अमूमन अपनी जिंदगी में हम सैकड़ों हज़ारों लोगों को उनके नाम..उनके काम..उनकी पहचान से जानते हैं। मगर क्या वे सब के सब हमारे जीवन में इतना अधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं कि उन सभी का किसी कहानी या उपन्यास में असरदार तरीके से जिक्र या समावेश किया जा सके?
मेरे ख्याल से..नहीं। ना ही ऐसा करना सही.. व्यवहारिक एवं तर्कसंगत भी होगा क्योंकि बिना ज़रूरत किसी भी कहानी में इतने अधिक किरदारों का समावेश उसे कुछ और नहीं बल्कि बस चूँ चूँ मुरब्बा ही बना देगा। मगर इसी अवधारणा को
ग़लत साबित करने का प्रयास अपनी तरफ़ से लेखक संजीव कुमार गंगवार ने अपने उपन्यास 'B- 15 B फोर्थ फ्लोर (कहानी क्रिस्चियन कॉलोनी की' के माध्यम से किया है अब इसमें वह कितने कामयाब या फिर असफल हुए हैं। इसके बारे में बात करने से पहले क्यों ना उपन्यास की कहानी..इसकी पृष्ठभूमि और गुण-दोषों की बात कर ली जाए?
इस उपन्यास में कहानी है दिल्ली के एजुकेशन हब माने जाने वाले इलाके मुखर्जी नगर और उसके आसपास बसे अधिकृत-अनाधिकृत इलाकों की और उनमें से भी एक खास इलाके, क्रिस्चियन कॉलोनी की जो कि दिल्ली यूनिवर्सिटी स्थित मौरिस नगर और विजय नगर के आसपास बसा है। इस उपन्यास में बातें हैं वहाँ के रहने वाले स्थानीय बाशिंदों और वहीं पर किराए पर रह कर upsc इत्यादि की तैयारी में जूझते युवा से अधेड़ होते सैंकड़ों अभ्यर्थियों की।
इस उपन्यास में एक तरफ़ जहाँ जगह जगह कुकुरमुत्तों के माफ़िक उगते प्रॉपर्टी डीलर नज़र आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ किराएदारों को ले कर मकान मालिकों के मनमाना अक्खड़ रवैया भी परिलक्षित होता है। कहीं इसमें घरेलू नौकरानियों के बढ़ते शोषण के मद्देनज़र प्लेसमेंट एजेंसीज़ के गोरखधंधे की बात दृष्टिगोचर होती दिखाई देती है। तो कहीं इसमें लार से भरे मुँह द्वारा हास्यास्पद तरीके से गुटका खाने के सही तरीके को बताने के साथ साथ गुटखे के नामों एवं प्रकारों के आधार पर कुछ लोगों का नामकरण होता दिखाई देता है।
कहीं इसमें upsc रिज़ल्ट्स के ओपन होने के बाद की उत्सुकता.. उत्कंठा..हताशा दिखाई देती है। तो कहीं कुछ लोग डंके की चोट में स्वघोषित शैली में अग्रिम खुद के फेल होने की घोषणा करते दिखाई देते हैं। कहीं इसमें परीक्षा परिणामों के घोषित होने में निरंतर होती सालों साल की देरी युवाओं में फ्रस्ट्रेशन..असंतोष और कुंठा पैदा करती दिखाई देती है। तो कहीं गमगीन पलों को भी हँसी ठट्ठे में धुआँ उड़ाते युवा दिखाई देते हैं।
इस उपन्यास में अगर कहीं कोई क्रिकेट का इस कदर दीवाना होता दिखाई देता है कि किसी खिलाड़ी की रिटायरमेंट को ले कर आपस में शर्त तक लगाने को तैयार रहता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी उपन्यास में कहीं कोई चोरी छुपे तो कोई खुलेआम अपनी अब तक की असफलताओं से निराश हो जगह जगह अपनी जन्मपत्री ज्योतिषी से बंचवाता फिरता है। इसी उपन्यास की कहानी में कहीं किसी को नारदमुनि बन बस इधर की उधर लगाने..याने के मुखबिरी करने में ही मज़ा आता है।
इसी उपन्यास में कहीं पीने के साफ़ पानी की किल्लत से हर कोई त्रस्त नज़र आता है। तो कहीं कोई टिफ़िन सर्विस वालों द्वारा प्रदान किए जा रहे घटिया खाने से परेशान दिखाई देता है। कहीं इसमें मकान मालिक किराया बढ़ाने को ले कर झिकझिक करता दिखाई देता है तो कहीं इस बात को ले कर रोष उमड़ता दिखाई देता है कि किराए पर कमरा देने के मामले में मकान मालिक, नार्थ ईस्ट के अभ्यर्थियों को ज़्यादा तरजीह देते हैं।
इसी उपन्यास में कहीं बरसों तलक परीक्षाओं में असफल रहने वाले अधेड़ हो चुके युवा अपने गांव..घर और आस पड़ोस के लोगों के तानों से परेशान और व्यथित दिखाई देते है। तो कहीं वही सब एक दूसरे को सांत्वना देते..उनके संबल बनते..हिम्मत ना हारने की प्रेरणा देते दिखाई देते हैं।
कहीं इसमें दिल्ली की पहली बारिश के बहाने से जगह जगह होते जलभराव और सरकारों की अकर्मण्यता पर कटाक्ष नज़र आता है। तो कहीं इसमें पर्यावरणीय मसलों को ले कर होने वाले सम्मेलनों की सार्थकता पर सवाल उठता दिखाई देता है। कहीं इसमें देश की हर समस्या के मूल में निरंतर बढ़ती जनसंख्या पर चिंता जताई जाती है। तो कहीं इसी उपन्यास में भारत पाक संबन्धों में नई सुगबुगाहट अभ्यर्थियों में बेचैनी भरती नज़र आती है कि अब नए सिरे से उन्हें भारत पाक संबंधों से संबंधित सभी अव्ययों को भी आने वाली परीक्षाओं के मद्देनज़र पढ़ना होगा।
इसी उपन्यास में कहीं सरकारी लालफीताशाही के चलते निरंतर परीक्षाओं में होते विलंब और उससे युवाओं में उत्पन्न होती हताशा की बात की गई है।
कहीं इस उपन्यास में UPSC में पारदर्शिता की कमी की बात की गयी है तो कहीं इसमें अचानक जोड़ दी गयी C-SAT की परीक्षा से चिंतित और बौखलाए हुए हिंदी पट्टी के अभ्यर्थी नज़र आते हैं।
कहीं इसमें पात्रों के बजाय लेखक खुद सीधे सीधे देश की व्यवस्था(?) के प्रति अपने मन की भड़ास निकालता नज़र आता है।
इसी उपन्यास में कहीं मूक जानवरों के प्रति प्रेम उमड़ता दिखाई देता है तो कहीं दिल्ली के सुप्रसिध्द निर्भया कांड में लिप्त अपराधियों के प्रति जनमानस में रोष..चिंता..हताश और आक्रोश उत्पन्न होता दिखाई देता है।
तबियत से बिखरे बेतरतीब चरित्रों से लैस इस उपन्यास में कहीं-कहीं व्यंग्य की हल्की झलक या सुगबुगाहट दिखाई देती है जो 300 पेजों के इस बड़े उपन्यास में कहीं कहीं राहत के छींटों के रूप में मुस्कुराहट के पल ले कर आती है। पढ़ते वक्त अनेकों जगह पर लगा कि पाठकों के सब्र का इम्तिहान लेते हुए लेखक उनसे अपनी यादाश्त..अपनी स्मृति का लोहा मनवाना चाहता है कि कितनी गलियां.. कितने चौराहे..कितने मोहल्ले..कितने मकान..कितनी सड़कें..कितने दुकानदार..कितने रेहड़ी पटरी वाले..कितने फ्लोर..कितने मकान मालिक..कितने पड़ोसी..कितने यार-दोस्त..कितने किराएदार इत्यादि सब का सब उसे याद है।
पेज नंबर 72 पर लिखा दिखाई दिया कि..
" वैसे उनका रिकॉर्ड बेहद शानदार व गौरवशाली है लेकिन अपने समदर्शी व्यक्तित्व के चलते कभी-कभी 'कचरा' (या उनके शब्दों में सुंदर लड़की) भी उठा लाते हैं।"
यहाँ किसी लड़की या महिला के लिए 'कचरा' शब्द का इस्तेमाल करना बतौर लेखक एवं पाठक मुझे सही नहीं लगा।
किसी भी उपन्यास में हर बात का..घटना का वर्णन कहानी को आगे बढ़ाने में अगर उपयुक्त साबित हो..तभी उसकी सार्थकता है। महज़ हँसी ठट्ठे के लिए पेज काले करना किसी भी परिस्थिति में तर्कसंगत या जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।
भले ही रोचकता बढ़ाने के लिहाज़ से लेखक ने कुछ जगहों पर कुछ मनोरंजक घटनाओं को जोड़ने का अपनी तरफ़ से प्रयास किया है लेकिन कहानी की थीम या कॉन्टैक्स्ट के हिसाब से उनका अप्रासंगिक होना थोड़ी उकताहट पैदा करता है।
इस किताब में एक दो नहीं बल्कि अनेकों ऐसे उदाहरण देखने को मिले जिनका किताब में खामख्वाह के पेज भरने के अलावा और कोई मतलब नहीं था। उदाहरण के तौर पर पृष्ठ नंबर 211 पर लिखा दिखाई दिया कि..
[" मारू अपनी टेबल के सामने रखी हुई कुर्सी पर बैठा हुआ अपने अध्ययन कार्य में व्यस्त है। वह पूरी एकाग्रचित्तता के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था का अध्ययन कर रहा है। अचानक दीवार पर एक मकड़ी आ गई है। मारू उसकी तरफ देखता भर है और चुपचाप पढ़ने लगता है। मकड़ी धीरे-धीरे टेबल के पास वाले दीवार के भाग की ओर आ जाती है। मारू अपने पैन से दीवार को खटखटा देता है। मकड़ी भाग जाती है। थोड़ी देर बाद मकड़ी फिर उसी जगह पर वापस आ जाती है। वह एक बार फिर दीवार को खटखटा देता है। मकड़ी फिर भाग जाती है। थोड़ी देर बाद मकड़ी वापस उसी जगह की और आने लगती है। मारु बेचैन हो जाता है। वह फिर से मकड़ी को भगा देता है।"]
अभी गनीमत ये समझिए कि 3 पैराग्राफ़ के इस मकड़ी प्रसंग का सिर्फ एक तिहाई हिस्सा ही मैंने यहाँ दिया है जबकि पूरा का पूरा चैप्टर ही मकड़ियों और चींटियों की बस बात कहता है।
इसी तरह पेज नंबर 169 पर लिखा दिखाई दिया कि..
["हालात तो यह है कि संसार के सबसे युवा देश के युवाओं की स्थिति सोचनीय हो चुकी है।"]
यहाँ 'हालात' के बजाय 'हालत' आएगा और 'सोचनीय' के बजाय 'शोचनीय'।
बेशक काल्पनिक और नाटकीय ही सही मगर पूरे उपन्यास के तंत या सार के रूप में सपने में देखा गया कोर्ट रूम ड्रामा प्रभावित करता है जिसमें एक तरह से पूरे उपन्यास की कहानी..उसका मर्म समाहित है।
अमूमन कोई भी लेखक अपने लेखन के मोह में इस कदर ग्रस्त होता है कि उसे लगने लगता है कि जो उसने लिख दिया..वही 'ब्रह्म वाक्य' हो गया..वही कालजयी हो गया लेकिन यकीन मानिए अपने लेखन पर आँखें मूंद कर यकीन करना ही हम लेखकों को सफल नहीं होने दे रहा। किसी भी सफल लेखक में लेखक से पहले एक निर्दयी संपादक का होना बेहद ज़रूरी है जो अपने ही लिखे को बार बार काट छाँट कर संपादित करने के बाद ही उसे पाठकों के समक्ष रखे।
बतौर सजग पाठक एवं खुद के एक लेखक होने के नाते मेरा यह मानना है कि इस 300 पृष्ठीय उपन्यास का फिर से संपादन होना बेहद ज़रूरी है। अगर अनावश्यक घटनाओं..चरित्रों एवं बार बार रिपीट होने वाली बातों को अगर इस उपन्यास से हटा दिया जाए तो मूल कहानी को आराम से एक अच्छे पठनीय उपन्यास के रूप में लगभग 150-170 पृष्ठों में आसानी से समेटा जा सकता है।
उम्मीद है कि मेरी बात को अन्यथा ना लेते हुए लेखक दिए गए सुझावों को उपन्यास के आगामी संस्करणों तथा आने वाली नयी किताबों की रचना प्रक्रिया के दौरान अम्ल में लाएँगे।
हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 300 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है साहित्य संचय ने और इसका मूल्य रखा गया है 330/- रुपए जो कि कंटैंट को देखते हुए मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
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