सुनो... तुम्हें प्रेम बुलाता है - शिखा श्रीवास्तव 'अनुराग'

आम बॉलीवुडीय फ़िल्मों को अगर दो कैटेगरीज़ में बाँटने का प्रयास करें तो मेरे ख़्याल से एक तरफ़ तमाम मसाला फ़िल्में तो दूसरी तरफ राजश्री प्रोडक्शन्स की 'मैंने प्यार किया', 'नदिया के पार' या फ़िर 'हम आपके हैं कौन सरीखी' साफ़सुथरी संस्कारी  फ़िल्में आएँगी। 
सिक्के के पहलुओं की तरह जीवन में भी अच्छे और बुरे, दो तरह के लोग होते हैं। जहाँ एक तरफ़ कुछ लोग ऐसे होते हैं जो मौका मिलने पर डसने से नहीं चूकते तो वहीं दूसरी तरफ़ कुछ इस तरह के लोग भी होते हैं जिनके संस्कार उन्हें किसी के साथ कुछ भी बुरा नहीं करने देते। 
दोस्तों... आज मैं यहाँ राजश्री प्रोडक्शन्स की फ़िल्मों की ही तरह की साफ़सुथरी कहानी से लैस जिस उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ उसे 'सुनो... तुम्हें प्रेम बुलाता है' के नाम से लिखा है शिखा श्रीवास्तव 'अनुराग' ने। इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है पढ़ाई-लिखाई में औसत रहने वाली उस ईशाना की जो अपने ट्यूशन टीचर की मदद एवं प्रेरणा से अपनी क्लास में अव्वल स्थान प्राप्त करती है तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है उस सागर की जो ईशाना को ट्यूशन पढ़ाने के साथ-साथ स्वयं भी पढ़ाई कर अपना कैरियर बनाने का प्रयास कर रहा है। धीमी आँच पर सहज..सरल तरीके से पकती इस प्रेम कहानी में पढ़ाई के दौरान दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षण तो महसूस करते हैं मगर मर्यादा एवं संस्कार में बँधे होने के कारण दोनों में से कोई भी अपने मन की बात को खुलकर नहीं कह पाता। 
आपसी गलतफहमियों के चलते एक-दूसरे से बिछुड़ने के 10 वर्षों बाद दोनों की फ़िर से मुलाक़ात होती है। अब देखना यह है कि क्या अब भी उनमें प्रेम की तपिश बाक़ी है या फ़िर वक्त के थपेड़ों के साथ वे एक-दूसरे को भूल अपने जीवन में अलग रास्ता अख्तियार कर चुके हैं। 
इस उपन्यास में कहीं UPSC की तैयारी में कोई कसर बाक़ी न रखने के बावजूद भी सफ़लता न मिलने पर कहीं हताशा उत्पन्न होती दिखाई देती है तो कहीं सहज तरीके से एक-दूसरे को समझने और संभालने का प्रयास होता नज़र आता है। फ्लैशबैक के आधार पर बढ़ती हुई इस कहानी में कहीं आपसी कम्युनिकेशन ना हो पाने की वजह से ग़लतफ़हमी उत्पन्न होती नज़र आती है। तो कहीं अपने दुःख को किसी के साथ बाँटने के बजाय नायिका अंदर ही अंदर घुटती दिखाई देती है।
कहीं धर्मवीर भारती जी की कालजयी रचना 'गुनाहों का देवता' का जिक्र होता नज़र आता है तो कहीं प्रसिद्ध उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' की कोई पंक्ति मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार कोट की जाती दिखाई पड़ती है। तो कहीं 12th फेल और डार्क हॉर्स जैसे उपन्यासों के ज़रिए निरंतर संघर्ष करते रहने की प्रक्रिया पर बल दिया जाता दिखाई देता है। कहीं बचत के पैसों के ज़रिए किताबें खरीदने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं निजी लायब्रेरी में सही एवं सुचारू ढंग से किताबों को ऑर्गेनाइज़ करने का तरीका बताया जाता दिखाई देता है। 
कहीं 'नदिया के पार' फ़िल्म के केशव प्रसाद मौर्य के उपन्यास 'कोहबर की शर्त' पर बेस्ड होने की बात होती नज़र आती है तो कहीं विवाह पश्चात पति-पत्नी द्वारा बराबर की ज़िम्मेदारी निभाए जाने की बात होती नज़र आती है। कहीं खाने की कद्र करने को लेकर भोजन की महत्ता का जिक्र होता नज़र आता है तो कहीं बिना किसी ताम झाम या दिखावे के विवाह करने की बात होती दिखाई देती है। 
इसी उपन्यास में कहीं प्यार भरी चुहल से तो कहीं मीठी शरारतों से पाठक रु-ब-रु होते दिखाई देते हैं।
कहीं स्त्रियों द्वारा शॉपिंग इत्यादि में ज़्यादा समय लगाए जाने की बात को हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा जाता दिखाई देता है तो कहीं लड़कों को भी घर के काम आने चाहिए, की बात पर बल दिया जाता दिखाई देता है। कहीं स्त्रियों की शिक्षा एवं उनके स्वावलंबी होने की आवश्यकता पर बल दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं बच्चों में थोड़ा डर बना कर रखने की बात होती दिखाई पड़ती है।
■ उपन्यास को पढ़ते वक्त मुझे इसमें 'कौन बनेगा करोड़पति' वाले दृश्य के साथ-साथ ईशाना और सागर के विवाह का प्रसंग भी कुछ ज़्यादा लंबा और जबरन खिंचा हुआ लगा। जिन्हें संक्षिप्त किया जाता तो बेहतर होता। साथ ही इस उपन्यास में तथ्यात्मक ग़लती के रूप में मुझे  पेज नम्बर 12 में लिखा दिखाई दिया कि..
'समस्या यह है कि कार्यक्रम की सारी टिकट बिक चुकी हैं। अब बस एक ही सीट बची है आखिरी पंक्ति की वही आखिरी सीट जो आप हमेशा रिजर्व करवा कर रखती हैं।'
कहानी के हिसाब से यहाँ कहानी की नायिका की किताब के विमोचन के कार्यक्रम की टिकटों के बिकने की बात हो रही है। जबकि असल में ऐसा होता नहीं है। किताबों के विमोचन इत्यादि में तो श्रोताओं को आग्रह अथवा निवेदन करके विनम्रतापूर्वक बुलाना पड़ता है। 
इसके बाद पेज नंबर 95-96 में लिखा दिखाई दिया कि..
'शानदार गाड़ी में बैठकर हम शानदार होटल में पहुँचे। पहली बार इस होटल में मैंने ऑटोमेटिक दरवाजा भी देखा और फिर होटल के उस कमरे में मैंने पहली बार इतना छोटा फ्रिज भी देखा जिसमें सिर्फ पानी की बोतलें रखी हुई थीं'
यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि बड़े होटलों के कमरे में जो फ्रिज रखे हुए होते हैं, उनमें पानी की नहीं बल्कि कोल्डड्रिंक और बीयर इत्यादि रखी हुई होती हैं। जिन्हें इस्तेमाल करने पर उनकी कीमत अलग से चुकानी पड़ती है। पानी की कॉम्प्लीमेंट्री दो बोतलें तो अलग से दी जाती हैं। 
■ बेहद सावधानी के साथ की गई इस किताब की प्रूफरीडिंग के बावजूद मुझे दो-चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ प्रिंटिंग मिस्टेक्स दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 38 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वी भी बिल्कुल तरोताजा होकर, नींद भरी हुई आँखों से नहीं'
यहाँ 'वी भी बिल्कुल तरोताजा होकर' की जगह 'वो भी बिल्कुल तरोताजा होकर' आएगा। 
◆ पेज नंबर 49 में लिखा दिखाई दिया कि..
'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, से यह अजीब लगता है मुझे'
यहाँ 'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, से यह अजीब लगता है मुझे' की जगह 'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, शुरू से ही अजीब लगता है मुझे' आना चाहिए।
◆ पेज नंबर 58 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ऐसी मान्यता थी कि इस मंदिर में जो शिवलिंग विराजमान है वह धरती के अंदर से प्रकट हुअ था'
यहाँ 'वह धरती के अंदर से प्रकट हुअ था' की जगह 'वह धरती के अंदर से प्रकट हुआ था' आएगा। 
◆ पेज नंबर 75 में लिखा दिखाई दिया कि..
'अब तो न उसे गाहे-बगाहे छत पर मिलने वाली सागर की झलक का सहारा था, न जब चाहे तब उसे फोन कर लेने का और ना ही साहस करके कुछ मिनट में सागर के घर ही चले जाने का आसरा था अब'
इस वाक्य के शुरू और अंत में 'अब' शब्द आया है जबकि बाद वाले 'अब' शब्द की यहाँ ज़रूरत ही नहीं है।
◆ पेज नंबर 186 में लिखा दिखाई दिया कि..
'सागर ने नीलू से कहा तब उसनं ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा'
यहाँ 'उसनं ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा' की जगह 'उसने ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा' आएगा।
◆ पेज नंबर 126 में लिखा दिखाई दिया कि..
'हाँ तो मैंने कोई चोरी थोड़े ही की है जो सबसे छिपता फिरूँ'
दृश्य के हिसाब से यहाँ 'छिपता फिरूँ' की जगह अगर 'छिपाता फिरूँ' आए तो बेहतर। 
◆ पेज नंबर 166 में लिखा दिखाई दिया कि..
'हो सकता है कि अब तक शायद तुम्हारा गुस्सा शांत हो गया होगा और तुम मेरे घर मेरे बारे में पता करने गई होगी, लेकिन जब माँ ने कहा कि तुम नहीं आईं तब मुझे बहुत धक्का पहुँचा'
कहानी में चल रही परिस्थिति के हिसाब से मुझे यह वाक्य सही नहीं लगा। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था कि..
'हो सकता था कि तब तक शायद तुम्हारा गुस्सा शांत हो गया होता और तुम मेरे घर मेरे बारे में पता करने गई होती, लेकिन जब माँ ने कहा कि तुम नहीं आईं तब मुझे बहुत धक्का पहुँचा'
◆ पेज नंबर 170 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वो दोनों खामोश से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे'
यहाँ 'वो दोनों खामोश से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे' की जगह अगर 'वो दोनों खामोशी से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे' आए तो बेहतर। 
अंत में चलते-चलते एक और बात कि पेज नंबर 52 में मुझे लिखा दिखाई दिया कि..
'ईशाना ने सागर से उसके हँसने का कारण पूछा तो उसने अपनी उँगली से उसके होठों के पास लगा हुआ चीज हटाकर उसे दिखा दिया'
यहाँ 'चीज हटाकर उसे दिखा दिया' की जगह 'चीज़ हटाकर उसे दिखा दिया' आना चाहिए क्योंकि 'चीज/चीज़' का भारतीय भाषा में प्रयोग किसी वस्तु के लिए किया जाता है जबकि यहाँ बात अँग्रेज़ी वाले cheese (एक तरह का पनीर) की हो रही है। अतः इसे स्पष्ट किया जाता तो बेहतर होता। 
• पराठे - परांठे
• चीज - चीज़ (Cheese) 
• कुनकुनी दोपहर - गुनगुनी दोपहर
• बरात - बारात 
यूँ तो पठनीय सामग्री से लैस यह रोचक उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप प्राप्त हुआ मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 245 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सुरभि प्रकाशन (किताबघर प्रकाशन समूह का उपक्रम) ने और इसका मूल्य रखा है 400/- रुपए जो कि मुझे क्वालिटी, कंटैंट तथा हिंदी पाठकों की जेब के हिसाब से ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

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