समझ में नहीं आ रहा मुझे कि आखिर!…हो क्या गया है हमारे देश को…इसकी भोली-भाली जनता को?….
कभी जनता के जनार्दन को सरेआम जूता दिखा दिया जाता है तो कभी जूता दिखाने वाले को दिग्गी द्वारा भरी भीड़ में बेदर्दी से लतिया दिया जाता है…पीट दिया जाता है…आखिर!..ये होता क्या जा रहा है हमारे देश की भोली-भाली जनता को?…वो पहले तो ऐसी नहीं थी..
क्यों बात-बात में बिना बात के बाल की खाल निकाली जा रही है?…निकाली क्या जा रही है?…सर से पाँव तक और नख से लेकर शिखर तक…नीचता भरी नीयत के साथ तमाम हदों को पार करते हुए…बेदर्दी से नोची-खसोटी और उधेड़ी जा रही है…क्यूँ लोग समझ नहीं पा रहे है मेरे-उनके पर्सनल होते जज़्बात को…क्यूँ दरकिनार कर खुडढल लाइन लगाया जा रहा है मेरे-उनके एक होते हुए परिपक्व अरमान को?…ये दोगली मानसिकता….ये दोहरा मापदंड…ये सौतेला व्यवहार सिर्फ इसलिए ना कि मैं एक स्त्री हूँ और वो एक पुरुष?…स्त्री होना क्या गुनाह है?…या फिर पुरुष होना अपने आप में एक पाप?…रुकिए…रुकिए…रुकिए…कहीं आपकी नज़र ए इनायत में ऐसा तो नहीं कि स्त्री और पुरुष के बीच आपस में एकता होना…मित्रता होना और मित्रता के जरिये उनका आपस में संगम होना सैद्धांतिक रूप से सही नहीं है…गलत है?…मुआफ कीजिये अगर ऐसा होना सही नहीं है…गलत है…तो फिर ये पूरी दुनिया ही सही नहीं है…पूरी कायनात ही गलत है…
अपने देश की वेद-वेदांतों से भरी पावन…निर्मल एवं चंचल धरती पर जन्म लिया है मैंने..इसलिए भली-भांति जानती हूँ कि क्या सही है और क्या गलत?…ऊपरवाले की दया से इतनी अक्ल है मुझमें कि अपने दम पे फैसला कर सकूँ कि क्या राईट है और क्या है रौंग?शरण में आए किसी शरणागत की रक्षा करना क्या पाप है?..गुनाह है?….नहीं ना?….तो फिर मेरे ऊपर ऐसे घटिया इलज़ाम…ऐसे बेहूदा आरोप क्यों?…किसलिए?…मैंने तो किसी का कुछ नहीं बिगाडा…तरस आता है मुझे अपने देश के लोगों की दोहरी मानसिकता पर….एक तरफ कहते हैं कि ‘अतिथि देवो भव’…और दूसरी तरफ गलती से कोई ‘अतिथि’ किसी के घर आ जाए सही…लात मार भगाने की पहले सोचने लगते हैं लेकिन मुआफ कीजिये ऐसे संस्कार नहीं पाए हैं मैंने कि किसी को लात मारूँ…...वो भी उसके पिछवाड़े पे?….
“छी!…छी-छी…कैसी गिरी हुई बेहूदा हरकत है ये"…
चलो!…माना कि समय बदल रहा है…लोग बदल रहे हैं वक्त के साथ-साथ उनके आचार..विचारों समेत बदल रहे हैं…जब सारा का सारा जहाँ…सारा का सारा समाज बदल रहा है तो इस बदलाव से…इस परिवर्तन से मैं भी अछूती नहीं हूँ…वक्त के साथ-साथ काफी बदल डाला है मैंने खुद को… लेकिन अगर कोई ‘अतिथि’ मेरे घर में…मुझसे बिना पूछे ही चुपचाप घुसा चला आए तो मैं क्या करूँ?…उसे ऊपरवाले की आज्ञा मान सर-आँखों पे बिठा लूँ या फिर दुत्कारते हुए सिरे से ही नकार दूँ?..सच कहूँ!…तो एक बार मेरे भी मन में आया था कि मौके की नजाकत को समझते हुए मैं ऐसे आड़े वक्त में उनका साथ देने से इनकार कर अपनी दोनों टाँगें खड़ी कर दूँ लेकिन फिर तुरंत ही ये ख्याल भी मन में आया कि लज्जा और शर्म तो स्त्री का गहना होता है …इनसे ही अगर मैंने नाता तोड़ लिया तो फिर मेरा इस दुनिया में….इस धरती पे रहने का फायदा ही क्या?…इस जीवट भरे जीवन को मर-मर के जीने का फायदा ही क्या?…बस!..जनाब…इस बात का ख्याल आते ही मैंने उन्हें और उन्होंने मुझे मन से अपना बना लिया …
होSsssचाहे लाख तूफां आएं…
चाहे जान भी अब ये जाए…
मिल के न होंगे जुदा…
जुदा…आ कसम खा लें…
लेकिन ये भी तो सच है ना कि ज़माना किसी को ज्यादा देर तक खुश नहीं देख सकता…सो!….हमें भी नहीं देख सका…लग गई ज़माने भर की नज़र हमारे प्यार को…
साम-दाम से लेकर दण्ड-भेद तक…सब के सब अपनाए गए हमें एक दूसरे से अलग करने के लिए…जुदा करने के लिए…जालिमों ने पुलिस का सहारा ले लाठी-चार्ज से लेकर अश्रु गैस तक क्या-क्या नहीं आजमाया हम पर…वो टॉर्चर पे टॉर्चर कर हमारे मनोबल को तोड़ने की कोशिश करते रहे….मेरी-उनकी इज्ज़त को खींच कर तार-तार करने की कोशिश की गयी…हमने भी अपनी तरफ से खूब डट कर मुकाबला किया उनका लेकिन अब इसे अपनी किस्मत का दोष कहूँ या फिर अपनी नियति का लेखा?…
छोड़ गए बालम…हाय!…अकेला छोड़ गए…
सोतेली हुई तो क्या?…मेरे साथ ऐसा बरताव करेंगे?…मुझे कहीं का ना छोड़ेंगे?….माना कि मजबूरीवश उन्होंने मुझे अपना बना….बदन से लगाया था…लेकिन ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि पहला मौक़ा मिलते ही मुझसे अपने दामन को झटक लो?…क्या मेरे बदन में काँटें और उस नारंगी मुँही बंदरिया(जो कभी मेरी बहन थी) के बदन में फूल जड़े थे?…
अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का…
यार ने ही लूट लिया घर यार का…
शायद उन्हें मालुम नहीं काम उसने भी वही आना था और मैंने भी वही आना था…लेकिन फिर मेरे साथ ही ऐसी धोखेबाजी…ऐसी दगाबाजी क्यों?…क्यों?….क्यों????…
कहीं आप इस मुगालते में तो नहीं जी रहे ना कि आप अगर मुझे भुला देंगे तो मेरा वजूद ही मिट जाएगा…मेरा अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा…
मुझको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं…ज़माना हम से है…हम ज़माने से नहीं…
याद रखो…जितना भी मुझे मिटाने की कोशिश करोगे…उतना ही मैं रूप बदल-बदल फिर-फिर सामने आऊँगी…आज आपने मुझे ठुकरा दिया है लेकिन कल आपको अपने किए पे पछताना पड़ेगा…नहीं!…इस भुलावे में कतई नहीं रहना कि आपके रहने या ना रहने से मैं दुखी हो मर जाउंगी….सदमे में आ कोमा में चली जाउंगी….मैं भला क्यों मरुँ?…मैं भला सदमे में आ कोमा में क्यों जाऊँ?…जाना है तो आप जाओ कोमा में …मैं भला क्यों जाऊँ?….
जाना पड़ेगा आपको कोमा में…अगर इसी तरह जिद पे अड अनशन पर बैठे रहे….देश को आपकी बहुत ज़रूरत है बाबा जी…आपसे निवेदन है कि गलतियाँ ना करें और मजबूती के साथ अपना पक्ष सरकार के सामने रखें…जीत हमारी ही होगी…आमीन…
जाते-जाते चंद पंक्तियाँ आपकी नज़र पेश हैं…गौर फरमाइएगा…
एक कच्छा दो…दो कच्छे चार…
छोटे-छोटे कच्छों की बन गई सलवार…
नहीं फटी है…नहीं फटेगी…
ओSsss…
मेरे बाबा की सलवार…
मेरे बाबा की सलवार…
जी!…जी हाँ…बिलकुल सही पहचाना…मैं वही सलवार हूँ जिसे पहन के बाबा जी ने अपनी लाज बचाई थी…:-)
***राजीव तनेजा***
+919810821361
+919213766753
+919136159706
20 comments:
कच्छा सिला दिया तूने रे सलवार का
यार ने पहन लिया रे कच्छा यार का
:):):)
ha ha ha mast mast mast ... vah vah
सच में, बहुत ही अच्छा लेख है, कच्छा लेख नहीं, आज मजाक नहीं गम्भीर लिखा है आपने
:)
क्या कहें कुछ कहने के लिए छोड़ा नहीं है मजेदार पोस्ट मगर बात गंभीर ....
'करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' के तहत बाबा के पास अनुभव भी आ ही जाएगा । अस्ल बात मुददे और माददे की है।
मुददा उनका ठीक है और माददा भी उचित खान पान के ज़रिए उनमें बढ़ ही जाएगा।
अब जब कि बाबा ने खाना पीना शुरू कर ही दिया है और एक क्षत्रिय की तरह उन्होंने अंतिम साँस तक लड़ने का ऐलान भी कर दिया है तो हालात का तक़ाज़ा है कि या तो वे पी. टी. ऊषा को अपना कोच बना लें या फिर क्षत्रियों की तरह वीरोचित भोजन ग्रहण करना शुरू कर दें ।
क्या आदमी को बुज़दिल बना देता है लौकी का जूस ?
Bhagwan bachaaye hotel ka kharcha bachaane wale atithiyon se:-)
बहुत बढ़िया व्यंग्य!
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क्या सारे फोटो आपके ही लगे हैं ऊपर!
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यदि हाँ, तो आप भी बाबा की तरह से खूब भेष बदलना जानते हैं!
सही खबर ली है आप ने हँसाते हँसाते।
bahut khub...aapne bhi baba ji ko nahi chhoda....bahut kuch kahe gaye is lekh mei
यह खूब रही राजीव भाई ....
बहुत खूब
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
हा हा!! बहुत सटीक...सधा हुआ!!
सटीक तो है समीर भाई
पर सधावट में थोड़ी मिलावट है
इस वट को करें दूर
अगर यार राजीव तनेजा
फिर तो व्यंग्य का बजेगा
बाजा बजबजाना बजते जाना
सरफ़रोशी को सलवार पहनी..
फिर पतली गली उन्होंनें पकड़ी
अपनी ही चालों ने यूँ दौड़ाया है
जग हँसा क्यूँ राम मिले न माया है
कुछ बातें बहुत से सटीक कही गयी हैं. पसंद आया यह अंदाज़
बिल्कुल सही ढंग से आपने अपनी बात कही है……………शानदार्।
आज बड़े गंभीर लग रहे आप!?
भाई बात कुछ सही भी है और कुछ नही भी पर अपना भारत है ही ऐसा सब एक मत होते तो जनमत की जरूर क्या वैसे लिखा आपने जबरदस्त है
hehehehee sahi utari..........
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