“चढ गया ऊपर रे…अटरिया पे…अटरिया पे लौटन कबूतर रे"…
“गुटर-गुटर…गुटर-गुटर"…
“ओह्हो!…दुबे जी आप"..
“जी तनेजा जी…मैं"…
“कहिए!…कैसे याद किया?”..
“ये मैं क्या सुन रहा हूँ?”…
“क्या?”..
“यही कि आपने हमेशा के लिए ब्लॉग्गिंग तो तिलांजलि दे बूढ़े बरगद के नीचे अपना सारा जीवन बिताने का निर्णय लिया है?”…
“सारा नहीं..आधा"..
“क्या मतलब?”…
“आधा तो बीत चुका"…
“जी!….बात तो काफी हद तक आपकी सही है कि आधा जीवन तो हमारा बीत चुका लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं हो जाता ना कि हम बाकी के बचे हुए आधे जीवन को भी यूँ ही बेकार में व्यर्थ हो…नष्ट हो जाने दें?”…
“अपनी करनी के चलते इसके अलावा और चारा भी क्या बचा है मेरे पास?”मेरा मायूस स्वर…
“क्या मतलब?”…
“हम थे जिनके सहारे…वो हुए ना हमारे"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“जिनसे सहारे की…अपनेपन की उम्मीद थी…उन सभी ने मेरा दामन छोड़ विरोधी खेमे से हाथ मिला लिया"..
“जी!…इसी बात का तो दुःख है कि…दोस्त…दोस्त ना रहे"…
“पछताएंगे!….पछताएंगे…मैं कहता हूँ कि एक ना एक दिन वो सब अपने किए पे बहुत पछताएंगे"…
“आप चिंता क्यों करते हैं तनेजा जी?…ऊपरवाले के घर देर है पर अंधेर नहीं….एक रास्ता अगर बंद होता है तो सौ नए रास्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं”….
“क्या मतलब?”…
“जहाँ एक तरफ आपके अपनों ने अपना कमीनापन दिखा आपका साथ छोड़ दिया तो वहीँ दूसरी तरफ कई ऐसे फन्ने खाँ ब्लॉगर भी तो अपने आप आपके साथ आ मिले जिनके बारे में आपने कभी सोचा भी ना था"…
“लेकिन क्या फायदा ऐसी बेनामियों की भीड़ भरी फ़ौज इकट्ठी करने का जो दुश्मन को अपना मुंह तक ना दिखा सके?"…
“मानी आपकी बात की बेनामी अपना मुंह दिखाने से कतराते हैं…सामने नहीं आते लेकिन पीठ पीछे.. दिलेरी से वार करने से तो नहीं घबराते"…
“क्या फायदा ऐसी दिलेरी भरी जाबांजी का कि दुश्मन को पता ही ना हो कि उसकी पीठ में ये चोरी-छुपे खंजर कौन घोंप रहा है?"…
“बात तो आपकी सही है लेकिन हमें इससे क्या?…हमारा मतलब तो हल हो रहा है ना?”…
“ख़ाक हल हो रहा है?…आज जो बेनामी हमारे पक्ष में धड़ल्ले से इधर-उधर कूद-फांद रहे हैं…क्या पता कल को वही गुलाटी मार…पलटते हुए हमारी बखिया उधेड़ने में पूरी लगन एवं ईमानदारी से मन लगा के ना जुट जाएँ"…
“जी!…ये रिस्क तो खैर इसमें है और सदा रहेगा लेकिन क्या ऐसे छोटे-मोटे जोखिमों के चलते हम अपनी आई पे आना छोड़ दें?…अपनी ज़ात दिखाना छोड़ दें?”…
“नहीं!..बिलकुल नहीं…कतई नहीं…कदापि नहीं"…
“वोही तो मैं भी कह रहा हूँ"…
“लेकिन दुबे जी..आप मानिए या ना मानिए असलियत में हमारा भांडा पूरे ब्लॉगजगत के सामने फूट चुका है…किसी भी क्षण हम धरे जा सकते हैं”…
“जी!…"दुबे जी के स्वर में चिंता का पुट था
“जितनी जल्दी हो सके…आप भी अपना बोरिया-बिस्तरा सँभाल पतली गली से निकल लें…कोर्ट का नोटिस या सम्मन बस आया ही समझो"…
“मुझे भी अपनी तरह डरपोक समझ रखा है क्या?”दुबे जी तिलमिला कर बौखलाते हुए बोले …
“इसमें डरपोक की क्या बात है?...जो सही है..वही बता रहा हूँ"....
"बहुत बढ़िया बात कर रहे हैं आप ...ऐसे थूक के चाटना तो कोई आपसे सीखे"...
"क्या मतलब?"...
"जब आपके बस का ही नहीं था कुछ करना तो फिर ऐसे बेफाल्तू में रणभेरी का बिगुल बजा हम सबको डिस्टर्ब क्यों किया?...अच्छे भले पोस्टें लिख रहे थे"..
"मैं पूछता हूँ आखिर क्यूँ आपने हम जैसे नौसिखियों को बरगला के अपने साथ मिलाया?"....
"अफ़सोस तो इसी बात का है कि सामने वालों को नेस्तनाबूत करने के लिए मैंने पुराने घिसे हुए धुरंदरों को अपने साथ मिलाने के बजाए तुम जैसे नौसिखियों से हाथ मिला...तुम्हें अपना हथियार बनाया"..
"तो?...क्या गलत किया आपने?"...
"नतीजा क्या हुआ इसका?"...
"क्या हुआ?"..
"मिस फायर"...
"मतलब?"...
"पट्ठे...उलटी-सीधी जैसी भी पोस्ट दागते थे...बूमरैंग की तरह उलटी हमी पे आ पड़ती थी"...
"तो?...इसमें हमारी क्या गलती है?..आपको कम से कम दो हफ्ते की पहले कोचिंग देनी चाहिए थी हमें कि कैसे वार करना है?...किस पर वार करना है?...और कब वार करना है?"..
"वोही तो...बिना सोचे समझे जो सामने आ रहा था...उसी पे वार करते चले गए तुम लोग...ये भी ना सोचा तुमने कि इस बेचारे ने हमारा बिगाड़ा क्या है?"..
"सब हमारी हे गलती है...सब हमारी ही गलती है..आप तो जैसे दूध के धुले हैं ना?"..
"क्यों?...मैंने क्या किया है?"..
"ये आप पूछ रहे हैं कि...मैंने क्या किया है?"..
"हाँ!...पूछ रहा हूँ...बताओ...क्या किया है मैंने?...बताओ...अब बताते क्यूँ नहीं?...सांप सूंघ गया क्या? या ज़बान तालु से चिपक गई?"..
"ना ही मुझे सांप सूंघ गया है और ना ही मेरी ज़बान तालु से चिपक गई है"...
"तो फिर भाई मेरे...बता क्या दिक्कत है तुझे जो तेरी ज़बान से शब्द नहीं फूट रहे हैं?"..
"ये सिर्फ आपका और आपकी दोस्ती का लिहाज़ ही है जो मुझे कड़वा बोलने से रोक रहा है"...
"अरे!...लिहाज़ को मार गोली और तू खुल के कड़वा बोल...बिंदास हो के कड़वा बोल"...
"अगर आप में हिम्मत है अपने खिलाफ सुनने की तो फिर ध्यान से कान खोल के सुनें...
"बोलते जाओ…मैं सुन रहा हूँ"….
"ये आप ही हैं जिसके वजह से हमारे आंदोलन की फुस्स करके हवा निकली है"...
"मेरी वजह से?"...
"हाँ!...आप ही ने हमें बरगला के अपने तयशुदा रास्ते पे आँखें बंद कर के चलने के लिए उकसाया"..
"मैंने?"..
"जी हाँ!...आपने"...
"हे भगवान!...या तो तू इस कमीने को डायरेक्ट ऊपर यमलोक में पहुंचा दे या फिर मुझे इस धरती से ऊपर..अपने पास बुला ले...ऐसी घटिया बातें सुनने से पहले मेरे ये कान पक क्यूँ ना गए?"..
"सही कहते हैं सब...
"जब #$%^&^%$# लगी फटने तो खैरात लगी बटने"..
"क्या बकवास कर रहे हो?"..
"अब आप भगवान को याद कर रहे हैं...अब?"...
"क्यों?...मैं लेट हो गया क्या?"...
"हाँ!...अब बहुत देर हो चुकी है...पानी सर के ऊपर से गुज़र चुका है...अब तो मौत आई ही आई समझो"..
"ओह!...
"तब आपका दिमाग क्या घास चरने गया था जब मैं आपको सैंकडों उदहारण दे के समझा रहा था कि सामने वालों से पंगा मत लो...पंगा मत लो...मुंह की खानी पड़ेगी वगैरा...वगैरा...लेकिन उस समय तो जनाब के सर पे हिंदी ब्लॉगजगत का सर्वेसर्वा बनने का भूत सवार था ना?"...
"उनकी मठाधीशी को जड़ से...मूल से उखाड फैंकना चाहते थे ना?"..
"तो?..क्या गलत इरादा था मेरा?"...
"मैंने कब कहा कि इरादा गलत था आपका?...वो तो बस नीयत ही थी जो एन टाईम पे डावांडोल हो गई थी"..
"क्या मतलब?...कहीं तुम मुझे अवसरवादी कहने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो ना?"....
"कोशिश नहीं कर रहा बल्कि डंके की चोट पे फुल कान्फीडैन्स में मैं ऐसा कह रहा हूँ"..
"ओह!...रियली?…अपने इस इलज़ाम को साबित करने के लिए तुम्हारे पास कोई पुख्ता सबूत है?"..
"बिलकुल है"..
"ओह!...
"मेरा माथा तो उसी दिन ठनक गया था जब आप संगठन का विरोध करते-करते अचानक संगठन के ही हिमायती बन उस के पक्ष में सीना तान के खड़े हो गए थे"...
"तो?...क्या गलत था इसमें?...दुश्मन से लड़ने के लिए भी तो एकता ज़रुरी है"...
"वो भी तो यही कह रहे थे कि एकता में बड़ा बल है ...इसलिए संगठन का होना निहायत ही ज़रुरी है"..
"लेकिन वो हमारे नहीं बल्कि अपने संगठित होने की बात कर रहे थे"...
"लेकिन उन्होंने उसमें हमें शामिल करने से इनकार भला कब किया था?"..
"तो न्योता भी तो नहीं दिया था...इसी से तो सारा खेल बिगड़ा"...
"रहने दीजिए तनेजा जी...सब बेकार की बातें हैं अपनी गलतियों को छुपाने के लिए आप बेवजह उन पर इलज़ाम लगाएं... तथ्यों के साथ छेड़-छाड़ करें...ये उचित नहीं"..
"जी!..
"और फिर चलो मान लिया कि आप अपनी अनिष्टकारी जिद के चलते किसी बात पे अड़ गए हैं तो उस पे अड़े तो रहिये कम से कम"..
"क्या मतलब?"..
"क्या ज़रूरत पड़ गई थी आपको उस नामुराद के आगे हाथ जोड़ के गिडगिडाने की कि मुझे वापिस ले लो..मुझे वापिस ले लो"...
"मैं हाथ जोड़ रहा था?"..
"और नहीं तो क्या वो लोग 'नुक्कड़' पे खड़े हो के चिरौरी कर रहे थे आपसे कि...
"आ!...लौट के आजा मेरे मीत रे...मेरे मीत रे...के तुझे मेरे गीत बुलाते हैं"
"क्यों यार!...जले पे नमक छिड़क रहे हो बार-बार ऐसा कह के?"......
"ठीक है!…नहीं छिडकता …आप भी क्या याद रखेंगे? और फिर वैसे भी जो बीत गया...सो बीत गया...पुराने पापों को अब ...इस घड़ी में याद कर के क्या फायदा?"..
"जी!...
"तो अब क्या सोचा है आपने?"..
"मैं सोच रहा हूँ कि ब्लॉग्गिंग से संन्यास तो ले ही लिया है तो कुछ दिन के लिए क्यों ना तिरुपति बाला जी के दर्शन कर आऊँ?"..
"तो फिर मेरे लिए क्या आज्ञा है?"...
"तुम भी ये बेकार के टंटे छोडो और निकल लो पतली गली से दुम दबा के...नोटिस अब बस आया ही समझो"..
“छोडिये तनेजा जी...ये नोटिस…ये सम्मन..सब बेकार की बातें हैं…इन्होने आना होता तो कब के आ चुके होते"…
“ये भी तो हो सकता है कि वो हमारे पाप के घड़े के भरने का इंतज़ार कर रहे हों"…
“वो तो कभी भी नहीं भरने वाला…मैं गारैंटी के साथ कह सकता हूँ"…
“कैसे?”…
“मैंने उसमें नीचे की तरफ से छेद जो कर रखा है"…
“ओह!…यू आर जीनियस…माईंड ब्लोइंग…सच्ची…कसम से …मज़ा आ गया"…
“बस…इसी चीज़ का तो डर है”…
“किस चीज़ का?”…
“माईंड के ब्लो हो..टूट-फूट कर..छिन्न-भिन्न हो बिखर जाने का"…
“वो क्यों भला?”..
“जब भी मैं अपनी ओछी एवं टुच्ची हरकतों से अपने दिन पर दिन बढते हुए लुच्चेपन को जगजाहिर करता हूँ या शैतानी भरी कोई कारस्तानी करता हूँ तो एक डर सा सताता रहता है हर वक्त मन में"..
“किस तरह का डर?”…
“यही कि अत्यधिक चालाकी दिखाने से कहीं मेरा दिमाग ओवरलोड के मारे भुड़..भुड़..कर भड़ाम करता हुआ अचानक से टैं ना बोल जाए”…
“यू मीन!…फुल एण्ड फाईनल पटाखा ना फूट जाए?"…
“जी!…
“ओह!…तो फिर क्या सोचा है आपने?”…
“सोचना क्या है?…अब तो मैंने अपनी नैय्या उस ऊपर बैठे पालनहार के हवाले कर दी है…अब तो सब उसकी रज़ा पर निर्भर है कि वो मुझे पार लगा मेरा जीवन संवारता है या फिर बीच भंवर के गुड़..गुड़ कर गोते खिलाता हुआ मेरे बेड़े को गर्क करने की तैयारी करता है”..
“क्या मतलब?”…
“अब तो बस आर-पार की लड़ाई लड़नी बाकी है”…
“क्या मतलब?”…
“अब चाहे लाख तूफां आएं…या फिर जान भी अब चली जाए…
मिल के ना होंगे..जुदा…जुदा……आ कसम खा लें”…
“क्या मतलब?”…
“हमारी एकता …बनी रहे…बनी रहे”दुबे जी की आवाज़ अचानक जोश से भर उठती है …
“जूनियर ब्लॉगर एसोसिएशन….जिंदाबाद”…
“जिंदाबाद-जिंदाबाद"मैं भी उनके स्वर में अपना स्वर मिला अपनी मंशा जाहिर कर देता हूँ …
“तनेजा जी!…अब तो कुछ भी हो जाए….ये इलाहबाद का सम्मेलन तो हर हाल में होकर रहेगा"…
“मेरी बात मानो और ये सब टंटा छोड़ तुम भी मेरी तरह निकल लो पतली गली से…कोई फायदा नहीं है इस सब बेकार के झमेले में"…
“हुंह!…कर दी ना बनियों वाली बात इसमें भी कि …कोई फायदा नहीं है"…
“अरे!…फायदे-नुक्सान को छोड़ो और मेरी मानो तो चुपचाप खिसकने में ही भलाई है"…
“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप भी?…मैं?…मैं मैदान छोड़ के भाग जाऊं?…सवाल ही नहीं पैदा होता…अब तो या वो नहीं या हम नहीं"…
“लेकिन ये तो सोचो कि एक अकेला चना कैसे उनकी पूरी बटालियन की भाड़ फोड पाएगा?”…
“सवा लाख से एक लडाऊँ"…
“मतलब?”…
“मैंने सिख धर्म को अपनाने का फैंसला किया है"…
“तो?…उससे क्या होता है?”…
“अब से गुरु गोविंद सिंह जी ही मेरे सच्चे हमदर्द …मेरे सच्चे आदर्श हैं"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“मुगलों के साथ युद्ध के समय उन्होंने अपनी फ़ौज में जोश भरते हुए ये नारा दिया था कि…
“सवा लाख से एक लड़ाऊँ”…
“ओह!…
“बस!…उन्हीं के नक़्शे कदम पे चलते हुए मैंने भी अपनी फ़ौज तैयार की है"…
“हाह!…सुनो…ठाकुर ने हिजडों की फ़ौज बनाई है …हिजडों की"…
“आपको कैसे पता?”…
“क्या?”…
“यही के मेरे संगी-साथियों में….
“बस ऐसे ही…गैस्स …तुक्का समझ लो"…
“ओह!…फिर ठीक है लेकिन किसी से कहियेगा नहीं"…
“बिलकुल नहीं…लेकिन मेरे एक बात समझ नहीं आ रही"…
“क्या?”..
“यही कि आप जैसे दो-चार झाड-झंखाड उनका भला क्या उखाड पाओगे?”…
“हमें आप कम ना समझो…हमारी टीम में एक से एक धुरंदर …एक से एक फन्ने खाँ भरा पड़ा है”…
“जानता हूँ मैं तुम्हारे सब फौजियों को…एक ‘प्यासा' है …जो कब बिना पानी के तड़प-तड़प के प्यासा मर जाए …कुछ पता नहीं…दूसरा वो ‘महाशक्ति'…हाँ!…वही जिसे अपनी शक्ति पे बड़ा नाज़ है…असल में तो उसे खुद नहीं पता कि उसकी शक्ति का ह्रास हुए तो मुद्दतें बीत चुकी हैं और तीसरे याने के फाईनल योद्धा बचे तुम याने के ‘दुबे'…तुम कब शर्म के मारे चुल्लू भर पानी में डूब मरो …तुम्हें खुद नहीं पता"…
“तनेजा जी!…प्लीज़…प्लीज़ चुप हो जाइए….क्यों सबके सामने हमारी मिटटी पलीद करने पे तुले हैं?”…
“अरे!…मिटटी तो तुम लोगों की एक ना एक दिन पलीद होनी ही है…तो फिर इस शुभ काम में देरी क्यों?”..
“ठीक है!…मानी आपकी बात कि अपने कर्मों के चलते हमारा बेडागर्क होना हमारी नियति में ही लिखा है लेकिन इस सब के लिए इतनी जल्दबाजी क्यों…इतना उतावलापन क्यों?”…
“अभी कहा ना?”…
“क्या?”…
“यही कि नेक काम में देरी किसलिए?”…
“ओह!…लेकिन ये कोई ज़रुरी तो नहीं कि अपने कटु वचनों के द्वारा आप ही हमारा बंटाधार करें?”..
“अरे!…मित्र हूँ तुम्हारा….इतना हक तो बनता है मेरा”…
“जी!…बात तो आपकी काफी हद तक सही है लेकिन वो क्या है कि अपनों द्वारा बे-इज्ज़ती करवाने में ज़रा शर्म सी महसूस होती है"..
“दुबे जी…एक बात बताइए"..
“जी"…
“आखिरी बार आप कब नहाए थे?"..
"यही कोई हफ्ता भर पहले...क्यों?...क्या हुआ?"...
"आईना भी आपने तभी देखा होगा?"...
"जी!...
“कोई खास चीज़ नोटिस की थी तब आपने?”…
“किस बारे में?”…
“अपने बारे में"…
“कोई खास चीज़?”…
“जी!…
“ऐसे तो कुछ खास याद नहीं"…
“दिमाग पे ज़रा जोर दे के एक बार फिर से सोचिए"..
“जी!…
“कुछ याद आया?”…
“नहीं"…
“एक बार फिर से पूरा ज़ोर डाल के सोचिए"…
“जी!…
“अरे-अरे!…क्या कर रहे हैं?…टूट जाएगी…यहाँ टेबल पे नहीं…दिमाग पे पूरा ज़ोर डाल के सोचिए"..
“जी!…लैट मी थिंक अगेन"दुबे जी दिमाग पे त्योरियाँ डाल सोचने की मुद्रा अपनाते हुए बोले…
“कुछ याद आया?”..
“हाँ!…
“क्या?”…
“मेरे उभरे-उभरे"…
"क्या?"..
"मोटे-मोटे"….
"क्या?"..
"गोल-मटोल"…
“क्या?”…
“गाल"…
“ओह!…इसके अलावा और कुछ नहीं दिखाई दिया आपको?”मेरे स्वर में हैरानी से भरा मायूसी वाला पुट था …
“आईने में सिर्फ मुझे अपना मुंह ही देखना था ना?”…
“जी!…
“हाथ-पैर…या कमर का अगला-पिछला…ऊपरला-नीचरला भाग तो नहीं?”…
“बिलकुल नहीं"…
“तो फिर आप ही बताइए कि आईने में मुझे अपने कश्मीरी सेब जैसे लाल-लाल सड़ेले टमाटर के माफिक गालों के अलावा और क्या दिखाई देना चाहिए था?”…
“क्यों?….आपको अपने चेहरे पे ये झाड़ -झंखाड़ के माफिक उग आई दाढ़ी-मूछें नहीं दिखाई दी थी?”…
“तो?…इनसे क्या साबित होता है?”…
“यही कि अब आप बच्चे नहीं रहे”…
“तो?”…
“इसलिए अब आपके साथ कोई हमदर्दी नहीं …कोई रियायत नहीं"…
“तो मैं कौन सा आपसे रहम की भीख मांग रहा हूँ?…या मोक्ष प्राप्ति के लिए गिडगिडा रहा हूँ?…बस…यही तो कह रहा हूँ कि …अपनों द्वारा बे-इज्ज़ती करवाने में ज़रा…शर्म सी महसूस होती है"..
“मैं भी तो वही कह रहा हूँ कि शर्म को त्यागिये"…
“जी"…
“तो आप तैयार हैं?”..
“जी!…बिलकुल…शुरू कीजिए…नेक काम में देरी कैसी? लेकिन ज़रा संभल कर बोलियेगा"…
“क्यों?…मैंने किसी का ले रखा है क्या?”…
“क्या?”…
“कर्जा?”..
“बिलकुल नहीं"…
“किसी का खा रखा है क्या?”…
“क्या?”..
“पैसा"…
“बिलकुल नहीं"…
“तो फिर मैं किसी से क्यों डरूं?”…
“डरना तो आपको पड़ेगा ही पड़ेगा…बेशक…अपनी मर्ज़ी से डरें या फिर हमारी मर्ज़ी से…डरना आपकी नियति में लिखा है"…
“वो कैसे?”…
“क्यों?…शुरुआत तो आप ही ने की थी ना उस बिना बात के विवाद को हवा दे के?”…
“वो बिना बात का विवाद था?”..
“जी!…हाँ…वो बिना बात का ही विवाद था"…
“कैसे?”…
“क्या ज़रूरत थी आपको अपने ब्लॉग पे ये पोस्ट लगाने की कि उस ब्लॉगर मीटिंग में खाने-पीने के अलावा कुछ नहीं हुआ था?”…
“अरे!..कमाल है…जैसा मुझे लगा वैसा मैंने लिख दिया तो क्या गुनाह किया?”..
“ठीक है!…आप लिख दिया…कोई गुनाह नहीं किया लेकिन इतने महीनों बाद ही आपको उस प्रकरण की याद कैसे और क्योंकर आई?”..
“कौन सा जवाब दूँ?”..
“कौन सा से मतलब?…जौन सा सही है…वही जवाब दीजिए"…
“दोनों ही सही हैं"…
“क्या मतलब"…
“आजकल मुझे बीमारी हो गई है"…
“बवासीर की?”…
“नहीं"…
"तो फिर?"..
"कादर खान की फिल्में ज्यादा देखने लगा हूँ आजकल मैं"..
“तो?”…
“उसी से इंस्पायारड हो के मैं हर जगह …हर वक्त डबल स्टेटमैंट देने लगा हूँ"…
“गुड़!…वैरी गुड़"..
“तो इस मुद्दे पे आपका पहला स्टेटमैंट क्या है?”..
“यही कि…मुझे हिट्स नहीं मिल रहे थे…इसलिए…
“इसलिए आपने सोचा कि मौक़ा भी माकूल है और माहौल भी अच्छा है…कि इस तरह से बेमतलब के विवाद को हवा दे मुफ्त में अपनी रोटियां सेंकी जाएँ?”..
“जी!…
“चिंता ना करिये अब आपको जी भर के ताबड़ तोड़ …जबड़ा तोड़ हिट्स मिलने वाले हैं”…
“थैंक्स"…
“और आपका दूसरा स्टेटमैंट क्या है इस पूरे प्रकरण के बारे में?”…
“दूसरा भी यही है"…
“ये तो कोई बात नहीं हुई कि आप एक ही बात को दो-दो बार बोल दें"…
“कहने को तो मैं ये भी कह सकता था कि वहाँ का खाना एकदम बकवास था लेकिन मैंने कहा क्या?”…
“नहीं ना?”…
“आप एकदम से इतना बड़ा सफ़ेद झूठ कैसे बोल सकते थे?”…
“कैसे बोल सकते थे…से मतलब?…बाद में बोले कि नहीं?”…
“जी!..अपनी बाद की पोस्टों में आपने कहा कि ब्लॉग माफिया हावी हो रहा है हिन्दी ब्लॉग्गिंग के ऊपर"…
“तो कौन सा मैंने सच कहा?”…
“आपने कहा कि मठाधीशी के चक्कर में ये संगठित होने की बात कर रहे हैं"…
“तो कौन सा सच कहा मैंने?…झूठ ही कहा ना?”..
“अगर ये सब झूठ है तो फिर सच क्या है?”..
“ये तो मुझे भी नहीं पता"..
“तो फिर आपको पता क्या है?…टट्टू?”…
“मुझे बस इतना पता है कि कैसे दूसरों की जलती भट्ठी में मैंने अपना भुट्टा भूनना है?”..
“मतलब?”…
"मुझे एकदम क्लीयरकट पता है कि कैसे दूसरों का नाम ले के…उन पर ऊल-जलूल इलज़ाम लगा के मुझे अपना उल्लू सीधा करना है"…
“उल्लू सीधा करना है…से मतलब?”…
“अरे भाई!..सीधी सी बात है इतने दिन हो गए मुझे इस ब्लॉगजगत में कलम घिसते-घिसते…
“कलम घिसते-घिसते नहीं…कीबोर्ड पे उंगलियाँ टकटकाते “…
“जी!…वही लेकिन स्साला…कोई पहचान ही नहीं बना पा रहा था मैं अपनी"…
“ओह!…
“कभी गलती से कुछ अच्छा भी लिख लो तो स्साला….कोई भाषा की गलतियाँ निकालने चला आता था मुफ्त में तो कोई खाली दिमाग वर्तनी की अशुद्धियाँ गिनाने के लिए पालथी मार के बैठ जाता था"…
“ओह!…तो आपने उन्हें सुधारा क्यूँ नहीं?”..
“ख़ाक सुधारूँ?…जब कुछ आता हो तभी तो”…
“तो फिर आपने ब्लॉगजगत में किसी से मदद लेनी थी था इस सब के लिए"..
“ली ना"…
“तो फिर?”..
“जिस किसी से भी चैट के दौरान इस बाबत जिक्र किया….थोड़ी देर में ही उसका स्टेटस ऑफ लाइन दिखाने लगता था"…
“ओह!…
“एक-दो ने ईमानदारी से कोशिश भी की लेकिन एन टाईम पे या तो उनके कमरे के बल्ब का फ्यूज उड़ जाता था या फिर पूरे घर की बत्ती ही गुल हो जाती थी”…
“ओह!…लेकिन सभी ब्लॉगर घर बैठ के ही थोड़े ही टाईम पास करते हैं…कुछ एक तो ऐसे भी होंगे ही जो सायबर कैफे में बैठ के सबका तिया-पांचा करते होंगे"…
“जी!…बहुत से हैं”…
“तो फिर?”…
“मैंने जब-जब भी उनसे इस बारे में जिक्र किया…तब-तब संयोग देखिए उनके घर जाने का वक्त हो रहा होता था"..
“ओह!…
“एक-दो बार तो वो इस सब के लिए तैयार भी थे लेकिन जब…अपनी…खुद की किस्मत ही खराब हो तो दूसरे को क्या दोष दें?”…
“क्या मतलब?”..
“मैंने जब-जब उनसे मदद माँगी …तब-तब सायबर कैफे के बंद होने का वक्त हो रहा होता था"…
“ओह!…वैरी सैड”…
“जी!…बहुत सैड”…
“तो फिर आपको उनके बजाय अपने किसी स्कूल के यार-दोस्त वगैरा से इस बारे में पूछ लेना था"…
“हम सभी छोले दे के पास हुए थे"…
“क्या मतलब?”…
“हमारे हिन्दी के टीचर को छोले-भठूरे बहुत पसंद थे"…
“तो?”…
“तो हम सभी ने मिल के उनके घर काबुली चनों की एक पूरी बोरी भिजवा दी थी"..
“पास होने के लिए?”…
“जी!…
“तो क्या आपके सभी साथी पास हो गए थे?”..
“नहीं!…मुझ समेत सब के सब फेल हो गए थे"…
“क्या मतलब?…ऐसा कैसे हो सकता है?…आपके हिसाब से तो टीचर को छोले बहुत पसंद थे ना?”..
“जी"…
“तो फिर ऐसा…कैसे?”…
“दुकानदार ने हमसे दगा किया"…
“ओह!...तो क्या उसने छोलों के बजाए राजमा…या फिर मूंग छिलका?”..
“नहीं!…भेजी तो पट्ठे ने छोलों की ही बोरी थी"..
“तो फिर?’…
“बदकिस्मती से उनमें कीड़ा लगा हुआ था"…
“ओह!…तो क्या इस बात को मैं सोलह आने सच समझूँ कि आपने हमेशा के लिए ब्लॉग्गिंग से सन्यास ले चिरकुटियाने का फैसला किया है?”..
“चिरकुटियाने का नहीं…तिरुपति जाने का फैसला किया है"…
“लेकिन किसलिए?”..
“लड्डू लेने…तुमने मंगवाने हैं?”..
“अब जब आप अपने लिए ला ही रहे हैं तो मेरे लिए भी लेते ही आइएगा…मोतीचूर के”…
“जी!..ज़रूर"…
“लेकिन एक बात नहीं समझ आ रही”..
“क्या?”…
“यही कि आप लड्डू लेने इतनी दूर क्यों जा रहे हैं?..अपना यहीं-कहीं…आस-पड़ोस से भी तो…
“ताकि अपनी नाक कटवा लूँ?”…
“क्या मतलब?”..
“आस-पड़ोस के लोग-बाग क्या सोचेंगे कि इतनी बड़ी जूनियर ब्लॉगर एसोसिएशन का स्वयंभू प्रैसीडैंट कलाकंद और रसमलाई खरीदने के बजाए लड्डू खरीद रहा है"…
“क्या बॉस?…मैं तो सोचता था कि इस पूरी दुनिया में सिर्फ एक अकेला मैं ही हूँ जो भौंकते कुत्तों की परवाह करता है लेकिन यहाँ भी आप भी मेरे एकाधिकार को चैलेन्ज कर रहे हैं"…
"अरे!...परवाह तो मैं बिलकुल नहीं करता लेकिन क्या करूँ?...स्साले!…भौंक ही तो नहीं रहे”...
“क्या मतलब?”..
“लाख दफा उकसा के देख लिया पट्ठों को कि…’आओ!…सम्मन भेजो हमें… तुम्हारे नोटिस के इंतज़ार में हमें नींद नहीं आ रही"...
"गधे के माफिक रेंक-रेंक के खूब चिल्ला लिए हम..खूब भौंक लिए हम लेकिन स्सालों के कान पे जूं तक नहीं रेंग रही…पता नहीं किस मिटटी के बने हैं कम्बख्त मारे?...
“एक्चुअली बॉस!...भौंक तो हम लोग रहे थे...वो बेचारे तो बिना किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया किए चुपचाप अपने दडबों में छिपे बैठे थे"...
"वोही तो...उन्हें उनके दडबों से बाहर निकाल हमारा सामना करने के लिए हमने ना जा ने कितनी बार और किस-किस तरह से नहीं उकसाया...क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाए हम लोगों ने?..लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात...कोई कुछ बोल के ही नहीं राजी था"...
"कहीं ये किसी तूफ़ान के आने से पहले की शान्ति तो नहीं है ना बॉस?”…
"क्या कहा जा सकता है?"...
"जी!...
"अच्छा तो अब मुझे विदा दें...गाड़ी का समय हो रहा है"...
"जी"...
"जिंदा रहे तो फिर मिलेंगे"...
"ज़रूर!...आपकी यात्रा मंगलमय हो"...
"धन्यवाद"..
"तनेजा जी!...पूरी जिंदगी में तो आपने सिर्फ पाप किए हैं"...
"जी!…किए तो हैं"…..
"जाते-जाते मेरा एक काम करते जाइए...आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी"..
"ज़रूर!...मेरा अहोभाग्य कि मैं आपके किसी काम आ सका"..
"शुक्रिया"…
"कहिये!...मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ?"...
"वो ज़रा...'पलक' का नंबर दे देते तो बड़ी मेहरबानी होती"..
"पलक का?"...
"जी!...
"कोई खास काम था या फिर ऐसे ही महज़ टाईम पास के लिए ....
"खुद उसी ने मेरी पोस्ट पर अपने अंतिम कमेन्ट में मुझसे बात करने की इच्छा जताई थी और कहा था कि मैं उसका नंबर आप से ले लूँ"...
"पलक ने खुद ऐसा कहा था?"..
"जी!...खुद पलक ने..वर्ना मेरा स्वभाव तो आप जानते ही हैं कि मुझे लड़कियों से कितनी नफ़रत है?"..
"जी!..ये तो आपकी शक्ल से ही पता चल जाता है"...
"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"...
"ये काम्प्लीमैंट नहीं है बच्चे"...
"ओह!...तो फिर इसे शुद्ध हिंदी में क्या कहते हैं?"..
"इज्ज़त उतरवाई"...
"ओह!...
"भूल जाओ उसे...वो तुम्हारे हाथ नहीं आने वाली"...
"कैसे?...कैसे भूल जाऊं मैं उस प्यारी सी गुडिया को?...कैसे भूल जाऊं उसकी सैक्स रस में भीगी गुप्तज्ञान सरीखी गर्मागर्म रचनाओं को?"..
"आज सुबह तुमने क्या खाया था?"...
"याद नहीं...क्यों?...क्या हुआ?"....
"जैसे तुम्हें सुबह का खाया हुआ याद नहीं...वैसे ही मुझे भी उसका नंबर याद नहीं"..
"आप झूठ बोल रहे हैं"...
"हाँ!...बोल रहा हूँ...तो?"..
"तनेजा जी!...प्लीज़...मुझे उसका नंबर दे दीजिए...प्लीज़"..
"छोडो उसे...कोई और बात करो?"
"छोड़ दूँ उसे ताकि आप अकेले-अकेले मौज ले गुलछर्रे उड़ा सकें उसके साथ?"..
"नहीं!...ये बात नहीं है ...दरअसल वो तुम्हारे लायक नहीं है...इसलिए....
"क्यों?...वो काणी थी क्या?"...
"नहीं"...
"या फिर लंगडी-लूली थी?"...
"नहीं"...
"किसी खजैले कुत्ते ने उसे छबीस बार काट खाया था?"....
"यार!...तुम समझ नहीं रहे हो"...
"क्या समझ नहीं रहा हूँ मैं?...सब समझ रहा हूँ मैं कि तुम अकेले ही सारी की सारी घेवर-मलाई चट कर जाना चाहते हो"...
"अरे!…काहे का घेवर?…काहे की मलाई?…कुछ भी नहीं था उसमें"…
“ओह!...तो इसका मतलब सब कुछ तुम पहले से ही चट कर गए थे ना ?...और मुझे बताया भी नहीं...बदमाश कहीं के"...
"अरे!..ये बात नहीं है यार"...
"ये बात नहीं है ..वो बात नहीं है ...तो फिर क्या बात है?...मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है"...
"दरअसल!....
"मिलवाया नहीं तुमने मुझे उससे...कोई बात नहीं लेकिन बात तो करवा ही सकते हो ना कम से कम?...एक नंबर ही तो माँगा है तुमसे"....
"अरे!...कहाँ से दूँ नंबर?...कैसे दूँ नंबर?...कितनी बार कहूँ कि मर चुकी है वो"..
"नहीं!...ये हो नहीं सकता"...
"कैसे यकीन दिलाऊँ तुम्हें मैं कि मैंने खुद...अपने इन्ही नायाब हाथों से उसके पूरे प्रोफाईल और ब्लॉग को डिलीट कर उसे सजाए मौत का हुक्म सुनाया है"...
"आह!...ये मैंने क्या कर डाला?...मैंने खुद ही उसे जन्म दिया और मैंने खुद ही उसे मार डाला...आह"...
(दोनों की विलाप करती रोने की तेज आवाज़ और फिर पर्दा गिरता है )
कथा समाप्त
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
Delhi(India)
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+919136159706
31 comments:
आहा, बस मार ही डालोगे :)
बडे दिनों बाद इस गाने की याद आयी, हम चले गुटुर गुटुर सुनने ।
sachmuch ek achchha vyangya aur astariye bhi
shubh kamnaon ke sath
Arun kumar jha
शीर्षक देखकर तो एकबारगी चौंक ही गयी मैं ..
शीर्षक देखकर तो एकबारगी चौंक ही गयी मैं ..
उसे सजाए मौत का हुक्म सुनाया है"
त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम्
रहम करो महाराज,
अब और नहीं अब और नहीं
हम तो यह सोच कर आये थे कि झूटमूट दुख प्रदर्शित कर देंगे, कह देंगे कि लौट आओ और मन ही मन प्रसन्न हो लेंगे कि टंटा छूटा..मगर आप ऐसे जबर निकले कि टिके ही हो और इत्ता लम्बा पढ़वा भी दिये. :)
अब सुनेंगे ’चढ़ गया उपर रे, अटारिया पे...लोटन कबूतर!!!’- कुछ गम गलत हो!!
हा हा हा हा
हो गया जी अब
हो गया।
बड़ी देर लग गई
सबसे पहले लाईन में लगे थे और अब पहुंचे
लेकिन मैं ये क्या देख रहा हुँ आर्य
इतनी ऊंची सीढी कहां से लाऊं
जो नांगलोई मैट्रो स्टेशन तक पहुंच जाए:)
vaah....gaharaa vyangya. lambaa lekh thaa, fir bhi pooraa parh gaya.aap aane vale samay ke sashakt vyangyakaar hai. is rachanaa se bhi yah pramanit hota hai.
रघुपति राघव राजा राम,
सबको सम्मति दे भगवान...
जय हिंद...
वाह राजीव जी बेहतरीन..शोर शराबे के वक्त आप कुछ नही बोलते बस देखते रहते है और उसके बाद एक बेहतरीन व्यंग..बहुत बढ़िया लगा..खुद से ही ब्लॉग बनाना और डेलीट कर देना..शायद अभी कुछ और हैं जिन्हे लोगों को डेलीट करने की ज़रूरत है..
बहुत मजेदार और बढ़िया व्यंग....बधाई
जन्म दिये को मारना अच्छी बात नहीं है. अभी तो रास आना शुरू ही हुआ था.
वाह राजीव जी बेहतरीन..शोर शराबे के वक्त आप कुछ नही बोलते बस देखते रहते है
kya baat hai !
bhai kya baaaaaaaaaaat hai !
waah waah
dil khush kar diya ..........
ek pyala chaay meri taraf se pee lena
...वाह वाह ...क्या स्टाईल है!!!!
वाह तनेजा जी, इसे कहते हैं इक्स्पिरिएन्स !!
इतना लम्बा पोस्ट मगर एक जरुरी पोस्ट पढ़कर संतोष हुआ...
सब कुछ तो आपने बखान कर दिया... अब मैं तारीफ़ में क्या और कैसे कहूँ... क्या मैं भी तिरुपति होकर आऊं...!!
राजीव तनेजा जी
पूरी ईमानदारी से कहियेगा कि अगर ये पोस्ट किसी और ब्लॉगर ने लिखी होती और दुबे , महाशक्ति इत्यादि कि जगह नाम मे तनेजा , झा , वाचस्पति इत्यादि दिया होता तो क्या अबतक उस पोस्ट लिखने वाले को कानूनी कार्यवाही कि धमकी ना मिल गयी होती ??
आप कि पोस्ट अच्छी हैं भाषा भी ठीक हैं लेकिन गुटबंदी हैं ये भी गलत नहीं हैं और किसी भी संगठन कि नीव अगर गुटबंदी पर होगी तो वो संगठन बन ही नहीं सकेगा । हिंदी ब्लॉग को संगठन कि जरुरत हैं लेकिन गुट बंदी कि नहीं । जिन चीजों से आप सब लड़ना चाहते हैं कहीं ना कहीं उनको ही मंतव्य ना होते हुए भी बढ़ावा देते ही हैं
जबरदस्त व्यंग्य
क्या तमाचा रसीद किया है जी
आवाज भी ना आये और मुंह भी लाल
प्रणाम स्वीकार करें
Jhakas Idea.
is baar bhee bahut behatar likha ahai aap ne
हमेशा की तरह एक और जबरदस्त हास्य स्क्रिप्ट तैयार हो गई सर... कल इतना थका था कि पढ़ते-पढ़ते ही सो गया था.. :(
भाई राजीव एक पोस्ट से पूरी सेना की ऐसी तैसी करना कोई आपसे सीखे. नाम बहुत महत्वपूर्ण नही है महत्वपूर्ण है वो गन्दगी जो इन जैसे लोगो ने फ़ैलाई. और अब भले ये सुधरने का कितना ही नाटक कर ले लेकिन इनके नये नये चले (और कौन जाने सुश्री पलक की तरह ये भी इनके ही उत्पाद हो) और डबल क्रोस कर रहे हो. पोस्ट हिट जो करनी है. किसी भी तरह हिट होन्गे तो ही फ़िट रहेन्गे
और आप भी ना अपना खुद का नाम तो जूनियर ब्लोगर मे लिखा लिया और हमे भूल गये. दुबे, महाशक्ति तो बदे ब्लोगर है हमरा भी नाम लिखो ना जूनियर ब्लोगरो मे.
बगाबत सिन्ह की भे सुनो सारे इसके या उसके नकारात्मक कमेन्ट हटा दो. हमारा भी अगर ऐसा लगे तो.
हरि शर्मा
सबसे जूनियर ब्लोगर
शीर्षक पढ कर तो मै परेशानं हो गया था, सोचा यह कया हो गया...... लेकिन जब पांच किलो मीटर लम्बी पोस्ट पढते पढते पढते पढते थक गया तो पानी के चार गिलास पी कर भगवान क शुक्र किया कि राजीव जी डंटे है, ओर पोस्ट पढ कर मजा आ गया, चलिये हमे भी अपने मै शामिल कर ले
hum to tankee se utaarne ke liye seedhee laane jaa rahe the, yahan aakar pata chala ki maazra kuchh aur hai.....badhiya vyangya kiya hai....badhai
शीर्षक देख कर हम तो डर ही गए थे..... सच कह रहे हैं.... आपकी शैली का जवाब नहीं..... आप तो बाँध कर रख देते हैं..... शब्दों से......
यह मजाक ही रहे तो अच्छा है | बाकी आपसे मेरी बात हो चुकी है मेरे विचार आप जानते ही है !
ये गुटर गुटर भी खूब रही
आह ! आपकी अपनी पेटेंटिड शैली की रचना. बहुत सुंदर.
बेहद सटीक, रोचक और प्रभावशाली रचना की सुन्दर प्रस्तुति !
अच्छी शैली है भाई पसन्द आई |
वाह क्या तीर चलाये हैं बधाई। कोई लगा निशाने पर?
रहम करो महाराज,
अब और नहीं अब और नहीं
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