पते की बात- लघुकथा

क्या करें यार...यहाँ इस स्साले  लॉक डाउन में फँस कर तो बहुत बुरा हाल हो गया है। पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा। इससे अच्छा तो घर ही चले जाते।" नरेश बड़बड़ाया।

"अरे!...क्या खाक घर चले जाते? कोई जाने देता तब ना। सुना नहीं तूने कि बाडर पर ही रोक के रख रहे हैं सबको...घर जाने नहीं दे रहे। तो जब घर पहुंचना ही नहीं है तो जैसे यहाँ..वैसे वहाँ।" रमेश उसे समझता हुआ बोला।

"हुंह!...जैसे वहाँ...वैसे यहाँ। शक्ल देखी है इस सड़ी सी सरकारी बिल्डिंग की...पेंट प्लास्टर सब उधड़ा पड़ा है। ऐसे लग रहा है जैसे जेल में ठूंस दिया गया हो। ऊपर से मच्छर इतने कि रात तो रात...दिन में भी ऊंघने नहीं दे रहे। और फिर बंदा खाली भी कब तक बैठा रहे? ऐसे बैठे बैठे तो हमारे शरीर को जंग लग जाएगा।" नरेश बुरा सा  मुँह बनाता हुआ बोला।

"हाँ यार ये तो सही कहा तूने। इन कंबख्त मारे मच्छरों  ने तो बुरा हाल कर रखा है। चलते फिरते  तक तो फिर भी ठीक...जहाँ पल दो पल को बैठने लगो...इनकी भैं भैं चालू हो जाती है।" रमेश हाथ से मच्छर उड़ाता हुआ बोला।

"वेल्ले काम इन सरकारी बंदों से जितने मर्ज़ी करा लो लेकिन नहीं...हाड गोड़े चलाने में तो इन्हें शर्म आती है।" कुर्सी पर आराम फरमा रहे अफसर को देख नरेश मुँह बनाता हुआ बोला।

"हाँ!...तूने देखा गोदाम में? रंग रोगन का सारा सामान आया पड़ा है लेकिन इन स्सालों को गप्पबाज़ी से फुरसत मिले तब तो सोचें इस सब के बारे में।" रमेश, नरेश के कान में फुसफुसाया।

"इन स्सालों को तो बस बैठे बैठे तनख्वाह चाहिए एकदम खरी...शर्म भी नहीं आती भैंन के......@@#$%#@$ को।" वितृष्णा से वशीभूत हो नरेश ने गाली दी।

"यार...वैसे एक बात कहूँ? शर्म तो थोड़ी बहुत हमें भी आनी चाहिए कि दस दिन से बैठे बैठे मुफ्त में इनका दिया खा रहे हैं।" रमेश कुछ सोचता हुआ बोला।

"कौन सा इनकी जेब से जा रहा है? सरकारी पैसा है..सरकारी पैसे की तो ऐसे ही लूट होती है।" नरेश ने अपनी समझाइश दी।

"लेकिन यार...मेरा दिल नहीं मान रहा...ऐसे मुफ्त के माल से तो अच्छा है कि...( रमेश के चेहरे पर ग्लानि के भाव थे।)

"हम्म!...बात तो यार तू सही कह रहा है। क्यों ना एक काम करें?" नरेश खड़ा होता हुआ बोला।

"क्या?"

"और लोग भी तो हम जैसों को खिला के कुछ न कुछ पुण्य कमा ही रहे हैं।"

"तो?" रमेश ने प्रश्न किया।

"हमारा भी तो कोई फ़र्ज़ बनता है।"

"हाँ!...यार, बात तो तू सही कह रहा है लेकिन हम लेबर क्लास लोग..कर ही क्या सकते हैं?"

"करना चाहें तो यार...बहुत कुछ कर सकते हैं।"


"जैसे?

"जैसे इस बिल्डिंग को ही लो...इसी की ही सफाई पुताई कर के चमका देते हैं।"

"अफसर लोग मान जाएंगे?" रमेश ने शंका ज़ाहिर की।

"बात कर के देखते हैं...इसमें क्या हर्ज है? वैसे... ये तो यार तूने  एकदम पते की बात की। मैं अभी अफसर साब से बात कर के आता हूँ।" नरेश उठ कर खड़ा होता हुआ बोला।

"रुक...मैं भी साथ चलता हूँ। इस बहाने हाड गोड्डों को जंग भी नहीं लगेगा।"


13 comments:

अन्तर सोहिल said...

प्रेरक

Udan Tashtari said...

बढ़िया

राजीव तनेजा said...

शुक्रिया

Latika Batra said...

बढिया सोच । काश सच में लोग ऐसा करें तो कितनी समस्याऐं कम हो जाये

राजीव तनेजा said...

ऐसा सच में हुआ एक स्कूल बिल्डिंग को फिर से पेंट किया लोगों ने।

Sunil "Dana" said...

काश ऐसा सब सोच पाते तो ये जहांन कितना सुंदर होता । अच्छी कहानी । बधाई

राजीव तनेजा said...

शुक्रिया

डॉ. जेन्नी शबनम said...

बहुत बढ़िया. ऐसा सच में हुआ है. एक स्कूल को मजदूरों ने, जिन्हें वहाँ ठहराया गया था, रंगाई पुताई कर चकाचक बना दिया.

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर = RAJA Kumarendra Singh Sengar said...

सकारात्मकता

kavita verma said...

एक अच्छे विचार को आगे बढ़ाती लघुकथा।

राजीव तनेजा said...

शुक्रिया

राजीव तनेजा said...

शुक्रिया

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत खूब

 
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