"कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"
***राजीव तनेजा***
"कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"....
"कान खोल के सुन लो"...
"कहे देती हूँ कसम से"बीवी भाषण पे भाषण पिलाए चली जा रही थी
"खबरदार!...जो इस बार होली का नाम भी लिया ज़ुबान से"...
"छोड-छाड के चली जाउंगी सब"...
"फिर भुगतते रहना अपने आप"
"पिछली बार का याद है ना?" ...
"या!...भूले बैठे हैँ जनाब कि..कितने ड्ण्डे पडे थे?और...कहाँ-कहाँ पडे थे?"...
"सिकाई तो मुझी को करनी पड़ी थी ना?"....
"तुम्हारा क्या है?"...
"मज़े से चारपाई पे लेटे-लेटे कराह रहे थे चुप-चाप"...
"हाय!..मैँ मर गया....हाय!..मैँ मर गया"बीवी मेरा मज़ाक सा उड़ाती हुई गुस्से से बोली
"हुँह!...बड़े आए थे कि इस बार..पडोसियों के दाँत खट्ते करने हैँ"....
"मुँह की खिलानी है...वगैरा-वगैरा"
"थोथा चना बाजे घना"...
"आखिर!..क्या उखाड डाला था उनका?"
"बित्ते भर का मुँह और...ये लम्बी चौडी ज़बान"
"आखिर जग हँसाई से मिला ही क्या?"...
"धरे के धरे रह गए तुम्हारे सब अरमान कि...मैँ ये कर दूँगा और...मैँ वो कर दूँगा"
"अरे!...जो करना है सब ऊपरवाले ने करना है"...
"हमारे तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं"बीवी बिना रुके बोलती ही चली जा रही थी
"मैँ भी तो यही समझा रहा हूँ भागवान"...
"अब जा के कहीं घुसी तुम्हारे दिमागे शरीफ में बात कि...
बाज़ी तो वो ही जीतेगा जो ऊपर से निशाना साधेगा"मेरा इतना कहना भर था कि बीवी का शांत होता हुआ गुस्सा फिर से उबाल खाने लगा"
"हाँ!...हाँ...पिछली बार तो जैसे तहखाने में बैठ के गुब्बारे मारे जा रहे थे"...
"ऊपर से ही मारे जा रहे थे ना?"...
"फिर भला कहाँ चूक हो गयी हमारे इस निशानची 'जसपाल राणा' से?"...
"ना काम के...ना काज के...बस!..दुश्मन अनाज के"बीवी का बड़बड़ाना जारी था
"अरे!...एक निशाना क्या सही नहीं बैठा तुम तो...बात का बतंगड बनाने पे उतारू हो"
"और नहीं तो क्या करूँ?"...
"बे-इज़्ज़ती तो मेरी होती है ना मोहल्ले में कि...बनने चले थे 'तुर्रम खाँ' और...
रह गये फिस्सडी के फिस्सडी"
"किस-किस का मुँह बन्द करती फिरूँ मैँ?...
"या फिर किस-किस की ज़बान पे ताला जढूँ?"
"अरे!...कुछ करना ही है तो प्रक्टिस-शरैक्टिस ही कर लिया करो कभी-कभार कि ऐन मौके पे कामयाबी हासिल हो"
"और कुछ नहीं तो!..कम से कम बच्चों के साथ गली में क्रिकेट या फिर कंचे ही खेल लिया करो"...
"निशाने की प्रैक्टिस की प्रक्टिस और लगे हाथ बच्चों को भी कोई साथी मिल जाएगा"बीवी मुझे समझाती हुई बोली
"और कोई तो खेलने को राज़ी ही नहीं है ना तुम्हारे इन नमूनों के साथ"...
"मैँ भी भला!..कब तक साडी उठाए-उठाए कंचे खेलती रहूँ गली-गली?"
"पता नहीं क्या खा के जना था इन लफूंडरों को मैने"उसका बड़बड़ाना रुक नहीं रहा था
"स्साले!...सभी तो पंगे लेते रहते हैँ मोहल्ले वालों से घड़ी-घड़ी"
"अब किस-किस को समझाती फिरूँ?कि...
इनकी तो सारी की सारी पीड़ियाँ ही ऐसी हैँ...मैँ क्या करूँ?"
"पता नही मैँ कहाँ से इनके पल्ले पड गयी?"...
"अच्छी भली तो पसन्द आ गयी थी उस 'इलाहाबाद' वाले को" ...
"लेकिन!...अब किस्मत को क्या दोष दूँ?"...
"मति तो आखिर मेरी ही मारी गयी थी न?"..
"इस बावले के चौखटे में 'शशिकपूर' जो दिखता था मुझे"
"अब मुझे क्या पता था कि ये भी असली 'शशिकपूर'के माफिक तोन्दूमल बन बैठेगा कुछ ही सालों में?"
"तोन्दूमल सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया और ज़ोर से चिल्लाता हुआ बोला...
"क्या बक-बक लगा रखी है सुबह से?"....
"चुप हो लिया करो कभी कम से कम"..
"ये क्या?कि एक बार शुरू हुई तो भाग ली सीधा सरपट समझौता एक्सप्रैस की तरह"...
"पता है ना!...अभी पिछले साल ही बाम्ब फटा है उसमें?"...
"चुप हो जा एकदम से"...
"कहीं मेरे गुस्से का बाम्ब ही ना फट पडे तुझ पर"मैँ दाँत पीसता हुआ बोला
"बाम्ब?.."कहते हुए बीवी खिलखिला के हँस दी
"अरे!....ऐसे फुस्स होते हुए बाम्ब तो बहुतेरे देखे हैँ मैने"
"क्यूँ मिट्टी पलीद किए जा रही हो सुबह से?"मैँ उसकी तरफ धीमे से मिमियाता हुआ बोला
"इस बार सुलह हो गई है अपनी पडोसियों से"...
"अब उनसे कोई खतरा नहीं"....
"और उस नास-पीटे!..गोलगप्पे वाले क्या क्या?...जिसे सोंठ से सराबोर कर डाला था पिछली बार"
"अरे!...वो 'नत्थू'?"
"हाँ वही!...वही नत्थू"...
"उसको?"...
"उसको तो कब का शीशे में उतार चुका हूँ"...
"कैसे?"बीवी उत्सुक चेहरा बना मेरी तरफ ताकती हुई बोली
"अरी भलेमानस!...बस..यही कोई दो बोतल का खर्चा हुआ और...बन्दा अपने काबू में"
"अब ये दारू चीज़ ही ऐसी बनाई है ऊपरवाले ने"..
"हम्म!...इसका मतलब इधर ढक्कन खुला होना है बोतल का और...
उधर सारी की सारी दुशमनी हो गयी होनी है हवा"बीवी बात समझती हुई बोली
"और नहीं तो क्या?"मैँ अपनी समझदारी पे खुश होता हुआ बोला...
"ध्यान रहे!...इसी दारू की वजह से कई बार...दोस्त भी दुश्मन बन जाते हैँ"बीवी मेरी बात काटती हुई बोली...
"अरे!...अपना नत्थू ऐसा नहीं है"मैँ उसे समझाता हुआ बोला
"क्या बात?...बड़ा प्यार उमड़ रहा है इस बार नत्थू पे"बीवी कुछ शंकित सी होती हुई बोली...
"पिछली बार की भूल गए क्या?"...
"याद नहीं?...कि कितने लठैतों को लिए-लिए तुम्हारे पीछे दौड़ रहा था"
"ये तो शुक्र मनाओ ऊपरवाले का कि तुम जीने के नीचे बनी कोठरी में जा छुपे थे"
"सो!..उसके हत्थे नहीं चढे"
"वर्ना ये तो तुम भी अच्छी तरह जानते हो कि क्या हाल होना था तुम्हारा"वो मुझे सावधान अ करती हुई बोली
"अरी बेवाकूफ!...बीति ताहिं बिसार के आगे की सोच"
"इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा...सारा मैटर पहले से ही सैटल हो चुका है"मैँ उसे डांटता हुआ बोला...
"और तो और....इस बार दावत का न्योता भी उसी की तरफ से आया है"
"अरे वाह!...इसका मतलब कोई खर्चा नहीं?"बीवी आशांवित हो खुश होती हुई बोली
"जी!..."
"जी हाँ!...कोई खर्चा नहीं"मैँ धीमे-धीमे मुस्करा रहा था
"यार!...तुम तो बड़े ही छुपे रुस्तम निकले"...
"काम भी बना डाला और खर्चा दुअन्नी भी नहीं"
"हवा ही नहीं लगने दी कि...कब तुमने रातों रात बाज़ी खेल डाली"बीवी मेरी तारीफ करती हुई बोली
"बाज़ी खेल डाली नहीं!...बल्कि जीत डाली कहो"
"हाँ-हाँ!...वही"
"आखिर!...हम जो चाहें...जो सोचें...वो कर के दिखा दें"...
"हम वो हैँ जो 'दो और दो पाँच' बना दें"
"बस!..दावत का नाम ज़ुबाँ पर आते ही ... मुँह में जो पानी आना शुरू हुआ तो बस आता ही चला गया"
"आखिर!..मुफ्त में जो माल पाड़ने का मौका जो मिलने वाला था"
"अब ना दिन काटे कट रहा था और ना रात बीते बीत रही थी"
"इंतज़ार था तो बस..'होली' का कि...कब आए 'होली'और कब दावत पाड़ने को मिले"
"लेकिन अफसोस!...हाय री मेरी फूटी किस्मत"...
"दिल के अरमाम आँसुओ में बह गए"...
"होली से दो दिन पहले ही खुद मुझे अपने गांव ले जाने के लिए आ गया था नत्थू कि...खूब मौज करेंगे"
"मैँ भी क्या करता?"...
"कैसे मना करता उसे?"
"कैसे कंट्रोल करता खुद पे?"
"कैसे उभरने नहीं देता अपने लुके-छिपे दबे अरमानों को?"
"आखिर!..मैँ भी तो हाड-माँस का जीता-जागता इनसान ही था ना?"...
"मेरे भी कुछ सपने थे...मेरे भी कुछ अरमान थे"...
"पट्ठे ने!...सपने भी तो एक से एक सतरंगी दिखाए थे कि...
खूब होली खेलेंगे...गांव की अल्हड़ मदमस्त गोरियों के संग...चिपक-चिपक के"मेरे चेहरे पे वासना का भूत साफ झलक रहा था...
"आखिर में मैँ!..लुटा-पिटा सा चेहरा लिए भरे मने से घर वापिस लौट रहा था"...
"यही सोच में डूबा था कि घर वापिस जाऊँ तो कैसे जाऊँ?और....
किस मुँह से जाऊँ?"
"बडी डींगे जो हाँकी थी कि...मैँ ये कर दूँगा और मैँ वो कर दूँगा"
"पिछली बार का बदला ना लिया तो!..मेरा भी नाम राजीव नहीं"
"कोई कसर बाकी नहीं रखूँगा"
"अब क्या बताऊँगा और...कैसे बताऊँगा बीवी को कि मैँ तो बिना खेले ही बाज़ी हार चुका हूँ"...
"क्या करूँ?..अब इस कंभख्तमारी 'भांग' का सरूर ही कुछ ऐसा सर चढ कर बोला कि...
सब के सब पासे उलटे पड़ते चले गए"
"कहाँ मैँ स्कीम बनाए बैठा था कि...मुफ्त में माल तो पाड़ूंगा ही और...रंग से सराबोर कर डालूँगा सबको"....
"सो अलग!.."
"हालांकि बीवी ने मना किया था कि ज़्यादा नहीं चढाना लेकिन...अब इस कंभख्त नादान दिल को समझाए कौन?"
"अपुन को तो बस!..मुफ्त की मिले सही"...
"फिर कौन कंभख्त देखता है कि...
कितनी 'पी' और...कितनी नहीं 'पी'?"
"पूरा टैंकर हूँ!...पूरा टैंकर"
"कितने लौटे गटकता चला गया...कुछ पता ही ना चला"
"मदमस्त हो भांग का सरूर सर पे चढता चला जा रहा था"...
"लेकिन!..सब का सब इतनी जल्दी काफूर हो जाएगा...ये सोचा ना था"
"पता नहीं किस-किस से पिटवाया उस नत्थू के बच्चे ने"
"स्साले ने!..पिछली बार की कसर पूरी करनी थी"...
"सो!..मीठा बन....अपुन को ही पट्टू पा गया था इस बार"
"उल्लू का पट्ठा!...दावत के बहाने ले गया अपने गांव और कर डाली अपनी सारी हसरतें पूरी"
"शायद!...पट्ठे ने सब कुछ पहले से ही सैट कर के रखा हुआ था"...
"वर्ना मैँ?..."...
"मैँ भला!...किसी के हत्थे चढने वाला कहाँ था?"
"स्साले!..वो आठ-आठ...लाठियों से लैस एक तरफ और...दूसरी तरफ मैँ निहत्था...अकेला"
"बेवाकूफ!...अनपढ कहीं के...भला ऐसे भी कहीं खेली जाती है होली?"
"अरे!..खेलनी ही है तो...
'रंग' से खेलो...'गुलाल' से खेलो..
'जम' के खेलो और...ज़रा 'ढंग' से खेलो"
"कौन मना करता है?"...
"और!..करे भी क्योंकर?"...
"आखिर!..त्योहार है 'होली'...पूरी धूमधाम से मनाओ"...
"ये क्या कि पहले तो किसी निहत्थे को टुल्ली करो तबियत से"...
"फिर उठाओ और पटक डालो सीधा...बासी गोबर से भरे हौद्ध में?"
"ऊपर से!...बाहर निकलने का मौका देना तो दूर...
अपने मोहल्ले की लड़कियों से डंडो की बरसात करवा दी...सो अलग!..."
"हुँह!...बड़ी आई लट्ठमार होली"...
"स्साले!..अनपढ कहीं के"
"पता नहीं कब अकल आएगी इन बावलों को?कि...
मेहमान तो भगवान का ही दूसरा रूप होता है "...
"उसके साथ ऐसा बरताव?"...
"चुल्लू भर पानी में डूब मरो"
"खैर!..अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत...आज पल्ले पड़ी मेरे"
"पहले ही समझ जाता सब कुछ!..तो ये नौबत ना आती"
'रह-रह कर बीवी के डायलाग रूपी उपदेश याद आ रहे थे कि...
"कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"...
"अच्छा होता!..जो उसकी बात मान लेता"...
"कम से कम आज ये दिन तो नहीं देखना पड़ता"
"खैर!...कोई बात नहीं"...
"कभी तो ऊंट पहाड़ के नीचे आएगा"...
"उस दिन कंभख्त को मालुम पड़ेगा कि...कौन कितने पानी में है"..
"सेर को सवा सेर कैसे मिलता है".....
"इस बार नहीं तो अगली बार सही"...
"दो का नहीं तो...चार का खर्चा ही सही"
"हाँ!..कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"...
"सच!...कोई होली-वोली नहीं खेलनी है इस बार"
***राजीव तनेजा****
4 comments:
होली नही खेलनी है कहा तो इतना लंबा लेख, अगर होली खेलने का तय होता तो कितना लंबा होना था.... होली है
ka rajiv bhai bina khele hee bhigaa diye aap to.
राजीव हम तो होली नहीं खेलते क्योकि राजीव जैसा नही मीलता है
झक्कास
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