"उफ!...क्या किस्मत है मेरी?….स्साला...जो कोई भी आता है...बिना जाँचे-परखे ही सीधा...ठोकता है...बजाता है और अपने रस्ते चल देता है"...
"क्या हुआ तनेजा जी?"...
"अब क्या बताऊँ जायसवाल जी....जब दिन बुरे चल रहे हों तो ऊँट पे बैठने के बावजूद भी कुत्ता काट लेता है"...
"आखिर…हुआ क्या?"...
"होना क्या है?...सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए"...
"फिर भी...पता तो चले"...
"जायसवाल जी!...अपने दिल पे हाथ रख कर आप 'सच का सामना' करते हुए बिलकुल सच-सच बताएँ कि अमूमन एक दिन में हम जानबूझ कर...या फिर अनजाने में कितने पाप कर लेते होंगे?"..
"अब इस बारे में कोई एकुरेट या परफैक्ट आँकड़ा तो उपलब्ध नहीं है बाज़ार में लेकिन...फिर भी मेरे ख्याल से औसतन दस-बारह....या फिर….पन्द्रह-बीस तक तो कैसे ना कैसे कर के हो ही जाते होंगे इस भले ज़माने में"...
"तो क्या आपका जवाब लॉक किया जाए?"...
"जी!...ज़रूर…बड़े शौक से"...
"मेरा मानना है कि हमें…हमारे द्वारा किए गए पुण्यों का और पापों का फल इसी जन्म में मिलता है"...
"जी!...बिलकुल सही कहा आपने…मेरे हिसाब से तो ये अगला जन्म...ये पुनर्जन्म वगैरा सब बेफिजूल की…बेमतलब की बातें हैँ”...
“जी!…
“और मुझे पूरा यकीन है कि इन पापों या बुरे कर्मों के असर को किसी भी कीमत पर खत्म नहीं किया जा सकता"...
"जी!...मेरे ख्यालात भी कुछ-कुछ आपसे मिलते जुलते हैँ"...
"कुछ-कुछ क्यों?...पूरे क्यों नहीं?"....
नोट: दोस्तों…अपनी इस पुरानी कहानी को मैंने पूर्णतया संशोधित एवं परिष्कृत कर ‘टी.वी रूपान्तर’ या फिर ‘नाटक’ का रूप देने का प्रयास किया है| अपने इस प्रयास में मैं कितना सफल रहा हूँ?…रहा हूँ भी या नहीं?…इस बारे में कृपया अपनी अमूल्य टिप्पणियों द्वारा अवगत कराएँ … विनीत: राजीव तनेजा |
"दरअसल!…मेरा मानना है कि हमें अपने कर्मों का फल इसी जन्म में भुगतना होता है लेकिन अपने प्रयासों द्वारा हम इनके असर को थोड़ा-बहुत कम या ज़्यादा अवश्य कर सकते हैँ"...
"हम्म!…तो इन पापों या बुरे कर्मों के असर को कम करने के लिए आप क्या करते हैँ?"...
"अब ऐसे तो कुछ खास नहीं करता लेकिन कभी-कभार...हाथ जोड़ ऊपरवाले का नाम अवश्य जप लिया करता हूँ"...
"आईडिया तो अच्छा है"..
“जी!…
“लेकिन ये तो बताओ कि आखिर हुआ क्या?"...
"अगर मैँने भी यही सोच के ऐसा ही कुछ करने की सोची तो क्या कोई गुनाह किया?"...
"नहीं!...बिलकुल नहीं"..
"थैंक्स….
“किस बात के लिए?”…
“मेरी बात से सहमति जताने के लिए"…
“इट्स ओ.के…लेकिन आपको ऐसा क्यूँ लग रहा है कि आपने कुछ गलत या अवांछनीय किया?"...
"दरअसल!…हुआ क्या कि आज सुबह मैँ बड़े चाव से ये सोच के 'पार्वती' की खोली से बाहर निकला कि अपना आराम से नज़दीक के अमरूद वाले बाग में जाऊँगा और ऊपरवाले का नाम ले...भजन-कीर्तन के जरिये अपने दूषित मन को पवित्र कर इस नीरस जीवन को सफल एवं सार्थक बनाऊँगा"...
"ये तो खैर…बड़ी ही अच्छी बात है लेकिन…क्या आप खोली में रहते हैँ?"...
"अजी!..खोली में रहें मेरे दुश्मन...मैँ भला खोली में क्यों रहने लगा?"...
"लेकिन अभी-अभी तो आपने कहा कि….
“क्या?”…
“यही कि आप पार्वती की खोली से बाहर…
“तो क्या पूरा दिन उसी के अंदर…उसी की झोली में बैठ के माता का जाप करता रहता?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“और भी गम हैं जायसवाल साहब इस ज़माने में मोहब्बत के सिवा”…
“जी!…सो तो है"…
“अपना रात को गया और सुबह को चुपचाप वापिस निकल आया..क्या गलत किया?”…
“जी!…सो तो है लेकिन…..
“इसमें लेकिन की बात ही कहाँ से आ जाती है जायसवाल जी?….बहुत गरीब है बेचारी…मैं अगर कुछ ले-दे के उसका भला कर देता हूँ तो क्या गलत करता हूँ?”…..
“जी!…सो तो है लेकिन….
“दरअसल!…क्या है जायसवाल जी….आप समझिए मेरी बात को…
“जी!…
“मेरी नज़र में ये अमीर-गरीब की बातें….सब बेफालतू की…बेकार की बातें हैं कि फलाना बहुत अमीर है और ढीमकाना बहुत गरीब है….अब मुझे ही लो…किसी भी एंगल से अमीर दिखता हूँ आपको?…नहीं ना? लेकिन फिर भी ऊपरवाले की मेहर देख लो….गाड़ी-बंगला…नौकर-चाकर…क्या नहीं है मेरे पास?”…
“जी!..सो तो है लेकिन इतनी जल्दी ये सब कायापलट कैसे?”….
“कैसे…क्या?…अभी हाल-फिलहाल में ही ताज़ा-ताज़ा बाप मरा है मेरा”…
“ओह!…
“तो एक ही झटके में कुछ ना होते हुए भी सब कुछ मिल गया”…
“जी!…सो तो है लेकिन…
“अब इस पार्वती को ही देख लो…आज से पांच साल पहले उसकी तरफ ताकने तो क्या झाँकने तक का मन नहीं करता था”…
“लेकिन क्यों?”…
“क्यों?…क्या?…कुछ था ही नहीं उसके पास"…
“ओह!…
“ऊपर से कंबख्तमारी की नाक भी तो हमेशा बहती रहती थी”..
“जी!…सो तो है”…
“और अब देख लो….ये बड़ा…पाकिस्तानी फौलाद से बना…पैटन टैंक जैसा चुस्त…दुरस्त और पुष्ठ जिस्मानी सौंदर्य पाया है पट्ठी ने कि पल भर के लिए भी उसके रूप-लावण्य से नज़र हटाने को मन नहीं करता है"…
“हें…हें…हें…तो आप…खुद कौन सा किसी जांबाज़ ‘अब्दुल हामिद’ से कम हैं तनेजा जी?…अपनी दिलेरी से एक ही झटके में ऐसे कई पैटन टैंकों को तबाह कर…दुश्मन को धूल चटाते हुए आप उन्हें हांफने पर मजबूर कर देंगे"…
“तारीफ़ के लिए शुक्रिया…वैसे आपके भी सैंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं…आप जैसे तजुर्बेकारों के होते हुए मैं भला किस खेत की मूली हूँ लेकिन प्लीज़….इन्हें दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त कहिये"…
“काहे को?”…
“फिर…वो..वो वाली फीलिंग नहीं आ पाती है ना"…
“हम्म!…ये बात तो है"…
“जैसा कि मैं बता रहा था कि ऊपरवाले ने रूप-श्रृंगार की दौलत ही इतनी बक्शी है उस बावली को कि दिल खोल कर भी खुलेआम लुटाती चली जाए तो भी कभी खत्म ना हो"…
“हम्म…
“कहने का मतलब ये कि ऊपरवाले की कब?…किस पर?…कितनी मेहर हो जाए?…कुछ पता नहीं"…
“जी!…सो तो है"…
"मैँ भी बस…ऐसे ही म्यूचुअल अण्डरस्टैंडिंग के चलते हफ्ते में एक-आध बार…रात-बिरात उसकी मदद कर दिया करता हूँ"..."एक-आध बार क्यों?...रोज़-रोज़ क्यों नहीं?"..
"आप भी कमाल करते हैँ जायसवाल जी...रोज़-रोज़ भला बाहर का खाना कहीं हज़म होता है क्या हम जैसे मामूली हिन्दोस्तानी को?….हाज़मा दुरस्त रखने के लिए कई बार…कई क्या?…कई-कई बार मूंग धुली के फेन मिले छिछले पानी को भी बिना किसी छौंक के फूंक मार-मार निगलना क्या?…गटकना पड़ता है”…
“जी!…सो तो है"…
“और वैसे भी मेरा छोटा-मोटा...रडीमेड दरवाज़े-खिड़कियों का व्यापार है....कोई मिलें थोड़े ही चल रही हैँ कि मैँ दिन-रात उसी को सपोर्ट करता फिरूँ?"...
"हाँ!..पिताजी की तरह अगर मैँ भी किसी सरकारी नौकरी में ऊँचे ओहदे पर विराजमान होता तो ऐसा सोचा भी जा सकता था...अफसोस…हम पिताजी ना हुए और फिर…अब तो पिताजी भी नहीं रहे”…
“लेकिन तुम्हारी बीवी क्या इस सब के लिए ऐतराज़ नहीं करती?"...
"हे...हे...हे...हे....ऐतराज़ नहीं करती?….उसे पता चलने दूंगा...तब तो पूंछ पे बैठी मक्खी को दुलत्ती मार के फडफडाते हुए हटाएगी वो”…
“ओह!…
“कसम से….इस मामले में बड़ी आलसी है वो….पति क्या कर रहा है?..कहाँ जा रहा है?…किसके संग इश्क-मटक्का करके नैन लड़ा रहा है?…किसी भी चीज़ की उसे रत्ती भर भी खबर नहीं रहती”….
“ओह!…
“पागल की बच्ची…कम से कम अपने आँख…नाक और कान तो खुले रख"…
“जी!…सो तो है"….
"जायसवाल जी...एक रिकवैस्ट है आपसे...
“जी!…हुक्म करें"…
“बस!…जो कुछ मैंने आपसे कहा है….प्लीज़..इसे किसी और से कहिएगा नहीं"...
“कमाल करते हैं तनेजा जी आप भी….सवाल ही नहीं पैदा होता इस बात का…आप बेकार में चिंता क्यों करते हैं?”..
"आपके लिए ना सही लेकिन मेरे लिए तो चिंता की बात है ही जायसवाल जी….अगर इस सब के बारे में तनिक सी भी भनक लग गई उसको तो आपके बाप का तो कुछ जाएगा नहीं और मेरा कुछ रहेगा नहीं"….
"राजीव जी!...इतना पागल समझ रखा है क्या आपने मुझे?...जो मैँ ऐसी खासम खास बातों को सार्वजनिक तौर पर कह उन्हें सरेआम आम करता फिरूँगा?…यार-दोस्तों को नीचा दिखाने की ऐसी घटिया फितरत तो माँ कसम…अपनी कभी रही ही नहीं...हाँ..कोई दुश्मन वगैरा हो तो ऐसा सोचा भी जाए"....
"जी!….
“वैसे!…आजकल दोस्तों को दुश्मनों में बदलते भला देर कहाँ लगती है?”…
“क्क्या?”…
“हें…हें…हें….मैं तो बस ऐसे ही मजाक कर रहा था"…
“आपका ये मजाक ना किसी दिन…मेरी जान ले के रहेगा"….
“अरे!…मेरी तरफ से आप बिलकुल चिंतामुक्त हो जाईये और बेफिक्र हो के पूरी तरह अपने में मदमस्त रह कर…जो चल रहा है...जैसा चल रहा है...उसे बिना किसी बाधा या संकोच के निर्विध्न रूप से वैसा ही चलने दीजिए"..
"जी!…शुक्रिया"…
“यूँ समझिए कि आपने जो कुछ भी कहा वो मैंने कभी सुना ही नहीं"…
"थैंक यू...जायसवाल जी.....थैंक यू वैरी-वैरी मच...आपने तो बहुत बड़े बोझ से मुझे मुक्ति दिला दी"...
"दोस्त आखिर होते ही किसलिए हैँ?....एक दूसरे के राज़ छुपाने के लिए ही ना?"...
"जी!…सो तो है"…
"खैर!...आगे क्या हुआ?"...
"जैसा कि मैँ आपको बता रहा था कि ये सोच के पार्वती की खोली से निकला कि अपना आराम से नज़दीक के अमरूद वाले बाग में जाऊँगा और ऊपरवाले का नाम ले...भजन-कीर्तन कर अपने दूषित मन को पवित्र करूँगा"...
"गुड!...ये तो बहुत ही बढिया सोच मेनटेन की आपने"…
"अजी!...काहे की बढिया सोच मेनटेन की मैंने?"....
"?...?...?....?...
?...?...?...?....
?...?..?...
"निहायत ही घटिया...बेकार और एकदम वाहियात किस्म की पुट्ठी सोच निकली ये तो"...
"क्या मतलब?"....
"गया था मैँ बाग में कि वहाँ के शांत...पावन एवं पवित्र माहौल में जा के अपनी सुप्त लालसा.... ऊप्स!...सॉरी...आत्मा को झंकृत कर उसे जागृत करूँगा"...
"जी!…
"लेकिन वहाँ तो जहाँ देखो…जिधर देखो...वहीं एक दूसरे चिपका-चिपकी कर रहे मस्त जोड़ों की भरमार"...
“ओह!…
"हद हो गई बेशर्मी और नंगपने की ये तो...किसी में कोई शर्म औ हया ही नहीं बची आजकल...छी!...छी-छी"...
"क्या बताऊँ जायसवाल जी?....मेरा तो पूरा का पूरा मन ही एकदम से खराब हो…खट्टा हो चला था"...
"लेकिन इस सब से आपको भला क्या फर्क पड़ना था?...आप खुद भी तो.....
"मेरी बात और है जायसवाल जी...मेरे पास तजुर्बा है....संयम है...सोच है...समझ है...कि किस मौके पे कौन सा तीर…कहाँ?…किस पर? और कैसे छोडना है?…ये स्साले….कल के लौण्डे-लपाड़े…इन्हें क्या पता की बेर की… #$%^&%$# किधर होती है?…या फिर शालीनता किसे कहते हैं?…..
“हम्म!…ये बात तो है"…
"अपना जो भी करो...पर्दे में करो...छुप-छुप के करो....काऊच पे आराम से…आराम फरमाते हुए करो…कौन रोकता है?.. लेकिन ये क्या कि खुलेआम जफ्फी पाई और लग गए डंके की चोट पे चुम्मा-चाटी से एक दूसरे को तरबतर करने?...आखिर!…मैँ भी इनसान हूँ...मेरे भी कुछ निजी अरमान हैं जो वक्त-बेवक्त मचल उठने को बेताब हो उठते हैं"….
"हम्म!..मेरे ख्याल से उस वक्त आपको उन्हें इग्नोर कर अपने काम में मग्न हो जाना चाहिए था"….
"जायसवाल जी!...आपकी बात सौ पर्तिशत सही…जायज़ एवं एकुरेट है लेकिन अफ़सोस…ना मैं ‘नीरो' हूँ और ना ही अहमद शाह अब्दाली…इतना संवेदनशील भी मैं नहीं कि चंद हज़ार लाशों को देख ‘अशोक’ की भांति करुण विलाप कर उठूँ और इतना संवेदनहीन कि आस-पास होती हुई व्यस्क हलचलों का मुझ पर कोई असर ही ना हो"...
"जी!…सो तो है लेकिन आपको अपने जज़बातों को उभरने देने के बजाय उन पर कंट्रोल करना चाहिए था"...
"वोही तो किया"...
"गुड!...वैरी गुड...तो फिर क्या आप बिना भजन-कीर्तन किए...खाली हाथ...वापिस लौट गए?"...
"खाली हाथ वापिस लौट गए?…इतना बुज़दिल समझ रखा है क्या?...जायसवाल जी...आपने शायद…राजीव को ठीक से पहचाना नहीं...मैँने एक बार जो ठान लिया सो ठान लिया…अब भजन संग…कीर्तन करना है...तो हर हाल में करना है..भले ही सारी दुनिया...कल की इधर होती…आज उधर हो जाए"...
"गुड!...इनसान को और...हैवान को अपने उसूलों का पक्का होना ही चाहिए"...
"जी"....
"फिर क्या हुआ?"...
"फिर क्या?...मैँ बिना इधर-उधर ताके सीधा नाक की सीध में चलता चला गया"...
"गुड"...
"अजी!...काहे का गुड?...तीन बार तो मैँ पेड़ों से टकराते-टकराते बचा"...
"ओह!...ओह मॉय गॉड”…
"बस!...बहुत हो गया...अब और नहीं"...
"?...?...?...?...
?...?...?...?..
"जायसवाल जी!...मैँ किसी कमज़ोर दिल बन्दे से दोस्ती करने के बजाय चुल्लू भर पानी में डूब मरना ज्यादा पसन्द करूँगा.....आज से मेरा आपका रिश्ता खत्म"...
"?...?...?...?...
?...?...?...?...
"आज से आप अपने रस्ते और मैँ अपने रस्ते....ना आपको मेरे किसी मामले से कोई मतलब होगा और ना ही मुझे आपकी किसी बात से कोई सरोकार"...
"आखिर!…हुआ क्या है?...कुछ बताओगे भी?"...
"उफ!...मैंने आपको क्या समझा और आप क्या निकले?"...
"क्या मतलब?"...
"आप तो मेरे इन ज़रा-ज़रा से दुखों पर बार-बार ओह...आह....ओह माय गॉड कर रहे हैँ"...
"तो?"...
"जब आप पहाड़ जैसे दुखों से भरी मेरी धीर-गम्भीर दास्तान सुनेंगे तो आप तो दुमदबाते हुए...तुरंत ही कन्नी काट लेंगे"...
"नहीं!...बिलकुल नहीं...तनेजा जी!...आपको ज़रूर कोई गलतफहमी हुई है....मैँ मंझधार में साथ छोड़ने वालों में से नहीं हूँ"...
"क्या सच?"...
"ये वादा है मेरा आपसे कि...कितने भी...कैसे भी गिरे से गिरे हालात क्यों ना उत्पन्न हो जाएँ...ये जायसवाल आपका पीछा...ऊप्स..सॉरी!...साथ कभी नहीं छोड़ेगा"...
"जायसवाल जी!...भेड़ियों से भरे इस संसार में कैसे मैँ आपका विश्वास करूं कि मौका पड़ने पर आप मुझे दगा नहीं देंगे?"...
"तनेजा जी!..जब भी आपके जी में आए...आज़मा के देख लेना...ये..ये जायसवाल आपके एक इशारे पे अपनी जान न्योछावर ना कर दे तो कहना"...
"क्या सच?”…
“आप!...आप कहें तो अभी के अभी...यहीं के यहीं अपनी इहलीला समाप्त कर के दिखा दूँ?"अपना टेंटुआ पकड़..वो उसे दबाते हुए बोले...
"पागल हो गए हैं क्या आप?...मेरे होते हुए भला आप क्यों मरने लगे?...कोई अगर मरेगा...तो वो मैँ मरूँगा...आप नहीं... हे ऊपरवाले!...हे परवरदिगार...अपने जिगरी दोस्त के लिए ऐसा सोचने...ऐसे अपशब्द बोलने से पहले मेरी ये कलमुँही ज़ुबान कट के डौली बिंद्रा की झोली में क्यों ना गिर गई?"मैँ अपनी ज़बान पकड़...उसे बाहर खींचता हुआ बोला...
"छोडिये!…छोडिये तनेजा जी….सच में बाहर आ जाएगी"…
“तो आने दीजिए…इन मूक-बघिरों की बस्ती में इसका बाहर आ जाना ही बेहतर है"…
“आप भी ना बस….इतनी ज़रा सी...मामूली सी बात को दिल पे लगा बैठे हैँ….दोस्ती में ये सब तो चलता ही रहता है"...
"लेकिन...
"मायूस मत होइए...और आगे बताइए कि उसके बाद क्या हुआ?"..
"ओ.के.."मैँ अपनी नम आँखों को रुमाल से पोंछते हुए बोला
"जैसा कि मैँ बता रहा था कि तीन बार मैँ पेड़ों से टकराते-टकराते बचा...
"जी!…
"लेकिन बगल में खड़े झाड़-झंखाड़ से बच ना पाया"...
"ओह!...तो क्या चेहरे पे ये सूजन और ये खरोंचे उसी झाड़-झंखाड़ में गिरने की निशानी हैँ?"जायसवाल जी मेरे चेहरे को गौर से निहारते हुए बोले..
"जी नहीं जायसवाल जी...वहाँ तो मेरा बाल भी बांका ना हुआ...वो कहते है ना कि ...’जाको राखे साईयाँ...मार सकै ना कोय’
"जी!...एक पुरानी फिल्म का गाना भी तो है ना? ... ‘जिसका कोई नहीं...उसका तो खुदा है यारो"...
"हाँ!…खुदा है यारो"मैं गाने की अगली पंक्ति को पूर्ण करता हुआ बोला…
“ये मेरा सौभाग्य था कि मेरे वहाँ गिरने से पहले...एक जोड़ा वहाँ ऑलरैडी गिरा हुआ था और… ‘हाय!...मर गया....हाय!...मर गया’ कर दहाड़ें मार रोता हुआ....ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था"...
"चिल्ला रहा था?...मतलब!...लड़की कुछ भी...किसी भी किस्म की हाय-तौबा नहीं कर रही थी?"...
"कर क्यों नहीं रही थी?...वो बेचारी तो बस धीमे-धीमे...हौले-हौले से… ‘ऑह!...ऊह..आऊच्च....
ऑह!...ऊह..आऊच्च’ का नारा बुलन्द कर मदद के लिए पुकार रही थी"...
"गुड!...यही तो खास बात होती है लड़कियों में...ज़्यादा चूँ-चपड़ नहीं करती...शर्म और इज्ज़त उनका गहना जो होती है"...
"जी!...लेकिन वो लड़का तो अव्वल नम्बर का बेशर्म और बेहया इनसान निकला"...
"वो कैसे?"...
"मेरे गिरते ही ‘हाय!...मर गया....हाय!...मर गया’ का इस्तकबाल करना छोड़....
वो पागल का बच्चा अपनी तमाम तकलीफें और सदाचारिता भूल ...सीधा प्वाईंट पे याने के...
‘तेरी माँ की...तेरी भैण की....तेरे प्यो की’ ....पे फूँ-फाँ करता हुआ आ गया"...
"बाप रे!...फिर तो बड़ा हॉरिबल सीन होगा वो तो"...
"अजी!...हॉरिबल्ल तो तब हुआ होता जब वो मेरा चेहरा देख पाता"...
"तो क्या?"...
"जी!...इससे पहले कि वो मेरा चेहरा देख पाता...मैँने दुम दबाई और बिना आव और ताव देखे ...गिरता पड़ता सीधा नौ दो ग्यारह हो लिया"...
"गुड!...तो इसका मतलब ये चोटें…ये घाव…सब उसी भागमभाग का नतीजा हैँ?"...
"जी नहीं"...
"तो फिर?"...
"सच बताऊँ तो डर के मारे मेरी जान ही निकली जा रही थी....इसीलिए तो मैँ वहाँ से दुम दबा कर भाग लिया था"...
"ओ.के"...
"लेकिन मेरा ज़मीर मुझे वापिस बाग में खींच लाया"..
"गुड!...अच्छा किया जो आपने उनसे माफी माँग ली"...
"कमाल करते हैँ आप भी....मैँ भला क्यों माफी माँगने लगा?...माफी माँगे मेरे वो दुश्मन जो मुझ से पहले उस झाड़ी में गिरे पड़े थे"...
"तो फिर?"...
"भजन-कीर्तन के प्रति मेरा ज़ुनून मुझे वापिस बाग में लौटा लाया"...
"ओह!...
"जाते ही सबसे पहले मैँने बाग में एक सुनसान और बियाबान कोना ढूँढा कि यहाँ कोई मुझे डिस्टर्ब नहीं करेगा"...
"लेकिन आपने सुनसान और बियाबान कोना ही क्यों ढूँढा?"...
"अन्दर ही अन्दर मैँ महसूस कर रहा था कि आज मेरा मन पूरी तरह से भक्तिभाव में रम नहीं रहा है"...
"तो?”….
"मुझे डर था कि इधर-उधर की ताका-झाँकी के चक्कर में मैँ कहीं अपने पथ...अपने रस्ते से भटक ना जाऊँ"...
"तो इसी चक्कर में आपने सुनसान कोना चुना?"...
"जी!"...
"गुड!...अच्छा किया"....
"अजी!...क्या खाक अच्छा किया?"...
"ओफ्फो!...अब क्या हो गया तुम्हारे साथ?"...
"मैँ पेड़ के नीचे खड़े हो...आँखे बन्द कर...अपने में मग्न हो...श्रधा भाव से मस्त होता हुआ 'संतोषी माता' की आरती गाने लगा...
"मैँ तो आरती उतारूँ रे...जै-जै...संतोषी...
"खबरदार!...जो तूने 'आरती' उतारी...मुझ से बुरा कोई ना होगा"...की तेज़ आवाज़ सुन के मैँ चौंक उठा
?...?...?..?..
?....?...?..
"देखा तो सामने रिष्ट-पुष्ट डील-डौल लिए एक लम्बा-चौड़ा...तगड़ा सा ...पहलवान टाईप आदमी अपनी मूँछों को ताव देते हुए मेरे सामने डट कर खड़ा है"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"मैँ कौन सा डरने वाला था?...साफ-साफ खुले शब्दों में पूछ लिया कि...."क्यों भाई!...'आरती' पे तेरा कॉपीराईट है क्या?"...
"व्वो मेरी...
"हाँ-हाँ!...अगर है तो...दिखा"...
"न्नहीं!...वो तो फिलहाल नहीं है मेरे पास" वो हड़बड़ाता हुआ सा बोला...
"उसके स्वर में असमंजस देख मैँ भी चौड़ा हो गया कि…मैँ तो उतारूँगा...ज़रूर उतारूँगा 'आरती'...कर ले तुझे जो करना हो"...
"देख!...मैँ कहे देता हूँ....तू बिलकुल नहीं उतारेगा"...
"अरे!...जा-जा...तेरे जैसे छत्तीस आए और छत्तीस चले गए...देख!..अभी देख मैँ तेरे सामने कैसे आरती उतारता हूँ?...देख!...अब देख भी ना"…
"मैँ तो आरती उतारूँ रे...जै-जै...संतोषी...
"देख!...मुझे गुस्सा ना दिला....आराम से...शांति से मान जा...और 'आरती' मत उतार"....
"मैँ तो उतार के रहूँगा"...
"प्लीज़ यार!...समझा कर"....
"हुँह!...
उसके स्वर में मिमियाहट देख मैँने उसके ऊपर हावी होने की सोची और उसका माखौल उड़ा...शायरी झाड़ते हुए बोला...
"मुझे आरती उतारने से रोक सके...ये तुझ में दम नहीं...तू हम से है...हम तुम से नहीं"...
"गुड!...दुश्मन बेशक जितना मर्ज़ी ताकतवर हो...लेकिन ज़रा सा भी...तनिक सा भी कमज़ोर दिखे...तुरंत उस पे हावी हो जाना चाहिए"...
"जी!...लेकिन मेरे इतना कहते ही पता नहीं उस पागल के बच्चे को जैसे मिर्गी का दौरा पड़ गया हो.....हाँफते-हाँफते...ताबड़तोड़ मुझ पर ऐसे घूँसे बरसाने लगा मानों मैँ कोई जीता-जागता इनसान ना हो कर कोई पंचिंग बैग होऊँ"...
"ओह!...मॉय गॉड...ये तो बहुत बुरा हुआ...आखिर…कोई तो वजह रही होगी जो वो इस कदर हिंसा पर उतर आया?"...
"जी!....उस वक्त तो मैँ बेहोश हो गया था...होश में आने के बाद लोगों से पता चला कि उसकी बेटी का नाम 'आरती' है और वो उस समय उसी पेड़ के ऊपर चढ कर अमरूद चोरी कर रही थी"...
"क्या?"...
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
Delhi(India)
+919810821361
+919213766753
17 comments:
@ये बड़ा…पाकिस्तानी फौलाद से बना…पैटन टैंक जैसा चुस्त…दुरस्त और पुष्ठ जिस्मानी सौंदर्य पाया है पट्ठी ने।
गजब का सौंदर्य वर्णन है, बाकी सारे फ़ेल।
@राजीव जी!...इतना पागल समझ रखा है क्या आपने मुझे?...जो मैँ ऐसी खासम खास बातों को सार्वजनिक तौर पर कह उन्हें सरेआम आम करता फिरूँगा?…यार-दोस्तों को नीचा दिखाने की ऐसी घटिया फितरत कभी रही ही नहीं..
हम भी इतने पागल नहीं है जी, किसी को नहीं बताएगें।
@"कर क्यों नहीं रही थी?...वो बेचारी तो बस धीमे-धीमे...हौले-हौले से… ऑह! ... ऊह .. आऊच्च .... ऑह!...ऊह..आऊच्च’ का नारा बुलन्द कर मदद के लिए पुकार रही थी".
ये कौन सी पार्टी का नारा है जी, जो बुलंद हो रहा था।:)
कुल मिलाकर मित्र आपकी कहानी में कुछ पंच तो ठांय दार है। मजा आ गया कहानी पढ कर। खैर जब आपने रिसाइजिंग प्लांट लगा ही लिया तो बाकी भी चढा तो प्लेनर पर, कुछ नए आईडिया के साथ।
हद हो गई बेशर्मी और नंगपने की ये तो...किसी में कोई शर्म औ हया ही नहीं बची आजकल...छी!...छी-छी
इसीलिए हमने कभी कोई आरती नहीं उतारी :-)
naatya roopaantaran laajawaab hai. aapkee prayogdharmita ko salaam
हा हा हा ! लाजवाब आरती। शुभकामनायें।
हहहहः बड़ा गलत हुआ आपके साथ , आगे से ध्यान रखियेगा किसी को उतारने में जल्दीबाजी न करियेगा वरना ऐसे ही बरसतें ,बढ़िया लगा पढ़कर .
क्या सच में तुम हो???---मिथिलेश
उत्कृष्ट !! हो हो .. मजा आ गया. सब कुछ चलचित्र के भांति सामने घटता हुआ लगा ..
मैं भी किसी सुनसान कोने की तलाश में था !!
:)
गज़ब का लिखते हो... आरती उतारते वक्त थोडा तो सोचा करो यार.... :-) :-) :-)
वैसे इस प्रकरण का भाभी जी को पता चला कि नहीं???
हा हा!! मस्त...आनन्द आया.
एक दम जीवंत सी लगी आरती ....सार्थक अर्थपूर्ण और व्यंग्य से सरावोर
राजीव जी इस आरती को चढाया किस ने था? जो उतारनी पडी... चलिये अब आरती की आरती करे, ्लेकिन बीबी से बच कर, बहुत मस्त लगी आप की यह आरती:)
हा हा हा
बड़े धार्मिक हो रहे हैं आजकल दिल्ली के लड़के ... तलकटोरा स्टेडियम मे सुबह से शाम तक कोने कोने आरती उतारते और नाड़ा(सॉरी नारा) बुलंद करते देश की भावी तस्वीर बदलने पे लगे हैं जी ... शुक्रिया आरती उतारने का
haa haa gazab tanejaa jee
hit ho fit ho bhai
mazedar
लाजवाब आरती और खुबसूरत वर्णन ....पढ़ते -पढ़ते बुरा हाल ....हा हा हा हा ...कमेन्ट भी नहीं किया जा रहा है
इतनी लम्बी चौड़ी आरती कब ख़तम हो गई , पता ही नही चला जी .. एक साँस में पढ़ गये हम .. पहली बार आपका ब्लॉग पढ़ा .. सचमुच करार व्यंग है इस में .. समाज को आइना दिखाती .. हास्य से भरपूर .. बधाई हो आपको राजीव तनेजा जी ,, सच कहे तो हम ने आज तक केवल एक ही इन्सान का ब्लाग पढ़ा था ,, पर आज हमे लगा कि हम गलत है , हमे वक्त निकल कर ब्लाग अध्ययन करना चाहिए ... सच में लाजवाब ....
Post a Comment