फुगाटी का जूता- मनीष वैद्य

जब कभी ज़माने की विद्रूपताएं एवं विसंगतियां हमारे मन मस्तिष्क को उद्वेलित कर उसमें अपना घर बनाने लगती हैं तो हताशा और अवसाद में जीते हुए हम में से बहुत से लोग अपने मन की भड़ास को कभी आपस में बोल बतिया कर तो कभी चीख चिल्ला कर शांत कर लिया करते हैं। इसके ठीक विपरीत कोई लेखक या फिर कवि ह्रदय जब इस तरह की बातों से व्यथित होता है तो अपने मन की भावनाओं को अमली जाम पहनने के लिए वो शब्दों का...अपनी लेखनी का सहारा लेता है।


इस तरह की तमाम विसंगतियों से व्यथित हो जब कोई कलमकार अपनी बात...अपनी व्यथा...अपने मनोभावों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए अपनी कलम उठाता है तो स्वत: ही उसकी लेखनी में वही बात...वही क्रोध...वही कटुता...वही हताशा स्वतः ही परिलक्षित होने लगती है। 

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध कहानीकार मनीष वैद्य जी के कहानी संकलन 'फुगाटी का जूता' की। निरंतर होती तरक्की के बीच पिछड़ते चरित्रों...उनके दुखों..उनके संघर्षों को संजीदगी से ज़ुबान देती हैं मनीष वैद्य जी के इस संग्रह की कहानियाँ।

 इसको पढ़ते वक्त मुझे अपनी एक पुरानी कविता की कुछ पँक्तियाँ स्वतः ही  याद आ गयी...

"सोने नहीं देती है 
दिल की चौखट पे..
ज़मीर की ठकठक
उथल पुथल करते 
विचारों के जमघट
जब बेबस हो...
तमाशाई हो
देखता हूँ अन्याय हर कहीं"



उनके इस संकलन की किसी कहानी में आज के इस यूज़ एंड थ्रो वाले  युग में पुराने सामान की मरम्मत करने वालों का दर्द और उनकी व्यथा दिखाई देती है तो किसी कहानी में बूढ़ी हो चुकी आँखों के ज़रिए भारत-पाकिस्तान से जुड़ी पुरानी यादों को फिर से  जीते हुए ताज़ा किया गया है। इसी संग्रह की एक अन्य कहानी में बात है किसी बड़े नेता के किसी पिछड़े इलाके में होने वाले दौरे और उसकी वजह से संपूर्ण अफसरशाही और मीडिया में मची घालमेल मिश्रित अफरा तफरी की। इसमें बात है अफसरशाही के द्वारा आनन फानन में इलाके को जैसे तैसे चमकाने को ले कर होने वाली कवायद की। इसमें बात है गरीब आदमी की बात को कुचलने...उसे गंभीरता से ना लेते हुए उसका माखौल उड़ा...उसे दबाने की।

इस संग्रह में बात है फौजी अफसर और आदिवासी लड़की के प्रेम और फिर विवाह की। इसमें बात है पुरानी चिट्ठियों के ज़रिए अपनापन महसूसते बूढ़े झुर्रीदार चेहरे की। इसमें बात है चिट्ठी की बाट जोहती बूढ़ी आँखों और उसकी हताशा की। इसमें बात है फौज द्वारा शहीद घोषित किए जा चुके फौजी के इंतज़ार की।

इस संग्रह की कहानी 'फुगाटी का जूता' में बात है 'उलटे बाँस बरेली' कहावत को चरितार्थ करने और नई-पुरानी पीढ़ी की सोच में आते बदलाव की तो किसी कहानी में बात है बुंदेलखंड के ओरछा के राजा जूदेव के बेटों जुझार सिंह और हरदौल की। इसमें बात है कान के कच्चे जुझार सिंह के अपनी पत्नी चंपावती और भी हरदौल को ले कर उत्पन्न हुए शक की। इसमें बात है भाभी का मान बचाने को अपनी जान देने वाले हरदौल की। 

इस संग्रह की किसी कहानी में बात है खुद को भीड़ से अलग...ऊँचा मानने और फिर इस सबका भ्रम टूटने की। तो किसी कहानी में बात है मृत करार दिए जा चुके व्यक्ति के खुद को ज़िंदा साबित करने की जद्दोजहद और टूटते रिश्तों के ज़रिए होते विश्वास के हनन की। 

इसमें बात है मशीनीकरण और आधुनिकीकरण के ज़रिए तररकी की राह पर बढ़ रहे देश और उसमें निरंतर बेरोज़गार होते हाथ के हुनरमंद लोगों की व्यथा की। इसमें बात है चलतेपुर्ज़े लोगों के जुगाड़ के ज़रिए राजनीति में उतरने और झूठे वायदों के दम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने की। 

इसमें बात है गरीबी हटाने के नाम पर सरकार द्वारा दलितों/भूमिहीनों में बाँटे जा रहे भूमि के पट्टों और इस खेल के सारे गोरखधंधे की। इसमें बात है तानाशाह के अत्याचारों और बग़ावती सुरों की। इसमें बात है तरक्की की राह पर समय के साथ बदलते गांवों और साथ ही बदलते लोक व्यवहार से भौंचक हुए एक निराश बूढ़े और उसकी ज़िद की। 

लेखक की भाषा प्रवाहमयी एवं किस्सागोई शैली की है। पढ़ते वक्त आप कहानी के साथ..उसकी रौ में बहते चले जाते हैं इस पूरे संग्रह की कहानियों को पढ़ते वक्त मैंने नोट किया कि ज़्यादातर कहानियों में दुःख...अवसाद और निराशा की बात है। कहानियों की विषय सामग्री और उनके ट्रीटमेंट से पता चलता है कि लेखक, ज़माने के तौर तरीके, चलन तथा व्यवस्था से खासा नाराज़ है। एक तरह से हम कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के इस युग में सरकारी नीतियों और ज़माने भर से मोहभंग हुए लोगों का कहानी संग्रह है 'फुगाटी का जूता'। लेखक से निवेदन है कि पूरे संग्रह में निराशा और अवसाद की कहानियों के साथ अगर साकारात्मता का पुट लिए हुए भी कुछ कहानियाँ और होती तो उनका यह संग्रह और भी ज़्यादा दमदार होता।

132 पृष्ठीय बढ़िया क्वालिटी के इस उम्दा कहानी संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹120/- जो कि बहुत जायज़ है। कम कीमत पर एक बढ़िया कहानी संग्रह उपलब्ध कराने के लिए लेखक तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई। आने वाले सुखद भविष्य के लिए दोनों को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

4 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-10-2020) को   "जीवन है बस पाना-खोना "    (चर्चा अंक - 3847)    पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
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डॉ. जेन्नी शबनम said...

बहुत सुन्दर समीक्षा।

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर समीक्षा

नीरज गोस्वामी said...

बेहतरीन समीक्षा की है आपने... बधाई

 
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