अंधेरे कोने@ फेसबुक डॉट कॉम


जिस तरह एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हम लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए आपस में बातचीत का सहारा लेते हैं। उसी तरह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने एवं उनका अधिक से अधिक लोगो  तक संप्रेषण करने के लिए कवि तथा लेखक,गद्य अथवा पद्य, जिस भी शैली में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सहज महसूस करते हैं, को ही अपनी मूल विधा के रूप में अपनाते हैं। मगर कई बार जब अपनी मूल विधा में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में खुद को असमर्थ पाते हैं भले ही इसकी वजह विषय का व्यापक होना हो अथवा अत्यंत संकुचित होना हो। तब अपनी मूल शैली को बदल, वे गद्य से पद्य या फिर पद्य से गद्य में अपने भावों को स्थानांतरित कर देते हैं।

ऐसे में पद्य छोड़ कर जब कोई कवि गद्य के क्षेत्र में उतरता है तो उम्मीद की जाती है कि उसकी लेखनी में भी उसकी अपनी शैली याने के पद्य की ही किसी ना किसी रूप में बानगी देखने को मिलेगी और उस पर भी अगर वह कवि, वीर रस याने के ओज का कवि होगा तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके गद्य लेखन में भी जोश खरोश और ओज की कोई ना कोई बात अवश्य होगी। मगर हमें आश्चर्यचकित हो तब आवाक रह जाना पड़ता है जब अपनी मूल विधा याने के पद्य का लेशमात्र भी हमें उनके गद्य में दिखाई नहीं देता।

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ ओज के जाने माने मंचीय कवि अरविंद पथिक जी और उनके लिखे नए उपन्यास "अंधेरे कोने@फेसबुक डॉट कॉम" की। पहले उपन्यास और फिर उसके लेखक के रूप में अरविंद पथिक जी के नाम को देख एक सहज सी जिज्ञासा मन में उठी कि आखिर एक ओज के कवि को उपन्यास जैसी कठिन विधा में उतरने के लिए बाध्य क्यों होना पड़ा? दरअसल उपन्यास का कैनवास ही इतना बड़ा एवं विस्तृत होता है कि  उसमें हमें शब्दों से खेलने के लिए एक विस्तृत एवं व्यापक विषय के साथ साथ उसमें मौजूद ढेरों अन्य आयामों की आवश्यकता होती है। 

जिस तरह पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं ठीक उसी तरह उपन्यास के शुरुआती पन्नों को पढ़ने से ही यह आभास होने लगता है लेखक इस क्षेत्र में भी लंबी रेस का घोड़ा साबित होने वाला है। भावुकता से लबरेज़ इस उपन्यास में कहानी है फेसबुक चैट/मैसेंजर से शुरू हुई एक हिंदू-मुस्लिम प्रेम कहानी की। इसमें कहानी है एक ऐसे प्रौढ़ प्रोफेसर की जो अपनी विद्वता...अपने ज्ञान, अपनी तर्कशीलता, अपनी वाकपटुता, अपने व्याख्यानों एवं अपने वक्तव्यों  की वजह से शहर के बुद्धिजीवी वर्ग में एक खासा अहम स्थान रखने के बावजूद भी अपने से बहुत छोटी एक युवती के प्रेम में गिरफ्त हो जाता है। इसमें कहानी है ज़ोया खान नाम की एक मुस्लिम युवती की जो अपने से 15 साल बड़े एक प्रोफेसर को अपना सब कुछ मान चुकी है और उसके लिए हर बंधन...हर पाबंदी से किसी भी कीमत पर निबटने को आमादा है।

इसमें कहानी है फेसबुक जैसे सोशल मीडिया की वजह से कुकुरमुत्तों के माफिक जगह जगह उपजते एवं ध्वस्त होते प्रेम संबंधों की। इसमें कहानी है उज्जवल भविष्य की चाह में बीसियों लाख की रिश्वत देने को तैयार युवक और  शिक्षा माफिया की। इसमें कहानी है सोशल मीडिया के आकर्षण और उससे मोहभंग की। इसमें कहानी है प्यार, नफरत और फिर उमड़ते  प्यार की। इसमें कहानी है ज़िम्मेदारी का एहसास होने पर अपने वादे से पीछे हट अपने प्यार को नकारने की...अपनी भूल को सुधारने और अपने प्रायश्चित की। इसमें कहानी है अलग अलग जी रहे प्रेमी युगल को जोड़ने वाली लेखक रूपी कड़ी की।

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त एक अलग तरह का प्रयोग देखने को मिला कि  पूरी कहानी कृष्ण और मीरा के अमिट प्रेम की शक्ल अख़्तियार करते हुए लगभग ना के बराबर वर्तमान या फिर पुरानी चिट्ठियों, डायरियों अथवा फ्लैशबैक के माध्यम से आगे पीछे चलती हुई कब संपूर्ण कहानी का रूप धर लेती है...आपको पता भी नहीं चलता। 

उपन्यास की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है और पाठक को अपनी रौ में अपने साथ बहाए ले चलने में पूरी तरह से सक्षम है। अंत तक रोचकता बनी रहती है। हालांकि कुछ जगहों पर एक पाठक के नज़रिए से मुझे कहानी थोड़ी सी खिंची हुई सी भी लगी। उपन्यास में दिए गए प्रोफ़ेसर के व्याख्यानों को थोड़ा छोटा या फिर जड़ से ही समाप्त किया जा सकता था लेकिन उन्हें मेरे ख्याल से उपन्यास के मुख्य किरदार को डवैलप करने के लिहाज़ से रखा गया हो सकता है या फिर उपन्यास की औसत पृष्ठ संख्या को पूरा करने के हिसाब से भी शायद कहानी को बढ़ाया गया हो। 

उपन्यास में लेखक की भूमिका पर नज़र दौड़ाने से पता चलता है कि यह उपन्यास उन्होंने 2019 में लिखा और कहानी के माध्यम से हमें पता चलता है कि उसमें पिछले 15 से 20 वर्षों की कहानी को समाहित किया गया है। यहाँ पर इस हिसाब से देखा जाए तो उपन्यास में तथ्यात्मक खामी नज़र आती है कि...कहानी की शुरुआत सन 2000 के आसपास होनी चाहिए जबकि असलियत में फेसबुक की स्थापना ही सन 2004 में पहली बार हुई थी। इस खामी को अगर छोड़ भी दें तो दूसरी ग़लती यह दिखाई देती है कि फेसबुक ने पहली बार चैट की सुविधा सन 2008 में शुरू की थी और उसके मैसेंजर वाले वर्ज़न को महज़ 8 साल और दस महीने पहले ही पहली बार लांच किया गया था। जब आप आप अपनी कहानी में कहीं किसी चीज़ का प्रमाणिक ढंग से उल्लेख कर रहे होते हैं  तो आपका तथ्यात्मक रूप से भी सही होना बेहद ज़रूरी हो जाता है। उम्मीद है कि इस उपन्यास के आने वाले संस्करणों में इस कमी को दूर करने की तरफ लेखक तथा प्रकाशक, दोनों ध्यान देंगे।

160 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है यश पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य ₹199/- मात्र रखा गया है जो कि उपन्यास की क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए जायज़ है।आने वाले भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

2 comments:

डॉ. जेन्नी शबनम said...

बहुत अच्छी समीक्षा की है आपने। आपकी समीक्षा से इस उपन्यास की पठनीयता बढेगी। जिन त्रुटियों की चर्चा आपने की है लेखक उसे ज़रूर सुधारेंगे।

राजीव तनेजा said...

शुक्रिया

 
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