आमतौर पर अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सब एक दूसरे से बोल बतिया कर अपने मनोभावों को प्रकट करते हैं। मगर जब अपने मन की बात को अभिव्यक्त करने और उन्हें अधिक से अधिक लोगों तक संप्रेषित करने का मंतव्य हम जैसे किसी लेखक अथवा कवि का होता है तो वह उन्हें दस्तावेजी सबूत के तौर पर लिखने के लिए गद्य या फिर पद्य शैली को अपनाता है। जिसे साहित्य कहा जाता है। आज साहित्य की अन्य विधाओं से इतर बात साहित्य की ही एक लोकप्रिय विधा 'लघुकथा' की।
लघुकथा..तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार जिसमें कि आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत हो..माद्दा हो...की नपे तुले शब्दों में की गयी प्रभावी अभिव्यक्ति है। मोटे तौर पर अगर लघुकथा की बात करें तो लघुकथा से हमारा तात्पर्य एक ऐसी कहानी से होता है जिसमें सीमित मात्रा में चरित्र हों और जिसे एक बैठक में आराम से पढ़ा जा सके।
दोस्तों..आज मैं लघुकथाओं के ऐसे संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'धूप के गुलमोहर' नाम से लिखा है ऋता शेखर 'मधु' ने। इस संकलन की लघुकथाओं के लिए लेखिका ने अपने आस पड़ोस के माहौल से ही अपने किरदार एवं विषयों को चुना है। जिसे देखते हुए लेखिका की पारखी नज़र और शब्दों पर उनकी गहरी पकड़ का कायल हुए बिना रहा नहीं जाता।
इस संकलन की लघुकथाओं में कहीं नयी पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी को नयी तकनीक से रूबरू कराती नज़र आती है तो कहीं भूख से तड़पता कोई बालक चोरी करता हुआ दिखाई देता है। तो कोई बाल श्रम के लिए ज़िम्मेदार ना होते हुए भी ज़िम्मेदार मान लिया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की किसी अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ किसी शहीद की नवविवाहिता विधवा सेना में शामिल होने की इच्छा जताती हुई नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य लघुकथा में कोई अपने दिखाए नैतिकता के पथ पर खुद चलने के बजाय उसके ठीक उलट करता दिखाई देता हैं।
इसी संकलन की किसी रचना में जहाँ बहुत से अध्यापक काम से जी चुराते दिखाई देते हैं तो वहीं कोई बेवजह ही काम का बोझ अपने सिर ले..उसमें पिसता दिखाई देता है। कहीं किसी रचना में भूख के पलड़े पर नौकर- मालिक का भेद मिटता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य रचना में राजनीति की बिसात पर कथनी और करनी में अंतर होता साफ़ दिखाई देता है।
इसी संकलन में कहीं किसी रचना में बरसों बाद मिली सहेलियाँ आपस में एक दूसरे से सुख-दुख बाँटती दिखाई देती हैं। तो कहीं किसी रचना में किसी के किए अच्छे कर्म बाद में फलीभूत होते दिखाई देते हैं। इसी संकलन की एक अन्य रचना में आदर्श घर कहलाने वाले घर में भी कहीं ना कहीं थोड़ा बहुत भेदभाव तो होता दिखाई दे ही जाता है। इसी संकलन की किसी अन्य रचना मरण कहीं कोई नौकरी जाने के डर से काम का नाजायज़ दबाव सहता दिखाई देता है।
इसी संकलन की एक रचना जहाँ एक तरफ़ 'कुर्सी को या फिर चढ़ते सूरज को सलाम' कहावत को सार्थक करती नज़र आती है जिसमें सेवानिवृत्त होने से पहले जिस प्राचार्य का सब आदर करते नज़र आते थे..वही सब उनके रिटायर होने के बाद उनसे कन्नी काटते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना कोई स्वार्थी बेटा अपने पिता को बरगला उसका सब कुछ ऐंठने क़ा पर्यास करता दिखाई देता है।
इसी संकलन की एक अन्य रचना में कोई 'चित भी मेरी..पट भी मेरी' की तर्ज़ पर अपनी ही कही बात से फिरता दिखाई देता है। तो कहीं किसी रचना में महँगे अस्पताल में, मर चुके व्यक्ति का भी पैसे के लालच में डॉक्टर इलाज करते दिखाई देते है। एक अन्य रचना में रिश्वत के पैसे से ऐश करने वाले परिवार के सदस्य भी पकड़े गए व्यक्ति की बुराई करते नज़र आते हैं कि उसकी वजह से उनकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।
इसी संकलन की एक अन्य रचना में जहाँ हार जाने के बाद भी कोई अपनी जिजीविषा के बल पर फिर से आगे बढ़ने प्रयास करता दिखाई देता है। तो वहीं कहीं किसी अन्य रचना में ढिठाई के बल पर कोई किसी की मेहनत का श्रेय खुद लेता नज़र आता है।
इसी संकलन की एक अन्य रचना इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि मतलबी लोगों की इस दुनिया में सांझी चीज़ की कोई कद्र नहीं करता।
इसी तरह के बहुत से विषयों को अपने में समेटती इस संकलन की रचनाएँ अपनी सहज..सरल भाषा की वजह से पहली नज़र में प्रभावित तो करती हैं मगर कुछ रचनाएँ मुझे अपने अंत में बेवजह खिंचती हुई सी दिखाई दीं। मेरे हिसाब से लघुकथाओं का अंत इस प्रकार होना चाहिए कि वह पाठकों को चौंकने अथवा कुछ सोचने पर मजबूर कर दे। इस कसौटी पर भी इस संकलन की रचनाएँ अभी और परिश्रम माँगती दिखाई दी।
आमतौर पर आजकल बहुत से लेखक स्त्रीलिंग एवं पुल्लिंग में तथा एक वचन और बहुवचन के भेद को सही से समझ नहीं पाते। ऐसी ही कुछ ग़लतियाँ इस किताब में भी दिखाई दीं। जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रूफरीडिंग एवं वर्तनी के स्तर पर भी कुछ त्रुटियाँ नज़र आयी। उदाहरण के तौर पर
इसी संकलन की 'दर्द' नामक लघुकथा अपनी कही हुई बात को ही काटती हुई दिखी कि इसमें पेज नंबर 22 पर एक संवाद लिखा हुआ दिखाई दिया कि..
"कल मैंने एक सिनेमा देखा 'हाउसफुल-3' जिसमें लंगड़ा, गूंगा और अँधा बन कर सभी पात्रों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया।"
यहाँ यह बात ग़ौरतलब है कि 'खूब मनोरंजन किया' अर्थात खूब मज़ा आया जबकि इसी लघुकथा के अंत की तरफ़ बढ़ते हुए वह अपने मित्र से चैट के दौरान कहती है कि..
"मैंने फेसबुक पर यह तो नहीं लिखा कि यह सिनेमा देख कर मुझे मज़ा आया।"
यहाँ वह कह कर वह अपनी ही बात को विरोधाभासी ढंग से काटती नज़र आती है कि उसे मज़ा नहीं आया।
इसी तरह पेज नम्बर 27 पर लिखी कहानी 'विकल्प' बिना किसी सार्थक मकसद के लिखी हुई प्रतीत हुई। जिसमें अध्यापिका अपनी एक छात्रा के घर इसलिए जाती है कि वह उसे कम उम्र में शादी करने के बजाय पढ़ने के लिए राज़ी कर सके मगर उसके पिता की दलीलें सुन कर वह चुपचाप वापिस चली जाती है।
इसी तरह पेज नंबर 78 की एक लघुकथा 'हो जाएगा ना' में माँ की घर से हवाई अड्डे के लिए जल्दी घर से निकलने की चेतावनी और समझाइश के बावजूद भी बेटा देरी से घर से निकलता है और कई मुश्किलों से दो चार होता हुआ अंततः ट्रैफिक जाम में फँसने की वजह से काफ़ी देर से हवाई अड्डे पर पहुँचता है। जिसकी वजह से उसे फ्लाइट में चढ़ने नहीं दिया जाता।
सीख देती इस रचना की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'माँ खुश थी कि उसने समय की कीमत पहचान ली थी।'
मेरे ख्याल से बेटे की फ्लाइट छूट जाने पर कोई भी माँ खुश नहीं होगी। अगर इस पंक्ति को इस तरह लिखा जाता तो मेरे ख्याल से ज़्यादा सही रहता कि..
'माँ को उसकी फ्लाइट छूट जाने का दुख तो था लेकिन साथ ही साथ वह इस वजह से खुश भी थी कि इससे उसके बेटे को समय की कीमत तो कम से कम पता चल ही जाएगी।'
इसी तरह आगे बढ़ने पर एक जगह लिखा दिखाई दिया कि..
'नाच गाना से हॉल थिरक रहा था।'
यहाँ इस वाक्य से लेखिका का तात्पर्य है कि क्रिसमस की पार्टी के दौरान हॉल में मौजूद लोग नाच..गा और थिरक रहे थे। जबकि वाक्य से अंदेशा हो रहा है कि लोगों के बजाय हॉल ही थिरक रहा था जो कि संभव नहीं है। अगर इस वाक्य को सही भी मान लिया जाए तो भी यहाँ 'नाच गाना से हॉल थिरक रहा था' की जगह 'नाच गाने से हॉल थिरक रहा था' आएगा।
यूँ तो यह लघुकथा संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया कागज़ पर छपे इस 188 पृष्ठीय लघुकथा संकलन को छापा है श् वेतांश प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 340/- रुपए जो कि कंटैंट को देखते हुए मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
2 comments:
बहुत सुंदर समीक्षा। बधाई!!!
सार्थक समीक्षा, ऋता शेखर 'मधु' जी को इस संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई
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