आदरणीय बच्चन जी,
चरण स्पर्श, मैँ राजीव...दिल वालों की नगरी..दिल्ली से...आपका एक अदना सा प्रशंसक.... वैसे तो सुबह से लेकर रात तक मेरी दिनचर्या कुछ ऐसी है कि मैँ हर समय किसी ना किसी काम में अत्यंत व्यस्त रहता हूँ...फालतू बातों के लिए मेरे पास ज़रा सा भी वक्त नहीं..इनके बारे में सोचना तो जैसे मेरे लिए गुनाह है...पाप है...यकीन मानिए... मेरे पास ज़हर खाने तक के लिए भी फुरसत नहीं है...इतना बिज़ी होने के बावजूद आज मुझे आपको ये पत्र लिखने पर बाध्य होना पड़ा...इसी से आप समझ जाएँगे कि मामला कितना संगीन एवं माहौल कितना गमगीन है?..
अभी कुछ दिन पहले दुर्भाग्य से मुझे आपकी नई फिल्म 'पा' देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ....दुर्भाग्य इसलिए नहीं कि मुझे आपकी अदाकारी पसन्द नहीं या आपके द्वारा निभाया गया किरदार अच्छा नहीं था ...बल्कि इसलिए कि...
एक मिनट!...क्यों ना पहले सौभाग्य वाली बात कर ली जाए?...वैसे भी सुख के बाद अगर दुख के दर्शन हों तो ज़ोर का झटका धीरे से लगता है...आपने ही किसी ऐड में ऐसा कहा था....क्यों?...सही कहा ना मैँने?.. ठीक है!..तो फिर बात करते हैँ शुरू से...शुरूआत से..
तो मैँ ये कहना चाहता हूँ कि जब से मैँने होश संभाला है...खुद को आप ही की फिल्में देख-देख कर 3 फुटिए से 6 फुटिया होता पाया है..कभी आपकी ऐंग्री यंगमैन की गुस्सैल छवि ने मुझमें आक्रोश भर दिया...तो कभी आपकी धीर-गम्भीर आवाज़ ने मुझ पर अपना जादू चलाया...कभी आपकी मनमोहक नृत्य शैली को देख मैँ मस्त हो झूमने लगा ...तो कभी आपकी बेहतरीन संवाद अदायगी ने मुझे आपके मोहजाल से मुक्त नहीं होने दिया...कभी मार्मिक दृष्यों पर आपकी गहरी पकड़ ने मुझे जी भर के रुलाया है ...तो कभी आपकी कामेडी देखकर मैँ पेट पकड़ कर हँसते हुए खूब लोटपोट भी हुआ हूँ..याने के आपकी अदाकारी में वो सब है जो एक आम दर्शक को चाहिए
आपकी एक-एक फिल्म को मैँने पाँच-पाँच बार देखा है और कुछ एक तो शायद इससे भी ज़्यादा बार...यहाँ ये बताना मैँ ज़रूरी समझता हूँ कि आपकी इन फिल्मों को मैँने अपना पेट काट-काट कर दिया है...जी हाँ!...पेट काट-काट कर...चौंकिए मत... आज से पच्चीस-छब्बीस साल पहले जब मुझे जेब खर्च के रूप में हर महीने मात्र दस रुपए मिला करते थे और मैँ बावला उससे लंच टाईम में कुछ खरीद कर खाने के बजाए उसे महज़ इसलिए बचा कर रखता था कि आपकी रिलीज़ होने वाली नई फिल्मों में...बड़े पर्दे पर...रुबरू आपको देख...खुद को निहाल कर सकूँ...'कुली'...'शहंशाह'...'मर्द' और 'लावारिस' तो आपकी ऐसी कालजयी फिल्में हैँ जिन्हें मैँ कभी नहीं भूल सकता.... आज की तारीख में मेरे पास आपकी लगभग सभी फिल्मों की 'वी.सी.डी' या फिर 'डी.वी.डी' का कलैक्शन है...जिसे मैँने बहुत ही प्यार से अपनी आने वाली पीढियों के लिए सहेज कर रखा हुआ है...
आप शुरू से ही मेरे नायक रहे...मेरे क्या?...पूरे देश के...जन-जन के नायक रहे..शायद!...इसीलिए हम नालायक रहे....जी हाँ!..आप ही की वजह से मैँ क्या?...मेरे जैसे बहुतेरे लोग अच्छे-भले अक्लमन्द होते भी सिर्फ नालायक बन कर रह गए...वजह?...वजह पूछ रहे हैँ आप?...हमसे क्या पूछते हैँ जनाब?...खुद अपने दिल से...अपने गिरेबाँ में हाथ डाल कर स्वंय से पूछिए...अपनी कामयाबी का और हमारी बरबादी का आपको अपने आप जवाब मिल जाएगा....
आप भली भांति जानते हैँ कि आपके स्वर्णिम काल में हम युवाओं में आपके प्रति दीवनगी कितनी ज़्यादा थी?.. आपकी फिल्मों को देखने के लिए हमने कई बार स्कूलों से बंक किया है तो कई बार बिमारी का झूठा बहाना बना वहाँ से खिसके भी हैँ...इस चक्कर में कई मर्तबा हम अपने अभिभावकों से और उससे भी कहीं ज़्यादा बार अपने अध्यापकों से पिटे हैँ लेकिन यकीन मानिए इतनी सब दुविधाओं...इतनी भर्त्सनाओं के बावजूद हमने आपका साथ नहीं छोड़ा...आज इतने सालों बाद भी हमें वो दिन याद आते हैँ जब आपकी फिल्मों के फर्स्ट डे...फर्स्ट शो की टिकट हासिल करने के लिए हम दोस्तों में शर्तें लगा करती थी...और उन शर्तों में जीतने के लिए हम अपना खून-पसीना एक कर दिया करते थे...आपकी फिल्मों के टिकटों को हासिल करने के दौरान होने वाली हाथापाई और धक्का-मुक्की में कई बार हमने चोटें भी खाई हैँ और कपड़े भी फटवाए हैँ...लेकिन यकीन मानिए आज इतने सालों बाद भी हमें अपने किए पर कोई ग्लानि नहीं है...कोई पश्चाताप नहीं है....
आप सोचेंगे कि इसमें नया क्या है?..ऐसा तो आपके सभी प्रशंसक करते हैँ...कुछ एक तो अपनी दीवानगी के चलते हद से आगे बढकर अपने खून से आपको खत लिखा करते हैँ....यकीन मानिए मैँ उन बुज़दिलों में से नहीं हूँ जो आपको प्रभावित करने के लिए भावुक हो खुद अपनी ही कलाई बेरहमी से रेत डालते हैँ...अगर मुझ में...मेरी बात में...मेरी लेखनी में दम होगा तो आप खुद बा खुद मेरी तरफ खिंचे चले आएँगे...ऐसा मेरा विश्वास है...इसके लिए मुझे किसी टोने-टोटके या फिर झाड़-फूंक की ज़रूरत नहीं है।
कुली की शूटिंग के वक्त जब आपको चोट लगी तो मेरा दिल ही जानता है कि रात-रात भर जाग-जाग के मैँ कितना रोया हूँ...यूँ समझ लीजिए कि आप और मैँ दो जिस्म एक जान हैँ...
- आपको मामूली सी छींक भी आ जाती है तो विक्स इन्हेलर मैँ सूँघने लगता हूँ...
- आप ज़रा से खुश होते हैँ तो किलकारियाँ मैँ मारने लगता हूँ...
- आप ज़रा सी दौड़ लगाते हैँ तो हाँफने मैँ लगता हूँ..
- आप ज़रा से दुखी होती हैँ तो आँसू मेरे टपकने लगते हैँ...
आपका मुझ पर कितना असर है ये आप इस बात से समझ जाएँगे कि जब आप कहते हैँ कि फलाना 'च्यवनप्राश' बढिया है तो मेरे स्वादानुसार ना होने के बावजूद भी मैँ उसकी दर्ज़नों डिब्बियाँ खरीद डालता हूँ ...जब आप कहते हैँ 'दो बूंद ज़िन्दगी की' तो मैँ पोलियो बूथ की लाईनों में सबसे आगे धक्का-मुक्की करता नज़र आता हूँ ...जब आप कहते हैँ कि फलानी 'चॉकलेट' ...फलाना 'चूरण' बढिया है तो मैँ आँखें मूंद कर उन्हीं का सेवन करने लगता हूँ...जब आप कहते हैँ कि फलाना...फलाना 'तेल' बहुत ही बढिया है तो मैँ कंपकंपाती सर्दी के मौसम में भी 'ठण्डा-ठण्डा...कूल-कूल' होने को उतावला हो उठता हूँ...जब आप किसी स्पैशल 'बॉम' का जिक्र करते हैँ तो चोट ना लगने के बावजूद भी मैँ घंटॉं तक उसकी मालिश करवाता फिरता हूँ ...इसलिए नहीं कि ये सब करना मुझे पसन्द है बल्कि इसलिए कि ऐसा करने के लिए आप मुझसे...सारे आवाम से कहते हैँ...आप कहें और मैँ ना मानूँ?...ऐसा हरजाई नहीं ..बस गिला है इतना कि आपको अब तक मेरी याद आई नहीं
अब बात करते हैँ आपकी कुछ फिल्मों की...तो 'कुली'...'लावारिस'...'मर्द' और 'शहंशाह' जैसी आपकी कॉलजयी फिल्मों ने मुझे इतना कुछ दिया है...इतना कुछ दिया है कि मैँ उसका शब्दों में ब्यान नहीं कर सकता...यूँ समझ लीजिए कि मेरी 'जीवन संगिनी' से लेकर मेरा 'घर-बार'...सब आपका...आप ही की फिल्मों का दिया हुआ है...जी हाँ!...आप ही की फिल्मों का...चौंकिए मत!...ये सब कह कर मैँ आप पर कोई तोहमत या इल्ज़ाम नहीं लगा रहा हूँ और ना ही आपको सर पर चढा रहा हूँ...मैँ तो बस सिम्पल सी आपकी ..थोड़ी सी तारीफ कर रहा हूँ...बिना लाईन में लगे आप ही की फिल्मों के टिकट दिला-दिला कर मैँने उसे पटाया था...तो ये आपका मुझ पर कर्ज़ हुआ कि नहीं?...
'कुली' फिल्म में आपने ज़बरदस्ती कुलियों को 'ओम शिवपुरी' के घर पर कब्ज़ा करने के लिए प्रोत्साहित किया तो मैँ खुशी से पागल हो उठा.... 'लावारिस' में जब आपने गरीब झोपड़पट्टी वालों के 'जीवन' के मकान में जबरन प्रवेश को जायज़ ठहराया...तो मेरा हौंसला लाख गुना बढ गया....'शहंशाह' में फिर से आपने 'अमरीश पुरी' के बँगले में झुग्गी-झोंपड़ी वालों से तोड़-फोड़ करवाई तो मेरे अन्दर का मर्द जाग उठा...और फिर 'मर्द' में जब आपने 'प्रेम चोपड़ा' के हवेलीनुमा बँगले को तहस-नहस करवाया...तो खुशी के मारे मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा...आपके इन्हीं कृत्यों से प्रेरणा पाकर मैँने भी दिल्ली के पॉश इलाकों में अपना तंबू लहराया..नतीजन!..आज दिल्ली की विभिन्न 'जे.जे.कालोनियों' में मेरे दर्जनों बेनामी प्लॉट हैँ....इसके लिए मैँ सदा से आपका ऋणी हूँ...और रहूँगा ...
लेकिन अब ये आपकी समझ को क्या होता जा रहा है?...कहीं सठिया तो नहीं गए हैँ आप?...मुझे एक बात समझ नहीं आती कि जिन कृत्यों को आपने अपनी जवानी के दिनों में जायज़ एवं सही ठहराया था...अब वो अचानक आपके बुढापे में आते-आते गलत कैसे हो गए?...नहीं समझे?... ये 'पा' फिल्म आपने बनाई है कि नहीं?... बनाई है ना?...तो फिर?... अपने ही किए को इतनी आसानी से कैसे उलट दिया आपने?... एक तरफ अपनी पुरानी फिल्मों के जरिए आप पब्लिक से कहते फिरते हैँ कि "घुस जाओ...भिड़ जाओ..बेधड़क हो के दूसरों की दुकानों में ...मकानों में क्योंकि राम नाम जपना है और पराया माल अपना है"... और दूसरी तरफ आज के माहौल में आप अपनी ताज़ातरीन फिल्म 'पा' के जरिए अपने बेटे के मुखारविन्द से ये क्या अंट-शंट बकवाते हैँ कि..."ये सब सही नहीं है...गलत है...कानूनन जुर्म है?"...
मुआफ कीजिएगा...आप बेशक अपनी जगह लाख सही होंगे लेकिन मुझे आपका ये दोगलापन कतई रास नहीं आया..पसन्द आना तो दूर की बात है...अगर ये सब सही नहीं था तो पहले इसे क्यों जायज़ ठहराया गया?...और अगर ये सब सही था तो अब क्यों इसे गलत करार दिया जा रहा है? ...इसे आपका मौका देख गिरगिट की तरह रंग बदलना नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?"...
मेरा दिल कहता है कि इसमें आपकी कोई गलती नहीं...सब टाईम का कसूर है लेकिन दिमाग कहता है कि आप थाली के उस बैंगन की तरह है जो जिस तरफ ढाल देखता है...उस तरफ ही लुड़क लेता है...पहले भी आप अच्छी तरह जानते थे कि तब आम लोगों के पास मनोरंजन के साधन के नाम पर 'दूरदर्शन'...'रेडियो' और 'सिनेमा' के अलावा कुछ नहीं होता था और इनमें भी 'सिनेमा' के सबसे उत्तम होने की वजह से उसे ही खूब देखा जाता था...बार-बार देखा जाता था...आप अच्छी तरह जानते थे कि उस वक्त फिल्मों को हिट करवाने में समाज के गरीब और निचले तबके का सबसे बड़ा हाथ होता था...इसीलिए उन्हीं को लेकर कहानियाँ लिखी जाती थी..उन्हीं की तरह के पात्रों का चयन किया जाता था...आप इस सच को झुठला नहीं सकते कि तब आपने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर अपना उल्लू सीधा किया...
आज की तारीख में भी आप भली भांति जानते हैँ कि हमारे पास मनोंजन के साधनों के नाम पर 'मोबाईल'...'इंटरनैट'... और 'टी.वी चैनलों' की भरमार के अलावा और भी बहुत कुछ है जिनसे खुद को ऐंटरटेन किया जा सके....अब चूंकि मनोरंजन के मायने और साधन दोनों बदल गए हैँ तो आपने भी अपना रंग...अपना चोला बदल डाला?...
उफ!...मैँने आपको क्या समझा? और आप क्या निकले?...वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि मैँने हमेशा ही आपको गरीबों का हमदर्द...उनका मसीहा समझा था..
शिट!..कितना गलत था मैँ?
ये मैँ भी भली भांति जानता हूँ और आप भी अच्छी तरह जानते हैँ कि मैँ सब कुछ जानता हूँ...ना!...अब भोले बनकर ये बिलकुल मत कहिएगा कि आपको मालुम नहीं कि 'मल्टीप्लैक्सों' में औसतन एक टिकट कितने की है?...या फिर हमारे देश में मनोरंजन के लिए कितने 'एफ.एम. चैनल'...कितने 'टी.वी' चैनल उपलब्ध हैँ?...आप अच्छी तरह जानते हैँ कि एक आम मध्यम वर्गीय आदमी कभी सपने में भी अपने पल्ले से किसी मल्टीप्लैक्स की टिकट खरीद कर फिल्म देखने की सोच भी नहीं सकता है...तो फिर गरीब आदमी की तो औकात ही क्या है?...इसीलिए आपने अपनी पिछली सारी फिल्मों से उलट 'पा' में नई थ्योरी को जन्म दिया ना?..आप अच्छी तरह जानते हैँ कि मल्टीप्लैक्स में टिकट खरीदना केवल उन्हीं अमीरज़ादों के बस की बात है जिनका ताज़ा-ताज़ा बाप मरा हो...इसीलिए इस बार आपने गरीबों को नहीं बल्कि अमीरों के यहाँ अपना ठौर-ठिकाना बनाया...क्यों?...सही कहा ना मैँने?
मेरे ख्याल से अब तक आपको ज़ोर का झटका धीरे से लग चुका होगा...इसलिए सारी बात को यही विराम देते हुए मैँ बस आपसे एक आखिरी सवाल पूछता हूँ कि... "बच्चन जी,आप पहले सही थे या अब गलत हैँ?...
फिलहाल इतना ही...बाकी फिर कभी...
विनीत:
सदा से आपका 'राजीव तनेजा'
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23 comments:
'मल्टीप्लैक्स में टिकट खरीदना केवल उन्हीं अमीरज़ादों के बस की बात है जिनका ताज़ा-ताज़ा बाप मरा हो...'
क्या खरी बात कही तनेजा जी आपने ! इसका उल्टा भी होता है कि 'मल्टीप्लैक्स मे टिकट इतना खरीदा कि बाप ही मर गया'
अमिताभ जी से जवाब मिले तो मुझे भी बताईएगा.
ओह ! आज बच्चन जी की बारी !
राजीव जी,
गंगा किनारे वाले छोरे ने ये भी कहा था...
यूपी में बड़ा दम है
क्योंकि जुर्म यहां कम है...
हुआ क्या, चुनाव में मुलायम सरकार का दम निकल गया था...
आप तो बस पा पा, पा पा करते रहिए और च्यवनप्राश खाते रहिए...
जय हिंद...
वाह रा्जीव भाई-का करे बच्चनवा? धंधा है पर.....
nice
.आप अच्छी तरह जानते हैँ कि मल्टीप्लैक्स में टिकट खरीदना केवल उन्हीं अमीरज़ादों के बस की बात है जिनका ताज़ा-ताज़ा बाप मरा हो...इसीलिए इस बार आपने गरीबों को नहीं बल्कि अमीरों के यहाँ अपना ठौर-ठिकाना बनाया...क्यों?...सही कहा ना मैँने?
आपने एकदम सही कहा.... हा हा हा हा हा हा....
मज़ा आ गया पढ़ कर....
अरे राजीव भाई आपने तो पा जी का पूरा सिलेबस ही छाप दिया और ऊपर से लास्ट बट नौट लीस्ट में ऐसा प्रश्न दाग दिया कि बेचारे बिग बी अब न बिग रह पाएंगे और बी से तो पा वे बेचारे कब के हो चुके ...वैसे यार इसमें पा की मां का रोल यदि वो नि:शब्द वाली हीरोईन करती न तो पिक्चर हिट थी .....फ़ी्लींग आती न माता जी वाली उसे देख कर बिग बी को ...हां अभिषेकवा का करता पता नहीं , जवाब आता ही होगा
hello rajeev ji,
aap ne bil kul sahi likha hai
amit ji apni garima ke anurup kaam karna chahiye na sirfb paiso k liye
me aap ki baat se sehmat hu
बहुत खूब! आज सब इसको लेकर चिंता कर रहे हैं। आपका रोष जायज है।
बाजारवाद में ढलता सदी का महानायक
अहिंसा का सही अर्थ
अरे बाबा यह ना पहले ठीक थे ना आज , हम भी आशिक थे इन के, लेकिन जब देखा कि यह तो नेताओ के गुणो वाले है, बस उसी दिन से आऊट, याद करो राजीव गांधी के संग किस का नाम जुडा था बाफ़ोर्स मामले मै? ओर कितने घटोलो मै यह प्रसिद्ध हुये है..... राम राम
आप ने बिलकुल सही लिखा हम लोगो ने अपना जेब खर्च बचा कर, स्कुळ से भाग भाग कर इन की फ़िल्मे देखी
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from: anand pathak akpathak3107@gmail.com
आ० राजीव भाई
क्या खीचा है? मजा आ गया
हो सके तो यह "प्रेम-पत्र" अमिताभ जी के ब्लोग पर पोस्ट कर दो तो वह भी
पढ़ लें
सादर
-आनन्द.पाठक
ई-मेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी:
from:ummedsingh baid ummedbaid@gmail.com
majaa aayaa jeeeeee. sadhak
ई-मेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी:
from:Shefali Pande pande.shefali@gmail.com
राजीव जी,
आपने मज़ाक - मज़ाक में बहुत गहरी बात कर दी है, काश कि बिग बी आपकी इस पोस्ट को पढ़ पाएं ....
न पहले सही थे
न अब गलत।
आपको पड़ गई है
अमिताभ बच्चन की लत।
लत आपको ही नहीं
सबको पड़ गई है।
लत ही बनी है इज्जत
जिससे होती है फजीहत।
इसका टाइटल बदलकर रख दो
अमिताभ बच्चन के नाम खुला खत।
जो कभी खुलेगा नहीं
अमिताभ बच्चन पढ़ेंगे नहीं।
अमिताभ जी का तो मैं भी बहुत बड़ा फैन हूँ और उनकी मिमिक्री भी कर लेता हूँ... वैसे इनसे एक सवाल दो कंटेंट के ज़रिये पूछना चाहिए था. एक ये कि इन्होने आग (राम गोपाल वर्मा की) और पा (खुद की) क्यूँ की?????? क्यूँ की ??????/ क्यूँ की ???????
सशक्त लेख पूरा का पूरा पढने पर मजबूर कर दिया, ग्रेट!!!
achchha vishleshan. bebaak bhi hai..badjai.
चैट के दौरान प्राप्त टिप्पणी:
harisharmaster@gmail.com
harisharmaster: aapkaa lekh satahee nazar se amitaabh kee filmo ke bishay mai aaye parivartan aur unke kirdaaro ke soch ko jubaan dete hai jo sahee hai lekin cinema nirdeshak kaa maadhyam hai aur abhinetaa ka kaam diye gaye kirdaar ko dil lagaakar abhineet karnaa hota hai
to amitabh kee charchaa ham unke abhinay ke star mai aa rahe utar chadhaav se kare to sahee tasver samajh mai aayegee. is maamle mai shashi kapoor kaa udaaharan le …unmhone ausat abhinay karke paisaa kamaayaa aur use sandesh parak badhiyaa filme banaane aur prithvi theatre ko pratishthaa dilaane mai lagaaya
manoj kumar ne apnee soch ke hisaab se filme banaayee
Rajeev ji,
achha laga aapka blog...sochne ke liye mazboor karta hai...
अत्यंत ही स्पष्ट और बहाव के विपरीत लेख.
बहुत अच्छा लगा आपके नजरिये को पढ़कर.....मैं पूरी तरह सहमत हूँ.
बढिया है। पैसे के लिए एक्टिंग करने वाले लोग भना नायक कैसे बन जाते हैं? ये सारे हमारे मनोरंजन के साधन मात्र है बस। अच्छा व्यंग्य लिखा है आपने, बधाई।
जोर का झटका-जोर से ही!!
देखिये अब क्या कहते हैं बच्चन जी अपने कमेंट में आकर. :)
जान,जानी जनार्दन,दे दिया दनादन दनादन,बैण्ड बज़ा दिया लम्बू का,तम्बू में लटका दिया।नसीब फ़ोड दिया गरीब का,शंहशाह से कुली बना दिया,वाह तनेजा जी वाह तुसी ग्रेट हो।
'जिनका ताज़ा-ताज़ा बाप मरा हो..' हाय ताजा ताजा बाप कैसे मरता है? ताजा ताजा (रिसेंटली) मरे का तो अपुन को मालूम. ही ही ही
'पा' अपुन को तो बड़ा रापचिक फिलिम लगा रे भाई.
तुम काये को भोले बच्चा के पीछे पड़ते ? अपुन भी खूब देखा अमिताभ का मूवीज. आनंद,नमकहराम,चुपके चुपके,मिली,दो अनजाने,दीवार ,सत्ते पे सत्ता पसंद आया.ये कूली,मर्द बकवास लगा रे.अब अपुन से झगड़ने का नईच.दोनों मिलके उनका सब फिलिम पास.इ खिंचाई नै करने का रे इनका पापा मेरा पेन-फ्रेंड रहा है और मेरा गाइड भी.इत्ता सा उनका हाथ का लिखा चिट्ठी पड़ा मेरे पास.कक्षा छ से लिखना शुरू किया.अंत तक ....अरे उनके अंत तक.मैं तो अभी जिन्दा रे बाबू! तुम्हारा मसखरी को इंजॉय करता. कितना दिमाग चलता है भई ?????? लिखो लिखो...सब पढेंगे.
मैं भी. पढूंगी पक्का वादा.जुबान दे दी न . ऐसिच हूँ मैं तो.मन में कुछ नही रखती.
मल्लिका अरोड़ा की क्लास क्यों नही लेते?
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