"ओफ्फो!…कुछ याद भी रहता है इसे?....आज…इस वैलैंटाईन के दिन को तो बक्श देना था कम से कम लेकिन नहीं...’बरसों से पाल-पोस कर परिपक्व की हुई बुरी आदत को भला एक दिन के लिए भी क्यों त्यागा जाए?’....यही सोचा होगा ना शायद उसने?"...
"आगे-पीछे भले ही जो कर लेती लेकिन आज के दिन का तो कम से कम ख्याल रखना चाहिए था उसे…ये क्या कि बाकि दिनों की तरह इस दिन भी खुशी के वजूद को ठेंगा दिखा चलता कर दिया जाए?"…
"ओफ्फो!...इस अशांति भरे माहौल में कोई कुछ लिखे भी तो कैसे?”….मैँ कीबोर्ड पर उँगलियाँ चटखाता हुआ गुस्से से बस यही तो चिल्लाया था…और मेरी आवाज़ दिवारों से टकरा वापिस मेरी तरफ ही लौट आई थी..
देखा तो!...मुझे सुनने वाला कोई आस-पास था ही नहीं….बीवी लड़-झगड़ कर कब कमरे से बाहर निकल गई पता भी ना चला….
"हे ऊपरवाले!...कुछ तो मेहर कर....पता लगा उस कंबख्तमारी का कि कहाँ सिर सड़ा रही है?..यहाँ मैँ बावलों की तरह अकेला भौंक-भौंक के दिवारों पे अपनी भड़ास निकाले जा रहा हूँ और उसे कोई फ़िक्र ही नहीं है…
"क्या फायदा ऐसे..यूँ फोकट में गला फाड़ चिल्लाने से जब कोई सुनने वाला ही आस-पास ना हो?"मैँ डायरैक्ट ऊपरवाले से बात कर उसे समझाता हुआ बोला
"अरे!...यहीं कहीं होगी आस-पास…जाएगी कहाँ?…जाने वाली शक्लें कुछ और हुआ करती हैँ"मैँ खुद को तसल्ली देने की कोशिश कर रहा था
"हाँ!...कहीं नहीं जाने वाली वो…..मज़ाक कर रही होगी मेरे साथ...उस दिन भी तो पूरे दो घंटे तक नचाती रही थी मुझे…कभी इधर...तो कभी उधर…और मैँ बावला भी तो नाहक परेशान हो उसे पूरे मोहल्ले में ढूँढता फिर रहा था कभी इसके घर तो कभी उसके घर…कहाँ-कहाँ नहीं फोन घुमा मारा था मैंने?…और आखिर में मिली भी तो कहाँ?…अपने ही घर की सीढ़ियों के नीचे बने स्टोर रूम में….नॉटी कहीं की"...
"हाँ!…अपनाप ही लौट आएगी….रोज का ही तो ये ड्रामा है उसका”मैं खुद अपने आप से ही बात किए चला जा रहा था लेकिन शायद...अन्दर ही अन्दर कुछ चिंतित…कुछ विचलित सा भी था मैँ...तीन घंटे से ज़्यादा जो हो चुके थे उसे घर से निकले हुए....पहले तो हमेशा पंद्रह-बीस मिनट में ही इधर-उधर मटरगश्ती कर के वापिस लौट आया करती थी...आज पता नहीं क्या हुआ है इसे...जो अभी तक नहीं लौटी?"मेरे चेहरे पे चिंता भरी शिकन का भाव था
"शायद!..कुछ ज़्यादा ही डांट दिया था मैँने उसे…अब...डांट दिया तो डांट दिया...प्यार भी तो करता हूँ ….आखिर पति हूँ उसका...इतना हक तो बनता ही है मेरा...
"क्यों!...है कि नहीं?…और वो भी तो कई…कई क्या?…कई-कई बार मेरे साथ इससे भी बुरा बरताव कर गुज़रती है लेकिन मैंने तो कभी उफ़ नहीं की…चूं नहीं की…घर-बार छोड़ के कहीं इधर-उधर नहीं गया…हमेशा मोर्चे पे ही डट के हर मुश्किल…हर विपत्ति का सामना किया"…
"हुँह!...नहीं आती तो ना आए...मेरी बला से…एक गई है…बदले में छत्तीस ढूँढ लाउंगा लेकिन स्साली...ढंग से जाती भी तो नहीं है...ये क्या कि धमकी तो दे दी फुल्ल बटा फुल्ल कि... "अबकी बार लौट के ना आऊँगी" …लेकिन अभी ठीक से पूरा स्माईल भी चेहरे पे फिट नहीं हो पाता कि उससे पहले ही वापिस आ धमकती थी कि...
"हाँ-हाँ! ...तुम तो यही चाहते हो कि मैँ चली आऊँ…लौट के ना आऊँ और तुम ले आओ उसी छम्मक-छल्लो को…कान खोल के सुन लो...इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ने वाली...इस धोखे में मत रहना कि मेरे होते हुए कोई दूसरी तुम्हारी छाती पे बैठ..मूंग दल जाएगी और मैं चुपचाप दूर खड़ी तमाशा देखती रहूंगी"…
“हाँ!…आपसी सहमति से बेशक किसी को भी ला के बैठा दो चौके में...मुझे कोई परवाह नहीं लेकिन उससे पहले पूरे पंद्रह हज़ार रुपए हर महीने के हिसाब से तैयार रखना मेरे लिए"…
“प्प…पन्द्रह हज़ार रूपए?…ल्ल…लेकिन तुम तो पिछली बार ब्ब…बारह हज़ार मांग रही थी"….
“तो?…तुमने कौन सा हामी भर दी थी?”…
“ठ..ठीक है…हामी नहीं भरी थी ल्ल…लेकिन जुबान नाम की भी तो कोई चीज़ होती है कि नहीं?”…
“तो चाट लो बैठ के इस कलमुँही जुबान को”बीवी जीभ चिढा अपनी आँखें नचाती हुई बोली..…
?…?…?…?
“पता भी है कि महंगाई कितनी बढ़ गई है?…प्याज तीस से शुरू होकर अस्सी रूपए किलो तक पहुँच गया है और सी.एन जी के दाम तो एक साल में…
सी.एन.जी से याद आया कि ये 'वैगन ऑर' भी मेरे ही नाम पे रजिस्टर्ड है…किसी मुगालते में ना रहना" साक्षात ताड़का का ही कलयुगी अवतार नज़र आ रही थी उस दिन वो मुझे
"हुँह!...वैगन आर जाएगी तो आईटैन ले आऊँगा…ऐसा भी क्या डरना?…अगर उसे घर-गृहस्ती परवाह नहीं है तो मुझे भी नहीं है..मैँ अकेला ही क्यों नाहक परेशान होता फिरूँ?…राज़ी-राज़ी आती है तो आए...नहीं तो भाड़ में जाए,,,मुझे कोई परवाह नहीं”…
“बच्चे ही तो पालने हैँ ना?....पाल लूंगा किसी तरीके औक्खे-सौक्खे….और वैसे भी इस दुनिया में सब बच्चों को कहाँ मिलता है माँ का प्यार?"…
"ज़्यादा हुआ तो थोड़ा बहुत ध्यान तो मैँ रख ही लूँगा कुछ ना कुछ कर के…कोई माँ के पेट से थोड़े ही सीख के आया जाता है ये सब?…यहीं…इसी दुनिया में वक्त और ज़रूरत अपनेआप सब सिखा देती है"…
"ये भी नहीं हुआ बावली से कि...कम से कम छोटे को तो अपने साथ लेती जाती...पता भी है कि रात को दो-दो दफा सू-सू करता है बिस्तर पे... अब मैँ रात भर जाग-जाग के अपनी कहानियाँ लिखूं या फिर उठ-उठ के उस मरदूद के लंगोट बदलता फिरूँ?”….
“ले जाती अपने साथ तो मेरी थोड़ी परेशानी ही कम हो जाती...उसका क्या बिगड़ जाता?...लेकिन नहीं..कैसे गवारा होता उसे मेरा सुख?…अगर उसे इतना ही ध्यान होता मेरा तो आज ये लफड़ा ही नहीं होना था...पता भी है बावली को कि सुबह-सुबह काम पे जाना होता है बन्दे ने"...
"अब मैं बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करता फिरूं या खुद तैयार हौऊँ?…ओफ्फो!...मैडम जी को भी आज ही उड़नछू होना था"…
"अरे!...अगर ऐसा ही करना था तो पहले करना था ना जब...मेरे आसपास छत्तीस क्या चौआलिस मंडराया करती थी लेकिन नहीं...तब तो गली मोहल्ले में कैज़ुअली घूमते फिरते वक्त भी अपना हाथ मेरी कमर में ऐसे डाल के चलती थी कि सब जान लें कि...इस मटुकनाथ की जूली यही है"…
गलती से या फिर जानबूझ कर कभी किसी ने आँख उठा कर मेरी तरफ देख भी लिया तो समझो उसकी खैर नहीं…
"खबरदार!...जो एक इंच भी नज़र इधर दौड़ाई तो...खुला सांड नहीं है मेरा पति जो यूँ आँखे फाड़-फाड़ देखे चली जा रही हो…कभी हैंडसम लड़के नहीं देखे हैँ क्या?"बीवी गर्व से तने चेहरे के साथ बरस पड़ती थी
"हाँ!...इस झोट्टे की मालकिन मैँ हूँ...मेरे ही खूंटे से बन्धा है"बीवी मंगलसूत्र हाथ से नचाती हुई बोलती थी
नतीजन अच्छी भली भी आती-आती बिदक जाती थी कि… “चलो यहाँ से!..ये मैडम दाल नहीं गलने देगी"..
“और अब?….अब जबकि पता है कि कोई नहीं पटने वाली इस उम्र में इनसे...तो..
तो रुआब दिखाती है स्साली”...
"पता भी है कि बिना प्रापर खाने का मज़ा नहीं आता है बन्दे को लेकिन नहीं...कोई ना कोई कसर तो बाकि रखनी ही है ना...कभी खाने की प्लेट से सलाद गायब तो कभी पापड़-अचार खत्म"...
"ये भी नहीं होता कि कम से कम रायता ही डाल ले हफ्ते में एक आध बार…करना ही क्या होता है?...बस…रैडेमेड बूंदी का पकैट खोला और टपका डाला दही में थोड़ा सा...हो गया रायता तैयार...सिम्पल”…
"चलो!…माना कि खत्म हो गया होगा सामान लेकिन..अगर खत्म हो गया है तो बाज़ार से तो लाया जा सकता है ना?”…
सुबह से ही तो बिना बात लड़े चली जा रही थी…पता नहीं क्या मज़ा मिलता है इन औरतों को हम मर्दों से बहस करने में?…ये नहीं कि...मर्द ज़ात हैँ हम....जो हुकुम कर दिया...सो कर दिया…चुपचाप मान लें…खुद भी चैन से जिएं और हमें भी चैन से रहने दें लेकिन नहीं...हमारी तो जैसे कोई औकात ही नहीं है ना?"...
"पुट्ठा उसूल जो बना लिया है अपनी लाईफ का कि कभी हमारी कोई बात माननी ही नहीं है"....
"ये भी क्या बात हुई कि कभी शलगम में मटर नहीं होंते तो कभी बे-इंतहा डले नज़र आते हैँ?"...
"अरे!...कुछ भी बनाना है तो सलीके से बनाओ...तमीज़ से बनाओ...ये क्या कि बस…जैसे फॉरमैलिटी भर ही पूरी करनी हो?…कई बार तो कह चुका हूँ…कह-कह के देख चूका हूँ कि…. ‘तड़का ज़रा ढंग से लगा दिया करो’..लेकिन कोई हमारी सुने तब ना"...
"कितनी बार तो भौंक-भौंक के थक लिया कि…. ‘कुक्कड़ सिंह के यहाँ चायनीज़ कुक्कडी ऊप्स…सॉरी कुकरी की क्लासेज़ जायन कर लो’ ...लेकिन नहीं...टाईम ही नहीं है ना मैडम जी के पास इस सब के लिए लेकिन कोई ये बताएगा कि....
डांस क्लासेज़ और अंग्रेज़ी में गिटर-पिटर सीखने के लिए टाईम ही टाईम कैसे निकल जाता है मैडम जी के पास?"
"स्साले!..अँग्रेज़ चले गए अपनी गिटर-पिटर यहीं छोड़ के" मैँ अब हिन्दी प्रेमी होने के नाते अँग्रेज़ी की माँ-बहन एक करने लगा था
"अब!..अपने को अँग्रेज़ी नहीं आती तो नहीं आती...क्या करें?…जिससे जो बनता हो..बिगाड़ ले”…
"खाने की शिकायत करो तो टका सा जवाब मिलता है कि.. "ज्यादा ही चस्के लगे हुए हैं जुबान को तो जो पकवाना होता है ला कर दे दिया करो"…
"यहाँ स्साला भूले भटके कुछ खरीद के भी ले आओ तो माथे पे हाथ मारते हुए ये शिकायत ये कि..."आय-हाय!…ये क्या कबाड़ उठा लाए?…दिखाई नहीं देता कि अमरूद कच्चे हैँ"...
"अब!..कच्चे हैँ तो कच्चे हैँ....मैँ क्या करूँ?…भट्ठी में भून के पका लो" …
मेरी लाई चीज़ें तो एक मिनट में कच्ची हो जाती हैं और जब खुद…उसके खाने की शिकायत करो तो एक ही रता-रटाया जवाब कि…. “फालतू ना बोलो…तुम्हारी माँ से अच्छा ही पकाती हूँ"..
पता भी है कि कल वैलैंटाईन है लेकिन नहीं...लड-लड़ के अपने साथ-साथ मेरी भी ऐसी की तैसी करनी है ना…इसलिए दो दिन पहले से ही तैयारी शुरू कर दी कि कहीं ऐन मौके पे बन्दे का मुरझाया चेहरा खुशी के मारे खिल ना उठे…
उफ्फ़!..पता नहीं कित्थे उड्ड गई ये कम्भख्त मारी?…कब से चाय की तलब लगी पड़ी है लेकिन इसे चिंता हो तब ना…पता भी है कि…किसी और के हाथ की बनी चाय इसे पसन्द नहीं आएगी…काम वाली बाई के हाथ की तो बिलकुल नहीं...इसीलिए शायद..ज्यादा भाव खाने लगी है आजकल"मैँ कुछ सोचता हुआ बोला
यहाँ आज दिल उदास पे उदास हुए चला जा रहा है और इसे कोई फिक्र ना फाका...ऐसे घुट-घुट के अकेले जीने से तो अच्छा है कि मैं मर ही जाऊँ…हाँ!...यही ठीक भी रहेगा...ख़ुदकुशी के अलावा और कोई चारा नहीं मेरे पास…आज जो हुआ...जैसा हुआ पता नहीं उस सब में किसका दोष था और किसका नहीं लेकिन इतना जानता हूँ कि नहीं होना चाहिए था ये सब…
ये?...ये क्या होता जा रहा है मुझे?...क्यूँ अन्दर ही अन्दर आहत हो के टूटने-बिखरने लगा हूँ मैं?…कहने को तो हमने प्रेम विवाह किया था लेकिन रोज़ाना की आपाधापी में प्रेम..कब का उड़नछू हो हमारी ज़िन्दगी से जा चुका है"मैँ सोच में डूबा जा रहा था
"ये जीना भी कोई जीना है?...वही रोज़-रोज की रोजाना होती रूटीनी बहस…वही बेकार का लड़ना-झगड़ना…वही फालतू की चिक-चिक"...
मुझे हमेशा यही शिकायत रही कि जिससे मैँने प्रेम विवाह किया...वो ये नहीं...कोई और है…पहले जैसी कोई बात ही नहीं थी उसमें…वो मोहिनी मुस्कुराहट...वो उसका चहकना...वो शोखी...वो चंचल अदाएं"मेरे दिमाग में उसकी पुरानी यादें ताज़ा हो चली थी...
लेकिन अफसोस...वैसा कुछ भी तो नहीं बचा था अब उसमें…और ऊपर से उसे लगता है कि मैँ बदल गया हूँ"... “हुँह!...उल्टा चोर कोतवाल को डांटे...शिकायत सुनो इनकी कि... “मैँ बात-बात पे डांटने लगा हूँ...गुस्सा मेरी नाक पर हमेशा चढा रहता है वगैरा..वगैरा"...
अब गुस्सा ना चढा रहे तो और क्या करे?... हर तरफ टैंशन ही टैंशन...कोई भी दिन ऐसा नहीं गुज़रता जिस दिन मैँ सुकून से बैठ सकूँ….कभी बिजली के बिल तो कभी टेलीफोन के बिल...कभी बच्चों की फीस…तो कभी कम्प्यूटर खराब...ऊपर से ये कहानियाँ लिखने का चस्का…टाईम ही कहाँ होता है मेरे पास कि उसकी छोटी-छोटी बातों में सर खपा अपना कीमती वक्त जाया करता फिरूँ?…जानता जो हूँ कि…टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट...
मनी से याद आया कि यहाँ स्साले!... देने वाले तो देने का नाम नहीं लेते और दो-चार लेने वाले ज़रूर घर के बाहर रोज़ाना सुबह-शाम कतार बाँधे नज़र आते हैँ
"अब ऐसी हालत में आप ही बताओ कि इस आपाधापी भरे माहौल में टैंशन ना हो तो और क्या हो?"…
जिससे मैँने प्रेम किया....अपने घर वालों से लड़-झगड़े कर उनकी मर्ज़ी के खिलाफ ब्याह रचाया…कम से कम उसे तो मेरा ख्याल रखना चाहिए"मैँ अपने आप से बात करता जा रहा था
ठीक इसके उलट...आज उसी के साथ मेरी नहीं बन रही है…हालात ऐसे हैँ कि ना चाहते हुए भी हफ्ते में कम से कम तीन या चार दफा हम लड़ बैठते हैँ…कभी किसी बात पर तो कभी बिना किसी बात पर…मैँने कभी भी उसे किसी काम के लिए…किसी चीज़ के लिए नहीं टोका..कहीं आने-जाने से मना नहीं किया…किसी भी तरह के कपडे पहनने-ओढने से नहीं रोका …कभी उसकी इच्छाओं पर हावी नहीं हुआ मैँ... उसने कहा… “डांस सीखना है"...
मैंने कहा… “सीख लो"…
"उसने कहा…. “अँग्रेज़ी सीखनी है"…
मैँने कहा… “ज़रूर सीखो...
“कहने का मतलब ये कि मैँ उसकी हर खुशी से खुश था लेकिन फिर…ये सब मेरे ही साथ क्यों?..क्या मैँ चाहता था कि हम में अनबन हो?…हम लड़ें...लड़ते रहें?"...
"या फिर वो ही चाहती थी कि हम हमेशा झगड़ते रहें?"...
शायद!…हम दोनों ही कभी एक दूसरे को ठीक से समझ नहीं पाए…शादी हुए बरसों बीत गए लेकिन हमारा लड़ना आज भी बदस्तूर जारी है…कई बार तो लड़ाई इतनी बढ जाती है कि गुस्से में चाहे-अनचाहे मेरा हाथ भी उठने लगा है उस पर जिसका मुझे हमेशा अफसोस रहा है और ताउम्र रहेगा लेकिन मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?…कंट्रोल नहीं रख पाता अपने ऊपर…वो बात ही ऐसी जली-भुनी कर देती है कि ना चाहते हुए भी मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं रहता है..पता नहीं क्यों मैँ इतना ज्यादा उतेजित हो अपने आपे से बाहर हो उठता हूँ?…संयम से काम लेना चाहिए मुझे"मेरी उँगलियाँ अब धीमी गति से टाईप कर रही थी…
कई बार सोचता भी हूँ कि मैँ जो कर रहा हूँ वो गलत है...सही नहीं है लेकिन जब बर्दाश्त करने की हद मेरे बूते से बाहर हो जाया करती है...तभी ऐसा होता है…वैसे!..सच कहूँ तो ऐसा आजकल अक्सर होने लगा है…बाद में पछतावा भी बहुत होता है हर बार कि उसे ना सही लेकिन कम से कम मुझे तो अपने आपे में रह खुद पर कंट्रोल करना चाहिए…जानता हूँ कि आज जो हुआ...जैसा हुआ...सही नहीं हुआ…नहीं होना चाहिए था ऐसा लेकिन मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?"मैँ जैसे खुद…अपनेआप से ही सवाल कर रहा था… हर बार कोई ना कोई ऐसी कड़वी...दिल को अन्दर तक चुभने वाली बात वो कर देती है कि मुझसे चुप नहीं रहा जाता जिसके नतीजन...हम फिर बैठे बिठाए बिना किसी तुक के लड़ पड़ते हैँ…
पता नहीं क्यों हमें शर्म भी नहीं आती है कि...बच्चे बड़े हो रहे हैँ…क्या तमाशा दिखाते रहते हैँ हम उन्हें रोज़-रोज़?…क्या सोचते होंगे वो हमारे बारे में?" मुझे खुद से ही नफरत सी होने लगी थी…
कई बार मैँ नितांत अकेला बैठ विचार करने लगता हूँ कि… “आखिर हम लड़ते क्यों हैँ?….क्या हम में प्रेम नहीं है?...अगर नहीं है तो फिर हमने ये शादी क्यों की?...क्या हम दोनों का प्रेम…प्रेम नहीं...सिर्फ विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण भर था?"
"नहीं!…ऐसा तो हर्गिज़ नहीं था…अगर ऐसा होता तो आज मैँ संजू का नहीं...किसी और का पति होता...शायद...’मोनिका'…. ‘प्रोमिला’... ‘शशि’ या फिर ‘कंचन' का?....कुछ और नाम भी तो थे शायद"मैं अपने मानसपटल पे जोर डाल सोचने लगा…
“ओह!…शिट…‘चम्पा’… ‘चमेली' और ‘कुलवंत’को मैं कैसे भूल गया?”पुरानी माशूकाओं और उनके साथ गुज़ारे उन रुमानियत भरे हसीन लम्हों की याद आते ही मेरा चेहरा शर्म से लाल हो उठा था…सभी के सभी किस्से मेरे दिमागी भंवर में एकसाथ किलोल जो करने लगे थे
"उफ्फ़!…तौबा...वो दिन भी क्या दिन थे?"मैँ पुरानी यादों से पीछा छुड़ाने की गर्ज़ से अपने सर को एक झटके में झटकता हुआ बोला..
संजू का चेहरा एक बार फिर मेरे सामने था…क्या मैँ ही गलत होता हूँ हर बार?…बहुत सोच विचारने के बाद घूम फिर के मैँ इस नतीजे पे पहुँचा कि...मुझे उसकी टोकाटाकी पसन्द नहीं और उससे बिना टोके रहा नहीं जाता…शायद…अपनी गल्तियों को ढांपने के लिए मेरी यही सोच जायज़ थी…ऐसा ही कुछ वो भी सोचती होगी शायद कि... वो ठीक है और राजीव गलत….सच!…अपनी गलतियाँ किसे नज़र आती हैँ?..
“बहुत हो ली लड़ाई....बहुत लड़ लिए हम…अब चाहे जो हो जाए मैँ कभी भी उस पर हाथ नहीं उठाउँगा"मैँने फैसला सा कर लिया
"हाँ!...यही ठीक रहेगा..उसकी चुभने वाली बातों को मैँ भूल जाउंगा...इग्नोर कर दूंगा..ज़्यादा हुआ तो चुपचाप बाथरूम या फिर टायलेट में जा के अकेले में रो लूंगा लेकिन उसे कुछ नहीं कहूँगा"…
"सच!..एक बात तो है पट्ठी में....जितना वो मुझसे लड़ती है...उतना प्यार भी तो करती है…अब देखो ना...उसके माँ-बाप लाख बुलाते रहते हैँ कि… “छुटियाँ आ रही हैँ बच्चों की...इस बार यहीं आ जाना…एक साथ रहेंगे...खूब मज़ा आएगा"...
कोई ना कोई बहाना कर के टाल देती है हर बार कि… “इस बार नहीं...अगली बार"...
“जानती जो है कि उसके बिना मैं रह नहीं पाउंगा…क्या हुआ जो हम लड़ते हैँ?...किस घर में लड़ाई नहीं होती है?...ज़रा बताओ तो?...अब चाहें हम रोज़ लड़्ते फिरें लेकिन सुलह भी तो कर ही लेते हैँ ना?…ये तो नहीं करते कि मुँह फुलाए बैठे रहें?...बात ही ना करें एक दूसरे से?...अपनी गलती मान सौरी भी तो खुद ही कहने आ जाती है कई बार" मैँ भावुक हो चला था
याद है मुझे आज भी वो दिन जब हम हनीमून पर मनाली गए थे…वहाँ हमने 'बैस्ट कपल' का अवार्ड भी तो जीता था ना?…संयोग देखो कि लगातार तीन साल तक 'बैस्ट कॅपल' का अवार्ड जीतते रहे हम"..
"सुनो!…
"हूँ!...
"क्या कर रहे हो?"…
"क्क...क्कुछ भी तो नहीं…..म्म…मैं तो बस…ऐसे ही..."मैँ फटाफट मॉनीटर बन्द करने की असफल कोशिश करता हुआ बोला
"हैप्पी वैलैनटाईन"....
पलट के देखा तो बीवी हाथों में गुलाब का फूल लिए खड़ी थी…
"सॉरी...."मेरे मुँह से बस यही निकला और मैँने उसका हाथ थाम लिया..जाने कब हम दोनों की आँखो से आँसू बह निकले….पता भी ना चला…
"चाय पिओगे?"...
"हूँ!..."मैँने चुपचाप सहमति जता दी
"यैस्स!...वी ऑर दा बैस्ट कॅपल" बीवी के किचन में जाते ही मैँ खुशी से हाथ हवा में लहराता हुआ बोला
कुछ ही देर में बीवी चाय और बिस्कुट ले कर आ गई… "एक बात बताओ ज़रा...."चाय की चुस्की लेते हुए बीवी शांत स्वर में बोली
"क्या?"मेरे चेहरे पे प्रश्न था..
"तुम्हारा ‘मोनिका' के साथ सचमुच में चक्कर था ना?"…
"न्न्…नहीं तो”मेरी आवाज़ में सकपकाहट थी
"झूठे!...मैँने सब पढ लिया है"संजू खिलखिला के हँस दी… "और वो ‘शशि'… ‘कंचन' और प्रोमिला?”…
“प्प..पागल हो गई हो क्या?…वव…वो तो बस…ऐसे ही…
"तुम भी ना बस…एक नंबर के फ्लर्ट हो फ्लर्ट"बीवी की हँसी रुक नहीं रही थी
मेरी सकपकाई सी हँसी भी उसकी हँसी में शामिल हो चुकी थी"
***राजीव तनेजा***
नोट:संजू (मेरी पत्नी)को समर्पित
11 comments:
हैप्पी वैलेंटाइन डे!!!
कमाल की बीवियाँ और बीवियों का कमाल
दुनिया भर की दुखती रगें... :)
और बेचारे मरद
गजब
तनेजा जी अभी मेरी शादी नहीं हुई है इसलिए इन फलसफों से अनजान हूँ मैं पढ़कर अच्छा लगा .
अपनी भी हालत खराब ही रही आज़
@"चाय पिओगे?"
राजीव भाई, मैं इस एक शब्द के ही ईर्द-गिर्द घुम रहा हूँ। इस पर सारी कायनात न्यौछावर है।
कुल मिलाकर उपसंहार गजब का है।
सैल्युट करता हूँ।
"चाय पिलाओगे।:)"
अब क्या कहे साहब ... ५ सालो में हालत ऐसी हो गई है कि कुछ कहा नहीं जाए ... ऊपर से तुर्रा यह कि बिन कहे भी रहा नहीं जाए !
भाभी जी को मेरी गुड मोर्निंग बोल दीजियेगा...
सुनिए आप ई सब लिख कर बिना पिटाए कैसे रह जाते हैं जी ..भाभी जी बेलन से स्वागत तो जरूर ही करती होंगी पोस्ट पढने के बाद आपका । जारी रहिए महाराज ..यैस यू आर द बेस्ट कप्पल
काश,अपन ने भी प्रेम-विवाह किया होता!
कमाल है. आप हमेशा नायाब चीज़ लाते हैं. :)
इस झोट्टे की मालकिन मैँ हूँ...मेरे ही खूंटे से बन्धा है
बधाई जी बधाई, बेस्ट कपल को
वाह ! शानदार !!
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