कबूतर का कैटवॉक- समीक्षा तैलंग

आमतौर पर यादों के गलियारे से जब भी हमें कभी गुज़रने का मौका मिलता है तो अनायास ही हमें वह सब याद आने लगता है जो जीवन की तमाम दुश्वारियों एवं आपाधापी के बावजूद हमारे ज़हन में अपने होने की कोई ना कोई अमिट छाप छोड़ चुका है। इसमें यायावरी के चलते घुमंतू किस्से..पुराने स्कूल-कॉलेज या बचपन के दिन भी हो सकते हैं। एक तरफ़ जहाँ आम इनसान उन्हें याद कर बस मुस्कुरा भर लेता है तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई हम जैसा लिखने-पढ़ने का शौक़ीन उन्हें कलमबद्ध कर हमेशा हमेशा के दस्तावेजी सबूत के रूप में एक जगह इकट्ठा कर लेता है यानी के किताब के रूप में छपवा लेता है। ऐसे ही कुछ अविस्मरणीय पलों..यात्राओं और प्रकृति प्रेम से जुड़ी बातों..यादों का पिटारा ले कर हमारे बीच लेखिका/व्यंग्यकार समीक्षा तैलंग अपने संस्मरणों के संकलन 'कबूतर का कैटवॉक'  के ज़रिए हमारे बीच आयी हैं।

उनके इस संकलन में उनके अबुधाबी के प्रवास के दौरान हर शुक्रवार याने के छुट्टी के दिनों की समुद्र किनारे उनकी बैठकी का विवरण मिलता है। जिसके ज़रिए आसानी से पता चलता है कि वे किस कदर बढ़िया पारखी नज़र की स्वामिनी हैं। इस संकलन के ज़रिए उनके प्रकृति प्रेम एवं मूक जानवरों..पक्षियों..पेड़-पौधों से उनके लगाव और उनकी विलुप्त होती जनसंख्या के प्रति चिंता झलकती है।

इस संकलन में लेखिका कहीं पेड़-पौधों..पक्षियों से इस तरह बातें करती हुई प्रतीत होती हैं मानों सालों के तजुर्बे और अपनी निश्छलता की वजह से वे उनकी भाषा..उनकी बोली समझने लगे गयी हों।
उनके संस्मरणों में कहीं अबुधाबी के साफ़ सुथरे..उजले धवल समुद्र तट नज़र आतें हैं तो कहीं अंतर्मन के ज़रिए लेखिका समुद्र के नीचे की रेत और रंग बिरंगे शैवालों से होते हुए भीतर बहुत भीतर तक की यात्रा करती नज़र आती है।

कहीं इसमें अबुधाबी के सबसे पुराने थिएटर और वहाँ होने वाले संगीत कार्यक्रमों और नाटकों का जिक्र आता है। तो कहीं इसमें वहाँ की सेहतमंद बिल्लियों की बातें दिखाई पड़ती हैं। इसी संकलन में कहीं वहाँ के कड़क कानूनों और अनुशासनप्रिय नागरिकों की बात नज़र आती है तो कहीं अबुधाबी में रहने वाले स्थानीयों एवं विदेशियों में भारतीय खाने के प्रति दीवानगी का वर्णन नज़र आता है। वैसे ये और बात है कि आमतौर पर उन्हें रोटी को प्लेट के बजाय हाथ से ही एक एक बाइट ले कर कुतरते तथा सीधे कढ़ाही से ही सब्ज़ी खाते हुए देखा जा सकता है।

 इस संकलन में कहीं वहाँ के सैण्ड ड्यूंस(रेगिस्तान) में फोर व्हीलर बाइक्स और जीप सफ़ारी होती दिखाई देती है तो कहीं शारजाह से अजमान, फ़ुजैरह के सफ़र के दौरान सड़क किनारे उम्दा ईरानी एवं टर्किश कालीनों से सजी दुकाने नज़र आती हैं। कहीं पौधों की नर्सरी पर पौधों को खरीदने को आतुर भीड़, मेले की भीड़ जैसी नज़र आती है तो कहीं किसी खास इलाके में सख्त कानून होने की वजह से मोबाइल द्वारा ली गयी फोटोज़ एवं सेल्फियों को पुलिस अफ़सरों द्वारा डिलीट करवा दिया जाता हैं। 

कहीं वहाँ के पैट्रोल स्टेशनों पर बने फ़ूड कोर्ट और शॉपिंग स्टोर्स की बात नज़र आती है जिनमें 'चाय' का आर्डर देने पर देसी चाय पेश की जाती है और 'टी' का आर्डर देने पर चाय की विभिन्न वैरायटियों मसलन..'इंग्लिश, हर्बल, 'अरेबिक टी' या किसी भी अन्य प्रकार की चाय के बारे में पूछा जाता है। 

उनके नज़रिए से समुद्री यात्रा के दौरान कहीं कुदरती अजूबे के रूप में बीच समुद्र के बीचों बीच समतल ज़मीन और पहाड़ का टुकड़ा दिखाई देता है। तो कहीं समुद्र का पानी वक्त..जगह और मौसम के हिसाब से रंग बदलता दिखाई देता है। कहीं इसमें किनारे बैठ समुद्री नज़ारों का आनंद लेते लोग दिखाई देते हैं तो कहीं हर्षित मन और उल्लास के बीच बदन झुलसाती गर्मी  में समुद्री पानी में डुबकी लगा..उधम मचाते सैलानी दिखाई देते हैं।

कहीं इसमें धाऊ(क्रूज़) की मनमोहक यात्रा के ज़रिए बेहतरीन समुद्री नज़ारों का वर्णन देखने को मिलता तो कहीं अबुधाबी घूमने गए भारतीय सैलनियों का बॉलीवुद के प्रति अगाध प्रेम दृष्टिगत होता है। कहीं  इसमें सैलानियों के, देश बदला..भेस बदला की तर्ज पर, कपड़े छोटे होते चले जाते हैं। तो कहीं इसमें अबुधाबी की कृत्रिम बारिश याने के क्लाउड सीडिंग की बात आती है। 

कहीं इसमें वहाँ की बड़ी बड़ी बिल्डिंगों की हर तीन महीनों में शैंपू सरीखे मैटीरियल से चमकाने की बात आती है तो कहीं इसमें अबुधाबी के मौसम बिगड़ने पर घर से बाहर ना निकलने की ताकीद करते हुए मोबाइल मैसेजेस और घनघना कर बजते अलार्मों का जिक्र होता दिखाई देता है।

कहीं इस संकलन में वहाँ की मक्खन जैसी मुलायम सड़कों पर फ़र्राटे भरती लग्ज़री गाड़ियाँ दौड़ती दिखाई देती हैं तो कहीं इसमें राजनीति और चुनावों जैसी बातों से कोसों दूर रह, सड़कें अपनी मौज में बनती.. संवरती नज़र आती हैं। कहीं हमारे यहाँ के प्रदूषण और शोरशराबे से आज़िज़ आ..विलुप्त हो चुकी गौरैया वहाँ..अबुधाबी में मस्ती से बेफिक्र हो..दाना चुगती नज़र आती है तो कहीं छोटे बड़े..सब के सब स्विमिंग और फिशिंग का आनंद लेते नज़र आते हैं। 

इसी संकलन में कहीं कबूतरों की मस्तानी चाल,..रूप रंग और भावभंगिमा समेत उनकी गर्दन पर अनेक खूबसूरत रंगों का मनमोहक वर्णन नज़र आता है तो कहीं पार्क में खेलते छोटे बच्चों के साथ उन्हीं के दादा नानी सब उनका ध्यान रखते नज़र आते हैं। कहीं इस संग्रह में लेखिका के भीतर का व्यंग्यकार जाग्रत हो.. दिन पर दिन बढ़ते कंक्रीट के जंगलों पर चिंता जताता दिखाई देता है तो कहीं हज़ारों लाखों कटते पेड़ों के मद्देनज़र इनसान की ज़मीन लोलुपता पर कटाक्ष होता नज़र आता। 

कहीं इसमें कौवों, कबूतरों..गौरैयाओं आदि के अलग अलग झुण्डों में इकट्ठे हो बैठने से उत्पन्न होने वाली सुगबुगाहट की तुलना सरकार गिराने और बचाने की प्रक्रिया के दौरान सत्तापक्ष और विपक्षी दलों के अलग अलग धड़ों की होने वाली आपसी खुसफुसाहट से होती नज़र आती है। तो कहीं अमीरों के महँगे शौक 'बंजी जंपिंग' और गरीब मज़दूरों के पैर बाँध कर ऊँची बिल्डिंगों से लटकते हुए पलस्तर करने की प्रक्रिया के बीच आपस में तुलना पढ़ने में आती है। 

इसी संकलन में कहीं किसी संस्मरण में लेखिका अपने घर औचक पधारे अल्प आयु के जैन मुनि और उनके कठोर अनुशासन की बात करती हैं तो अपने किसी अन्य संस्मरण में अपने घर परिवार के सभी सदस्यों के साथ मिल कर त्योहार मनाने की परंपरा की बात करती हैं।

प्रकृति प्रेम और घुमक्कड़ी की बातों से भरी इस किताब में कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना होना थोड़ा खला। इसके अतिरिक्त पेज नंबर 61 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'पिछले हफ्ते से लेकर आज सुबह तक के अखबारों में एयरपोर्ट की अटाटूट भीड़ का जिक्र था जो हमें  पूरे एयरपोर्ट पर कहीं मिली ही नहीं।'

यहाँ 'अटाटूट' के बजाय 'अटूट' आना चाहिए।

हालांकि यह किताब मुझे उपहारस्वरूप मिली लेकिन अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूंगा कि 127 पृष्ठीय इस संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य 200 रुपए रखा गया है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

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