बाली उमर- भगवंत अनमोल

"सोलह बरस की बाली उमर को सलाम
ए प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम"

जीवन में कभी ना कभी हम सभी को उम्र के ऐसे दौर से गुज़रना पड़ता है जहाँ हम ना बड़ों की गिनती में ही आते हैं और ना ही छोटों की फ़ेहरिस्त में खुद को मौजूद खड़ा पाते हैं। हर सही-ग़लत को समझने की चाह रखने वाले उम्र के उस दौर में जिज्ञासा अपने चरम पर होती है। हम वांछित-अवांछित..हर तरह की जानकारी से रूबरू होना चाहते हैं। साथ ही यह एक भी एक सार्वभौमिक सत्य है कि किसी को अगर किसी बात या कार्य के लिए बिना सही कारण बताए रोका जाता है तो उसमें सहज प्रवृति के चलते उस बात को जानने..समझने की इच्छा.. उत्सुकता जागृत होती है। 

दोस्तों..आज मैं जीवन के इसी पड़ाव और उम्र के किरदारों को ले कर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ। जिसे 'बाली उमर' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखक भगवंत अनमोल ने। 

इस उपन्यास में मूलतः कहानी है नवाबगंज नाम के एक गाँव के दौलतपुरवा मोहल्ले और और उसमें रहने वाले वहाँ के बाशिंदों की। इस उपन्यास में बातें हैं बाली उम्र के दौर से गुज़र रहे उन पाँच बच्चों की जिन्हें उनके स्वभाव या आदतों की वजह से आशिक, ख़बरीलाल, गदहा, पोस्टमैन और पागल है जैसे नाम दे दिए गए। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ आशिक के आशिकी भरे कारनामें हैं तो दूसरी तरफ़ छोटी से छोटी बात को भी देर से समझने वाले गदहे की अज्ञानता भरी बातें हैं। इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ इधर की बातें उधर करने वाले को ख़बरीलाल तो वहीं दूसरी तरफ़ बड़ों के प्रेम पत्र इधर-उधर पहुँचाने वाले को पोस्टमैन की उपाधि मिली है। इसी उपन्यास का एक अन्य पात्र पूरे गाँव और मोहल्ले  में 'पागल है' के नाम से जाना जाता है कि दक्षिण भारत के किसी दूरदराज के गाँव से भटक कर यहाँ पहुँचे इस बालक की भाषा, ना कोई समझता और ना ही इसे वहाँ की स्थानीय भाषा, हिंदी का ज्ञान है। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है बाली उमर के इन बच्चों की नादानी भरी वयस्क शरारतों की तो दूसरी तरफ़ इसमें कहानी है भूख-प्यास से तड़पते माँ-बाप के एक ऐसे लाडले बालक की जिसे उसके सगे चाचा ने ही अपनी ईर्ष्या के चलते उसके परिवार से बहुत दूर यहाँ-वहाँ भटकने के लिए छोड़ दिया है। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है भूख प्यास से तड़पते समृद्ध परिवार के ऐसे कई दिनों के भूखे बालक की जिसे कूड़े में फेंके गए बासी भोजन तक में अपना अपना पेट भरने के लिए मजबूर होना पड़ा। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है किसी की अज्ञानता का फायदा उठा  शोषण..अत्याचार और लालच के ज़रिए जबरन बँधुआ मज़दूर बनाने की। 

इस उपन्यास में कहीं ऊलजलूल तर्कों के ज़रिए पृथ्वी को गोल नहीं बल्कि चपटा करार दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं इसमें ब्याह के बाद सैक्स को लेकर बाल मन ऐसी ऐसी कल्पनाएँ करता दिखाई देता है कि बेसाख्ता हँसी छूटने को आमादा हो उठती है। इसी उपन्यास में लेखक अनपढ़ों के नेता बनने पर कटाक्ष करता दिखाई देता है तो कहीं लोगों की आशिक़ प्रवृति पर तंज कसता नज़र आता है।

इसी उपन्यास में कहीं उन सरकारी नौकरी वालों पर कटाक्ष होता नज़र आता है जो बिना रिश्वत लिए कुछ काम कर के राज़ी नहीं। तो कहीं नए लेखकों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है कि वे लिखने के लिए औरों को पढा जाना ज़रूरी नहीं समझते। इसी उपन्यास में कहीं गाँव के लोगों की राजनीति के प्रति उत्साह एवं रुचि को ले कर बात होती नजर आती है। 

इसी किताब में कहीं गाँव के लोगों को इस वजह से दूरदर्शी बताया जाता दिखाई देता है कि वे अपने बच्चों को उनके साइज़ के नहीं बल्कि बड़े साइज़ के कपड़े ख़रीदवाते हैं कि उनके बड़े होने पर भी वही कपड़े उनके काम आ सकें। तो कहीं पहली बार किसी शादी में बफ़े भोजन का आनंद लेने को आतुर गाँव वाले इसे कुकुर भोज का दर्जा देते दिखाई देते हैं। तो कहीं जीवन में पहली बार ठंडे (कोल्डड्रिंक) को पी कर उसका आनंद लेने की बच्चों की सारी अधीरता.. उत्सुकता निराशा में तब्दील होती दिखाई देती है।

इसी किताब में कहीं नए लेखकों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है कि वे लिखने के लिए औरों को पढा जाना ज़रूरी नहीं समझते। तो कहीं गाँव के लोगों की राजनीति के प्रति उत्साह एवं रुचि को ले कर बात होती नजर आती है। 

इसी किताब में कहीं प्राइमरी का कोई बालक अपनी अँग्रेज़ी की अध्यापिका से ही किस(Kiss) का मतलब जानने के लिए सवाल पूछता दिखाई देता है। तो कहीं बच्चे पैकेट वाले गुब्बारे (कंडोम) को ले कर भ्रमित नज़र आते हैं कि आख़िर ये ऐसे किस घृणित पदार्थ से बने हुए होने हैं कि उनके अभिभावक उन्हें इनसे दूर रहने के लिए हड़काते नज़र आते हैं। 

लगभग आधी किताब तक पाठक इससे इस कदर जुड़ा रहता है कि उसके ज़ेहन में लेखक से बार-बार इस सवाल को पूछने का मन करने लगता है कि..

"अबे!...कितना हँसाओगे बे?"

बतौर एक सजग पाठक होने के नाते रोचक शैली में तेज़ रफ़्तार से चलता हुआ यह उपन्यास बाद के किसी-किसी चैप्टर में मुझे थोड़ा बोझिल एवं जबरन खिंचा हुआ भी लगा। अंत थोड़ा फ़िल्मी और पहले से अपेक्षित भी लगा। क्लाइमैक्स वाले सीन पर अगर और  ज़्यादा मेहनत की जाए तो इस बढ़िया उपन्यास की लोकप्रियता में और अधिक इज़ाफ़ा हो सकता है। 

127 पृष्ठीय इस मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्ज़ ने और इसका मूल्य रखा गया है 175/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्राइबर्स के लिए यह उपन्यास फ्री में उपलब्ध है तथा अमेज़न पर डिस्काउंट के बाद फिलहाल यह उपन्यास मात्र 123/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

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