नोट: दोस्तों….हाल ही में हिन्दी ब्लॉगजगत में घटित एक सच्ची घटना एवं कल्पना का ये समिश्रण आपको कैसा लगा?…ज़रूर बताएँ |
“हैलो….तनेजा जी?”…
“हाँ!…जी बोल रहा हूँ…आप कौन?”…
“मैं दुबे…जौनपुर से"…
“जी!…दुबे जी…कहिये…क्या खिदमत कर सकता हूँ मैं आपकी?”…
“अजी!…खिदमत कैसी?…मैं तो धन्य हो गया जो आपसे बात हो गई"…
“हें…हें…हें…दुबे जी…आप भी कमाल करते हैं…मैं भला इस लायक कहाँ कि मुझसे बात कर के लोग धन्य होने लगे?”…
“अजी!…हीरे की कद्र भला हीरा खुद कहाँ जानता है?…ये तो जौहरी ही होता है जो उसकी सही कीमत का आकलन करता है"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“अभी जस्ट…आपका व्यंग्य ‘तीतर के दो आगे तीतर' पढ़ने के बाद मन हुआ कि आपसे बात की जाए"…
“जी!…शुक्रिया"…
“मैं तो धन्य हो गया प्रभु आपके व्यंग्यबाणों को…कटाक्षों को पढकर…क्या तो आपने खिंचाई की है उस नामाकूल नेता कि और क्या रगडा है उसके दिन पर दिन पीले होते हुए पी.ए हँस.के.लेले को"…
“जी!…शुक्रिया”…
“आप किसी टी.वी वगैरा के लिए क्यों नहीं लिखते?”…
“अजी!…ऐसी अपनी किस्मत कहाँ कि ये टी.वी …फी.वी वाले मुझको याद करें?”…
“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप ?भी…काफी समय से मैं आपको पढ़ रहा हूँ…हर्फ दर हर्फ़ मुझे आपके सभी ट्विस्ट याद हैं…एक अच्छी कहानी के लिए आखिर चाहिए ही क्या होता है?”…
“क्या होता है?”…
“थोड़े से टिवस्ट और ढेर सारे द्विअर्थी संवाद"…
“अरे!…वाह…ये तो मेरी हर कहानी में मौजूद होते हैं"…
“वोही तो…तभी तो मैं कह रहा हूँ कि आप फिल्म लाइन में ट्राई करें…इंशा अल्लाह कामयाबी ज़रूर मिलेगी और जल्द मिलेगी"…
“जी!…लेकिन….
“आपकी कोई-कोई रचना तो ऐसी है कि उस पे बिना किसी काट-छांट के तुरत-फुरत में पूरे अढाई घंटे की फिल्म बड़े आराम से बनाई सकती है"…
“जी!…मेरी कहानियाँ दरअसल होती ही इतनी लम्बी हैं कि मैं अगर थोड़ी सी कोशिश या फेरबदल और करूँ तो उन पे बकायदा एकता कपूर के सालों तक चलने वाले सीरियल बन सकते हैं"…
“जी!…वोही तो… तभी तो मैं हर एक से कहता फिरता हूँ कि ये राजीव तनेजा एक दिन बहुत ऊपर जाएगा…जन्मजात प्रतिभा है पट्ठे में स्टार राईटर बनने कि"…
“जी!…शुक्रिया"…
“इसीलिए तो मैंने आपको फोन किया है"…
“ओह!…अच्छा…तो बताइए…मेरी कौन सी रचना पर आप फिल्म बनाना चाहेंगे?”…
“हें…हें…हें..तनेजा जी…मैं इतना बड़ा आदमी तो हूँ नहीं…बस…ऐसे ही छोटा सा हँसता-खेलता परिवार है….कुछ मित्र हैं कार्पोरेट जगत में… उनके बीच अच्छी प्रतिष्ठा है...थोडा बिजनेस है.. छोटी सी नौकरी है...और बस….
“चल!….झूठे”…
“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…
“तुमने मुझसे झूठ क्यों कहा?”…
“क्या?”…
“यही कि…आपका…बस…ऐसे ही एक..छोटा सा हँसता-खेलता परिवार है”….
“तो?”…
“बातों से तो तुम इतने शरीफ नहीं लगते"…
“हें…हें…हें…तनेजा जी…आप भी ना बस….
“तो मैंने क्या झूठ कहा?”…
“नहीं!…झूठ तो नहीं…लेकिन पूरा सच भी नहीं"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“एक्चुअली!…मुझे शुरू से ही फ्लर्टिंग की आदत है”..
“ओह!…तो इसका मतलब इस कलयुगी सपूत के पाँव पालने में ही दिख गए होंगे इसके माँ-बाप को?”..
“जी!…
“कुछ और बताएँ अपने इस गुण के बारे में"…
“फ्लर्टिंग करते वक्त मैं कभी ये भी नहीं देखता कि सामने वाला मुझसे कितना बड़ा या छोटा है?”…
“जी!…छोटे-बड़े से तो वैसे भी कोई मतलब नहीं होता है…अठारह साल के बाद तो सभी व्यस्क की श्रेणी में आ जाते हैं"…
“जी!…
“आजकल कितने चल रहे हैं?”…
“चक्कर?”..
“जी!…
“कुछ खास नहीं…बड़ा मंदा चल रहा है आजकल"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“पता नहीं क्या चक्कर चल रहा है आजकल मेरे साथ?….कोई सैट हो के ही राजी नहीं है”…
“ओह!…
“जिस किसी को भी दाना डालता हूँ…पता नहीं कैसे बच के निकल जाती है?”…
“ओह!…कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई घर का भेदी ही आपकी लंका को ढहाने में अहम रोल निभा रहा हो"..
“नहीं!…बिलकुल नहीं…ऐसे कच्चे चावल नहीं पाल रखे हैं मैंने अपने दड़बे में”..
“हम्म!…तो फिर आजकल गुज़ारा कैसे चल रहा है?….कहीं अपने हाथ….जगन्नाथ जी की सेवा में तो नहीं लगा दिए हैं आपने?”….
“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप भी…जगन्नाथ जी की मैं सेवा करूँगा तो फिर मेरी सेवा कौन करेगा?”…
“वोही तो"…
“एक-आध से तो मेरी परमानेंट सेटिंग चलती रहती है हर हमेशा…उन्हीं के सहारे दिन काट रहा हूँ कैसे ना कैसे कर के"…
“दिन काट रहे हैं?”…
“जी!…रात को तो लौट कर बुद्धू को घर पे जाना ही होता है ना?”…
“उफ्फ!…मैंने आपको क्या समझा और आप क्या निकले?”…
“क्या निकले?”…
“आला दर्जे के बेवाकूफ और वो भी लाईसैंस शुदा"…
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“वो कैसे?”…
“मैं तो आपकी बातों से आपको निहायत ही काईयाँ और चालाक समझ रहा था लेकिन आप तो वही ढाक के तीन पात के माफिक अव्वल दर्जे के बेवाकूफ निकले"…
“बनना पड़ता है तनेजा जी…बनना पड़ता है…घर में तो जानबूझ के बेवाकूफ बनना पड़ता है"…
“ओह!…अच्छा…दैट्स…नाईस ना?"…
“जी!…
“अच्छा तो फिर बताइए दुबे जी कि…मेरी कौन सी रचना पर आप अभी हाल-फिलहाल में फिल्म बनाना चाहेंगे?”…
“तनेजा जी…मेरा बस अगर चले तो कौन सी क्या?….मैं तो आँखें मूँद के आपकी कोई सी भी रचना उठा लूँ तो भी शर्तिया तौर पर उस पर एक ब्लाक बस्टर फिल्म ही बनेगी"…
“शुक्रिया!…आपने तो मुझे आत्मविश्वास से एकदम लबालब भर दिया है"…
“जी!….लेकिन…
“लेकिन?”…
“लेकिन क्या करूँ तनेजा जी मेरे लाख चाहने और कोशिशें करने के बावजूद भी मेरा ब्याज पे दिया पैसा वापिस लौट के नहीं आ पा रहा है"…
“ओह!…
“जी!…मंदा ही इतना है आजकल बाज़ार में कि कोई करे भी तो क्या करे?”…
“जी!…लेकिन दूसरों को भी तो सोचना चाहिए कम से कम कि अगले के सर पे भी बाल बचे हुए हैं…उसे भी तेल-कंघी और शीशे वगैरा के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ सकती है"…
“जी!…सो तो है लेकिन…
“दुबे जी!…मेरी बात मानिए तो इस लेकिन-वेकिन को गोली मार के सिर्फ और सिर्फ ऊपरवाले पे विश्वास और भरोसा रखिये….वही आपकी मदद करेगा और इंशा अल्लाह…ज़रूर करेगा"…
“जी!…बात तो की है उससे…पूरे दस परसैंट माँग रहा है गिन के नकद और वो भी एडवांस में"…
“ओह!…दस परसैंट की तो खैर कोई बात नहीं है जी….अगला वसूली के लिए इधर-उधर धक्के भी तो खाएगा”…
“जी!…मेहनत के बदले इनाम से तो मुझे भी कोई परेशानी नहीं है लेकिन काम करने से पहले ही एडवांस?….ये भला कहाँ की तुक हुई?”…
“अब क्या बताएँ दुबे जी?…इन मुय्ये गैंगस्टर्स के मुँह पे खून का स्वाद लग चुका है आजकल…बिना पेशगी लिए कोई काम ही नहीं करते"…
“जी!…लेकिन कोई पराया हो…उस पर भरोसा ना हो…तब तो कोई ऐसी बे ऐतबार भरी बातें करे…पता है अगले को कि उसके नीचे वाले फ्लोर पे रहता हूँ…भाग के कहाँ जाऊँगा?…लेकिन!…नहीं…इन जनाब को पहले पैसे चाहिए”…
“जी!…बेशक सामने वाले के पास कोई जुगाड ना हो…इधर-उधर…हक-मूत के बड़ी मुश्किल से गुज़ारा कर रहा हो लेकिन इन्हें तो पेशगी चाहिए सब कुछ"……
“जी!…भरोसा नहीं है स्सालों को हम पर….सोचते हैं कि हम अपनी बात से फिर जाएंगे…अपने कहे से मुकर जाएंगे"…
“जी!…और खुद अगर कोई काम नहीं कर पाएंगे ढंग से तो बेशर्मों की दीददे फाड़ते हुए उलटा हमें ही आँख दिखा सरेआम गुण्डागर्दी पे उतर आएंगे…निर्लज्ज ना हों तो किसी जगह के"…
“जी!…इसीलिए तो मैं अक्सर कहता रहता हूँ अपनी कहानियों के जरिये कि…हमारे जीवन से सहिष्णुता लुप्त होती जा रही है वगैरा…वगैरा"…
“जी!…
“कोई बात नहीं जी…मैं कौन सा गया वक्त हूँ जो लौट के ना आ सकूँ?….बहारें फिर भी आएंगी अपने चमन में…आप बस…दिल छोटा ना कीजिये"…
“जी!…
“आज आपके पल्ले दमड़ी नहीं है…पैसा नहीं है तो क्या हुआ?…कल को किस्मत आपकी भी ज़रूर करवट लेगी”…
“हाँ!…ज़रूर लेगी…नहीं तो ससुरी…कब तक एक ही तरफ मुँह कर के सोती रहेगी?”…
“जी!…आपका…अपनी मेहनत का…हक-हलाल का कमाया हुआ पैसा है…कोई उसे ऐसे ही थोड़े मुफ्त में हड़प लेगा?”…
“जी!…बड़ी मुश्किल से एक को फाँस…हलाल किया था…लेकिन जब किस्मत ही अपनी झंड हो…पास अपने श्रीखण्ड हो….तो कोई कर भी क्या सकता है?”…
“कोई बात नहीं जी…जब भी आपके पास पैसा आ जाए…मुझे याद कर लीजियेगा…मैं अपनी सभी रचनाओं समेत आपके दरबार में हाज़िर हो जाऊँगा"..
“क्यों शर्मिन्दा कर रहे हैं तनेजा जी…आप भला क्यों मेरे पास आएँगे?…गरज़ तो मेरी है…मुझे ही तो फिल्म बनानी है…मैं ही आ जाऊँगा आपके पास"…
“जी!..ज़रूर….बड़े शौक से…जब जी चाहे"…
“अब जी की क्या बताऊँ तनेजा जी…वो तो आपके साथ फिल्म करने को मरे जा रहा है"…
“जी!…दोनों तरह ही आग लगी है बराबर की"…
“क्या सच?”…
“जी!…बिलकुल"…
“मैं धन्य हो गया प्रभु…मैं धन्य हो गया प्रभु"…
“अरे!…यार…इतना भी ना चढाओ सर पे अपने कि मैं कभी उतर भी ना पाऊं"…
“अरे!…नहीं…बिलकुल सच कह रहा हूँ"…
“क्या सच?”…
“बिलकुल सच?”…
“फिर तो मैं भी धन्य हो गया हूँ आप जैसे हाड-माँस के चलते-फिरते फैन को पाकर"…
“जी!…दरअसल हम दोनों ही धन्य हो गए हैं एक-दूसरे को पाकर"…
“जी!…
हे!….प्रभु…हें पालनहार… हें सृष्टि के रचियता… जिसके सिर ऊपर तू स्वामी…सो दुःख कैसा पावै?”…
“जी!…बिलकुल"…
“अरे!…यार…तुम्हें कहीं देर तो नहीं हो रही?”..
“जी!…बिलकुल नहीं…पूरी तरफ से फ्री होकर ही तो मैंने आपको फोन लगाया है"…
“ओह!…लेकिन मुझे तो देर हो रही है…किसी जगह से अर्जेंट बुलावा आया हुआ है"…
“ओह!…तो फिर मैं फोन रखूँ?”…
“जी!…ज़रूर…बड़े शौक से"…
“ओ.के…बाय"…
“बाय…बाद में बात करते है"…
“जी!…ज़रूर…बाय"….
“बाय"…
(फोन डिस्कनेक्ट हो जाता है)
“उफ्फ!…बहुत पकाया स्साले ने…पट्ठा फिल्म बनाना चाहता है मेरी कहानी पर… ही…ही….ही”…
(कुछ क्षण का मौन और उसके बाद….ट्रिंग-ट्रिंग…ट्रिंग-ट्रिंग…ट्रिंग-ट्रिंग)
“हैलो!…कौन"…
सर!…मैं दुबे…
“जौनपुर से?”…
“जी!…
“कहिये दुबे जी…क्या मौत आन पड़ी जो इतनी जल्दी फिर फोन…(मैंने गुस्से में अपनी बात को अधूरा छोड़ दिया)
“जी!…वो…दरअसल क्या है कि मैंने आपको बताया था ना कि…मेरे कुछ मित्र हैं कार्पोरेट जगत में… उनके बीच अच्छी प्रतिष्ठा है?”…
“जी!…बताया तो था"…
“वोही तो…पता नहीं मेरे दिमाग में इतनी इम्पोर्टेंट बात आते-आते कैसे रह गयी?”....
“क्यों?…क्या हुआ?”..
“ये दोस्त लोग आखिर होते किसलिए हैं?”..
“किसलिए होते हैं?”…
“मुसीबत में एक-दूसरे के लिए काम आने के लिए ही ना?”…
“जी!…
“तो ये भला किस दिन काम आएँगे?”..
“मैं समझा नहीं"…
“बड़े भोले हैं आप…इनको पाल-पास के मैंने ऐसे ही थोड़े ना बड़ा किया है"…
“मैं अब भी नहीं समझा"मेरे स्वर से असमंजस साफ़ झलक रहा था..…
“डब्बू हो तुम"…
“वो कैसे??”…
“ट्यूबलाईट के माफिक देर से जलती है तुम्हारे दिमाग की बत्ती"…
“सच्ची?”…
“हाँ!…सच्ची"…
“ओह!…अच्छा…मैंने कभी नोटिस ही नहीं किया"…
“लेकिन मैंने तो नोटिस कर लिया ना?”…
“क्या?”…
“यही कि ये भले लोग भला किस दिन काम आएँगे जिन्हें मैंने….
“पाल-पास के बड़ा किया है?”..
“जी!…
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“आपकी उम्र कितनी है?”…
“यही कोई सैंतीस-अडतीस साल"…
“और आपके दोस्तों की उम्र कितनी है?”…
“वो भी लगभग मेरे आस-पास के ही हैं"…
“फिर आपने उन्हें कैसे पाल-पास के बड़ा किया?"…
“ओह!….दरअसल कुछ साल पहले तक मैं उनके घर में नौकर था”…
“यू मीन…मुलाजिम?”…
“जी!…ठीक ढंग से उनकी परवरिश करना मेरी ड्यूटी थी”…
“तो फिर आप ऐसे…अचानक इतने अमीर कैसे हो गए?”…
“वही…पुराना….अमानत में खयानत वाला फंडा"…
“ओह!…
“जैसे-जैसे उनका ऐतबार मुझ पर बढ़ता चला गया…मैं चुपचाप उनके घर में सेंध दर सेंध लगाता चला गया"…
“ओह!…दैट्स नाईस"…
“जी! और अब किस्मत का सारा खेल देख लो…किसी भी सूरत या कंडीशन में मैं उनसे कम नहीं हूँ…इक्कीस ही हूँ"…
“जी!…
“वो अब लखपति हैं तो मैं भी लखपति हूँ"…
“जी!….ये बात और है कि आपके लखपति होने से पहले वो ज़रूर करोड़पति रहे होंगे"….
“हें…हें…हें…तनेजा जी….आपके भी सैंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं"…
“जी!…शुक्रिया"…
“जी!…
“अब कुछ मतलब की बात हो जाए?”…
“जी!…ज़रूर"…
“तो फिर कहिये कि दुबारा फिर से फोन क्यों किया है?”…
“आपका दिमाग खाने के लिए"…
“क्क…क्या?”….
“हा…हा…हा…डर गए ना?…..देखा मेरा भी सैंस ऑफ ह्यूमर कितना तगड़ा है?”…
“ये सैंस ऑफ ह्यूमर था?”…
“नहीं…था?”…
“नहीं!…!…
“ओह!…सॉरी….माय मिस्टेक"…
“फोन किसलिए किया था?”…
“मैंने?”…
“नहीं!…मैंने”…
“आपने कब फोन किया?…फोन तो मैंने किया है?”…
“फिर?”…
“फिर क्या?”…
“फिर बताओ ना भाई कि काहे को फोन किया है?”मैं उकताता हुआ बोला…
"आप अगर कहें तो मैं अपने मित्रों से बात करूँ?”…
“कारपोरेट जगत के?”…
“जी!…
“किस सिलसिले में?”..
“यही कि वो पैसा लगाएं"…
“सट्टे में?”…
“नहीं!…आपकी फिल्म में"…
“मैं फिल्म बना रहा हूँ?”…
“नहीं!…मैं"…
“फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हो?”…
“आप ही की कहानी पर तो फिल्म बनानी है"…
“ओह!…
“तो फिर बताएँ ना"…
“क्या?”…
“यही कि मैं अपने दोस्तों से बात करूँ या नहीं?”…
“नेकी और पूछ पूछ?”…
“जी!…शुक्रिया"…
“लेकिन क्या वो मान जाएँगे?”…
“क्यों नहीं मानेगे?…मैं कनविन्स करूँगा उन्हें…भरोसा दिलाऊंगा उन्हें"…..
“प्राडक्ट के बारे में?”…
“नहीं!…आपकी कहानी के बारे में?”..
“ओह!…अच्छा…ये तो बहुत बढ़िया रहेगा"..
“जी!…
“जी!…तो फिर मैं आ जाऊँ?”…
“कहाँ?”…
“आपके घर"…
“किसलिए?”…
“कहानी लेने के लिए”…
“अरे!…उसके लिए इतना कष्ट उठाने की क्या ज़रूरत है?…वो तो मैं ऐसे ही मेल से भेज देता हूँ अभी…कोई अच्छी सी"…
“कर दी ना वही दो टके की फिसड्डियों वाली बात…आप लेखक लोग भी ना बस…जब भी मूतेंगे…छोटी धार ही मूतेंगे"…
“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…
“और समझोगे भी नहीं"…
“क्या मतलब?”…
“अरे!…भय्यी…इतने बड़े कारपोरेट हैं वो लोग…कोई छोटे-मोटे बजट की फिल्लम तो बनाएँगे नहीं”…
“जी!…
“पाँच-सात करोड से ज़्यादा का सट्टा तो वो ऐसे ही खेल जाते हैं हर साल दिवाली पे"…
“ओह!…लेकिन आप तो कह रहे थे कि वो सब लखपति हैं?”…
“तो?”…
“तो फिर ये पाँच-सात करोड का सट्टा …कैसे?”…
“माना कि आज की डेट में वो सब लखपति हैं लेकिन जहाँ…जिस पार्टनर के साथ वो काम करते हैं…वो तो पैदाईशी अरबपति-खरबपति है"…
“तो?”…
“तो क्या?…वहीँ पे टाँके लगते रहते हैं दिन-रात"…
“तो इस हिसाब से तो उन्हें भी अरबपति होना चाहिए"…
“हाँ!…कायदे से होना तो चाहिए लेकिन ये भी तो तुमने सुना होगा कि चोरी का माल हमेशा मोरी के जरिये ही बाहर निकल जाता है?”…
“ओह!…
“स्सालों की तिजोरी में पीछे से मोरी कर कोई सेंध लगा गया"..
“यू मीन…चोरों को मोर मिल गए?”…
“जी!…
“लेकिन मुझे डाउट है"…
“किस बात का?”…
“यही कि मोरी में से ज़्यादा से ज्यादा कोई क्या निकाल लेगा?…अठन्नी…चवन्नी?”…
“जी!…ये बात तो मैंने सोची ही नहीं”….
“वोही तो"…
“और चवन्नी को निकाल के फायदा भी क्या?…ना तो इसे भिखारी ही लेते हैं आजकल और ना ही सी.एन जी या बिग बाज़ार वाले इसे स्वीकार करने की हिम्मत दिखाते हैं"…
“जी!…
“और फिर अब तो ये बकायदा कानूनन बन्द भी हो चुकी है"…
“जी!…लेकिन फिर मोरी कर…वो भी तिजोरी में…इस अठन्नी-चवन्नी को चुरा के फायदा ही क्या?”…
“तुमने ये पुरानी कहावत सुनी नहीं है क्या कि…जिन्दा हाथी एक लाख का तो मरा हुआ सवा लाख का"..
“जी!…सुनी तो है लेकिन इस सन्दर्भ में इस सब की बात करके फायदा क्या?”…
“फायदा क्यों नहीं है?…बहुत फायदा है"…
“कैसे?”…
“चवन्नी उछाल के दिल माँगा जा सकता है"…
“किसका?”…
“तेरी मौसी का"..
“मेरी मौसी का?”…
“हाँ!…
“लेकिन उन्हें तो मरे हुए तो कई साल हो गए"…
“इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम डब्बू हो"…
“वो कैसे?”…
“तुमने वो पुराना वाला गाना नहीं सुना है क्या?”…
“कौन सा?”…
“वही कि…राजा दिल माँगे चवन्नी उछाल के"…
“जी!…सुना तो है"…
“तो फिर दिल कैसे माँगा जाता है?”…
“चवन्नी उछाल के"…
“किसका माँगा जाता है?”…
“किसी का भी…बस…उसे लड़की ज़रूर होना चाहिए हर हालत में"…
“हाँ!…कहीं पता चले कि चवन्नी भी उछल गयी और फ़ोकट में लड़की के बजाय लड़का पीछे पड़ गया…अब बचाते रहो अपना पिछवाड़ा आराम से"…
“हें…हें…हें…बचाते रहो पिछवाड़ा आराम से….आपके भी सैंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं"…
“जी!…शुक्रिया….बेशक बाज़ार में आज की तारीख में चवन्नी की कोई कीमत ना हो..वैल्यू ना हो लेकिन उसने एक भरे-पूरे स्वर्णिम काल को जिया है…उसे बखूबी भोगा है"…
“जी!…सो तो है"…
“जी!…
“तो इसका मतलब आपके हिसाब से उनका पैसा मोरी के जरिये नहीं बल्कि बड़े से मोरे के जरिये बाहर निकला है"…
“ओफकोर्स"…
“ओह!…अय्याश हैं स्साले…सब के सब…समझा-समझा के थक गया हूँ मैं इन हरामखोरों को कि वक्त का कुछ पता नहीं…ऊँट कब किस करवट बैठ जाए…संभल लो अभी से और कुछ आड़े वक्त के लिए भी जोड़ लो"…
“जी!…
“एक्चुअली मैं उनसे बात भी कर चुका हूँ"…
“किस बारे में?”…
“इसी बारे में कि वो आपकी कहानी को लेकर फिल्म बनाएँ"…
“जी!…शुक्रिया लेकिन क्या वो ऐसे…मुझ जैसे अनजान शख्स के ऊपर इतना बड़ा दांव खेलने के लिए राजी हो जाएंगे?”…
“वो आपको नहीं मुझे देख रहे हैं…उनको मुझ पर पूरा विश्वास है और मुझे आपकी लेखनी पर…आपकी सोच पर पूरा विश्वास है"…
“जी!…शुक्रिया"…
“तो फिर मैं कब आऊँ?”…
“जब जी चाहे…आप ही का घर है"…
“परसों आप फ्री हैं?”…
“जी!..बिलकुल फ्री हूँ…और नहीं भी होऊंगा तो आपके लिए छुट्टी कर लूँगा…आखिर आप इतनी दूर से स्पेशल मेरे लिए ही तो आएँगे"…
“नहीं!…ऐसी बात नहीं है…दरअसल मैं वैष्णो माता का बड़ा भक्त हूँ और माता का बुलावा आ गया है कि…बेटे!… आ जा मेरे पास…तेरी राह तक रही हूँ"…
“जी!…माता भी उन्हीं को अपने पास बुलाती है जो उसके बड़े चहेते होते हैं…अब मुझे ही लो…दो बार कटरा तक पहुँच गया लेकिन पता नहीं वहाँ से आगे जाने का मन ही नहीं किया…होटल में पड़ा -पड़ा गर्मी में सडता रहा"…
“ओह!…लेकिन वहाँ तो मौसम बड़ा खुशगवार रहता है"…
“जी!…लेकिन मेरी ही बार उसे मौत पड़नी थी…पट्ठा इतना गरम हुआ…इतना गर्म हुआ कि बस…पूछो मत"…
“जी!…
“तो परसों आप कितने बजे तक पहुँच जाएंगे?”…
“जी!…दो-अढाई तो आराम से बज ही जाएंगे"…
“तो फिर ठीक है…हम लंच एक साथ ही कर लेंगे"…
“ये भी कोई कहने की बात है?…आप ना भी कहते तो भी मैंने ढीठ बन के बिना लंच किए वहाँ से नहीं हिलना था"…
“जी!…ज़रूर….मेरा अहोभाग्य"…
“तो फिर ठीक है…मिलते हैं परसों इस अल्प विराम के बाद"…
“जी!…ज़रूर”…
“ओ.के…बाय"…
“बाय…
“एक मिनट"…
“हुणण केहड़ी गोली वज्ज गय्यी?”…
“आपने कुछ कहा?”…
“नन्नहीं तो”…
“ओह!…मुझे लगा कि शायद आपने कुछ कहा"…
“न्न्…..नहीं तो"…
“ओ.के…तो परसों मेरे आने से पहले आप एक काम करके रखियेगा कि अब तक आपकी कहानियों की या कविताओं की जितनी भी किताबें छप चुकी हैं…उनकी एक-एक हार्ड बाउंड कॉपी को अच्छे से गिफ्ट पैक में रैप करके तैयार रखिएगा….मैं ज़्यादा देर रुकुंगा नहीं"…
“क्क….किताब?”…
“जी!…किताब…क्यों?…क्या हुआ?”…
“जी!…दरअसल…अब तक मेरी कोई किताब ही नहीं छपी है”…
“क्क…क्या?”…
“जी!..जो कुछ भी है…सब का सब नैट पर विद्यमान है…उपलब्ध है"…
“ओह!…श्श…शिट…ट….फिर तो हो गया काम….गयी भैंस अब तो पानी में….आप मुझे पहले नहीं बता सकते थे?”…
“क्या?”…
“यही कि आप निखट्टू हो?”…
“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…
“कितने साल हो गए हैं आपको नैट पर इस साहित्य की खर-पतवार को काटते-छांटते और छीलते हुए?”…
“यही कोई पाँच-सात साल"…
“और इन पाँच-सात सालों में आप कितनी कहानियाँ लिख चुके होंगे?”…
“ठीक से तो याद नहीं लेकिन यही कोई डेढ़-दो सौ तो हो ही जाएँगी कम से कम"…
“और इनमें से कितनो पर कोई सीरियल या फिल्म बनाई जा सकती है?”…
“अब ये मैं कैसे बता सकता हूँ?”…
“ये मैं बता सकता हूँ"…
“कैसे?”…
“कैसे क्या?…बहुत बड़ा फैन हूँ मैं आपका”….
“जी!…सो तो है"…
“मेरे हिसाब से तो कम से कम आपके आधे मैटीरियल पे फिल्म नहीं तो कम से कम कामेडी सीरियल तो बनाए ही जा सकते हैं कुछ दे-ले के"…
“जी!…
“तरस आ रहा है मुझे आप पर और आपकी नासमझी भरी सोच पर"…
“वो कैसे??”…
“इतने तगड़े हुनर…इतने बढ़िया टैलेंट के होने के बावजूद भी आपने कभी सोचा ही नहीं कि आपकी भी कोई किताब…कोई संग्रह वगैरा आना चाहिए मार्किट में?”…
“जी!…सोचा है ना…सोचा क्यों नहीं है"…
“वाह!…बहुत बढ़िया…ऐसे महज़ सोचने से सारे काम बनें और बनते चले जाएँ तो आज अम्बानी के सारे सितारे ज़मीन पर और उसकी सारी दुनिया मेरी मुट्ठी में होती"…
“जी!…
“सिर्फ सोचने भर से ही अगर सारे काम बनते चले जाएँ तो फिर कहना ही क्या?"…
“जी!…
“खाली जी-जी ही करते रहते हो हमेशा या फिर अपने सपनों को हकीकत में पाने के लिए कुछ प्रयास-वर्यास भी करते हो?”…
“करता हूँ ना…क्यों नहीं करता हूँ?…अभी पिछले हफ्ते ही तो उस भारत के वासी का फोन आया था"…
“किस सिलसिले में?”……
“पूछ रहा था कि क्या आप अपनी पुस्तक छपवाने में इंटरैस्टिड हो?”…
“तो तुमने क्या कहा?”…
“यही कि…हाँ…हूँ…बिलकुल हूँ"…
“गुड!…वैरी गुड….तो फिर उसने क्या कहा?”…
“यही कि दो सौ पेज की आपकी किताब छाप देंगे हार्ड बाउंड वाली"…
“तुमने उसको मैटीरियल दे दिया?”…
“नहीं!….
“क्यों?”….
“बस!…ऐसे ही"…
“हुँह!…बस…ऐसे ही…हद हो गयी ये तो लापरवाही की…सुनहरा मौक़ा खुद चल कर तुम्हारे पास आ रहा है और तुम हो कि उसे लात मार इतराए फिर रहे हो"…
“नहीं!…ऐसी बात नहीं है"…
“तो फिर कैसी बात है?”…
“दरअसल!…वो चालीस हज़ार के लिए कह रहा था”….
“एडवांस में?”…
“जी!…
“और तुम्हें क्या चाहिए था इसके अलावा?….वडेवें?”…
“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…
“तुम्हारी पहली किताब छप रही थी ना ये?”…
“जी!…
“और तुमने लात मार दी?”…
“किताब को?”…
“नहीं!…पैसे को"…
नोट: हिन्दी ब्लॉगजगत की एक सच्ची घटना और कल्पना का ये समिश्रण आपको कैसा लगा?…ज़रूर बताएँ |
“पैसे को तो मैं भला क्यों लात मारूंगा…पैसे को तो उसने लात मारी है….अच्छे-भले बीस हज़ार के लिए मैंने हाँ कर दी थी लेकिन वो पट्ठा….
“चालीस हज़ार के बिना नहीं मान रहा था?”…
“जी!…
“भय्यी तुम कुछ भी कहो लेकिन मैं तो इसे उसका बड़प्पन और तुम्हारी मूर्खता ही कहूँगा कि तुमने अच्छे-भले आते हुए चालीस हज़ार को लात मार दी और उसने अपने बचते हुए बीस हज़ार को"…
“ओSsss…हैलो…उसने कहाँ से लात मार दी?…ये तो मैं ही था जिसने उसके ऑफर को लात मार दी"…
“बहुत बढ़िया काम किया"…
“जी!…बिलकुल"…
“बिलकुल के बच्चे…इतना भी ना गुमान में उड़ कि पैसे की कीमत को…उसकी अहमियत को समझने लायक भी ना रह पाए"…
“मैं?…मैं नहीं समझता…पैसे की कीमत को…उसकी अहमियत को?”…
“हाँ!…तुम पागल हो…बेवाकूफ हो….अच्छे-भले आते हुए चालीस हज़ार को ठोकर मार दी….इसके अलावा और क्या चाहिए था तुम्हें?…वडेवें?”…
“ओSsss…हैलो…फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन….चालीस हज़ार आ नहीं रहे थे बल्कि जा रहे थे"…
“जा रहे थे?”…
“हाँ!…जा रहे थे"…
“सट्टे में?”…
“मुझे क्या पता?”…
“तुम्हें नहीं पता?”…
“नहीं!…
“फिर किसे पता है?”…
“उसे जो मुझसे चालीस हज़ार माँग रहा था"…
“तुमने किसी का कर्जा देना था?”…
“बिलकुल नहीं…ऐसा बेहूदा शौक नहीं पाला है मैंने"…
“तो फिर कोई रंडीबाज़ी या फिर इससे मिलता-जुलता शौक?”…
“उसे?”…
“नहीं!…तुम्हें"…
“बिलकुल नहीं"…
“फिर कहाँ जा रहे थे पैसे?”…
“उसी भारत के वासी के जेब में"…
“क्यों?”…
“क्यों क्या?…हक बनता है उसका?”…
“तुम्हें लूटना?”…
“हाँ!…
“क्यों?”…
“क्यों?…क्या?…सभी पब्लिशर ऐसा कर रहे हैं"…
“कैसा कर रहे हैं?”…
“लेखकों को लूट रहे हैं"…
“उनकी रचनाएँ लेकर?”…
“सिर्फ रचनाएँ लेकर ही नहीं बल्कि उनके साथ-साथ बड़े जतन के साथ कमाया गया उनका पैसा भी लूट रहे हैं"…
“उन्हें रायल्टी ना देकर?”…
“अरे!…रायल्टी तो बहुत दूर की बात है…उससे पहले भी तो कुछ दें"…
“वो चालीस हज़ार दे तो रहा था"…
“तुम पागल हो?”…
“कैसे?”…
“वो चालीस हज़ार दे नहीं बल्कि ले रहा था"…
“तुमसे?”…
“हाँ!…
“विश्वास नहीं हो रहा"…
“किस बात का?”..
“इसी बात का कि तुम इतने बड़े भुसन्ड हो"…
“इसलिए कि मैंने उसका ऑफर ठुकरा दिया?”…
“नहीं!…बल्कि इसलिए कि तुम उसे बीस हज़ार देने के लिए तैयार हो गए थे"…
“और क्या करता?…जितनी जमा-पूँजी मैंने इस मद के लिए अलग से रख छोड़ी थी…उतनी ऑफर कर दी"…
“यही तो गलत किया तुमने"…
“हाँ-हाँ तुम तो यही कहोगे कि गलत किया”…
“और नहीं तो क्या?”…
“तो क्या तुम्हारे हिसाब से मैं अपनी किताब छपवाने के लिए कहीं डाके मारता या फिर चोरी करता?”…
“अब तो पक्का यकीन हो चला है”…
“किस बात का?”…
“इसी बात का कि तुम पक्के भुसन्ड हो"…
“भुसन्ड माने?”…
“पता नहीं"…
“पता नहीं?”…
“हाँ!…
“लेकिन क्यों?”…
“ऐसे ही निकल गया था"…
“मुँह से?”…
“हाँ!…
“ओ.के…तो तुम्हारे कहने का मतलब है कि मैं पागल हूँ?”…
“चलो!…शुक्र है…
“किस बात का?”…
“तुम माने तो सही"…
“क्या?”…
“यही कि तुम पागल हो…महा पागल"…
“वो कैसे?”…
“पागल नहीं तो और क्या हो तुम?”…
“क्या हूँ?”…
“भुसन्ड"…
“कैसे?”…
“कोई तुम्हें ऐसे…सरेआम पागल बनाने की कोशिश करता रहा और तुम इतने अहमक कि चुपचाप होते रहे?”..
“जी…
“क्या जी?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“वो तुमसे तुम्हारी कहानियाँ किताब छपवाने के लिए माँग रहा था जैसे मैं फिल्म बनाने के लिए माँग रहा था?”…
“जी!…
“और तुम उसे देने के लिए राजी भी हो गए थे जैसे मुझे भी फिल्म के लिए अपनी कहानी देने के लिए राजी हो गए थे?”…
“जी!…लेकिन वो तो चालीस हज़ार माँग रहा था"…
“और तुम उसे बीस हज़ार में पटाने की कोशिश कर रहे थे?”…
“जी!…
“तो तुम मुझे फिल्म बनाने की एवज में कितने दोगे?”….
“एक मिनट!…लैट मी थिंक…घर में नकद और बैंक का बचा-खुचा बैलेंस मिलाकर कुल जमा हो जाएंगे….…
“इसीलिए मैं तुम्हें डब्बू कहता हूँ"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“अरे बेवाकूफ…मैं या मेरे अलावा और कोई भी अगर तुमसे तुम्हारी कहानी किसी फिल्म …टी.वी सीरियल या किताब वगैरा के लिए मांगता है तो वो तुम्हें पैसे देगा ना कि तुम उसे"….
“क्क…क्या?…क्या कह रहे हैं आप?”…
“सही कह रहा हूँ…अगर तुम्हारी कहानी पे फिल्म…किताब या सीरियल बनाने से मैं या कोई और मुनाफा कमाता है तो उसमें एक हिस्सा तो तुम्हारा भी बनता है मेरे दोस्त”…
“ओह!…मैं तो सोच रहा था कि…एक बार बस किसी तरह से नाम हो जाए तो सब अपने आप देने लग जाएंगे"…
“अपने आप तो बेटे कुतिया भी अपने कत्तूरों को दूध नहीं पिलाती है…फिर तुम्हारी कहानियाँ तो इनसानों ने अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करनी हैं"…
“जी!…सो तो है"…
“अब क्या सोचा है?”…
“किस बारे में?”…
“यही किताब-विताब छपवाने के बारे में"…
“कोई ढंग का पब्लिशर मिल जाए तो…
“हुँह!…मिल गया…ढंग का पब्लिशर तो तुम्हें इस जन्म में ज़रूर मिल जाएगा?”…
“क्या सच?”…
“हाँ!…तब तक तुम बुड्ढे हो मर लोगे"…
“ओह!…
“ज़रा सी अक्ल है नहीं और बातें करेंगे"…
“अब यार इसमें मैं क्या कर सकता हूँ अगर कोई…..
“डूब के तो मर सकते हो?…या फिर मुझे ही तुम्हें धक्का देना पड़ेगा?”…
“पानी में?”…
“पानी मिल जाए तो पानी में नहीं तो इस साहित्य के महाकुम्भ में?”..
“वो कैसे?”…
“तुम्हारी किताब छपवा के"…
“मुफ्त में?”…
“नहीं!…पैसों में?”…
“फिर तुम में और उस भारत के वासी में फर्क ही क्या रहा गया?…तुम भी पैसे माँग रहे हो और वो भी पैसे माँग रहा था"…
“ओSsssहैलो…मैं पैसे माँग नहीं रहा बल्कि देने की बात कर रहा हूँ"…
“क्या सच में?”…
“हाँ!…
“कितने दोगे?”…
“कितने चाहिए?”…
“पैसे से भला किसी का पेट भरा है क्या आज तक?…जितने मन में आए…दे दो"…
“साठ हज़ार ठीक हैं?”…
“कुछ कम नहीं हैं?”…
“कम तो हैं लेकिन…..तुम्हें बीस परसेंट की रायल्टी भी तो मिलेगी अलग से"…
“ओह!…तो फिर ठीक है"….
“कब दे रहे हो?”…
“मैं दूंगा?”…
“और नहीं तो कौन देगा?”…
“लेकिन अभी-अभी तो तुमने कहा कि तुम मुझे साठ हज़ार दोगे"…
“हाँ!…दूंगा"…
“तो?”…
“तो क्या मुफ्त में दूँगा?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“अरे!…भले मानस मैं तुम्हें साठ हज़ार दूँगा तो उसके बदले में तुम मुझे अपनी कहानियाँ नहीं दोगे क्या?”…
“बिलकुल दूँगा"…
“वही तो मैं माँग रहा था तुमसे"…
“कब?”…
“जब मैंने कहा था कि …कब दे रहे हो?”…
“ओह!…मैंने तो सोचा कि उलटा आप मुझसे पैसे माँग रहे हैं"…
“इसीलिए तो मैं तुम्हें कहता हूँ"…
“भुसन्ड?”…
“हाँ!…भुसन्ड"…
“ओह!…अच्छा"…
“क्या अच्छा?”…
“यही कि वाकयी में मैं भुसन्ड हूँ…ना कम ना ज्यादा…पूरे एक नंबर का भुसन्ड"…
“हां…हा…हा…हा…
“एक काम करते हैं"…
“जी!…आज से ही आपकी किताब का काम शुरू कर देते हैं"…
“जी!…(मैं अलर्ट होता हुआ बोला)
“एक ग्राफिक डिजायनर है मेरी पहचान का…उसे ही कवर डिजाईन करने के काम पे लगा देता हूँ…दो-तीन घंटे में तैयार कर देगा"…
“जी…
“दो-चार अपने…खुद के निजी चेले-चपाटे हैं…लगे हाथ उनके हाथ की खुजली भी मिटा देता हूँ"…
“उनसे मार खा के?”…
“पागल हो गया है क्या?…मैं भला मार क्यों खाने लगा?…मार तो वो खाएंगे अगर काम ठीक से ना किया तो"…
“इससे तो आपके हाथ की खुजली मिटेगी?”…
“तो?”…
“लेकिन आप तो उनके हाथ की खुजली मिटाने की बात कर रहे थे"…
“अरे!…पागल…उन्हें कम्प्युटर पे लिखने का बड़ा शौक है"…
“तो?”…
“लिखने के लिए कुछ नहीं मिलता तो ऐसे ही खाली बैठे-बैठे कीबोर्ड पर बेफाल्तू में फोक्की उंगलियां चलाते रहते हैं"…
“तो?”..
“तो क्या?…उन्हें लिखने के लिए तुम्हारा मैटर पकड़ा देंगे"…
“लेकिन मेरा मैटर तो आलरेडी लिखा-लिखाया है"…
“इसीलिए तो मैं तुम्हें भुसन्ड कहता हूँ"…
“वो कैसे?”…
“अरे!…पागल तुम जो ब्लॉग पर लिखते हो…वो यूनीकोड में लिखा जाता है"…
“जी!…
“और जिन फॉण्टस की प्रैस में ज़रूरत होती है…वो अलग किस्म के होते हैं"…
“ओह!…
“उन्हीं ससुरों को सारा मैटर फिर से लिखने के लिए दे देता हूँ”…
“जी!…लेकिन क्या फॉण्टस वगैरा को परिवर्तित नहीं किया जा सकता है?”…
“किया जा सकता है ना…क्यों नहीं किया जा सकता है?”…
“वोही तो"…
“लेकिन कुछ गलतियाँ अगर पहले रह गयी होंगी भूलवश तो उन्हें भी तो दूर करना पड़ेगा"…
“जी!…
“स्ट्रिक्टली हिदायत दे दूंगा उनको कि जल्द से जल्द सारा काम पूरा करें…हमें इसी हफ्ते में किसी बड़े लेखक या साहित्यकार से तनेजा जी की किताब का विमोचन करवाना है”…
“क्या सच?…मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा है कि कोई बड़ा साहित्यकार मेरी….
“कहो तो चक्रपाणि से समीक्षा भी लिखवा दूँ?”…
“क्या ऐसा सचमुच में हो सकता है?”…
“अरे!…हो क्यों नहीं सकता है?…बिलकुल हो सकता है"…
“व्व…वो इतने बड़े लेखक…साहित्यकार"…
“उन्हें बड़ा किसने बनाया?”…
“किसने?”…
“मैंने"…
“क्या सच?”…
“खुद उन्हीं के मुँह से सुन लेना जब वो तुम्हारी किताब का विमोचन करने के लिए दिल्ली आएँगे”…
“क्या सच?…सच में वो मेरी किताब का विमोचन करने दिल्ली आएँगे?”…
“और नहीं तो क्या?”…
“लेकिन वो तो लन्दन में रह कर…..
“तो क्या हुआ?…आने-जाने की टिकट ही तो भिजवानी पड़ेगी पाँच दिन के फाईव स्टार होटल में स्टे के साथ"…
“फ्फ…फाईव स्टार होटल में….स्टे के साथ?”…
“और नहीं तो क्या अपने साथ…अपने घर में ही ठहराओगे उन्हें?”…
“व्व….वो मान जाएंगे?”…
“अरे!…वो बेशक भले ही मान भी जाए लेकिन मैं तुम्हें कभी भी उसे तुम्हारे साथ…तुम्हारे ही घर में ठहरने नहीं दूंगा"…
“लेकिन क्यों?..इतनी बड़ी हस्ती तो हैं वो…उनके मेरे घर में ठहरने से…….
“बड़ी हस्ती है तो क्या?…हमारे सर पे चढ के कुलांचे भरेगा?…ऐसे फिरंगपने के मुरीद लोगों को ज्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए…इनसे…
“एड्स हो जाता है?”…
“एड्स का तो पता नहीं लेकिन हाँ…बवासीर का खतरा ज़रूर बना रहता है इनके आस-पास रहने से…ससुरे…ना खुद ठीक से धोएंगे और ना ही ठीक से साफ़ करेंगे”…
“जी!…उलटा दूसरों के भी पाक-साफ़ दामन को ऐसा करने की प्रेरणा देकर दागदार करने की कोशिश करेंगे"…
“जी!..बिलकुल….मैं तो कहता हूँ कि आग लगा देनी चाहिए इन सैनीटेरी नेपकिनों को…पेपर नेपकिनों को"…
“इस्तेमाल करने के बाद?”…
“नहीं!…इस्तेमाल करने से पहले"…
“लेकिन इससे तो पोल्यूशन का स्तर…प्रदूषण का स्तर और ऊँचा….और ऊँचा होता चला जाएगा"…
“तो अभी कौन सा कम हो रहा है प्रदूषण?….जानते भी हो कि कितने लाख-करोड़ पेड़ हर साल शहीद हो जाते हैं इन फिरंगियों के पिछवाड़े साफ़ करते-करते?…
“जी!…लेकिन….
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं…एक बार कह दिया तो कह दिया…तुम उसे अपने घर में नहीं ठहराओगे"…
“जी!…लेकिन…
“तुम्हें अपनी किताब छपवानी है कि नहीं?”…
“जी!…छपवानी तो है लेकिन….
“फिर लेकिन?”…
“ओह!…सॉरी…
“दैट साउण्डज बैटर"…
“तो ठीक है…जैसा आप उचित समझें"…
“अब की ना तुमने समझदारी वाली बात"…
“जी!…
“अच्छा…अब मैं फोन रख रहा हूँ…पढ़ने वाले भी सोच रहे होंगे कि इतना लंबा फोन?”…
“जी!…सोच तो मैं भी यही रहा था कि….
“कि कोई इतनी देर तक फोन पे बात कैसे कर सकता है?”…
“जी!…अब तक आपका बिल ही इतना आ गया होगा कि….
“अरे!……बिल की चिंता तू ना कर…और बस…चुपचाप मौज कर….यहाँ का लाईनमैन अपना जिगरी दोस्त है….किसी ना किसी घर की लाइन अपने आप मेरे घर में ट्रांसफर कर देता है हर रोज”…
“ओह!…लेकिन इस चक्कर में कहीं उसकी नौकरी चली गयी तो…मुझे तो डर लग रहा है"…
“अरे!…काहे का डर?…कल की जाती बेशक आज चली जाए…उसे कोई परवाह नहीं"…
“क्या मतलब?”…
“ससुरे को ब्लोगिंग के कीड़े ने जो काट रखा है”…
“तो?”…
“सब कुछ छोड़-छाड के फुल टाईम लेखक बनने की सोच रहा है"…
“और उसकी सोच को हवा कौन दे रहा है?”मेरा शरारत भरा स्वर…
“ऑफकोर्स मैं …और भला कौन?”…
“दैट्स नाईस ना?"…
“जी!…बिलकुल"…
“तो मैं चलूँ?…बहुत काम निबटाने हैं”…
“जी!…एक हफ्ते का ही तो समय बचा है अब"…
“जी!…
“ठीक है तो फिर चलता हूँ और लौट के पुन: जल्दी ही मिलता हूँ…फेस टू फेस"…
“जी!…फेस टू फेस"…
“ओ.के…बाय”…
“ब्बाय…टेक केयर"…
“जी!…
(फोन डिस्कनेक्ट हो जाता है)…
क्रमश:
दोस्तों….हिन्दी ब्लोगजगत में हुई एक दुखद एवं निंदनीय घटना को मैंने अपनी इस कहानी का आधार बनाया है…उम्मीद है कि आपको मेरा ये अंदाज़ भी पसंद आएगा…कहानी के सभी पहलुओं और मुद्दों को समेटने के चक्कर में कहानी कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गई है..अत: इसे दो भागों में दिया जा रहा है …असली मुद्दे को…असली बात को जानने के लिए आप सभी से करबद्ध निवेदन है कि जहाँ तक संभव हो सके…इस कहानी के दूसरे भाग को भी पढ़ें …धन्यवाद राजीव तनेजा |
27 comments:
राजीव जी व्यंग के साथ सचाई का बहुत अच्छा तालमेल बिठाया है आपने ...आपकी अगली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा
और ऐसे लोगो का पर्दाफाश होना बहुत जरुरी भी है
आप भी लम्बी-लम्बी कहाने लिखने के आदि हो चुके हैं और हम भी पढने के। दिल है कि मानता नहीं है। इसे लघु उपन्यास की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
धोखाधड़ी करने वाले लुच्चों को बेनकाब करना ही चाहिए जिससे अन्य लोग इनकी धोखाधड़ी के शिकार न हों।
अपने आपको कारपोरेट जगत का करीबी मित्र बताकर लूट तंत्र विकसित करने वाले इस महातमा की छित्तर परेड़ भी होनी चाहिए चौराहे पर।
व्यंग्य विधा कमाल की है। जिसके माध्यम से आपने कल्पना मिश्रित सच्चाई सामने लाई। इस तरह के और भी लुच्चे हैं। जो प्रेत बनकर फ़िर रहे हैं।
अगली कड़ी का इंतजार है।
आभार
ओह फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया !
मेरा तो ख़्याल है कि इस जौनपुरिये को बुला ही लो, साले को लूट के धकिया देंगे.
आगे का इंतज़ार है
व्यंग्य के माध्यम से आपने बहुत सी सच्चाईयों को सामने ला दिया है.... आपके सुन्दर लेखन ने इसकी रोचकता को भी बरक़रार रखा है...
अगली कड़ी का इंतजार है........
भाई साहब मामला तो खैर अब अगली पोस्ट में ही खुलेगा ... पर मान गए आपको ... जय हो !
आपकी यह सुन्दर व्यंग्यपरक रचना मंगलवार के चर्चा मंच पर भी होगी आपसे अनुरोध है कि आप वहाँ आयें और अपनी अनमोल राय से अवगत कराएं
-ग़ाफ़िल
Hats off Raajeev. wonderful. and yes ye saleeke se ek laghu upanyaas ki haqdaar hai. hats off again. ach ye hai ki main khud tumhe kal phone karke yahee karne ki kahne wala tha. is par thodi aur mehnat karo kuchh cartoon bhi jud jaye to ye avismarneeya vyang ban jaayega. blog jagam mai ghuse aise kameeno ka pardafaas hona hi chahiye.
आजकल ऐसी घटना रोक किसी ना किसी के शत कोई ना कोई कर रहा है.......प्रभावशाली लेखन के लिए राजीव जी शुक्रिया !
यह जौन है तौन जरूर जौनपुरियों को बदनाम कर रहा है और दिल्ली में छिपा हुआ होगा। पोल खोल देना, खाल हम खोल लेंगे उसकी। उसको तो आपने ही लूट लिया अपनी कलम से, आपका मुरीद भी हो गया होगा। अब किताब तो छापनी ही पड़ेगी उस हुडृकचुल्लू को और यह भारत के वासी का नाम तो सुना सा लग रहा है। वैसे रूपये मांगना जुर्म नहीं है राजीव भाई। आखिर प्रत्येक काम में रूपये खर्च होते हैं। आप उसको हजार हजार के नोटों में पेमेंट देना और कह देना कि एक प्रति ऑरीजनल दे दे किताब की, और बाकी प्रतियां फोटोस्टेट दे दे, इसलिए उसे नोटों की फोटोस्टेट लेने में भी गुरेज नहीं होगा। उसकी जेब में घुसेड़ देना सीधा तान के हजार के नोट और उसकी फोटूस्टेट को। किरदारों के असली नाम भी बतलाएं ताकि हम भी सावधान हो जाएं आजकल कोई हमारी भी पुस्तक छापने के चक्कर में घर के चक्कर लगा रहा है। कहीं यह वही तोनहीं।
ऐसी घटनाओं को बेनकाब किया जाना जरुरी है ताकि आईंदा लोग इस तरह शिकार न हों. सार्थक कदम...आगे इन्तजार है...
“हें…हें…हें…तनेजा जी….आपके भी सैंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं
गजब की प्रस्तुति रहती है आपकी। कहां कहां से खोज लाते हे आप भी।
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अगर यह सच्ची घटना है तो नाम लेकर उजागर किया जाना चाहिये, सबूत के साथ, ताकि और कोई उस चक्र में ना फंस सके. वरना लिखने का एक अंदाज है तो कोई बात नहीं. बढिया नाटक है.
@ Vibha Rani जी...
सारे सबूत हैं..समय आने पर नाम को भी उजागर किया जाएगा सबूतों के साथ...
dusare bhag ka intazaar hai......
uff...bachche ki jaan loge kya taneja jee..:D
कहानी लंबी हो गई है.परन्तु लोगों को आगाह करने के लिए अच्छा काम किया है आपने.
dushton ko benaqab karna zaruri hai,apko badhai ki aap aisa karne ja rahe hain,vyang ke madhyam se hi kyun na sahi,sachhchai ko samne rakhna badi himmat ka kam hai,agli kadi kaa intezar hai,waise main bhi kai saalon se kalam ghees raha hun,meri bhi ek bhi kitaab nahi chhap paye hai,ek ki tayaari hai magar adhuro padi hai,us sajjan ko mera bhi add de denamisi bahane hum bhi darshan laabh kar lenge.hhahaahahahaaha,waise likh bhi aapne bahut mazedar hai,badhai aapko.
बाल बाल बचे
वैसे तनेजा साब कुछ तो मज़बूरियां रहीं होंगी
प्रभावशाली प्रस्तुति ||
बधाई ||
वाह तनेजा जी .....क्या कहना!
क्या बात है... बधाई
jaroor padenge
माफ कीजिएगा मुझे बहुत लंबी लगी पोस्ट , पूरी पढ़ ही नहीं पाया |
सादर
दिव्य प्रकाश दुबे
bahut sundar...dilchasp...
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