अमूमन मैं कविताओं और उनके संकलनों से थोड़ा दूर रह..उनसे बचने का प्रयास करता हूँ। ऐसा इसलिए नहीं कि कविताएँ मुझे पसंद नहीं या मुझे उनसे किसी प्रकार की कोई एलर्जी है। दरअसल मुझे ये लगता है कि कविताओं के बारे में ठोस एवं प्रभावी ढंग से कुछ कह या लिख पाने की मेरी समझ एवं क्षमता नहीं। अब इसे ऊपरवाले की मर्ज़ी..उसकी रज़ा समझ लें कि उसने मुझे इस सब की नेमत नहीं बक्शी है। ऐसे में जब कोई बड़े प्यार..मनुहार एवं स्नेह के साथ आग्रह करता है कि मैं अपनी समझ के हिसाब से उनके कविता संकलन पर कुछ सारगर्भित टिप्पणी करूँ तो मैं थोड़ा असहज होता हुआ पशोपेश में पड़ जाता हूँ कि मैं ऐसा क्या लिखूँ कि मेरी लाज के बचने के साथ साथ बात भी बनी रह जाए।
ऐसे में जब राहुल राजपूत जी ने विनम्रतापूर्वक अपना खंडकाव्य "पांचाली प्रतिज्ञा" मुझे उपहारस्वरूप भेजा तो इसे पढ़ना तो लाज़मी बनता ही था। जैसा कि नाम से ही विदित है कि यह खंडकाव्य पांचाली याने के महाराज द्रुपद की अत्यंत रूपवती बेटी द्रौपदी और उसकी प्रतिज्ञा के बारे में है। वो द्रौपदी, जो स्वयंवर में अर्जुन से ब्याही गयी थी और जिसने अपनी सास कुन्ती की बात का मान रखने के लिए उसके द्वारा अनजाने में कहे जाने पर भी उसके पाँचों बेटों को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था।
वो द्रौपदी, जिसने एक बार अनायास ही कौरवों के सबसे बड़े भाई द्रुयोधन के अँधे पिता को ले उसका मज़ाक उड़ाते हुए उसे बेइज़्ज़त किया था। उसी दुर्योधन ने बाद में अपने अपमान का बदला लेने के लिए अपने मामा शकुनि से मिल कर पांडवों के साथ जुआ खेलने की साजिश रची। साजिश के फलस्वरूप जब पांडव एक एक कर के अपनी हर संपत्ति, राज सिंहासन वगैरह सब हार गए थे तो ऐसे में उन्हें उत्तेजित करते हुए कौरवों ने प्रस्ताव रखा कि...द्रौपदी को दांव पर लगा दो। अगर जीत गए तो सब का सब वापिस लौटा दिया जाएगा। शातिरों के बहकावे में आ, युद्धिष्ठिर ये दाव भी हार गए। ऐसे में द्रौपदी को भरी सभा में सबके सामने बेइज़्ज़त करने को दुर्योधन ने दरबान के हाथों संदेशा भिजवा उसे भरे दरबार में बुलवा लिया और वहाँ उसके चीरहरण का प्रयास किया। ऐसे में द्रौपदी भगवान श्री कृष्ण का आवाहन करती हैं कि वे उसे दुर्योधन का सामना करने की हिम्मत और बल प्रदान करें।
पूरे खंड काव्य को सात भागों में बाँटा गया है।
पहले में हस्तिनापुर के महल और उसके अलौकिक सौंदर्य को विस्तृत रूप से महिमामंडित किया है जो लेखक की काव्यात्मक दक्षता को साबित करता है। अगले अध्याय में द्रौपदी के सौंदर्य..उसके साज श्रृंगार, धृतराष्ट्र के दरबार और द्यूतक्रीड़ा याने के जुए का विवरण है कि किस तरह खेल शुरू होता है। इसके साथ ही पांडवों के सब कुछ हार जाने और दुर्योधन के द्रौपदी को भरी सभा में पेश करने के हठनुमा आदेश की बात है। इसी तरह हर अध्याय में कहानी आगे बढ़ती हुई अपने अंत याने के द्रौपदी की प्रतिज्ञा तक पहुँचती है। इस बात के लिए लेखक की तारीफ करनी होगी कि एक ही खण्ड काव्य में वे सौंदर्य रस..करुण रस, भक्ति रस से ले कर रौद्र रस को सफलतापूर्वक साधने में पूर्णतया सफल रहे हैं।
कहानी का पहले से ज्ञान होने और निर्मल पानी सी बहती हुई मनमोहक भाषा शैली की वजह से मुझे इसे समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई। लयबद्ध तरीके से लिखा गया खण्ड काव्य यकीनन पढ़ने वालों को पसंद आएगा।
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