पहली कहानी- बताएँ तुझे कैसे होता है बच्चा
तीसरी कहानी- नामर्द हूँ,पर मर्द से बेहतर हूँ
पाँचवी कहानी- व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की
Navbharat Times - Breaking news, views. reviews, cricket from across India
'व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की'
10 Dec 2008, 1130 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम
राजीव तनेजा
कसम ले लो मुझसे ' खुदा ' की या फिर किसी भी मनचाहे भगवान की। तसल्ली न हो तो बेशक ' बाबा रामदेव ' के यहां मत्था टिकवा कर पूरे सात के सात वचन ले लो, जो मैंने या मेरे पूरे खानदान में कभी किसी ने ' वीआईपी ' या किसी फैशनेबल लगेज के अलावा कोई देसी लगेज जैसे- थैला, बोरी, कट्टा, ट्रंक, अटैची या फिर कोई और बारदाना इस्तेमाल किया हो।
कुछ एक सरफिरे अमीरज़ादे तो ' सैम्सोनाइट ' का महंगा लगेज भी इस्तेमाल करने लग गए हैं आजकल। आखिर स्टैंडर्ड नाम की भी कोई चीज़ होती है कि नहीं। लेकिन, इस सब में भला आपको क्या इंट्रेस्ट ? आपने तो न कुछ पूछना है , न पाछना है और सीधे ही बिना सोचे - समझे झट से सौ के सौ इल्ज़ाम लगा देने हैं हम मासूमों पर। मानों हम जीते-जागते इंसान न होकर कसाई खाने में बंधी भेड़ - बकरियां हो गए कि जब चाहा जहां चाहा झट से मारी और फट से हांक दिया।
अच्छा लगता है क्या, किसी अच्छे भले सूटेड-बूटेड आदमी को ' झोला छाप ' कह उसकी पूरी पर्सनैलिटी पूरी इज़्जत की वाट लगाना ? मज़ा आता होगा न आपको हमें सड़क छाप कह कर हमारे काम, हमारे धंधे की तौहीन करते हुए ? सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते कि अपार खुशी का मीठा-मीठा एहसास होता है आपको, हमें नीचा दिखाने में ? वैसे यह कहां की भलमनसत है कि हमारे मुंह पर ही हमें हमारे छोटेपन का एहसास कराया जाए ?
यह सब इसलिए न कि हम आपकी तरह ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं, ज़्यादा सभ्य नहीं, ज़्यादा समझदार नहीं ? हमारे साथ यह दोहरा मापदंड, यह सौतेला व्यवहार इसलिए न कि हमारे पास डिग्री नहीं, सर्टिफिकेट नहीं है ? मैं आपसे पूछता हूं कि हकीम लुकमान के पास कौन से कॉलिज या विश्वविद्यालय की डिग्री थी ? या धनवंतरी ने ही कौन सा मेडिकल कॉलिज से एमबीबीएस या एमडी पास आऊट किया था ? सच तो यही है दोस्त कि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। फिर भी वह देश के जाने-माने हकीम थे, वैद्य थे, लाखों करोड़ों लोगों का सफलतापूर्वक इलाज किया था उन्होंने। क्यों है कि नहीं ?
उनके इस बेमिसाल हुनर के पीछे उनका सालों का तजुर्बा था, न कि कोई डिग्री। हमारी कंडीशन भी कुछ-कुछ उनके जैसी ही है। यानी कि 'ऑलमोस्ट सेम टू सेम ' क्योंकि जैसे उनके पास कोई डिग्री नहीं, वैसे ही हमारे पास भी कोई डिग्री नहीं, सिम्पल। वैसे आपकी जानकारी के लिए मैं एक बात और बता दूं कि ये लहराते बलखाते बाल मैंने ऐसे ही धूप में सफेद नहीं किए हैं, बल्कि इस डॉक्टरी में पूरे पौने नौ साल का प्रैक्टिकल तजुर्बा है मुझे और खास बात यह कि यह तजुर्बा मैंने इन तथाकथित एमबीबीएस या एमडी डॉक्टरों की तरह किसी बेज़ुबान चूहे या मेंढक का पेट काटते हुए हासिल नहीं किया है, बल्कि इसके लिए खुद इन्हीं नायाब हाथों से कई जीते जागते ज़िन्दा इंसानों के बदन चीरे हैं मैंने।
है क्या किसी ' डिग्रीधारी ' डॉक्टर या फिर मेडिकल ऑफिसर में ऐसा करने की हिम्मत ? और यह आपसे किस गधे ने कह दिया कि डिग्रीधारी डॉक्टरों के हाथों मरीज़ मरते नहीं हैं ? रोज़ ही तो अखबारों में इसी तरह का कोई ना कोई केस छाया रहता है कि फलाने सरकारी अस्पताल में फलाने डॉक्टर ने लापरवाही से ऑपरेशन करते हुए वक्त सरकारी कैंची को गुम कर दिया। अब कर दिया तो कर दिया, लेकिन नहीं अपनी सरकार भी न, पता नहीं क्या सोच कर एक छोटी सी सस्ती कैंची का रोना ले कर बैठ जाती है। यह भी नहीं देखती कि कई बार बेचारे डॉक्टरों के नोकिया ' एन ' सीरीज़ तक के महंगे-महंगे फोन भी मरीज़ों के पेट में बिना कोई शोर-शराबा किए गर्क हो जाते हैं। लेकिन, शराफत देखो उनकी, वे उफ तक नहीं करते।
अब कोई छोटा-मोटा सस्ता वाला चायनीज़ मोबाइल हो तो बंदा भूल-भाल भी जाए, लेकिन नोकिया और वह भी ' एन ' सीरीज़ कोई भूले भी तो कैसे भूले ? अब इसे कुछ डॉक्टरों की किस्मत कह लें या फिर उनका खून-पसीने की मेहनत से कमाया पैसा कि उन्होंने अपने फोन को बॉय डिफॉल्ट ' वाईब्रेशन ' मोड पर सेट किया हुआ होता है। जिससे न चाहते हुए भी कुछ मरीज़ पेट में बार-बार मरोड़ उठने की शिकायत लेकर उसी अस्पताल का रुख करते हैं, जहां उनका इलाज हुआ था।
वैसे बाबा रामदेव झूठ न बुलवाए तो यही कोई दस बारह केस तो अपने भी बिगड़ ही चुके होंगे इन पौने नौ सालों में, लेकिन इसमें इतनी हाय तौबा मचाने की कोई ज़रूरत नहीं। आखिर इंसान हूं और इंसानों से ही गलती होती है। लेकिन, अफसोस सबको मेरी ही गलती नज़र आती है। क्या किसी घायल, किसी बीमार की सेवा कर उसका इलाज कर, उसे ठीक भला चंगा करना गलत है ? नहीं न ? फिर ऐसे में अगर कभी गलती से लापरवाही के चलते कोई छोटी-बड़ी चूक हो भी गई तो इसके लिए इतना शोर-शराबा क्यों ?
मुझमें भी आप ही की तरह देश सेवा का जज़्बा है। मैं भी आप सभी की तरह सच्चा देशभक्त हूं और सही मायने में देश की भलाई के लिए काम कर रहा हूं। कहने को अपनी सरकार हमेशा बढ़ती जनसंख्या का रोना रोती रहती है, लेकिन अगर हम मदद के लिए आगे बढ़ते हुए अपनी सेवाएं दें तो बात फांसी तक पहुंच जाती है। वे कहें तो पुण्य और हम करें तो पाप। वाह री मेरी सरकार, कहने को कुछ और, करने को कुछ और।
जहां एक तरफ इंदिरा गांधी के ज़माने में कांग्रेस सरकार ने टारगिट पूरा करने के लिए जबरन नसबंदी का सहारा लिया था और अब वर्तमान कांग्रेस सरकार जगह-जगह 'कॉन्डम के साथ चलें ' के बैनर लगवा रही है। दूसरी तरफ कोई अपनी मर्जी से अबॉर्शन करवाना चाहे तो जुर्माना लगा फटाक से अंदर कर देती है। यह भला कहां का इंसाफ है कि अबॉर्शन करने वालों को और करवाने वालों को पकड़कर जेल में डाल दिया जाए ?
कोई कुछ कहे न कहे, लेकिन मेरे जैसे लोग तो डंके की चोट पर यही कहेंगे कि अगर लड़का पैदा होगा तो वह बड़ा होकर कमाएगा धमाएगा, खानदान का नाम रौशन करेगा। ठीक है, मान ली आपकी बात कि आजकल लड़कियां भी कमा रही हैं और लड़कों से दोगुना-तिगुना तक कमा रही हैं, लेकिन ऐसी कमाई किस काम की, जो वह शादी के बाद फुर्र हो अपने साथ ले चलती बनें ? यह भला क्या बात हुई कि खर्च करते करते बेचारा बाप बूढ़ा हो जाए और जब पैसे कमाने की बारी आए तो पति महाशय क्लीन शेव होते हुए भी अपनी मूछों को ताव देते पहुंच जाएं ? मज़ा तो तब है जब, जो पौधे को सींचे वही फल भी खाए। क्यों ? है कि नहीं। खैर छोड़ो, हमें क्या ? अपने तो सारे बेटे ही बेटे हैं। जिन्हें बेटी है, वही सोचेगा।
आप कहते हैं कि हम इलाज के दौरान हाइजीन का ध्यान नहीं रखते। सिरिंजो को उबालना, दस्तानों का इस्तेमाल करना वगैरह, तो क्या आपके हिसाब से पैसा मुफ्त में मिलता है या फिर किसी पेड़ पर उगता है ? आंखे हमारी भी हैं, हम भी देख सकते हैं कि अगर सिरिंजें दोबारा इस्तेमाल करने लायक होती हैं, तभी हम उन्हें काम में लाते हैं वर्ना नहीं। ठीक है, माना कि कई बार जंग लगे औज़ारों के इस्तेमाल से खतरा बन जाता है और यदा कदा केस बिगड़ भी जाते हैं। तो ऐसे नाज़ुक मौकों पर हम अपना पल्ला झाड़ते हुए मरीज़ों को किसी बड़े अस्पताल या फिर किसी बड़े डॉक्टर के पास भी रेफर तो कर देते हैं।
अब अगर कोई काम हमसे ठीक से नहीं हो पा रहा है तो यह कहां का धर्म है कि हम उससे खुद चिपके रह कर मरीज़ की जान खतरे में डालें। आखिर, वह भी हमारी तरह जीता जागता इंसान है, कोई खिलौना नहीं।
ट्रिंग...ट्रिंग
- हलो
- कौन ?
- नमस्ते
- बस, यहीं आस-पास ही हूं।
- ठीक है, आधे घंटे में पहुंच जाऊंगा।
- ओके, सारी तैयारियां करके रखो। फायनली मैं आने के बाद चेक कर लूंगा।
- हां, मेरे आने तक पार्टी को बहला कर रखो कि डॉक्टर साहब ओटी में ऑपरेशन कर रहे हैं।
- एक बात और, कुछ भी कह सुन कर पूरे पैसे अडवांस में जमा करवा लेना। बाद में पेशंट मर-मरा गया तो रिश्तेदार तो ड्रामा खड़ा कर नाक में दम कर देंगे। पहले पैसे ले लो तो ठीक, वर्ना बाद में बड़ा दुखी करते हैं।
अच्छा दोस्तो, कहने-सुनने को बहुत कुछ है। फिलहाल, जैसा कि आपने अभी सुना, शेड्यूल थोड़ा व्यस्त है। फिर मिलेंगे कभी, शायद जब आप बीमार हों।
About Us | Advertise with Us | Careers @ TIL | Terms of Use | Privacy Policy | Feedback | Sitemap
Copyright © 2008 Bennett Coleman & Co. Ltd. All rights reserved. For reprint rights: Times Syndication Service
This site is best viewed with Internet Explorer 6.0 or higher; Firefox 2.0 or higher at a minimum screen resolution of 1024x768
6 comments:
बधाई!
बहुत बहुत बधाई!!
बहुत बहुत बधाई हो !!
बहुत बहुत मुबारकबाद। अब तो ....।
बहुत-बहुत बधाई सदा ऎसे ही छपते रहें और मुस्कुराते रहें...
अब तो रख दें नाम
हंसते रहो टाइम्स
।
Post a Comment