“ओ!…तुस्सी ते छा गए गुरु…साड्डे दिल नूँ भा गए गुरु…पुच्च…पुच्च…पुच्च"शर्मा जी ने लपक कर एक साथ तीन लार भरे चुम्बन मेरे बाएँ गाल पे जड़ दिए…
“हटिये!…हटिये…दूर हटिये..कोई देख लेगा”मैं हडबडा कर बौखलाते हुए पीछे हट कर बोला….
“ओए!…देख लेगा तो फिर देखता रहे…मुझे किसी का कोई डर नहीं…ये ले…और ले ले…पुच्च..पुच्च…पुच्च"शर्मा जी ने मेरे संभलने से पहले ही तीन-चार चुम्बन मेरे दायें गाल पर और जड़ दिए
“प्प…पर मुझे तो है"मैं अपने गीले हो चुके गाल को रुमाल से पोंछते हुए सकपका कर उनसे दूरी बनाने का असफल प्रयास करता हुआ बोला…
“ओए!..तुझे है तो फिर होता रहे…इसमें मैं के करूँ?"मेरी हिचकिचाहट से अनभिज्ञ शर्मा जी अपनी पकड़ को मेरी कमर के इर्द-गिर्द और मज़बूत कर अपनी ही धुन में बोलते चले गए…
“ओSss…मेरा यार बना है दूल्हा…
“अब सुबह-सुबह ये कौन स्साला….दूल्हा बन के बेवजह सूली पे चढ गया शर्मा जी?”मैं बात बदलने की गरज से उन्हें बीच में ही टोकता हुआ बोला…
“ओए!…तू तनेजा…तू…चढ गया है सूली पे"शर्मा जी अपनी बाहों कि पकड़ से मुझे आज़ाद करते हुए बोले…
“क्क…क्या?…क्या कह रहे हैं शर्मा जी आप भी?…अब इतना बावला भी मैं नहीं कि अच्छी-भली एक के होते हुए..…(मैं आश्चर्य से चकित हो लगभग उछलता हुआ बोला)
“मुझे पढ़ा रहे हो मियां?…पूरे शहर में बिना खर्चे के तुम्हारे नाम के ढोल पीटे जा रहे हैं और तुम हो कि अभी भी ‘नगाड़ा…नगाड़ा' कर के मुझे गोली देने चले हो?”..
“ग्ग..गोली?”…
“अब इतनी भोली भी तू नहीं है मेरी जान कि…
“सच्ची!…कसम से…बाय गाड…मैं कुछ समझा नहीं"मेरा स्वर अनभिज्ञता से सरोबर था…
“जिस कालेज से तुमने ऐव्वें ही एम्.ए की है ना बरखुरदार…किसी ज़माने में मैं वहाँ का हैड चपरासी रह चुका हूँ"…
“सच्ची?…कसम से?…कौन से सन में?”…
“मुझे बना रहे हो मियां?…तुम्हारे नाम का वारंट गली-गली में पर्चे बन कर घूम रहा है और तुम हो कि मुझे ही उल्टी गिनती गिनवाने चले हो?”…
“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…
“पहली बात तो ये कि एक अदद..अच्छी-खासी…तन्दुरस्त…मोटी-ताज़ी इंटलैक्चुअल बीवी के होते हुए तुमने दूसरी शादी करने के बारे में सोचा भी कैसे?…और चलो..अगर खुदा ना खास्ता सोच भी लिया तो फिर मुझे…याने के अपने जिगरी दोस्त न्योता देना कैसे भूल गए?”शर्मा जी नाराज़ से होते हुए बोले…
“ल्ल..लेकिन म्म…मैंने तो कभी स्स..सपने में भी..
“ओ.के…बाय"…
“क्क…क्या हुआ?”…
“मैं ही गलत था…हाँ!…मैं ही गलत था…तुमने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा…कि ये शर्मा…भला तुम्हारा लगता ही कौन है?”शर्मा जी निराश हो…वापिस जाने की मुद्रा अपनाते हुए बोले….
“न्न्…नहीं!…ऐसी बात नहीं है..दरअसल…
“चलो!…मान लिया कि… ‘हम आपके हैं कौन?’ लेकिन फिर भी सभ्य समाज में रहने के नाते कुछ मैनर्ज़…कुछ एटीकेट्स तो बनते हैं कि नहीं तुम्हारे?…या फिर मंदी के इस अनचाहे दौर में शर्म को ही औने-पौने दामों पर बेच कर …खा-पी और हज़म कर डाला है?”शर्मा जी पलट कर वापिस मुड़ते हुए बोले …
“म्म…मैं…दरअसल….
“तुमने जो किया…सो किया…कोई गिला नहीं उसका…तुम्हारे भी अपने…खुद के कुछ निजी अरमान हो सकते हैं लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं हो जाता ना कि तुम मेरे ही सामने…मेरी ही छाती पे…पलाथी मार के मूंग दलने बैठ जाओ?”…
“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…
“समझ तो बेटे लाल…तेरी समझ में सब कुछ आ रहा है लेकिन जानबूझ कर अनजान बन रहा है"…
“सच्ची…क्क…कसम से…म्म…मैं क्क…कुछ समझा नहीं"…
“वो मीडिया वाला क्या तेरा फूफ्फा लगता था जो तू उसे अपनी बारात में ता..था…थैय्या करा नचाने के लिए ले गया था?”…
“ब्ब…बारात में?….म्म..मीडिया वाले को?….न्न्..नचाने के लिए?…म्म..मैं क्क..कुछ स्स…समझा नहीं"….
“हाँ!…बारात में"….
“क्क..किसकी..ब्ब…बारात में?”…
“अपनी माँ की बारात में…और किसकी बारात में?"…
“म्म…मेरी म्म…माँ की ब्ब..बारात में?”…
“हाँ!…तेरी ही माँ की बारात में"शर्मा जी का तैश भरा स्वर..…
“अ…ऐसा कैसे हो सकता है?…व्व…वो…तो दरअसल…प्प…पहले से ही शादी-शुदा…
(मेरे सोच में डूब जाने की मुद्रा और कुछ क्षणों का मौन)
“हाँ-हाँ…बता…बता..अब बताता क्यों नहीं?….लकवा क्यों मार गया है तेरी इस काली…कलिष्ट जुबान को?… सांप क्यों सूंघ गया है तेरी इस लडखडा कर फिसलती हुई तेज करारी…चबड़-चबड करती जुबान को?…बता ना कि मीडिया वालों को वहाँ क्या घुयिय्याँ छिलवाने के लिए ले के गया था या फिर मुझे…मेरी ही ईर्ष्या के गहन ताप से जला कर…धू-धू होते हुए धुआं-धखाड कर पस्त कर देना चाहता था?”…
“ओफ्फो!…क्या मुसीबत है?…एक तो अ..आप म्म..मेरी ब्ब…बात नहीं सुन रहे हैं और अपनी ब्ब…बोलते ही चले जा रहे हैं…ब्ब…बोलते ही चले जा रहे हैं"मैं गुस्से से लगभग तमतमाता हुआ बोला…
“तो क्यों ना बोलूँ?…ऊपरवाले ये गज भर लंबी…फीट भर चौड़ी कलमुंही…काली ज़बान किसलिए दी है?”शर्मा जी मुंह फाड़…अपनी जीभ लपलपाते हुए तैश भरे स्वर में बोले….
“तो क्या म्म…मेरा ही माथा चाटेंगे?”मेरा पारा भी हाई हो चला था…
“कसम है…मुझे उस खुदा की…नेक परवरदिगार की जो मैंने कभी भी…अपनी इस पूरी जिन्दगी में…तुम्हारा या किसी अन्य का माथा चाटा हो…
हाँ!…गालों की बात दूसरी है"शर्मा जी फिर से लार टपका..मेरी तरफ बढ़ने लगे…
“हटिये!…हटिये…दूर हटिये…क्क..कोई देख लेगा"मैं सकपका कर पीछे हटने को हुआ…
“ओए!…देखता है तो फिर देखता रहे…मुझे किसी का कोई….
“म्म…माना कि अ..आपको क्क…कोई ड…डर नहीं है ल्ल…लेकिन क्क…कोई मौका…क्क..कोई इवेंट…क्क..कुछ तो ह्ह..होना चाहिए ना इस तरह के व्व..व्यस्क टाईप के स्स..सेलिब्रेशन का"मैं कसमसा कर खुद को उनकी मज़बूत पकड़ से छुडाने का असफल प्रयास करता हुआ बोला
“अच्छी-भली एक के होते हुए तुम टांका सैट कर के दूसरी ला रहे हो…इससे बड़ा सेलिब्रेशन और भला क्या होगा?”…
“ल्ल…लेकिन म्म..मैंने ऐसा कब कहा?”…
“कहा नहीं है तो क्या मुझे पता नहीं चलेगा?”..
“यकीन मानिए श्श…शर्मा जी…म्म…मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है"…
“जब इरादा नहीं है तो क्या वहाँ पे अपनी माँ….
“य्य..ये ठीक नहीं है शर्मा जी…म्म…माँ पे मत जाइए…क्क..कहे देता हूँ…हाँ"…
“मैं भी साफ़-साफ़ कहे देता हूँ तुमसे कि अगर तुमने मुझे सब कुछ सच-सच नहीं बताया तो मेरी…तुमसे…आज से…अभी से कुट्टी…कुट्टी…पक्की कुट्टी”शर्मा जी मुंह फुला…मुझे धकेल…परे हटते हुए बोले…
“शर्मा जी!…म्म…मानिए मेरी बात…क्क…कसम से…म्म…मैंने शादी नहीं की है"मैं किंचित सा संकुचित हो उनकी बाहों में समाने का प्रयास करता हुआ बोला…
“तो फिर ये तीन हट्टे-कट्टे…तन्दुरस्त…मुस्टंडे टाईप के आउट डेटिड बच्चे कहाँ से?..और कैसे टपक गए?"मेरे मंशा से अनभिज्ञ शर्मा जी मुझे परे धकियाते हुए बोले…
“ट..टपकना कहाँ से है श्श..शर्मा जी?…बकायदा सात फेरे ले..ब्याह के लाया था चुन्नू…मुन्नू और टुन्नू की माँ को"मैं सकुचा कर खुद को शर्मा जी की मज़बूत बाहों के हवाले करता हुआ बोला…
“ओह!…मैंने तो सोचा था कि शायद..कहीं से गिफ्ट में या फिर लाटरी के जरिये तुम्हारे बरसों पुराने मन-मंदिर के अरसे से बन्द कपाट खुद बा खुद खुल गए”
“अब इतनी भी बुरी किस्मत नहीं मेरी शर्मा जी कि ऊपरवाला खुद मुझसे नाराज़ हो मुझ पर अपना ये अहले करम करता…दिन-रात जाग-जाग के इन नमूनों को मैंने अपनी ही ऊर्जावान फैक्ट्री के निष्ठावान बैनर तले..बतौर ट्रायल प्रोडक्ट पेश कर…इस जग-जहाँ में अपना तथा अपने पूरे खानदान का नाम रौशन किया है लेकिन….
“लेकिन?”…
“लेकिन हाल-फिलहाल के इस बनते-बिगड़ते सन्दर्भ में मैं इनकी बात नहीं कर रहा था"….
“मैं भी इनकी बात नहीं कर रहा हूँ मेरे प्यारे भाई"शर्मा जी हौले से मेरे बालों को कोमलतापूर्वक प्यार से सहलाते हुए बोले ….
“म्म..मैं कुछ समझा नहीं"…
“हटो!…अब इतने नासमझ भी नहीं दीखते तुम मुझे कि….(शर्मा जी ने फिर मुझे परे धकेल दिया)
“सच्ची!…कसम से…म्म…मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है"मैं फिर अपनी खुली बाहें उनकी तरफ बढाता हुआ बोला…
“मुझे बना रहे हो मियां?…दाई से पेट छुपाने से कोई लाभ नहीं होगा"शर्मा जी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ मुझे अपने आगोश में ले आहिस्ता से बोले…
“अच्छा!…ये बताओ कि आखिरी बार मेट्रो के सुहाने सफर का आनंद तुमने कब लिया था?”शर्मा जी मेरी झुकी ठुड्डी को बड़े ही प्यार से ऊपर उठा मुझे हौले से सहलाते हुए बोले… ..
“प्प…परसों शाम को ही लेकिन इसे आनंद की परिभाषा और परिपाटी में कैद किया जा सकता है या नहीं?…इस बात को लेकर मैं थोड़ा संशय में हूँ और थोडा दिग्भ्रमित भी"…
“हम्म!…तो ठीक है…फिर अब ये भी सच्ची-सच्ची बताओ कि…अच्छे-खासे तीन-तीन तन्दुरस्त बच्चों के बाप होने के बावजूद तुमने उस छम्मक छल्लो टाईप हूर परी से सेटिंग कैसे की?”…
“स्स…सेटिंग?…छ्छ..छम्मक छल्लो ..टट्ट…टाईप….ह्ह…हूर परी से?”मैं चौंक कर एकदम से सकपकाता हुआ बोला….
“हाँ!…सेटिंग..वो भी उस परकटी छम्मक छल्लो से जो बदकिस्मती से हूर परी भी है"शर्मा जी के स्वर में अजीब सी दृढ़ता थी….
“अ..अब मैं क्क…क्या बताऊँ कि कैसे…
“छोड़ो!…बच्चा नहीं हूँ मैं….नहीं बताना है तो मत बताओ…मैं अपने आप पता लगा लूँगा"शर्मा जी नाराज़ से होते हुए बोले…
“अ..आप तो ऐसे ही…खामख्वाह नाराज़ होने लगे शर्मा जी…दरअसल खुद मुझे भी नहीं पता कि….
“कैसे तुम्हारा टांका सैट हुआ?”..
“न्न..नहीं…दरअसल मुझे य्य..ही नहीं पता कि अ..आप किस बारे में बात कर रहे हैं?”…
“मुझे बना रहे हो मियां?…हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फारसी क्या?…ये देखो…कल की अखबार में सालियों संग तुम्हारी ही फोटो छपी है कि नहीं?”शर्मा जी अपने झोले से अखबार निकाल उसे हवा में लहराते हुए बोले…
“क्क..कहाँ?”मेरे स्वर में उत्सुकता थी…
“ये!…यहाँ…तीसरे पन्ने के बायीं तरफ…चौथे कालम में"…
“य्य…ये म्म…मेरी फोटो नहीं है"…
“मुझे बना रहे हो मियां?…ये कद-काठी…ये डील-डौल…ये कमर की बलखाती लचक क्या तुम्हारी नहीं है?”….
“तो?…उससे क्या होता है?…मेरे जैसी कद-काठी और लचकती…बलखाती कमर के तो जाने कितने लोग होंगे इस दुनिया में"मैं अपनी बात पर दृढ़ता से कायम होता हुआ बोला…
“लेकिन सभी तुम्हारी तरह ठरकी तो नहीं होंगे ना?”…
“क्या शर्मा जी?…आप भी ना बस….(मैं फूल कर कुप्पा हो इतराता हुआ बोला)
“ये तो सिर्फ फोटो है मेरी जान…हम तो वो हैं जो बरसों पुराने मुर्दे का भी पिछवाड़ा सूंघ कर बता दें कि…वो अपचनी के बुरे दौर में फँस कर..तिल-तिल कर तडपते हुए खुद…अपनी खुशी से मरा है या फिर हांफ-हांफ कर ऊपरवाले द्वारा तय की गई अपनी…खुद की कुदरती मौत"शर्मा जी अपनी शेखी बघारते हुए बोले…
“ओह!…लेकिन शर्मा जी…म्म..मानिए मेरी बात…ये सच में मेरी फोटो नहीं है"…
“मुझे अलीबाग से आएला समझा है क्या?”शर्मा जी की आवाज़ में मुम्बईया पुट था
“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…
“ये जो मेरे इस नूरानी चौखटे पे दो लुप्प-लुप्प करते दो बल्ब जगमगा कर झिलमिला रहे हैं ना…वो सच में आँखें हैं मेरी और मुझे उनसे सब कुछ साफ़-साफ़ याने के 6x6 दिखाई देता है…
?…?…?…?…
महज़ शो बाजी के चक्कर में बटन नहीं टांग रखे हैं मैंने तुम्हारी तरह अपने बूत्थे पे"…
“ओह!…
“मैं शर्त लगा के कह सकता हूँ कि ये फोटो तुम्हारा है और सिर्फ तुम्हारा है"..
“वो कैसे?”…
“इतनी महिलाओं को याने के अपनी सालियों को अपने आजू-बाजू देख लार जो टपक रही है तुम्हारी"…
“अ…आपको गलती लग रही है शर्मा जी..य्य…ये सालियाँ नहीं हैं"…
“अच्छा?”शर्मा जी के स्वर में व्यंग्यात्मक पुट था…
“जी!…
“अब तुम ये भी कहोगे कि इनके ये जो हाथ कुमकुम से रंगे हुए हैं ..वो दरअसल में कुमकुम नहीं बल्कि कालिख है जो तुम्हारे मुंह पर पोतने के लिए इन्होने अपनी हथेलियों पर सजा रखी है?”शर्मा जी अखबार में छपी फोटो को गौर से देखने के बाद मेरा उपहास उड़ाते हुए बोले…
“अ..आप…ऐसा…क्क…कैसे कह सकते हैं?”मैं उखड़ने को हुआ.…
“क्यों नहीं कह सकता?….कहने को तो मैं ये भी कह सकता हूँ कि इस फोटो में तुम्हारे साथ ये जो खड़ी है…बीच रस्ते के अड़ी है….वो घोड़ी नहीं बल्कि गधी है..जो तुम्हें दुनिया-जहाँ की सैर करने के लिए इन्होने मंगा रखी है?”शर्मा जी अखबार में अपनी नज़रें गड़ा तल्खी भरे स्वर में बोले.…
““एग्जैकक्टली!…अब आयी बात आपकी समझ में"मैंने राहत की सांस ली …
“मुझे बना रहे हो मियां?..ये जी तुम्हारे चेहरे से खुशी…लार बन के टपक रही है…वो सारी कहानी खुद बा खुद अपने मुंह से बयाँ कर रही है"…
“य्य…ये लार नहीं है"…
“तो क्या ये आँसू हैं…जो लार बन के तुम्हारी इन काली…कजरारी आँखों से आँसू बन टपक आए हैं?”शर्मा जी अपनी बाहों में मुझे दबोचते हुए बोले.. …
“ह्ह…हाँ!…ये आँसू ही हैं"मैं उनकी बाहों में कसमसा कर अपनी हार मानते हुए बोला…
“तो इसका मतलब तुम मानते हो कि ये फोटो तुम्हारी ही है"मुझे आज़ाद करते वक्त शर्मा जी के चेहरे पे जंग जीत लेने जैसे भाव थे…
“जी!…(मेरी आँखों से आँसू बहने को मचल उठे)…
“पागल!…ऐसे खुशी के मौके पे भला कोई रोता है?”शर्मा जी लाड से मेरा माथा चूमते हुए बोले…
“व्व..वो खुशी का मौक़ा नहीं था"…
“ओह!…तो क्या ज़बरदस्ती?”…“जी!…वो ब्ब…बस….ऐसे ही ब्ब..बिना ब्ब…बात के ही म्म..मेरे साथ…(मेरे स्वर में लडखडाहट फिर पैदा हो चुकी थी)
“हम्म!…इसलिए मैं कहूँ कि तुम्हारा चेहरा इतना बुझा-बुझा सा क्यों लग रहा है?”…
“जी!…
“वैसे…अगर तुम कहो तो….एक पुलिसवाला है मेरी जान-पहचान का…
“छोडिये!…शर्मा जी…ये पुलिस वाले भी कौन से दूध के धुले हैं?…उन्होंने भी तो…
“ओह!..तभी मैं कहूँ कि तुम इस तरह लंगड़ा के…घिसट-घिसट के क्यों चल रहे हो"…
“जी!…मार-मार के पट्ठों ने मेरी ऐसी बजाई कि…
“बस-बस…मैं तुम्हारे दुःख को समझता हूँ…ये पुलिस वाले…स्साले..किसी के भी सगे नहीं होते…एक बार मेरे साथ भी….
“ओह!…
“लेकिन तुम्हारी तरह मैंने हार नहीं मानी…भरपूर मुकाबला किया उसका और देख लो आज वही मेरा जिगरी क्या?…लंगोटिया यार है"शर्मा जी गर्व से अपनी छाती चौड़ी कर इतराते हुए बोले…
“जी!…
“मेरी तो चलो…और बात थी…तजुर्बा था मुझे इस सब का पहले से ही…इसलिए आसानी से झेल गया मैं उस आतातायी के आक्रमण को लेकिन…
“लेकिन?”…
“लेकिन तुम तो अभी बच्चे हो…मासूम हो…नादाँ हो"…
“जी!…सो तो है”मैं शर्माता हुआ बोला…
“नाम बताओ तुम मुझे उन सबका…एक-एक की बैंड बजा के ना रख दी तो मेरा भी नाम… (शर्मा जी का गुस्सा उफनने को हुआ)…
“छोडिये…शर्मा जी…नाम में क्या रखा है?…सब स्साले मिले हुए थे…भूल जाइए उन्हें"…
“अरे!…वाह….ऐसे…कैसे भूल जाऊं?…..पहली बात तो ये कि ..मेरे होते हुए कोई तुम्हारा बलात्कार कर जाए…ये हो नहीं सकता और फिर करके साफ़ बच निकल जाए…ऐसा मैं कभी होने नहीं दूँगा"शर्मा जी की ओजपूर्ण वाणी में सुनील शेट्टी अपनी पादुकाओं समेत पदार्पण कर चुका था…
“म्म…मेरा बलात्कार नहीं हुआ है…व्व..वो तो बस…ऐसे ही…
“झूठ बोल रहे हो ना तुम मुझसे?”….
“स्स..सच्ची…क्क…कसम से…ब्ब…बाय गाड…शर्मा जी…च्च…चौखटा देखिये मेरा ध्यान से…ऐसी क्क…कोई बात अगर ह्ह…हुई होती तो खुश होने के बजाय मेरा ये चेहरा इस तरह दुःख से म्म…मलिन और अ..अवसाद से ग्रस्त थोड़े ही होता?”…
“हाँ!…ये बात तो है"शर्मा जी गौर से मेरे चेहरे पे बनते-बिगड़ते भावों को देख…उन्हें समझने का प्रयास करते हुए बोले..
“जी!…
“तो फिर ऐसे…कैसे अखबार के इस तीसरे पन्ने के चौथे कालम में तुम्हारा फोटो हाई लाईटिड हो के छप गया?”शर्मा जी का अखबार पे हाथ मारते हुए असमंजस भरा स्वर..
“अब क्या बताऊँ शर्मा जी?…मेरी किस्मत ही खराब थी उस दिन…घर से बाहर निकलते ही बिल्ली रास्ता काट गई"…
“ओह!…
“मैंने सोचा कि..काट गई तो काट गई…अब क्या किया जा सकता है?”…
“जी!…अब बिल्ली के पीछे दौड कर तो उसे दबोचा नहीं जा सकता ना?"…
“जी!…बिलकुल"…
”फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…पार्किंग में जा के बाईक स्टार्ट करने लगा तो पाया कि लंच बाक्स तो मैं घर पर ही भूल आया"…
“ओह!…अब भूखे पेट भजन तो होता नहीं है हम लोगों से…बाईक कहाँ से स्टार्ट होनी थी?”…
“हें…हें..हें शर्मा जी…आप भी कमाल करते हैं…बाईक के स्टार्ट होने या ना होने से भूख का भला क्या कनेक्शन?…उसका कनेक्शन तो सीधा पेट से होता है…पेट से"…
“जी!…लेकिन आप बाईक स्टार्ट करने की बात करते-करते अपने भूखे पेट का रोना ले के बैठ गए तो मैंने सोचा कि….
“रोना ले के बैठ गए?…यही सिखाया है आपको आपके बुज़ुर्ग होते माँ-बाप ने कि किसी की भूख का ऐसे?…इस तरह मजाक उड़ाओ?”…
“ओह!…आई एम सॉरी…वैरी सोर्री"…
“यू मस्ट बी…आपको शर्मिन्दा होना ही चाहिए"….
“जी!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…वहीँ पे खड़े-खड़े झाड़ के मिटटी पलीद कर दी"…
“आपने अपनी बाईक कहाँ खड़ी की थी?”..
“पार्किंग में"…..
“वहाँ पे घोड़े भी थे?”…
“नहीं तो…क्यों?…क्या हुआ?”…
“और गधे?”…
“वो भी नहीं थे"…
“तो फिर किसने….
“क्या?”…
“आपने ही तो अभी कहा"…
“क्या?”…
“यही कि…झाड़ के मिटटी पे लीद कर दी"…
“तो?”…
“जब लीद ही करनी थी तो फिर मिटटी को झाड़ने की क्या ज़रूरत थी?…उसने तो फिर मिटटी ही हो जाना था"…
“हें…हें…हें…शर्मा जी…आप भी ना बस…कमाल ही कर जाते हैं कभी-कभी"…
“क्या मतलब?”…
“मैं बात कर रहा था कि मैं घर से लंच बाक्स लाना भूल गया था"…
“जी!…
“उसके बाद मैंने कहा कि…वहीँ पे खड़े-खड़े झाड़ के मिटटी पलीद कर दी”…
“तो?…मैं भी तो वही कह रहा हूँ कि…मिटटी पे लीद कर दी"…
“अरे!…नहीं…आप नहीं समझे…’मिटटी पलीद करना’ एक मुहावरा होता है जिसका मतलब है…किसी को बे-इज्ज़त करना”…
“और मिटटी पे लीद करना?”…
“वो सचमुच में मिटटी पे ही लीद करना होता है"…
“ओह!…
“हाँ!…तो मैं क्या कह रहा था?”…
“कब?”…
“इस मिटटी पलीद प्रकरण से जस्ट पहले"…
“यही कि…वहीँ पे खड़े-खड़े झाड़ के मिटटी पलीद कर दी"…
“जी!…
“किसकी?…बीवी की?”….
”नहीं"…
“तो फिर किसकी?”…
“गैस्स करो"…
“बिल्ली को?”…
“वो क्या पागल थी जो झाड़ खाने के लिए मेरे नज़दीक आती?”…
“तो फिर किसकी मिटटी पलीद कर दी?”…
“मेरी?”…
“आपने…खुद…अपनी ही मिटटी पलीद कर दी?”…
“दिमाग ठीक है तुम्हारा?”…
“क्या मतलब?”…
“मैं भला खुद की…कैसे और क्यों मिटटी पलीद करने लगा?”…
“तो फिर भला किसने ….
“मेरी बीवी ने"…
“वो किसलिए?”…
“मैं खाना जो घर पे भूल आया था"..
“ओह!… फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…खूब डाँट पिलाई और खाने का डिब्बा मेरे सामने पटक मुंह फुलाती हुई वापिस लौट गई"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…उसकी तरफ ध्यान ना दे मैं अपनी बाईक स्टार्ट करने लगा कि…
“कि?”…
“वही हुआ..जिसका अंदेशा था…बिल्ली जो रास्ता काट गई थी"…
“आपकी बाईक चोरी हो गई?”…
“दिमाग खराब हो गया है क्या आपका?…जब मैं कह रहा हूँ कि बाईक के पास खड़े होकर मैं उसे स्टार्ट करने ही वाला था कि….
“आपकी मिटटी पलीद हो गई?”…
“जी!…
“फिर क्या हुआ?”…
“बीवी के जाने के बाद जैसे ही मैं अपनी बाईक को स्टार्ट करने लगा तो पाया कि….
“क्या पाया?”…
“यही कि…
“उसकी हवा चारों खाने चित्त?”…
“कमाल करते हैं शर्मा जी आप भी…हवा क्या कोई हाड़-माँस की पुतली होती है जो चारों खाने चित्त हो जाएगी?”…
“ओह!…तो इसका मतलब…
“जी!…हाँ…सही पहचाना आपने…अगले-पिछले दोनों पहियों की हवा नदारद”…
“ज़रूर किसी ने शरारत की होगी"…
“जी!…लगता तो यही है"…
“वैसे…किसका काम हो सकता है ये?”…
“अब ऐसे.. कैसे किसी एक का नाम लूँ?…सभी तो दुश्मन है मेरे"…
“जी!…
“और फिर किसी को प्रत्यक्ष ऐसा करते हुए देखा भी तो नहीं है"….
“जी!…फिर क्या सोचा आपने?”…
“सोचना क्या था?….यही सोचा कि…अब नदारद तो नदारद…क्या किया जा सकता है?…काम पे ही तो जाना है…कौन सा डेट पे जाना है?…मेट्रो से चले जाएंगे"…
“जी!…वैसे मेट्रो का ये बड़ा सुख है"…
“कि डेट पे नहीं जा सकते?”…
“नहीं”…
“तो फिर?”…
“कहीं पे भी जाना हो तो झट से पहुँच जाते हैं"…
“ख़ाक…पहुँच जाते हैं"…
“क्या मतलब?”…
“महज़ 9 किलोमीटर के सफर को मैंने उस दिन साढे चार घंटे में पूरा किया था”…
“स…साढे च्च…चार घंटे में?”…
“जी!…हाँ…पूरे साढे चार घंटे में"…
“व्व…वो कैसे?”…
“वोही तो बता रहा था कि आप बीच में अपनी दूसरी राम कहानी शुरू कर देते हैं"…
“ओह!…अच्छा…सॉरी…आप बताएँ कि….फिर क्या हुआ?”…
“जी!…तो जैसा कि मैंने बताया कि मैंने मेट्रो से सफर करने की ठानी…
“जी!…
“और इसी चक्कर में मुझे कितना सफर(Suffer-झेलना) करना पड़ा…ये मेरा भगवान ही जानता है"…
“ओह!…वो कैसे?”…
“कैसे…क्या?…स्टेशन पे पहुँचते ही मेट्रो पुलिस द्वारा मुझे धर लिया गया"…
“किस जुर्म में?”..
“अवैध हथियार मय गोला-बारूद के अपने साथ रखने के जुर्म में"…
“क्क…क्या?…क्या कह रहे हैं?”…
“जी!…मय ज़िंदा कारतूसों के देसी तमंचे की बरामदगी दिखा दी उन्होंने मेरे झोले से"…
“ओह!…ज़रूर उन्हें कोई बड़ी गलतफहमी हुई होगी…आप तो ऐसे ना थे"…
“ऐसे ना थे …से क्या मतलब?…मैं कभी भी ऐसा ना था…ना हूँ और ना कभी रहूँगा"…
“जी!…तो फिर ऐसे…कैसे?”….
“सब अपनी श्रीमती जी की मेहरबानी का नतीजा है”….
“क्या मतलब?”…
“उसकी बात मान …काम व स्नान करने से इनकार क्या कर दिया?….उसने तो…
“तौबा!…तौबा….हद हो गई ये तो बेशर्मी की….और कितना नीचे गिरेंगे हम लोग?”…
“जी!…मैंने कई बार उसे मना भी किया कि…आज मेरा मूड नहीं है…रहने दे लेकिन…
“ना!…मैं नहीं मानता….कोई गृहणी…वो भी भारतीय… अपनी अतृप्त काम- वासनाओं का बदला अपने पति से इस तरह ले सकती है?…मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकता"…
“आ…आपको गलती लग रही है शर्मा जी…मैंने ‘काम व स्नान’ कहा था ना कि ‘कामवासना'”…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…मैं हक्का-बक्का और उससे भी डबल भौचंका कि…ये मेरे लंच बाक्स में मय ज़िंदा कारतूसों के तमंचा कहाँ से आ गया?”…
“आपने अपना बैग किसी को पकडाया तो नहीं था?”….
“यही!…बिलकुल यही सवाल मुझसे उन ठुल्लों ने भी पूछा था"…
“ओह!..तो फिर आपने क्या जवाब दिया?”…
“यही कि….नहीं!…किसी को भी नहीं"…
“आपको पूरा यकीन है?”..
“यही!…बिलकुल यही सवाल मुझसे..
“उन ठुल्लों ने भी पूछा था?”…
“जी!…
“तो फिर क्या कहा आपने?”…
“यही कि…बिलकुल!…मुझे पूरा यकीन है कि मैंने अपना बैग किसी को नहीं पकडाया है"…
“हम्म!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…स्सालों ने स्कैनर ने प्रिंट आउट निकाल कर उस पर और उसके अलावा कुछ अन्य कोरे कागजों पर भी मेरे साईन करवा लिए"…
“ओह!…बिना किसी अच्छे वकील से राय लिए आपको साईन करने ही नहीं चाहिए थे"…
“मरता…क्या ना करता?…दिनेश राय द्विवेदी जी का नंबर मेरे पास था नहीं और अजय झा अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने के लिए परिवार समेत गया हुआ था"…
“तो मुझे याद कर लिया होता…छ्त्तीसगढ़ कौन सा दूर है दिल्ली से?”…
“अब ऐसे छोटे-मोटे काम के लिए आपको क्या तकलीफ देता?”…
“ये छोटा-मोटा काम था?”…
“जी!…प्रिंट आउट से तो यही लग रहा था"…
“क्या मतलब?”…
“उसमें तमंचा छोटा और कारतूस मोटे दिखाई दे रहे थे"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…दर्जनों बार एक ही सवाल बार-बार पूछ कर मेरी नाक में दम कर दिया कि…ये बैग आपका है?…ये बैग आपका है?”…
“ओह!…फिर आपने क्या कहा?”..
“मैंने कहा…नहीं!…तुम्हारे बाप का है"…
“क्या सच में?”…
“आप पागल हैं?”…
“क्या मतलब?”…
“स्सालों की नीयत डोल गई थी मेरे नवें-नकोर बैग को देख के…लेकिन मैं भी कौन सा कम था?…अकड के बोला कि…हाँ!…मेरा ही है…बोल…बिल दिखाऊँ क्या?”…
“ओह!…आप क्या हमेशा अपने सामान का बिल साथ ले के चलते हैं?”…
“अरे!…नहीं…वो तो मैं ऐसे ही उन्हें बन्दर घुड़की दे के डरा रहा था"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“स्सालों ने कान पकड़ के मुझे उकडूँ हो मुर्गा बना दिया तुरंत ही यहाँ-वहाँ फोन कर के और पुलिस की दो बटालियनों के साथ एक चार सदस्यीय बोम्ब स्क्वैड को बुलवा लिया"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…ऐहतिहात के तौर पे आनन-फानन में उन्होंने पूरा प्लेटफार्म मय स्टेशन के खाली करवा दोनों तरफ से ट्रेनों का आना-जाना रुकवा दिया"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…बोम्ब स्क्वैड के दस्ते ने आते ही मेरे लंच बाक्स पे धावा बोल हा…हा…ही…ही…करते हुए…
“बोम्ब को निष्क्रिय कर डाला?”…
“नहीं!…चट कर डाला"…
“क्क…क्या?…क्या कह रहे हैं आप?”…
“सही कह रहा हूँ"…
“तो क्या उन्हें इस तरह की ट्रेनिंग भी दी जाती है कि ऐसे बारूदी मसालों को मुंह से निगल…पिछवाड़े से…
“मुझे क्या पता लेकिन मेरे मामले में तो ऐसे ही हुआ था"…
“व्व…वो कैसे?”…
“दरअसल!…मेरे लंच बाक्स में कोई तमंचा…कोई कारतूस था ही नहीं"…
“तो फिर उनके स्कैनर में…ऐसे…कैसे?”शर्मा जी आवाक हो मेरा मुंह ताक रहे थे…
“दरअसल हुआ क्या कि उस दिन घर में कोई सब्जी नहीं बनी थी तो…
“तो?”…
“तो मैं कहीं दोपहर को भूखा ना रह जाऊँ…इसलिए श्रीमती जी ने ब्रैड पकोडा तल के मेरे लंच बाक्स में रख दिया था…उसे ही गलती से पुलिस वाले तमंचा समझ बैठे"…
“और वो ज़िंदा कारतूस?…वो तो असली के थे ना?”…
“टट्टू!…वो तो बिना साम्भर के रात के बचे हुए वडे थे…वडे…जो सचमुच में काफी बड़े थे”….
“ओह!…तो इसका मतलब इसी चक्कर में तुम्हें उन महिलाओं ने….
“टट्टू"…
?…?…?…?..
“उन्होंने तो मुझे इसलिए पीटा था कि मैं उनके डिब्बे में…
“दिमाग खराब है क्या आपका?”…
“क्यों?…क्या हुआ?”…
“जब आपको पता है कि मेट्रो में ट्रेन का सबसे पहला डिब्बा लेडीज के लिए आरक्षित है तो आपने उसमें सफर किया ही क्यों?”…
“मेरा दिमाग खराब है क्या?”…
“मुझे क्या पता?”…
“नहीं!…मैं ये कह रहा हूँ कि मेरा दिमाग खराब है क्या जो मैं…
“जो मैं?”…
“जो मैं अच्छे-भले तीन-तीन मर्दाना डिब्बों के होते हुए जनाना डिब्बे में जा कर अपना मुंह काला करवाऊँ?”…
“तो क्या उन्होंने ही मर्दाना डिब्बे में आ के…
“जी!…हाँ…उन्होंने ही मर्दाना डिब्बे में अतिक्रमण करके…
“आपका मुंह काला किया था?”…
“जी!…
“तुमने ज़रूर किसी को छेड़ दिया होगा"…
“बिलकुल नहीं"…
“किसी पर कोई फब्ती कसी होगी?”…
“सवाल ही नहीं पैदा होता"…
“तो फिर ऐसे…कैसे?”….
“दरअसल!…हुआ क्या कि…पुलिस वालों के महा पकाऊ इंटेरोगेशन से मैं इतना थक चुका था कि….
“आलस के मारे मर्दाना डिब्बे में चढ़ने के बजाये…
“आपका दिमाग ठीक है?”…
“क्या मतलब?”…
“मैंने अभी बताया तो आपको कि मैं मर्दाना डिब्बे में चढा था….
“तो फिर….ऐसे…कैसे?”…
“वही तो बता रहा हूँ कि…थकान इतनी ज्यादा थी कि मुझे जो डिब्बा सामने नज़र आया…मैं उसी में चढ गया और संयोग से वो…
“संयोग से वो जनाना डिब्बा….
“फिर वोही बात"…
“ओह!…सॉरी…आप कांटीन्यू करें"…
“संयोग से वो ट्रेन का आख़िरी डिब्बा था"…
“आप झूठ बोल रहे हैं"…
“क्या मतलब"…
“कहाँ आप और कहाँ वो?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“आपके हिसाब से आप ट्रेन के आख़िरी डिब्बे में थे?"…
“जी!…बिलकुल"…
“आपको पूरा यकीन है?"…
“सौ परसेंट"…
“और कायदे के हिसाब से मेट्रो में सबसे पहले वाला डिब्बा महिलाओं का होता है?"…
“जी!…बिलकुल"..
“तो फिर…ऐसे में आपका और उनका मिलना तो एकदम असंभव था"..
“आप भूल कर रहे हैं शर्मा जी…अगर इरादा पक्का एवं नीयत नेक हो इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं"…
“जी!…सो तो है लेकिन….
“अजी!…लेकिन-वेकिन को मारिये गोली और आगे की सुनिए"…
“जी!…
“तो हुआ यूँ कि मैं…ट्रेन के आख़िरी डिब्बे में था"…
“आपको पूरा यकीन है?”…
“स्टैम्प पेपर पे लिख के दूँ क्या?”..
“नहीं!..इसकी ज़रूरत नहीं है..आप ऐसे ही बताएइए"…
“तो जैसा कि मैंने कहा कि..मैं ट्रेन के आख़िरी डिब्बे में था?"…
“जी!…
“तो हुआ यूँ कि…थकान के मारे बुरा हाल तो था ही मेरा…जैसे ही सीट मिली …मैं वहीँ पे पसर गया”…
“ओ.के"…
“और जैसा कि आपको है ही कि आजकल पूरी दिल्ली का सर्दी के मारे बुरा हाल है"…
“तो?”…
“तो ऐसे में मेट्रो के अन्दर उसके ब्लोअर की गर्म हवा कितना सुकून देती है?…ये तो आपको पता ही होगा?"…
“जी!…
“पता ही नहीं चला कि कब मेरी आँखें उंनीदी हो…मुझे अपने आगोश में लेने लगी हैं"…
“ओ.के"…
“इसके कुछ ही देर बाद मैं क्या देखता हूँ कि अचानक एक मुस्टंडी सी लड़की….
“वो परकटी वाली हूर परी?”..
“जी!…वही"..
“ओ.के"…
“मैं देखता हूँ कि अचानक ही एक मुस्टंडी सी लड़की मेरे सर पे खड़ी होकर चिल्ला रही है कि… ”ओए!..चल…खड़ा हो फटाफट और जा यहाँ से"…
“आपने ज़रूर कोई सपना देखा होगा"…
“जी!…पहलेपहल तो मुझे भी यही लगा लेकिन……
“लेकिन?”…
“लेकिन जैसे ही मैंने उसे ये टका सा जवाब दिया कि…मैं क्यों जाऊँ यहाँ से?…तू जा यहाँ से"…
तो उसने मुझे कालर से पकड़ अच्छी तरह झकझकोर कर उठा दिया तो मैं ये देख कर चौंका कि…ओह!…माय गाड…ये तो सच है…सपना नहीं है"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“पागल की बच्ची कहने लगी कि…”ओए!…दिल्ली में नया आया है क्या जो तुझे पता नहीं कि लेडीज़ डिब्बे में आदमियों का चढ़ना मना है?”…
“ओह!…एक तो चोरी…ऊपर से सीनाजोरी?”…
“यही!…बिलकुल यही…एकदम टका सा जवाब मैंने भी उसे दिया"…
“गुड!…ये अच्छा किया आपने"…
“अजी!…क्या ख़ाक अच्छा किया …पता नहीं कहाँ से उसकी हिमायत में दुनिया भर की लड़कियों हुजूम का हुजूम चला आया"…
“ओह!…हद हो गई ये तो बेशर्मी की…पूरा डिब्बा ही हायजैक कर लिया उन्होंने"…
“जी!…बिलकुल”…
“आपको वार्निंग बैल का बटन दबा तुरंत पुलिस को बुला लेना चाहिए था"…
“वही तो किया मैंने लेकिन…
“लेकिन?”…
“लेकिन पुलिस वाले भी आ के उल्टा मुझी को डपटने लगे"…
“ओह!…ये लड़कियाँ भी ना…अच्छे-अच्छों के ईमान बदल देती हैं"…
“यही!…बिलकुल यही इलज़ाम लगाया मैंने उन पुलिस वालों पर लेकिन…
“लेकिन?”…
“लेकिन वो तो उल्टा मेरी ही गलती निकालने लगे….
“ओह!…
“मेरे लाख समझाने पर भी पट्ठों का दिल नहीं पसीजा और ज़बरदस्ती अगले स्टेशन पे मुझे उतार मेरा….
“मुंह काला कर गधे पे बिठा दिया गया?”…
“एग्जैकटली”…
“ओह!…हद हो गई अंधेरगर्दी की…जब देश की राजधानी दिल्ली में ऐसा हाल है तो बाकी के प्रदेशों का तो कहना ही क्या?”…
“जी!…
“मेरी मानें तो आप मानवाधिकार आयोग में शिकायत कर दें"…
“छोडिये!…शर्मा जी…क्या फायदा?”…
“इसमें फायदे या नुक्सान की क्या बात है?…दोषियों को दंड और पीड़ितों को न्याय तो मिलना ही चाहिए"…
“वैसे..देखा जाए तो मेरा दोष भी कुछ कम नहीं है"…
“क्या आपने किसी लड़की के साथ कोई बतमीजी की थी?”...
“तौबा…तौबा…कैसी बात कर रहे हैं आप?…मैं तो हर लड़की को अपनी बीवी सामान समझता हूँ और इसीलिए…
“और इसीलिए आप अपना हक समझ कर उनके साथ कोई ना कोई उल्टी हरकत कर जाते हैं?”…
“अरे!…नहीं…सबको बीवी सामान समझता हूँ इसलिए किसी के आगे मेरी चूं तक करने की हिम्मत नहीं होती"…
“ओह!…लेकिन अभी तो आपने कहा कि आपका भी दोष कुछ कम नहीं था"…
“जी!…
“ऐसा क्या गुनाह कर दिया था आपने कि उसकी एवज में आप उस नामाकूल औरतों के खिलाफ कार्यवाही करने से बच रहे हैं"…
“आपको बताया तो था कि मैं चलती ट्रेन में सो गया था"…
“तो?…इसमें कौन सी बड़ी बात है…ऐसा तो मैं कई बार…कई बार क्या?…हर बार छतीसगढ से दिल्ली आते-आते कर जाता हूँ लेकिन मजाल है जो किसी ने मुझे जूते मारे हों या फिर मुझ पर हाथ ही उठाया हो"…
“लेकिन मुझे तो पड़े ना?”…
“अपनी-अपनी किस्मत है"…
“जी!..वो तो है"…
“लेकिन मैं पूछ रहा हूँ कि…आखिर क्यों?…आप ही के साथ ऐसा घनघोर अन्याय क्यों?”…
“मैं सो जो गया था"…
“तो?”…
“दरअसल!…हुआ यूँ कि नींद के आगोश में मुझे पता ही नहीं चला कि कब ट्रेन का आख़िरी स्टेशन आ गया और वापसी के वक्त ट्रेन का आख़िरी डिब्बा कब पहला डिब्बा बन गया"…
“ओह!…फिर तो मेरा भी हक बनता है भाई"…
“किस बात का?”…
“ये गीत गाने का कि….
“ओ!…मेरा यार बना है लूल्हा"…
“क्या शर्मा जी?…आप भी…
जाइए!…मैं आपसे नहीं बोलता…कुट्टी …कुट्टी…पक्की कुट्टी"…
***राजीव तनेजा***
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+919136159705
18 comments:
ऐसा मारा है भैया कि अब हम पानी खोज रहे हैं।
हा हा हा
डूबने के लिए सूखा तालाब ही सही।
bahut khoob taneja saahan
बहुत बढ़िया राजीव भाई ... पर एक विनती है ... यार थोडा तो तरस खाओ ... अपनी पोस्टो का साइज़ घटाओ ! पढ़ते पढ़ते सुबह से शाम हो गई ! ;-)
भईया बहुत मजा आया पढ़कर, लेकिन शिवम भाई के बात विचार करें ।
आगे पीछे के चक्कर मे फ़ंस गये बेचारे, इसी लिये हम पहले तो बेठते ही नही इस मुयी मेट्रो मे, अगर बेठना होगा तो भाजी आप की कार मे चलेगे दोनो...
हा हा हा ! पूरा पढने के लिए तो भाई कल छुट्टी लेनी पड़ेगी ।
बहुत सही !!!... अगल्ले पिछल्ले दोनों तरफ से मारे गए :) आपकी रचना ज़बरदस्त लगी ... बधाई
तनेजा जी आपने बहुत ही गम्बीर विषय को लेकर चुटीला व्यंग्य प्रस्तुत किया है!
--
बात का बतंगड कैसे बन जाता है?
इस ब्यंग्य के द्वारा हमें भी पता चल ही गया!
बेहतरीन तनेजा साहब
हा हा हा राजीव भाई ,
मुझे लगता है कि आप पक्का ये पोस्ट कहीं छुप छुपा कर लिखते होगे नहीं नहीं मुझे यकीन है अपने दिल का गुब्बार कोई इत्ते आराम से यूं नहीं निकाल सकता है । हा हा हा कमाल है एकदम कमाल । नहले पे दहला और डायलाग पर डायलाग ..हम तो पूरा एपिसोड पढ के ही माने ..बीच बीच में तो बारूद बिछा दिए हैं महाराज ..आपके ब्लोग के नीचे धरती घूम रही हैं ..और इधर हम /....हा हा हा शुभकामनाएं ..
exceelent rajiv ji
मेट्रो का सफरनामा बहुत ज़बरदस्त रहा .. :):)
ha ha ha
bahut sahi kaha janb badhai............
राजीव जी, कहां कहां से खोज कर लाते हो आप। मजा आ गया।
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क्या आपको मालूम है कि हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग कौन से हैं?
bada sunder dimag chalte ho----
jai baba banaras----
bada sunder dimag chalte ho----
jai baba banaras----
मैं तो हर लड़की को अपनी बीवी सामान समझता हूँ और इसीलिए किसी के आगे मेरी चूं तक करने की हिम्मत नहीं होती
सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से :-)
बात तो मेट्रो की हो रही, लेकिन लगा कि कश्मीर-कन्याकुमारी वाली ट्रेन है! इत्तीईईईईईईईईईईईईई लम्बी?
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