शुद्धि - वन्दना यादव

कहते हैं कि सिर्फ़ आत्मा अजर..अमर है। इसके अलावा पेड़-पौधे,जीव-जंतु से ले कर हर चीज़ नश्वर है। सृष्टि इसी प्रकार चलती आयी है और चलती रहेगी। जिसने जन्म लिया है..वक्त आने पर उसने नष्ट अवश्य होना है। हम मनुष्य भी इसके अपवाद नहीं लेकिन जहाँ एक तरफ़ जीव-जंतुओं की मृत देह को कीड़े-मकोड़ों एवं बैक्टीरिया इत्यादि द्वारा आहिस्ता-आहिस्ता खा-पचा उनके वजूद को खत्म कर दिया जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़  स्वयं के तथाकथित सभ्य होने का दावा करने वाले मनुष्य ने अपनी-अपनी मान्यता एवं तौर-तरीके के हिसाब से मृत देह को निबटाने के लिए ज़मीन में दफ़नाने, ताबूत में बंद कर मिट्टी में दबाने, मीनार जैसी ऊँची छत पर कीड़े-मकोड़ों और पक्षियों की ख़ुराक बनाने    या जला कर सम्मानित तरीके से निबटाने के विभिन्न तरीके अपना लिए। 

सनातन धर्म की मान्यता अनुसार आत्मा फ़िर से जन्म ले किसी नई योनि..किसी नए शरीर को प्राप्त करती है मगर इससे पहले वह तेरह दिनों तक उसी घर में विचरती रहती है। मृतक की आत्मा की शांति के लिए इन तेरह दिनों में घर में गरुड़ पूजा की जाती है। दोस्तों..आज मृत्यु और गरुड़ पूजा से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इन्हीं सब बातों से लैस एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे "शुद्धि" के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका वन्दना यादव ने। वन्दना यादव जी मोटिवेशनल स्पीकिंग एवं समाज सेवा के अतिरिक्त साहित्य के क्षेत्र में भी खासी सक्रिय हैं। 

इस उपन्यास के मूल में कहानी है राजस्थान के एक गाँव उदयरामसर में एक के बाद एक कर के हुई चार मौतों को झेल रहे एक ऐसे परिवार की जिसके दूरदराज से शोक मनाने आए रिश्तेदार भी इन एक के बाद एक हो रही मौतों की वजह से सभी रस्मों के पूरे होने तक एक साथ..एक ही छत के नीचे रहने को मजबूर हो जाते हैं। जिनमें से एक की पत्नी एवं लिव इन पार्टनर भी शामिल है। अपने-अपने व्यस्त जीवन से निकल कर सालों बाद मिल रहे इन रिश्तेदारों में एक तरफ़ मातम का दुःख है तो दूसरी तरफ़ आपस में मिलने जुलने का उल्लास भी। यही खुशी..यही उमंग..यही उल्लास तब खीज..क्रोध एवं हताशा में बदलता जाता है जब उनके वहाँ रहने का समय एक के बाद एक होने वाली मौतों की वजह से और आगे खिसकता चला जाता है। 

इसी उपन्यास में कहीं मृत्य प्राप्त कर चुके व्यक्ति के श्रद्धावश चरण छूने के लिए आयी महिलाएँ अपने हाथ में पकड़े चढ़ावे के बड़े नोट के ज़रिए अपनी संपन्नता का प्रदर्शन करती दिखाई देती हैं तो कहीं  शवयात्रा के ऊबड़ खाबड़ रास्ते में महिलाओं के नंगे पैर जाने या फ़िर आधे रास्ते से ही वापिस लौट जाने की परंपरा की बात होती दिखाई देती है। साथ ही यह उपन्यास, शवयात्रा में पुरुषों के जूते-चप्पल पहन कर और महिलाओं के नंगे पैर जाने की कुप्रथा पर सवाल उठाने के साथ-साथ मृतक के शरीर पर सोना-चाँदी रख कर जलाने के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं लेखिका अपने मुख्य किरदार, शेर सिंह के माध्यम से पंडितों द्वारा कही गयी हर बात पर आँखें मूंद कर विश्वास कर लेनी वाली जमात पर भी कटाक्ष करती नज़र आती हैं तो कहीं वे स्त्री-पुरुष के एक समान होने की बात करती नज़र आती हैं। इसी उपन्यास में कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी तेरहवीं तक उसकी पसंद के खान-पान और उसी की तरह के जीवन को जीने वाले परिवार के पुरुष सदस्य को बीकानेर से सटे उदयरामसर गाँव के अहीर समाज द्वारा 'इकोळिया' कहे जाने की बात का पता चलता है। तो कहीं खामख्वाह के आडंबरों को चलती आयी रीतों के नाम पर ढोया जाता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं किसी से जाति के नाम पर भेदभाव करने की बात दिखाई देती है तो कहीं मृत्यु के बाद निकट संबंधियों के लेनदेन पर होने वाले खर्चों को ले कर चिंताग्रस्त बड़ी बहू और बेटे में विमर्श होता दिखाई देता कि इस सबका का खर्चा वही सब क्यों करें। कहीं मर चुके पिता द्वारा छोड़ी गई संपत्ति के बंटवारे को ले कर चिखचिख होती नज़र आती है। 

इसी उपन्यास में कहीं समाप्त होने की कगार पर खड़े ऐसे रिश्तों की बात होती नजर आती है जिन्होंने वर्तमान बुजुर्ग पीढ़ी के नहीं रहने पर खुद-ब-ख़ुद समाप्त हो जाना है। तो कहीं चोरी से औरों की बातें सुनने की आदत पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी नज़दीकी के  मृत्यु जैसे समय पर भी नहीं आने के बहाने बनाने की बात की जाती नज़र आती है तो कहीं कौन-कौन नहीं आया का सारा हिसाब-किताब दिमाग़ी बहीखाते में नोट किया जाता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई महिला शमशान की तरफ़ जाते हुए कच्चे रास्ते को देख कर अपने मताधिकार की बात करती नज़र आती है कि इस बार मैं वोट उसी को दूँगी जो यहाँ तक की पक्की सड़क बनवा देगा। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई महिला वोट भी अपने-अपने पतियों की मर्ज़ी से देने की वकालत करती नज़र आती है। कहीं स्त्री-पुरुष के एक समान होने के बावजूद महिलाओं के शमशान तक जाने और अंतिम क्रियाकर्म में भाग लेने में मनाही की बात होती नज़र आती है। तो कहीं गर्मी के दिनों में मृतक के घर में तेरहवीं तक रिश्तेदारों के जमावड़ा,  किसी की चिंता का इस वजह से बॉयस बनता दिखाई देता है कि दिन-रात कूलरों और पंखों के चलने से इस बार बिजली का बिल ज़्यादा आने वाला है।

इसी उपन्यास में कहीं पिता की मूर्ति बनवाने के नाम पर तो कहीं तेरहवीं के भोज में खाने की आइटमों को ले कर तनातनी बढ़ती दिखाई देती है। तो कहीं किसी की मृत्य शैय्या पर एक के बाद एक कर के दो महिलाएँ अपनी चूड़ियाँ तोड़ती नज़र आती है। कहीं किसी की संपन्नता के आगे उसकी ग़लत बात को भी मान्यता मिलती नज़र आती है। तो कहीं किसी का बेटा अपने पिता को मुखाग्नि देने से पहले मुंडन कराने से साफ़ इनकार करता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके सगे-संबंधी इस वजह से पशोपेश में पड़े नज़र आते हैं कि जिसे उसने संपूर्ण समाज के सामने पूरे धार्मिक रीति रिवाजों से पत्नी स्वीकार किया था, उस स्त्री को पत्नी के रूप में उसने स्वयं मान्यता नहीं दी और जिसके साथ वह स्वयं भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ अपने प्राण त्याग देता है, उसे अब समाज उसकी पत्नी के रूप में मान्यता नहीं देन चाहता।

इसी उपन्यास में कहीं संजीदा विचार विमर्श तो कहीं निंदा पुराण चलता दिखाई देता है। कहीं किसी के अवैध संबंधों पर गुपचुप मंत्रणा होती नज़र आती है। तो कहीं घर का बेटा ही घर के हिसाब-किताब में हेराफेरी करता नज़र आता है। कहीं ओढ़े मुखौटों से इतर लोगों के  असली चेहरे सामने आते दिखाई देते हैं तो कहीं रिश्तों की सरेआम बखिया उधड़ती नज़र आती है।
 
व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया यह प्रभावी उपन्यास थोड़ा खिंचा हुआ एवं कहीं-कहीं स्वयं को रिपीट करता हुआ लगा। साथ ही बहुत ज़्यादा किरदारों  के जमावड़े को अपने में समेटे इस उपन्यास में उनके आपसी रिश्ते को ले कर कंफ्यूज़न हुआ। बेहतर होता कि कहानी के आरंभ या अंत में फ्लो चार्ट के ज़रिए सभी का आपसी रिश्ता स्पष्ट किया जाता। कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की छोटी छोटी कमियाँ दिखाई दीं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।

संग्रहणीय क्वालिटी के इस 200 पृष्ठीय विचारोतेजक उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारतीय ज्ञानपीठ (वाणी प्रकाशन) ने और इसका मूल्य रखा गया है 425/- रुपए जो कि मुझे आम हिंदी पाठक की जेब के हिसाब से काफ़ी ज़्यादा लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि जायज़ कीमत पर इस उपन्यास का पेपरबैक संस्करण भी उपलब्ध कराया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

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