कई बार बड़े नाम..बड़े कैनवस वाली फिल्में भी अपने भीतर तमाम ज़रूरी..गैरज़रूरी मसालों के सही अनुपात में मौजूद होने के बावजूद भी महज़ इस वजह से बॉक्सऑफिस पर औंधे मुँह धराशायी हो ..धड़ाम गिर पड़ती हैं कि उनकी एडिटिंग..याने के संपादन सही से नहीं किया गया। मगर फ़ौरी तौर पर इसका खामियाज़ा इसे बनाने वालों या इनमें काम करने वालों के बजाय उन अतिउत्साही दर्शकों को उठाना पड़ता है जिन्होंने बड़ा नाम या बैनर देख कर अपने हज़ारों..लाखों रुपए, जो कुल मिला कर करोड़ों की गिनती में बैठते हैं, उस कमज़ोर फ़िल्म पर पूज या वार दिए। कमोबेश ऐसा ही कुछ कई बार किताबों के साथ भी होता है जिनमें लेखक के बड़े नाम के साथ साथ उनका कंटैंट भी एकदम बढ़िया होता है मगर...
हिंदी पट्टी में एक तय प्रोसीजर या रूटीन के तहत होता यह है कि लेखक अपने हिसाब से एकदम सही सही लिख कर उसे पांडुलिपि के रूप में प्रकाशक को भेज देता है। उसके बाद प्रकाशक उसे किताब की सॉफ्टकॉपी के रूप में ढाल पुनः लेखक/लेखिका के पास प्रूफरीडिंग या फाइनल चैकिंग के लिए पीडीएफ कॉपी के रूप में भेज देता है। लेखक के एप्रूव करने के बाद किताब फाइनली छपने के लिए जाती है। ऐसे में किताब में छपने के बाद कमियां निकल आने पर सवाल उठता है कि इस कोताही या ग़लती का ठीकरा लेखक या प्रकाशक.. किसके सर?
खैर..ये सब बातें तो फिर कभी। फिलहाल दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित लेखिका उषाकिरण खान जी के कहानी संकलन 'गीली पाँक' की। विशिष्ट भाषा शैली और कथ्य को ले कर लिखी गयी इस संकलन की कहानियाँ कभी चौंकाती हैं तो कभी विस्मित करती हैं। इन कहानियों में कहीं पुरातत्ववेत्ता अजय विश्वास के यहाँ दैनिक मज़दूरी की एवज में खुदाई कर रहा अनपढ़..गंवार हनीफ नज़र आता है जो काम करते करते कई ऐतिहासिक तथ्यों एवं शब्दावलियों का अच्छा जानकार हो गया है। वह हनीफ, जिसे खूबसूरत.. गोरी चिट्टी जैनब से ब्याह करना है। मगर ब्याह से पहले उसे जैनब के लिए एक अदद घर और चंद गहने भी चाहिए जिनका जुगाड़ उसकी दैनिक मज़दूरी से कतई संभव नहीं।
ऐसे में खुदाई से सही सलामत..साबुत निकलने वाली कीमती मूर्तियों को ज़्यादा पैसों के लालच में बाहर बेचने के चक्कर में वह डॉ. विश्वास से विश्वासघात तो कर बैठता है मगर...
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में चिता पर लेटी माँ को शमशान ले जाने की तैयारी में जुटे परिवार के बीच फ्लैशबैक के ज़रिए पुरानी यादों..पुरानी बातों को फिर से जिया जा रहा है। जिसमें इस घर में माँ के ब्याह कर आने से ले कर अब तक के समय को याद किया गया है।
कहीं इस कहानी में ताने मारते रिश्तेदार नज़र आते हैं तो कहीं बढ़ती उम्र के साथ भूलने की बीमारी से ग्रस्त हो रही माँ। कहीं इसमें मध्यमवर्गीय पिता की बेटियों के ब्याह को ले कर चिंता दिखाई देती है तो कहीं इसमें बेमेल रिश्ते के बाद नखरीले पति के पत्नी को त्यागने की बात नज़र आती है। कहीं इन्हीं सब बातों से व्यथित पत्नी की मनोदशा परिलक्षित होती है।
भूत और वर्तमान के बीच डोलती गांव देहात की एक अन्य कहानी में बातें हैं उस गोरी छरहरी सगुनी की जिसने पहले पति के रूखेपन और सास के तानों के बीच पेट में ही बच्चा खो दिया था। इस बातें है उस सगुनी की, जिसका पति द्वारा त्यागने के बाद फिर से ब्याह किया तो गया मगर चालाक भाभी के चलते वो, वहाँ भी बस ना पायी।
इसमें बातें हैं स्नेहमयी माँ और प्यारे भाई भाभी के साथ घर में रह ईंट भट्ठे की नौकरी कर रही उस सगुनी की, जिसके मधुर स्मृति स्वरूप किन्हीं खूबसूरत क्षणों में अपने मालिक के शहर में रह कर वकालत की पढ़ाई कर रहे बेटे, करन से संबंध बन जाते हैं जो प्रौढ़ावस्था में भी उसकी यादों में बने रहते हैं।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में सरकारी दफ़्तर के राजभाषा विभाग में काम कर रही 35 वर्षीया कामिनी की उसके छात्रावास से अचानक निकाल दिया जाता है तो दोस्तों की मदद से उसे कुछ ही महीनों बाद रिटायर होने वाले पिता समान भाई जी के यहाँ शरणस्थली मिलती है तो वह भी दिल से उन्हें अपना मान लेती है।
गांव देहात से जुड़ी इस संकलन की कहानियों में कहीं बाढ़ की विभीषिका के बीच मंगल बहु और देवी माँ फँस जाती हैं। तो कहीं किसी अन्य कहानी में दूरदराज के इलाके में बतौर ओवरसियर नियुक्ति पर पहली नौकरी के दौरान आया युवक बाढ़ से जलमग्न हुए गाँव से खुद पलायन करने के बजाय गाँव वालों की मदद करने का निर्णय लेता है और इस चक्कर में सबको गाँव से सुरक्षित बाहर निकलने के प्रयास में अंत में खुद गाँव की ही एक युवती अड़हुल के साथ अकेला बच जाता है। अड़हुल के साथ उस रात पनपे शारिरिक संबंध के बाद भावुक हो वह उसी के साथ जीने मरने की बातें सोचने लगता है। मगर होनी में तो कुछ और ही लिखा है।
इसी संकलन की राजनीतिक उठापटक से जूझती एक अन्य एक कहानी में चुनाव हारने के बाद हमेशा हमेशा के लिए राजनीति छोड़ वापिस जा रही नेत्री की ट्रेन के सफ़र के दौरान संयोग से जिस सहयात्री से मुलाकात होती है, वह राजनीति में उसका वरिष्ठ होने के साथ साथ उसका घुर विरोधी भी है। कहानी अपने सफ़र के दौरान अंग्रेजों के दमन चक्र से ले कर अंधे प्रेम, विश्वासघात, छल, प्रपंच इत्यादि गलियारों से होती हुई घूस, भ्र्ष्टाचार वगैरह के प्लेटफॉर्म याने के पड़ावों पर रुक कर अंततः अपने मुकाम तक पहुँचती है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में पंचायत के समक्ष शहर से गाँव आ कर बसे सुंदर बाबू के ग़लत चालचलन का मुक़दमा आता है। जिसमें बतौर गवाह रूकिया का नाम है। क्या रूकिया दबंगों के डर से उस सज्जन पुरुष सुंदर बाबू के ख़िलाफ़ गवाही दे देगी, जिनके उसके तथा गाँव वालों के ऊपर पहले से ही बड़े एहसान हैं?
कुछ कहानियों में स्थानीय/क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का इस्तेमाल जहाँ एक तरफ़ कहानी को खूबसूरती प्रदान करता है तो वहीं दूसरी तरफ़ उस भाषा को ना जानने वालों को इससे दुविधा भी होती है। बेहतर यही होता कि ऐसे शब्दों या वाक्यों के हिंदी अनुवाद भी साथ में ही दिए जाते।
बहुत से शब्द टाइप करते वक्त फ्लो में गलत टाइप हो जाते हैं जिन्हें प्रूफरीडिंग के समय सुधारा जाना बेहद ज़रूरी होता है। मगर इस कहानी संकलन में इस तरह की अनेकों ग़लतियाँ दिखाई दी जिनमें छपना कुछ चाहिए था मगर छप कुछ गया। उदाहरण के तौर पर..
•पेज नंबर 17 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"तक तो वह नहीं पहनती है, फिर कौन सी पहनूँ?"
इसे इस तरह होना चाहिए था..
"तब तो वह नहीं पहननी है, फिर कौन सी पहनूँ?"
*इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..
"अच्दा? हम छुट्टी में तो गए ही नहीं? अबूझ सी कह उठती।
यहाँ 'अच्दा?' की जगह 'अच्छा?' होना चाहिए था। मेरे हिसाब से 'अच्दा' कोई शब्द नहीं है।
*इसी तरह पेज नंबर 20 पर लिखा दिखाई दिया कि..
*"अम्मा बताती थी कि जब उन्होंने घर में कदम रखा तो इतने सारे काले लोगों को एक साथ कर हुई थी।"
यह वाक्य अधूरा छपा है इसलिए अपनी बात को सही से ज़ाहिर नहीं कर पा रहा है। इसे इस प्रकार होना चाहिए...
"अम्मा बताती थी कि जब उन्होंने घर में कदम रखा तो इतने सारे काले लोगों को एक साथ देख कर हैरान हुई थी।"
*इसके आगे पेज नंबर 21 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"पिता 'डीच ऑफ ट्रस्ट'का केस लड़ रहे थे।"
जबकि यहाँ होना चाहिए था कि..'ब्रीच ऑफ ट्रस्ट' का केस लड़ रहे थे।' याने के विश्वासघात का केस लड़ रहे थे।
*और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 26 पर एक जगह बिना किसी जरूरत पूरा का पूरा एक वाक्य फिर से रिपीट होता दिखा।
*इसी तरह पेज नंबर 30 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'अम्मा को खूब समझाया था "मैं तो छोटी डॉक्टर हूँ जिसने बाबूजी तुम्हें दिखवा रहे हैं वह सब मेरे टीचर रह चुके हैं।"
यहाँ 'जिसने बाबूजी तुम्हें दिखवा रहे हैं' के बजाय 'जिनसे बाबूजी तुम्हें दिखवा रहे हैं' होना चाहिए।
*इसके अतिरिक्त पेज नम्बर 40 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..
'शून्य आकाश में रही।'
इस वाक्य को कहानी के हिसाब से इस तरह होना चाहिए था कि..
'शून्य आकाश में तकती रही।'
*इसके अतिरिक्त पेज नंबर 90 पर लिखा दिखाई दिया कि..
" विगत दस वर्ष बेतरह व्यस्त थी। अब कुछ दिन या फिर चाहूं तो आजीवन मुक्त निबंध हूं।"
यहाँ 'अब कुछ दिन या फिर चाहूँ तो..' की जगह 'यहाँ 'अब कुछ दिन या फिर कहूँ तो..' आना चाहिए।
*इसी तरह पेज नंबर 93 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"नहीं दीदी, मैं सब कुछ समय गई हूं। कुछ बाकी नहीं समझना।"
यह वाक्य भी सही नहीं बना। इसे इस प्रकार होना चाहिए।
"नहीं दीदी, मैं सब कुछ समझ गयी हूँ।"
*पेज नंबर 95 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"युवा क्रांतिकारी की सारी भंगिमाएँ मुझे मोहक लगतीं। में स्थित आंखों से सोमेंद्र की ओर ताकती रहती।"
यहाँ 'स्थित आँखों से सोमेंद्र की ओर ताकती रहती ' के बजाय 'स्थिर आँखों से सोमेंद्र की ओर ताकती रहती' आएगा।'
*पेज नंबर 100 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"केतली में पानी खैलने लगा।"
यहाँ होना चाहिए कि 'केतली में पानी खौलने लगा।'
इसके आगे इसी पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..
"क्यों ऐसे क्यों खड़ी हो चंपा, मुझ पर क्रोश है क्या?"
यह वाक्य भी सही से नहीं बना। इसे इस प्रकार होना चाहिए..
"क्यों ऐसे खड़ी हो चंपा? मुझ पर क्रोध है क्या?"
*पेज नंबर 110 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"मैं उदास हूँ अवश्य पर सोचने की क्षमा रखती हूँ।"
यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था.."मैं उदास अवश्य हूँ पर सोचने की क्षमता रखती हूँ।"
*पेज नंबर 120 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"अस्पताल नाम मात्र का था। न पक्की छत, न दीवारें। कोई ऐवरेटस भी नहीं।"
यहाँ 'ऐवरेटस" का मतलब मुझे समझ में नहीं आया। हाँ.. अगर यह 'एस्बेस्टस' शब्द अर्थात सीमेंट की चद्दर है तो फिर भी वाक्य के हिसाब से इसका मतलब बन सकता है।
*पेज नंबर 123 की अंतिम पंक्ति से चल कर अगले पेज की शुरुआती पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
"ओस की बूंद से प्याज बुझाई जा रही है।"
जबकि यहाँ वाक्य का मंतव्य प्यास बुझाने से है।
*एक आध जगह कहानी के किरदारों के साथ भाषा मैच नहीं हुई जैसे कि पेज नंबर 74 पर लिखा दिखाई दिया कि..
"अब ज्यादा लेक्चर न झाड़ो। चुपचाप बैठी रहा। सुबह होने में देर नहीं है।"
कहानी के माहौल के हिसाब से यह गांव की अनपढ़ औरतों के बीच संवाद चल रहा है। इस हिसाब से यहाँ 'लेक्चर' जैसे अंग्रेज़ी शब्द का इस्तेमाल सही नहीं है।
काफ़ी जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियाँ दिखाई दी जैसे...
*सोतची- सोचती
*पहल- पहन
*निवाज- रिवाज़
*उम्मा- अम्मा
*काई- कोई
*नाराजगी- नाराज़गी
*मुसकराता- मुस्कुराता
*बलवाया- बुलवाया
*हपने- पहने
*शक्द- शब्द
*हब- सब
*बल्कुल- बिल्कुल
*शुन्य- शून्य
*आबरसियर- ओवरसियर
*दरगा- दरगाह
*पुच- चुप
*हिफ्राक्रीट- हिपोक्रेट
*तिरस्कूता- तिरस्कृत
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के आगे आने वाले संस्करणों में इस तरह की कमियों को दूर कर लिया जाएगा। 136 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लिखिक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
1 comments:
किताब के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख। सच में किताब के सम्पादन में ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए लेकिन कई बार बड़े बड़े प्रकाशक भी ऐसी गलतियाँ कर बैठते हैं।
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