मुझे कच्छा खरीदना है...पर भ्रम में हूँ...कौन सा लूँ?...आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है
***राजीव तनेजा***
ट्रिंग...ट्रिंग.….
तनेजा जी?...
"ओह्हो!..शर्मा जी...आप?…..कहिए…कैसे याद किया?"...
"अभी आप क्या कर रहे हैं?"...
"कच्छा ठीक कर रहा हूँ"...
"क्क...क्या मतलब?…आप कच्छे भी ठीक करते हैं?”…
"ठीक करते हैं से क्या मतलब?…मैंने कोई मरम्मत की दुकान थोड़े ही खोल रखी है?”..
“अभी आपने ही तो कहा”….
“क्या?”….
नोट:इस कहानी में पाठकों को कुछ द्विअर्थी संवादों के होने का भान हो सकता है|अत: अपने जोखिम एवं माल-हानि को ध्यान में रखते हुए पढ़ें लेकिन यकीन मानिए माई-बाप कि इसे लिखते वक्त मेरे मन ऐसे कोई कोई मंशा थी…मैंने तो सिर्फ स्वच्छ एवं निर्मल हास्य को उभारने के नाते इन्हें लिखा है |
“यही कि …आप कच्छा…
“तो?…इसमें ऐसे हाँफते गधे के माफिक भिनभिना के चौकने से मतलब?…आपने जो पूछा ...उसी का तो उत्तर दिया मैंने"…
"अ..आप…आप सचमच में कच्छा ही ठीक कर रहे थे?"...
"रहे थे से क्या मतलब? ..अभी भी कर रहा हूँ"....
"लेकिन किसका?”…
“किसका…से क्या मतलब?…..अपना..और किसका?”…
“ओह!…लेकिन क्यों?”…
“क्यों से क्या मतलब?…हाबी है मेरी" …
“क्कच्छा!…कच्छा ठीक करना… अ…आपकी हाबी है?”…
“हाँ!…
“लेकिन क्यों?”शर्मा जी का हंसी भरा प्रश्नात्मक चेहरा..
“मुझे पागल कुत्ते ने जो काटा है”…
“तनेजा जी!…मैं तो ऐसे ही हंसी-हंसी में पूछ रहा था …आप तो बिलावजह …बुरा मान…नाराज़ हो रहे हैं"…
“बिला वजह?…मैं यहाँ मुसीबत के मारे परेशान पे परेशान हुए जा रहा हूँ और आपको…आपको मजाक सूझ रहा है"…
“ओह!…आई एम् सारी ….लेकिन आपने उसे बेवजह खराब किया ही क्यों?"...
“किसे?”…
“कच्छे को"..
“किया ही क्यों से क्या मतलब?…ये मेरे बस की बात थोड़े ही है”…
“तो फिर किसके बस की बात है?”…
“मुझे क्या पता?”…
“कमाल है!…कच्छा आपका…पहनने वाले आप खुद..खराब हुआ….तो क्यों हुआ?…आपको खबर ही नहीं?”…
“अरे!…इस हमाम में कितने आए?…कितने गए?…मुझे क्या पता?”…
“कितने आए?…कितने गए?…आपके अलावा भी कोई आपका कच्छा इस्तेमाल करता है?”…
“बिजनौर का ‘बन्ने खां भोपाली’ समझ रखा है क्या?”…
“क्या मतलब?”…
“इतना गया-गुज़रा भी नहीं हूँ जनाब कि एक ही कच्छे में पूरे खानदान को निबटा दूँ…हमारे घर में हर एक के पास अपने-अपने…खुद के…तीन-तीन निजी कच्छे हैं"…
“गुड!…वैरी गुड…यहाँ तो मैं भी आपकी बात से सहमत हूँ…तीन तो कम से कम होने ही चाहिए"…
“जी!…एक्चुअली कच्छे तो मेरे पास पांच-पांच हैं…वो भी अलग-अलग चटक रंगों के”…
“ओ.के"…
“उनमें से दो सुसरे तो पहनते-पहनते इतने मटमैले हो गए हैं कि उन्हें पहनने तो क्या सूंघने तक का मन नहीं करता"…
“ओह!…और बाकी के बचे तीन…उनका क्या?”…
“उनमें से एक तो फिर भी ठीकठाक है…कभी-कभार शादी-ब्याह या पार्टी-शार्टी के मौके पे पहने लेता हूँ”…
“ओ.के!…दैट्स नाईस"…
“लेकिन बाकी के बचे दो सुसरों की नीयत में बेईमानी आ गई”…
“ओह!…
“मेरा हाथ तंग देख के एन मौके पे उन्होंने भी जवाब दे अपने हाथ खड़े कर दिए"…
“हाथ खड़े कर दिए?”…
“जी!…
“लेकिन कच्छों के तो हाथ नहीं जनाब… टाँगे होती हैं…टाँगें और वो भी छोटी-छोटी…छोटी-छोटी"शर्मा जी अपनी दो उँगलियों से उनका साईज सा बताते हुए बोले …
“जी!…
“तो आप यहाँ पर ‘हाथ खड़े करने’ का मुहावरा कहने के बजाए ‘टाँगे खड़ी करने’ का नया मुहावरा गढ़ें तो ज्यादा बेहतर रहेगा"…
“लेकिन टाँगे तो पहले से ही खड़ी रहती हैं…उन्हें मैं क्या खड़ी करूँगा?”….
“क्यों?…खड़ी टाँगें होने के बावजूद कुत्ता भी तो टांग खड़ी कर के…
“खबरदार!…जो कुत्ते का नाम लिया …उनसे मुझे सख्त नफरत है"…
“कोई पुरानी दुश्मनी?”…
“जी!……मेरे दादा जी के ज़माने से हम में और उनमें ईंट-कुत्ते का वैर चला आ रहा है"…
“ओह!…तो फिर ऐसी स्तिथि में किस जानवर का नाम लेना ठेक रहेगा?”…
“मुझे क्या पता?”…
“ऊदबिलाव कैसा रहेगा?”..
“क्या?…क्या बकवास कर रहे हैं आप?…रखिए…फोन नीचे रखिए..मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी है"…
“ममें…मैं तो बस ऐसे ही उदहारण दे के समझा रहा था“…
“ये देने का उदहारण है?…ऐसे?…ऐसे दिया जाता है उदहारण?”…
“आए एम् सारी….माफ कर दीजिए….आईन्दा से ऐसी गलती फिर कभी नहीं होगी"…
“ओ.के…इट्स ओ.के…पुराने दोस्त हो इसलिए माफ कर देता हूँ वर्ना आपकी जगह कोई और होता तो……
“थैंक्स….
“हाँ!…तो हम क्या बात कर रहे थे?”…
“आपके कच्छों ने एन टाईम पे अपनी टांगें…ऊप्स!…सारी ..हाथ खड़े कर दिए थे"…
“हाँ!…
“ये तो आपके साथ बहुत बुरा हुआ"…
“बुरा तो हुआ लेकिन…बहुत बुरा हुआ?…ऐसा कहना जायज़ नहीं होगा"…
“अरे वाह!…ऐसे कैसे जायज़ नहीं होगा?”…
“कच्छे मेरे थे कि तेरे?”…
“अ..आपके"…
“तो फिर मुझे ज्यादा पता है कि तुझे?”…
“अ…आपको"…
“तो फिर?”…
“लेकिन बीच मंझधार में अगर किसी का कच्छा खराब हो जाए…इससे से बुरा उसके लिए और क्या होगा?”..
“क्यों?…मुझे मौत नहीं पड सकती थी क्या?”..
“मौत पड़े आपके दुश्मनों को…आप तो अभी सौ साल और जिएंगे"..
“और तेरा सर खाएंगे"…
“माय प्लेज़र!…इससे ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए और क्या होगी …आप जैसा शानदार दोस्त पाकर किस मनहूस को गर्व ना होगा?”…
“थैंक्स फार दा काम्प्लीमैंट लेकिन मुझ बदनसीब से आप थोड़ा बच कर रहे तो ये आपकी सेहत के लिए ज्यादा अच्छा रहेगा"…
“लेकिन क्यों?”…
“अब देखिए ना…मुझ से बड़ा बदनसीब और कौन होगा?…एक ही दिन में दो-दो कच्छे खराब हो गए"…
“जी!…बात तो आपकी कुछ हद तक सही है लेकिन इसमें हमारा …आपका…… उनका…किसी का भी दोष नहीं है”..
“जी"…
“आप ‘बाबा रामदेव जी’ की शरण में कुछ दिन क्यों नहीं बिता आते?”..
“किसलिए?”…
“मुझे लगता है कि आपको मेडीटेशन वगैरा करनी चाहिए”…
“लेकिन क्यों?”…
“इससे सेल्फ कंट्रोल आता है"…
“सेल्फ कंट्रोल इसमें क्या टट्टू करेगा?…अपने बस की बात हो तो हम कुछ हाथ-पैर हिलाएँ भी लेकिन जब लगाम ही परायों के हाथ में हो तो घोड़ा बेचारा क्या करे?”…
“क्या मतलब?…आपकी लगाम किसी गैर के हाथ में थी?”…
“और नहीं तो क्या मेरे अपने हाथ में थी?”…
“ओह!…लेकिन कैसे?…कच्छा तो आपका…खुद का ही था ना?”…
“नहीं!…पड़ोसियों का था"…
“तनेजा जी!..आप तो फिर से मजाक करने लगे"…
“अरे!…मैं भला पड़ोसियों के कच्छे क्यों पहनने लगा?”…
“तो फिर लगाम दूसरे के हाथ में कैसे हो गई?”..
“अजीब बेवकूफ हो तुम…लगाम मेरे हाथ में कैसे हो सकती है?…वो तो उस किनारी बाजार वाले दुकानदार के हाथ में थी"..
“दुकानदार के हाथ में?”…
“जी!…दुकानदार के हाथ में"….
“लेकिन क्यों?”…
“उसी से तो पूरे बत्तीस रूपए का कच्छा खरीदा था मैंने"…
“तो?..उससे क्या होता है?…उसने तो आपको कच्छा दिया…अपने दाम लिए…उसकी जिम्मेवारी खत्म"…
“अरे वाह!…ऐसे…कैसे खत्म?…बाप का राज़ समझ रखा है क्या?…जब तक वो पूरी तरह घिस कर रुंद-पुंद नहीं हो जाता…वो अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता"…
“तब तो आपको जा के उसका गिरेबान पकड़ना चाहिए था"…
“पकड़ा ना"…
“फिर क्या हुआ?”…
“हलकी खरोंचे आई और कमीज़ फट गई"…
“ओह!…आपने टिटनैस का टीका तो लगवा लिया था ना?”…
“मैं भला टीका क्यों लगवाने लगा?….खरोंचे तो उसके चेहरे पे आई थी…पट्ठे का मुंह जो नोच लिया था मैंने”….
“ओह!…
“मेरी तो सिर्फ कमीज़ फटी थी"…
“थैंक गाड!…मुझे तो बेकार में ही आपकी चिंता हो रही थी"..
“जी"…
“मैं तो ये सोच-सोच के घबरा रहा था कि आपको बहुत दर्द हुआ होगा"…
“जी!…दर्द तो मुझे भी बहुत हुआ था"…
“तनेजा जी!…आपकी इसी भलमनसत का तो मैं बरसों से कायल हूँ”…
“कौन सी?”मेरी चौंकता हुआ स्वर…
“यही कि आपसे दूसरों का दुःख नहीं देखा जाता”…
?…?…?…?…
“भले ही आपकी वजह से ही उस कलमुंहे दुकानदार का मुंह नोचा गया हो लेकिन उस नचुआहट की तकलीफ अब भी आप बड़ी शिद्दत के साथ अपने दिल में महसूस कर रहे हैं”..
“अजीब बेवकूफ हो तुम…मैं तो आपनी तकलीफ के बारे में बता रहा था"…
“आपको क्या तकलीफ हुई होगी?…तकलीफ तो उसे हुई होगी जिसका मुंह नोचा गया होगा"…
“आपको पता है कि …सरकते कच्छे को बार-बार ऊपर खींचने में कितनी तकलीफ होती है?”…
“ओह!…
“एक तो सुसरा जब देखो नीचे उतरने को तैयार रहता है"…
“और दूसरा?”…
“दूसरा?…वो तो हमेशा सर पे चढ़ने की ही फिराक में रहता है”….
“आप उसे मुंह पे पहनते हैं?”…
“मुंह पे पहनते होंगे और आपके होते-सोते…मैं तो उसे वहीँ पहनता हूँ जहाँ पहनना चाहिए”…
“अभी आपने कहा कि सुसरा सर पे चढा चला आता है"…..
“आता है नहीं…जाता है" …
“आए या जाए……क्या फर्क पड़ता है?…एक ही तो बात है”..
“अरे वाह!…एक ही बात कैसे है?..आना…आना होता है और जाना..जाना होता है"…
“आप उन्हें बदल क्यों नहीं देते?”..
“अरे!…बदल तो मैं ‘पप्पू' की माँ को भी दूँ लेकिन कोई तैयार हो तब ना"…
“क्या मतलब?”…
“अरे!…मैं तो कब से नाड़ा खोल के तैयार बैठा हूँ लेकिन कोई तो ऐसा दिलदार सज्जन पुरुष मिले जो कच्छों की अदला-बदली को खुशी से स्वीकार कर ले"…
“ओह!…तो आप नाड़े वाले कच्छे पहनते है…छी!…चीप कहीं के"…
“अरे-अरे…आप तो गलत समझ रहे हैं…ये तो मैंने अभी-अभी नया मुहावरा गढा है “नाड़ा खोल के तैयार बैठना" …वैसे एक्चुअली मैं हमेशा इलास्टिक वाले रेडीमेड कच्छे ही पहनता हूँ”…
“पक्का?”…
“बिलकुल पक्का”..
“गाड प्रामिस?"…
“जी!…गाड प्रामिस"…
“ओ.के"…
“शर्मा जी!..आप ही कोई उपाय बताइए और मुझे इस झंझट से छुटकारा दिलाइए”…
“आप किसी अच्छी कंपनी का कच्छा क्यों नहीं खरीदते हैं?”…
“किसका लूँ?…आप ही बता दो…बस दाम वाजिब होने चाहिए"…
“आप ये कोजी-शोजी क्यों नहीं ट्राई करते?”…
“शर्मा जी!…कोजी-शोजी के साथ-साथ रोज़ी का भी ट्राई कर लिया लेकिन सब एक सामान….कोई दो-चार हफ़्तों में ही ढीला पड़ नीचे लटकने को तैयार बैठा होता है तो किसी की एक हफ्ते में ही सांस फूलने लगती है"…
“ओह!…इसका मतलब आपने ‘ये अंदर की बात है’ वाले को ट्राई नहीं किया शायद”…
“अरे वाह!…ऐसे कैसे ट्राई नहीं किया होगा?…उसकी एड देख-देख के कई बार मतवाला हो मैं उसी को खरीद लाया लेकिन दूसरे जहाँ दो महीने में ही टै बोल जाते हैं….वो दो-चार दिन ज्यादा चल गया होगा बस…इससे ज्यादा कुछ नहीं"…
“ओह!…
“वैसे शर्मा जी!…आप कौन सा अंडरवियर पहनते हैं?”…
“जी!…सच पूछिए तो मुझे इसकी बिलकुल भी आदत नहीं है”…
“कच्छा पहनने की?”…
“जी"…
“क्या मतलब?…आप बिना अंडरवियर के ही इधर-उधर कुलांचें भरते फिरते हैं?”..
“नहीं-नहीं!…ऐसी बात नहीं है"…
“तो फिर कैसी बात है?”…
“दरअसल!…मैं जन्म-जन्मांतर से हनुमान जी का भक्त हूँ"…
“तो?”…
“इसलिए लाल या फिर केसरिया लंगोट मेरा शुरू से ही फेवरेट है"…
“काश!…मैंने भी आप ही की तरह बजरंगबली को अपना लिया होता तो आज मेरी ये दुर्दशा नहीं होती"…
“अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है"…
“क्या मतलब?”…
“तलाक दे दीजिए"…
“नहीं यार!…सात फेरे लिए हैं मैंने…अग्नि को साक्षी मान कर कसमें खाई हैं…ऐसे…कैसे दे दूँ तलाक?…और फिर वो है भी तो इतनी क्यूट कि…
“अरे-अरे!…आप गलत समझ रहे हैं…मैं आपकी बीवी की नहीं बल्कि कच्छे की बात कर रहा हूँ…उसे ही तलाक दे दीजिए"शर्मा जी बात को संभालने की कोशिश सी करते हुए बोले…
“शर्मा जी!…आप से बढ़कर एहसान फरामोश इंसान मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में नहीं देखा…मुआफ कीजिए!…आप…आप तो इंसान कहने के भी लायक नहीं है"…
“मुझे तो आपको अपना दोस्त कहते हुए भी शर्म सी आने लगी है"…
?…?…?…?…?…
“कच्छे के साथ ये सौतेला…ये दोगला व्यवहार मैं महज़ इसलिए करूँ ना कि उसके मुंह में जुबान नहीं है…वो हमारी…आपकी तरह बोल नहीं सकता है”…
?…?…?…?…
“भगवान ना करे किसी हादसे में अगर हमारे अपने बच्चे या माँ-बाप अपाहिज हो जाएँ तो क्या हम उनके साथ भी यही सलूक करेंगे?…नहीं ना?”..
“जिस बेजुबान ने कई मर्तबा मुझे बीच बाज़ार में शर्मिंदा होने से बचाया…मैं उसका साथ छोड़ दूँ?”…
“और तो और …गंगा घाट पे…अध्नंगी गोपियों के बीच जिसने मेरी इज्ज़त नीलाम नहीं होने दी…ममैं…मैं उसी का साथ छोड़ …बेवफा हो…मुंह फेर लूँ?….सवाल ही नहीं पैदा होता"…
“तो फिर आप अपने ब्लॉगर दोस्तों से मदद क्यों नहीं लेते?”…
“कच्छा टाईट करने में?”..
“जी"…
“क्या पता…उन सभी के कच्छे भी मेरे कच्छों की तरह ढीले हो जाते हों?”…
“कभी किसी ने इस बारे में आपसे जिक्र किया?”…
“अभी तक तो नहीं"…
“तो फिर आप ही पहल क्यों नहीं करते?”…
“लेकिन ब्लॉगजगत में ऐसे…सबके सामने…ऐसी निकृष्ट बात का जिक्र करना ठीक रहेगा?”…
“आप इसे निकृष्ट क्यों कह रहे हैं…आरामदेह कच्छा पहनना तो हर ब्लॉगर का…हर इंसान का जन्मसिद्ध अधिकार है"…
“नहीं!…जन्मसिद्ध कैसे हो गया?…जन्म के समय तो…..
“ओह!…
“मेरे ख्याल से मौलिक अधिकार की श्रेणी में आएगा"…
“जी!…आप एक काम करें"…
“क्या?”…
“आप सबको फोन कर के उनसे ही पूछ लें"…
“कि वो कौन सा कच्छा पहनते हैं?”…
“इसके साथ ये भी कि वो आरामदेह है या नहीं?…कितने का आता है?…कितने दिन तक बिना धोए चल जाता है?”…
“लेकिन यार!…सबको फोन करने में तो बहुत खर्चा हो जाएगा"…
“आप अपना खर्चा देख लें या फिर आराम देख लें…एक टाईम पे चीज़ तो एक ही मिल सकती है"..
“नहीं!…एक उपाय है"…
“क्या?”..
“मैं एक पोस्ट लगा देता हूँ"…
“किस बारे में?”…
“इसी बारे में”…
“ऐसा करना शोभा देगा?”…
“क्यों?…मेरे बाकी के ब्लॉगर साथी भी तो अपनी आवश्यकताओं के समाधान और समस्याओं के निवारण के लिए पोस्ट डालते रहते हैं”…
“मसलन?”…
“अभी मेरे एक खास मित्र ने ही मोबाइल और लैपटाप खरीदने के नाम पर कि…”कौन सा खरीदूं?” के नाम से पोस्ट डाली थी…
“ओ.के"…
“मैं ऐसा कर दूंगा तो कोई गुनाह थोड़े ही कहलाएगा?”..
“ठीक है!…तो फिर आप भी यही कीजिए"..
“लेकिन मेरे पास मोबाइल और लैपटाप तो पहले से ही है"…
“नहीं!…आप कच्छों की अदला-बदली के बाबत पोस्ट डालिए"..
“नहीं!…ये ठीक नहीं रहेगा"…
“लेकिन क्यों…इतना बढ़िया आइडिया तो है"…
“देखिए!…वर्चुअल दुनिया में रहने के बावजूद हम ब्लॉगर भाई लोग बेशक एक-दूसरे को कितनी भी अच्छी तरह से जानते हैं लेकिन मेरे ख्याल से कोई भी प्रबुद्ध ब्लॉगर अपने कच्छे के साथ मेरा कच्छा बदलने के लिए राज़ी नहीं होगा"…
“क्यों?…आपके कच्छे में क्या कमी है?…सिर्फ इलास्टिक ही तो थोड़ा सा ढीला है"…
“नहीं!…इलास्टिक की बात नहीं है…वो तो बदलवाया भी जा सकता है"…
“हम्म!…अब समझा”…
“क्या?”…
“आपने अपना कच्छा कई दिनों से नहीं धोया होगा"…
"नहीं!…ऐसी बात तो नहीं है…कच्छा तो मैंने अभी कुछ ही…
“दिनों पहले धोया था?”…
“नहीं…दिन नहीं …मेरे ख्याल से एक-डेढ़ महीना तो हो ही गया होगा"…
“ऐसे तुक्के मारने से तो काम नहीं चलेगा…आप Exact Date याद कीजिए”…
“ठीक से कुछ ध्यान नहीं आ रहा लेकिन शायद वो मंगल की रात थी”…
“कोई एगजैकट तारीख …कोई निशानी वगैरा?”…
“लेट मी थिंक…..दिवाली कौन से महीने में थी?”…
“नवंबर में…क्यों?…क्या हुआ?”…
“जहाँ तक मुझे याद पड़ता है…. दिवाली से ठीक दो दिन पहले बारिश में भीगते वक्त ….
“कच्छा अपने आप धुल गया था?”…
“अरे वाह!…अपनेआप कैसे धुल गया था?….बिना साबुन के मैंने उसे खूब जोर-जोर से रगड़ा था…यहाँ तक कि पत्थर के सिलबट्टे पे उसे जोर-जोर से पटका भी था“..
“ओह!…अब समझा"…
“क्या?”…
“इसीलिए उसका ऐसा ढिल्लम-ढिल्ला वाला हाल हुआ होगा"…
“ओह!…
“तनेजा जी!…खाली…ओह…ओह्हो करने से तो इस समस्या का हल निकलेगा नहीं…कुछ करिए"…
“क्या करूँ?…ये पोस्ट डालने वाला आईडिया भी तो फेल होता नज़र आ रहा“…
“आप एक काम करिए”…
“क्या?”…
“पोस्ट का मैटर बदल दीजिए"…
“अरे!…मैटर कैसे बदल सकता हूँ?…उससे तो सारा मतलब ही बदल जाएगा"…
“नहीं..आप तो लेखक हैं….कुछ ऐसा अनूठा…अनोखा और मतवाला लिखिए कि हर ब्लॉगर के दिल में आग सुलग उठे…वो अपनी सुद्ध-बुद्ध भूल आप से अपना कच्छा बदलने को उतावला हो उठे”…
“मसलन?”…
“आप ऐसा लिखिए कि जैसे आपके पास अपना नहीं बल्कि किसी सेलिब्रिटी का कच्छा हो जैसे ब्रिटनी स्पीयर्स या फिर स्पीलबर्ग का"…
“हाँ!…ये ठीक रहेगा….वैसे अगर ‘शकीरा’ का लिख दूँ तो कैसा रहेगा?”…
“वो कच्छा पहनती है?”…
“मुझे क्या पता? और फिर कौन सा किसी ने चैक कर के देखा होगा?…सब मान जाएंगे"..
“हम्म!…आइडिया तो आपका ज़ोरदार लग रहा है”…
“लेकिन यार!… मेरे मन में एक संशय है”…
“क्या?”..
“क्या किसी और के कंधे पे बन्दूक रख के निशाना साधना मुझ जैसे वरिष्ठ लेखक को शोभा देगा?”…
“क्या ऐसे ढ़ील्ल्म ढीला कच्छा पहन के ब्लोग्गर मीटिंगों में जा कर उवाचना आपको अच्छा लगेगा?”..
“नहीं!…अच्छा तो खैर नहीं लगेगा लेकिन किया भी क्या जा सकता है"…
“किया तो बहुत कुछ जा सकता है…आप करने वाले तो बनिए"…
“क्या मतलब?”…
“आप पोस्ट डाल के देखिए तो सही"…
“मनमाफिक नतीजे नहीं मिले तो?”…
“नहीं मिले तो ना सही…शुगल मेला ही हो जाएगा"…
“जी!…ये तो है"…
“फिर देर किस बात की है…ठेल दीजिए पोस्ट"…
“जी"…
“पोस्ट का टाईटल क्या रखेंगे?”..
“वही जो होना चाहिए“…
“मतलब?”…
“मुझे कच्छा खरीदना है…पर भ्रम में हूँ…..कौन सा लूँ? ….आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है"…
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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34 comments:
nice
आपके कच्छा पुराण से मिलता जुलता एक किस्सा...
ननुआ गांव से शहर नौकरी करने आया हुआ था...कई साल हो गए...एक दिन ननुआ ने मालिक से कहा...साहब, छुट्टी चाहिए, गांव जाना है, वो क्या है के, जोरू के बच्चा होने वाला है...मालिक ये सुनकर हैरान परेशान...बोला...अबे तू तीन साल से मेरे पास है...गांव छोड़, एक दिन के लिए भी इधर उधर नहीं गया...फिर तेरी जोरू के बच्चा...ननुआ शरमाते हुए बोला...वो साहब, क्या है के आते वक्त गांव में अपना कच्छा छोड़ आए थे न...
डिस्कलेमर...होली के दिन हैं...
जय हिंद...
हम तो मौन रहेंगे
संगठन बनाने में बिजी हैं
टिप्पणी देने पर
नियम एवं शर्तें लागू हैं
कच्छे को काबू में रखो
विदेशी इलास्टिक लगवाओ
अन्यथा ...
यूं ही उपर को खिसकाते रहोगे
रंग अपने लगवाते रहोगे
कौन से हाथ से अपना मुंह बचाओगे
अपने पूरे ही मुंह पर कालिख पुतवाओगे
।
भाई तनेजा जी .... ये कच्छा लेने का आइडिया अच्छा रहा पर आपतो प्रबुद्ध हैं ... ये ब्लागरिये ऐसे हो गए हैं आज ,,, कि जितने कच्छा बदलने को तैयार भी होंगे उनसे ज्यादा कच्छा उतारने पर उतारू हो जायेंगे ,... वैसे कोशिश की जा रही है कि सब के सब एक ही कच्छे में आ जाएँ ...देखिये क्या होता है
हमारी राय तो ये है कि अब एक कच्चे में सब को लाने के लिए "लंगोट" ही कस लें तो अच्छा होगा ...
हमेशा की तरह बहुत मजेदार प्रस्तुति ... हा हा हा
http://padmsingh.wordpress.com
बहनजी, इलास्टिक वाला मत खरीदना, नाड़े वाला बेहतर है सालो-साल चलेगा :)
फट्टे वाला, घुटनों से कुछ ऊपर के साइज़ का बेस्ट रहेगा...मेरे ख़्याल से
कच्छा है भाई कच्छा है
अच्छा है भाई अच्छा है
हा-हा-हा-हा-हा
मजा आ गया जी
कच्छा पकड कर सारी पेट पकड कर हंस रहा हूं
हा-हा-हा-हा-हा
हा-हा-हा-हा-हा
प्रणाम स्वीकार करें
इस बार लेडिज कच्छे ट्राई करो, उनकी इलास्टिक बढिया होती है जी
bahut hansee aaye is baar bhee padh ke
IS bare main to sahi salah hamare bujurg bloger hi de sakte hain.
हाँ हाँ हाँ राजीव् जी सच में मजा आगे अरे नाराज मत हो सोच रहे होगे क्या आदमी है मै राय ले रहा हूँ .. ये उसमे मजे ले रहा है ... होता है भाई होता है कभी कभी किसी को किसी के कच्छे से भी मजा आता है (मेरा मतलब कच्छे की परेशानी से भी मजा आता है )काहिर मै तो आप को कोई राय नहीं दे सकता मै तो कच्छा पहनता ही नहीं हूँ मतलब वही लंगोट है न न
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
@अंतर सोहिल जी
काफी अनुभव है आपका :)
बुरा न मानो होली है
चैट के दौरान ललित शर्मा जी से प्राप्त टिप्पणी:
ललित: कच्छा सिला दिया तुने मेरे प्यार का, यार ने ही पहन लिया कच्छा यार का, (लेकिन ये कच्छा बदलने की बात समझ नही आई:) आपका पुराना हमारे लिए नया है। बात बदलने की है। होली है।
राजीव जी "रुपा" का कच्छा खरीद लो.....
बहुत सुंदर अजी पढ कर पेट दुखने लगा, ओर सलाह सारी भुल गया
है आपके पास ६-६ कच्छे फिर भी परेशान हो
आपसे तो हम ही है अच्छे कि परेशान नही है
आदमी वही अच्छा है
जिसके पास कच्छा है
कच्छा भी वो अच्छा है
जिसका इलास्टिक अच्छा है
कच्छा वही जो पहनने वाले और देखने वाले को भाये
हो दिखना चहिये दिखे और बाकी का सब छिप जाये
चैट के दौरान शेफाली पाण्डेय जी से प्राप्त टिप्पणी:
shefaliii: koi sa bhi khareediye
shart ye hai ki use bahar se pahaniyega
tabhi fantam effect aaeaga
ईमेल से प्राप्त टिप्पणी:
from: arvind sharma arvind1983born@gmail.com
AAPNE KHUB KIRDARO KO JODA HE
AUR AAP PEHLE WOH INSAAN HE JO EK KACCHE KO LEKAR EK LEKH RACHA HE
KABILE TARIF HE MUJE PADHKAR BHUT HI MAJA AAYA
BAS ITNA HI KEHNA CHATA HUNKI KHUB LIKHA LIKHA HE AAPNE
--
ARVIND SHARMA
ha ha ha...Holi huddaang ki mazedaar peshkash!
Saadar
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
क्या कच्छा कच्छा करते हो
क्यूँ कच्छे पर यूँ मरते हो
व्यंग्य.... तो बहत धांसू है...मज़ा आ गया.... पर कछ्छा का कौन सा ब्रैंड बताऊँ? ऐसा कछ्छा लीजिये... जिसे... पहन कर आप दिखा सकें.... कि आपने कौन सा कछ्छा पहना है... ?
कच्छा कौन-सा अच्छा है? प्रश्न बड़ा ही सच्चा है. इस मामले में भीली किस्म की हीरोइने मदद कर सकती है. सुना है कि उनके कच्छे बड़े अच्छे-अच्छे होते हैं कलरफुल,...मुलायम... कई दिनों तक चलने वाले भी. मुंबई में अपना कोई बिंदास बन्दा हो तो उसे काम पर लगा दे. कसम से, मामला जम जाएगा. जनहित में यही सुझाव दे सकता हूँ. हमारे यहाँ बालीवुड़ी कच्छे आते रहते है. कुछ ब्लोगर पहन रहे है. मई तो लंगोट पहनता हूँ, इसलिए कह नहीं सकता कि कौन-सा कच्छा ठीक होगे. बेहतर हो कि आप हमारे अभनपुर वाले अनुज से संपर्क कर ले. वे कच्छा विशेषग्य है.
कच्छा तो हमेशा रूपा का ही लें ..पूछिए क्यों ....
जाने कितने लोगों ने लिया है मगर रूपा के कच्छे का स्टाक खत्म नहीं होता ..
दूसरा ये कि रूपा भी बुरा नहीं मानती ...:) :) :) :) :) :) :)
अजय कुमार झा
बहुत सुंदर!
जम के होली का आनंद लिया है। बहुतों को घसीटा है।
राजीव जी निसंदेह बहुत सुंदर हास्य परोसा है आपने ..आपकी यह तोल मोल और कच्छा ठीक करने की कहानी बढ़िया लगी....हँसते हँसते लोट पोत कर देने वाली भाषा का प्रवाह है.. बहुत बढ़िया पता है राजीव जी जब कभी थोड़ा सा भी फ्री होता हूँ आपकी इसी तरह पुरानी पोस्टों के बीच में आ जाता हूँ मन प्रसन्न हो जाता है.....ऐसी हास्य की बेहतरीन प्रस्तुति के लिए धन्यवाद राजीव जी..साथ ही साथ होली की भी अग्रिम शुभकामना..
ji maine aapki ye rachna padhi bahut hi Dilchasp or majedar thi wakaee maza aa gaya ..... jahan tak sawal hai kachchha ke chunaw ka to Sabse pahle mai ye kahna chahunga ke kachchha to aajkal sirf Dikhane ke liye hi pahena jata hai unchi brand... Par sayad log ye bhul jate hain ke ke jis maryada ko bachane ke liye kachchhe ka eestemaal kiya jata hai wo toh bachti hi nahi hai ... Kachchha kya hai laxman dwara khichi huee Wo rekha jiske andar Sita suraxit Raheti hai jab Sita khud laxman rekha par kar jaegi to Rawan to haran karega hi......Atah meri ray mein Kachchha chae jo bhi ho bas kachchha pahne wale achchhe hone chahiye...kya fark padta hai agar kachchha pahene hi nahin par jise chhupane ke liye kachchhe ka upyog kartein hain bas use chhupane ki jarurat hi na ho ....humare desh me naanga Baba log to bilkul kachchha nahiun pahante to kya hua unhe to kachchha ki jarurat padti nahi... to niyat saf rakho kachchha chahe jo bhi ho Jatao nahi Bas pahno aur apni garima banae rakho........Dhanyawad....
“उनमें से दो सुसरे तो पहनते-पहनते इतने मटमैले हो गए हैं कि उन्हें पहनने तो क्या सूंघने तक का मन नहीं करता"…
राजीव भाई गज़ब किये हो कच्छा सूंघना भी एक रिवाज़ है.?
हा हा हा
गज़ब किये हैं जी ऐसा वाला ले आइये जो कोई सरे बाज़ार ..........उतार न पाए
हे हे ही ही हूँ हूँ हूँ
प्लेब्ऑय का सही रहेगा। मजबूत भी और स्टाइलिश भी।..
क्यों खड़े खड़े दफा ३०२ में फंसना चाहते हैं राजीव सर??? हंसा हंसा के जान ले रहे हैं लोगों की.. :)
आप जाकर कलकत्ता के गुदरी गली में बैठ जाइए.
होली में कैसे कैसे रंग लगा रहे हैं आप.
पलास्टीक और लोहे के कच्छॆ भिजवाये है आपको
उपयोग करिये और अपने ब्लोग पर उनका प्रचार भी करिये
प्रचार इस तरह होना चाहिये कि सबको लगें कि इनसे उत्तम कच्छे इस दुनिया में नहीं
हमें लुधियाना ब्रांड से बड़ा ब्रांड खडा करना है
इतना बढ़िया व्यंग पहले कभी नहीं पढ़ा..
आप ने गज़ब का दिमाग पाया है..
कच्चे जैसे विषय पर सोंच पाना भी....बहुत ही बढ़िया..
लिखते रहो...
पोस्ट थोड़ी बड़ी लगी लेकिन रोचकता होने की वजह से ये कच्छा पुराण ,अच्छा लगा |
पोस्ट थोड़ी बड़ी लगी लेकिन रोचकता होने की वजह से ये कच्छा पुराण ,अच्छा लगा |
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