“अब क्या करूँ शर्मा जी…इस स्साले चपड़गंजू का?…ना मौक़ा देखता है और ना ही उसकी नज़ाकत….बिना माहौल देखे ही पट्ठा…बात-बात में …बिना बात के तिया-पांचा करने को बेताब हो…नाक में दम करता हुआ सीधा बाप पर पहुँच जाता है"…
“तो लट्ठ मार के मुंह तोड़ दो ना ससुरे का…अपने आप ठीक हो जाएगा"…
“नहीं तोड़ सकता"…
“क्यों?”…
“इसमें ससुर बेचारे का क्या दोष?”…
“तो उसके नाती का ही मुंह तोड़ दो…वो भी तो कई बार….
“लेकिन वो तो बस…ऐसे ही…कभी-कभार लाड-प्यार में…यहाँ-वहाँ….
“मूत जाता है?"…
“नहीं!…थूक जाता है"…
“हम्म!…यही तो सबसे बड़ी कमी है हम लोगों की कि…पहले तो हम…’बच्चा है..बच्चा है ‘कर के किसी को कुछ कहते नहीं हैं और बाद में जब यही पानी सर के ऊपर से…..
“मुआफ कीजिएगा शर्मा जी…कसम है मुझे उस नेक परवर दिगार कि जो मैंने आज तक किसी को भी अपने सर पे मूतने दिया हो"…
“लेकिन थूकने तो दिया है ना?”…
“ज्जी…ल्ल..लेकिन व्व…वो तो बस…ऐसे ही….
“बात मूतने या थूकने की नहीं है तनेजा जी…बात है तहजीब की…बात है समझ की…पहले तो हम इन सब चीज़ों को मजाक समझ अपने बच्चों को कुछ कहते नहीं हैं…उल्टा प्रोत्साहित करते हैं..और बाद में यही लाड-प्यार भरी आदते…बुरी बन हमें…हमारे मन को…हमारे मस्तिष्क को भीतर तक सेधने लगती हैं“…
“जी…कई बार तो मुझे भी इतनी वितृष्णा हो जाती है इन नामुराद बच्चों से कि उनकी ये नाजायज़ हरकतें..ज़हर बुझे तीर बन मेरे मन-मस्तिष्क की अवचेतना को भीतर तक बेंधने लगती हैं”…
“ओह!…तो इसका मतलब तभी आप कई बार आनन-फानन में हाय-तौबा मचा बेकार में इधर-उधर गरियाने लगते हैं?”…
“जी!…बिलकुल…सही पहचाना आपने"मैं गर्व से अपनी छाती को चौड़ा कर उसे फुलाता हुआ बोला
“हम्म!…
“लेकिन मेरी इस सारी टेंशन में उस बेचारे ससुर या उसके नाती का कोई दोष नहीं” …
“क्या मतलब?”…
“ये सब हिमाकत तो मेरा अपना…खुद का..निजी दोस्त कर रहा है"…
“तो उसी का मुंह तोड़ दो"…
“नहीं तोड़ सकता"…
“क्यों?….तुमने चूडियाँ पहन रखी हैं क्या?”…
“नहीं!…चूडियाँ तो नहीं लेकिन…ये कड़ा ज़रूर …
“ओह!…सोने का है?”…
“जी!…पूरे सोलह कैरेट शुद्ध पानी का सोते समय मुलम्मा चढवाया है इस पर"मैं गर्व से इतराता हुआ बोला…
“ओह!…कितने ठुक्के?”…
“मुझे क्या पता?”…
“कड़ा तुम्हारा है?”शर्मा जी का संशकित स्वर…
“जी!…बिलकुल मेरा है"मेरा स्वर सच्चाई से लबरेज था…
“और तुम्हें ही नहीं पता कि कितने ठुक्के?”…
“कौन सा मेरे बाप ने अपनी ऐसी-तैसी करवाई थी जो मुझे पता होगा कि…कितने ठुक्के?”…
“क्या मतलब?”…
“उसी कम्बख्त्मारे ने गिफ्ट किया था मेरी अठारवीं एनीवर्सरी पर”…
“अठारह साल हो गए तुम्हारी शादी को?”…
“जी!…
“लगता तो नहीं"…
“थैंक्स!…
“इसमें थैंक्स किस बात का?…मुझे तो हैरानी हो रही है कि इतने बरस तक झेल कैसे गई वो तुम जैसे निखट्टू को?”….
“झेल गई?…अरे!…ये तो मैं ही हूँ जो कैसे ना कैसे करके मैनेज कर लेता हूँ ये सब वर्ना मेरी जगह कोई और होता तो हफ्ते दो हफ्ते में ही अपना मीटर डाउन कर भाग खड़ा होता पतली गली से"…
“हम्म!..उसने तुम्हें गिफ्ट दिया और इसीलिए उसके इस एहसान के बोझ के तले दब कर तुम उसका विरोध नहीं कर पा रहे हो"…
“कोई फ़ोकट में नहीं दिया है उसने ये गिफ्ट…भतेरे पापड बेले हैं मैंने इसके लिए…आँखें बंद कर के खुला समर्थन दिया है उसकी हर जायज़-नाजायज़ बात को"…
“हम्म!…
“उसके लिए मैंने ना दिन देखा ना रात…जहाँ-जहाँ कहता गया…चुपचाप….हाँ में हाँ मिला उसकी पसंद बढाता चला गया"….
“हम्म!…तो इसका मतलब डरते हो उससे?"…
“नहीं!…डरता तो मैं कभी अपने बाप से भी नहीं लेकिन बस…ऐसे ही….कभी-कभी उसके ताप से……
“तो फिर किस दुविधा में जी रहे हो दोस्त?….माथा फोड़…क्यों नहीं लिटा डालते ससुरे को?”…
“फिर ससुरा?…कितनी बार समझा दिया मैंने आपको कि इस सब से ना तो ससुर का और ना ही उसके नाती का कोई लेना देना है"…
“अरे!…जब कोई लेना-देना ही नहीं है तो फिर सोचते क्या हो दोस्त?…फोड़ डालो स्साले का माथा हमेशा हमेशा के लिए"शर्मा जी मुझे जोश दिलाने का प्रयास करते हुए बोले…
“नहीं फोड़ सकता"मेरा संयत जवाब…
“निशाना कच्चा है क्या तुम्हारा?”शर्मा जी पीछे हटने को तैयार नहीं थे…
“नहीं!….निशाना तो इतना पक्का है…इतना पक्का है कि…आक…थू…(मैं अपनी थूक को एक ही झटके में सड़क के पार पहुंचाने का असफल प्रदर्शन कर उन्हें अपनी काबिलियत के दर्शन करवाता हुआ बोला….
“बस-बस…मैं समझ गया कि कितना पक्का है”…
“कितना पक्का है?”….
“सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते कि दम नहीं है तुम में?…नामर्द हो तुम”…
“अरे!…अगर दम नहीं होता तो क्या वो मुझे अपना बाप कह के पुकारता?”मैं रुआंसा होता हुआ बोला..
“तुम्हारे इस वो का कोई नाम भी तो होगा?”…
“नहीं ले सकता…नफरत है मुझे उससे…उसके नाम से"…..
“ऐसी भी क्या नफ़रत कि तुम अपने बच्चे का नाम भी ना ले सको?”…
“व्व…वो मेरा बच्चा नहीं है"…
“वो तुम्हें ‘बाप' कह के पुकारता है या नहीं?”…
“पुकारता है...तो?”…
“तो तुम उसके बाप हो गए"…
“अरे!…वाह…ऐसे-कैसे हो बाप हो गए?…बाप बनना क्या इतना आसान है?”…
“कितना आसान है?”..
“बाप बनने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत करनी पड़ती है…पूरे जोर-शोर से पसीना बहाना पड़ता है…रात-रात भर जाग-जाग के तपस्या करनी पड़ती है”…
“रोते बच्चे को चुप कराने के लिए?”…
“जी!..बिलकुल".. .
“लेकिन जिस हिसाब से आप बता रहे हैं…वो तो आपको ही अपना बाप मानता है"…
“तो मानता रहे….उसके मानने या ना मानने से क्या होता है?…सच्चाई तो यही है कि अगर मेरा अपना…खुद का…निजी बच्चा होता तो उसे मेरी बीवी ने खुद…अपनी ही कोख से जन्म दिया होता”…
“आज मुझे तुम्हें अपना दोस्त कहते हुए गर्व महसूस हो रहा है दोस्त कि अपनी खुद की औलाद ना होते हुए भी तुमने एक यतीम को…..
“वो यतीम नहीं है…भरा-पूरा खानदान है उसका"…
“ओह!…ये गरीबी भी…..जो ना कराए…अच्छा है…..आज मेरी नज़रों में तुम्हारी कीमत पहले से बहुत अधिक बढ़ गई है मेरे दोस्त कि तुमने एक निर्धन परिवार के चश्मे चिराग को…..
“तुम्हें कैसे पता कि वो चश्मा लगता है?”मेरा आश्चर्यचकित स्वर…
“वाकयी?…मैंने तो बस….ऐसे ही…गैस्स"…
“ओह!…आप शायद कुछ कह रहे थे”मेरा उत्सुक स्वर…
“क्या?”…
“यही कि आज मेरी नज़रों में….
“हाँ!…. आज मेरी नज़रों में तुम्हारी कीमत पहले से बहुत अधिक बढ़ गई है मेरे दोस्त कि तुमने एक निर्धन परिवार के चश्मे चिराग को…..पाल पोस के इतना बड़ा किया"…
“मैंने उसे बड़ा नहीं किया…वो तो ऐसे ही पला-पलाया मेरे गले आ पड़ा है “…
“ओह!…इसका मतलब भाभी जी का कोई पुराना चक्कर?”….
“नहीं!…उस बेचारी को इस सब के बीच में मत घसीटिये…उसे इसके बारे में कुछ भी नहीं पता”….
“हम्म!…तो फिर किसे पता है?”…
“मेरे अलावा उसको…जिसका मैं बाप हूँ”…
“ओह!…शिट..ट..क्या करूँ इस ससुरी काली ज़बान का?..पट्ठी बात-बात में अपने आप फिसल जाती है”मैं बौखला कर हडबड़ाता हुआ बोला…
“हम्म!…इसका मतलब तुम वाकयी में उसके बाप हो?”शर्मा जी संशकित से होते हुए बोले…
“ज्जी!…(अब चुपचाप मुंडी हिला मानने के लावा और कोई चारा नहीं था मेरे पास)
“विश्वास नहीं हो रहा है मुझे"शर्मा जी मानने को तैयार नहीं थे…
“आप मानें या ना मानें लेकिन सच्चाई यही है कि मैं ही उसका बाप हूँ"ना जाने क्यों मेरे स्वर में दृढ़ता थी....
“लेकिन कैसे?”…
“अब क्या बताऊँ शर्मा जी कि एक दिन बस…ऐसे ही…बातों-बातों में…
“बातों-बातों में ही कांड कर डाला?”…
“नहीं!…ऐसी बात नहीं है…दरअसल..मैं तो बस…ऐसे ही…
“हाँ!…ऐसे ही…ऐसे ही…करते-करते तो हम पूरी दुनिया पर बोझ बन चले हैं….मालुम भी है कुछ कि हमारी आबादी कितनी बढ़ गई है?…
“कितनी बढ़ गई है?”…
“पूरे १५० करोड के मायावी आंकड़े तक आ पहुंचे हैं हम लोग"…
“ओह!…
“अब ये डेढ़-पौने दो सौ करोड की आबादी अपने गुल होते चिरागों को खिला कर कितना कहर बरपाएगी?…कभी सोचा भी है?….
“वव…वो दरअसल….ऐसा कोई इरादा नहीं था मेरा लेकिन….
“छोडो…इस लेकिन-वेकिन को…ये सब बहाने हैं”….
“जी!…
“वैसे…अब क्या सोचा है?”…
“अब क्या बताऊँ शर्मा जी?…मेरे दिमाग ने तो काम करना ही बंद कर दिया है"…
“कुछ तो ख्याल किया होता अपनी बनती-बिगड़ती इज्ज़त का”…
“जी!…)मेरा सर शर्म से नीचे झुका हुआ था)
“भाभी जी को पता है?”…
“हाँ!…
“उन्होंने कुछ नहीं कहा?”…
“कहना भला किसलिए है?…उन्हीं के सामने तो मैंने पहली बार उसका बाप बनने के लिए हामी भरी थी"…
“क्क…क्या?….क्या कह रहे हो?…मुझे विश्वास नहीं हो रहा है"…
“बिलकुल सही कह रहा हूँ”…
“फिर तो भईय्या बड़ी किस्मत वाले हो तुम”….
“जी!…सो तो है"मैं फूल कर कुप्पा होने का प्रयास करने लगा…
“उम्र कितनी है?”…
“मेरी?”…
“नहीं!…उसकी"….
“यही कोई पचपन-छप्पन साल"….
“क्क्या?”शर्मा जी लडखडा कर गिरने को हुए…
“जी!….
“और तुम्हारी?”…
“मेरी भी इसी के आस-पास होगी…क्यों क्या हुआ?”…
“उसकी माँ को पिछले जन्म में डंक मारा था क्या?”…
“क्या बात करते हैं शर्मा जी आप भी?…पिछले जन्म के बारे में क्या पता कि मैं गधा बना था या फिर कुत्ता?…आप मुझे सांप बना कैसे उसकी माँ को डसवा सकते हैं?”…
“अरे!…जब डसवा नहीं सकता तो फिर ये कैसे मुमकिन हो गया कि तुम्हारी और तुम्हारे बेटे की उम्र लगभग बराबर ही है?”शर्मा जी के स्वर में असमंजस भरी परेशानी थी…
“ओह!…लगता है कि कहीं ना कहीं आपको समझने में या फिर मुझे समझाने में गलती लग रही है….दरअसल…मैं असली जिन्दगी में उसका बाप नहीं हूँ"…
“तो फिर भईय्या कौन सी मायावी दुनिया में तुमने उसका काण्ड कर डाला?”…
“आपको गलती लग रही है शर्मा जी…पहली बात तो ये कि ये काण्ड मैंने नहीं बल्कि उन्होंने किया है और दूसरी बात ये कि ये कि ये सब मायावी दुनिया में नहीं बल्कि आभासी दुनिया में हुआ है"…
“यू मीन इंटरनैट की आभासी दुनिया में?”…
“जी!…बिलकुल"…
“वो कैसे?”…
“दरअसल!…मेरी पिछली कहानियों के जरिये आप इतना तो जानते ही हैं कि मैं कितना बढ़िया लिखता हूँ?”…
“हाँ!…कई बार तो काफी मजेदार लिख लेते हो लेकिन कई बार…
“आप ही की तरह वो पट्ठा भी दीवाना हो गया मेरी कहानियों का"…
“तो?”…
“तो वो मेरी लेखनी का कायल हो…मुझे ‘बाप जी’…’बाप जी’ कह कर पुकारने लगा"…
“तो इसमें दिक्कत क्या है?…पुकारने दो उसे जिस किसी भी नाम से…इसमें तुम्हारे बाप का क्या जाता है?”…
“दिक्कत ये है कि उसकी बीवी भी ब्लॉग्गिंग करती है"…
“तो?”…
“वो भी बहुत बढ़िया लिखती हैं"…
“तुम्हारी तरह?”शर्मा जी मुझे व्यंग्यात्मक निगाह से ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोले…
“जी!…
“तो?”…
“उनकी लेखनी से वशीभूत होकर अन्य ब्लोग्गरों की तरह मैं भी ना जाने कब उन्हें ‘माँ…माँ' कह कर के पुकारने लगा"…
“तो?…किसी को तुम इज्ज़त दे के ही पुकार रहे हो ना?"…
“जी!…
“तो इसमें दिक्कत क्या है?”…
“दिक्कत ये है कि उनकी उम्र भी लगभग मेरे ही बराबर है”…
“ओह!…
“अब पंगा ये है कि अगर वो मेरी ‘माँ' हैं तो उनके पति का मैं ‘बाप' कैसे हो गया या फिर उसकी ‘दादी' उसकी बीवी कैसे हो गई?”…
“अब क्या कहें तुम्हारी इस माया के बारे में भईय्या?…यहाँ तो…
“ना ‘बाप' बड़ा है ना ‘मईय्या”…..
***राजीव तनेजा***
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19 comments:
हा हा हा हा हा एक सांस में पूरा हो गया। काफ़ी मंजी हूई कहानी है सर्फ़ एक्सेल की धुलाई के साथ। उजली उजली दिखाई देती है। टीनो पाल की चमक भी है।
बहुत घुमाया है गोल गोल गोल और फ़िर लाकर पटका है धोबी घाट पर्।
हा हा हा हा मजा आ गया।
कहां से शुरू किया और कहां लाकर छोडा?
इतने दिनों बाद हांकते हो , फिर इतनी लम्बी लम्बी हांकते हो ।
अमां यार किसी को तो छोड़ दिया होता ।
लपेट लिया कईयों को एक साथ ।
हा हा हा ! पर मज़ा आ गया ।
अब नए साल में एक प्राण करो --कि इस तरह की कहानी को किस्तों में सुनाया करोगे ।
हे भगवान, इन रिश्तों को समझना वाक़ई बहुत मुश्किल हैं.
सुन्दर ! मज़ा आ गया...
राजीव जी क्या बात हे जी आप तो ऎसे ना थे.... बहुत सुंदर जी कईयो की पेंट खींच डाली आप ने तो. धन्यवाद जी
सुन्दर .. मजेदार हा हा हा !
dusht! अब क्या कहें आपको. यूँ चिंता ना करिये हमारे पति ब्लोगर नही है.इसलिए आप को वे 'बाप' नही कहेंगे. हा हा हा
एक बार में पूरा पढ़ लिया आखिर तक पहुंचे तो मालूम हुआ कि माजरा ये हैं. ह्म्म्म ...तो...अब क्या कहें.हमे तो गर्व है कि हमे हमसे बडी उम्र वाले 'माँ' कहते हैं और हम खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं. कयों ना होऊं भई सचमुच ऐसिच हूँ मैं तो.
हा हा हा मजा आ गया पढ़ कर.
मानो तो मै गंगा माँ हूँ ना मानो तो बहता पानी... रिश्ते नाते सीधे सीधे इसी सूत्र पर बंधे होते हैं.
न मानिए तो एन डी तिवारी की तरह असली को भी नकली कर दीजिए :)
वैसे दूसरे की बीवी को माँ कहने में कोई बुराई नहीं है जब हर कोई एक न एक दिन अपनी को ही माँ बोलता है ...
मेरी माँ मुझे माफ कर ... !!
बहुत गड़बड़ है :-)
वैसे है मज़ेदार
एकदम सही कहत हो भइया।
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अंधविश्वासी तथा मूर्ख में फर्क।
मासिक धर्म : एक कुदरती प्रक्रिया।
नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएं
चुड़ैल से सामना-भुतहा रेस्ट हाउस और सन् 2010 की विदाई
यह ठीक रही राजीव भाई ...आज पूरी कहानी पढ़ ली है मैंने !
नए साल पर ऐश करो प्यारे
ठीक-ठीक ध्यान नहीं,पर शायद पहली बार आया हूं आपके ब्लॉग पर। आज बस नववर्ष की शुभकामनाएँ देना चाहता हूँ। स्वीकार कीजिए।
सुदूर खूबसूरत लालिमा ने आकाशगंगा को ढक लिया है,
यह हमारी आकाशगंगा है,
सारे सितारे हैरत से पूछ रहे हैं,
कहां से आ रही है आखिर यह खूबसूरत रोशनी,
आकाशगंगा में हर कोई पूछ रहा है,
किसने बिखरी ये रोशनी, कौन है वह,
मेरे मित्रो, मैं जानता हूं उसे,
आकाशगंगा के मेरे मित्रो, मैं सूर्य हूं,
मेरी परिधि में आठ ग्रह लगा रहे हैं चक्कर,
उनमें से एक है पृथ्वी,
जिसमें रहते हैं छह अरब मनुष्य सैकड़ों देशों में,
इन्हीं में एक है महान सभ्यता,
भारत 2020 की ओर बढ़ते हुए,
मना रहा है एक महान राष्ट्र के उदय का उत्सव,
भारत से आकाशगंगा तक पहुंच रहा है रोशनी का उत्सव,
एक ऐसा राष्ट्र, जिसमें नहीं होगा प्रदूषण,
नहीं होगी गरीबी, होगा समृद्धि का विस्तार,
शांति होगी, नहीं होगा युद्ध का कोई भय,
यही वह जगह है, जहां बरसेंगी खुशियां...
-डॉ एपीजे अब्दुल कलाम
नववर्ष आपको बहुत बहुत शुभ हो...
जय हिंद...
आपको नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनायें..देर से पहुँचने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ
आशा है यह नव वर्ष आपके जीवन में ढेर सारी खुशियाँ लेकर आएगा ..शुक्रिया .
जय श्री कृष्ण...आपका लेखन वाकई काबिल-ए-तारीफ हैं....नव वर्ष आपके व आपके परिवार जनों, शुभ चिंतकों तथा मित्रों के जीवन को प्रगति पथ पर सफलता का सौपान करायें .....मेरी कविताओ पर टिप्पणी के लिए आपका आभार ...आगे भी इसी प्रकार प्रोत्साहित करते रहिएगा ..!!
राजीव जी आपको सपरिवार नये साल की हार्दिक शुभकामनायें।
हा हा हा यार राजीव भाई ...ये आपके खोपडे हैं ऐसे आइडिया आते कहां से हैं प्रभु ..किसी तो को बख्श दिया करो हा हा हा लपेटे रहिए महाराज । धो डाला आखिर में आकर तो सपाट धुलाई कर डाली
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