मोमीना - गोविन्द वर्मा सिराज

भारत पर मुग़लों ने लगभग 800 वर्ष और अँग्रेज़ों ने 200 वर्षों तक हुकूमत की। मगर मुग़लों के 800 सालों में कभी ऐसा नहीं हुआ कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपस में दंगे भड़क उठे हों जबकि अँग्रेज़ों ने लगातार हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपस में फूट डाल कर उन्हें इस कदर आपस में लड़वाया कि वे एक-दूसरे को अपनी कौम का दुश्मन समझने लगे..एक-दूसरे से नफ़रत करने लगे। 

आज़ादी के बाद अँग्रेज़ों के ही नक़्शेकदम पर चल भारतीय राजनीतिज्ञ भी हमारी आपसी फ़ूट एवं दुश्मनी को हवा दे अपना उल्लू सीधा करते रहे। दोस्तों..आज मैं हिंदू-मुस्लिम दंगों पर आधारित एक ऐसे उपन्यास कर बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसे 'मोमीना- एक नेकदिल औरत' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध शायर एवं लेखक गोविन्द वर्मा सिराज जी ने। 

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है एक ही शहर में रहने वाली दो क़द्दावर हस्तियों, अखिलेश त्रिपाठी और मौलाना अब्दुल बिन शीरानी की। बतौर हिंदू चेहरा, अखिलेश त्रिपाठी वर्तमान सरकार में गृहमंत्री के पद पर काबिज़ है तथा मुसलमानों के स्वयंभू मसीहा के तौर पर मौलाना अब्दुल बिन शीरानी
तैनात है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है एक ही फैक्ट्री में काम करने वाले विशंभर और माजिद नाम के दो दोस्तों और इनकी पत्नियों, केतकी और मोमीना के बीच आपसी स्नेह एवं भाईचारे की। 

मंथर गति से चल रही इस कहानी में उबाल तब आता है जब विधायक रामसुमेर मिश्र के बेटे, गोलू की वजह से कसाई जात के डल्ला की बेटी, नन्नी गर्भवती हो जाती है और डल्ला इस बात पर अड़ जाता है कि विधायक के बेटे से उसकी बेटी का निकाह पढ़वाया जाए। जो कि विधायक, रामसुमेर मिश्र और अखिलेश त्रिपाठी के मुताबिक़ नामुमकिन है। अखिलेश त्रिपाठी और मौलाना अब्दुल बिन शीरानी के बीच चल रहे इस शह और मात के खेल में अब देखना यह है कि ऊँट किस करवट बैठता है। 

इस उपन्यास में कहीं कोई अपनी ही कौम के प्रति ग़द्दारी करता नजर आता है तो कहीं हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ मिल कर दंगों को अंजाम देता दिखाई देता है। कहीं कोई धार्मिक उन्माद फैला दंगे करवाने का ठेका लेता दिखाई देता है तो कोई कितने विकेट उड़ाए का हिसाब-किताब लगाता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं धन-दौलत के बलबूते सरकार को संकट में डालने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कोई अपने समर्थकों के दम पर उछलता दिखाई देता है। कहीं पैसे के बल पे मीडिया मैनेज किया जाता दिखाई देता है तो कहीं मदद के बहाने विपक्ष आपदा में अवसर ढूँढता दिखाई देता है। कहीं कोई बेगुनाह अपनों को दंगाइयों के हाथों मरता देख बदला लेने को खुद भी उन्हीं की राह चलता नज़र आता है तो कहीं किसी दंगाई हृदयपरिवर्तन के बाद सीधी राह चलता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं एक-दूसरे की कम को सबक सिखाने के नाम पर समाज के विभिन्न तबक़े एकजुट होते नज़र आते हैं तो कहीं कोई पुलिस का जवान अफ़सर ही दंगा भड़काने के लिए अपने हथियार पेश करने और आँखें मूंद लेने की बात करता दिखाई देता है। कहीं अपने इलाकों की सुरक्षा हेतु गली मोहल्ले के लोग बिना हिंदू-मुस्लिम का भेदभाव किए, मिलकर सजगता बरतते नज़र आते हैं तो कहीं कोई हिंदू ही दंगाइयों के लिए हिंदू घरों की निशानदेही करता दिखाई देता है। 

कहीं शांति बहाली के बाद घरों से लाशें एकत्र करते आए सरकारी कर्मचारियों द्वारा शवों की बेकद्री होती दिखाई देती है तो कहीं किसी लाश के पास पराए बच्चे को बिलखते देख किसी की ममता जाग उठती है। कहीं अपहरण के ज़रिए करोड़ों की फिरौती के मंसूबे बाँधे जाते दिखाई देते हैं तो कहीं को नहले पे दहले के रूप में उसके अरमानों को मिट्टी में मिलाता नज़र आता है 

इसी उपन्यास में कहीं हिंदू-मुस्लिम मिल कर मंदिर की सुरक्षा के लिए मुस्तैद खड़े नज़र आते हैं तो कहीं कोई हथियारों के दम पर भीड़ को लूटपाट और कत्लेआम के लिए भड़काता दिखाई देता है। दंगे की चपेट में कहीं कोई निर्दोष बेवजह ही मौत के आगोश में पहुँचता नज़र आता है तो कहीं कोई अबला बलात्कार का शिकार होती दिखाई देती है।

किसी भी कहानी या उपन्यास के प्रभावी होने के लिए यह ज़रूरी होता है कि लेखक, स्वयं को भूल उस कहानी के किरदारों के ज़रिए ही कहानी को उसके अंजाम यानी कि अंत तक पहुँचाए। जबकि इस उपन्यास में बहुत सी जगहों पर लेखक स्वयं, आने वाले दृश्य के मद्देनज़र अपना नज़रिया पेश करते से लगे। 

■ पेज नम्बर 120 में लिखा दिखाई दिया कि..

'फैज़ल होंठों से "पुच्च" "पुच्च" की आवाज़ निकाल अफ़सोस ज़ाहिर करता है'

यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि "पुच्च" "पुच्च" की ध्वनी का इस्तेमाल किसी को (चूमने के समय किया जाता है जबकि यहाँ अफ़सोस प्रकट किया जा रहा है। इसलिए यहाँ इन शब्दों का प्रयोग सही नहीं है। अफ़सोस प्रकट करने के लिए सही शब्द "च्च" च्च" है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार बनेगा कि..

'फैज़ल होंठों से  "च्च- च्च" की आवाज़ निकाल अफ़सोस ज़ाहिर करता है'

■ पेज नंबर 157 के 29वें चैप्टर में दंगों के बाद शांति स्थापित करने के लिए सरकारी मंत्रालयों एवं एन.जी.ओ  द्वारा पीड़ितों में राहत सामग्री बाँटे जाने का काम शुरू किया गया है। इसी के अंतर्गत पेज नंबर 158 में लिखा दिखाई दिया कि..

'एक मज़े की बात और सामने आई है, एन.जी.ओ ने हिंदू इलाक़ों में जिन वॉलेंटियर्स को जिम्मेवारी दी है, उसकी देखरेख अबू फ़ज़ल के जिम्मे है और मुस्लिम हिस्सों में बांटे जाने वाली मदद की अगुवाई बैजन तोड़ा कर रहा है।'

यहाँ बतौर लेखक एवं पाठक के यह बात मुझे काबिल-ए-एतराज़ लगी कि जिन दंगों में सैंकड़ों की तादाद में बेगुनाह लोग मारे गए, उनके लिए वाक्य की शुरुआत "एक मज़े की बात और सामने आयी है" कह कर शुरू की जा रही है। यहाँ मेरे हिसाब से वाक्य की शुरुआत  "एक मज़े की बात और सामने आयी है" के बजाय अगर "बड़े दुख की बात" से शुरू होती तो ज़्यादा सही रहता।

■ पेज नंबर 165 से शुरू हुए चैप्टर नंबर 31 में बताया गया है कि किस तरह दंगों के बाद शांति के मद्देनज़र निकाली गयी प्रभात फेरी में से शीरानी और अखिलेश त्रिपाठी, अलग हो खंडहर में उस हिस्से में जा बैठते है, जिसमें भीड़ के डर से मोमीना छुपी हुई है। उन दोनों की तंजभरी आपसी बातचीत से मोमीना जान लेती है कि जिस लड़की 'नन्नी' की वजह से ये दंगा भड़क उठा था, शीरानी ने ही उसका ब्लात्कार करने के बाद उसकी लाश को इसी खंडहर में फिंकवा दिया है। उन दोनों के निकल जाने के बाद मोमीना कर उसकी छिपी हुई जगह से बाहर निकलने के प्रसंग में पेज नंबर 169 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनके जाने के बाद मोमीना भी बाहर आकर कमर सीधी करती है। उसे अफ़सोस हो रहा है, इन लोगों की वजह से उसका यहाँ कितना वक़्त फुज़ूल में ही ज़ाया हो गया'

यहाँ मुझे ये हैरानी के साथ-साथ यह दुख की बात भी लगी कि इतने अहम राज़ के उजागर होने के बावजूद लिखा जा रहा है कि..

'मोमीना बाहर निकल कर आराम से अपनी कमर सीधी करती है और उसे, उसके वक़्त के फ़ुज़ूल जाया होने का अफ़सोस हो रहा है'

मेरे हिसाब से चैप्टर के इस हिस्से को संजीदगी भरे शब्दों में लिखा जाना चाहिए था। 

■ पेज नंबर 180 से शुरू हुए चैप्टर नंबर 34 में दंगों के बाद शहर में कर्फ़्यू लग चुका है और सत्तापक्ष एवं विपक्ष द्वारा घर-घर राहत सामग्री बाँटी जा रही है कि कर्फ़्यू की वजह से लोगबाग कहीं आ-जा नहीं सकते। इसी चैप्टर के अंतर्गत पेज नंबर 181 के शुरुआती पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..

'ना जाने कर्फ़्यू कब तक चले'

आगे बढ़ने पर इसी चैप्टर की अंतिम पंक्तियों (पेज नंबर 183) में लिखा नज़र आया कि..

'तीनों मोमीना के घर की जानिब निकल पड़ते हैं'

अब यहाँ ये सवाल उठता है कि पूरे शहर में कर्फ़्यू लगा होने की वजह से जब सबका आना-जाना बंद है तो ऐसे में वे तीनों मोमीना के घर जाने के लिए कैसे निकल सकते हैं?

चैप्टर नंबर 35 में मोमीना में जब बच्चे को गोद में जब मोमीना घर से बाहर निकलती है तो उसे कुछ अनजान नौजवान मिलते हैं। उनमें से एक उसे कुछ राहत सामग्री देते हुए कहता है कि..

'लीजिये मैडम! निश्चिंत होकर घर जाईये और यह आपके बेटे के काम आयेगी'

यहाँ मेरे हिसाब से 'आपके बेटे के काम आयेगी' की जगह 'आपके बच्चे के काम आएगी' आए तो बेहतर क्योंकि उन नौजवानों को पता नहीं है कि मोमीना की गोद में जो बच्चा है, वह लड़का है अथवा लड़की।

ज़रूरी मुद्दे पर लिखे गए इस उपन्यास में वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त काफ़ी जगहों पर मुझे प्रिंटिंग मिस्टेक के रूप में मुझे कुछ एक जगहों पर शब्द आपस में जुड़े हुए दिखाई दिए। साथ ही प्रूफ़रीडिंग की काफ़ी कमियों से दोचार भी होना पड़ा। जिन्हें दूर किए जाने की आवश्यकता है।

पेज नम्बर 63 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इंसानियत से कोसों का वास्ता नहीं'

यहाँ 'इंसानियत से कोसों का वास्ता नहीं' की जगह 'इंसानियत से कोसों दूर तक का वास्ता नहीं' आएगा। 

पेज नम्बर 65 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं तो तुम्हारा नाम तक नहीं जानता और तुम हो मान ना मान मैं तेरा मेहमान'

यहाँ 'और तुम हो मान ना मान मैं तेरा मेहमान' की जगह और तुम हो कि मान ना मान मैं तेरा मेहमान' आएगा।

पेज नम्बर 115 में लिखा नज़र आया कि..

'उनके दामाद उनकी बेटी रुख़्सार का गौने की विदा कराने आये हैं और उसी ख़्वाबों ख़याल में बैठे वह  कभी मुस्करा उठते हैं, तो कभी संजीदा हो जाते हैं'

यहाँ 'उनकी बेटी का गौने की विदा कराने आये हैं  की जगह 'उनकी बेटी के गौने की विदा कराने आये हैं' आएगा तथा 'उसी ख़्वाबों ख़याल में बैठे' की जगह 'उन्हीं ख़्वाबों ख्यालों में बैठे' आना चाहिए।

इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनकी ऐसे कैफ़ियत देख उनके पास बैठे शमशाद और रुख्सार मज़े ले रहे हैं'

यहाँ 'उनकी ऐसे कैफ़ियत देख' की जगह ''उनकी ऐसी कैफ़ियत देख' आएगा।

पेज नम्बर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सेंटर ने ही नहीं पड़ौस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों का कुछ ही देर में शहर के इलाकों में गश्त करने का बताया जा रहा है'

यह वाक्य सही नहीं बना सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'सेंटर ने ही नहीं बल्कि पड़ोस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों द्वारा कुछ ही देर में गश्त जारी करवाने का एलान कर दिया है' 
या फ़िर..

'सेंटर ने ही नहीं बल्कि पड़ोस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों द्वारा कुछ ही देर में गश्त जारी करवाने के बारे में रज़ामंदी दे दी है'

पेज नम्बर 130 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अनवर के साथ भी कुछ वैसा ही गुज़रते लम्हात ने उसे एहसास नहीं होने दिया है'

इसको अगर दो वाक्यों में इस तरह लिखा जाए तो मेरे ख्याल से ज़्यादा सही रहेगा कि..

 'अनवर के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ है। गुज़रते लम्हात ने उसे एहसास नहीं होने दिया है'

पेज नम्बर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हिन्दू - मुसलामानों से बदला लें और मुसलमान - हिन्दुओं से, तो क्या ऐसे सारे हिसाब-किताब निबट जायेंगे...बराबर हो जाएगा इंसान' 

यहाँ 'हिन्दू - मुसलामानों से बदला लें' की जगह 'हिन्दू, मुसलामानों से बदला लें' और मुसलमान - हिन्दुओं से' की जगह 'और मुसलमान, हिन्दुओं से' आएगा तथा 'बराबर हो जाएगा इंसान' की जगह 'बराबर हो जाएगा इंसाफ़' आएगा।

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'बच गया क्योंकि मैं कायर था'

यहाँ 'बच गया क्योंकि मैं कायर था' की जगह 'मैं बच गया क्योंकि मैं कायर था' आएगा।

यूँ तो बढ़िया क्वालिटी में छपा यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है हंस प्रशासन ने और इसका मूल्य रखा गया है 695/- रुपए जो कि मुझे बहुत ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

0 comments:

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz