मृगया- अभिषेक अवस्थी

साहित्य क्षेत्र के अनेक गुणीजन अपने अपने हिसाब से व्यंग्य की परिभाषा को निर्धारित करते हैं। कुछ के हिसाब से व्यंग्य मतलब..ऐसी तीखी बात कि जिसके बारे में बात की जा रही है, वह तिलमिला तो उठे मगर कुछ कर ना सके। वहीं दूसरी तरफ मेरे जैसे कुछ व्यंग्यकार मानते हैं कि व्यंग्य में तीखी..चुभने वाली बात तो हो मगर उसे हास्य की चाशनी में इस कदर लपेटा गया हो कि उपरोक्त गुण के अतिरिक्त सुनने तथा पढ़ने वाले सभी खिलखिला कर हँस पड़ें।

आज व्यंग्य की बात इसलिए दोस्तों कि आज मैं अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपने वाले अभिषेक अवस्थी जी के प्रथम व्यंग्य संग्रह 'मृगया' की बात करने जा रहा हूँ। तत्कालीन अख़बारी सुर्खियों और मीडिया जगत की ख़बरों को आधार बना लिखे गए उनके व्यंग्य खासे प्रभावित करते हैं।

जहाँ एक तरफ़ कुछ नए व्यंग्यकारों को आजकल अपने विषय से भटक खामख्वाह में बात में से बात निकालते देखा जा सकता है। जिसे कुछ लोगों के द्वारा अब व्यंग्य मान एवं स्वीकार कर लिया गया है। सुखद आश्चर्य के रूप में अभिषेक अवस्थी जी की लेखनी इस सब से बची नज़र आती है। 

उनके व्यंग्यों की चपेट में जहाँ एक तरफ़ बड़े सेलिब्रिटीज़ नज़र आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ मीडिया भी उनके छोटे से छोटे फंक्शन को कवर करने को दीवाने आशिकों की भांति हर पल बेताब दिखाई देता है। कहीं उनके व्यंग्य में स्मार्टफोन का इस्तेमाल ना करने वालों को पिछड़ा या दोयम दर्ज़े का मान लिया गया है। तो कहीं दिलफैंक टाइप के चलते पुर्ज़े लोग अपनी फ्लर्टी नेचर की वजह से इनकी जद में आए दिखते हैं।

कहीं हर जगह..हर मौके पर नुक्ताचीनी करने मामा या फूफ़ा टाइप के लोग दिखते हैं तो कहीं हिंदी दिवस के मौके पर जगह जगह कुकुरमुत्तों की फौज की तरह उग आए मौकापरस्त हिंदी सेवकों  का जमावड़ा नज़र आता है। कहीं इसमें बिहार की परीक्षाओं में टॉप करने वालों के स्कैम की बात है तो कहीं भारतीय रेल की लेटलतीफी और टीटी वगैरह की मनमानी नज़र आती है।

कहीं इसमें शिकायतों के पुलिंदे को ओपन लैटर के माध्यम से खोलने के चलन और स्कूल की शरारतों..मार इत्यादि का मज़ेदार चित्रण है। तो कहीं देश की राजनीति में बाहुबलियों..मुजरिमों..चोर..डाकुओं के पदार्पण पर गहरा कटाक्ष करती रचना दिखाई देती है। कहीं इसमें मसालेदार खबरों के फेर में पड़े तथाकथित टाइप के कमाई खोजते..खोजी पत्रकार नज़र आते हैं। तो कहीं इसमें चुनाव से पहले नेताओं के शराफ़त का चोगा ओढ़ जनता के समक्ष आने की बात है। 

कहीं "बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा?" 
वाली उपरोक्त कहावत की तस्दीक करने की तुरत फुरत चर्चा में आने के उलटे सीधे उपाय खोजते एवं आज़माते लोग नज़र आते हैं। तो कहीं कोई फेसबुक पर लाइक्स के कम आने या बहुत ज़्यादा आने से होने वाली चिंता..परेशानीसे घिरा बैठा है।
कहीं इसमें भारतीय रेल की तीनों श्रेणियों शताब्दी- राजधानी, एक्सप्रेस और पैसेंजर ट्रेनों तथा उनमें सफ़र करने वाले यात्रियों के बीच के फ़र्क को इंगित किया गया है। तो कहीं पक्ष विपक्ष की जुगलबंदी से नेताओं की चार गुणा तक बढ़ी वेतनवृद्धि को निशाना बनाया गया है। 

कहीं इसमें आलोचना सहन ना कर पाने वाले लोगों की खिसियाहट युक्त  बौखलाहट के आधार पर लिखा गया व्यंग्य नज़र आता है। तो कहीं इसमें खोखली संवेदनाएं प्रकट करते नेता दिखाई देते हैं। कहीं सदा दुखी रहने वाले लोग दिखाई देते हैं। तो कहीं राजनीति में सफलता प्राप्ति हेतु अनिवार्य रूप से किए जाने वाले मज़ेदार योगासनों का वर्णन है। कहीं इसमें सरकारी अध्यापकों को कभी मतगणना ड्यूटी..तो कभी चुनाव ड्यूटी में झोंकने के सरकारी आदेशों पर कटाक्ष किया गया है। तो कहीं इसमें ऐसे लोगों पर कटाक्ष दिखाई देता है जो एक तरफ़ बढ़ती महंगाई का रोना रोते हैं और दूसरी तरफ लाइनों में खड़े होकर ₹72000 से ले कर एक-सवा लाख तक के आईफोन बुक करवा रहे होते हैं। 

कहीं इसमें आरक्षण माँगने वालों की बढ़ती तादाद और अनियंत्रित इच्छाओं पर कटाक्ष किया गया है। तो कहीं इसमें झूठी सच्ची तारीफ करने के गुण सिखाए गए हैं। कहीं इसमें दहेज लोलुपों पर मज़ेदार ढंग से कटाक्ष किया गया है। तो कहीं इसमें होली की मस्ती अपने चरम पर दिखाई देती है। कहीं इसमें छोटी उम्र में ही बच्चों पर कोचिंग का बोझ डालते अभिभावक दिखाई देते हैं। तो कहीं पर्यावरण दिवस पर अपने ए. सी कमरों से बाहर निकल कुकुरमुत्ते की भांति यहाँ वहाँ से उभरते पर्यवरण प्रेमी दिखाई देते हैं। 

कहीं इसमें राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं की व्यथा पर प्रकाश डाला गया है कि किस प्रकार उन्हें कार्यकर्ताओं और नेताओं द्वारा की गई गंदगी को ढोना पड़ता है। तो कहीं अन्ना आंदोलन के उठने..ढहने और केजरीवाल के सरकार बनाने पर गहरा कटाक्ष किया गया है। कहीं पानी की कमी और उसे व्यर्थ बहाने वालों पर निशाना साधा गया है। तो कहीं इसमें संकट की घड़ी में कुछ ठोस कर दिखाने के बजाय महज़ उच्चस्तरीय बैठकें करने वाली सरकारों और अफ़सरों की बात है।

 कहीं इसमें मॉब लिंचिंग को उतारू उन्मादी भीड़ इसमें नज़र आती है। तो कहीं इसमें कोई राजनीतिक ग्रुप अपने चेले चपाटों को लूटपाट और भ्रष्टाचार की शिक्षा देता नजर आता है। कहीं किसी व्यंग्य में इस बात की तस्दीक होती दिखाई देती है कि जीते जी जिसकी लोग बुराई करते हैं। मरने के बाद उसी की तारीफ़ करते हैं कि.."भला आदमी था।"

विषयों की विविधता लिए इस संकलन में ज़्यादातर व्यंग्य बढ़िया लगे मगर कहीं कहीं कुछ व्यंग्य अपने विशेष से भटकते हुए भी दिखाई दिए। कुछ एक व्यंग्यों के सतही होने तथा कुछ के महज़ अख़बारी कॉलम भरने के लिए ऑन डिमांड तुरत फुरत में लिखे जाने जैसा भान हुआ। 

अंत में चलते चलते एक सुझाव कि.. अख़बारी कॉलम तक तो ठीक लेकिन अगर व्यंग्यों का संग्रह निकालना हो तो छपने से पहले थोड़े संयम और तसल्ली के साथ फाइनल एडिटिंग भी कम से कम एक मर्तबा करने की ज़रूर सोचें। इससे उन्हीं व्यंग्यों में जहाँ एक तरफ़ नए..चुटीले पंचेज़ जुड़ेंगे। वहीं दूसरी तरफ़ अवांछित मैटीरियल एवं बिना ज़रूरत शब्दों की छँटनी भी हो सकेगी। साथ ही क्वांटिटी के बजाय कंटैंट पर फोकस करते हुए कोशिश करें कि व्यंग्य की हर पंक्ति में कुछ ना कुछ खास हो। भले ही वो तीखी..चुभने वाली बात हो अथवा हास्य मिश्रित मज़ेदार तंज हो। 

बढ़िया कागज़ एवं बाइंडिंग के साथ छपे इस 152 पृष्ठीय व्यंग्य संग्रह के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 400 रुपए। जो कि एक आम पाठक की जेब के हिसाब से काफ़ी ज़्यादा है। आम पाठकों तक किताब की पहुँच को बढ़ाने के लिए ज़रूरी है कि इसका पेपरबैक संस्करण जल्द से जल्द निकाला जाए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

0 comments:

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz