हाँ!…मैंने भी ‘बलात्कार' किया…किया है उसका …जो जगत जननी है …जीवन दायनी है…लाखों-करोड़ों की संगिनी है … खुद मेरी भी अपनी है …
मैं ताकता हूँ हर उस ऊंचाई की तरफ…हर उस उपलब्धि की तरफ …जो मुझे खींच ले जाए लक्ष्मी के…कुबेर के द्वार…पर इसी सनक में भूल जाता हूँ हर बार कि पैर तो नहीं टिके हैं मेरे ज़मी पे इस भी बार……
मैं आप में…आप में और आप में भी हूँ…मैं नायक हूँ तो खलनायक भी मैं ही हूँ…मै नेता हूँ तो अभिनेता भी मैं ही हूँ…
छोटे शिशु और बालक से लेकर अभिभावक तक मुझ में समाया है …..
मै अध्यापक में…..मै विद्यार्थी में…
मैं नौकरशाह में…मैं सरकार में …
मै लायक में…मै नालायक में..
मैं क्रेता में ..मैं विक्रेता में…
हर जगह मैं ही मैं विद्यमान हूँ…
हाँ!…मैंने भी ‘बलात्कार' किया…किया है भारत के माथे की बिंदी का…उस ‘हिन्दी’ का जो ना केवल हमारी राष्ट्र भाषा है अपितु … लाखों-करोड़ों दिलों की आशा है…उफ़!…कैसा माहौल है ये…यहाँ तो चारों तरफ घुटन औ निराशा है
मैं सोचता…समझता.…देखता भी उसी में हूँ ….मैं हँसता…रोता…खिलखिलाता भी उसी में हूँ ….जानता हूँ…समझता हूँ…उसके बिना मैं कुछ नहीं ….फिर भी उसे दुत्कारता हूँ…ललकारता हूँ…हिकारत भरी नज़र से सौ बार पुकारता हूँ…..
मैं कृतधन हूँ……बेमन हूँ इसके उद्धार के लिए…इसके उत्थान के लिए…..उदासीन हूँ इस नेक प्रयास के लिए …
हिन्दी केवल भाषा नहीं… जानने-समझने की… बेजोड़ अभिव्यक्ति नहीं…इसके बिना हम कुछ नहीं…
‘हिन्दी’ बिना हम ऊपर चढेंगे…नीचे गिरेंगे…रहेंगे हमेशा वहीँ के वहीँ …
ये संवर जाए…सुधर जाए…इसके अलावा….कोई इच्छा..कोई अभिलाषा नहीं
‘हिन्दी’ द्वार है स्वाभिमान का…अपने आत्मसम्मान का…‘हिन्दी’ देश का सौष्ठव है…इसके बिना सब बकवास है…सब नीरव है…ये गौरव है…हमारे अतीत का…हमारे वर्तमान का…
हमारा कल भी इसी में था…आज भी इसी में है और आने वाला कल भी इसी में सुरक्षित एवं महफूज़ रहेगा…
याद रखो…अंग्रेजी निशानी है उपनिवेश की…गुलामी की….जकडन की……याद दिलाती है ये हमें बरसों झेले असहनीय उत्पीडन की…ज़ख्मों की और संताप की|अंग्रेजी..पराधीनता की…पराभव की निशानी है…इसको अपनाना…अपने वतन से गद्दारी है…बेईमानी है…
‘हिन्दी’ ने हमको जोड़ा है…उफ़!…हमने ही इसे तोडा है
दिल टूट चूका है अब मेरा ……मोह भंग हो चूका है अब मेरा ….बहुत सह लिया….बहुतेरा सह लिया …अब तो होकर रहेगा नित नया सवेरा
‘हिन्दी’ नहीं तो पराधीन हैं हम…नहीं हुए कभी स्वाधीन हैं हम
‘हिन्दी’है तो वैभव है…‘हिन्दी’ है तो सौष्ठव है…‘हिन्दी’ है तो गौरव है…
जिसने भी अपनी भाषा…अपनी संस्कृति…अपनी तहजीब को अपना…उसे सर माथे से लगाया है …..वहीँ सबकी निगाहों में आ …ऊंचा उठ…विश्वपटल पर….छाया है
‘हिन्दी’ बिना अब तो जीना जैसे बेमानी है …जो ‘हिन्दी’ बोले…लिखे और समझे वही हर हाल में स्वाभिमानी है
हमने इसे गिराया है…हम ही इसे संभालेंगे…उन्नति के नित नए द्वार…आओ!..हम मिलकर खोलेंगे
आओ!..हम मिलकर खोलेंगे
‘जय हिंद'
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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15 comments:
क्या बात है ..........बेहद उम्दा प्रस्तुति और अभिव्यक्ति ! जवाब नहीं आपका !
जय हिंद !
ओह, तो बात ऐसी भी नहीं ....
बहुत सुंदर जी जब तक हम इस हिन्दी की इज्जत नही करेगे तब तक हम गुलाम ही कहलायेगे, दुसरो की भाषा भिखारी बोलते है, या गुलाम क्योकि उन्हे भीख मांगनी पडती है तरह तरह के लोगो से या सिर्फ़ गुलाम बोलते है क्योकि उन्हे अपने आका का हुकम मानाना होता है
हिन्दी की व्यथा पर दिल से निकलती के सीधी बात ..सुनने वालों को थोड़ी खरी लगती है पर आज बहुत से लोग है जो हिन्दी के साथ अन्याय कर रहे है..हिन्दी अपनी और अपने देश की शान है निश्चित रूप से सब भारतवासी को मिलकर हिन्दी को निरंतर शिखर पर बनाए रखने का प्रयास करनी चाहिए खुद किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत लाभ को छोड़ना और हिन्दी की सच्ची सेवा करना देशवासी होने का एक सच्चा प्रमाण है....हिन्दुस्तानी आगे आओ..बहुत बढ़िया राजीव जी खूब लिखा..धन्यवाद
सही कहा है-काफ़ी आक्रोश है आपके कथन में।
हिंदी की चिंदी उड़ रही है। सच्ची व्यथा की सत्य कथा। बहुत सुन्दर! आभार्………।
बेहद उम्दा प्रस्तुति!
बहुत बढ़िया!!
जय हिन्दी!!
bahut sundar...
...क्या बात है!!!
क्या बात है ..........बेहद उम्दा प्रस्तुति और अभिव्यक्ति !
बेहद उम्दा प्रस्तुति और अभिव्यक्ति !
आक्रोश ... ज़ायज आक्रोश
वाकई हम बलात्कारी हैं .. निज स्वार्थों ने हमें अन्धा बना दिया है
बड़ी ऊंची बात कह दी सिरीमान जी ने!
‘हिन्दी’ नहीं तो पराधीन हैं हम…नहीं हुए कभी स्वाधीन हैं हम
‘हिन्दी’है तो वैभव है…‘हिन्दी’ है तो सौष्ठव है…‘हिन्दी’ है तो गौरव है…
जिसने भी अपनी भाषा…अपनी संस्कृति…अपनी तहजीब को अपना…उसे सर माथे से लगाया है …..वहीँ सबकी निगाहों में आ …ऊंचा उठ…विश्वपटल पर….छाया है
.बहुत बढ़िया राजीव तनेजा जी
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