***राजीव तनेजा***
"अरे!...गांधी जी...आप?...आप यहाँ कैसे?...प्रणाम स्वीकार करें"...
"इधर-उधर क्या देख रहे हैं जनाब?..मैं आप ही से...हाँ-हाँ ...आप ही से बात कर रहा हूँ"....
"तो फिर ये ‘गांधी जी’....’गांधी जी’ क्या लगा रखा है?...सीधे-सीधे नाम ले के नहीं बुला सकते?"...
"कमाल है!...अब आप काम ‘गांधी जी’ वाले करेंगे तो आपको गांधी जी के नाम से नहीं तो क्या 'नत्थू राम गोडसे' के नाम से पुकारें?"...
“मैंने क्या किया है?”…
“ये भी मुझे ही बताना पड़ेगा?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“रहने दीजिए…गुप्ता जी...रहने दीजिए...सब जानते हैं आप…सब समझते हैं आप"...
"सच्ची!...कसम से...मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया"...
"इतने भोले और नासमझ तो नहीं दिखते आप कि अपने ऊपर किए गए इस मामूली से कटाक्ष को…ज़रा से व्यंग्य को भी ना समझ पाएँ"....
“सच्ची!…कसम से …मेरी तो समझ में....
"कुछ भी नहीं आया?"...
"जी!...
"फिर तो दाद देनी पड़ेगी आपके दिन पर दिन बुढाते हुए दिमाग की"..
"थैंक्स!...थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"…
"थैंक्स के बच्चे...तू ‘बनारस’ क्या लड्डू लेने गया था?"...
"ओ.के बाय...मैं जा रहा हूँ"...
"कहाँ?"...
"तुमसे मतलब?"....
"?...?...?...?"
“मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी है"…
“लेकिन क्यों?”…
"यही सिखाया है तुम्हें...तुम्हारे वयोवृद्ध होते हुए माँ-बाप ने कि बड़ों से ऐसे...इस टोन में बात की जाती है?"....
“ओह!…सॉरी...आई एम् वैरी सॉरी….मेरे कहने का ये मतलब था कि आप ‘बनारस’ किसलिए गए थे?”…
“वव...वहाँ तो मैं आ.. ‘आधे’ की चाट खाने गया था?”…
“चाट खाने या फिर ‘चमाट’ खाने?”…
“क्या मतलब?”..
“मतलब ये कि आपकी अपनी तो कोई इज़्ज़त है नहीं और हमारा जलूस निकलवाने में आपने कोई कसर छोड़ी नहीं"…
“क्या मतलब?”..
“आपको डॉक्टर ने कहा था कि जा के उन लौंडे-लपाड़ों के आगे घुटने टेको?…उनके तलवे चाटो?”…
“तलवे चाटो?”…
“जी हाँ!…तलवे चाटो"…
“लेकिन…वहाँ पर तो मैंने सिर्फ चाट का जूठा पत्तल ही चाटा था..वो भी अपना…किसी और का नहीं”….
“सच्ची?”…
“कसम से”…
“लेकिन मैंने तो सुना था कि आप वहाँ पर उनकी बड़ी मिन्नतें कर रहे थे…चिरौरी कर रहे थे”…
“सब आपके मन का वहम है तनेजा जी…सब आपके मन का वहम है…मैं तो बस ऐसे ही सोहाद्रपूर्ण वातावरण में उन्हें समझाने गया था"..
“वो सोहाद्रपूर्ण वातावरण था?”…
“जी!…बिलकुल…आसमान में घने बादलों का जमघट होने के बावजूद सब ‘एक चुटकी सिन्दूर’ को …ऊप्स!…सॉरी…पानी की एक बूँद को तरस रहे थे"…
“अरे!..बेवाकूफ…मैं सर्दी-गर्मी या बरसात की बात नहीं कर रहा हूँ"…
“तो फिर?”…
“वो चार थे…और तुम सिर्फ एक”…
“तो क्या हुआ?”…
“क्या होना चाहिए था?”मेरा शरारती मुस्कान भरा स्वर ..
“पागल हो गए हो क्या?…मैं भी तो उन्हीं के जैसा था …कोई अलग थोड़े ही था?”…
“इसीलिए तो कन्फ्यूज़न पैदा हो रहा है"…
“काहे का कन्फ्यूज़न?”…
“बीच बाज़ार में कहीं आपका…
“चीरहरण ना हो गया हो?"....
“जी!…
“क्या बकते हो?…मुझे कुछ नहीं हुआ है"…
“थैंक गाड!..आप सही सलामत हैं"…
“जी!…ये तो शुक्र है उस ऊपर बैठे खुदा का…उस नेक परवरदिगार का …उसी की मेहरबानी का नतीजा है कि मैं आज यहाँ..आपके सामने सही सलामत...वन पीस में खड़ा हूँ…वर्ना मेरा पाँव तो कब का फिसल ही चुका था”…
“क्क…क्या मतलब?…मैं कुछ समझा नहीं"…
“ये तो मेरा मर्दानगी भरा जीवट ही था जो मुझे बचा ले गया वर्ना उन कमीनों ने तो मुझे कहीं मुंह दिखाने के लायक भी नहीं छोड़ा था"..
“क्क…क्या मतलब?”…
"मैंने इनकार कर दिया तो स्साले!...जोर-ज़बरदस्ती पर उतर आए"...
“ओह!...आपको उन्हें प्यार से...दुलार से समझाना चाहिए था"...
"आप मुझे पागल समझते हैं?”…
"क्या मतलब?"...
"लाख चिरौरी कर के...हाथ-पैर जोड़ के कई-कई मर्तबा गिडगिडा कर गुर्राते हुए समझाया भी कि...
"आज तो मेरा जी..कच्चा हो रहा है...मूड ठीक नहीं है...प्लीज़!…मान जाओ….किसी और दिन के लिए रख लेते हैं प्रोग्राम लेकिन उनके सर पे तो जैसे उसी वक्त सब कुछ कर गुजरने का भूत सवार था”…..
"ओह!...
“कोई मेरी सुनने को तैयार ही नहीं…सब अपनी-अपनी डफली....
"हाथ में ले के?"...
"जी!...सब अपनी-अपनी डफली हाथ में ले के अपना-अपना राग आलाप रहे थे...कोई कुछ कह रहा था तो कोई कुछ "…
“ओह!…
“मैंने उन्हें 'मंगल' के दिन फिर से आ इस मांगलिक कार्य को उसके अंजाम तक...उसकी मंजिल तक पहुँचाने की बात कही"...
"ओ.के...फिर क्या हुआ?"..
"मेरा सकपका कर कसमसाता हुआ चेहरा भांप लिया था शायद उन्होंने"...
"हम्म!...पक्के घाघ जो ठहरे"...
"जी!...पूरे घाघ"..
"फिर क्या हुआ?"...
"कहने लगे कि ...'मंगल-अमंगल किसने देखा है?...हम तो आज…अभी…इसी वक्त पार्टी करेंगे...वी आर इन पार्टी मूड नाओ"….
“लेकिन क्यों?”…
“मैंने भी उनसे बिलकुल यही…सेम टू सेम क्वेस्चन पूछा था"..
“ओह!..तो फिर क्या कहा उन्होंने?”…
“उनमें से एक स्साला...दीद्दे फाड़ कुछ सकुचाता हुआ अपनी विभीत्स सी हँसी हँस कर कहने लगा कि... "आज मेरा जन्मदिन है...इसलिए"..
"ओह!...अगर जन्मदिन है...फिर तो हक बनता है उनका"..
"जी!...उसके लिए तो मैं भी इनकार नहीं करता...आखिर जन्मदिन रोज-रोज थोड़े ही मनाया जाता है?"...
"जी!...
"लेकिन उनकी कथनी और करनी में फर्क दिखा मुझे"..
"कैसे?"..
"एक तो सबने पार्टी वियर जैसी वन्न-सवन्नी ड्रेसों के बजाय रोजाना के रूटीन वर्क वाले ही कपडे पहने हुए थे और उनकी नीयत भी मुझे कुछ ठीक नहीं लग रही थी"...
"वो कैसे??"..
"ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके दिमाग में जन्मदिन को सेलिब्रेट करने के बजाए कोई दूसरी ही सोच हावी हो रही थी"...
"कौन सी सोच?"..
"वही...
काल करे सो आज कर...आज करे सो अब...
पल में प्रलय होएगी...बहुरि करेगा कब?"..
"हम्म!...फिर क्या हुआ?"..
"होना क्या था?...ना चाहते हुए भी मुझे उनकी खुशी में हर कदम पर शरीक होना पड़ा"...
"ओह!...
"स्सालों!...ने पूरे के पूरे छह केले ठूस दिए"...
"कहाँ?"...
"मेरे मुंह में...और कहाँ?"..
"एक साथ?"...
"मैं इनसान का बच्चा हूँ किसी हिप्पोपटामस का नहीं कि एक साथ छह-छह को निगल जाऊँ"...
“आपको उन्हें कुछ ना कुछ कह के टालते हुए बच के साफ़ निकल जाना चाहिए था"...
“आप मुझे पागल समझते हैं?”..
“क्या मतलब?”…
“तुम क्या समझते हो मैंने उन्हें टालने की कोशिश नहीं की होगी?...या फिर मैं खुद ही इन्ट्रेसटिड था इस सब के लिए?"..
“अब इसके बारे में तो मुझसे बेहतर आप ही बता सकते हैं कि...असल में...हकीकत में माजरा क्या था?"..
"जी!...इसीलिए मैंने उन्हें किसी अच्छे…शुभ दिन..मंगल महूर्त की अलसाई वेला में सांझ-सवेरे आने की बात कह के हफ्ते-दो हफ़्तों के लिए टालने की बहुत कोशिश की लेकिन अफ़सोस…मैं नाकाम रहा"..
“मुझे तो शुरू से ही इसका शक था”…
“किस बात का?”…
“आपके निकम्मे होने का"…
“क्या मतलब?”..
“आप वेल्ले हैं?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“ओह!…तो आप नासमझ भी हैं"…
“सच्ची!…कसम से….म्म…मैं कुछ समझा नहीं…ज़रा खुल के समझाएं"..
“इतना वक्त है आपके पास कि आप सांझ और सवेरे दोनों टाईम उनकी हाजिरी बजा सकें?”…
“अपने बिज़ी शैड्यूल के चलते वक्त तो मेरे पास अपनी नाक पे बैठी मक्खी को भी बेमौत मारने का नहीं है लेकिन...
“तो फिर इसका मतलब आपने उन लोगों से झूठ कहा”…
“जी!…हाँ…झूठ कहा…पूरे सौ टके झूठ कहा"..
“गुप्ता जी!…मुझे आप जैसे वरिष्ठ ब्लॉगर से कतई ऐसी उम्मीद नहीं थी….क्या यही सीख देंगे आप अपनी नई उभर कर दिन पर दिन जवान होती पीढ़ी को कि...'थूक के कैसे चाटा जाता है?'...'अपने वायदे से कैसे मुकरा जाता है?'…'अपने वचन से कैसे पीछे हटा जाता है?”…
“अरे!..थूक के मैंने नहीं...उन्होंने चाटा है ...वायदे से मैं नहीं बल्कि वो मुकरे हैं…अपने वचन से मैं नहीं बल्कि वो पीछे हटे हैं"..
“क्या मतलब?”…
"निर्बाध रूप से दिए गए मेरे अथक प्रवचनों के बावजूद उन्होंने अपने किसी भी वचन का ठीक से निर्वाह नहीं किया..उलटा मेरे शौर्य... .मेरे पराक्रम को सरेआम ललकारते हुए उन्होंने फुंफकार भर हुंकारते हुए मेरी कामयाबी भरी उपलब्धियों की निष्कंटक राह में ये मोटे-मोटे किंग साईज के रोड़े अटकाए"..
"मैं कुछ समझा नहीं...ज़रा आसान भाषा में समझाएं"...
“हमारी मुलाक़ात में जिस-जिस बात पर सहमति हुई थी…उनमें से कोई भी बात उन्होंने ठीक से नहीं निभाई"...
“ओह!…
“वहाँ फैसला हुआ था कि मेरे ‘चौराहे' पे वो एक पोस्ट लिख कर उसे ड्राफ्ट के रूप में सेव कर देंगे और मैं उसे फाईनली चैक करने के बाद आम पब्लिक के लिए उसे पब्लिश कर दूंगा"..
“ओ.के"…
“लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं"…
“ओह!…
“जब उन्हें मेरी बात माननी ही नहीं थी तो बार-बार…हर जगह विलाप करते हुए ‘चौराहे से हटा दिया…चौराहे से हटा दिया' के नाम का होक्का लगाने की क्या ज़रूरत थी?”…
“जी!….ये सारी बात तो खैर ठीक है लेकिन…..
“ठीक है?…इसका मतलब आप भी मेरे विरोधी पक्ष से मिले हुए हैं…यू ब्लडी!...दोगले इनसान"..
“उफ्फ!...मैंने तुम्हें क्या समझा?..और तुम क्या निकले?"..
"आ...आप मेरी बात को गलत समझ रहे हैं"...
"हुंह!..मैं गलत समझ रहा हूँ...आप मेरे ही सामने ...मेरे दुश्मनों की तरफदारी कर रहे हैं..और मैं गलत समझ रहा हूँ?"...
"क्या मतलब?”…
“आप उनकी नाजायज़ बातों को भी ‘ठीक है' कह कर उन्हें ही सही ठहरा रहे हैं"…
“अरे-अरे!…गुप्ता जी…आप गलत समझ रहे हैं…..मेरे कहने का तो मतलब था कि…आप कह रहे थे कि आपने किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं होना था"…
“जी!…
“लेकिन खाए तो आपने केले थे ना?"…
“जी!…
“कायदे से तो आपको किसी को अपना पेट दिखाने लायक नहीं होना चाहिए था"..
""क्यों?...मुझे बच्चा होने वाला था क्या?"...
"नहीं"...
"तो फिर?"...
"अरे!...मैंने सोचा कि आपने इतने ज्यादा केले खा लिए तो शायद आपका पेट खराब हो गया होगा....
"पेट मेरा क्यों खराब होने लगा?...होगा तो उनका होगा जो मेरी खातिरदारी से जल रहे हैं"गुप्ता जी मेरी तरफ तिरछी नज़र से देख ताना सा मारते हुए बोले..
"तो फिर?"....
"मुंह के बल सड़क पे कौन गिरा था?”..
“कौन?”…
“तेरा फूफ्फा"….
“वो वहाँ…कहाँ से टपक गया?”…
“मुझे क्या पता?”… "?…?…?…?"…“अरे!..बेवाकूफ….उन स्सालों ने केले खा के छिलके जो वहीँ बीच सड़क के फैंक दिए थे"....
“तो?…ये आपके और उनके बीच का मामला था…इसमें मेरे फूफ्फा को बीच में टपकने की क्या ज़रूरत पड़ गई"…
“मैं भी तो यही पूछ रहा हूँ"…
“क्या?”…
“यही कि ये मेरे और उनके बीच का मामला है…तुम बीच में क्यों टपक रहे हो?”…
“अरे वाह!…कैसे ना टपकूँ?…और क्यों ना टपकूँ? …फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन..ये सिर्फ आपके और उनके बीच का मामला नहीं है…पूरे हिन्दी ब्लोगजगत के हित-अहित इससे जुड़े हैं"…
"तो?...उन्हीं की खातिर तो मैं अपनी ऐसी-तैसी फिरवाने गया था"....
"लेकिन आप तो कह रहे थे कि आप 'आधे' की चाट खाने गए थे"...
"तो क्या गलत कहा?..आधे की चाट खाई और बाकी बचे आधे की वहाँ पे मीटिंग जुटाई"..
"कहने को आप कुछ भी कहें लेकिन मेरे हिसाब से आपने ये ठीक नहीं किया?"..
"क्या सुलह की कोशिश करना गलत है?...क्या आपस में भाई-चारा रखना गलत है?"...
"हाँ!...गलत है"...
"कैसे गलत है?"...
"आप अकेले-अकेले ही .....
"अरे!...उसकी चिंता तुम क्यों करते हो?...मैं अकेला ही उन सब पर भारी हूँ"…
“हुंह!..छटांक भर का वज़न नहीं और पटखनी देने चले हैं गामा पहलवान को”…
“क्या मतलब?”..
“आप अपनी सफाई में बेशक कुछ भी कहें…कैसा भी बहाना गढें अपने इस अनैतिक कृत्य को जायज़ ठहराने का लेकिन मेरे हिसाब से ये आपने सही नहीं किया"…
“कैसे?”…
"पहली बात तो ये कि आपको हमसे बिना पूछे उनसे इस बारे में कोई बात ही नहीं करनी चाहिए थी और बात अगर चलो...कर भी ली तो किसी तरह की कमिटमैंट नहीं करनी चाहिए थी"…
“मैंने कौन सी कमिटमैंट कर दी हैं उनसे?”…
“क्यों?…आपने उनकी संस्था का अध्यक्ष बनने के लिए हामी नहीं भरी है?”…
“तो?”…
“इससे सबके मन में क्या सन्देश जाता है?”…
“क्या?”…
“यही कि आप सत्ता लोलुप हैं…कुर्सी के भूखे हैं"…
“ओह!…लेकिन वो सब तो मैंने ऐसे ही बातों-बातों में कह दिया था….असलियत में थोड़े ही….
“कौन मानेगा आपकी बात को?…सब तो यही सोचेंगे कि…
“सोचते हैं तो सोचते रहे…मुझे किसी की परवाह नहीं…मेरा अपना…खुद का ज़मीर जानता है कि मैं किस राह?…किस डगर पर चल रहा हूँ?”…
“जी"…
“और फिर इतने सालों से सब जानते हैं कि इस 'गुप्ता' का किसी भी क़िस्म का कोई गुप्त या छुपा हुआ एजेंडा नहीं है...जो कुछ है...प्रत्यक्ष है...सबके समक्ष है"...
"जी!...लेकिन कोई कुछ भी बके...हम किसका मुंह रोक सकते हैं?"...
"रोक नहीं सकते लेकिन नोच तो सकते हैं?"...
"जी!...
"सब जानते हैं कि इतने सालों से मैं इस ब्लोगजगत में फ्री-फण्ड की झख मार रहा हूँ….निष्काम भावना से प्रेरित हो ...लालच रहित सबकी सेवा कर रहा हूँ”…
“जी!…लेकिन…
“उसका ये फल …ये सिला मिलेगा?…मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था"..
“सोचा तो हमने भी कभी सपने में नहीं था कि आप हमारे साथ ऐसा छल...ऐसा फरेब करेंगे"..
“मैंने कौन सा छल-फरेब किया है तुम्हारे साथ?”…
“बात सिर्फ मेरे अकेले के साथ छल-फरेब या कपट की नहीं है….अकेले की होती तो मैं एकांत में कड़वा घूँट भर कुछ क्षण के लिए रो लेता और मनमसोस कर के चुप हो किसी कोने में दुबक के बैठ जाता…लेकिन अब…किसी भी कीमत पर अपने आदर्शों के साथ...अपने विचारों के साथ किसी भी किस्म का कोई पक्षपात नहीं...कोई समझौता नहीं"...
“क्यों?...अब क्या हो गया?"..
“अब बात उठ खड़ी हुई है हमारी एकता की…हमारी अखंडता की...हमारे सम्मान की"...
“ओह!…
“आपके इस कृत्य से पूरा ब्लोगजगत खुद को अचंभित सा....ठगा सा महसूस कर रहा है"…
“पूरा ब्लोगजगत?”…
“जी हां!…पूरा ब्लोगजगत…जो आपके साथ थे और हैं …वो भी…और जो आपके साथ ना थे...ना हैं..वो भी"…
“वाऊ!…दैट्स नाईस….मैं ना कहता था कि एक ना एक दिन मेरी मेहनत…मेरा प्रयास रंग लाएगा…ब्लोगजगत में एका होकर रहेगा…देख लो…पूरे ब्लोगजगत में प्रसन्नता की लहरें उठ-उठ कर उछालें मार रही हैं…खुशी के मनभावन गीत गाए-गुनगुनाए जा रहे हैं"..
“ऐसी किसी भी किस्म की खुशफहमी या ग़लतफ़हमी में ना रहिये आप कि ये ढोल…ये मृदंग…ये नगाड़े हमारे ब्लोगीय वातावरण में नई आभा और उमंग के साथ खुशी का अपूर्व संसार रच रहे हैं"...
“क्या मतलब?”..
“ये आवाजें खुशी की नहीं बल्कि मातम की हैं…रुदन की हैं....ये अंतर्नाद है…द्वंद्व है उन नए-पुराने सभी खिलाड़ियों का ..जिनकी उम्मीदों पे...आशाओं पे आप खरे नहीं उतरे"…
“मैंने सबका ठेका तो नहीं ले रखा है?"..
"जी हाँ!...ले रखा है"...
"क्या मतलबा?"...
"जब आप खुद...अकेले..अपने दम पे चौधरी बन के पूरे ब्लोगजगत का उद्धार करने निकले हैं तो आप अपनी इस नैतिक ज़िम्मेदारी से कदापि नहीं बच सकते...कतई नहीं बच सकते"...
"ओह!...और ये चीत्कार करती विलाप भरी अपुष्ट आवाजें?...इनके लिए तो मैं जिम्मेवार नहीं ना?"..
"यहाँ आपको बैनिफिट ऑफ डाउट के आधार पे रियायत दे के ससम्मान माफ किया जा सकता है"...
"ओह!..थैंक्स...थैंक्स फॉर यूअर काईंड सपोर्ट"...
"ये तो मेरा फ़र्ज़ था"...
"कभी मुझे भी यही मर्ज़ था"...
"ओह!...व्हाट ए कोइंसिडैन्स...व्हाट ए कोइंसीडैन्स"...
"जी!...वैसे ये चीत्कार करती कर्कश सी विभीत्स रिंगटोन वाली निर्मम आवाजें हैं किसकी?"...
"ये ‘चीत्कार’ है उन नई मौलिक-अमौलिक…नामी-बेनामी …लुप्त प्रजाति की विध्वंसक एवं विलक्षण प्रतिभाओं का जिनका अभी हाल-फिलहाल में ही इस ब्लोगजगत की पावन धरती पर आर्विभाव हुआ है...पदार्पण हुआ है"..
“यू मीन जूनियर?”…
“शश्…!…चुप्प…बिलकुल चुप्प"…
“क्या हुआ?”…
“ये हिंदी ब्लोगजगत है मेरे भाई"...
"तो?"...
"यहाँ किसी को भी ‘जूनियर’ अथवा 'छोटा' कहना सख्त मना है"…
“ओह!…लेकिन इन्हें ‘छोटू'…’छुटका’..या 'छुट्टन’ कह के इनकी फिरकी तो ली जा सकती है ना?"...
“मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ"…
“क्या मतलब?”…
“अभी हाल-फिलहाल तो कोई रोक नहीं दीखती इस तरह के छद्म नामों पर लेकिन आने वाले समय का क्या भरोसा?…अभी से इनके बारे में क्या कहा जा सकता है?”…
“लेकिन जैसे पूत के पाँव पालने में ही दिख जाए करते हैं...वैसे ही हाल-फिलहाल चल रहे परिदृश्य को देखकर आने वाले समय का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है ना?”..
“जी!…
“तो फिर क्या कहते हैं आप?”…
“किस बारे में?”..
“इसी बारे में”…
“जब तक इस तरह के नामों पर किसी तरह का कोई विवाद नहीं उत्पन्न होता…तब तक तो इन नामों के जरिये मौज ली ही जा सकती है...बाद की बाद में देखेंगे"...
“जी!…वैसे तो इस सब में कोई हर्ज नहीं है लेकिन वो कहते हैं ना कि फूस के ढेर को बस एक चिंगारी ही काफी होती है"…
“क्या मतलब?”…
“यंग ब्रिगेड में और बन्दर में कोई फर्क नहीं होता"…
“मैं कुछ समझा नहीं"..
“कल को बिना बात उछल-उछल के कुलांचें भरते हुए चेप हो जाएँ …क्या भरोसा?”…
“तो हमारा क्या उखाड लेंगे?”…
“भुट्टा"…
“कहाँ से?”..
“खेत से…और कहाँ से?”…
“क्या मतलब?”…
“मतलब तो मुझे भी समझ नहीं आया"…
“ऐसे ही बोल दिया था?”…
“जी!…
ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग...
"हाँ!...हैलो...शर्मा जी...कहिये क्या रिपोर्ट है?"..
*&^%$#$#%
"क्या कहा?...बस पांच ही थे?"...
$%$#
"और कुछ पता चला?"..
&^*&^%$#$%$%
"सरेआम चिंघाड़ते हुए धमकी दे रहे हैं?"..
"ओह!..
"क्या कहा?...अब तो इन्हें बात…बिना बात डांट भी नहीं सकते?"…
"ओह!...
"धरना-प्रदर्शन कर जीना दुश्वार कर देंगे?"..
"ओह!..
"कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ सकते हैं?"..
"ओह!....
"नापसंद के चटखों की भरमार लगा हमें लाईम लाईट में आने से रोक सकते हैं?"...
"ओह!..
"अरे!...आप घबराते काहे को हैं?...हमारी लेखनी की ताकत को...हमारी कलम की आवाज़ को तो नहीं रोक सकते ना?"...
"जी!...
"तो फिर चिंता किस बात की है?"..
"जी!...
"चलिए!...मैं आपसे कल मिलता हूँ...फिर इत्मीनान से बैठ के बात करते हैं"..
"किसका फोन था?"..
"अपने शर्मा जी का..बुलंदशहर से"....
"ओह!...क्या कह रहे थे?"..
"कुछ खास नहीं"...
"अच्छा!...गुप्ता जी...मैं भी चलता हूँ"...
"क्या हुआ?"...
"नई कहानी लिखने का मसाला जो मिल गया है"..
"ओ.के...बाय"..
"बाय!...चलते-चलते...एक आखिरी सवाल"..
"जी!...ज़रूर"..
"अपने इस हालिया अनुभव के आधार पर आप हिंदी ब्लोगजगत के बाकी साथियों को कोई सन्देश देना चाहेंगे?"...
"जी!...ज़रूर...मैं उन्हें एक नहीं बल्कि दो-दो सन्देश देना चाहूँगा"...
"वो किसलिए?"...
"बाय वन..गैट वन फ्री"..
"जी!..
“मेरा पहला सन्देश तो ये है कि.....
"नहीं चाह मुझे पसंद के चट्खों की…मेरा काम ही मेरी हैसियत बयाँ कर देगा"...
"वाह!...बहुत बढ़िया"...
"थैंक्स!...
"और दूसरा?"...
"दूसरा ये कि....
"क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे...
नकली चेहरा सामने आए...असली सूरत छुपी रहे"..
***राजीव तनेजा ***
Rajiv Taneja
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11 comments:
बेहतरीन कटाक्ष!
इस बात पर तो मेरा सिर भी सहमति के लिए हिल रहा
कि
“आप खुद...अकेले..अपने दम पे चौधरी बन के पूरे ब्लोगजगत का उद्धार करने निकले हैं तो आप अपनी इस नैतिक ज़िम्मेदारी से कदापि नहीं बच सकते...कतई नहीं बच सकते".. आपके इस कृत्य से पूरा ब्लोगजगत खुद को अचंभित सा....ठगा सा महसूस कर रहा है"
गांधी जी...प्रणाम स्वीकार करें...
...बहुत सुन्दर ... अदभुत अभिव्यक्ति ... जोर का झटका धीरे से ... सीधा कनपटी पे एक-एक चपाट जैसा चिपका दिया है ... बधाई .. बहुत बहुत बधाई कुशल लेखन के लिये !!!!
एकदम सही लिखे हैं, गांधी जी :)
:) ...
भाई तनेजा जी
कमाल कर दिया,गांधी जी फ़टेहाल कर दिया।
मुफ़्त की चौधर से इज्जत ही उतरती है।
ये तो बड़े बुढों ने कहा है। गुप्ता जी तो बची खुची लंगोंटी भी उतर आए। लौंडों की दोस्ती जी का जंजाल
बहुत बढिया धांसू व्यंग।
धार के साथ रफ़्तार भी बढती जा रही है । एकदम टू द प्वाईंट है .....और अब तो सचमुच ही हमें भी गांधीगिरी छोड कर सीधा ही कारगिल वार करने का मन कर रहा है .....बोफ़ोर्स और सुखोई दोनों ही तैयार हो रहे हैं देखिए कब तक बौर्डर पर तैनात किए जाते हैं ।
भाई हमे कुछ कुछ तो समझ मै आ रहा है बाकी पुरानी पोस्ट पढनी पढेगी, लेकिन चोट मजे दार कि हे, मै कुछ समय से ब्लांग से दुर था इस लिये पुरी जानकरी नही.... अब पहले इस गुप्ता जी कॊ ढुढना पडेगा....ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग...
मुझे कुछ समझ आया कुछ नहीं, शायद किसी विवाद पर कटाक्ष लिखा है
हा-हा-हा
वो मारा पापड वाले को
मूंछे जंच रही हैं जी
प्रणाम
bhai, aap aisi rachanaaye likhate hai, ki har baar yahi kahanaa padtaa hai...bahut khoob...gahari vyagya-drishti hai aapke pass.
बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं ! बेहद उम्दा कटाक्ष!
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