई कि यहाँ मोटा आदमी दिन पर दिन और मोटा हुआ चला जाता है और गरीब आदमी रोज एक नई मौत मरता चला जाता है”…   

“अरे!…अगर पहले से ही पता था कि मशीनों से प्रदूषण होता है तो क्या ज़रूरत थी पाषाण युग से बाहर निकलने की? …अपना पत्थर मार के शिकार करते….पत्थर घिस के ही आग जला चूल्हा-चौका करते”…

“नहीं-नहीं…आग जलाने से भी तो प्रदूषण होता है ना?…इसलिए शाक-सब्जी से लेकर जानवरों तक के मांस को ऐसे ही कच्चा चबा कर खा जाते या निगल जाते”…

“जब पता था कि जीवन ऊपरवाले की देन है और मौत भी उसी का वरदान है…तो क्या ज़रूरत थी मशीनों और औजारों के जरिए नई-नई दवाइयाँ इजाद कर हमें बरगलाते हुए इंसानी जिंदगियां बचाने की?… अपना मर जाने देते सब को ढोर-डंगर और कीड़े-मकोडों की तरह”…

“जब पता था कि सब कुछ नश्वर है…अपने आप नष्ट हो जाता है तो क्या ज़रूरत थी संडास….सीवर और गुसलखाने बनवा अपने सभ्य होते हुए समाज पे इतराने की?… 

“जब पता था कि पैदल चलने से तन-मन तन्दुरस्त रहता है तो क्या ज़रूरत थी साईकिल…रिक्शा…मोटरकार और हवाई जहाज़ बना हमें हवा से बातें कराने की?”…

“जब पता है कि बन्दूक की गोली का धमाका धुआं और शोर पैदा कर प्रदूषण को जन्म देता है तो आतंकवादियों पे गोली काहे चलाते हो रे ?..अपना गुलेल मार के सर फोड दो स्सालों के"…

“अगर गुलेल के इस्तेमाल से किसी किस्म की कोई दिक्कत या परेशानी होती हो तो बर्छे-भाले-कृपाण से आक्रमण कर धूल चटा दो स्सालों को”…

“एक तरफ हमारे देश के नेता कहते हैं हमें अपने देश को ऊंचाहईयों के नए सोपान पे ले जाना है और दूसरी तरफ कहते हैं मशीनें मत चलाओ …इनसे प्रदूषण फैलता है”…

“एक तरफ कहते हैं कि हमारा मुकाबला चीन से है…जापान से…कोरिया और ताईवान से है…हमें उन्ही की तरह हर मामले में आत्मनिर्भर बनना है …दूसरी तरफ कहते हैं कि मशीनें मत चलाओ….इनसे प्रदूषण फैलता है"…

“एक तरफ हम अपने यहाँ खेलों का आयोजन कर के पूरी दुनिया को बताना चाहते हैं कि विगत वर्षों में हमने कितनी और किस तरह तरक्की की है?…साथ ही ये भी बताना चाहते हैं कि ये पुल….ये फ्लाईओवर…ये ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएँ …ये मेट्रो ….ये चौड़ी-चौड़ी सडकें हमने नई तकनीक को अपना मशीनों से नहीं वरन अपना पसीना बहा हाथों से रगड़ घस्स कर के बनाई हैं"…

“आखिर क्या साबित करना चाहती है ये शीला की बच्ची कि हम ऊपर से जितने ज़हीन…जितने पढ़े-लिखे …जितने सभ्य नज़र आते हैं…अंदर से हम उतने ही संकीर्ण …उतने ही ओछे…उतने ही गिरे हुए हैं?"…

“बॉस!…ये किसे सुना रहे हैं हम?…ये बहरों…अन्धों और गूंगों का शहर है…यहाँ अपनी इच्छा से…अपनी खुशी से…अपनी मर्ज़ी से ही सब देखा…सुना और बोला जाता है sealing_in_delhi   

“हाँ!…इन कलयुगी भैंसों के आगे बीन बजाने से कोई समस्या हल नहीं होने वाली”…

“इसीलिए तो मैं आपसे पूछ रहा था बॉस..कि खाली बैठने से तो यही अच्छा रहेगा कि हम अपना छुप-छुपाते हुए ही सही…थोड़ा-बहुत काम करते रहे…मालपुए ना सही…दाल-रोटी तो चलेगी कम से कम"…

“हम्म!….तो फिर तीन बच्चे पानीपत के और दो फरीदाबाद के पकड़ लो"…

“ओ.के बॉस"…

“लेकिन ध्यान रहे….मशीनों का इस्तेमाल बड़ा संभल कर…कहीं लेने के बजे देने ना पड़ जाएँ"…

“ओ.के बॉस"…

(बच्चा=छोटा दरवाज़ा)

नोट: दिल्ली में होने वाले कामन वैल्थ गेम्ज़ को मद्देनज़र रख कर यहाँ की नांगलोई ज़ोन में इस समय सीलिंग चल रही है(सिर्फ नांगलोई ज़ोन में…बाकी पूरी दिल्ली को बक्श दिया गया है)| रोजाना इस सीलिंग के चक्कर में यहाँ के सैंकडों लोगों का रोज़गार रोज छिन रहा है| हालात दिन पर दिन दयनीय होते जा रहे हैं|बेरोज़गारी के इस आलम में लोग अपने ही शहर में मुहाजिर बन शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैं…एक रंधा मशीन या किसी भी मशीन पर औसतन तीन से चार व्यक्ति काम करते हैं और हर व्यक्ति के साथ उसका परिवार जुड़ा हुआ है|इन लोगों के दुःख एवं त्रासद जीवन को सामने लाने के उद्देश्य से मैंने इस कहानी को लिखा है…उम्मीद है कि इनकी आवाज़ को मैं अपनी आवाज़ बना पाने में सफल हुआ हूँ

17 comments:

M VERMA said...

पता था कि मशीनों से प्रदूषण होता है तो क्या ज़रूरत थी पाषाण युग से बाहर निकलने की? …अपना पत्थर मार के शिकार करते….पत्थर घिस के ही आग जला चूल्हा-चौका करते”…
सभ्यता का साईड इफेक्ट तो सहना ही होगा.
बेहतरीन है त्रासदी भी झलक रही है
सुन्दर

honesty project democracy said...

ये भ्रष्टाचारियों ओर बेशर्मों का देश बनता जा रहा है इन भ्रष्ट मंत्रियों की वजह से / यहाँ कानून नहीं भ्रष्ट लोगों की चलती है / इसे बदलना है तो जीने की चाह छोरकर एकजुट होकर लड़ना होगा इन हरामियों से / क्या तैयार हैं आप ?

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

हा-हा-हा बेहतरीन व्यंग्य तनेजा साहब !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत ही सटीक और अच्छा व्यंग्य♥3

अजय कुमार झा said...

किसी व्यंग्यकार के लिए ये सबसे बढिया बात होती है यदि वो अपने आसपास की किसी घटना को भी माध्यम बना कर कोई बडा संदेश दे पाता है । आप में ये काबिलियत है ।व्यंग्य अच्छा बन पडा है ।

girish pankaj said...

aapkaa vyangya lekhan nikhaarataa hi jaa rahaa hai. yah bhi theek thaa. badhai.,.

दीपक 'मशाल' said...

आधा पढ़ा है अभी और यहाँ तक काफी मजेदार लगा.. बाकी शाम को आराम से घर पर पढूंगा.. :)

drsatyajitsahu.blogspot.in said...

“शांत!…गदाधारी भीम…शांत…गुस्से पे अपने काबू रखो…अगर किसी ने सुन लिया तो….

maza aya...........badhai apko.......

योगेन्द्र मौदगिल said...

ब्च्चे पकड़ने का धंदा पानीपत में जम सकता है.... जमा के देख लो....

बाल भवन जबलपुर said...

आप तो गज़ब सटीक मारतें हैं

राज भाटिय़ा said...

कामन वैल्थ गेम्स??? किसी को कामन वैल्थ का मतलब पता है? यह सब वो देश है जॊ कभी गुलाम रह चुके है यानि गुलाम देशो का खेल??? अगर कोई ओर मतलब हो तो वो जरुर बताये.... फ़िर हमे पहले खाने को चाहिये या अपने आंका को गेम खेल कर दिखाना चाहिये ताकि वो खुश हो जाये,अभी रि्कक्षा बंद होगे फ़िर तांगे,फ़िर स्कुटर ओर धीरे धीरे हम सब का जीना भी बन्द,

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

Mahfooz Ali said...

Very Good....

दीपक 'मशाल' said...

अपने तरीके से आपने इन गरीबों के लिए आवाज़ उठाने का बड़ा नेक काम किया है.. सच है पहले इन लोगों की रोजी-रोटी का इंतज़ाम तो करती शीला सरकार. उसके बाद जो जी आता करती रहती..

Khushdeep Sehgal said...

राजीव भाई दिल के दर्द को बड़ी सटीक आवाज़ दी है...

मुझे तो लग रहा है अभी काम-धंधों पर ही गाज गिर रही है, कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कहीं जनता कर्फ्यू लगाकर दिल्ली की जनता का घरों से निकलना ही बंद न कर दिया जाए...दलील ये दी जाएगी कि आप सब के लटके हुए चेहरे शायद फिरंगियों या विदेश से आए दूसरे मेहमानों को पसंद न आएं...

जय हिंद...

निर्झर'नीर said...

“आखिर क्या साबित करना चाहती है ये शीला की बच्ची ?
nahi samajh pa rahe hai hum bhi ye to ....
TANEJA ji yun to sab ek hi haili ke chatte batte hai fir bhi ...I HATE CONGRESS
or inhe lane vale bhi to hum hi hai Dilivasii kuch to bhugatna hi hoga

well aapki kalam ka ek jordar prahar ..

Unknown said...

वाह वाह.............
बहुत बड़ी समस्या का वर्णन आपने अपने चुटीले अन्दाज़ में कर दिया ..........

जय हो..............

 
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