हे पार्थ!...अर्जुन गाँडीव उठाए तो किसके पक्ष में?...
पिछले कुछ दिनो मे ब्लोगजगत मे जो हुआ..जैसा हुआ ...उससे मैं आहत हूँ...परेशान हूँ..
मन उद्वेलित है...कैसे अपने चित्त को शांत करूँ?...
किस तरफ जाऊँ?...किस तरफ नहीं जाऊँ?..
धर्मसंकट में हूँ कि किसका साथ दूँ? और किसका विरोध करूँ?..
अपने चारों तरफ नज़र दौडाता हूँ तो पाता हूँ कि सभी तो यहाँ अपने हैं...कौन पराया है?...
हे पार्थ!...अर्जुन गाँडीव उठाए तो किसके पक्ष में?...विपक्ष में भी तो सभी अपने ही दिख रहे हैं
आज अपनी ही एक पुरानी रचना को पुन: संपादित करके आपके समक्ष पेश कर रहा हूँ.. ...उम्मीद करता हूँ कि मेरे मन कि बात आप सभी तक पहुँचेगी
क्या कहूँ कैसे कहूँ
कहना मुझे आता नहीं
बेकार की झकझक
फालतू की बकबक
कुछ मुझे भाता नहीं
भड़ास दिल की
कब शब्द बन उबल पड़ती है
टीस सी दिल मे
कब सुलग पड़ती है
कुछ पता नहीं
सोने नहीं देती है
दिल की चौखट पे
ज़मीर की ठकठक
उथल-पुथल करते
विचारों के झमघट
जब बेबस हो तमाशाई हो
देखता हूँ टाँग खिंचाई हर कहीं
फेर के सच्चाई से मुंह
कभी हँस भी लेता हूँ
ज़्यादा हुआ तो मूँद के आँखें
ढांप के चेहरा पलट भाग लेता हूँ कहीं
आफत गले मे पड़ी जान पड़ती मुझको
तटस्थ रहने की बेबसी
जब विवश कर देती मुझको
असमंजस के ढेर पे बैठा
मैं नीरो बन बाँसुरी बजाऊँ कैसे
क्या करूँ कैसे करूँ
कुछ सूझे ना सुझाए मुझको
बोल मैं सकता नहीं
विरोध कर मैं सकता नहीं
आज मेरी हर कमी
बरबस सताए मूझको
ऊहापोह त्याग
कुछ सोच लौट मैं फिर
डर से भागते कदम थाम लेता हूँ
उठा के कागज कलम
भड़ास दिल की कागज़ पे उतार लेता हूँ मैं
ये सोच सोच चंद लम्हे
खुशफहमी के भी जी लेता हूँ की
होंगे सभी जन आबाद
कोई तो करेगा आगाज़
आएगा इंकलाब यहीं
हाँ यहीं
सच ....
लिखना मुझे आता नहीं
पर फिर भी कुछ सोच मैं
भड़ास दिल की कागज़ पे उतार लेता हूँ मैं
13 comments:
तटस्थ रहने की बेबसी
जब विवश कर देती मुझको
असमंजस के ढेर पे बैठा
मैं नीरो बन बाँसुरी बजाऊँ कैसे
-मुझे तो बाँसुरी बजाना ही नहीं आता.
वैसे पीड़ा जायज है.
राजीव जी,
लिखना तो मुझे भी नहीं आता
बस गूँगे की छटपटाहट समझ लीजे
बी एस पाबला
सच ....
लिखना मुझे आता नहीं
पर फिर भी कुछ सोच मैं
भड़ास दिल की कागज़ पे उतार लेता हूँ मैं
लिखना न आने पर ये लिखा है -- वाह
वाकई पीड़ा को न व्यक्त कर पाना और पीड़ादायक होता है
तटस्थ रहना तो सबसे बड़ा गुनाह है जो हममें से अधिकांश करते हैं.
शांत, गांडीवधारी राजीवार्जुन, शांत...
क्यों अपने मन को इतना निराश करता है...क्या लेकर आया था ब्लॉगिंग की दुनिया में और क्या लेकर जाएगा...क्यों अपने-पराये की मोह-माया में व्यर्थ ही अपने हृदय को जलाता है...मुखौटों की इस दुनिया में किस किस के मुंह से मुखौटे छीनेगा...बस अपना काम पूरी ईमानदारी से कर...यही शक्ति मांग कि ऐसा कोई कृत्य न हो कि अपनी नज़रें ही खुद से सवाल पूछने लगे...बाकी जो जैसा कर रहा है, वो वैसा ही भरेगा...तुझे ऊपर वाले ने दुनिया को
हंसाने का बीड़ा दिया है...रूलाने वाले तो हर कदम पर तैयार खड़े तुझे दिख जाएंगे...
जय हिंद...
raajeev ji chodiye ,in sab baato ko , bus aap to hame hansaate rahiye apni bahumulya rachnao ke dwara .. hum aapke deewane hai ji .. abki baar delhi aaunga to phir ek baithak kar loonga ...
take care. god bless you ..
vijay
Bahut Badhiya !
यह असमय तुम्हे मोह क्यों हुआ है पार्थ .उत्तिष्ठ अर्जुन युद्धाय कृत निश्चय !
मोह सकल व्याधिन कर मूला
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ना कोई तेरा है ना कोई मेरा है. अर्जुन तू अपना काम करता जा अर्जुन. तेरा काम है पोस्ट लिखना. तू वही करता रह और उससे समय मिले तो टिप्पणी कर ले, दूसरो के पढ ले या बिना पढे ही टिप्पणी कर ले वैसे इसके लिये पढना जरूरी नही है. बहुत से लोग पढके भी टिप्पणी नही करते तो तुम भी बिना पढे टिप्पणी करोगे तो सन्तुलन ही बढेगा.
किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में सारा जहान है।
आप से सहमत है... हे ! अर्जुन !!!!!
राजीव तनेजा वत्स
तुम अपने कर्तव्य से भटक रहे हो
चित्र में चेहरे बदलने चाहिए थे
वे क्यों नहीं बदले
बिना उनके बदले
बेबदले मेरे सरकार नजर आते हैं
मुझे तो पुराने वाले भगवान नजर आते हैं
ब्लॉगर कहां रह गये
उनके चेहरे इनके चेहरों पर चस्पां करो
तो बात बने
कोई तो बात बने
राजीव तने जा
और जा कर माउस उठा
और बदल दे चित्रों को
इतिहास को
जमाने को
जो माने
न माने
सभी को।
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