कुछ किताबें अपने आवरण से ही इस कदर आकर्षित करती हैं कि आप उनके मोहपाश से बच नहीं पाते। नीना गुप्ता की इस आत्मकथा के साथ भी ऐसा ही हुआ। कुछ हफ़्ते पहले साहित्य अकादमी में लगे पुस्तक मेले में पेंग्विन के स्टॉल पर इसके बारे में पता किया तो उपलब्ध नहीं थी..अगले दिन आने के लिए कहा गया। अगले दिन पहुँचा तो भी किताब पहुँची नहीं थी। एक ही हफ़्ते में कम से कम तीन चक्कर लगे लेकिन तीनों ही बार मायूस हो कर लौटना पड़ा। इसके बाद साहित्य आजतक के तीन दिवसीय मेले में भी ये किताब उपलब्ध नहीं थी। अंततः इस किताब को 25 फरवरी से लगने वाले पुस्तक मेले में लेने का फ़ैसला किया मगर कमबख्त इस दिल का क्या करें? बार बार किताब की तरफ़ खींचता था। अमेज़न की शॉपिंग लिस्ट में बहुत दिनों पड़ी ये किताब हर बार मुँह चिढ़ा कर हौले से हँस देती कि.. कब तक बकरे की माँ अपनी ख़ैर मनाएगी।
कंबख्त खुद को अमेज़न से खरीदवा के ही मानी। अब देखना ये है कि कब इसे पढ़ने का नम्बर आता है और ये मेरी उम्मीदों पर खरी उतरती है कि नहीं।
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