“आ…लौट के आ जा मेरे मीत रे….तुझे मेरे गीत बुलाते हैं"…
“क्या बात तनेजा जी…आज बड़े खुश हो…मस्ती में खुशी के गीत गए जा रहे हैं?"…
“कान पे झापड़ मारूंगा एक"…
“काहे को?”…
“मेरी ये रोनी सूरत आपको खुशी और हर्ष की दिखाई दे रही है?”…
“अरे!…जब आप इतनी जोर से उचक-उचक के…हिचकोले खा-खा के गाएंगे तो सामने वाला क्या समझेगा?”…
“क्या समझेगा?”…
“यही कि आप खुश हैं…बहुत खुश"..
“बेवाकूफ!…ये…ये मैं तुम्हें खुश दिखाई दे रहा हूँ?”मैं तैश में आ अपने चेहरे की तरफ ऊँगलियाँ नचाता हुआ बोला…
“लेकिन जब आप गा रहे थे तो आपके चेहरे से ऐसा बिलकुल भी नहीं लगा कि आप दुखी या परेशान हैं"…
“हाँ!…यार…ये बात तो तू बिलकुल सही कह रहा है…दरअसल क्या है कि मैं अब तक खुद ही डिसाईड नहीं कर पाया हूँ"…
“क्या?”..
“यही कि मैं अपने चेहरे पे कौन सा वाला एक्सप्रेशन रखूँ?"…खुशी से ओत-प्रोत हो एकदम से अप टू डेट वाला या फिर मातम से दुखी और भयभीत हो बिलकुल ही लुंज-पुंज वाला?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“शर्मा जी!…आप एक बात बताएँ"…
“जी!…
“आप क़ानून तोड़ते हैं?”..
“क्या मतलब?”…
“आपने कभी कोई क़ानून तोड़ा है?”..
“मै कुछ समझा नहीं"…
“बड़ी छोटी समझदानी बनाई है ऊपरवाले ने तुम्हारी"…
?…?…?…?…?…
“आपने कभी किसी की जेब तराशी है?”…
“क्या बकवास कर रहे हैं आप?”…
“पहले आप बताइए तो सही"…
“नहीं!…बिलकुल नहीं"…
“ओ.के!…क्या आपने कभी चोरी की है?”…
“अब कान पे आपके मैं झापड़ मारूंगा…वो भी एक नहीं ..दो….पूछिए क्यों?”….
“क्यों?”…
“ये भी कोई सवाल है पूछने का?”….
“अरे-अरे!…आप तो नाहक बुरा मान…नाराज़ हो रहे हैं…मैं तो बस ऐसे ही….अपनी जनरल नालेज के लिए पूछ रहा था"…
“ओह!..तो फिर ठीक है"….
“आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया"…
“कौन से?”…
“यही कि आपने कभी चोरी……
“हाल-फिलहाल का तो याद नहीं लेकिन हाँ!…बचपन में मैं अक्सर मंदिरों से चढावा और प्रसाद वगैरा चुराया करता था"…
“बचपन की तो छोडिये…बचपन में तो मैं भी मस्जिदों और गुरुद्वारों के बाहर से पता नहीं क्या-क्या….खैर आप ये बताएँ कि अभी हाल-फिलहाल में आपने कोई चोरी की है?”…
“ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं तनेजा जी"…
“क्या?”…
“मैंने तो बड़े प्यार-मोहब्बत से आपको अपनी ऊंगली पकड़ाई थी लेकिन आप बातों ही बातों में मेरे कॉलर तक…मेरे गिरेबान तक पहुँचने लगे"…
“ओह!…सॉरी…आय एम् वैरी सॉरी"…
“मैं आपको चोर दिखाई देता हूँ?”…
“दिखाई तो नहीं देते लेकिन…..
“अच्छा!…छोडिये…आप ऐसे ही कल्पना-कल्पना में मान लीजिए कि वर्तमान में आप चोर हैं…एक शातिर चोर….
“कल्पना में ही ना?”…
“जी!…
“असलियत में तो नहीं ना?”…
“बिलकुल नहीं"..
“हम्म!…तो फिर ठीक है…बताइए मुझे क्या सोचना है?”…
“किस बारे में?”…
“इसी बारे में?”..
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“अरे!…कमाल करते हैं आप भी…अभी खुद ही मुझे कह रहे थे कि कल्पना-कल्पना में सोचिये और अब खुद ही जनाब कल्पनाओं के भंवर में गोते खाने लगे"…
“ओह!… माय मिस्टेक…मैं कहीं खो गया था"…
“जी!….
“तो फिर आप कल्पना कीजिए कि आप एक चोर हैं…शातिर चोर"…
“ओ.के"…
“तो क्या कभी पकडे जाने के बावजूद आप सीनाजोरी करेंगे?”…
“तुम्हारी अक्ल क्या घास चरने गई है?”…
“क्या मतलब?”…
“एक तरफ आप मुझे शातिर कह रहे हैं और दूसरी तरफ अपने जैसे लल्लू आदमी से पकडवा भी रहे हैं"…
“ओह!…तो फिर आप एक कल्पना और कीजिये"…
“क्या?”..
“यही कि मैं एक घाघ पुलिस वाला हूँ"..
“आप?…और घाघ पुलिस वाले?”…
“जी!..
“शक्ल देखी है कभी आईने में?”…
“क्यों?…क्या हुआ है मेरी शक्ल को?…अच्छी भली तो है"…
“हाँ!..अच्छी-भली है लेकिन मुझ जैसे छिछोरों को आप अपने इस चिकने चेहरे से बरगला नहीं सकते…लुभा नहीं सकते"…
“क्या मतलब?”…
“आप घाघ हो सकते हैं औरतों के लिए…बच्चों के लिए…लेकिन मुझ जैसे लम्पट के आगे आपकी ये दाल नहीं गलने वाली"…
“ओह!…तो फिर आप एक काम और कीजिये"…
“क्या?”…
“आप एक और कल्पना कीजिये"…
“एक और?”…
“जी!…
“क्या?”…
“यही कि आप एक औरत है…बला की ख़ूबसूरत औरत"…
“क्क्या?…क्या बकवास कर रहे हैं आप?..अ..आपने….मुझे समझ क्या रखा है?”…
“बला की खूबसूरत…
“और?”..
“गज़ब की सैक्सी”…
“और?”…
“काली…देह-दृष्टि वाली एक कमीनी…ऊप्स!…सॉरी…कमनीय औरत"…
“ये आप मेरी तारीफ़ ही कर रहे हैं ना?”शर्मा जी का शंकित स्वर…
“जी!…
“मजाक तो नहीं कर रहे ना?”…
“बिलकुल नहीं"…
“ओ.के!…तो फिर ठीक है…मुझे ये रिश्ता मंज़ूर है"…
“ओ ज़रा-ज़रा सा…ज़रा ज़रा सा….टच मी…टच मी…बेबी….ओ..किस मी…किस मी बेबी"…
“हटिये!..हटिये…दूर हटिये…मै ऐसे टाईप का बन्दा नहीं हूँ"..
“ठीक है!…तो फिर मैं भी तुम्हारी बांदी नहीं हूँ"…
“क्या मतलब?”…
“जब आपको ही मेरी परवाह नहीं है तो फिर मैं आपकी चिंता क्यों करूँ?”…
“क्या मतलब?”..
“मैं आपके लिए…सिर्फ आपके लिए बिना कुछ सोचे-समझे अपने ज़मीर तक को ताक पे रख कर कल्पनाओं पे कल्पनाएँ किए जा रहा हूँ और आप ऐसे निष्ठुर हैं कि मुझे अपने ज़रा सा नज़दीक तक नहीं आने दे रहे हैं"..
“ओह!…
“खैर!…छोडिये इस बात को …बताइए मुझे आगे क्या करना है?”…
“आगे?”…
“आगे क्या सोचना है?”…
“यही कि पकड़े जाने के बावजूद क्या आप मुझसे सीनाजोरी करेंगे?”…
“ये तो मेरे मूड पे डिपैंड करेगा"…
“ओ.के"…
“अच्छा!…आप ये बताइए कि क्या आप कभी अपनी गलती होने के बावजूद किसी दूसरे पर चौड़े हुए हैं?”…
“कई बार"…
“ओह!…इसका मतलब वो ठीक ही….
“आप ये इधर-उधर की पहेलियाँ बुझाने के बजाये सीधे मतलब की बात पे क्यों नहीं आते?”…
“क्या आपने कभी क़ानून तोडा है"…
“नहीं!..बिलकुल नहीं"…
“कभी नहीं?”…
“अब ऐसे…अचानक…अनजाने में तो हो सकता है लेकिन जानबूझ कर?…नहीं…कभी नहीं”…
“आपने आखिरी बार लालबत्ती कब जम्प की थी?”….
“आज सुबह ही…क्यों?…क्या हुआ?”…
“ये क़ानून तोडना नहीं हुआ?”…
“दरअसल!…मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी"…
“हुंह!…देर हो रही थी….बड़ा पुराना बहाना है"…
“सच्ची!…कसम से"…
“तो फिर घर से ही जल्दी निकालना चाहिए था ना"…
“आपने कहा दिया और हो गया?”…
“क्या मतलब?”…
“इन वर्ल्ड कप फ़ुटबाल वालोँ को भी तो ज़रा जा के बोलो ना कि अपने मैच दिन में खेला करें"…
“वो रात में मैच खेलते हैं?”…
“नहीं!…खेलते तो दिन में ही हैं"…
“तो?”…
“लेकिन तब यहाँ रात होती है"…
“ओह!…
“दरअसल हुआ क्या कि देर रात तक तो मैं मैच देखता रहा …इस चक्कर में आँख भी सुबह देर से ही खुली"…
“रात भर जाग के आँखें फोड़ने के लिए डाक्टर ने कहा था?”…
“वो रिसल्ट….
“अरे!…अगर रिसल्ट का ही पता लगाना था तो वो तो सुबह भी पता चल जाता अखबार या फिर रेडियो से…इसके लिए रात भर जागने की ज़रूरत क्या थी?”…
“मैच पे पैसे तुम्हारे फूफ्फा ने लगाए थे?”…
“क्या मतलब?”…
“पूरे बाईस हज़ार का सट्टा मैच पे मैंने खेला था…आपने नहीं"…
“ओह!…
“लेकिन ऐसे..अपने फायदे के लिए आप क़ानून पे क़ानून तोडें…तोड़ते चले जाएँ ….ये भी तो जायज़ नहीं है ना?”…
“जी!…
“तो ये आपने ठीक किया या गलत?”…
“अब अगर सच पूछें तो…गलत”…
“और मैंने इसके लिए टोक दिया तो क्या गलत किया?”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं"..
“फिर वो मुझसे बात क्यों नहीं करती है?”…
“कौन?”…
“वही जो सीनाजोरी करती है"…
“कौन?”…
“वही जो सबके सामने खुलेआम जेबतराशी करती है"…
“कौन?”…
“वही…जो बात…बिना बात बेफाल्तू में चौड़ी हुई फिरती है"…
“कौन?”…
“आपको तो पता ही है कि मैं रोजाना ब्लू लाइन बस से अपने काम पर आता-जाता हूँ"…
“जी!…
“वहाँ का माहौल सही नहीं होता इसलिए मैं अपनी जेब में दो-चार सौ से ज्यादा रूपए कभी नहीं रखता"…
“ओ.के"…
“अगर उन्ही रुपयों पे कोई दिन-दहाड़े …आपकी खुली आँखों के सामने डाका डाल…आपको लूटने की कोशिश करे…जेबतराशी करने की कोशिश करे तो आप इसे क्या कहेंगे?”…
“सरासर अंधेरगर्दी हुई ये तो"…
“वोही तो…मैंने विरोध किया तो उलटे चिल्ला-चिल्ला के आसमान सर पे उठा लिया"…
“हद हो गई ये तो बेशर्मी की"…
“इसीलिए तो मैं आपसे पूछ रहा था कि चोरी करने के बाद आपने कभी सीनाजोरी की?”…
“चलिए!…अभी मेरे साथ चलिए"…
“कहाँ?”…
“अशोक विहार पुलिस स्टेशन"…
“किसलिए?”…
“वहाँ का ‘S.H.O’ मेरी जान-पहचान का है"..
“तो?”..
“उसी को शिकायत करते हैं चल के"…
“छोड़ यार!…क्या फायदा?”…
“दो दिन…में…दो दिन में पकड़ के अंदर कर देगा”…
“छोड़ यार….रहने दे"…
“क्या बात?…बड़ा तरस आ रहा है…..दो-चार लट्ठ पड़ेंगे तो सारी हेकड़ी ढीली हो जाएगी तुरंत …नाकों चने ना चबवा दिए तो कहना…औरत हुई तो क्या हुआ…इसका नाजायज़ फायदा उठा लेगी?”…
“छोड़ यार!…फिर कभी सही"…
“फिर कभी क्यों?…अभी क्यों नहीं?”…
“समझा कर यार…बीवी है मेरी….कोई गैर नहीं"…
“बीवी?…क्या?…क्या कह रहे हो?”…
“हाँ!…यार…बीवी है मेरी…उसी की तो बात कर रहा था मैं इतनी देर से"…
“ओह!…मैं तो कुछ और ही…..वैसे…हुआ क्या था?”…
“कुछ खास नहीं"…
“इस वक्त कहाँ है भाभी जी?…मैं बात करता हूँ उनसे"…
“अपने मायके में?”…
“कब आएंगी?”…
“पता नहीं"…
“कितने दिन के लिए गई हैं?”…
“पता नहीं"…
“कुछ पता भी है तुम्हें?”…
“पता नहीं…कह के तो यही गई है कि अब कभी वापिस नहीं आऊंगी"…
“अरे!…ऐसे थोड़े ही होता है….थोड़ी-बहुत नाराजगी होगी…अपना गुस्सा उतरा जाएगा तो अपने आप लौट आएँगी …आप चिंता ना करो"…
“नहीं!…वो अब कभी नहीं आएगी"…
“लेकिन क्यों?”…
“मैंने उसे डाँट दिया था"…
“किस बात को लेकर?”…
“इसी जेबतराशी और सीनाजोरी की बात को लेकर"…
“तो?…इससे क्या होता है?…ऐसा तो सभी घरों में होता है"…
“लेकिन सभी घर छोड़ के तो नहीं चली जाती हैं मेरी वाली की तरह"…
“ज़रूर कोई और बात हुई होगी….मैं नहीं मान सकता कि कोई भी बीवी…इतनी ज़रा सी बात के लिए ऐसे..अचानक घर छोड़ दे?”..
“हो ही नहीं सकता"…
“नहीं!…ये सब ऐसे ही अचानक नहीं हुआ था…कई दिनों से उसके दिमागी भंवर में इस सब की रूपरेखा बन रही थी"…
“ओह!…
“प्यार से…दुलार से कुछ भी समझाने की कोशिश करो तो उलटा आँखें दिखाने लगती थी”…
“ओह!…
“आँखें तो यार…सच में उसकी बड़ी सुन्दर थी"…
“हाँ!…ये बात तो कई बार मैंने भी नोटिस की थी…खास कर के जब वो खिलखिलाकर हँसती थी तो उनकी मिचमिची आँखें…आँखें तो सच में…वाकयी बड़ी खूबसूरत थी"…
“थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"…
“इट्स ओ.के…आप मुझे शुरू से सारी बात बताओ कि आखिर हुआ क्या था?”…
“होना क्या था?…मुझे तो शुरू से ही उसकी ये जेबतराशी वगैरा की आदत पसंद नहीं थी लेकिन कई साल तक मैं इसे उसका बचपना समझ कर इग्नोर करता रहा"…
“यही तो आपने गलती की तनेजा साहब"….
“क्या मतलब?”…
“आपको बिल्ली पहली रात में ही मार डालनी चाहिए थी"…
“हम्म!…बात तो यार तुम सही ही कह रहे हो…..मैंने उसे कई बार समझाया भी कि अच्छे घरों की सुसंकृत औरतों को ऐसा करना शोभा नहीं देता"…
“उन्हें संस्कृत आती थी?”…
“आफकोर्स!…सही वाज़ ‘M.A’ इन संस्कृत"…
“वैरी गुड"…
“इसलिए मैं उसे बार-बार टोकता रहता था"…
“बिकाझ शी वाज़ ‘M.A' इन संस्कृत?”…
“नहीं!…उसके लिए तो मैंने उसको कब का माफ कर दिया था"..
“ओ.के"…
“एक दिन मैडम को बैठे-बिठाए पता नहीं क्या कीड़ा काटा कि गाड़ी सीखने की रट लगा के बैठ गई"…
“तो क्या हुआ?…लड़कियां गाड़ी चलाएं ये तो गर्व की बात है…स्टेटस की बात है"…
“जी!…लेकिन ढंग से तो चलाएं कम से कम"…
“क्यों?…क्या हुआ?”…
“क्या हुआ?…सीखने के पहले दिन ही एक ट्रक के पिछवाड़े दे मारी"…
“ओह!…फिर तो काफी नुक्सान हो गया होगा?”…
“जी!…
“कितने पैसे लग गए?”…
“चौदह हज़ार"…
“ओह!..एक तो काम-धंधे वैसे ही नहीं चल रहे हैं …ऊपर से ऐसे नुक्सान कमर तोड़ के रख देते हैं"..
“जी!…
“लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही “…
“क्या?”…
“यही कि अभी थोड़ी देर पहले ही तो आप कमर लचका-लचका के गा रहे थे कि….
“आ…लौट के आ जा मेरे मीत रे….तुझे मेरे गीत बुलाते हैं"…
“जी!…
“लेकिन कैसे?…आपकी कमर तो….
“मेरी कमर को क्या हुआ है?…एकदम फर्स्ट क्लास तो है"मैं शर्मा जी को कमर मटका..ठुमका लगा के दिखाता हुआ बोला.…
“वो चौदह हज़ार का नुक्सान?”….
“वो मेरा थोड़े ही हुआ था"…
“क्या मतलब?…गाड़ी को कुछ नहीं हुआ था?”…
“उसका तो बोनट-वोनट सब टूट के हाथ में आ गया था"…
“लेकिन आपने तो अभी कहा कि आपका कोई नुक्सान नहीं हुआ"…
“हाँ!…नहीं हुआ"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“नुक्सान तो हरभजन का हुआ…मेरा थोड़े ही हुआ"…
“अब ये हरभजन कौन?”…
“मोटर ड्राईविंग कालेज वाला…उसी की गाड़ी में ही तो सीख रही थी मेरी श्रीमती"…
“लेकिन वो तो पक्के एक्सपर्ट होते हैं….उनकी गाड़ी कैसे?”…
“कैसे?…क्या?…श्रीमती जी की काली-काली कजरारी आँखों के चक्कर में पट्ठा अपना नुक्सान करवा बैठा"…
“क्या मतलब?”…
“पट्ठे का ध्यान गाड़ी सिखाने की तरफ था ही नहीं"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?….उसने तो डर के मारे अगले दिन ही हाथ जोड़ दिए कि मेरे बस का नहीं है आपकी श्रीमती जी को गाड़ी सिखाना"…
“ओ.के!…फिर क्या हुआ?”…
“उसके बाद मैडम जी ने खुद अपनी ही गाड़ी पे हाथ साफ़ करने की सोची"…
“फिर क्या हुआ?”..
“मैंने उनके हाथ में ये कहते हुए मैला कपडा धर दिया कि …लो!…पहले कार को ठीक से साफ़ करना सीख लो…बाद में इस पे अपना हाथ साफ़ करना"..
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“वही…रोजाना की चिल्लम पों"…
“ओह!…
“खैर!…कह सुन के किसी तरह मैडम जी ने गाड़ी चलाना सीख ही लिया"…
“वैरी गुड"…
“अजी!…काहे का वैरी गुड?…जहाँ बीस की स्पीड से गाड़ी चलानी चाहिए…वहाँ पचास की स्पीड से गाड़ी दौडाने की सोचती है"…
“और जहाँ पचास की स्पीड से दौड़ानी चाहिए…वहाँ?”…
“वहाँ..सौ से ऊपर की बात करती है"…
“ओह!….
“लालबत्ती तो ऐसे धडल्ले से जम्प करती है मानों वो फुटपाथ पर ही पैदा हुई हो"…
“ओह!…आपको उन्हें प्यार से समझाना चाहिए था"…
“प्यार से?”…
“जी!…
“लेकिन कैसे?”…
“आप मुझे उनका नंबर दो…मैं अभी उन्हें समझा के दिखाता हूँ"…
“कोई फायदा नहीं"…
“क्या मतलब?”…
“अब वो कभी लौट के नहीं आएगी"…
“लेकिन क्यों?”…
“रोजमर्रा की चिक-चिक से मैं परेशान तो बहुत था लेकिन फिर भी किसी तरीके से अपने दिल पे पत्थर रख के मैं उसके साथ जैसे-तैसे निभा रहा था”..
“ओ.के"…
“लेकिन परसों तो उसने हद ही कर दी”…
“हुआ क्या था?”…
“पहले मेरे पर्स में से वो सौ दो सौ रूपए निकाल के उसे वापिस वहीँ रख दिया करती थी जहाँ से उसने उसे उठाया होता था"…
“ओ.के"…
“लेकिन परसों तो उसने सारी हदें तोड़ते हुए…सारी सीमाएं लांघते हुए मेरा समूचा पर्स ही गायब कर दिया”…
“ओह!…पर्स में कोई ज़रुरी कागज़ात वगैरा?”..
“ज़रुरी तो खैर क्या होना था?….लेकिन आज पर्स गायब किया है…कल को मेरी तिजोरी और परसों को मेरे हार्ट के दोनों वाल्व”…
“मैं तो कहीं का नहीं रहूँगा"…
“ओह!…
“इसलिए मैंने समय रहते ही चेत जाने का फैसला किया कि आने तो पहले आने दो उस कलमुंही को…फिर खबर लेता हूँ पट्ठी की"…
“य्ये…ये आप क्या कह रहे हैं?…भाभी जी तो एकदम …दूध-मलाई के माफिक गोरी-चिट्टी….
“तो?”…
“आप उन्हें कलमुंही किस बिनाह पर ?..किस जुर्म में कह रहे हैं?”..
“अरे!…अगर इतनी ही शरीफजादी होती तो मेरे सामने…मुझसे पैसे मांग के ले जाती…यूँ …चोरी से छुपछुपाते हुए किसी की गाढी कमाई पे हाथ साफ़ कर देना….अच्छे घरों की औरतों को शोभा देता है क्या?”….
“हम्म!…
“अब उसे कलमुंही ना कहूँ तो क्या कहूँ?”…
“हम्म!…तो क्या तभी से वो वापिस आई ही नहीं?”..
“अरे!…तभी…वहीँ के वहीँ चली जाती तो मैं सब्र भी कर लेता…तसल्ली भी कर लेता कि चलो जान छूटी लेकिन वो कंबख्तमारी तो जैसे जले पे नमक छिडकने पे उतारू थी"…
“ओह!…
“दो घंटे बाद इठलाती हुई…बल खाती हुई….आ के कहने लगी….
“क्या?”…
“मैं कैसी लग रही हूँ जी?”…
“कैसी लग रही हूँ?”…
“हाँ!…मैंने तो कसम खा ली थी कि आज के बाद कभी भी इस कंबख्तमारी का मुंह तक नहीं देखूंगा"…
“ओह!…
“इसलिए बिना उसकी तरफ मुंडी किए मैं दूर से ही चिल्लाया कि….
“दफा हो जा यहाँ से…आज के बाद मुझे कभी अपनी शक्ल नहीं दिखाइयो”…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था…गुस्से में पैर पटकती हुई लाल-पीली हो हुई वो गाड़ी की चाबी ले के ऐसे फुर्र हुई कि आज तक नहीं लौटी"…
“ओह!…वैसे भाभी जी लग कैसी रहीं थी?”…
“कान पे झापड़ मारूंगा एक”…..
?…?…?…?…
“तुम पागल हो?”..
“क्या मतलब?”..
“जब मैंने कह दिया कि बिना उसका थोबडा देखे ही मैंने उसे दुत्कार का भगा दिया तो फिर उसे देखने का सवाल ही कहाँ से पैदा हो गया?”…
“ओह!…लौटने की कोई संभावना?”…
“ना के बराबर"…
“ओह!…आपको उनके पीछे जा के उन्हें मना लेना चाहिए था"…
“आपने मुझे पागल समझ रखा है?”…
“इसमें पागल की क्या बात है?…अर्धांगिनी है वो आपकी….आप मनाएंगे उसे तो क्या मैं मनाऊंगा?”…
“अरे!…नहीं आप गलत समझ रहे हैं….मेरे कहने का मतलब था कि मैं कोई पागल थोड़े ही हूँ जो उसे मनाने के लिए उसके पीछे नहीं गया होऊंगा?”…
“ओह!…फिर क्या हुआ"…
“होना क्या था?…शाम को ऑफिस टाईम होने की वजह से सडकों पर बहुत भीड़ थी…ट्रैफिक की रेलम पेल और शोर-शराबे में कहीं कुछ सूझ नहीं रहा था"…
“ओ.के"…
“इन स्साले!…हराम के जनो को तो गोली मार देनी चाहिए"…
“किनकी बात कर रहे हैं?”…
“इन्हीं…स्साले कुत्तों की …जो अकेले होने के बावजूद पूरी सड़क घेर के चलते हैं"…
“क्या मतलब?”…
“स्साले!…अमीर होंगे तो अपने घर में होंगे …ये सड़क इनके बाप की नहीं है जो अकेले-अकेले कार में बैठ के मटरगश्ती करने चल पड़ते हैं"…
“अरे!..उनकी छोडो…उनसे तो उनका खुदा निबटेगा…आप अपनी बताओ कि फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…हर तरफ जाम ही जाम….दांत मांजने की अक्ल होती नहीं है लौंडे-लपाड़ों को और माँ-बाप गाड़ी-घोड़े की चाबी हाथ में थमा के कहते है…गुड बाय"…
“गुड बाय?"…
“हाँ!…गुड बाय कि ….जाओ…बेटा जी…बाहर ज़रा शहर में घूम-फिर के तफरीह कर के आओ…सडके तुम्हारे बाप की जो हैं"…
“आप जाम की बात कर रहे थे"…
“हाँ!…जाम ऐसा लगा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था"…
“आपने हाथ का क्या करना था?”…
“उसने हरी चूडियाँ जो पहन रखी थी"..
“कुत्ते ने?”…
“नहीं!…मेरी मैडम ने"…
“तो?…उससे क्या होता है?”…
“इतनी भीड़ में उन्हें पहचानता कैसे?”…
“थोबडा देख के"…
“आप पागल हैं?”…
“क्या मतलब?”…
“वो मुझसे पहले घर से निकली थी"…
“तो?”…
“उसने यकीनन मुझसे आगे ही होना था"…
“तो?”…
“मैं पीछे से उसका चेहरा कैसे देखता?”…
“ओह!…आपको उनका नाम ले के जोर से आवाज़ लगानी चाहिए थी"…
“नहीं लगा सकता था"…
“क्यों?”…
“उसका नाम सबको पता चल जाता"…
“तो!…उससे क्या होता है?”..
“शर्मिंदा तो मुझे होना पड़ता ना?”…
“वो किसलिए?”...
“उसका नाम ‘चितकबरी' जो था"…
“सच में?”…
“नहीं!…इस नाम से तो मैं उसे प्यार से बुलाता था"…
“ओह!…
“अब हर कार में मैं अपना मुंह घुसेड के उसके ड्राईवर का मुंह कैसे ताकता?”…
“हम्म!….फिर क्या हुआ?”..
“चारों तरफ जाम ऐसा लगा था कि कोई भी गाड़ी अपनी जगह से हिल तक नहीं पा रही थी…पीछे से लोग हार्न पे हार्न बजाए चले जा रहे थे लेकिन आगे वालोँ के कान पे जूं तक नहीं रेंग रही थी"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“मैंने सोचा कि जा के देखूं तो सही कि कौन उल्लू का पट्ठा सड़क जाम किए बैठा है?”…
“ओ.के"…
“आगे जाने पे देखता क्या हूँ कि बरगंडी कलर के परकटे बालों वाली एक मोहतरमा बीच सड़क के बोनट खोल….
“गाड़ी का?”…
“और नहीं तो क्या अपना?”…
“बरगंडी कलर के परकटे बालों वाली एक मोहतरमा बीच सड़क के बोनट खोल….कुछ ज्यादा ही बोल्ड अंदाज़ में झुक कर गाड़ी के इंजर-पिंजर ढीले करने में जुटी है"…
“ओह!…
“और उसके आस-पास दुनियाभर के तमाशबीनों की भीड़ ऐसे मजमा लगाए खड़ी है मानो जंगल का मोर आज पहली बार शहर में नाचने को आ गया हो"…
“मोर?”..
“ऊप्स!…सॉरी मोरनी”…
“वैसे…उस मोहतरमा ने पहना क्या था?"…
“लो वेस्ट की घुटनों से ऊपर तक की बदन के साथ चिपकी हुई कैपरी के साथ एक झीनी सी स्लीवलैस शर्ट”…
“अब ऐसे-ऐसे बेहूदा कपडे पहन का सडकों पर निकलेंगी तो जाम लगना ही लगना है"….
“जी!…कुछ देर तक तो मैं भी टकटकी लगाए उसे एकटक देखता रहा"…
“सही है मियां…बीवी घर पर नहीं है तो लगे मज़े लूटने?”…
“नहीं!…ये बात नहीं है…दरअसल मैं मन ही मन कल्पना कर रहा था कि मेरी बीवी इन कपड़ों में कैसी लगेगी?”…
“कैसी लगेगी?”…
“बला की ख़ूबसूरत और निहायत ही सैक्सी…यूँ समझ लो कि पूरी बम लगेगी…बम…एटम बम"…
“हम्म!…उसे बस देखते ही रहे या फिर कुछ और भी?”….
“अब आपसे क्या छुपाना शर्मा जी?…मैंने सुनहरा मौका देख झट से पिछवाड़े पे चिकोटी काट ली"…
“उसके?”…
“नहीं!…अपने”….
“किसलिए?”…
“ताकि पता लगा सकूँ”…
“क्या?”…
“यही कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा"..
“ओह!…
“वो सच में ही मेरे सामने झुक कर कनेक्शन चैक कर रही थी”…
“किसका?”…
“बैटरी का"…
“ओ.के"…
“वो अभी कनेक्शन चैक कर ही रही थी कि अचानक मेरा जोर से घनघना उठा"…
“क्या?”…
“फोन"…
“ओह!…किसका था?”..
“पता नहीं"…
“क्या मतलब?..आपने फोन रिसीव नहीं किया था?”..
“किया था लेकिन उन मोहतरमा का जलवा ही कुछ ऐसा था कि बेध्यानी में नंबर देखना भूल ही गया”….
“लेकिन आवाज़ सुन के तो पता चल ही सकता था ना कि किसका फोन है?”..
“अब इतनी भीड़ भरे शोर शराबे में मैं फोन सुनूँ भी तो कैसे?”…
“हम्म!…
“बड़ी खुंदक आ रही थी मुझे उस पागल की बच्ची पे कि उसके चक्कर में मैं एक ज़रुरी फोन काल भी ठीक से नहीं सुन पा रहा था"…
“ओह!…
“मन तो मेरा किया कि अभी के अभी दूँ खींच के इसके कान के नीचे एक लेकिन फिर ये सोच के चुप रह गया कि कौन पराई औरतों के मुंह लगे?”…
“गुड!..ये आपने ठीक किया"…
“अजी!…काहे का ठीक किया?…खाली मेरे चुप रहने से क्या हुआ?…बाकी के भौंकने वाले तो भौंकते ही रहे ना?”..
“ओह!…
“मैं अभी सोच ही रहा था कि क्या करूँ और क्या ना करूँ? कि इतने में पीछे से कोई चिल्लाया कि इसी &^%$#$%^& की वजह से सबको देर हो रही है”…
“फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…उसकी जोश भरी वाणी सुन के सब उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे”…
“ओ.के"..
“लगे हाथ मेरा भी खोया हुआ ज़मीर जाग उठा और मैं भी उनके सुर में अपना सुर मिलते हुए जोर से चिल्लाया….
“देखते क्या हो?…मारो स्साली….को"…
“गुड!…वैरी गुड"…
“चूहे दी खुड्ड”……
“क्या मतलब?”…
“औरों की बात का तो उस पर कोई असर नहीं हुआ लेकिन जैसे ही मैं चिल्लाया…मानों उसके तन-बदन में आग लग गई हो….फटाक से उसने पलक झपकते ही मेरा गिरेबान पकड़ लिया"…
“ओह!…माय गाड"…
“यही!..बिलकुल यही मेरे मुंह से भी निकला जब मैंने देखा कि वो कोई और नहीं…मेरी ही अपनी…खुद की सगी बीवी थी"…
“क्क्या?”…
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
Delhi(India)
http://hansteraho.blogspot.com
rajivtaneja2004@gmail.com
+919810821361
+919213766753
+919136159706
19 comments:
rochakata, rahasyavad....aanand aadi-aadi sara kuchh hai iss lambi hasya-katha mey. vaise kahi-kahi vyangya bhi hai...
गिरीश पंकज जी। इसे मीठी खिचड़ी कहा जाए तो चलेगा। भाई जी, आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी।
शानदार पोस्ट
एक बार फिर से कमाल कर दिया.. धोती को फाड़ के रुमाल कर दिया.. :)
राजी्व भाई, इस बार तो काफ़ी सेक्सी कहानी ले आए। मजा आ गया जी।
तुहानु लख लख वधाइयाँ जी।
मस्त रहो मस्ती में,आग लगे बस्ती में
मर्द को दर्द,श्रेष्ठता का पैमाना,पुरुष दिवस,एक त्यौहार-यहाँ भी आएं
बहुत बढ़िया महाराज !
आऽऽऽऽऽऽऽऽऽह
अब कहीं जा के पोस्ट खतम हुई.
आप ने एक बात बहुत सही कही कि जो चीजे मंहगी होनी चाहिये वो हद से ज्यादा सस्ती है, ओर जो चीजे सस्ती होनी चाहिये वो..... बस यही सरकार की चाल है कि हम सिर्फ़ रोटी के चक्कर ही लगाये, ्ज्यादा आगे की ना सोचे, ओर इस सरकार को सब करने दे
kya baat hai !
bahut khoob........
हा हा हा बढिय खींचा है ,...आपने । धुलाई सही चली है ..बढिया ...एकदम रापचिक ..। प्रवाह खूब रहा .....
...क्या बात है ...जबरदस्त!!!
कहां से उठाया और कहां लाके पटका। बहुत बढिया।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?
हा हा हा बढिय खींचा है ,...आपने । धुलाई सही चली है ..बढिया ...एकदम रापचिक ..। प्रवाह खूब रहा ....
हा हा हा ... मज़ा आ गया
बहुत सुन्दर , लाजवाब ||
भाई राजीव तनेजा जी, आप को जन्मदिन की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं ।
avinash ji, aapne ''meethee khichadi'' kah kar rachanaa ki tareef ke liye achchha shabd garh diyaa, dhanyvaad. aur haa...rajiv ji, aaj aapko janm din ki bhi badhai.. svashth rahe...sanand rahe...aur hasate-hasate rahen.
ये तो होना ही था!
हम तो आपके उचक-उचक के…हिचकोले खा-खा के गाना गाने की अदा पर कल्पना कर मुदित हुए जा रहे :-)
बी एस पाबला
ASHOK ARORA
राजीव जी हास्य के साथ साथ एक चुटकी लेती हुई मस्त मस्त रचना.....बधाई .....
हा हा हा हा हा मानना पड़ेगा ---मस्त लिखा है---
Post a Comment